विश्वास-प्रस्तुतिः
७. व्याप्यं साधनं लिङ्गम् इत्य् अनर्थान्तरम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – व्याप्य, साधन तथा लिङ्ग, ये तीनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं।
मूलम्
७. व्याप्यं साधनं लिङ्गम् इत्यनर्थान्तरम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
८. तस्य द्वे रूपे अनुमित्य्-अङ्गभूते – व्याप्तिः, पक्ष-धर्मता चेति ।
पञ्च रूपाण्य् अपि सन्ति ।
तानि च पक्ष-सत्त्वम्, स-पक्ष-सत्त्वम्, विपक्षात् व्यावृत्तिः, अ-बाधित-विषयत्वम्, अ-सत्-प्रतिपक्षत्वं चेति ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुमिति के अङ्गभूत व्याप्य के दो रूप होते हैं-व्याप्ति और पक्षधर्मता ।
पाँच रूप भी होते हैं — पक्ष में धर्मरूप से रहना, सपक्ष में पाया जाना, विपक्ष में रहना, अबाधितविषयत्व तथा असत्प्रतिपक्षत्व ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - व्याप्य के दो रूप बतलाये जाते हैं, जो अनुमान ज्ञान के अङ्ग हैं- व्याप्ति और पक्षधर्मता । व्याप्ति व्याप्य और व्यापक की नियतसाहचर्यं रूपा होती है, इस अर्थ का विवेचन हम पीछे कर चुके है ।
पक्षधर्मता - व्याप्य का दूसरा रूप तथा अनुमिति का अङ्ग पक्षधर्मता है। पक्ष में व्याप्य का धर्म रूप से पाया जाना ही व्याप्य की पक्षधर्मता है । ‘व्याप्यस्य पक्ष- वृत्तित्वं पक्षधर्मता’ । अर्थात् अग्नि- व्याप्य धूम की पर्वत रूपी पक्ष में विद्यमानता ही व्याप्य की पक्षधर्मता है । इस पक्षधर्मता का ज्ञान हुए बिना भी व्याप्य के द्वारा व्यापक की सिद्धि नहीं हो सकती है ।
व्याप्ति का ज्ञान होने पर जैसे— जब तक हम यह कह सकते हैं कि पर्वत नहीं जान लें कि पर्वत धूमवान् है, तब तक हम यह कैसे अग्निमान् है । अतएव व्याप्ति के ज्ञान के साथ-साथ अनुमान के लिए पक्षधर्मता का ज्ञान होना अनिवार्य है ।
व्याप्य के पाँच रूप – अनुमिति के अङ्गभूत व्याप्य के पाँच रूप भी स्वीकार किये जाते हैं-
पक्षधर्मवत्वम् - अर्थात् धूमादि व्याप्य का पर्वतादि पक्षों में धर्म रूप से रहना ।
सपक्षसत्त्वम् — व्याप्य का पक्ष के सदृश धर्म वाले धर्मी में पाया जाना ।
विपक्षव्यावृत्तत्वम् - विपक्ष में व्याप्य का नहीं पाया जाना ।
अबाधितविषयत्वम् - व्याप्य के साध्यभूत विषय का बाधित नहीं होना ।
असत्प्रतिपक्षत्वम् - प्रतिपक्ष का न होना ।
मूलम्
८. तस्य द्वे रूपे अनुमित्यङ्गभूते – व्याप्तिः पक्षधर्मता चेति । पञ्चरूपाण्यपि सन्ति । तानि च पक्षसत्त्वम्/धर्मत्वम्/व्यापकत्वम्, सपक्षसत्त्वम् (सपक्षे सत्त्वम्), विपक्षात् व्यावृत्तिः, अबाधितविषयत्वम्, असत्प्रतिपक्षत्वं चेति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
९. सिसाधयिषित-धर्म-विशिष्टो धर्मी पक्षः ।
यथा अग्निमत्त्वादि-साधने पर्वतादिः ।
शिवप्रसादः (हिं)
