०७ हेत्वाभासाः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् पञ्चावयव-संयुक्तः सद्-धेतुर् एव वह्न्य्+++(-आद्य्)+++-अनुमापकः ।
सद्-धेतुर् इत्य् उक्तत्वात्
धूम-सदृश–धूली-पटलान् न वह्न्य्-अनुमितिः ।

शिवप्रसादः (हिं)

फलतः सिद्ध हुआ कि पाँच अवयवों से युक्त सद्- हेतु ही वह्नि आदि के अनुमान का साधन है । सद्हेतु कहने से सिद्ध हो गया कि धूम के सदृश प्रतीत होने वाले कहीं धूलि समूह को देखकर उसके द्वारा वहाँ पर वह्नि के होने का अनुमान नहीं किया जा सकता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

हेत्वाभास और उनके भेदोपभेद

भा० प्र०— ऊपर अनुमान के सद्हेतु का निरूपण किया जा चुका है । कुछ ऐसे भी हेतु हैं, जो हेतु की तरह तो प्रतीत होते हैं, किन्तु वस्तुतः वे हेतु नहीं होते । ऐसे हेतुओं को हेत्वाभास कहा जाता है । ’ हेतुवद् आभासन्ते इति’ यह हेत्वाभास का अर्थ है ।

हेत्वाभासों की संख्या पाँच है – १. असिद्ध, २ विरुद्ध ३ अनैकान्तिक, ४. प्रकरणसम और ५. कालात्ययापदिष्ट ।

मूलम्

एवम् पञ्चावयवसंयुक्तः सद्धेतुरेव वह्न्यनुमापकः । सद्धेतुरित्युक्तत्वात् धूमसदृश-धूलीपटलान्न वह्न्यनुमितिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३१. अन्ये हेतुवद् (आभासमाना) भासमाना हेत्व्-आभासाः ।
ते च असिद्ध–विरुद्धानैकान्तिक-प्रकरण-समकालात्ययापदिष्टय्-अभेदेन (समकालात्ययापदिष्टभेदात्)
पञ्च प्रकाराः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद -जो उपर्युक्त सद्हेतु से भिन्न होकर भी हेतु के समान प्रतीत होते हैं, वे हेत्वाभास कहलाते हैं । हेत्वाभास पाँच हैं—असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट ।

मूलम्

३१. अन्ये हेतुवद्भासमाना हेत्वाभासाः । ते च असिद्धविरुद्धानैकान्तिकप्रकरण-समकालात्ययापदिष्टभेदेन (भेदात्) पञ्चप्रकाराः ।

वासुदेवः

हेत्वाभासा इति । व्याप्तिः पक्ष-धर्मता चेति द्वयम् अनुमानाङ्गम् । तत्र व्याप्त्यभावेन व्याप्यत्वासिद्ध-विरुद्धानैकान्तिका हेत्वाभासाः । साधारणानैकान्तिके हेतोर् विपक्षगामित्वेन व्याप्ति-विरहः । असाधारणानैकान्तिके तु सपक्षे विद्यमाने ऽपि हेतोः पक्ष-मात्र-वृत्तित्वेन व्याप्ति-प्रदर्शनाभावाद्-व्याधिविरहः । पक्ष-धर्मताया अभावेन स्वरूपासिद्धाश्रयासिद्धौ हेत्व् आभासौ । प्रकरणसमे तु पक्षे साध्य-निश्चयावसादनेन व्याति-भङ्ग इति केचित् । स्वारसिक-संदेहापवादिना ऽपि विपरीत-निश्चय-प्रसङ्गेन बाध-तुल्यत्वम् आपाद्य पक्ष-धर्मता-भङ्गः इत्य् अन्ये। व्याप्ति-पक्ष-धर्मत्वयोर् द्वयोर् अपि विमर्दनेनोभय-दोषापादानम् इतीतरे। कालात्ययापदिष्टे तु साध्य-शून्ये साधन-वृत्त्या व्याप्ति-भङ्गः इति केचित्। सिद्ध-साधनवत् साध्य-संदेहाभावात् पक्ष-धर्मत्व-भङ्गः इत्य् अपरे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३२. तत्र असिद्धस् त्रि-विधः –
स्वरूपासिद्ध आश्रयासिद्धो व्याप्यत्वासिद्धश् चेति ।

