विश्वास-प्रस्तुतिः
४२. पुरुष-स्वातन्त्र्याधीन-रचना-विशेष-विशिष्टम् पौरुषेयम् ।
एतेन काव्य-नाटकालङ्कारादीनाम् अपि लक्षणम् उक्तं स्यात् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - ग्रन्थकार अपनी इच्छा से जिस ग्रन्थ का प्रणयन करता है, उसे पौरुषेय कहते हैं । इस तरह काव्य, नाटक एवं अलङ्कार ग्रन्थ भी पौरुषेय ग्रन्थ के अन्तर्गत आते हैं।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र०—उपर अपौरुषेय वेदों की चर्चा की गयी है, प्रसङ्गतः वेदाङ्गों तथा वेदोपबृंहण ग्रन्थों की भी चर्चा की गयी है । किन्तु अपौरुषेयता की चर्चा उपर नहीं की गयी है । अतएव ग्रन्थकार अपौरुषेय रचना की चर्चा से इस अनुच्छेद को उप- क्रान्त करते हैं ।
ग्रन्थकार अपनी इच्छा के अनुसार जिस ग्रन्थ की रचना करता है, वह पौरुषेय ग्रन्थ है । इतिहास, पुराण, वेदाङ्ग आदि पौरुषेय हैं, क्योंकि इन ग्रन्थों के प्रणेता तत्- तत् महर्षि आदि हैं । काव्य, नाटक आदि भी पौरुषेय ग्रन्थ की ही कोटि में आते हैं ।
मूलम्
४२. पुरुषस्वातन्त्र्याधीनरचनाविशेषविशिष्टम् पौरुषेयम् । एतेन काव्यनाटकालङ्कारादीनामपि लक्षणमुक्तं स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४३. एवम् आकाङ्क्षा-योग्यता-सन्निधिमल्-लौकिक-वाक्यान्य् अपि प्रमाणानि ।
यथा-“नद्यास् तीरे पञ्च फलानि सन्ति” इत्य्-आदीनि ।
शिवप्रसादः (हिं)
आप्त पुरुष के द्वारा उच्चरित आकांक्षा, योग्यता तथा सन्निधियुक्त लौकिक वाक्य भी प्रामाणिक हैं। जैसे- ‘नदी के तट पर पाँच फल हैं।’ इत्यादि वाक्य ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
वाक्य- विचार - आप्त पुरुषों द्वारा प्रोक्त लौकिक वाक्य भी वैदिक वाक्य के ही समान शाब्दीप्रमा के जनक होने के कारण प्रामाणिक होते हैं । अब प्रश्न उठता है - कि वाक्य किसे कहते हैं ? वाक्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि आकांक्षा, योग्यता तथा आसत्तियुक्त पदसमूह को ही वाक्य कहा जाता है— ‘वाक्यं स्याद् योग्यताकाङ्क्षाऽऽसत्तियुक्तः पदोच्चयः ।’ ग्रन्थकार को भी वाक्य का यही लक्षण अभिप्रेत है । इस वाक्य में आये हुए आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति पदार्थ व्याख्या- सापेक्ष हैं, अतएव उनकी चर्चा नीचे की जा रही है ।
आकांक्षा - किसी ज्ञान की समाप्ति या पूर्ति का न होना ही आकांक्षा है । ‘आकाङ्क्षा प्रतीतिपर्यवसानविरहः ।’ वाक्यार्थ की पूर्ति के लिए किसी पदार्थ की जिज्ञासा का बना रहना आकांक्षा कहलाता है । जैसे– ‘देवदत्तो ग्रामम्’ इतना कहने के पश्चात् भी ‘गच्छति’ इत्यादि की आकांक्षा बनी रहती है। उसके बिना वाक्यार्थ- ज्ञान की पूर्ति नहीं होती है । वाक्य के पदों में आकांक्षा का सद्भाव रहता है ।
