विश्वास-प्रस्तुतिः
१९. तद् एतद् अनुमानम् स्वार्थं परार्थं चेति
द्विधा विभज्य केचिदाहुः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – इस अनुमान को स्वार्थ एवं परार्थ दो भागों में विभक्त करके कुछ लोगों ने उसके दो भेद किए – स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - नैयायिकों का कहना है कि अनुमान दो तरह के होते हैं- स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अपने प्रत्यय के लिए जो अनुमान किया जाता है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं । स्वार्थानुमान में अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त, इन तीन अवयवों का ही प्रयोग होता है, किन्तु दूसरों में अनुमितिप्रमा को उत्पन्न करने के लिए जिस अनुमान का प्रयोग होता है, वह परार्थानुमान कहलाता है । परार्थानुमान में अनुमान के पांचों-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन- अवयवों का प्रयोग होता है।
मूलम्
१९. तदेतदनुमानं स्वार्थं परार्थं चेति द्विधा विभज्य केचिदाहुः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२०. सर्वेषाम् (एव) अनुमानानाम्
स्व-प्रतिसन्धानादि-बलेन प्रवृत्ततया
स्व-व्यवहार-मात्र-हेतुत्वम्
इति स्वार्थानुमानम् एव इत्य् अपरे ।
शिवप्रसादः (हिं)
किन्तु सिद्धान्त में सभी अनुमानों को स्वार्थं ही माना जाता है । सिद्धान्तियों का कहना है कि सभी अनुमान अपने ही प्रतिसंधानार्थ प्रवृत्त होते हैं । अतएव सभी स्वार्थानुमान ही होते हैं, परार्थं नहीं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
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विशिष्टाद्वैत दर्शन में यह स्वीकार किया जाता है कि व्याप्ति एवं पक्षधर्मता से विशिष्ट हेतु के द्वारा ज्ञाता को जो ज्ञान होता है वह अपने लिए ही होता है, अतएव सभी अनुमानों को स्वार्थ ही मानना चाहिए, उसका परार्था- नुमान नामक भेद मानना उचित नहीं है ।
मूलम्
२०. सर्वेषाम् (एव) अनुमानानाम्
स्व-प्रतिसन्धानादि-बलेन प्रवृत्ततया
स्व-व्यवहार-मात्र-हेतुत्वम्
इति स्वार्थानुमानम् एव इत्य् अपरे ।