विश्वास-प्रस्तुतिः
२७. अथ श्रुत्य्-अविरुद्धाचार-व्यवहार-प्रायश्चित्तादि-प्रतिपादिका
आप्त-प्रणीता स्मृतिः प्रमाणम्।
अण्णङ्गराचार्यः
आप्तेति । यथार्थद्रष्टृत्वे सति यथार्थं वक्तृत्वमाप्ततमत्वम् । मन्वादीनामाप्ततमत्वं ‘यद्वै किञ्चिन मनुरवदत्तभेषजम्’ ‘स होवाच व्यासं पाराशर्यं’ ‘ब्रह्मवादिनो वदन्ति’ इति श्रुतिसिद्धम् । कापिलादिस्मृतीनां मन्वादित्यश्रुत्यविरुद्धांशे प्रमाणत्वं तद्विरोधे त्वप्रमाणत्वं स्मृत्यनवकाशाधिकरणे (ब्र० मी०) प्रोक्तम् । तत्त्वविपर्यासादयः - परावरतत्त्वव्यत्यासवेदविरुद्धाचारादिप्रतिपादका भागा अप्रमाणमित्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - किश्व श्रुतियों के अनुकूल आचार-व्यवहार एवं प्रायश्चित्त आदि का प्रतिपादन करने वाली आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत स्मृतियाँ प्रामाणिक हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
स्मृतियों आदि का प्रामाण्य विवेचन
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भा० प्र० – साङ्ग वेद के प्रामाण्य का प्रतिपादन किया जा चुका है । ‘वेदार्थो निश्चेतव्यः स्मृतीतिहासपुराणैः’ इस श्रीवचनभूषण के प्रथम सूत्र के अनुसार वेद के अर्थों के निर्णय के साधन में स्मृति का प्रथम स्थान दिया गया है। स्मृतियों की संख्या भूयसी है । उनमें आपस में विरोध भी दिखता है । अब प्रश्न उठता है कि इनमें किस स्मृति का प्रामाण्य स्वीकार किया जाय। सभी का तो इसलिए नहीं माना जा सकता कि स्मृतियों के विचार परस्पर में विरोधी हैं । यदि कुछ खास ही स्मृतियाँ प्रामा- णिक हैं तो वे कौन हैं ?
इस शंका का समाधान करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि सिद्धान्त में उसी स्मृति को प्रामाणिक माना जाता है, जो श्रुति के अनुकूल ही आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित्त आदि का प्रतिपादन करती हैं। श्रुति के विरुद्ध आचार- व्यवहार आदि का प्रतिपादन करने वाली स्मृति का प्रामाण्य सिद्धान्त में नहीं स्वीकारा जाता है ।
मूलम्
२७. अथ श्रुत्यविरुद्धाचारव्यवहारप्रायश्चित्तादिप्रतिपादिका आप्तप्रणीता स्मृतिः प्रमाणम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२८. हिरण्यगर्भादीनाम् आप्तत्वेऽपि
तेषां गुण-त्रय-वश्यत्व-सम्भवात्
तत्-कर्तृक-योग-कपिलादि-स्मृतीनाम्
मन्व्-आदिस्मृत्य्-अविरुद्धांश (अविरुद्धांशा) एव प्रमाणम् ।
तत्त्व-विपर्यासात् विरुद्धांशो ऽप्रमाणम् (तत्त्वविपर्यासादिविरुद्धांशा न प्रमाणम्) ।
शिवप्रसादः (हिं)
यद्यपि हिरण्य- गर्भ आदि आप्त हैं, फिर भी उनका गुणत्रय ( प्रकृति ) के अधीन होना सम्भव है, अतएव उनके द्वारा प्रणीत योग तथा कपिल आदि महर्षियों द्वारा प्रणीत स्मृतियों का उसी अंश में प्रामाण्य है, जिस अंश में उनका मन्वादि स्मृतियों से कोई भी विरोध नहीं है । जहाँ पर इन लोगों ने तत्त्व का विपर्यास किया है, उन अंशों का प्रामाण्य सिद्धान्त में नहीं स्वीकार किया जाता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
वह स्मृति कौन है, जिसका प्रामाण्य सिद्धान्त में स्वीकार किया जाता है ? इस शंका का समाधान यह है कि सिद्धान्त में मनु को परम आप्त माना जाता है । श्रुति भी कहती है- ’ यन्मनुरवदत् तद् भेषजम्’ अर्थात् मनु ने अपनी स्मृति में जीवनो- न्नयन के लिए जिन साधनों का निर्देश किया है, उसे किसी भी मुमुक्षु जीव को उसी तरह से अपने जीवन में उतारना चाहिए, जिस तरह से कोई रोगी स्वास्थ्य लाभ लिए भेषज का सेवन करता है । अतएव मनु परम आप्त हैं और उनके द्वारा प्रणीत मनुस्मृति भी पूर्णरूप से प्रामाणिक है ।
