०९ अर्थापत्त्यादिकस्यानुमाने ऽन्तर्भावः

विश्वास-प्रस्तुतिः

४२. अर्थापत्तिर् नाम -
दिवा अ-भुञ्जानस्य पुरुषस्य पीनत्व-दर्शनात्
रात्रौ भोजनं कल्प्यते ।
एतस्या अनुमाने अन्तर्भावः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - दिन में भोजन नहीं करने वाले पुरुष को तथा हृष्टपुष्ट शरीरवाले देखकर उसके रात्रि के भोजन की कल्पना करना ही अर्थापत्तिप्रमाण है । अर्थापत्ति का अनुमानप्रमाण में अन्तर्भाव होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अर्थापत्ति आदि का अनुमान में अन्तर्भाव-निरूपण

भा० प्र० – मीमांसक आदि अर्थापत्ति नामक एक अतिरिक्त प्रमाण स्वीकार करते हैं । सिद्धान्त में अर्थापत्ति को अतिरिक्त प्रमाण नहीं स्वीकार किया जाता । अर्थापत्ति का अन्तर्भाव अनुमान में किया जाता है । ‘देवदत्त हृष्ट पुष्ट है, किन्तु दिन में भोजन नहीं करता है।’ यह सुनकर श्रोता यह अनुमान करता है कि जो-जो हृष्ट-पुष्ट रहता है, वह कभी न कभी भोजन अवश्य करता है । देवदत्त हृष्ट-पुष्ट है, किन्तु दिन में भोजन नहीं करता है। इससे पता चलता है कि वह रात्रि में पर्याप्त भोजन अवश्य करता है। इस प्रकार देवदत्त आदि के रात्रि के भोजन आदि की कल्पना को ही अर्थापत्ति कहते हैं । इस कल्पना का आधार अनुमान है, अतएव सिद्धान्त में अर्थापत्ति का अनुमान में अन्तर्भाव किया जाता है ।

मूलम्

४२. अर्थापत्तिर्नाम दिवा अभुञ्जानस्य पुरुषस्य पीनत्वदर्शनात् रात्रौ भोजनं कल्प्यते । एतस्या अनुमाने अन्तर्भावः ।

वासुदेवः

एतस्येति। तथा च प्रयोगः - देवदत्तो रात्रि-भोजी दिवा ऽभुञ्जानत्वे सति पीनत्वात्। जीवी देवदत्तो गृहे नेत्यत्र बहिः सत्त्वम् अप्य् अनुमानाद् एव सिध्यति। जीवन् देवदत्तो बहिर् अस्ति विद्यमानत्वे सति गृहे ऽसत्त्वातद् इति। एवम् एव सर्वत्र बोध्यम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४३. तर्को नाम व्याप्याङ्गीकारेण व्यापक-प्रसञ्जनम् ।
तद्यथा – “पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्” इत्यनुमाने,
“धूमोऽस्तु वह्निर्मास्तु’ इत्युक्ते,
“यदि वह्निर्न स्यात् तर्हि धूमोऽपि न स्यात्” इति;
एतस्य प्रमाणानुग्राहकत्वम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

व्यापक को स्वीकार करके व्यापक में अनिष्ट का प्रतिपादन करना ही तर्क कहलाता है । जैसे— पर्वत पर अग्नि है, क्योंकि पर्वत पर धूम है, इस अनुमान के विषय में पर्वत पर धूम रहे किन्तु अग्नि न रहे, क्या आपत्ति है ? इस तरह की आशङ्का करने पर यदि पर्वत पर अग्नि नहीं होता तो घूम भी नहीं रहेगा । यह प्रमाणानुग्राहक तर्क होता है।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

