०१ शब्द-निरूपणम्

वासुदेवः

अथ तृतीयो ऽवतारः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

१. अनुमाननिरूपणानन्तरं शब्दो निरूप्यते ।
अनाप्तानुक्त-वाक्य-जनित–तद्-अर्थ-विज्ञानं शाब्द-ज्ञानम्
तत्-करणं शब्द-प्रमाणम्
“अनाप्तानुक्त” इत्युक्तत्वात् वेदस्य पौरुषेयत्व-मत-निरासः ।
कारण-दोष–बाधक-प्रत्ययाभाववत् वाक्यं वा +++(शब्द-प्रमाणम्)+++।

अण्णङ्गराचार्यः

अनाप्तेति । आप्तवाक्यं शब्दप्रमाणमिति तार्किकाः । आप्तो - यथार्थवक्ता । वेदस्य पौरुषेयत्वम् ईश्वरकृतत्वं तेषामभिमतम् । वेदापौरुषेयत्ववादिभिस्सिद्धान्तिभिस्तु अनाप्तानुक्तवाक्यं शब्दप्रमाणमित्युच्यते ।
अस्य लक्षणान्तरमाह कारणदोषेति ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद—अनुमानप्रमाण के निरूपण के पश्चात् शब्दप्रमाण का निरूपण किया जा रहा है । जो अनाप्त व्यक्ति के द्वारा नहीं कहा गया हो, उस वाक्य से उत्पन्न वाक्य के अर्थ का ज्ञान ही शाब्दज्ञान है । उस शाब्दज्ञान के साधकतम को शब्द- प्रमाण कहते हैं । लक्षण में अनाप्तानुक्त पद का सन्निवेश करके वेदों को पौरुषेय मानने वाले नैयायिकों के मत का निरास किया गया है । अथवा ऐसे वाक्य को शब्द- प्रमाण कहते हैं, जो कारण-दोष तथा बाधक ज्ञान से रहित हों ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

शब्दप्रमाण का निरूपण

भा० प्र० - पहले के दो अवतारों में क्रमशः प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाणों का निरूपण किया जा चुका है। अब इस तीसरे अवतार में क्रमप्राप्त शब्दप्रमाण का निरूपण किया जा रहा है । शाब्दप्रमा के साधकतम को शब्दप्रमाण कहते हैं । ऐसा वाक्य जो अनाप्त पुरुष के द्वारा नहीं कहा गया हो, उस वाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थं ज्ञान को शाब्दीप्रमा कहा जाता है ।

मूलम्

१. अनुमाननिरूपणानन्तरं शब्दो निरूप्यते । अनाप्तानुक्तवाक्यजनिततदर्थविज्ञानं शाब्दज्ञानम् । तत्करणं शब्दप्रमाणम्। “अनाप्तानुक्त” इत्युक्तत्वात् वेदस्य पौरुषेयत्वमतनिरासः । कारणदोषबाधकप्रत्ययाभाववत् वाक्यं वा ।

वासुदेवः

अनाप्तेति। नञ् द्वयं परित्यज्या ऽऽप्तोक्त-वाक्य-जनित-तदर्थ-विज्ञानम् इत्य् उक्तौ तु वेदस्या ऽऽप्तोक्तत्वासिद्धये तस्य पौरुषेयत्वं स्वीकार्यं स्यात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

२. सर्गादौ भगवान् चतुर्मुखाय
पूर्व-पूर्व-क्रम-विशिष्टान् वेदान् स्मृत्वा स्मृत्वा +उपदिशतीत्युवत्या
वेदस्य नित्यत्वम् अपौरुषेयत्वं च सिद्धम्
इति करण-दोषाभावो बाधक-प्रत्ययाभावश् च ।

अण्णङ्गराचार्यः

वेदानामपौरुषेयत्वमुपपादयंस्तत्र कारणदोषाद्यभावमाह सर्गादाविति । पुरुषबुद्ध्यधीनरचनत्वं पौरुषेयत्वम् । तदभावोऽपौरुषेयत्वम् । ईश्वरस्सन्नपि भगवान् पूर्वानुपूर्वीसमानानुपूर्वीकमेव वेदः प्रतिकल्पं प्रवर्तयतीति सिद्धं वेदानाम्, पौरुषेयत्वम् । नित्यत्वं च तेषां सदा एकविधानुपूर्वीकत्वमेव । ‘पूर्वे र्वेभ्यो[[??]] वच एतदूचुः’

अनादिनिधना ह्येषा वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।
आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रसूतयः ॥