व्याप्य के अनुमान के द्वारा जिस धर्म को सिद्ध करना अभिप्रेत होता है उस धर्म से जो विशिष्ट होता है, उसे पक्ष कहते हैं । जैसे - अग्निमत्त्व आदि की सिद्धि में पर्वतादि पक्ष हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
( क ) पक्षधर्मवत्व - यहाँ पर इन रूपों की सामान्य चर्चा आवश्यक है । ‘पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्वात्’ इस अनुमान वाक्य का साध्य है अग्निमत्व । साध्य को ही सिषाधयिषित धर्म कहते हैं । ‘साधयितुम् इषितम्’ यह ‘सिषाधयिषितम्’ का अर्थ है इस सिषाधयिषित धर्म से विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं । यहाँ अग्निमत्व रूप सिषा- धयिषित धर्म से विशिष्ट धर्मी पर्वत है, अतएव वही पक्ष हुआ । उस पक्ष में व्याप्य का धर्म रूप से प्रतीत होना ही व्याप्य का पक्षधर्मवत्व कहलाता है । पर्वत के अग्नि- मत्व की सिद्धि के लिए आवश्यक है कि पर्वत के धूमवत्व का ज्ञान हो, बिना पर्वत में धूम को देखे उसके अग्निमान् होने का अनुमान नहीं किया जा सकता है । यही व्याप्य का पक्षधर्मवत्व कहलाता है ।
[[४०]]
मूलम्
९. सिसाधयिषितधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षः । यथा अग्निमत्त्वादिसाधने पर्वतादिः ।
वासुदेवः
पर्वतादिर् इति । तथा च तादृश-पर्वतादिरूप-पक्ष-वृत्तित्वं धूमादेर् अस्तीति प्रथम-रूप-संगतिः । सिसाधयिषित-सजातीयेति । सिसाधयिषितो धर्मः पर्वतादि-वृत्तिर् वह्निस् तत्-सजातीयो महानसादिवृत्तिर् वह्निस् तादृश-वह्निरूप- धर्मवान् इत्य् अर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१०. सिसाधयिषित–स-जातीय–धर्मवान् स-पक्षः । यथा महानसादिः ।
शिवप्रसादः (हिं)
सिषाधयिषित धर्म के सजातीय धर्म से जो विशिष्ट धर्मी होता है, उसे सपक्ष कहते हैं । जैसे—महानस आदि ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
(ख) सपक्ष सत्त्वम् - सिषाधयिषित धर्म के सदृश धर्म से जो विशिष्ट धर्मी होता है, उसे सपक्ष कहते हैं । जैसे—यहाँ सिषाधयिषित धर्म अग्निमत्त्व है, उसके सदृश ही अग्निमत्त्व से विशिष्ट धर्मी महानस आदि हैं। उन महानस आदि में भी वह्नि से व्याप्य धूम पाया जाता है । अतएव इस व्याप्य में सपक्षसत्त्व अव्याहत है ।
मूलम्
१०. सिसाधयिषितसजातीयधर्मवान् सपक्षः । यथा महानसादिः ।
वासुदेवः
महानसादिर् इति । तथा च तादृश-महानसादि-रूप-सपक्ष-वृत्तित्वं धूमादेर् अस्तीति द्वितीय-रूप-संगतिः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
११. साध्य-तज्-जातीय-शून्यो विपक्षः । यथा महाह्रदः (महाह्रदादिः) ।
शिवप्रसादः (हिं)
[[३१]]
विपक्ष उसे कहते हैं, जो साध्य तथा साध्य के सजातीय धर्म से रहित होता है । जैसे - महाह्रद ( महासरोवर ) आदि ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
