०१ प्रमेयस्य द्रव्याद्रव्येतिभेद-द्वय-समर्थनम्

वासुदेवः

अथ चतुर्थो ऽवतारः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१. प्रमाणनिरूपणानन्तरम् प्रमेयं निरूप्यते ।
प्रकर्षेण मेयम् प्रमेयम्
तच् च द्विविधम् – द्रव्याद्रव्यभेदात् ।
द्रव्यम् उपादानम् ।
अवस्थाश्रयम् उपादानम्

अण्णरङ्गाचार्यः

॥ अथ चतुर्थावतार व्याख्या ॥

**‘प्रकर्षेणे’**ति । यथार्थत्वेनेत्यर्थः ।
**‘अवस्थे’**ति । आगन्तुकोऽपृथक्सिद्धो धर्मोऽवस्था । यथा मृदः पिण्डत्वघटत्वादिः । भाव्यवस्थावतः पूर्वोवस्थावत्त्वमुपादानत्वम् । स्वसामानाधिकरण्यस्वपूर्वत्वोभयसम्बन्धेनावस्थाविशिष्टावस्थावत्त्वमिति निष्कर्षः । मतान्तरस्थैः - तार्किकैः । चलनात्मकं कर्मेत्यक[[??]]धिमेव कर्म । तस्योर्ध्वाधःप्रभृतितत्तत्प्रदेशविशेषसंयोगरूपफलभेदनिबन्धनं परमुत्क्षेपणभ्रमणादिव्यपदेशभेदः इति भावः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - प्रमाणों के निरूपण के पश्चात् अब प्रमेय का निरूपण किया जा रहा है । जो प्रकृष्ट रूप से जानने योग्य होग्य हो, उसे प्रमेय कहते हैं । प्रमेय के दो भेद हैं - द्रव्य एवं अद्रव्य । उपादान को द्रव्य कहते हैं । जो अवस्थाओं का आश्रय होता है, उसे उपादान कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० - प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अवतारों में प्रमाणों का निरूपण किया जा चुका है । इस चतुर्थ अवतार में अवसर प्राप्त प्रमेय का निरूपण किया जा रहा है ।

प्रमेय- निरूपण - प्रमेय शब्द के अर्थ के विषय में वैयाकरणों के दो तरह के विचार हैं -

( १ ) ‘पूर्वं धातुर् उपसर्गेण युज्यते पश्चात् साधनेन ।’ अर्थात् धातु का पहले उपसर्ग से संबन्ध होता है और उसके बाद वह कारक से युक्त होता है ।
इस पक्ष के अनुसार प्रमेय शब्द का अर्थ है – प्रकृष्ट ज्ञान ।
अर्थात् यथार्थज्ञान प्रमा है ।
उसका जो विषय होता है, उसे प्रमेय कहते हैं । इस तरह प्रमेय शब्द का अर्थ होता है- यथार्थज्ञान का विषय । यह प्रमेयत्व सर्वपदार्थसाधारण सामान्यधर्म है ।

( २ ) दूसरा पक्ष है ‘पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण ।’ अर्थात् धातु का पहले कारक से संबन्ध होता है और उसके बाद उसका उपसर्ग से संबन्ध होता है । इस पक्ष के अनु- सार प्रमेय शब्द का अर्थ होता है मिति अर्थात् ज्ञान का विषय मेय कहलाता है । जो प्रकृष्ट तथा मेय हो, उसे प्रमेय कहते हैं अर्थात् जो अच्छी तरह जानने योग्य हो, उसे प्रमेय कहते हैं । यह प्रमेयत्व विशेषधर्म है, क्योंकि सभी पदार्थ अच्छी तरह जानने योग्य नहीं है । कोई-कोई लाभप्रद पदार्थ ही अच्छी तरह से जानने योग्य होते हैं ।

