०७ वायु-निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

३४. आकाशात् स्पर्श–तन्-मात्रम्
आकाश-वाय्वोर् मध्यमावस्था-विशिष्ट-द्रव्यं स्पर्श–तन्-मात्रम्

अण्णङ्गराचार्यः

**‘विशिष्टे’**ति । शान्तत्वादिविशेषविशिष्टेत्यर्थः । उद्भूतत्वविशिष्टेति वा । इदं च विशेषणं स्पर्शतन्मात्रेऽतिव्याप्तिवारणाय । तेजःप्रभृतावतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद – आकाश से स्पर्शतन्मात्रा उत्पन्न होता है । आकाश और वायु के बीच में होने वाली सूक्ष्मावस्था से विशिष्ट द्रव्य को स्पर्शतन्मात्रा कहते हैं ।

मूलम्

३४. आकाशात् स्पर्शतन्मात्रम् । आकाशवाय्वोर्मध्यमावस्थाविशिष्टद्रव्यं स्पर्श- तन्मात्रम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३५. तस्माद् वायुः ।
विशिष्ट-स्पर्शवत्त्वे सति रूप-शून्यत्वम्,
अस्मद्-आदि-स्पर्शनैकेन्द्रिय-ग्राह्य-द्रव्यत्वम्,
अन्-उष्ण+अ-शीत–विशिष्ट-स्पर्शवत्त्वे सति गन्ध-शून्यत्वम्
इत्य्-आदिकं वायोर् लक्षणम्।
तस्मिन् नाना-सलिलातप-कुसुमाद्य्-अवयव-योगाच् छीतोष्ण-सौरभादि-प्रतीतिः।
स च त्वग्-इन्द्रियाप्यायकत्वेनोपकरोति ।
तस्य शब्द-स्पर्शै गुणौ ।

अण्णङ्गराचार्यः

वायोर्लक्षणान्तरमाह **‘अस्मदादी’**ति । स्पर्शनं त्वक् । त्वगिन्द्रियमात्रग्राह्यद्रव्यत्वं वायोर्लक्षणमित्यर्थः । अस्मादादेरिति स्पष्टार्थम् । नित्यमुक्तानां व्यावृत्त्यर्थं वा । तेषां हि विषयग्रहणे नेन्द्रियनियमः । रूपशून्यत्वमित्यत्र गन्धशून्यत्वमिति पाठः स्वरसः ।

शिवप्रसादः (हिं)

स्पर्शतन्मात्रा से वायु की उत्पत्ति होती है । शान्तत्व, मूढत्व एवं घोरत्व विशिष्ट गुणों से युक्त रहकर जो रूप शून्य हो, उसे वायु कहते हैं ।
हम लोगों की केवल त्वगिन्द्रिय से ही जिसकी उपलब्धि होती हो, उसे वायु कहते हैं,
अथवा जिसका स्पर्श न तो उष्ण हो ओर न तो शीतल तथा जो रूपरहित हो,
उसे वायु कहते हैं ।
वायु का जब जल, आतप ( धूप ) तथा कुसुम आदि से संयोग होता है, तब उसके शीतत्व, उष्णत्व सुगन्धियुक्तत्व आदि का व्यपदेश होता है।
वायु हमारी त्वगिन्द्रिय को आप्यायित करके हम लोगों का उपकार करती है।

वायु में दो गुण रहते हैं— शब्द एवं स्पर्श ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

वायु का निरूपण

भा० प्र० - वायु का निरूपण करते हुए
ग्रन्थकार ने वायु के तीन लक्षणों को उपस्थापित किया है ।

[[८१]]

उस द्रव्य को वायु कहते हैं, जो शान्तत्व, घोरत्व एवं मूढत्व विशिष्ट स्पर्श गुण का आश्रय हो ।
यह परम लक्षण है।

आकाश आदि में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए स्पर्शवत्त्व विशेषण दिया गया है।
स्पर्शतन्मात्रा में अति- व्याप्ति का वारण करने के लिए स्पर्श का विशिष्टत्व विशेषण दिया गया है। स्पर्श- तन्मात्रा में सूक्ष्म स्पर्श रहता है । तेज आदि में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए रूपशून्यत्व विशेषण दिया गया है। हमलोगों का केवल त्वगिन्द्रियमात्र से ग्राह्य होना वायु का दूसरा लक्षण बतलाया गया है।

जो द्रव्य अनुष्ण एवं अशीत स्पर्शवाला होते हुए रूप रहित हो, उसे वायु कहते हैं, यह वायु का तीसरा लक्षण है ।

