विश्वास-प्रस्तुतिः
३७. वायु-तेजसोर् मध्यमावस्था-विशिष्टं द्रव्यं रूप–तन्-मात्रम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - वायु एवं तेज के बीच में होने वाली जो सूक्ष्मावस्था, उस अवस्था से विशिष्ट जो द्रव्य होता है, उसे रूपतन्मात्रा कहते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
तेज का उपादानकारण वायु ही है
भा० प्र० - तेज का निरूपण करते हुए कहा गया है कि वायु ही तेज का उपा- दानकारण है । ‘वायोरग्निः’ श्रुति भी वायु को अग्नि का उपादानकारण बतलाती है । किन्तु वैशेषिक विद्वान् वायु को अग्नि का उपादानकारण न मानकर वायु को अग्नि का निमित्तकारण मानते हैं तथा पार्थिव पदार्थों को अग्नि का उपादानकारण बतलाते हैं । वे कहते हैं कि प्रत्यक्षतः अग्नि पत्र, तृण और काष्ठ इत्यादि पार्थिव पदार्थों से उत्पन्न होता हुआ दिखता है । ‘वायोरग्निः’ श्रुति का तात्पर्य वायु को अग्नि का निमित्तकारण बतलाने में है । देखा भी जाता है कि पँखे अग्नि को मात्र बढाता है ।
आदि का वायु
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किन्तु विशिष्टाद्वैतियों का कहना है कि ‘वायोरग्निः’ श्रुति वायु का उपादान- कारण ही बतलाती है, निमित्तकारण नहीं; क्योंकि इस सम्पूर्ण श्रुति में उपादान- कारण का ही निरूपण किया गया है। वायु का अग्नि के प्रति उपादानत्व अनन्यथासिद्ध है । किञ्च यह नियम है कि कार्य अपने उपादानकारण में ही लीन होता है । लय का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है- ‘पृथिव्यप्सु प्रलीयते, आपस्तेजसि लीयन्ते, तेजो वायौ लीयते, वायुराकाशे लीयते ।’ अर्थात् पृथिवी का जल में लय होता है, जल का तेज में लय होता है, तेज का वायु में लय होता है और वायु का आकाश में लय होता है । इससे भी सिद्ध है कि तेज अपने उपादानकारण वायु में लीन होता हैं वायु को अग्नि का उपादानकारण न मानने पर लयक्रम से उपादानकारण का निर्देश करने वाली श्रुति से भी विरोध होगा । किञ्च विद्युत् एवं वाडवाग्नि का इन्धन पार्थिव पदार्थ न होकर जल ही देखा जाता है । यदि जल को विद्युत् और वाडवाग्नि का उपादानकारण जल को तथा काष्ठ से उत्पन्न होने वाले तेज का उपादानकारण पार्थिव पदार्थों को माना जाये तो तेज के उपादानकारण का कोई नैयत्य रह ही नहीं जायेगा, अतएव तेजस्तत्त्व का कोई एक ही उपादानकारण मानना होगा । इस प्रकार उस उपादानकारण के विषय में यह व्यवस्था होती है कि पञ्चीकरण के द्वारा काष्ठादि में मिला हुआ तेज का अंश ही स्थूल तेज का उपादान- कारण है, पार्थिव पदार्थ नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि काष्ठ इत्यादि में अग्नि पहले से ही सूक्ष्मरूप से विद्यमान रहती है । वह अपने सहकारियों को पाकर उसी प्रकार व्यक्त होती है, जिस प्रकार तप्त तैल में रहनेवाला अव्यक्त अग्नि जलादि संसर्ग आदि सहकारियों को पाकर व्यक्त हो जाता है । महर्षियों ने भी कहा है- ‘काष्ठेऽग्निरिव शेरते’ ‘दारुण्यग्निर्यथा तैलं तिले तद्वत् पुमानसौ ।’ अर्थात् जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि सूक्ष्म रूप से रहता है, उसी प्रकार देह इत्यादि जड पदार्थों के भीतर जीव निवास करते हैं । जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि तथा तिल में तैल रहता है, उसी प्रकार देह आदि जड पदार्थों में भी जीव रहता है । इन वाक्यों से काष्ठ आदि में सूक्ष्म रूप से विद्यमान अग्नि की सत्ता : सिद्ध होती है। इससे स्पष्ट होता है कि पञ्चीकरण से पूर्व