प्रमेय के दो भेद - विशिष्टाद्वैत दर्शन में प्रमेय को दो भागों में विभक्त किया जाता है— द्रव्य एवं अद्रव्य । द्रव्य उसे कहते हैं, जो उपादान होता है । उपादान उसे कहते हैं, जो अवस्थाश्रय होता है । अवस्था उस धर्म को कहते हैं, जो अपने धर्मी का अपृथसिद्ध तथा आगन्तुक धर्म हो । जैसे- शरीर की बालत्वावस्था, युवत्वावस्था । अथवा घट की कपालत्वावस्था, चूर्णत्वावस्था इत्यादि ।

[[७१]]

मूलम्

१. प्रमाणनिरूपणानन्तरम् प्रमेयं निरूप्यते । प्रकर्षेण मेयम् प्रमेयम् । तच्च द्विविधम् – द्रव्याद्रव्यभेदात् । द्रव्यम् उपादानम् । अवस्थाश्रयमुपादानम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२. ननु “द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य” – इत्यादिना मतान्तर-स्थैः षोढा परिगणनात्
कथं द्रव्याद्रव्य-भेदेन द्विधा समर्थनम्?

इति चेत्, उच्यते ।

शिवप्रसादः (हिं)

प्रश्न उठता है कि — वैशेषिक आदि ने पदार्थों को सात भागों में विभक्त किया है— द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव; अतएव पदार्थों के द्रव्य एवं अद्रव्य यह दो ही विभाग सिद्धान्त में कैसे किया जाता है ? तो इसका उत्तर यह है कि —

मूलम्

२. ननु “द्रव्यगुणकर्मसामान्य” – इत्यादिना मतान्तरस्थैः षोढा परिगणनात् कथं द्रव्याद्रव्यभेदेन द्विधा समर्थनम्? इति चेत्, उच्यते ।

वासुदेवः

द्रव्याद्रव्येति । ननु द्रव्यसिद्धावेवाद्रव्यसिद्धिः । अद्द्रव्यस्य द्रव्यप्रतियोगित्वेन द्रव्यासिद्धावसिद्धेः । तथा द्रव्यम् अप्य् अद्रव्य-सिद्धि-पूर्वकम् एव । अवस्थाश्रयत्वं द्रव्यत्वम् इति हि द्रव्यलक्षणं वाच्यम् । तच् च न संभवति । अवस्थाया अद्रव्यत्वेनाद्रव्या-सिद्धाववस्थाया अनिरूपणात् । तथा चान्योन्य-सापेक्षत्वाद् द्रव्यम् अद्रव्यम् इति द्वयम् अपि न सिध्यतीति चेन्मैवम् । किं द्रव्याद्रव्ययोर् उपलम्भानुपपत्तिर् अन्योन्यापेक्षयोच्यते, व्यवहारानुपपत्तिर् वा । न तावद् उपलम्भानुपपत्तिः । एकस्मिन् नेव क्षणे विशेषण-विशेष्ययोर् एक-ज्ञान-ग्रहण-योग्ययोर् विशेषण-विशेष्य-भावेनोपलम्भात् । नापि व्यवहारानुपपत्तिः । व्यवहारो हि व्युत्पत्त्यधीनः । व्युत्पत्तिश् च द्रव्याद्रव्य-शब्दयोर् युगपज् जायत एव । युगपद् एवोपलभ्यमानयोर् आधाराधेययोर् अनयोर् अनुक्रमाद्-द्रव्याद्रव्य-शब्दौ वाचकाविति । तथा च द्रव्याद्रव्य-शब्दयोर् व्युत्पत्तौ व्यवहारे प्रतीतौ च परस्पर-पौर्वापर्याभावान् न काऽप्य् अनुपपत्तिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३. उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चन-प्रसारण-गमन-भेदात्
कर्म पञ्च-धा ऽवस्थितम् इति कल्पने गौरवात्
“चलनात्मकं कर्म” इत्येकधैवोपपत्तेः,
तस्यापि संयोगम् आदायैवोपपत्तेः +++(ततो ऽद्रव्यत्वात् = गुणत्वात्)+++,

+++(असाधारणाकृति-रूप-)+++संस्थानम् एव जातिर् इति संस्थानातिरेकि-सामान्यानङ्गीकारात्,