योग्यता – ‘योग्यता पदार्थानां परस्परसम्बन्धे बाधाभावः ।’ एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से सम्बन्ध करने में बाध का न होना ही योग्यता कहलाती है । जो पदार्थ जिस पदार्थ के साथ सम्बन्ध करने में बाधित न हो, उसे योग्य कहते हैं । योग्यता के बिना भी पदसमुदाय को वाक्य माना जाय तो ‘वह्निना सिञ्चति’ इस पदसमुदाय को भी वाक्य मानना होगा । किन्तु वह्नि की सिखने की कारणता नहीं है, अपितु इसमें जलाने की योग्यता है । अतएव यह पदसमुदाय योग्य नहीं है ।
आसत्ति - प्रकृतोपयोगी पदार्थों की उपस्थिति के अव्यवधान को आसत्ति कहते हैं । जिन पदार्थों का प्रकरण में सम्बन्ध होता है, उनके बीच में व्यवधान न होना आसत्ति कहलाता है । यह व्यवधान दो प्रकार का होता है— कालकृत एवं देशकृत ।
[[६७]]
यदि कालकृत व्यवधान के होने पर भी पदसमूहों में वाक्यत्व हो तो आज के उच्च- रित ‘रामः’ पद का दूसरे दिन के उच्चरित - ‘गच्छति’ पद से संबन्ध होने लगेगा । यदि देशकृत व्यवधान के रहने पर भी पदसमुदाय को वाक्य माना जाय तो प्रथम पृष्ठ पर लिखे गये ‘देवदत्तः’ पद का तृतीय पृष्ठ पर लिखे गये ‘याति’ पद से संबन्ध होकर वाक्य होने लगेगा। अतएव आकांक्षा, योग्यता तथा आसत्ति युक्त पदसमुदाय को वाक्य कहते हैं ।
मूलम्
४३. एवम् आकाङ्क्षायोग्यतासन्निधिमल्लौकिकवाक्यान्यपि प्रमाणानि । यथा-“नद्यास्तीरे पञ्चफलानि सन्ति” इत्यादीनि ।
वासुदेवः
एवम् आकाङ्क्षेति । आकाङ्क्षा चैक-पदार्थ-ज्ञाने तद्-अर्थान्वय-योग्यार्थस्य यज् ज्ञानं तद्-विषयेच्छा । सा च पुरुष-निष्ठा ऽपि विषय-भूते ऽर्थ आरोप्यते । तादृशाकाङ्क्षा-रहितार्थ-बोधकं वाक्यम् अप्रमाणम् । यथा गौर् अश्वः पुरुषो हस्तीत्यादि । योग्यता च परस्परान्वय-प्रयोजक-धर्म-वत्त्वम् । तेनाग्निना सिञ्चतीति वाक्यम् अप्रमाणम् । अग्नौ सेकान्वय-प्रयोजक-द्रव-द्रव्यत्व-योग्यताया अभावात् । प्रकृतान्वय-बोधानुकूल-पदाव्यवधानं संनिधिः । तेन गिरिर् भुक्तम् अग्निमान् देवदत्तेनेति वाक्यम् अप्रमाणम् । तथैव प्रहरे प्रहरे ऽसहोच्चारितानि गाम् आनयेत्यादि-पदानि न प्रमाणानीति बोध्यम् ।
[[६५]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
४४. एवं वैदिक-लौकिक-साधारणं वाक्यं द्विविधम् -
मुख्य-वृत्ति–गौण-वृत्ति-भेदात् ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस तरह वैदिक एवं लौकिक दोनों तरह के वाक्य दो-दो तरह के होते हैं - मुख्या- वृत्ति वाले तथा गौणीवृत्ति वाले ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
वृत्तिभेद के कारण वाक्यभेद — यतीन्द्रमतदीपिकाकार वृत्तियों के भेद के कारण भी वाक्य के भेद का प्रतिपादन करते हुए उसका वे दो भेद मानते हैं- मुख्यावृत्ति वाला वाक्य तथा गौणीवृत्ति वाला वाक्य । शब्द में होने वाले व्यापार को वृत्ति कहते हैं । शब्द की वृत्ति दो प्रकार की होती है— मुख्यावृत्ति एवं गौणीवृत्ति । मुख्यावृत्ति को ही अभिधावृत्ति कहते हैं ।
मूलम्
४४. एवं वैदिकलौकिकसाधारणं वाक्यं द्विविधम् -मुख्यवृत्तिगौणवृत्तिभेदात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४५. मुख्य-वृत्तिर् अभिधा-वृत्तिः ।
यथा – सिंह-शब्दस्य मृगेन्द्रे ।
शिवप्रसादः (हिं)