इत्यादिवचनैर्वेदानामपौरुषेयत्वादिसिद्धिः । ‘वाचाविरूपनित्यया वृष्णे चोदस्व’ इति श्रुतिश्च ऋगादिभेदवत्या वेदवाण्या नित्यत्वमाह मुक्तकण्ठमेव । हे वृष्णे नित्यया वेदवाचा पुरुरूपया ऋगादिकया भगवन्त प्रीणयेत्येतद्वाक्यार्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीभगवान् पूर्व - पूर्वक्रमविशिष्ट वेदों को स्मरण करके ब्रह्मा को उनका उपदेश देते हैं, इस उक्ति के अनुसार वेदों की नित्यता तथा अपौरुषेयता सिद्ध होती है । अतएव वेदों में कारण-दोष तथा बाधकप्रत्यय का अभाव है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अनाप्तानुक्तत्व वाक्य का विशेषण बतलाकर यह कहा गया है कि शाब्दज्ञान के जनक वाक्य का किसी पुरुष के द्वारा उक्त होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि वेद तो अपौरुषेय हैं । उनका प्रवक्ता कोई पुरुष नहीं है । ईश्वर भी उन वाक्यों के स्वतंत्र वक्ता नहीं है । ईश्वर तो सृष्टि के प्रारम्भ में पूर्व- कल्प में विद्यमान यथायथ आनुपूर्वी सहित वेदों का स्मरण करके उनका उपदेश ब्रह्मा को दे देते हैं । एतावता स्पष्ट है कि ईश्वर भी वेदों के वक्ता नहीं हैं । अतएव वेद किसी पुरुष - विशेष द्वारा उक्त नहीं हैं; अपितु वे अपौरुषेय हैं तथा नित्य हैं । सर्वदा एकसमान आनुपूर्वी से युक्त रहना ही वेदों की नित्यता है ।

जिसकी रचना किसी पुरुष की बुद्धि के अधीन होती है, वह पौरुषेय है । वेदों की रचना किसी पुरुष की बुद्धि के अधीन नहीं हुई है । कहा भी गया है— [[५४]]

‘अनादिनिधना ह्येषा वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।’
आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रसूतयः ॥’

[[1]]

अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीभगवान् से आदि और अन्त रहित वेदरूपी दिव्य वाणी निस्सृत हुई, जिससे कि सारी सृष्टि हुई । ऋक् आदि विविध भेदों वाली वेद- वाणी की नित्यता तथा अपौरुषेयता का प्रतिपादन मुक्तकण्ठ से करती हुई श्रुति भी कहती है- ‘वाचा विरूपनित्यया वृष्णे चोदस्व ।’ श्रुति का अर्थ है – हे वृष्णि । ऋक् आदि अनेक रूपों वाली नित्य वेदवाणी के द्वारा श्रीभगवान् को प्रसन्न करो ।

नैयायिक आदि वेदों को पौरुषेय मानते हैं । वे उन्हें ईश्वर-प्रोक्त मानते हैं । अर्थात् ईश्वर वेदों का स्वतंत्र वक्ता है । नैयायिकाभिमत वेदों की पौरुषेयता का खण्डन करने के लिए ही मूल में वाक्य को अनाप्तानुक्त कहा गया है । विशिष्टाद्वैतियों के अनुसार वाक्य का उक्त होना आवश्यक नहीं है, किन्तु यदि वाक्य किसी स्वतंत्र वक्ता द्वारा उक्त हो तो उसका वक्ता अनाप्त नहीं होना चाहिये; अपितु उसे आप्त होना चाहिए । आप्त उसे कहते हैं, जो किसी भी कारणवश अयथार्थ न कहे; अपितु जो सदा यथार्थ ही कहे, उसे आप्त कहते हैं । नैयायिकों के अनुसार ईश्वर आप्तपुरुष है । वही वेदों का उपदेष्टा है ।

शब्दप्रमाण का दूसरा लक्षण करते हुए यतीन्द्र मतदीपिकाकार कहते हैं, अथवा जो कारणदोष एवं बाधकप्रयास से रहित होता है, वही वाक्य शाब्दप्रमा का जनक होता है । चूंकि वेद नित्य है, अतएव पौरुषेय वाक्यों में होने वाले – भ्रम, प्रमाण, करणापाटव एवं विप्रलिप्सा रूपी कारणदोषों का अभाव है । वेदवाक्य यथार्थज्ञान का प्रतिपादन करते हैं, अतएव उन ज्ञानों का कोई भी बाधकज्ञान नहीं है । इस प्रकार वेदवाक्य शाब्दप्रमा के जनक हैं । लोक में भी आप्तपुरुषों द्वारा प्रोक्त वाक्य कारण- दोष तथा बाधकप्रत्यय से रहित होते हैं । अतएव वे भी शाब्दप्रमा के जनक होते हैं ।

मूलम्

२. सर्गादौ भगवान् चतुर्मुखाय पूर्वपूर्वक्रमविशिष्टान् वेदान् स्मृत्वा स्मृत्वा उपदिश-तीत्युवत्या वेदस्य नित्यत्वमपौरुषेयत्वं च सिद्धमिति करणदोषाभावो बाधकप्रत्ययाभावश्च ।

वासुदेवः

करणेतिकरण-दोषो बाधक-प्रत्ययश् चेत्य् एतत्-उभयाभाव-विशिष्टम् इत्य् अर्थः । अत्रायं प्रयोगः - वेदः प्रमाणं, करण-दोष-बाधक-प्रत्यय-रहितत्वे सति वाक्यत्वात् संप्रतिपन्न-वाक्यवत् । अपौरुषेयत्वात् करण-दोष-राहित्यम् । बाधक-प्रत्ययो ऽपि नास्ति । स ह्य् अनुमानाद् वा श्रुतेर् वा स्मृतेर् वा लौकिक-वाक्याद् वा । ना ऽऽद्यः । तादृशानुमानस्यैवा ऽऽगम-बाधितत्वेनाप्रमाणत्वात् ।