+++(जाति-व्यक्त्यादिषु +अपृथक्सिद्ध-सम्बन्धे)+++ समवाये +++(पुनः समवाय-पदार्थयोर् मध्ये)+++ समवायान्तराङ्गीकारे ऽनवस्थानात्,
तस्यापि संयुक्त-विशेषणतयैवोपपत्तेः +++(ततो धर्मत्वात्)+++,

जीवेश्वरयोर् अणुत्व-विभुत्वादि-विभाजक-धर्मम् अन्तरेण
“विशेष” इति किञ्चित् पदार्थान्तराङ्गीकारे गौरवाच् च

कर्म-सामान्य-विशेष-समवायानाम् पृथक्त्वेनानङ्गीकारात्

द्रव्यम् अद्रव्यमिति द्विधा विभाग उपपद्यते।

अण्णरङ्गाचार्यः

‘तस्यापि’ इति । कर्महेतुभिर्यत्नादिभिः पूर्वदेशविश्लेषोत्तरदेशसंयोगनैरन्तर्यमेव चलनस्थले उपलभ्यते । तन्न तदतिरिक्तं कर्म कल्पनीयमित्याशयः । उत्तरदेवसंयोगातिरिक्तस्य तद्धेतोः कर्मणः स्फुटमुपलम्भे सति तु स्यान्नाम तदपि अतिरिक्तमेकादशमद्रव्यमिति च पक्षभेदो वर्णिततत्त्वमुक्ताकलापे । सामान्यमित्यतिरिक्तपदार्थं निरस्यति काणादाभिमतं ‘संस्थानमेव’ इति । स्वासाधारणाकारं संस्थानम् । तदेव सामान्यम् । तच्च सावयवेषु अवयवसन्निवेशविशेषलक्षणम् । निरवयवेषु तु तत्तदसाधारणधर्म एव । यावत्सु व्यक्तिषु सुसदृशं संस्थानम्, तावत्सु एकजातीत्वव्यवहारः । ब्राह्मण्यादिकं पुनरदृष्टविशेषलक्षणम् । विशुद्धमातापितृजत्वादिज्ञाप्यं च तत् । नातोऽतिरिक्तं सामान्यं जातिः ।
**‘तस्यापी’**ति । समवायस्यापि अपृथक्सिद्धविशेषणस्वरूपत्वमेवेति नातिरिक्तत्वमित्याशयः ।
विशेषमपि पदार्थान्तरं निरस्यति **‘जीवे’**ति । नित्यद्रव्याणां परस्परव्यावर्तको धर्मः विशेषो नाम कल्प्यतेऽतिरिक्तः पदार्थो वैशेषिकैः । तन्न । अणुत्वविशिष्टचेतनत्वादिलक्ष्मन एव जीवानां परमात्मतो व्यावृत्तिः सिध्यति । तेषां परस्परव्यावृत्तिस्तु प्रत्यक्त्वपराक्त्वादिरूपतत्तदसाधारणधर्मत एव सेत्स्यति । प्रकृतेस्त्रैगुण्यादेव तदितरव्यावृत्तिसिद्धिः । एवमन्यत्रापि बोध्यम् । अतो न विशेषोऽतिरिक्तः कल्प्य इति भावः ।

शिवप्रसादः (हिं)

वैशेषिकों ने कर्म के पाँच भेद किये हैं—उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुश्वन प्रसारण एवं गमन, किन्तु उनकी इस कल्पना में गौरव है, क्योंकि कर्म गति- स्वरूप है, इस लक्षण से कर्म एक ही प्रकार का उपपन्न होता है ।

उस कर्म की भी उपपत्ति
बिना संयोग के नहीं हो सकती है ।

सामान्य जाति का वाचक है ।
वह जातिसंस्थान विशेष ही है,
अतएव हम जाति को [[७०]]
संस्थान रूप ही मानते हैं ।

