विश्वास-प्रस्तुतिः
३१. तत्र तामसाहङ्काराकाशयोर् मध्यमावस्था-विशिष्टं द्रव्यं
शब्द-तन्मात्रम् ।
क्षीर-दध्नोर् अन्तराल-परिणामवत् +++(=कलिलवत्)+++ ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - उसमें भी तामसाहङ्कार तथा आकाश के बीच में होने वाली अवस्था से विशिष्ट द्रव्य शब्दतन्मात्रा कहलाता है ।
जिस प्रकार क्षीर का दधि के रूप में होने वाले परिणाम के बीच में
दुग्ध द्रव्य एक कलिलावस्था से विशिष्ट होता है,
उसी प्रकार तामसाहङ्कार और आकाश के बीच की अवस्था शब्दतन्मात्रा है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
सांख्याभिमत सृष्टिक्रम का अनौचित्य
भा० प्र० - सिद्धान्ती ने बतलाया है कि तामसाहंकार और आकाश के मध्य में होने वाली अवस्था से युक्त द्रव्य शब्दतन्मात्रा है ।
सांख्यों ने तामसाहङ्कार और आकाश के मध्य में पाँचो तन्मात्राओं की उत्पत्ति माना है।
उनका कहना है कि शब्दतन्मात्रा आकाश का उत्पादक है।
उससे भिन्न तन्मात्रा पूर्व - पूर्व तन्मात्राओं से सहकृत होकर
उत्तरोत्तर भूतों के उत्पादक होते हैं ।
जैसे - शब्दतन्मात्रा से सहकृत स्पर्शतन्मात्रा वायु का आरम्भक है ।
शब्द एवं स्पर्श, इन दोनों तन्मात्राओं से सहकृत रूपतन्मात्रा तेज का आरम्भक है । इत्यादि ।
किन्तु सांख्यों का यह मत समीचीन नहीं है,
क्योंकि यह तम ‘आकाशाद् वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी ।’
इस श्रुति द्वारा प्रतिपादित सृष्टि के विरुद्ध है।+++(5)+++
श्रुति बतलाती है कि
आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी की उत्पत्ति होती है ।
इस श्रुति के अनुसार पूर्व-पूर्व भूत उत्तरोत्तर भूत का उपादानकारण है ।
यह अनन्यथासिद्ध श्रुति है ।
सांख्यों के मतानुसार
यह अनवकाश-ग्रस्त हो जाती है
और ज्ञापन करती है कि सांख्याभिमत भूतों का सृष्टिक्रम ठीक नहीं है ।
सिद्धान्त में यह श्रुति संगत हो जाती है,
अत एव सिद्धान्तानुसार किया गया भूतों की उत्पत्ति का निरूपण श्रुतिसम्मत है ।
अत एव शब्दतन्मात्रा का यह लक्षण श्रुतिसम्मत है ।
उस शब्दतन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति होती है ।
[[७९]]
मूलम्
३१. तत्र तामसाहङ्काराकाशयोर्मध्यमावस्थाविशिष्टं द्रव्यं शब्दतन्मात्रम् ।
क्षीरदनोरन्तराल( ले कलिल)परिणामवत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३२. तस्माद् आकाशो जायते।
अस्पर्शवत्त्वे सति
विशिष्ट-शब्दाधारत्वं श्रोत्राप्यायिकत्वं च आकाश-लक्षणम् इति ।
स च प्रत्यक्षः शब्द-मात्र-गुणकः अवकाश-हेतुः ।
“नीलं नभ” इति प्रतीतेः पञ्ची-करण-प्रक्रियया रूपवाँश् च ।