अब प्रश्न उठता है कि यदि वायु उष्ण एवं ठंढी नहीं होती तो ठंढी हवा चल रही है, गर्म हवा चल रही है, सुगन्धित वायु चल रही है, इत्यादि व्यवहार कैसे होते हैं ? तो इसका उत्तर यह है वायु स्वभावतः शीतत्व, उष्णत्व आदि विशेषताओं से रहित होता है । जब किसी सुगन्धित वस्तु का सम्पर्क वायु से होता है तो वायु सुगन्धित प्रतीत होता है। ठंढी वस्तु के सम्पर्क से वायु ठंढा प्रतीत होता है । घूम के आधिक्य के कारण वायु गर्म प्रतीत होता है । अतएव वायु में शैत्य, औष्ण्य तथा सौगन्ध्य आदि की प्रतीति औपाधिक है, स्वाभाविक नहीं । वायु के द्वारा हमारी त्वगिन्द्रिय आप्यायित होती है। वायु में दो गुण पाए जाते हैं— शब्द एवं स्पर्श ।

मूलम्

३५. तस्माद्वायुः । विशिष्टस्पर्शवत्त्वे सति रूपशून्यत्वम्, अस्मदादिस्पर्शनैकेन्द्रिय- ग्राह्यद्रव्यत्वम्, अनुष्णाशीतविशिष्टस्पर्शवत्त्वे सति गन्धशून्यत्वमित्यादिकं वायो- र्लक्षणम्। तस्मिन्नानासलिलातपकुसुमाद्यवयवयोगाच्छीतोष्णसौरभादिप्रतीतिः/व्यपदेशः। स च त्वगिन्द्रियाप्यायकत्वेनोपकरोति । तस्य शब्दस्पर्शै गुणौ ।

वासुदेवः

विशिष्ट-स्पर्शेति । इदं रूपादाव् अतिव्याप्ति-वारणाय । पृथिव्याम् अतिव्याप्ति-वारणाय विशेष्य-दलम् । वायु-विशेष इति । न तु वायु-मात्रम् । ‘एतस्माज् जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुर् ज्योतिर् आपः’ (मुं० २।१।३) इति सृष्टि-वाक्ये वायु-प्राणयोः सह-पाठात् । नापि वायु-क्रिया । प्राणः स्पन्दत इति प्रयोगात् । अत्र प्राण-क्रिययोर् भेदेन व्यपदेशात् । स्थावरेषु । लता-वृक्षादिषु । मूल-निषिक्त-सलिल-दोहद-पार्थिव-धातूनामभ्य्-आदानाद् इति भावः । नख-रोम-दन्त-किणादीनाम् अपि मन्द-प्राणाश्रयत्वं न्याय-तत्त्वे प्रतिपादितम् । स्पर्शन-प्रत्यक्ष इति । स्पर्शन-प्रत्यक्षे रूपवत्त्वस्य् अप्रयोजकत्वात् । एतेन पञ्चीकरण-प्रक्रियया वायौ रूप-सत्त्वे ऽपि तस्यानुद्भूतत्वान् न तत्-प्रत्यक्षम् इत्य् अपास्तम् । अत्रेदं बोध्यम् - वायोः स्वभावाद् अदृष्टात्मकेश्वर-संकल्पाद् वा स्वारसिकं तिर्यक्-प्रसरणम् । पार्थिवादि-द्रव्येण वाय्वन्तरेण वा ऽभिघात-वशाद् भ्रमणोर्ध्व-गमनादयः । ते च दूरस्थेन तृण-रज्जु-प्रभृतीनां भ्रमणोर्ध्व-गमनादिभिर् अनुमेयाः । तत्रत्येन तु स्पर्शन-ग्राह्याः । एतेन वायोर् नानात्वम् अपि सिद्धम् । अस्य च सर्वतः पार्थिव-आप्योपरोधे सति स्तम्भो भवतीति न्याय-सिद्धाञ्जने स्पष्टम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३६. तत्र शरीर-धारणादि-हेतुर् वायु-विशेषः प्राणः
स च पञ्च-प्रकारः - प्राणापानव्यानोदान-समान-भेदात्।
हृदि प्राणो, गुदेऽपानः, सर्व-शरीरगो व्यानः, कण्ठे उदानो, नाभि-देशे समान
इति नियमः ।
जङ्गमेष्व् इव स्थावरेषु च प्राण-सम्बन्धस् तुल्य एव ।
वायोः स्पार्शन-प्रत्यक्षत्वेन +अनुमेय-वाद-निरासः ।