समवाय के उपपादक रूप से दूसरे समवाय को मानने पर अनवस्था दोष होगा ।
उस समवाय की भी सिद्धि संयुक्त वस्तु के विशेषण रूप से ही होती है । जीव तथा ईश्वर के अणुत्व एवं विभुत्व का विभाजक धर्म ही विशेष है । उससे भिन्न पदार्थ को विशेष मानने पर गौरवदोष होगा । इस तरह कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय को अति- रिक्त पदार्थ न स्वीकार कर सकने के कारण पदार्थों का द्रव्य एवं अद्रव्य यह दो ही भेद उपपन्न होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

वैशेषिकों की शंका - यहाँ पर सप्तपदार्थों को स्वीकार करने वाले वैशेषिकों की शंका यह है कि महर्षि कणाद ने सात पदार्थों का निर्देश किया है- द्रव्य, गुण, सामान्य, कर्म, विशेष, समवाय एवं अभाव । इस विभाजन की ओर ध्यान न देकर विशि- ष्टाद्वैती पदार्थों का द्रव्य एवं अद्रव्य यह दो ही भेद कैसे करते हैं ?

वैशेषिकाभिमत सप्तपदार्थों का द्रव्य एवं अद्रव्य में अन्तर्भाव-निरूपण - वैशेषिकों की उपर्युक्त शंका का समाधान करते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार का कहना है कि

वैशेषिक पाँच प्रकार के कर्मों को स्वीकार करते है, किन्तु वे सभी उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण एवं गमन गतिरूप हैं,
अतएव उनका पांच भेद न करके एक ही प्रकार का कर्म मानकर कर्म का लक्षण ‘चलनात्मकं कर्म’ करना चाहिए ।
और जहाँ कहीं भी कोई क्रिया होती है, वहाँ पूर्वदेशविश्लेष एवं उत्तरदेशसंयोग का नैरन्तर्य मात्र उपलब्ध होता है ।
अतएव संयोगातिरिक्त कर्म को अतिरिक्त पदार्थ मानना उचित नहीं है ।

इसी तरह वैशेषिक जाति को ही सामान्य शब्द से अभिहित करते हैं ।
किन्तु जाति प्रत्यक्ष के विषय-भूत वस्तु का संस्थान-रूप है ।
उसी का द्वितीय, तृतीय आदि प्रत्यक्षों में परामर्श होता है -
‘इयम् अपि गौः, गोत्वावच्छिन्नत्वात्’ इत्यादि रूप से ।
संस्थान-विशेष से भिन्न गोत्वादि जाति नाम का कोई भी पदार्थ नहीं होता,
जिसका प्रत्यक्षकाल में साक्षात्कार होता हो तथा द्वितीय, तृतीय आदि प्रत्यक्षों में उसका प्रत्यवमर्श होता हो ।
अतएव मानना चाहिए, वस्तु का जो असाधारण आकार है, उसे जाति कहते हैं ।

वैशेषिक विद्वान् अयुत-सिद्ध वस्तुओं के
गुण-गुणी, जाति-व्यक्ति आदि में जो विशिष्ट प्रतीति होती है,
उस प्रतीति का कारण समवाय नामक संबन्ध है, यह मानते हैं ।
इस तरह अयुतसिद्ध उपलब्धियों में जाति आदि का निर्वाहक संबन्ध समवाय है ।

किन्तु वैशेषिकों का यह कथन इसलिए उचित नहीं है,
क्योंकि जिस प्रकार जाति, व्यक्ति आदि की विशिष्ट प्रतीति का निर्वाहक समवाय है,
उसी प्रकार उस समवाय का भी कोई न कोई निर्वाहक मानना होगा।
उस निर्वाहक का भी कोई निर्वाहक अवश्य होगा।
इस प्रकार समवाय की मान्यता में अनन्तापेक्षकत्व रूप दोष है ।
किञ्च समवाय इन्द्रिय-सन्निकृष्ट वस्तु के विशेषण रूप से ही सिद्ध होता है ।

किञ्च विशेष नामक पदार्थ, जिसे वैशेषिक कहते हैं,
वह जीव एवं ईश्वर के अणुत्व एवं विभुत्व आदि का विभाजक धर्म मात्र है ।
इस प्रकार विशिष्टाद्वैत दर्शन में कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय को अलग पदार्थ स्वीकार न करके
पदार्थों का द्रव्य एवं अद्रव्य यह दो विभाग करते हैं ।