अभिधावृत्ति को ही मुख्यावृत्ति कहते हैं । जैसे- सिंह शब्द की मृगेन्द्र में मुख्यावृत्ति है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
अभिधावृत्ति को ही शक्ति भी कहते हैं । शब्द के इस व्यापार के द्वारा संकेतितार्थ का ज्ञान होता है ।
मूलम्
४५. मुख्यवृत्तिरभिधावृत्तिः । यथा – सिंहशब्दस्य मृगेन्द्रे ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४६. सा अभिधा-वृत्तिः योग-रूढ्यादिभेदेन बहु-विधा।
शिवप्रसादः (हिं)
उस अभिधावृत्ति के - योग, रूढ आदि बहुत से भेद हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
अभिधावृत्ति वाले वाक्य के ही यौगिक एवं रूढ आदि कई भेद होते हैं ।
मूलम्
४६. सा अभिधावृत्तिः योगरूढ्यादिभेदेन बहुविधा।
वासुदेवः
योग-रूढयादीति । आदिना योगरूढि-संग्रहः । तत्र शास्त्र-कल्पितावयवार्थ-निरूपिता शक्तिर् योगः । यथा - पाचकादौ । शास्त्र-कल्पिता ऽवयवार्थ-मानाभावे समुदायार्थ-निरूपित शक्ती रूढिः । यथा - मणिनूपुरादौ । शास्त्र-कल्पितावयवार्थान्वित-विशेष्य-भूतार्थ-निरूपिता शक्तिर्योगरूढिः । यथा पङ्कजादौ । यौगिक-रूढिर् अपि चतुर्थी वृत्तिर् अस्तीत्य् एके । महा-योगाख्या ऽपि काचिद् वृत्तिर् अस्तीत्य् अन्ये ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४७. मुख्यार्थ-बाधे सति तद्-आसन्ने ऽर्थे वृत्तिर् औपचारिकी ।
सा द्विविधा – लक्षणा-गौणी-भेदात् ।
प्रथमा यथा – “गङ्गायां घोष” इत्य्-अत्र घोषाधिकरणस्य बाधात्
तीरे लक्षणा ।
द्वितीया यथा – “सिंहो देवदत्त” इत्य्-अत्र
देवदत्ते शौर्यादि-गुण-योगः ।
शिवप्रसादः (हिं)
मुख्यार्थ का बाध हो जाने पर मुख्यार्थ से सम्बद्ध अर्थ में जो शब्द की वृत्ति होती है, उसे औपचारिकी वृत्ति कहते हैं । औपचारिकी वृत्ति दो प्रकार की होती है-लक्षणा तथा गौणी । जैसे ‘गङ्गायां घोषः’ इस वाक्य में जल-प्रवाह के अधिकरणत्व का बाध होने से गङ्गा पद की तीर में लक्षणा होती है । ‘देवदत्त सिंह है’ इस वाक्य में देवदत्त में सिंह पद का इसलिए प्रयोग हुआ है कि देवदत्त में सिंह के शौर्य, क्रौर्य आदि गुणों का योग है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
मुख्यार्थ का बाध होने पर मुख्यार्थ से संबद्ध अर्थ में जो शब्द की वृत्ति होती है, उसे औपचारिकी वृत्ति कहते हैं ।
उपचार पदार्थ – उपचार को लक्षित करते हुए आचार्य विश्वनाथ कहते हैं- ‘अत्यन्तविशकलितयोः शव्दयोः ( पदार्थयोः ) सादृश्यातिशय महिम्ना भेदप्रतीतिस्थ- गनमुपचारः ।’ अर्थात् अत्यन्त पृथक्-पृथक् रूप से प्रतीत होने वाले दो पदार्थों का सादृश्यातिशय्य के कारण भेद की प्रतीति का न होना ही उपचार है ।