अण्णङ्गराचार्यः

वायोर्लक्षणान्तरमाह **‘अस्मदादी’**ति । स्पर्शनं त्वक् । त्वगिन्द्रियमात्रग्राह्यद्रव्यत्वं वायोर्लक्षणमित्यर्थः । अस्मादादेरिति स्पष्टार्थम् । नित्यमुक्तानां व्यावृत्त्यर्थं वा । तेषां हि विषयग्रहणे नेन्द्रियनियमः । रूपशून्यत्वमित्यत्र गन्धशून्यत्वमिति पाठः स्वरसः ।
**‘हृदी’**ति ।

हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिसंस्थितः ।
उदानः कण्ठदेशस्थो व्यानः सवशरीरगः ॥

इत्यभियुक्ताः । प्राण प्राग्गतिः, अपानोऽधोगतिः, भुक्तपीतान्नरसादेः साम्यकृत् समानः, उदानः उत्क्रमणकारकः, व्यानः सर्वाङ्गचेष्टाहेतुः इति च वृत्तिभेदः प्राणादेर्बोध्यः । पञ्चस्वेतेष्वन्तर्गता पञ्चान्ये भेदा योगशास्त्रादौ वर्णिताः सन्ति नागकूर्मकृकलदेवदत्तधनञ्जया इति । तत्र नाग उद्गारकारकः, कूर्म उन्मीलनकरः, कृकलः क्षुत्कारकः, देवदत्तो जृम्भणकृत् । धनञ्जयः पोषणकृत् मतः । तत्र नागस्यादाने, कूर्मस्य व्याने, कृकलस्यापाने, देवदत्तस्य प्राणे, धनञ्जयस्य समाने चान्तर्भावोऽभिहितोऽभियुक्तैः ।
वायोः स्पर्शानुमेयत्वं तार्किकाभिमतं निरस्यति **‘वायो’**रिति । बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षमात्रे रूपं कारणमिति तार्किका मन्यते । तन्न युक्तम् । चाक्षुषं प्रति रूपस्योद्भूतस्य, स्पार्शनं प्रति उद्भूतस्पर्शस्य कारणत्वमित्येवानुभवानुसारिणी व्यवस्था साधीयसीति हार्द्दम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

उसमें जो वायु हमारे शरीर धारण का कारण है,
उसे प्राण शब्द से अभिहित किया जाता है ।
प्राण पाँच प्रकार के होते हैं—प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान । हृदयप्रदेश में प्राण रहता है । गुदप्रदेश में अपान वायु रहती है । व्याप्त वायु का नाम व्यान है । कण्ठप्रदेश में रहने वाली वायु का है । नाभिप्रदेश में रहने वाली वायु का नाम समान है । प्राणों के सम्पूर्ण शरीर में नाम उदान वायु। तत् तत् स्थानों में रहने का नियम जङ्गम-जीवों में ही पाया जाता है, स्थावरों में तो प्राण का अत्यल्प संबन्ध रहता है ।

वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है, अतएव प्राणानुमेयत्ववा - दियों का मत खण्डित हो गया ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

प्राण का निरूपण

वायु- विशेष ही प्राण के रूप में प्राणधारियों का उपकार करता है । किन्तु वही वायु- विशेष प्राण कहलाता है, जो शरीरधारण इत्यादि का कारण है । सभी वायु प्राण नहीं होते । वायु की जो श्वास-प्रश्वास आदि क्रियाएँ होती हैं, वे भी प्राण नहीं हैं; अपितु वायु- विशेष ही प्राण है । ‘न वायुक्रिये पृथगुपदेशात्’ ( २।४१८ ) इस ब्रह्मसूत्र में कहा गया है कि- ‘यः प्राणः स वायुः, स एष वायुः पञ्चविधः’ अर्थात् जो प्राण है वही वायु है, वह वायु पाँच प्रकार का है।’ इस श्रुति के अनुसार वायु- सामान्य को प्राण मानना उचित नहीं है, क्योंकि वायु- सामान्य प्राण नहीं है, वायु की क्रिया भी प्राण नहीं है, यह ‘न वायुक्रिये’ सूत्र के इस अंश से कहकर सूत्र में कहा गया है कि ‘पृथगुपदेशात्’ अर्थात्-

‘एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
एवं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥’

इस परमात्मा से प्राण, मन, सभी इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल तथा विश्व को धारण करने वाली पृथिवी ये सब उत्पन्न होते हैं । इस वाक्य में प्राण से वायु का पृथक् उल्लेख किया है । यदि प्राण वायु-सामान्य होता अथवा वायु की क्रिया होती तो प्राण का पृथक् उल्लेख नहीं किया जाता । वायु की क्रिया यदि प्राण होती तो इतर भूतों के साथ जैसे उनकी क्रिया का निर्देश नहीं है, उसी प्रकार वायु की क्रियाभूत प्राण का उल्लेख नहीं होता । चूंकि श्रुति प्राण का पृथक् उल्लेख करती [[८२]] है, अतएव प्राण न तो वायु- सामान्य है और न तो वायु की क्रिया ही । वह वायु अवस्थाविशेषापन्न होता है ।