(ग) विपक्षव्यावृत्तत्व - साध्य तथा साध्य के सजातीय धर्मों से शून्य विपक्ष होता है । उस विपक्ष में व्याप्य का न पाया जाना ही विपक्षव्यावृत्तत्व कहलाता है । जैसे— प्रकृत साध्य अग्निमत्त्व तथा उसके सदृश धर्म से रहित जो महाह्रद है, उसमें वह्नि के व्याप्यभूत धूम की सत्ता नहीं पायी जाती है । यही उसका विपक्षव्या- वृत्तत्व है ।
मूलम्
११. साध्यतज्जातीयशून्यो विपक्षः । यथा महाह्रदः ।
वासुदेवः
महाह्रद इति । तथा च तादृश-महाह्रदरूप-विपक्षावृत्तित्वं धूमस्यास्तीति तृतीय-रूप-संगतिः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१२. प्रबलेन प्रमाणेन
पक्षे निश्चित-साध्याभाववत्त्वम्
बाधित-विषयत्वम् ।
यथा – “महाह्रदो ऽग्निमान्” इत्यादि ।
तद्-अभावस्तु (तदभाववत्त्वम्) अ-बाधित-विषयत्वम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
प्रबल प्रमाण के द्वारा पक्ष में साध्य के अभाव का निश्चितं हो जाने को बाधितविषयत्व कहलाता है । जैसे— प्रत्यक्ष रूपी प्रबल प्रमाण से सिद्ध है कि महाहृद में अग्नि का अभाव है ।
अतएव महाहृद में व्याप्य की बाधित- विषयता है । व्याप्य की बाधितविषयता का न होना ही अबाधितविषयत्व है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
(घ ) अबाधितविषयत्व - प्रबल प्रमाण के द्वारा पक्ष में साध्य के अभाव का निश्चित हो जाना ही बाधितविषयत्व है । जैसे— ‘महाह्रदोऽग्निमान्’ इस वाक्य के द्वारा महाहृद में अग्नि की सत्ता सिद्ध करना ही साध्य है । किन्तु महाहृद में अग्नि की सत्ता प्रत्यक्षतः बाधित है, जो अनुमान की अपेक्षा प्रबल प्रमाण है । अत एव उसका साधक धूमवत्त्व भी बाधित है । किन्तु पर्वत को अग्निमत्त्व का साधक धूम तो अबाधित विषय वाला है । ‘पर्वतोऽवह्निमान् धूमवत्त्वात्’ इस अनुमान के हेतु में अबाधितविषयता है ।
मूलम्
१२. प्रबलेन प्रमाणेन पक्षे निश्चितसाध्याभाववत्त्वम् बाधितविषयत्वम् । यथा – “महाह्रदोऽग्निमान्” इत्यादि । तदभावस्तु (तदभाववत्त्वम्) अबाधितविषयत्वम् ।
वासुदेवः
चतुर्थं दर्शयति - प्रबलेनेति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१३. सम-बलतया प्रतीयमान-प्रमाणोपरोधाभावो ऽसत्-प्रतिपक्षत्वम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
समान रूप से बलवान् प्रतीत होने वाले प्रमाण के द्वारा व्याप्य में किसी प्रकार के उपरोध के न होने को असत्प्रतिपक्षत्व कहते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
(ङ) असत्प्रतिपक्षत्व - अर्थात् प्रतिपक्ष का न रहना । साध्य के विपरीत अर्थ के साधक समान बल वाले दूसरे हेतु को प्रतिपक्ष कहते हैं । उस प्रकार के हेत्वन्तर के रहने को सत्प्रतिपक्षत्व कहते हैं । जैसे किसी ने कहा- मही, महीधर आदि सकर्तृक हैं, क्यों कि वे कार्य हैं । इस सकर्तृकत्व साध्य के विपरीत अकर्तृकत्व का साधक दूसरा हेतु अकार्यत्व मही- महीधरादि में हैं । जैसे—मही, महीधर आदि अकर्तृक हैं, क्योंकि वे कार्य नहीं हैं । अतएव उपर्युक्त अनुमान का साधक कार्यत्व हेतु सत्प्रतिपक्षित है । किन्तु पर्वत में अग्निमत्त्व का साधक धूमवत्त्व हेतु असत्प्रतिपक्षत्व से युक्त है ।