मुख्यार्थबाध का हेतु और उदाहरण - शब्द की उपचारवृत्ति के लिए मुख्यार्थ का बाघ होना अनिवार्य है । यह मुख्यार्थं का बाध तात्पर्यं अनुपपत्ति होने पर ही होता है । जैसे – ‘गङ्गायां घोषः’ यह वाक्य है । इसके गङ्गा शब्द का जलप्रवाह रूप अर्थ है । ‘गङ्गायाम्’ की सप्तमी का अधिकरण रूप अर्थ है । घोष शब्द का अर्थ मडई है । ‘घोषः’ के प्रथमा का अर्थ आधेयता है । यह आधेयता ‘गङ्गायाम्’ की अधिकरणता से निरूपित है । इस तरह इस वाक्य का अर्थ यह हुआ - ‘जलप्रवाहनिष्ठ अधिकरणता- निरूपित आधेयतावान् घोषः । किन्तु जलप्रवाह घोष का आधार नहीं हो सकता है । अतएव जलप्रवाह तथा घोष में आधाराधेयभाव अनुपपन्न होता है । गङ्गा पद का जलप्रवाह से भिन्न उससे सन्निकटस्थ कूल ( तट ) में लक्षणा होती है और उक्त वाक्य का अर्थ हुआ — ‘जलप्रवाहतटनिष्ठ अधिकरणतानिरूपित आधेयतावान् घोषः ।’
दो प्रकार की औपचारिको वृत्ति - शब्द की यह औपचारिकी वृत्ति दो प्रकार की होती है-लक्षणा और गौणी । ‘गङ्गायां घोषः’ लक्षणा का उदाहरण है । मुख्यार्थ का बाध होने पर गौणीवृत्ति गुण को लेकर प्रवृत्त होती है । जैसे- ‘सिंहो देवदत्तः’ देवदत्त सिंह है । किन्तु सिंह एक चतुष्पाद जानवर का नाम है । अतएवं देवदत्त एवं सिंह में अभेद असंभव है । किन्तु जिस तरह का शौर्य, क्रौर्य, वीर्यं एवं पराक्रम सिंह [[६८]] में पाया जाता है, उसी तरह के शौर्यादि से युक्त देवदत्त है । इस गुण के साम्य के कारण ‘सिंहो देवदत्तः’ यह वाक्य कहा जाता है । कठोपनिषद् में यमराज से नचिकेता नामक अतिथि के विषय में उनके अमात्यों ने कहा था- ‘वैश्वानर अतिथिः ।’ यह वैदिक वाक्य भी गौणी प्रयोग का उदाहरण है ।
मूलम्
४७. मुख्यार्थबाधे सति तदासन्नेऽर्थे वृत्तिरौपचारिकी । सा द्विविधा – लक्षणा- गौणीभेदात् । प्रथमा यथा – “गङ्गायां घोष” इत्यत्र घोषाधिकरणस्य बाधात् तीरे लक्षणा । द्वितीया यथा – “सिंहो देवदत्त” इत्यत्र देवदत्ते शौर्यादिगुणयोगः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४८. एवं वैदिक-लौकिक-रूपं सर्वं वाक्य-जातं स-विशेष-विषयकम् भेद-विषयकं च।
शिवप्रसादः (हिं)
इस तरह सभी वैदिक तथा लौकिक वाक्यों के विषय विशेषणविशिष्ट तथा भेद-युक्त पदार्थ होते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
वैदिक एवं लौकिक सभी प्रकार के वाक्यों के विषय सविशेष ही होते हैं - यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है। उनका कहना है कि कोई भी शब्द सर्वथा विशेषण रहित वस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकता, क्योंकि वाक्यों तथा पदों का यह स्वभाव होता है कि वे विशेषणविशिष्ट वस्तु का ही प्रतिपादन करते हैं।
पदों के दो भाग होते हैं - प्रकृतिभाग और प्रत्ययभाग । इन दोनों भागों के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं और वे दोनों अर्थ परस्पर में अन्वित होते हैं । इस तरह प्रकृति प्रत्ययार्थविशिष्ट स्वार्थ को बतलाती है तथा प्रत्यय अपने अर्थ से विशिष्ट प्रकृत्यर्थ को बतलाता है । अतः स्पष्ट है कि पद प्रकृत्यर्थ से युक्त प्रत्ययार्थ का प्रतिपादन करता है । अतः पद विशेषणविशिष्ट अर्थ का ही प्रतिपादन कर सकता है, यह सिद्ध होता है।
यदि पद ही निर्विशेष अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकता है
तो फिर पदों के समुदाय रूप वाक्य कैसे निर्विशेष अर्थ का प्रतिपादन कर पायेगा ?