शिवप्रसादः (हिं)

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उनमें भी असिद्ध तीन प्रकार का होता है – स्वरूपासिद्ध, आश्रयासिद्ध और व्याप्यत्वासिद्ध ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( १ ) असिद्ध हेतु भी तीन प्रकार का होता है – स्वरूपासिद्ध, आश्रयासिद्ध, और व्याप्यत्वासिद्ध ।

मूलम्

३२. तत्र असिद्धस्त्रिविधः – स्वरूपासिद्ध आश्रयासिद्धो व्याप्यत्वासिद्धश्चेति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३३. स्वरूपासिद्धो यथा – “अनित्यो जीवः, चाक्षुषत्वात्, घटवद्” इति ।

शिवप्रसादः (हिं)

जीव अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान चाक्षुष् है ( अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय का विषय बनता है ) । यह स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास का उदा- हरण है ( क्योंकि पक्षभूत जीव मे चाक्षुषत्व ही असिद्ध है । ) ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( क ) स्वरूपासिद्ध हेतु वह होता है, जिसका स्वरूप ही असिद्ध होता है अर्थात् वह हेतु के पक्षवृत्तित्व नामक गुण से रहित होता है। पक्ष में वह हेतु पाया ही नहीं जाता है । जैसे—जीव अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान चाक्षुष् है । इस अनुमान वाक्य का हेतु चाक्षुषत्व है, किन्तु जीव का चाक्षुषत्व ही असिद्ध है । यह चाक्षुषत्व हेतु अपने पक्ष जीव में नहीं पाया जाता, अतएव यह स्वरूपासिद्ध हेतु हुआ ।

मूलम्

३३. स्वरूपासिद्धो यथा – “अनित्यो जीवः, चाक्षुषत्वात्, घटवद्” इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३४. आश्रयासिद्धस् तु –
“व्योमारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात्, सरोजारविन्दवत्” इति ।
व्योमारविन्दम् आश्रयः ।
स चासिद्धः ।

शिवप्रसादः (हिं)

आश्रयासिद्ध हेत्वाभास का उदाहरण है कि - आकाशकमल सुगन्धित होता है, क्योंकि वह सरोवर में होने वाले कमल के समान है। हेतु का आश्रय व्योमारविन्द ( आकाश- कमल ) है, किन्तु वह असिद्ध ही है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( ख ) आश्रयासिद्ध हेतु वह होता है, जिसका आश्रय ही अप्रामाणिक होता है । पक्ष में पक्षतावच्छेदक का अभाव ही आश्रयासिद्ध है । जैसे—आकाश कमल सुगन्धित होता है, क्योंकि वह सरोवर में होने वाले कमल के समान है । इस अरविन्दत्व हेतु का आश्रय आकाशकमल ही असिद्ध है । किसी ने आकाशकमल को देखा ही नहीं है । उसके अप्रामाणिक होने से कमलत्व हेतु आश्रयासिद्ध है ।

मूलम्

३४. आश्रयासिद्धस्तु – “व्योमारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात्, सरोजारविन्दवत्” इति । व्योमारविन्दमाश्रयः । स चासिद्धः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३५. व्याप्यत्वासिद्धो द्विविधः –
एको व्याप्ति-ग्राहक-प्रमाणाभावात्,
अपरस् तु उपाधि-सद्-भावात् ।

आद्यो यथा – “यत् सत् तत् क्षणिकम्” इति -
क्षणिकत्व-सत्त्वयोर् व्याप्ति-ग्राहक-प्रमाणासिद्धेः।

द्वितीयो यथा – “अग्नी-षोमीया हिंसा ऽधर्मसाधिका - हिंसात्वात्, क्रतु-बाह्य-हिंसावत्” इति ।
अत्र निषिद्धत्वम् उपाधिः ।
अतो हिंसात्व-हेतुः सोपाधिकः ।

शिवप्रसादः (हिं)

व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास दो प्रकार का होता है, एक तो व्याप्तिग्राहक प्रमाण के अभाव के कारण और दूसरा उपाधि के कारण ।

पहले का उदाहरण है— जो सत् होता है वह क्षणिक होता है । क्षणिकत्व एवं सत्त्व का व्याप्तिग्राहक कोई प्रमाण ही नहीं होता ।