मूलम्

३. उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनभेदात् कर्म पञ्चधावस्थितमिति कल्पने गौरवात् “चलनात्मकं कर्म” इत्येकधैवोपपत्तेः तस्यापि संयोगमादायैवोपपत्तेः, संस्थानमेव जातिरिति संस्थानातिरेकिसामान्यानङ्गीकारात्, समवाये समवायान्तराङ्गीकारे अनवस्थानात्, तस्यापि संयुक्तविशेषणतयैवोपपत्तेः, जीवेश्वरयोरणुत्वविभु- त्वादिविभाजकधर्ममन्तरेण “विशेष” इति किञ्चित्पदार्थान्तराङ्गीकारे गौरवाच्च कर्म- सामान्यविशेषसमवायानाम् पृथक्त्वेनानङ्गीकारात् द्रव्यमद्रव्यमिति द्विधा विभाग उपपद्यते।

वासुदेवः

गौरवाद् इति । तत्तद्-दिग्-भेदेन दश-विधत्वस्यापि प्रसङ्गाच् चेत्य् अपि बोध्यम् । संयोगम् आदायेति । यो हि संयोगः कर्म-जन्यतया ऽभ्युपेयते स एव तादृश-कर्म-हेतुतया ऽभ्युपगतैः प्रयत्नादृष्टादिभिर् जन्यताम् । न तु मध्ये कर्म । गौरवात् । न हि मध्ये किमपि विशदम् उपलभ्यते । येन गौरव-परिहारः स्यात् । तथा च संयोग एव कर्म । ननु तथात्वे भूतल-घटयोः संयोगो यावद् उपलभ्यते तावद् घटश् चलतीति व्यवहारः कुतो न भवतीति चेन् न । संयोग-संतान-नैरन्तर्य-प्रतीतेश् चलतीति व्यवहार-हेतुत्वाङ्गीकारेणा-दोषात् । यथा भ्रमणे सत्य् अपि प्रतिक्षणं न भ्रमतीति व्यवहारः किंतु निरन्तरतया ऽनुसंधीयमानेष्व् एव क्षणेषु तथैवात्रेति बोध्यम् । न च कर्मणा संयुज्यत इति पृथग्-व्यपदेशाद् भेद-सिद्धिर् इति वाच्यम् । तत्र कर्म-शब्दस्य पूर्व-संयोग-विश्लेषार्थकत्वात् । संस्थानम् एवेति । तद् उक्तं श्रीभाष्ये - संस्थानातिरेकिणो ऽनेकेष्व् एकाकार-बुद्धि-बोध्यस्यादर्शनात् तावतैव गोत्वादि-जाति-व्यवहारोपपत्तेर् अतिरेक-वादे ऽपि संस्थानस्य संप्रतिपन्नत्वाच् च संस्थानम् एव जातिः, इति । संस्थानम् अवयव-संनिवेशः । किं चानुवृत्त-धीर् एव सर्वत्र जाति-सद्भावे प्रमाणम् इति वदद्भिः सर्व-शरीरेषु शरीरत्व-जातिः कुतो न स्वीक्रियते । पृथिवीत्वादिना सांकर्याद् इति चेद् घटत्वम् अपि तथैवास्तु । तस्यापि पृथिवीत्वादिना सांकर्यात् । सुवर्णस्य तैजसत्वेन पृथिवीत्वाभाववति सुवर्ण-घटे घटत्वस्य विद्यमानत्वात् । समवायस्येति । समवायो हि न प्रत्यक्षः । अपृथक्-सिद्धयोर् वस्तुनोः स्वरूपाद् भिन्नस्य समवायाख्य-संबन्धस्यानुपलभ्यमानत्वात् । ननु घटत्व-विशिष्ट इत्य् आदि-व्यवहारानुपपत्त्या स कल्प्यत इति चेत् समवाय-विशिष्ट-व्यवहारानुपपत्त्या पुनर् अपि समवायान्तरं कल्प्यम् इत्य् अनवस्था स्यात् । अथैतद्-अनवस्था-परिहारार्थं घट-घटत्वाभ्याम् एष समवायः स्वभावाद् एव संबध्यत इत्य् उच्यते तर्हि घट-घटत्वे एव स्वभावान् मिथः संबध्येताम् । किंचैवं ज्ञानार्थयोर् अपि