अतः सभी वाक्य सविशेष अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं; यह सिद्ध होता है ।
मूलम्
४८. एवं वैदिकलौकिकरूपं सर्वं वाक्यजातं सविशेषविषयकम् भेदविषयकं च।
वासुदेवः
स-विशेषेति । शब्दस्य हि द्विधा प्रवृत्तिः । पद-रूपेण वाक्य-रूपेण च । तत्र प्रकृति-प्रत्यय-योगेन पदत्वम् । यथा पाचक इति । अत्र ‘पच्’ इति प्रकृतेः पचनम् अर्थः । ण्वुल्-प्रत्ययस्य च कर्तृ-रूपो ऽर्थः । तयोः संबन्धेन पाचक-शब्दात् पचन-कर्तृत्वं यद् बुध्यते स एव विशेष इति प्रथमतः पदम् एव तावत् स-विशेष-वस्तु-प्रतिपादकं भवतीति तत्-समुदाय-रूपस्य तत्तत्-पदार्थ-संसर्ग-रूप-वाक्यार्थ-प्रतिपादकस्य वाक्यस्य स-विशेष-वस्तु-प्रतिपादकत्वम् अवर्जनीयम् एव । अत एव च वाक्यस्य भेद-विषयकत्वम् अपि सिद्धं भवति । सर्वत्र विशेष-तद्-युक्त-वस्तुनोर् धर्म-धर्मिणोर् भेदेनैव प्रतीयमानत्वात् । एतेन ‘तत्त्वम् असि’ ( छा० ६ । ८ । ७ ) इत्यादि-वाक्यानि निर्विशेषाद्वितीय-ब्रह्म-रूप-वस्तु-प्रतिपादकानीति मायावाद्य्-उक्तम् अपास्तम् । नन्व् एवं तत्त्वम् असीत्य् अत्र तत्-त्वं-पदार्थयोः सामानाधिकरण्यं कथम् उपपद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४९. शरीर-वाचक-शब्दानां यथा शरीरिणि पर्यवसानम्,
एवम् भगवच्-छरीरभूत–ब्रह्म-रुद्राग्नीन्द्रादि-चिद्-वाचक-शब्दानां
तथा तच्-छरीर-भूत-प्रकृति-कालाकाश-प्राणाद्य्-अचिद्-वाचक-शब्दानां च
शरीरिणि परमात्मनि नारायणे पर्यवसानम् उपपादयन्त्य् आचार्यः ।
शिवप्रसादः (हिं)
‘ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्’ यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मात्मक है ।
‘जगत् सर्वं शरीरं ते’
हे भगवन् ! सम्पूर्ण जगत् आपका शरीर है ।
‘तत् सर्वं वै हरेस्तनुः’
श्रीहरि का सम्पूर्ण जगत् तनु है ।
इत्यादि श्रौतस्मार्तवाक्य बतलाते हैं कि
सम्पूर्ण जगत् परमात्मा का शरीर है और ब्रह्म जगत् की आत्मा है ।
जिस तरह देवदत्त आदि शरीरवाचक शब्द उस शरीर के भीतर रहने वाली आत्मा पर्यन्त का बोध कराते हैं,
उसी तरह सभी देव, मनुष्य आदि जीवों तथा प्रकृति, काल आदि उचित पदार्थों के वाचक शब्द
उन शरीरों के भीतर रहनेवाली आत्मा और आत्मा के भीतर रहकर
उसका नियमन करने वाले परमात्मा पर्यन्त का अभिधान करते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं)
जैसे - तत् तत् शरीरों के वाचक शब्दों का पर्यवसान शरीरी में होता है, उसी तरह श्रीभगवान् के शरीरभूत ब्रह्मा, रुद्र, अग्नि, इन्द्र आदि चेतनों [[६६]] के वाचक तथा प्रकृति, काल, आकाश तथा प्राण आदि अचेतनों के वाचक शब्दों का पर्यवसान उनके आत्माभूत परमात्मा श्रीमन्नारायण में ही होता है, इस अर्थ का प्रतिपादन आचार्यगण करते हैं ।
मूलम्
४९. शरीरवाचकशब्दानां यथा शरीरिणि पर्यवसानम्, एवम् भगवच्छरीरभूत-ब्रह्मरुद्राग्नीन्द्रादिचिद्वाचकशब्दानां तथा तच्छरीरभूतप्रकृतिकालाकाशप्राणाद्यचिद्वाचकशब्दानां च शरीरिणि परमात्मनि नारायणे पर्यवसानमुपपादयन्त्याचार्यः ।
वासुदेवः