तर्क — व्याप्य को स्वीकार करके व्यापक में अनिष्ट का प्रतिपादन करना ही तर्क कहलाता है । जैसे—पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि वह धूमवाला है । इस अनुमान में व्याप्य धूम है और व्यापक अग्नि है। पक्ष में व्याप्य धूम को स्वीकार करके व्यापक अग्नि का अनिष्ट प्रतिपादन करने को तर्क कहा जाता है । जैसे - कोई यह कहे कि पर्वत में घून तो रहे, किन्तु अग्नि न रहे तो क्या आपत्ति होगी ? अर्थात् हम [[५१]] इस अनुमान के व्याप्य को तो स्वीकारते हैं, किन्तु व्यापक को नहीं स्वीकारते हैं क्या आपत्ति है ? इस प्रकार की शंका होने पर कहा जा सकता है कि पक्ष में यदि व्यापक नहीं होगा तो व्याप्य भी नहीं हो सकता है । यदि पर्वत पर अग्नि नहीं होगा तो वहाँ धूम भी नहीं हो सकता, क्योंकि जहां व्याप्य नहीं रहता है, वहीं व्यापक व्याप्य का अविनाभूत होता है । इस प्रकार यह अनुमानप्रमाण तर्कानुगृहीत है। तर्कानुगृहीत प्रमाण ही सत्प्रमाण होता है। तर्काननुगृहीत प्रमाण सत्प्रमाण की कोटि से बहिर्भूत होता है। इस तर्क का भी अनुमान में ही अन्तर्भाव होता है ।

मूलम्

४३. तर्को नाम व्याप्याङ्गीकारेण व्यापकप्रसञ्जनम् । तद्यथा – “पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्” इत्यनुमाने, “धूमोऽस्तु वह्निर्मास्तु’ इत्युक्ते, “यदि वह्निर्न स्यात् तर्हि धूमोऽपि न स्यात्” इति; एतस्य प्रमाणानुग्राहकत्वम् ।

वासुदेवः

तद् उक्तम् - ‘अनियम्यस्य नायुक्तिर् नानुपपद्यमानता’ इति।

अनियम्यस्याव्याप्यस्य नायुक्तिर् नानुपपद्यमानता। अनियन्ता ऽव्यापको नोपपादक इत्य् अर्थः। तथा च व्याप्तिर् एव नामान्तरेणानुपपत्तिर् इत्य् उच्यत इति नार्थापत्तिः प्रमाणान्तरम् इति भावः। प्रमाणानुग्राहकत्वम् इति। यदि वह्निर् न स्यात् तर्हि धूमो ऽपि न स्यात्। स्याच् चेत् कार्य-कारण-भाव-भङ्गः स्याद् इति तर्कः। स च यत्र धूमस् तत्र वह्निर् इति व्याप्तौ कथितायां ‘धूमो ऽस्तु नाम परं तत्र वह्निना कथम् अवश्यं भवितव्यम्’ इति यदि शङ्का समागच्छेत् ततस् तादृश-शङ्कापसारण-द्वारा ऽनुमानम् अनुगृह्णाति इति बोध्यम्। तर्कश् च पञ्च-विधः। आत्माश्रयान्योन्याश्रय-चक्रकानवस्था-केवलानिष्ट-प्रसङ्ग-भेदात्। प्रतिबन्दीति तु केवलानिष्ट-प्रसङ्गस्यैवावान्तर-भेदः। तर्कान्तरम् इति केचित्। दुस्तर्कस् तु त्याज्य एव। दुस्तर्कावलम्बिनः कथायाम् अनधिकारात्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४४. तर्कानगृहीत-प्रमाण-पूर्वकत्वावधारणं निश्चयः

शिवप्रसादः (हिं)

तर्क के द्वारा अनुगृहीत प्रमाण के द्वारा तत्त्व का निर्धारण करना ही निश्चय कहलाता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

निश्चय - जहाँ पर वादी एवं प्रतिवादी विजय की इच्छा से रहित होकर तर्का - नुगृहीत प्रमाणों के आलोक में तत्त्व का निर्धारण करते हैं, उसे निश्चय कहते हैं । विशिष्टाद्वैत दर्शन में निश्चय का अनुमान में इसलिए अन्तर्भाव माना जाता है कि वह अनुमान का एक लिङ्ग है ।

मूलम्

४४. तर्कानगृहीतप्रमाणपूर्वकत्वावधारणं निश्चयः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४५. वीत-राग-कथा वादः

शिवप्रसादः (हिं)

तत्त्वज्ञान की इच्छा से जहाँ पर दो व्यक्ति अपने-अपने विचारों को प्रस्तुत करते हैं, उसे वाद कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