विषय-विषयि-भावादिकं स्वभावातिरेकेण समवायवद् अन्यद् एव संबन्धान्तरं कल्प्यं स्यात् । तथा च संयुक्त-विशेषणतैव समवायो नान्यत् पदार्थान्तरम् इति भावः । जीवेश्वरयोर् इति । अणुत्वादयो धर्मा एव विशेषा नान्यत् पदार्थान्तरम् । गौरवात् । यद्यपि समेषु जीवेषु मिथो विभाजक-धर्माः स्वाभाविका न सन्ति तथा ऽपि देश-काल-जाति-गुणाकारादि-भेदेनौपाधिकाः सन्त्य् एव । मुक्तानाम् अपि भूत-पूर्वैर् अमुक्त-दशायां विद्यमानैर् उपलक्षणतया ऽवस्थितैर् भेदो ज्ञातुं शक्यते । योगिनश् चामुं भेदं जानन्त्य् एव । ननु समान-जातीयत्वादि-विशेषण-विशिष्टा मुक्तात्मानः परमाणवश् च परस्पर-व्यावर्तक-धर्मवन्तो द्रव्यत्वाद् घटादिवद् इत्य् अनुमानेन विशेष-सिद्धिरिति वाच्यम् । पृथक्त्वेन सिद्ध-साधनात् । यदि पृथक्त्वत्व-रूपैक-जात्या क्रोडीकृतैः पृथक्त्वैर् वस्तूनाम् इतरेतर-व्यावर्तनं न स्याद् इत्य् उच्यते तर्हि विशेषेष्व् अपि तुल्यम् । तेषाम् अपि विशेषत्व-रूपैकोपाधि-क्रोडीकृतत्वात् । किंच कल्प्यमानस्य विशेषस्य न क्वाप्य् उपयोगः । तथा हि - न तावद् ईश्वरस्य भेद-धियम् उत्पादयन्ति विशेषाः । तद्-धियो नित्यत्वात् । नाप्य् अस्माकम् । विशेषाणाम् अस्मद्-अदृश्यत्वाभावात् । नापि योगिनाम् । तेषां सर्वज्ञत्वेन तत्तद्-रूपेण सर्व-वस्तु-प्रकाशो ऽस्त्य् एवेति विशेषानुपयोगात् । पृथक्त्वेन सिद्धेश् चेति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४. एतेनाभावस् सप्तम-पदार्थ इत्य् अपि निरस्तम् ।
अभावस्य भावान्तर-रूपत्वात् ।
प्राग्-अभावो नाम पूर्वावस्था-परम्परा ।
प्रध्वंसाभावो नाम उत्तरावस्था-परम्परा।
अत्यन्तान्योन्याभावौ तु धर्म्य्-अन्तर-स्वरूपाव् एव ।
एतस्य प्रत्यक्षे ऽन्तर्भावः पूर्वमुक्तः ।

अण्णरङ्गाचार्यः

**‘पूर्वावस्थे’**ति । भावरूपपूर्वावस्थेत्यर्थः । एवमुत्तरावस्थापि भावरूपा बोध्या ।
**‘धर्म्यन्तरे’**ति । गोरश्वभेदगोवृत्तिसास्नादिसंस्थानविशेषः । जडे चैतन्याभावो जडत्वमेवेति भावः । धर्म्यन्तरस्वरूपावेवेति पाठान्तरम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

किञ्च वैशेषिकों को अभिमत अभाव नामक सातवें पदार्थ का भी हम खण्डन करते हैं, क्योंकि अभाव भावान्तररूप होता है।
किसी वस्तु का प्रागभाव उसकी पूर्वावस्था की परम्परा होती है ।
उसकी उत्तरावस्थाओं की परम्पराओं को किसी भी वस्तु का प्रध्वंस कहा जाता है ।
अत्यन्ताभाव तथा अन्योन्याभाव तो भावान्तररूप होते ही हैं।
अभाव का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है,
यह हम प्रथम अवतार में कह चुके हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