मूलम्
१३. समबलतया प्रतीयमानप्रमाणोपरोधाभावोऽसत्प्रतिपक्षत्वम् ।
वासुदेवः
पञ्चमं दर्शयति - समबलतयेति ।
व्याप्य-भेदौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
१४. एवम्-भूतं व्याप्यं द्वि-विधम् – अन्वय-व्यतिरेकि-केवलान्वयि-भेदात् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद — उपर्युक्त प्रकार का व्याप्य दो प्रकार का होता है - अन्वयव्यतिरेकी और केवलान्वयी ।
मूलम्
१४. एवम्भूतं व्याप्यं द्विविधम् – अन्वयव्यतिरेकिकेवलान्वयिभेदात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१५. पूर्वोक्त-पञ्च-रूपोपपन्नं व्याप्यम् अन्वय-व्यतिरेकि ।
यथा –
“पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वात्,
यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान्, यथा “महानसः”,
“योऽनग्निस् स निर्धूमः, यथा महाह्रद (ह्रद)” इति ।
शिवप्रसादः (हिं)
पूर्वोक्त पाँच रूपों से सम्पन्न व्याप्य अन्वयव्यतिरेकी होता है । जैसे— पर्वत अग्निवाला है, व्याप्य क्योंकि वह धूमवाला है । जो-जो धूमवाला होता है, वह वह अग्नि वाला होता है; जैसे - महानस ।
जो अग्निरहित होता है वह निर्धूम होता है; जैसे -ह्रद ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - व्याप्य के आधार पर अनुमान के दो भेद सिद्धान्त में स्वीकार किये जाते है — अन्वयव्यतिरेकी तथा केवलान्वयी । अन्वयव्यतिरेकी अनुमान का व्याप्य उपर्युक्त पांचों रूपों से सम्पन्न होता है, अतएव उसे सभी दार्शनिक स्वीकार करते हैं ।
मूलम्
१५. पूर्वोक्तपञ्चरूपोपपन्नं व्याप्यम् अन्वयव्यतिरेकि । यथा – “पर्वतोऽग्निमान् धूमवत्त्वात्, यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान्, यथा “महानसः” “योऽग्निः स निर्धूमः, यथा महाह्रद” इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१६. तादृशम् एव विपक्ष-रहितं व्याप्यं केवलान्वयि -
यथा – “ब्रह्म शब्द-वाच्यं, वस्तुत्वात्, घटवत्” ।
विपक्षाभावात् केवलान्वयि चतू-रूपोपपन्नम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
उपर्युक्त प्रकार का ही विपक्ष रहित व्याप्य जैसे ब्रह्म शब्दवाच्य है, क्योंकि वह वस्तु है, जैसे—घट । विपक्ष के न होने के कारण केवला- न्वयी व्याप्य के चार ही रूप होते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
केवलान्वयी अनुमान – इसमें केवल अन्वयव्याप्ति का ही ग्रहण होता है । जैसे— ब्रह्म शब्दवाच्य है, क्योंकि वह घट के समान वस्तु है । जो-जो वस्तु वस्तु होती है, वह वह शब्दवाच्य अवश्य होता है । ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो शब्दवाच्य न हो, अतएव यहाँ विपक्ष कुछ है ही नहीं । विपक्ष के न होने से इसमें व्यतिरेकव्याप्ति का ग्रहण नहीं होता है । इसीलिए केवलान्वयी हेतु भी विपक्षव्यावृत्तत्व नामक रूप से रहित होने के कारण अपने चार रूपों से ही युक्त होता है ।