तथा ‘इदं सर्वं यद् अयम् आत्मा ’ ( बृ. २ । ४ । १ ) इत्य् अत्रापीति चेत् तत्रा ऽऽह - शरीर-वाचकेति । अयं देवो ऽयं मनुष्य इत्यादौ देवादि-शब्दा न केवल-जीववाचकाः । किंतु शरीर-वाचकाः । शरीर-रहितानां जीवानां साम्येन तेषु देवत्वादि-प्रयोजक-भेदक-धर्माभावत् । तत्रापि न केवल-शरीर-वाचकाः । किंतु तेषां शरीरिणि पर्यवसानम् । अन्यथा देवो मनुष्यः सुखी दुःखीत्यादि-प्रयोगासंगतेः । शरीरस्य सुखादि-वैशिष्ट्याभावात् । सर्वत्र शब्दार्थ-निर्णये प्रयोग एव शरणम् । वेदे ऽपि ‘पञ्चदश-रात्रा देवत्वं गच्छन्ति’ इत्यादि-प्रयोगा दृश्यन्ते । न हि यज्ञ-कर्तॄणां शरीरत्व-प्राप्तिः । तद् उक्तं सर्वार्थ-सिद्वौ - अपृथक्-सिद्ध-विशेषणत्वम् एव व्यवहार-नियमे तन्त्रम् । अस्ति चापृथक्-सिद्धत्वं शरीरिणा शरीरस्येति । एवम् इति । तथा च जीव-वाचकानां जड-वाचकानां च शब्दानां तत्तद्-विशेषण-विशिष्ट-परमात्म-पर्यन्तार्थ-प्रतिपादकत्वेन नोक्त-श्रुत्य्-उक्त-सामानाधिकरण्यानुपपत्तिर् इति बोध्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
५०. वेदान्त-ज्ञानाद् व्युत्पत्तिः पूर्यत इत्युक्तम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
कहा भी गया है कि वेदान्त का श्रवण कर लेने पर ही ज्ञान की पूर्ति होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
किन्तु इस अर्थ का ज्ञान तब होता है
जबकि वेदान्त का श्रवण कर लिया जाय । इसी अर्थ का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं— ‘वेदान्तज्ञानेन व्युत्पत्तिः पूर्यते ।’
ज्ञान की पूर्णता वेदान्त-श्रवण करने के पश्चात् ही होती है ।
वेदान्तश्रवण किये बिना जगत् के ब्रह्मात्मकत्व का ज्ञान सम्भव नहीं है ।
जगत् के ब्रह्मात्मकत्व का ज्ञान ही ज्ञान की पूर्णता है,
अतएव जीवनोन्नयन हेतु वेदान्त का श्रवण अनिवार्य है ।
मूलम्
५०. वेदान्तज्ञानाद् व्युत्पत्तिः पूर्यत इत्युक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
५१. नारायणस्य सर्व-शब्द-वाच्यत्वं सर्व-शरीरकत्वम् इत्यादिकं तु
+उपरि ईश्वर-निरूपणे प्रतिपादयिष्यामः ।
शिवप्रसादः (हिं)
हम आगे ईश्वर - परिच्छेदों में इस अर्थ का प्रतिपादन करेंगे कि भगवान् नारायण ही सभी शब्दों के वाच्य तथा सम्पूर्ण जगत् की आत्मा हैं ।
मूलम्
५१. नारायणस्य सर्वशब्दवाच्यत्वं सर्वशरीरकत्वमित्यादिकं तु उपरि ईश्वर- निरूपणे प्रतिपादयिष्यामः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति शब्दो निरूपितः
शिवप्रसादः (हिं)
इस तरह शब्दप्रमाण का निरूपण किया गया ।
मूलम्
इति शब्दो निरूपितः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन
विरचितायां यतीन्द्रमतदीपिकायां शब्दनिरूपणाम्
नाम तृतीयोऽवतारः ॥
शिवप्रसादः (हिं)
इस तरह श्रीवाधूलकुलतिलक श्रीमन्महाचार्य के प्रधान शिष्य श्रीनिवासाचार्य
द्वारा प्रणीत यतीन्द्रमतदीपिका नामक शारीरक - परिभाषा का
शब्दनिरूपण नामक तीसरा अवतार पूर्ण हुआ ।
मूलम्
इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन
विरचितायां यतीन्द्रमतदीपिकायां शब्दनिरूपणाम्
नाम तृतीयोऽवतारः ॥
वासुदेवः
इति श्री-यतीन्द्र-मत-दीपिका-प्रकाशे तृतीयो ऽवतारः ॥