वाद - वादी एवं प्रतिवादी के बीच जो अपनी-अपनी ओर से विचार प्रस्तुत किये जाते हैं, उसको दार्शनिक निकाय में कथा शब्द से अभिहित किया जाता है । जहाँ पर वादी एवं प्रतिवादी अपनी विजयप्राप्ति को छोड़कर केवल तत्त्व को जानने की इच्छा से कथा करते हैं, उसे वाद कहते है । वाद का सिद्धान्तानुसार अनुमान- प्रमाण में ही अन्तर्भाव होता है ।

मूलम्

४५. वीतरागकथा वादः ।

वासुदेवः

वीतराग-कथेति। परस्पर-विरुद्ध-वादिनोर् व्यवहारः कथेति कथा-सामान्य-लक्षणम्। सा च कथा त्रि-विधा - वाद-जल्प-वितण्डा-भेदात्। वादे प्रमाण-तर्कौ साधनम्। वीतरागो ऽधिकारी। तत्त्व-ज्ञानं प्रयोजनम्।

तद् उक्तम् -

तत्र प्रमाण-तर्काभ्यां साधनाक्षेप संयुता। वीतराग-कथा वादस् तत्-फलं तत्त्व-निर्णयः ॥

इति।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४६. पक्ष-द्वय-साधनवती विजिगीषु-कथा जल्पः

शिवप्रसादः (हिं)

वादी एवं प्रतिवादी दो पक्षों को सिद्ध करने वाली विजिगीषु की कथा को जल्प कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जल्प - विजय की इच्छा से कथा करने वाले वादी एवं प्रतिवादियों की उस कथा को जल्प कहा जाता है, जिससे वादी एवं प्रतिवादी दोनों के पक्ष की सिद्धि होती है । इसका भी सिद्धान्त में अनुमानप्रमाण में ही अन्तर्भाव स्वीकार किया जाता है ।

मूलम्

४६. पक्षद्वयसाधनवती विजिगीषुकथा जल्पः ।

वासुदेवः

जयार्थी जल्पाधिकारी। अत एव स न वीतरागः। उभयोर् अपि वादिनोः साधन-वत्त्वे जल्पः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४७. स्वपक्ष-स्थापन-हीना तु वितण्डा

शिवप्रसादः (हिं)

वह कथा, जिसमें विजिगीषु अपने पक्ष को उपस्थापित नहीं करता है, उसे वितण्डा कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

वितण्डा - वितण्डा में वादी अथवा प्रतिवादी विजय की इच्छा से अभिभूत होकर अपने पक्ष की स्थापना किये बिना प्रतिपक्षी के पक्षमात्र का खण्डन करते हैं । इसमें अपनी प्रतिभा आदि का अधिक प्रयोग करके प्रतिपक्षी को किसी प्रकार भ्रम में डालकर अपने पक्ष का स्थापन मात्र ही वादी का लक्ष्य होता है । सिद्धान्त में वितण्डा का भी अनुमान में ही अन्तर्भाव माना जाता है ।

मूलम्

४७. स्वपक्षस्थापनहीना तु वितण्डा ।

वासुदेवः

अन्यतरस्य स्व-पक्ष-साधनवत्त्वे परस्य दूषण-मात्र-शरणत्वे वितण्डा। केचित् तु वीतराग-वितण्डा विजिगीषु-वितण्डेति वितण्डा-द्वैविध्यम् आहुः। तस्यायम् आशयः - स्व-पक्ष-साधनं पर-पक्ष-दूषणं साधन-समर्थनं दूषण-समर्थनं शब्द-दोष-वर्जनम् इति पञ्चाङ्गो वादः। एकस्मिन् वादे वादि-प्रतिवादिनाव् अधिकारिणौ। वीतराग-कर्तृक-वाद-द्वय-समुच्चयेन वीतराग-कथा-रूपो वादः प्रवर्तते। विजिगीषु-कर्तृक-वाद-द्वय-समुच्चयेन विजिगीषु-कथा-रूपो जल्पः प्रवर्तते। तत्र यथा जल्प-अर्धेनैकेनैव वादेन विजिगीषु-वितण्डा तथा वादार्धेनैकेनैव वादेन वीतराग-वितण्डेति। वितण्डायाम् अपि वादि-प्रतिवादि-व्यवस्थानुपालनं कर्तव्यम् एव। सर्वत्रैव प्रमाणज्ञैः स्व-पक्ष-साधनादि कर्तव्यत्वेन कल्पितम्। छल-जाति-निग्रह-स्थानादि त्व् अकर्तव्यत्वेन कल्पितम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४८. अविवक्षित-शब्दार्थारोपेण दूषणं छलम्