मूलम्
१६. तादृशमेव विपक्षरहितं व्याप्यं केवलान्वयि । यथा – “ब्रह्म शब्दवाच्यं, वस्तुत्वात्, घटवत्” । विपक्षाभावात् केवलान्वयि चतूरूपोपपन्नम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१७. केवल-व्यतिरेकिणि साध्याप्रसिद्धेस्
तद्-व्यतिरेक-व्याप्तिर् दुर्ग्रहा । अतः केवल-व्यतिरेकि-निरासः ।
शिवप्रसादः (हिं)
केवलव्यतिरेकी हेतु का साध्य अप्रसिद्ध होता है,
अतः उसका व्याप्तिग्रह हो सकना कठिन है ।
अत एव सिद्धान्त में केवलव्यतिरेकी अनुमान नहीं स्वीकारा जाता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
केवलव्यतिरेकी अनुमान - नैयायिक केवलान्वयी अनुमान के ही समान केवल- व्यतिरेकी अनुमान को भी स्वीकार करते हैं ! वे कहते हैं कि जिस तरह केवलान्वयी अनुमान का केवलान्वयी हेतु चार रूपों से ही सम्पन्न होकर अपने साध्य को सिद्ध करता है, उसी तरह केवलव्यतिरेकी हेतु भी अपने चार रूपों से सम्पन्न होकर अपने साध्य का साधक होता है । केवलान्वयी हेतु में जिस तरह विपक्षव्यावृत्तत्व नहीं पाया जाता है, उसी तरह केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्षसत्त्व नहीं पाया जाता है । जिस तरह केवलान्वयी में केवल अन्वयव्याप्ति गृहीत होती है, उसी तरह केवल- व्यतिरेकी में केवल व्यतिरेकव्याप्ति ही गृहीत होती है । जिस तरह केवलान्वयी हेतु का विपक्ष नहीं होता, उसी तरह केवलक्ष्यतिरेकी हेतु का सपक्ष नहीं होता है । अत एव केवलान्वयी अनुमान के ही समान केवलव्यतिरेकी अनुमान को भी स्वीकार [[४२]] करना चाहिए । केवलव्यतिरेकी अनुमान का स्वरूप निम्न है— जीव आत्मा है, क्योंकि वह चैतन्यवान् है । जो चैतन्यवान् नहीं होता वह आत्मा नहीं होता; जैसे- घट । यहाँ सब कुछ पक्षान्तर्गत होने के कारण सपक्ष मिलता ही नहीं । अतएव केवल- व्यतिरेकी का साध्य अप्रसिद्ध अर्थात् अनिश्चित होता है । प्रकृत अनुमान के पक्ष के अन्तर्गत सभी चैतन्यवान् पदार्थ पक्षान्तर्गत हैं, उसका विपक्ष सभी जड पदार्थ हैं । किन्तु उसका ऐसा कोई पक्ष नहीं है, जहाँ साध्य का निश्चय हुआ हो । यही इस अनु- मान का दोष है । इसी दोष के चलते विशिष्टाद्वेती केवलव्यतिरेकी अनुमान को स्वीकार नहीं करते हैं । क्योंकि इसका साध्य ही अप्रसिद्ध है । साध्य की अप्रसिद्धि बहुत बड़ा दोष है । नैयायिक विद्वान् केवलव्यतिरेकी हेतु को अवीत हेतु भी कहते हैं । अवीत हेतु की व्युत्पत्ति है— ‘वीतः — विशेषेण इतः भूयः साध्यवद् देशस्थितः अन्वयव्याप्तिभावहेतुः । तद्भिन्नो हेतुः अवीतहेतुः – केवलव्यतिरेकिव्याप्तिमान् हेतुः ।’
मूलम्
१७. केवलव्यतिरेकिणि साध्याप्रसिद्धेस्तद्व्यतिरेकव्याप्तिर् दुर्ग्रहा । अतः केवलव्यतिरेकिनिरासः ।
वासुदेवः