पञ्चप्राण - प्राण ही वृत्तिभेद के कारण प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान, इन पाँच नामों से अभिहित किया जाता है। इस बात को महर्षि वादरायण ने पञ्चवृत्तिर्मनोवद् व्यपदिश्यते’ ( ब्र० सू० २।४।११ ) इस सूत्र में कहा है। सूत्र का अर्थ यह है कि जिस प्रकार - ‘कामः सकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधू- तिह्रर्धीर्भीरित्येतत् सर्वं मन एव’ इस श्रुति में मन को कामादि वृत्तिवाला बतलाया गया है, उसी प्रकार ‘प्राणोऽपानव्यानोदानसमान इत्येतत् सर्वं प्राण एव’ श्रुति में प्राण को प्राणादि पाँच वृत्तियों वाला बतलाया गया है ।

प्राणियों के हृदय में प्राणवायु, गुदप्रदेश में अपानवायु, सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त व्यान वायु, कण्ठ में उदानवायु तथा नाभिप्रदेश में समानवायु रहता है । तत्-तत् प्राणों के तत् तत् स्थान का निर्देश जंगम-जीवों को दृष्टि में रखकर किया गया है, स्थावरों में स्थान का नियम नहीं है, क्योंकि स्थावरों में प्राण अत्यन्त अल्पमात्रा में रहता है ।

वायु के अनुमेयत्व का खण्डन – करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है, अतएव वायु को अनुमेय मानने वाले प्राचीन नैयायिकों का मत ठीक नहीं है । कहने का अभिप्राय यह है कि प्राचीन नैयायिक आदि कतिपय दार्श- निक वायु को अनुमेय मानते हैं । वे कहते हैं कि वायु त्वगिन्द्रिय के लिए योग्य विषय नहीं है । त्वगिन्द्रिय के द्वारा तो केवल स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है । उस स्पर्श के क्योंकि स्पर्श गुण है । सभी गुण आश्रय द्रव्य के रूप में वायु का अनुमान होता है, अपने आश्रय द्रव्य में रहते हैं । स्पर्श का भी जो आश्रय द्रव्य है, उसे वायु कहते हैं । प्राचीन नैयायिकों का कहना है कि वायु त्वगिन्द्रिय का योग्य वह रूपरहित द्रव्य है । रूपवान् घटादि द्रव्य ही त्वगिन्द्रिय के विषय नहीं है, क्योंकि योग्य विषय देखे जाते नहीं होता है । वायु हैं । जो इन्द्रियों का योग्य विषय नहीं होता है, उसका प्रत्यक्ष भी इन्द्रिय के योग्य विषय नहीं है, अतएव उसका भी प्रत्यक्ष नहीं होता है । किन्तु प्राचीन नैयायिकों का यह कथन समीचीन नहीं है । क्योंकि वायु का त्वगिन्द्रिय सन्निकर्ष होता है । त्वगिन्द्रिय के साथ वायु का सन्निकर्ष होने पर ही पता चलता है कि वायु चल रही है । अनुमान क्रिया में असमर्थ व्यक्ति भी वायु को अच्छी तरह से समझता है । उनका होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष ही होता है । वह अनुमान नहीं हो सकता है । किञ्च उसी वस्तु के साक्षात्कार में रूप की आवश्यकता होती है, जिस वस्तु का साक्षात्कार चक्षुरिन्द्रिय से हो । वायु का त्वगिन्द्रिय से साक्षात्कार होता है, अतएव वायु के साक्षात्कार में रूप अनपेक्षित है । अतएव वायु का प्रत्यक्ष ज्ञान ही होता है, बायु अनुमेय नहीं है ।

मूलम्

३६. तत्र शरीरधारणादिहेतुर्वायुविशेषः प्राणः । स च पञ्चप्रकारः प्राणापानव्यानोदान-समानभेदात् हृदि प्राणो, गुदेऽपानः, सर्वशरीरगो व्यानः, कण्ठे उदानो, नाभिदेशे समान इति नियमः । जङ्गमेष्विव स्थावरेषु च प्राणसम्बन्धस्तुल्य एव । वायोः स्पार्शन- प्रत्यक्षत्वेन अनुमेयवादनिरासः ।