किञ्च - वैशेषिक जिसे अभाव नामक पदार्थ मानते हैं, वह भी भावान्तर रूप होता है । जैसे घट का प्रागभाव घट की पिण्डत्वावस्था है । उसका प्रध्वंस कपालत्वा- वस्था एवं चूर्णत्वावस्था है । घट का अत्यन्ताभाव तथा उसका अन्योन्याभाव तो स्पष्ट [[७२]] रूप से भावान्तररूप हैं । अभाव को भावान्तररूप मानने तथा उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव मानने के कारण अभाव को एक अलग पदार्थ मानने की कोई भी आवश्य- कता नहीं है । इस तरह पदार्थों का द्रव्य एवं अद्रव्य यह दो भेद युक्तियुक्त सिद्ध होते हैं ।

मूलम्

४. एतेनाभावस्सप्तमपदार्थ इत्यपि निरस्तम् । अभावस्य भावान्तररूपत्वात् । प्रागभावो नाम पूर्वावस्थापरम्परा । प्रध्वंसाभावो नाम उत्तरावस्थापरम्परा अत्यन्तान्योन्याभावौ तु धर्म्यन्तर( गतविशेष )स्वरूपावेव । एतस्य प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः पूर्वमुक्तः ।

वासुदेवः

अभावस्येति । यो देश-कालादि-भेदो वस्तु-स्वभाव-नियामकः स एव लाघवाद् अभाव-व्यवहारस्यापि नियामको ऽस्तु । किम् अतिरिक्ताभाव-कल्पनेन । अनुपलब्धेश् च । न च रूपादीनाम् अप्य् आश्रय-व्यतिरेकेणानुपलम्भात् त्याग-प्रसङ्ग इति वाच्यम् । तेषाम् अनन्यथा-सिद्ध-बुद्धि-सिद्धत्वात् । अभावस्य तु भाव-विशेषैर् एवान्यथा-सिद्धत्वेन त्यागः समुचित एव । अथ भावस्य कथम् अभावत्वम् इति चेद् भवतो ऽपि कथम् अभावाभावस्य भावत्वम् इति विभावय । प्रागभाव इति । अतिरिक्त-प्रागभाव-वादिनो ऽपि क्वचित् प्रागभावस्य भाव-रूपत्वम् आवश्यकम् एव । घट-ध्वंसस्य यः प्रागभावः स घट-रूपो घट-प्रागभाव-रूपश् चेति द्वि-प्रकार इति तेनैवोक्तत्वात् । एवम् एव प्रध्वंसाभावे ऽपि । घट-प्रागभावस्य यो ध्वंसः स घट-रूपो घट-ध्वंस-रूपश् चेति । धर्म्यन्तर-स्वरूपौ । अधिकरण-स्वरूपौ ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपादानं द्रव्यम् इत्युक्तम् ।
गुणाश्रयो द्रव्यम् इति सामान्य-लक्षणं सम्भवति ।

अण्णङ्गराचार्यः

‘गुणाश्रय’ इति । गुणोऽद्रव्यम् । गुणाश्रयत्वं द्रव्यस्य लक्षणम् । संयोगाश्रयत्वमपि तथा बोध्यम् । ‘गुणाश्रयो वा द्रव्यमिति’ इति पाठान्तरम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

जो उपादान होता है, उसे द्रव्य कहते हैं,
यह हम ऊपर कह चुके हैं ।

जो गुणों का आश्रय होता है,
उसे द्रव्य कहते हैं ।
यह भी द्रव्य सामान्य का लक्षण हो सकता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने द्रव्य का एक और लक्षण किया है, वह है— जो गुणों का आश्रय होता है, उसे हम द्रव्य कहते हैं ।

मूलम्

उपादानं द्रव्यमित्युक्तम् । गुणाश्रयो द्रव्यमिति सामान्यलक्षणं सम्भवति ।