शिवप्रसादः (हिं)

वक्ता को शब्दों के द्वारा जो अर्थ विवक्षित न होता हो, उस अर्थं का उन शब्दों में आरोप करके वादी के पक्ष में दोष दिखलाने को छल कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

छल - वक्ता के अभिप्राय पर ध्यान न देकर उसके अविवक्षित अर्थ को ही लेकर वक्ता की बात को काटने का नाम छल है । जैसे— ‘वह नववधू वाला है।’ इस वाक्य को सुनकर इस वाक्य नव शब्द से विवक्षित नवीन अर्थ को त्याग करके उसको नवत्व संख्या का वाचक मानकर यह कहना कि उसके पास तो एक ही वधू है, उसके पास नववधुएँ कहाँ हैं ? यह कहना छल है । प्रतिवादी की इस तरह की बातें सुनकर चतुर वादी कहता है कि आप छल कर रहे हैं। मैंने नवीन के अर्थ में नव शब्द का प्रयोग किया है, न कि नव संख्या के अर्थ में ।

मूलम्

४८. अविवक्षितशब्दार्थारोपेण दूषणं छलम् ।

वासुदेवः

तत्र च्छलम् आह - अविवक्षितेति। यथा नव-कम्बलो ऽयं देवदत्त इति नूतन-कम्बलाभिप्रायेण प्रयुक्ते वाक्ये तत्राविवक्षितो यो नवत्व-संख्या-विशिष्टो ऽर्थस् तम् आरोप्य कश्चिद् दूषयति। नास्य नव-कम्बलाः सन्ति दरिद्रत्वात्। न ह्य् अस्य द्वित्वम् अपि संभाव्यते कुतो नवेति।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४९. स्वव्याप्तदूषणं जातिः
असद्-उत्तरं जातिर् इति वा ।

शिवप्रसादः (हिं)

अपने पक्ष में भी जिससे दोष उपस्थित हो, उस दोष को जाति कहते हैं अथवा असत् उत्तर को जाति कहते हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

जाति - साधर्म्य एवं वैधर्म्य के आधार पर जो दोष का निरूपण किया जाता है, उसे जाति कहते हैं । यह ऐसा दोष होता है, जो दोष का प्रतिपादन करने वाले के भी पक्ष में विद्यमान रहता है अथवा ऐसा उत्तर, जो असत् हो जाति कहते हैं । [[५२]] संबन्ध नियम के बिना केवल साहचर्य मात्र के आधार पर जो दोष दिया जाता है, उसे भी जाति कहते हैं । इस जाति का भी अनुमान में अन्तर्भाव होता है ।

मूलम्

४९. स्वव्याप्तदूषणं जातिः । असदुत्तरं जातिरिति वा ।

वासुदेवः

स्व-व्यापीति। यत् परस्य दूषणं दीयते तत् स्वस्याप्य् आयाति इत्य् अर्थः। असद्-उत्तरम् इति। उत्तरस्यासत्त्वं स्व-व्याघातकत्वम्। यथा पर्वतो वह्निमान् धूमान् महानसवद् इत्य् अत्र यद्य् अयम् पर्वतो धूमवत्त्वेन महानस-साधर्म्याद् वह्निमान् स्यात् तर्हि द्रव्यत्ववत्त्वेन हृद-साधर्म्याद् वह्न्य्-अभाववान् एव वा किं न स्याद् इति। अत्र च वह्न्य्-अभाव-साधने ऽनयैव रीत्या महानस-साधर्म्येण वह्निमत्त्वम् अपि सध्येतान्यस्य स्व-व्यापित्वं स्व-व्याघातकत्वं च बोध्यम्। सा च साधर्म्य-समादि-भेदेन चतुर्विंशति-प्रकारेति गौतम-सूत्रे (५। १। १) स्पष्टम्। दूषण-समर्थम् अप्य् असिद्धं छलं, सिद्धम् अपि दूषणासमर्थं जातिर् इति च्छल-जात्योर् भेदः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५०. पराजय-हेतुर् निग्रह-स्थानम्
इत्य् एषाम् अनुमानाङ्गत्वाद्
अनुमाने अन्तर्भावः ।