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समष्टि- सृष्टि की दशा में अग्नि का उपादानकारण वायु ही रहता है । पञ्चीकरण के पश्चात् अग्नि का उपादानकारण काष्ठादि पदार्थों में विद्यमान सूक्ष्म तेज ही है । अतएव वायु को अग्नि का उपादानकारण मानने में कोई आपत्ति नहीं है ।
मूलम्
३७. वायुतेजसोर्मध्यमावस्थाविशिष्टं द्रव्यं रूपतन्मात्रम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३८. तस्मात् तेजः ।
उष्ण-स्पर्शवत्त्व–भास्वर-रूपवत्त्वादिकं तु तेजसो लक्षणम् ।
तस्य बहिः पचनादि-हेतुत्वम् अग्नि-सूर्यात्मना ।
अन्तर् वैश्वानर-सञ्ज्ञक-जाठराग्नि-रूपेण दिवा-भीतादि-व्यतिरिक्तानां
चाक्षुष-ज्ञाने आलोकादि-रूपेण सहकारी भवति ।
शिवप्रसादः (हिं)
रूपतन्मात्रा से तेज की उत्पत्ति होती है ।
उष्णस्पर्श से युक्त होना अथवा भास्वर रूपवान् होना तेज का लक्षण है ।
तेज बाह्य अग्नि और सूर्य के रूप में बाहर रहकर पकाने का कार्य करता है । शरीर के भीतर जाठराग्निरूप से पकाने का कार्य करता है । जठराग्नि को वैश्वानराग्नि भी कहते हैं । उलूक आदि जीवों को छोड़कर, उनसे भिन्न जीवों का तेज चाक्षुष् ज्ञान प्राप्त करने में आलोक के माध्यम से सहकारी बनता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने तेज का लक्षण उष्णस्पर्शवत्त्व तथा भास्वररूपवत्व बतलाया । जिस रूप से युक्त होकर तेज स्वेतर वस्तुओं का प्रकाश करता है, उसका वह रूप भास्वर रूप कहलाता है । इसी रूप के द्वारा तेज घटादि पदार्थों का प्रकाशन करता है । यह अग्नि पकाने का कार्य करती है । वह तेज सूर्य तथा अग्नि रूप से बाहर रहकर बाह्य वस्तुओं को पकाने का कार्य करती है । जाठराग्निरूप से वह
शरीर के भीतर रहकर हमारे खाये-पिए अन्नों एवं जलों को पकाने का कारण बनती
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है । वह तेज आलोक रूप से तत् - तत् वस्तुओं का चाक्षुषज्ञान प्राप्त करने में हमारा सहायक होता है । किन्तु उल्लू आदि कुछ ऐसे जीव हैं, जिनके चाक्षुष् प्रत्यक्ष का साधक न होकर आलोक बाधक बनता है ।
मूलम्
३८. तस्मात् तेजः । उष्णस्पर्शवत्त्वभास्वररूपवत्त्वादिकं तु तेजसो लक्षणम् । तस्य बहिः पचनादिहेतुत्वम् अग्निसूर्यात्मना । अन्तर्वैश्वानरसञ्ज्ञकजाठराग्निरूपेण दिवा- भीतादिव्यतिरिक्तानां चाक्षुषज्ञाने आलोकादिरूपेण सहकारी भवति ।
वासुदेवः
वैश्वानर-संज्ञकेति । वैश्वानरो नाम शरीरान्तर्-वर्ती प्राणादि-संयोगाद् अशित-पीत-पाकादि-हेतुस् तेजो-विशेषः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३९. तच् चतुर्धा – भौमं दिव्यम् औदर्यम् आकरजं चेति ।
शिवप्रसादः (हिं)
तेज चार प्रकार का होता है-भौम, दिव्य, उदर्य तथा आकरज ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
तेज के चतुविध भेद - तेज चार प्रकार का होता है- भौम, दिव्य, उदर्य और आकरज ।
मूलम्