एतेनाकाशस्य अजन्यत्व-निरासः।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘अस्पर्शत्वे सती’**ति । वाय्वादावतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । शब्दतन्मात्रेऽतिव्याप्तिवारणाय विशिष्टेति शब्दविशेषणम् । श्रोत्रपोषकत्वं चाकाशस्य स्वांशैः । एतेन - सावयवत्वसमर्थनेन । ‘अजन्यत्व- निरास’ इति । आकाशस्य निरवयवत्वादजन्यत्वमिति तार्किकवादनिरास इत्यर्थः । तस्योत्पत्तिलयप्रतिपादकशास्त्रविरोधश्च तन्मते ।
शिवप्रसादः (हिं)
उस शब्द- तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न होता है। जिसका स्पर्श न हो फिर भी जो शब्द का आश्रय हो,
उसे आकाश कहते हैं,
अथवा जो भूत श्रोत्र नामक इन्द्रिय का आप्यायन करता है, उसे आकाश कहते हैं ।
आकाश में एकमात्र गुण शब्द है तथा वह आकाश का कारण है ।
आकाश नीला है, इस प्रतीति के कारण आकाश का चाक्षुषु प्रत्यक्ष होता है,
यह स्वीकार करना चाहिए ।
पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार आकाश में तेज का गुण रूप विद्यमान होने के कारण
आकाश सावयव एवं रूपवान् है,
यह सिद्ध होता है ।
इस प्रतिपादन से जो लोग ( वैशेषिक ) आकाश को नित्य मानते हैं,
उनके मत का खण्डन हो गया ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
आकाश का लक्षण -
यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने आकाश के दो लक्षण किये हैं ।
पहला लक्षण है—जो स्पर्श-रहित होते हुए भी शान्तत्व, घोरत्व एवं मूढत्व, इन विशेषताओं से विशिष्ट शब्द का आश्रय हो, उसे आकाश कहते हैं ।
दूसरा लक्षण है- जो श्रोत्रेन्द्रिय को पोषक हो, उसे आकाश कहते हैं ।
आकाश का गुण केवल शब्द है ।
आकाश अवकाश प्रदान कर
हम लोगों का उपकार करता है ।
इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल आकाश ही अवकाश प्रदान करता है,
क्योंकि आकाश से भिन्न प्रकृति आदि के प्रदेश भी अवकाश प्रदान करके
उपकार करते हैं।
क्योंकि वहाँ भी अवकाश है ।
यदि वहाँ अवकाश न हो
तो वहाँ पहुँचने पर
स्पर्शयुक्त पदार्थों का गमनागमन रुक जायेगा ।
भूतसूक्ष्मयुक्त मोक्षाधिकारी जीवों को
उनको लांघकर आगे जाना असंभव हो जायेगा । +++(5)+++
आकाश का प्रत्यक्षत्व प्रतिपादन -
आकाश में जो नीलिमा की प्रतीति होती है,
उस प्रतीति को कुछ लोग भ्रम मानते हैं ।
उनका कहना है कि आकाश नीरूप पदार्थ है,
उसका एकमात्र गुण शब्द है ।
नीरूप वस्तु का प्रत्यक्ष होता ही नहीं है ।
रूपवान् पदार्थ का ही प्रत्यक्ष होता है ।
सिद्धान्त में माना जाता है कि
पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार
सभी भूतों में सभी भूतों के अंश विद्यमान हैं ।
आकाश में भी तेज का अंश विद्यमान है;
अतएव नीले आकाश की प्रतीति वास्तविक है ।
फलतः आकाश का प्रत्यक्ष भी स्वीकार करना चाहिए।
किञ्च नेत्र खुलते ही सबों को यह प्रतीति होती है
कि यह आकाश है ।