शिवप्रसादः (हिं)

जिसके द्वारा पराजय हो जाय, उसे निग्रहस्थान कहते हैं । ये सभी अनुमान के अङ्ग हैं, अतएव इन सबों का अनुमान में अन्तर्भाव होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

निग्रहस्थान — को परिभाषित करते हुए गौतम ने कहा है कि ‘विप्रतिपत्ति- रप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् ।’ अर्थात् अपने पक्ष का अनुचित ढंग से प्रतिपादन करना अथवा प्रतिपादन न कर सकना ही निग्रहस्थान है । निग्रह पराजय को कहते हैं । उसके स्थान अर्थात् स्थल को निग्रहस्थान कहते हैं । अतएव पराजय के कारण को ही यतीन्द्रमतदीपिकाकार निग्रहस्थान कहते हैं । इसका भी सिद्धान्त में अनुमान में ही अन्तर्भाव माना जाता है ।

मूलम्

५०. पराजयहेतुर्निग्रहस्थानम् । इत्येषामनुमानाङ्गत्वादनुमाने अन्तर्भावः ।

वासुदेवः

निग्रह-स्थानम् इति। निग्रहस्य खलीकारस्य स्थानं ज्ञापकम् इत्य् अर्थः। यथा - शब्दो ऽनित्यः प्रत्यक्ष-गुणत्वादित्य् उक्ते परेण सो ऽयं गकार इत्यादि-प्रत्यभिज्ञा-बलाद् बाध उद्भाविते ऽस्तु तर्हि नित्यः शब्द इति नित्यत्वं स्वीकुर्वन् वादी प्रतिज्ञां जहाति। तत् च निग्रह-स्थानं प्रतिज्ञा-हान्य्-आदि-भेदेन द्वाविंशतिविधम्। तत्-तल्-लक्षणानि तु गौतम-सूत्रे (५। १। २) ज्ञेयानि।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५१. क्वचित् क्वचित् नैयायिक-मतानुसारेण उक्तम् इति न विरोधः ।
इत्य् अनुमानं निरूपितम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

कहीं-कहीं पर नैयायिकों के मतानुकूल व्यवहार तो उनके मतानुसार ही किया जाता है । अतएव उससे सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं होता है। इस प्रकार अनुमान का निरूपण किया गया ।

मूलम्

५१. क्वचित् क्वचित् नैयायिकमतानुसारेण उक्तमिति न विरोधः । इत्यनुमानं निरूपितम् ।


क्वचित् क्वचिन्नैयायिक-मतानुसा(रेणोक्तम्)रिव्यवहारस्तु तन्मतानुसारेणोक्तः ।
अतो न विरोधः । इत्यनुमानं निरूपितम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन

विरचितायां यतीन्द्रमतदीपिकायाम् अनुमाननिरूपणम्

नाम द्वितीयोऽवतारः ॥

शिवप्रसादः (हिं)

इस तरह वाधूलकुलतिलक - श्रीमन्महाचार्य के के द्वारा प्रणीत यतीन्द्रमतदीपिका में प्रधान शिष्य श्रीनिवासाचार्य शारीरक - परिभाषा का अनुमान निरूपण नामक द्वितीय अवतार पूर्ण हुआ ।

मूलम्

इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन

विरचितायां यतीन्द्रमतदीपिकायाम् अनुमाननिरूपणम्

नाम द्वितीयोऽवतारः ॥

वासुदेवः

इति श्री-यतीन्द्र-मत-दीपिका-प्रकाशे द्वितीयो ऽवतारः ॥ २ ॥