३९. तच्चतुर्धा – भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात् ।
(तच्चतुर्धा- भौमं दिव्यमुदर्यमाकरजं चेति ।)
विश्वास-प्रस्तुतिः
४०. तत्र पार्थिव-मात्रेन्धनं तेजो भौमम् ; तत् दीपादि ।
जल-मात्रेन्धनं दिव्यम् ; तत् सूर्यादि ।
पार्थिव-जलेन्धनम् औदर्यम्; तज् जाठरम् ।
निर्-इन्धनं तेज आकरजम्; तत् सुवर्णादि ।
सुवर्णस्य द्रव्यान्तर-संसर्गाद् उष्ण-स्पर्शाभावः ।+++(4)+++
अण्णङ्गराचार्यः
**‘सुवर्णस्ये’**ति । सुवर्णगततैजसस्पर्शस्य तदन्तर्गतपार्थिवांशस्पर्शेनाभिभूतत्वादुष्णत्वस्याग्रह इति भावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
भौम तेज दीप आदि हैं । इनका इन्धन पार्थिव वस्तुएँ होती है । सूर्य आदि दिव्य तेज हैं, इनका इन्धन केवला जल होता है । उदर्य तेज जाठराग्नि आदि हैं और इनका इन्धन पार्थिव पदार्थ तथा जल दोनों होते हैं । आकरज तेज सुवर्ण आदि हैं और इनका कोई भी इन्धन नहीं होता । सुवर्ण यद्यपि तेज है, किन्तु द्रव्यान्तर का संसर्ग होने के कारण उसके उष्णस्पर्श की उपलब्धि नहीं होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भौमतेज अग्नि है, इसका इन्धन पार्थिव पदार्थ है । दिव्यतेज सूर्य आदि हैं, इनका इन्धन जल है । उदर्य तेज जाठराग्नि है और इसका इन्धन खाए-पिए अन्न एवं जल दोनों हैं । इस प्रकार इसका इन्धन पार्थिव पदार्थ तथा जल दोनों हैं । आकरजतेज सुवर्ण एवं रजत आदि हैं । यह तेज निरिन्धन है ।
प्रश्न उठता है कि यदि सुवर्ण तैजस पदार्थ हैं तो उसका स्पर्श भी उष्ण होना चाहिए, किन्तु उसका उष्णस्पर्श क्यों नहीं होता ?
तो इसका उत्तर है कि सुर्वण में उष्णस्पर्श इसलिए नहीं होता हैं कि उसमें द्रव्यान्तर का संयोग हो गया है ।
इसलिए उसमें स्वेतर वस्तुप्रकाशक धर्मरूप भास्वर तेज भी
स्पष्ट रूप से नहीं उपलब्ध होता है।
मूलम्
४०. तत्र पार्थिवमात्रेन्धनं तेजो भौमम् ; तत् दीपादि । जलमात्रेन्धनं दिव्यम् ; तत् सूर्यादि । पार्थिवजलेन्धनम् औदर्यम्; तत् जाठरम् । निरिन्धनं तेज आकरजम्; तत् सुवर्णादि । सुवर्णस्य द्रव्यान्तरसंसर्गादुष्णस्पर्शाभावः ।
वासुदेवः
द्रव्यान्तर-संसर्गाद् इति । पञ्चीकृत-भूतारब्ध-व्यष्टि-प्रपञ्चे सुवर्णादिषु पार्थिवांशस्य प्रभूतत्वात् । तैजसत्वोक्तिस्त्व् इतरा-साधारणं स्वतः शुद्धत्वं स्फुरत्त्वादि चान्वीक्ष्य कृतेति बोध्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४१. पुनः सामान्येन प्रभा प्रभावाँश् चेति विभक्तम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
तेज को पुनः सामान्यतः दो भागों में विभक्त किया जाता है - प्रभा तेजो द्रव्य है और प्रभावान् तेजोद्रव्य है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
तेज का एक दूसरे प्रकार से भी विभाग किया जाता है—प्रभा एवं प्रभावान् ।
मूलम्
४१. पुनः सामान्येन प्रभा प्रभावाँश्चेति विभक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४२. आवरण–सद्-असद्–भावाधीन–सङ्कोच-विकासः प्रसारि-तेजो-विशेषः प्रभा ।
सा च प्रभावद्भिः सहोत्पद्यते सह नश्यति ।
द्रव्य-रूपा गुण-भूता सावयवा च ।