साध्याप्रसिद्धेर् इति । यथा पृथिवी गन्धवती पृथिवीत्वाद् इत्य् अत्र गन्धो न प्रसिद्धः । पक्ष एव प्रसिद्धश् चेत् सिद्ध-साधनम् । सपक्षे चेत् केवल-व्यतिरकित्व-हानिः । विपक्षे चेद् व्याघातः । अप्रसिद्धे च साध्ये तद् अभाव-व्याप्तिर् दुर्ग्रहा । प्रतियोगि-प्रमितिं विना ऽभाव-प्रमितेर् अयोगात् । नन्व् अस्त्वेवं भाव-साध्यक-स्थले । पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्वाद् इत्य् आद्य्-अभाव-साध्यक-स्थले त्व् अभावाभावस्य भावरूपत्वेन तस्य च भावस्य प्रतियोगि-प्रमितिं विना ऽपि सिद्धत्वात् तद्व्याप्तिः सुग्रहैवेति चेद् भ्रान्तो ऽसि । व्यतिरेकस्य भावात्मत्वे ऽपि व्यतिरेक-व्याप्ति-कथनावस्थायां साध्य-अभावरूपतया कथनम् अवश्यंभावि । यदितरेभ्यो न भिद्यते तद् गन्धवन् न भवतीति हि व्यतिरेक-व्याप्ति-कथनम् । अन्यथा साध्य-प्रतिभटत्वाभावे व्यतिरेक-व्यवहारानुपपत्तेः । ननु शब्दः पृथिव्य्-आद्य्-अष्टद्रव्यातिरिक्त-द्रव्याश्रितः, शब्दत्वाद् इत्य् अत्र साध्यस्य द्रव्याश्रितत्व-रूप-सामान्य-रूपेण प्रसिद्धिर् अस्त्येव । शब्दः क्वचिद् आश्रितो गुणत्वाद् इत्य् अनुमानेन तत्-सिद्धेर् इति चेन् न । सामान्य-रूपेण प्रसिद्धि-सत्त्वे ऽपि साध्यतावच्छेदक-रूपेण प्रसिद्ध्य्-अभावात् । धूम-वह्नि-संबन्ध-प्रतिपत्तौ पदार्थत्वेन तयोः प्रतीतेर् अतन्त्रत्वात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१८. केवलान्वयिनि अन्वयव्यतिरेकिणि च अत्यन्तातीन्द्रियार्थगोचरता निरस्ता +++(शब्दस्य योगिप्रत्यक्षस्यैव च तत्रौचित्यात्)+++ ।
शिवप्रसादः (हिं)
किञ्चव सिद्धान्त में केवलान्वयि तथा अन्वयव्य- तिरेकी अनुमान के द्वारा अत्यन्त अतीन्द्रिय पदार्थ की भी अनुमिति नहीं स्वीकार की जाती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
से 1
नैयायिक विद्वान् केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी हेतुओं के द्वारा ईश्वर को सिद्ध करके ईश्वर को अनुमानप्रमाणैकसमधिगम्य सिद्ध करते हैं । किन्तु विशिष्टा- द्वैती विद्वानों का कहना है कि ईश्वर अत्यन्त अतीन्द्रियपदार्थ है । उसका ग्रहण न तो केवलान्वयी अनुमान से संभव है और न तो केवलव्यतिरेकी अनुमान अत्यन्त अतीन्द्रिय पदार्थ का व्याप्तिग्रह ही असंभव है । अतएव ईश्वर को शास्त्रक- समधिगम्य मानना चाहिए। इस बात का प्रतिपादन महर्षि बादरायण भी ‘शास्त्रयोनित्वाधिकरण के शास्त्रयोनित्वात्’ सूत्र में करते हैं । ‘शास्त्रं योनिः प्रमाणं यस्मिन्नसौ तत् शास्त्रयोनिः । तस्य भावस्तत्त्वम्, तस्मात्’ । यह ‘शास्त्रयोनित्वात् ’ सूत्र की व्युत्पत्ति है । इसी अर्थ का अनुवाद करते हुए श्रीवेदान्तदेशिक तत्त्वमुक्ता- कलाप के नायकसर के प्रथम श्लोक में कहते हैं - ‘व्याप्त्याद्यव्याकुलाभिः श्रुति- भिरधिगतो विश्वनेता ।’ अर्थात् सम्पूर्ण जगत् के नियामक श्रीभगवान् में व्याप्ति आदि के दोषों से रहित श्रुति ही एकमात्र बोधक प्रमाण है । इसी से ईश्वर का बोध होता है ।
मूलम्
१८. केवलान्वयिनि अन्वयव्यतिरेकिणि च अत्यन्तातीन्द्रियार्थगोचरता निरस्ता ।