द्वितीय व्याप्यत्वासिद्ध का उदाहरण है- अग्निषोमीय याग में होने वाली हिंसा से अधर्म होता है, क्योंकि वह यज्ञ के बाहर की जाने वाली हिंसा के समान है । यहाँ पर निषिद्धत्व उपाधि है ।
अतएव यहाँ पर हिंसात्व हेतु सोपाधिक है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( ग ) व्याप्यत्वासिद्ध हेतु दो प्रकार का होता है— पहला व्याप्यत्वासिद्ध हेतु वह है, जिसका व्याप्तिग्राहक प्रमाण कोई नहीं होता है । जैसे—जो सत् होता है वह क्षणिक होता है, यहाँ पर सत्त्व एवं क्षणिकत्व का व्याप्तिग्राहक कोई भी प्रमाण नहीं है । क्षणिक उसे कहते हैं, जो एक क्षणमात्र ही रहे । ज्ञेय और ज्ञाता के क्षणिक होने पर भूयोदर्शन द्वारा होने वाला व्याप्तिग्रह हो ही नहीं सकता, अतएव यहाँ व्याप्ति- ग्राहक प्रमाण के अभाव के कारण व्याप्यत्वासिद्ध हेतु है । दूसरा व्याप्यत्वासिद्ध हेतु

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वह होता है, जो उपाधि के सद्भाव के कारण होता है । जैसे- अग्निषोमीय याग में की जाने वाली हिंसा अधर्म की साधिका है, क्योंकि वह यज्ञ के बाहर ( यज्ञाति- रिक्त स्थल में ) की जाने वाली हिंसा के समान है। यहाँ पर निषिद्धत्व उपाधि

है

। अर्थात् उसी हिंसा से अधर्म होता है, जिस हिंसा का शास्त्र निषेध करता है । अग्निषोमीय हिंसा तो विहित हिंसा है। उससे पाप नहीं होता । अतः यहाँ हिंसात्व सोपाधिक है । उपाधि के द्वारा हेतु में व्यभिचार प्रदर्शित किये जाने के कारण हेतु व्याप्यत्वासिद्ध है ।

मूलम्

३५. व्याप्यत्वासिद्धो द्विविधः – एको व्याप्तिग्राहकप्रमाणाभावात्, अपरस्तु उपाधि- सद्भावात् । आद्यो यथा – “यत् सत् तत् क्षणिकम्” इति । क्षणिकत्वसत्त्वयोः व्याप्ति- ग्राहकप्रमाणासिद्धेः। द्वितीयो यथा – “अग्नीषोमीया हिंसा अधर्मसाधिका हिंसात्वात्, क्रतुबाह्यहिंसावत्” इति । अत्र निषिद्धत्वमुपाधिः । अतो हिंसात्वहेतुः सोपाधिकः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३६. साध्य-विपरीत-व्याप्तो हेतुर् विरुद्धः
तद् यथा –
“नित्या प्रकृतिः, कृतकत्वात्, कालवत्”।
कृतकत्व-हेतुः साध्याभाव-व्याप्तः ।

शिवप्रसादः (हिं)

साध्य के विपरीत अर्थं मे व्यापक हेतु विरुद्ध हेतु होता है ।
जैसे - प्रकृति नित्य है, क्योंकि वह काल के समान कार्य है । यहाँ पर कृतकत्व- (कार्यंत्व) हेतु नित्यसाध्य के विपरीत अनित्यत्व में व्यापक है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( २ ) विरुद्ध हेतु वह होता है, जो साध्य के विपरीत अर्थ का साधक होता है । यह हेतु साध्याभाव व्याप्त होता है । उदाहरणार्थ - प्रकृति नित्य है, क्योंकि वह काल के समान कार्य है । यह कार्यत्व हेतु साध्यभूत नित्यत्व में व्याप्त न होकर साध्य से विपरीत अनित्यत्व में व्यापक है ।

मूलम्

३६. साध्यविपरीतव्याप्तो हेतुर् विरुद्धः । तद्यथा – “नित्या प्रकृतिः, कृतकत्वात्, कालवत्”। कृतकत्वहेतुः साध्याभावव्याप्तः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३७. सव्यभिचारो ऽनैकान्तिकः । स च द्वि-विधः – साधारणो ऽसाधारणश् चेति ।