इस सहसा होने वाली प्रतीति को प्रत्यक्ष ही मानना होगा अनुमिति नहीं,
क्योंकि अनुमिति ज्ञान में व्याप्यादि का होना अनिवार्य होने के कारण
उसमें विलम्ब का होना अनिवार्य है ।
यह प्रतीति सहसा होती है, अतएव यह प्रत्यक्ष ही है ।
चूंकि आकाश तामसाहंकार से उत्पन्न होता है,
अतएव आकाश को नित्य मानने वाले वैशेषिकों के मत का खण्डन हो जाता है ।
मूलम्
३२. तस्मादाकाशो जायते। अस्पर्शवत्त्वे सति विशिष्टशब्दाधारत्वं श्रोत्राप्यायिकत्वं च आकाशलक्षणमिति । स च प्रत्यक्षः शब्दमात्रगुणकः अवकाशहेतुः । “नीलं नभ” इति प्रतीतेः पञ्चीकरणप्रक्रियया रूपवाँश्च । एतेनाकाशस्य अजन्यत्वनिरासः।
वासुदेवः
अस्पर्शवत्त्वे सतीति । इदं पृथिव्यादाव् अतिव्याप्ति-वारणाय । काले ऽतिव्याप्ति-वारणाय विशिष्ट-शब्दाधारत्वम् इति । प्रत्यक्ष इति । यदोन्मीलनं चक्षुषस् तदैवा ऽऽकाशी ऽयम् इति प्रतीतेः । न च नीरूपस्य कथं चाक्षुष-प्रत्यक्ष-योग्यतेति वाच्यम् । तत्र नील-रूपस्य सत्त्वात् । किंच त्वन्-मते रूपवतो ऽपि तद्-अयोग्यत्व-प्रसङ्गः । तत्रानुभवानुसारेण योग्यता कल्प्यत इति चेत् तुल्यम् आकाशे ऽपि । नीरूपस्यापि रूपस्य प्रत्यक्षत्व-दर्शनाच् च । न च ‘रूप-रूपि-रूपैकार्थ-समवेत’ एतद्-अन्यतमत्वं प्रत्यक्ष-प्रयोजकम् इति वाच्यम् । समवायान्-अनङ्गीकारेण रूपैकार्थ-समवेतत्वस्यानिरूपणात् । रूपैकार्थ-संबद्धत्वं तत्त्वम् इति चेद् आकाशेऽपि पञ्चीकरण-प्रक्रियया तद् अस्त्य् एवेति बोध्यम् । अजन्यत्व-निरास इति । नीरूप-द्रव्यत्व-हेतुना नित्यत्व-साधने स्वरूपासिद्धिः । आकाशे नील-रूप-सत्त्वात् । निरवयवत्व-हेतुर् अपि स्वरूपासिद्ध एव । पञ्चीकरण-प्रक्रियया सावयवत्वात् । न पृथग् इति । ननु संयुक्त-संयोग-भूयस्त्वाल्पत्व-निबन्धने परत्वापरत्वे व्यापक-द्रव्य-योगम् अन्तरेण कथं स्याताम् इति चेन् न । आकाश-संबन्धेनैव तत्-सिद्धेः । कल्प्यमानम् अपि दिक्-तत्त्वम् उपाधि-योगेनैव परत्वापरत्वे जनयतीति तादृशोपाधि-योगेना ऽकाशस्यैव परत्वादि-सिद्धौ पर्याप्तत्वात् ।
[[७८]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
३३. सूर्य-परिस्पन्दादिभिर् आकाशस्यैव प्राच्यादि-व्यवहारोपपत्तौ
दिग् इति न पृथग् द्रव्य-कल्पनम् ।
+++(“दिशः श्रुत्राद्” इत्यत्र)+++ दिक्-सृष्टिस् तु
+++(“नाभ्याँ आसीद् अन्तरिक्षम्” इतीव)+++ +अन्तरिक्षादि-सृष्टिवद् उपपद्यते ।
अण्णङ्गराचार्यः