हिरण्यगर्भ आदि भी आप्त हैं, किन्तु उनको त्रैगुण्य के अधीन होकर अतत्त्वोपदेश करते हुए भी देखा गया है । छान्दोग्योपनिषद् के आठवें प्रपाठक में हिरण्यगर्भ ही सर्वप्रथम चार्वाक मत का सूत्रपात करते हुए प्रतीत होते हैं । अतएव इनके द्वारा प्रणीत स्मृति एवं योगशास्त्र भी श्रुति से अनुकूल अंश में ही प्रामाणिक माने जाते हैं । कपिलस्मृति के प्रणेता महर्षि कपिल स्वयं भगवान् के अवतार हैं; किन्तु कपिलस्मृति का प्रामाण्य हम उसी अंश में स्वीकार करते हैं, जिस अंश में उनका मनुस्मृति से कोई विरोध नहीं है । विरोधस्थल में तो मनुस्मृति का ही प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है । मनुस्मृति की प्रामाणिकता के समर्थन में कहा भी गया है – ‘वेदेषु पौरुषं सूक्तं धर्मशास्त्रेषु मानवम् ।’ अर्थात् चारों वेदों में पठित पुरुषसूक्त का जिस तरह से सर्वाधिक प्रामाण्य माना जाता है, उसी तरह से मनु- स्मृति का भी सभी स्मृतियों में प्रामाण्य स्वीकार करना चाहिए ।
मूलम्
२८. हिरण्यगर्भादीनामाप्तत्वेऽपि तेषां गुणत्रयवश्यत्वसम्भवात् तत्कर्तृकयोगकपिलादिस्मृतीनाम् मन्वादिस्मृत्यविरुद्धांश (अविरुद्धांशा) एव प्रमाणम् । तत्त्वविपर्यासात् विरुद्धांशोऽप्रमाणम् (तत्त्वविपर्यासादिविरुद्धांशा न प्रमाणम्) ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२९. वेदोपबृंहण-रूपेतिहास-पुराणयोर् अपि प्रामाण्यं स्वतः– सिद्धम् ।
अण्णङ्गराचार्यः
वेदोपबृंहणेति । प्राणपूर्वभागस्योपबृंहणस्मृतयः । वेदान्तभागोपबृंहणमितिहासपुराणानि । उपबृंहणस्वावगतवेदार्थानां विशदीकरणं महर्षिवचनैः ।
शिवप्रसादः (हिं)
इतिहास एवं पुराण वेदों के उप- बृंहण-स्वरूप हैं, अतएव इनका भी प्रामाण्य स्वतः सिद्ध हो जाता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
वेद के ही अर्थों की व्याख्या करने के लिए इतिहास एवं पुराणों की प्रवृत्ति मानी जाती है । ‘इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयते’ इस वाक्य में इतिहास और पुराणों को वेदार्थ की व्याख्या का साधन बतलाया गया है। इतिहास में रामायण और महा- भारत, इन दो ग्रन्थों का नाम आता है । उनमें रामायण को श्रीवचनभूषणकार ने इतिहास-श्रेष्ठ कहा है।
मूलम्
२९. वेदोपबृंहणरूपेतिहासपुराणयोरपि प्रामाण्यं स्वतः–सिद्धम् ।
वासुदेवः
वेदोपबृंहणेति । तद् उक्तम् -
इतिहास-पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । बिभेत्य् अल्प-श्रुताद् वेदो माम् अयं प्रत[ह]रिष्यति ॥
इति ।
उपबृंहणं नाम विदित-सकल-वेद-तदर्थानां स्व-योग-महिम-साक्षात्कृत-वेद-तत्त्वार्थानां वाक्यैः स्वावगत-वेद-वाक्यार्थ-व्यक्तीकरणम् । सकल-शाखानुगतस्य वेद-वाक्यार्थस्याल्प-भाग-श्रवणाद् दुरवगमत्वेन तेन विना निश्चयायोगाद् उपबृंहणं हि कार्यम् एवेति श्री-भाष्यकृद्भिः प्रतिपादितम् । स्वतः सिद्धम् इति । मूलभूत-श्रुत्य्-अनुमानाद् एवेत्य् अर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३०. तत्र भारत-रामायणयोः क्वचित् क्वचिद् विरोध-भानेऽपि
तत्त्वांशे वेदान्त-वाक्यवद् अविरोधो ज्ञेयः ।
अण्णङ्गराचार्यः
तत्रेति । विरोधभाने - तत्त्वांशे वेदविरोधापातप्रतीतौ ।
वेदान्तवाक्यवदिति । यथोपनिषत्सु क्वचिद्रुद्रस्य, क्वचिद्धातुः, क्वचिच्चेन्द्रादेः पारम्यमापाततः प्रतीयते । न्यायसञ्चारादिना तत्र यथा विरोधं परिहृत्य नारायणपारम्यपरत्वं स्थाप्यते, तथैवेतिहासयोः श्रीरामायणभारतयोरप्यविरोधो नेय इत्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
महाभारत एवं श्रीरामायण में कहीं-कहीं पर विरोध की प्रतीति होने पर भी तत्त्व के विषय में उनका उसी प्रकार से अविरोध स्वीकार करना चाहिए, जैसा कि वेदान्त-वाक्यों के विषय में अविरोध स्कीकार किया जाता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
महाभारत और रामायण में आपाततः कहीं-कहीं विरोध की प्रतीति होती है, किन्तु तत्त्व के विषय में दोनों ग्रन्थों का ऐकमत्य है । अतएव विद्वानों को चाहिए कि उन दोनों ग्रन्थों में वे उसी तरह सामञ्जस्य स्थापित करें, [[६२]] जिस तरह आपाततः विरुद्ध प्रतीत होने वाले वेदान्त - वाक्यों में सामञ्जस्य स्थापित किया जाता है ।
मूलम्
३०. तत्र भारतरामायणयोः क्वचित् क्वचिद्विरोधभानेऽपि तत्त्वांशे वेदान्तवाक्यवदविरोधो ज्ञेयः ।