शिवप्रसादः (हिं)

व्यभिचार से युक्त हेतु अनैकान्तिक होता है ।
अनैकान्तिक हेत्वाभास दो प्रकार का होता है- साधारण तथा असाधारण ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( ३ ) अनैकान्तिक हेतु वह होता है, जो व्यभिचार युक्त होता है । अनैकान्तिक हेतु दो प्रकार का होता है— साधारण तथा असाधारण ।

मूलम्

३७. सव्यभिचारोऽनैकान्तिकः । स च द्विविधः – साधारणोऽसाधारणश्चेति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३८. पक्ष–स-पक्ष–विपक्ष-वृत्तिः साधारणः +++(अनेकान्तिक-हेतुषु)+++ ।
यथा – “शब्दो नित्यः, प्रमेयत्वात्, कालवत्” ।

अ-साधारणस् तु विपक्ष–स-पक्ष-व्यावृत्तः ।
यथा- “भूमिर् नित्या, गन्धवत्त्वाद् व्योमवद्” इति ।

शिवप्रसादः (हिं)

पक्ष, सपक्ष एवं विपक्ष तीनों में पाया जाने वाला अनै- कान्तिक हेत्वाभास साधारण है। जैसे—शब्द नित्य है, क्योंकि काल के समान वह [[४६]] प्रमेय है ।

असाधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास तो केवल पक्ष में ही पाया जाता है; सपक्ष तथा विपक्ष में नहीं ।
जैसे— पृथिवी नित्य है, क्योंकि वह आकाश के समान गन्धवती है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( क ) साधारण अनैकान्तिक हेतु वह है, जो पक्ष, सपक्ष तथा विपक्ष तीनों में पाया जाय । जैसे— शब्द नित्य है, क्योंकि वह काल के समान प्रमेय है । इस अनुमान का प्रमेयत्व हेतु पक्ष शब्द सपक्ष तथा उसके सजातीय धर्मवान काल तथा अनित्य घटादि में पाया जाता है । अतएव वह साधारण अनैकान्तिक हेतु है ।

( ख ) असाधारण अनेकान्तिक हेतु वह है, जो पक्षमात्र में पाया जाय, सपक्ष तथा विपक्ष में नहीं । जैसे— पृथिवी नित्य है, क्योंकि वह आकाश के समान गन्धवती है । इस अनुमान का गन्धवत्व हेतु पक्षभूत पृथिवी में तो है, किन्तु सपक्ष आकाश में तथा विपक्षभूत अनित्य पदार्थों में नही है ।

मूलम्

३८. पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिः साधारणः । यथा – “शब्दो नित्यः, प्रमेयत्वात्, कालवत्” । असाधारणस्तु विपक्षसपक्षव्यावृत्तः । यथा- “भूमिर्नित्या, गन्धवत्त्वात् व्योमवद्” इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३९. प्रकरणसमस् तु साध्य-विपरीत-साधक-हेत्व्-अन्तरवान् ।
यथा – “ईश्वरोऽनित्यः, नित्य-धर्म-रहितत्वात्” ।
“ईश्वरो नित्यः, अनित्य-धर्म-रहितत्वात्” इति ।

अयम् एव सत्-प्रतिपक्षः

शिवप्रसादः (हिं)

प्रकरणसम हेतु ऐसा हेत्वाभास होता है कि उसके साध्य के विपरीत अर्थ का साधक दूसरा हेतु बना रहता है ।
जैसे— ईश्वर नित्य है, क्योंकि वह अनित्य धर्मों से रहित है ।
यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर नित्य नहीं है, क्योंकि वह नित्य धर्मों से रहित है ।
प्रकरणसम का ही दूसरा नाम सत्प्रतिपक्ष है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