दिशस्तत्वान्तरत्वं निरस्यति **‘सूर्ये’**ति । प्राच्यादिव्यवहारविषयत्वमाकाशस्यैव सूर्यपरिस्पन्दाद्युपाधिभिरिति नातिरिक्तदिक्कल्पनमित्यर्थः । परिस्पन्दः गतिभेदः । आदिपदेन सूर्यदर्शनादर्शनयोर्विवक्षा । प्रातर्यत्राकाशप्रदेशे सूर्यः सञ्चरन् प्रथमतो दृश्यते, सैव प्राची । तत्सन्निकृष्टं च मूर्तं पूर्वमित्युच्यते । सायं यत्राकाशप्रदेशे सूर्यः सञ्चरन् दृश्यते, अस्तम् - अदर्शनमुपयाति च, सैव प्रतीची । तत्सन्निकृष्टं च मूर्तं पश्चिममित्युच्यते । उदयकाले सूर्याभिमुखस्य पुंसो दक्षिणपार्श्वीयाकाशप्रदेशोऽवाची । तस्यैव वामपार्श्वीयाकाशप्रदेश उदीची, इति दिग्विभागः कार्य आकाशप्रदेशैरेव । तार्किकैरतिरिक्तं दिक्कल्पनेऽपि तस्या विभुत्वनित्यत्वैकत्वानां तैः स्वीकृतत्वादुपाधिभेदैरेव पूर्वादिकल्पना कार्या । गौरवं त्वधिकं तेषां प्रसज्यत इति भावः ।
नतु दिशोऽतिरिक्तत्वाभावे **‘दिशः श्रोत्रा’**दिति आकाशात् पृथक्तत्सृष्टिश्रुतिः कथं घटत इत्यत्राह **‘दिक्सृष्टि’**रिति । यथाऽन्तरिक्षस्याकाशत्वेऽप्यवान्तरविशेषविवक्षया पृथक् सृष्टिः श्रूयते, एवमेव दिशामपीति भावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
सूर्य के परिस्पन्द ( संचरण ) से युक्त आकाश को ही पूर्वदिशा, पश्चिमदिशा आदि शब्दों से अभिहित किया जाता है ।
अतएव दिशा को एक अति- रिक्त द्रव्य मानना उचित नहीं है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष आदि की सृष्टि सिद्ध होती है, उसी प्रकार दिशाओं की भी सृष्टि सिद्ध होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
दिशा में द्रव्यान्तरत्व का खण्डन - वैशेषिक विद्वान् दिक् नामक एक स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं, किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है । आकाश के जिस प्रदेश में सूर्य उदित होता है, उस प्रदेश को पूर्वदिशा कहा जाता है तथा वहाँ के मूर्त पदार्थों को पूर्व माना जाता है । जहाँ सूर्य अस्तमित होता है, आकाश का वही प्रदेश पश्चिम दिशा कहलाता है । सूर्योदयकाल में सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होने पर जो दाहिनी ओर आकाश होता है, उसे दक्षिण दिशा और बाईं ओर के आकाश को उत्तर दिशा कहते हैं । अतएव आकाश से अतिरिक्त दिशा नामक कोई द्रव्य नहीं है । नैयायिक भी दिशा नामक द्रव्य की कल्पना करके उसके प्राची प्रतीची आदि भेदों को औपाधिक ही मानते हैं । अतएव वैशेषिकों के मत में दिक् नामक द्रव्य की कल्पना गौरवावह है ।
यहाँ पर यह कहा जा सकता है ‘दिशः श्रोत्रात्’ यह पुरुषसूक्त की श्रुति दिशा की उत्पत्ति का प्रतिपादन करती है । दिक् द्रव्य को अलग माने बिना इस श्रुति का [[८०]] निर्वाह कैसे संभव है ? तो उत्तर है कि जिस प्रकार आकाश से भिन्न अन्तरिक्ष के न रहने पर भी अन्तरिक्ष की उत्पत्ति का निर्वाह होता है, उसी प्रकार दिशा की उत्पत्ति का प्रतिपादन करने वाली श्रुति का निर्वाह करना चाहिए ।
मूलम्
३३. सूर्यपरिस्पन्दादिभिराकाशस्यैव /सूर्यपरिस्पन्दयुक्ताकाशस्यैव प्राच्यादिव्यवहारोपपत्तौ दिगिति न पृथग् द्रव्यकल्पनम् । दिक्सृष्टिस्तु अन्तरिक्षादिसृष्टिवदुपपद्यते ।