अनेन प्रभायाः केवल-गुणत्व-मत-निरासः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘द्रव्यरूपे’**ति । भास्वररूपवत्त्वात् प्रसरणशीलत्वाच्च प्रभा द्रव्यमेव । गुणत्वं च नियमेन पराश्रितत्वात्तस्या विवक्षितम् । केवलगुणत्वं द्रव्यभिन्नगुणत्वम् । तेजः चक्षुषो वागिन्द्रियस्य चाप्यायकम् । आपश्च मता प्राणरसनयोराप्यायिका ।
शिवप्रसादः (हिं)
प्रभा नामक तेजोद्रव्य वह है, जो आवरण के होने पर संकुचित हो जाता है तथा आवरण के नहीं रहने पर वह विकास को प्राप्त करता है । प्रभा नामक तेजोद्रव्य का स्वभाव है कि वह प्रसरण - शील होता है । प्रभा प्रभावान् वस्तुओं के साथ उत्पन्न होती है तथा उन्हीं वस्तुओं के साथ विनष्ट भी हो जाती है । प्रभा द्रव्यरूप है, वह गुण-स्वरूप है तथा अवयवों वाली है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
प्रभा संकोच - विकासशील तेजोद्रव्य है— प्रभा नामक तेजोद्रव्य आवरण से आवृत होकर संकुचित हो जाता है; जैसे- दीपक, मणि आदि की प्रभा । आवरण के हट जाने पर इसका प्रकाश बढ जाता है । प्रभावान् तेजोद्रव्य वह है, जो प्रभा का आश्रय होता है ।
जैसे— प्रदीप, मणि, सूर्य आदि प्रभा के आश्रय होने से प्रभावान् तेजोद्रव्य हैं और प्रभा उनके विशेषण रूप से रहती है ।
प्रभा अपने आश्रयभूत प्रभा- वान् द्रव्य के साथ ही उत्पन्न होती है तथा अपने आश्रयभूत प्रभावान् द्रव्य के विनष्ट होते ही विनष्ट हो जाती है ।
जैसे— दीपक की प्रभा दीपक के साथ ही उत्पन्न होती है तथा दीपक के साथ ही विनष्ट हो जाती है ।
प्रभा अपने आश्रयभूत प्रभावान् द्रव्य का अपृथक्सिद्ध विशेषण होती है ।
वह अपने आश्रयभूत प्रभावान् द्रव्य से पृथक् कभी भी नही रह सकती है ।
अतएव उसका गुणत्व भी अव्याहत है ।
वह सावयव भी है ।
गुण होते हुए भी द्रव्यत्व उसका इसलिए है कि उसमें क्रिया होती है तथा तेजोद्रव्य इसलिए है कि उसमे उष्णस्पर्श की उपलब्धि होती है ।
मूलम्
४२. आवरणसदसद्भावाधीनसङ्कोचविकासः प्रसारितेजोविशेषः प्रभा । सा च प्रभावद्भिः सहोत्पद्यते सह नश्यति । द्रव्यरूपा गुणभूता सावयवा च । अनेन प्रभायाः केवल- गुणत्वमतनिरासः ।
वासुदेवः
द्रव्य-रूपेति । प्रमाया न रूपादि-वत् केवल-गुणत्वम् । स्व्-आश्रय-भूताद् दीपाद् अन्यत्र तत्-समीपे देशे प्रभाया विद्यमानत्वात् । रूपवत्त्वाद् अपि तस्या द्रव्यत्वं सिध्यति । गुण-भूतेति । नियमेन द्रव्याश्रयत्वाद् द्रव्य्-अविशेषत्वाच् चेति भावः । एतेषु च तत्त्वेषु भागत एवोत्तरोत्तर-सृष्टिः । अन्यथा पृथिव्येक-शेष-प्रसङ्गात् । पूर्व-पूर्व-भूतानाम् उपलम्भादि-सिद्धत्वाच् च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४३. प्रभाविशिष्टं तेजः प्रभावान् ।
स चतुर्विध इति प्रतिपादितम् ।
तत् तेजः शब्द-स्पर्श-रूप-गुणवच् च ।
शिवप्रसादः (हिं)
जो तेजोद्रव्य प्रभा से विशिष्ट होता है, उसे प्रभावद् द्रव्य कहते हैं । मैं कह चुका हूँ कि प्रभावद् द्रव्य चार प्रकार का होता है। तेज में तीन गुण पाए जाते हैं – शब्द, स्पर्श तथा रूप ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
तेजोद्रव्य में तीन गुण पाये जाते हैं— शब्द, स्पर्श तथा रूप ।
मूलम्
४३. प्रभाविशिष्टं तेजः प्रभावान् । स चतुर्विध इति प्रतिपादितम् । तत्तेजः शब्दस्पर्शरूपगुणवच्च ।