( ४ ) प्रकरणसम हेतु वह हेतु है, जिसके साध्य के विपरीत अर्थ का साधक दूसरा हेतु विद्यमान रहता है । जैसे - ईश्वर नित्य है, क्योंकि वह अनित्य धर्मों से रहित है । इस अनुमान का साध्य नित्यत्व है । इस हेतु के विपरीत नित्यधर्मरहित- त्व हेतु के द्वारा ईश्वर में अनित्यत्व भी सिद्ध किया जा सकता है । जैसे – ईश्वर अनित्य है, क्योंकि वह नित्य धर्मों से रहित है । प्रकरणसम को ही सत्प्रतिपक्ष भी कहते हैं । ‘सत् विद्यमानः प्रतिपक्षः साध्यविपरीतोऽर्थसाधको हेतुर्यस्य असौ ।’ यह सत्प्रतिपक्ष की व्युत्पत्ति है ।

मूलम्

३९. प्रकरणसमस्तु साध्यविपरीतसाधकहेत्वन्तरवान् । यथा – “ईश्वरोऽनित्यः, नित्यधर्मरहितत्वात्” । “ईश्वरो नित्यः, अनित्यधर्मरहितत्वात्” इति । अयमेव सत्प्रतिपक्षः ।

वासुदेवः

प्रकरण-समस् त्व् इति। अयं च संदिग्धः। साध्य-विपरीत-साधक-हेत्वन्तर-दर्शनेनायं हेतुः स्व-साध्यं साधयितुम् ईष्टे न वेति संदेहोदयात्। अत एवायं प्रकरण-सम इत्य् उच्यते। प्रकरणेन पक्षेण समस् तुल्यः। पक्षो हि साध्यवान् न वेति संदिह्यते इति तद्-अर्थं प्रयुक्तो हेतुर् अप्य् अत्र स्व-साध्यं साधयितुम् ईष्टे न वेति संदिह्यत एवेत्य् उभयोः समत्वं बोध्यम्। ननु संदेहस्यानुमानाङ्गत्वात् तद्-उत्थापकस्यास्य कथं हेत्वाभासत्वम् इति चेद् भ्रान्तो ऽसि। द्विविधा खलु संदेह-प्रवृत्तिः। एका स्वारसिकी सर्वानुमान-साधारणी। द्वितीया पुनः प्रतिकूलानुमान-दर्शन-जनिता। तत्र प्रथमैवानुमानाङ्गम्। न तु द्वितीया। शङ्कापनोदन-प्रवृत्त-पूर्वानुमान-परिपन्थि-रूपेणानुमानान्तरेण प्रवर्तितत्वात् तस्या इति बोध्यम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य हेतोः साध्याभाववान् पक्षः
कालात्ययापदिष्टः
स यथा–
“अग्निर् अनुष्णः, पदार्थत्वात्, जलवत्” ।
अयं च प्रत्यक्षेण उष्णत्वावधारणात् बाधितः ।

शिवप्रसादः (हिं)

जिस हेतु के पक्ष में साध्य का अभाव रहता है, वह कालात्ययापदिष्ट हेतु कहलाता है।
जैसे—अग्नि अनुष्ण है, क्योंकि वह जल के समान पदार्थ है ।
इस हेतु का साध्य अनुष्णत्व प्रत्यक्ष- प्रमाण के द्वारा ही अग्नि के उष्णत्वावधारण से बाधित हो जाता है ।

शिवप्रसादः (हिं)

( ५ ) कालात्ययापदिष्ट हेतु वह होता है, जिस हेतु का साध्य अपने पक्ष में पाया ही नहीं जाता । जैसे- अग्नि अनुष्ण है, क्योंकि वह जल के समान पदार्थ है । इस अनुमान का साध्य अनुष्णत्व अपने पक्षभूत अग्नि में है ही नहीं । अग्नि का अनुष्णत्व प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा बाधित है । स्पार्शन प्रत्यक्ष के ही द्वारा अग्नि का उष्णत्व सिद्ध होता है ।

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मूलम्

यस्य हेतोः साध्याभाववान् पक्षः स कालात्ययापदिष्टः। स यथा– “अग्निरनुष्णः, पदार्थत्वात्, जलवत्” । अयं च प्रत्यक्षेण उष्णत्वाव- धारणात् बाधितः ।

वासुदेवः

कालात्ययापदिष्ट इति। कालस्य साधन-कालस्यात्यये ऽभावे ऽपदिष्टः प्रयुक्तो हेतुः कालात्ययापदिष्टः। अकाल-प्रयुक्त इति यावत्। अयम् एव बाधित-साध्यक इत्य् उच्यते।