विश्वास-प्रस्तुतिः
४१. एवम् अनुमाने निरूपिते
उपमानादेर् अनुमानादाव् अन्तर्भावः ।
यथा अतिदेश-वाक्यार्थ-स्मरण–सह-कृत–गो-सादृश्य-विशिष्ट–पिण्ड-ज्ञानम् उपमानम् -
गवयम् अजानन्न् अपि
“यथा गौः तथा गवय” इति कुतश्चिद् आरण्यक-वाक्यात् श्रुत्वा
वनं गतो वाक्यार्थम् स्मरन्
यदा गो-सादृश्य-विशिष्ट-पिण्डम् पश्यति
तदा तद्-वाक्यार्थ-स्मरण–सह-कृतसदृशपिण्डज्ञानं जायते।
तद् उपमानम् इत्य् उच्यते ।
स्मरण-रूपत्वात् तस्य प्रत्यक्षे ऽन्तर्भावः।
व्याप्तिग्रहणापेक्षत्वाद् अनुमाने अन्तर्भावः।
वाक्यजन्यत्वात् शब्दे वा अन्तर्भाव ऊह्यः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – इस प्रकार अनुमान का निरूपण कर लेने पर उपमान आदि का अनुमान आदि में अन्तर्भाव निरूपित किया जा रहा है । जैसे—अतिदेशवाक्य के अर्थ के स्मरण की सहायता से सादृश्यविशिष्ट पिण्ड का ज्ञान उपमान कहलाता है । गवय को नहीं जानने वाला भी व्यक्ति – जैसी गो होती है वैसा ही गवय होता है, इस तरह की कहीं से वनवासी की बात सुनकर, वन में जाकर अतिदेशवाक्य के अर्थ का स्मरण करते हुए जब गौ के सादृश्यविशिष्ट पिण्ड को देखता है तो उस वाक्य के अर्थ के स्मरण की सहायता से उसे गोसादृश्यविशिष्टपिण्ड का ज्ञान होता है । उसी को उप- मान कहते हैं । उस ज्ञान के स्मरण-स्वरूप होने के कारण उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । उसका व्याप्तिग्रह सापेक्ष होने से अनुमान में अन्तर्भाव होता है । किञ्च वह ज्ञान वाक्यजन्य होता है, अतएव उसका शब्दप्रमाण में अन्तर्भाव होता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
उपमान का अनुमान में अन्तर्भाव-निरूपण
भ० प्र० - इस अनुच्छेद में ग्रन्थकार अनुमानप्रमाण में ही नैयायिकों द्वारा स्वीकृत उपमानप्रमाण का अन्तर्भाव प्रदर्शित करते हैं । ‘उपमीयते अनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपमा या सादृश्य के आधार पर जो ज्ञान होता है, उसे उपमिति कहते हैं । उस ज्ञान के साधकतम को उपमान कहते हैं । महर्षि गौतम के शब्दों में – प्रसिद्ध वस्तु के साधर्म्य के आधार पर साध्य की सिद्धि करने को उपमान कहते हैं - ‘प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्’ ( न्या० सू० १।१।६ ) । हरिभद्रसूरि ने भी यही कहा-
‘प्रसिद्धवस्तुसाधर्म्यात् अप्रसिद्धस्य साधनम् ।
उपमानं समाख्यातं यथा गौर्गवयस्तथा ॥’
अर्थात् प्रसिद्धवस्तु की सदृशता बतलाकर किसी अप्रसिद्ध वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने को उपमान कहते हैं । जैसे - जिस तरह की गो होती है, उसी प्रकार का गवय होता है ।
[[४९]] उपमान करण है और इसका फल उपमिति है । इस उपमिति का कारण अति- देशवाक्य है । एक जगह सुनी गई वस्तु का दूसरी जगह संबन्ध होना ही अतिदेश है । ‘एकमश्रुतस्यासम्वन्धऽतिदेशः ’ जैसे किसी आरण्यक से यह सुनकर कि गौ के समान ही गवय होता है; वन में जाकर जब पुरुष गोसदृशाकार वाली वस्तु को देखकर उस अतिदेशवाक्य के अर्थ को स्मरण करके वह यह ज्ञान प्राप्त करता है कि यह गवय है, क्योंकि इसका आकार गौ के सदृश है। यहाँ पर ‘यथा गौस्तथा गवयः ’ यही अतिदेशवाक्य है । इस वाक्य के अर्थ का स्मरण करके ही अरण्य में गया मनुष्य गवय को पहचानता है । उस उपमान का साधकतम सादृश्यविशिष्टपिण्ड का दर्शन है । इस सादृश्य विशिष्टपिण्ड को देखकर द्रष्टा को अतिदेशवाक्य का स्मरण हो जाता है। स्मरणजन्य ज्ञान का स्मरण के मूलभूत प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । सादृश्य ज्ञान चूंकि शाब्द होता है, अतएव उसका शब्दप्रमाण में अन्तर्भाव होता है । चूंकि यह पिण्ड गौ के सदृश है, अतएव यह गवय है । इस प्रकार का ज्ञान व्याप्तिजन्य है, अतएव उसका अनुमान में अन्तर्भाव हो जाता है। इन तीनों प्रकार के सम्मिलित ज्ञान का नाम नैयायिक आदि उपमान देते हैं; किन्तु उपमान ज्ञान का सर्वात्मना प्रमाणत्रय में अन्तर्भाव हो जाता है; उपमान को एक अतिरिक्त प्रमाण मानना उचित नहीं है ।
मूलम्
४१. एवमनुमाने निरूपिते उपमानादेरनुमानादावन्तर्भावः । यथा अतिदेशवाक्यार्थ- स्मरणसहकृतगोसादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञानम् उपमानम् । गवयमजानन्नपि “यथा गौः तथा गवय” इति कुतश्चिदारण्यकवाक्यात् श्रुत्वा वनं गतो वाक्यार्थम् स्मरन् यदा गोसादृश्यविशिष्टपिण्डम् पश्यति तदा तद्वाक्यार्थस्मरणसहकृतसदृशपिण्डज्ञानं जायते। तदुपमानमित्युच्यते । स्मरणरूपत्वात् तस्य प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः। व्याप्तिग्रहणा-पेक्षत्वादनुमाने अन्तर्भावः। वाक्यजन्यत्वात् शब्दे वा अन्तर्भाव ऊह्यः ।
वासुदेवः
अतिदेश-वाक्येति। अतिदेश-वाक्यं च त्रि-प्रकारम्। तत्र प्रथमं “गो-सदृशो गवय” इति साधर्म्योपमाने। तत्-स्मरण-सहकृतं यद् गो-सादृश्य-विशिष्ट-पिण्ड-ज्ञानं तद् एवोपामिति-करणम्। द्वितीयं च “गवादि-वद् द्विशफो न भवत्य् अश्वः” इति वैधर्म्योपमाने। तत्र च गो-विसदृश-पिण्ड-ज्ञानम् उपमिति-करणम्। तृतीयं च “दीर्घ-ग्रीवः प्रलम्बोष्ठः कठोर-कण्ठ-काशी पशुः क्रमेलकः” इत्य् असाधारण-धर्मोपादाने। तत्र च तादृशासाधारण-धर्म-विशिष्ट-पिण्ड-ज्ञानम् उपमिति-करणम्। शब्दे चान्तर्भाव इति। यथा ऽयं गौर् इति व्यक्ति-विशेषे गो-शब्द-व्युत्पादने ऽपि वक्त्रभिप्रायम् आलोच्य न्यायानुसारेण सार्वत्रिकीं गो-शब्द-व्युत्पत्तिं प्रतिपद्यन्ते बालाः। न हि बुद्धिमन्तो यावदुक्तम् एव गृह्णन्ति। तथा ऽतिदेश-वाक्ये ऽपि बुद्धि-मन्तः श्रोतारो न्यायानुसारेण गोसादृश्यादि-चिह्नोन्नीते गवयत्वादौ व्युत्पद्यन्ते। नन्वतिदेश-वाक्य-श्रवण-काले गवयत्वादेर् अप्रत्यक्षत्वात् कथं शाब्द-ज्ञानम् इति चेन् न। अर्थ-प्रत्यक्षस्य शाब्द-ज्ञाने ऽतन्त्रत्वात् । अन्यथा तैस् तैर् लक्षणैर् इन्द्रोपेन्द्रादि-शब्दानां व्युत्पत्तिर् न स्यात्। तदभावे वैदिक-वाक्यार्थाप्रतिपत्ताव् अनुष्ठानं न स्याद् इति बहु-व्याकुली स्यात्। मायावादिनस् तु नगरेषु दृष्ट-गो-पिण्डस्य पुरुषस्य गवयेन्द्रिय-संनिकर्षे सति भवति प्रतीतिर् अयं पिण्डो गो-सदृश इति। तदनन्तरं च भवत्यनेन सदृशी मदीया गौर् इति निश्चयः। इयम् एवोपमितिर् इत्याहुः। तन् न। अनुमाने ऽन्तर्भावात्। तथा च प्रयोगः - गौर् गवय-सदृशो गवयस्थ सादृश्य-प्रतियोगित्वात्। यो यद्-गत-सादृश्य-प्रतियोगी स तत्-सदृशः। यथा वाम-हस्तो दक्षिण-हस्तेनेति।