०३ उपाधिनिरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

५. सेयम् उभय-विधा व्याप्तिर्
उपाधि-सम्भवे दुष्यति (दुष्टा) ।
साध्य-व्यापकत्वे सति
साधनाव्यापकत्वम् उपाधिः
यथा वह्निना धूमे साध्यमाने
आर्द्रेन्धन-सम्बन्ध (संयोग) उपाधिः
मैत्री-+++(सद्यो-जात-)+++तनयत्वेन श्यामत्वे साध्यमाने +++(प्राक्-कल्पनानुसारं)+++ शाक-पाक-जत्वम् उपाधिः ।

अण्णङ्गराचार्यः

उपाधिस्थलमुदाहरति **‘यथे’**ति ।
धूमवान् वह्नेर् इत्य् अत्रार्द्रेन्धन-संयोगः
शुद्ध-साध्य-व्यापक उपाधिः ।

क्वचित् पक्ष-विशेषण-धर्मावच्छिन्न-साध्य-व्यापक उपाधिर् अस्ति ।
तत् स्थलं दर्शयति - **‘मैत्री’**ति ।

अयं (सद्यो-जातः) मैत्रो तनयः श्यामः मैत्री-तनयत्वात् पूर्व-मैत्री-तनयवत्

इत्य्-अत्र शाक-पाक-जत्वम् उपाधिः ।
अयं च न शुद्ध-साध्य-श्यामत्व-व्यापकः -
नीलोत्पलादौ व्यभिचारात् ,
अपि तु मैत्री-तनयत्व-विशिष्ट-श्यामत्व-व्यापको भवति ।
हेतुमति पक्षे
शुक्ले मैत्रीतनये नास्त्य् अयम् उपाधिर् इति साधनाव्यापकः ।
उपाधि-स्थले हेतोस् साध्य-व्यभिचारः साध्य-व्यापकोपाधि-व्यभिचारेणानुमीयते ।
प्रकृते च विशिष्ट-साध्य-व्यभिचारेऽनुमिने विशेषणवति
विशिष्ट-व्यभिचारो विशेष्य-व्यभिचार-पर्यवसायी भवति ।
सोपाधिकश् च हेतुर् आभासो भवति व्याप्यत्वासिद्धः । इति बोध्यम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

यह दोनों प्रकार की व्याप्ति उपाधि के रहने पर दूषित हो जाती है ।

अनुवाद - जो साध्य में व्यापक रहते हुए साधन में व्यापक न हो, उसे उपाधि कहते हैं । जैसे - वह्निरूपी साधन के द्वारा धूम रूपी साध्य की सिद्धि में आर्द्रेन्धन- संयोग उपाधि है । ‘जो मैत्री का पुत्र होता है वह श्याम वर्ण का होता है’ यहाँ पर शाकपाकजत्व उपाधि है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

उपर्युक्त दोनों प्रकार की व्याप्तियाँ उपाधि के रहने पर दूषित मानी जाती हैं ।

भा० प्र०— उपाधि का स्वरूप - ऊपर कहा जा चुका है कि उपाधि के द्वारा व्याप्ति दूषित हो जाती है । अब प्रश्न उठता है कि उपाधि का स्वरूप क्या है ? तो इसका उत्तर देते हुए यतीन्द्रमतदीपिकाकार कहते हैं- ‘साध्यव्यापकत्वे ० ’ इत्यादि । अर्थात् जो साध्य में व्यापक रहते हुए साधन में अव्यापक हो, उसको उपाधि कहते हैं । जैसे किसी ने कहा कि जहाँ-जहाँ अग्नि रहती है वहाँ-वहाँ धूम रहता है । इस कथन में आर्द्रेन्धनसंयोग उपाधि है, क्योंकि ऐसा देखा जाता है कि जहाँ धूम नहीं होता हैं वहाँ भी अग्नि रहती है । जैसे जलते हुए निर्धूम अंगारे में अग्नि तो रहती है किन्तु वहाँ धूम नहीं रहता । धूम तो तब तक ही अग्नि से निकलता है, जब तक इन्धन आर्द्र रहता है । यह आर्द्रेन्धनसंयोग ही अग्नि से धूम निकलने का कारण है । यह आर्द्रेन्धनसंयोग उपर्युक्त वाक्य के साध्यभूत धूम में तो व्यापक है, किन्तु उस धूमरूपी साध्य के हेतु अग्नि में व्यापक नहीं है । क्योंकि निर्धूम अग्नि में आर्द्रेन्धन- संयोग नहीं है । इसी तरह मैत्री के श्यामवर्ण के एक पुत्र को देखकर यह सिद्ध करना कि ‘यत्र यत्र मैत्रीतनयत्वं तत्र तत्र श्यामत्वम् ।’ तो यह भी कथन ठीक नहीं है । क्योंकि श्यामवर्ण के मैत्री के पुत्र श्यामवर्ण के ही हों, यह कोई नियम नहीं है । जो माता गर्भकाल में अधिक शाकों को खाती है, उसके पुत्र श्यामवर्ण के हैं । अतएव इस व्याप्ति - वाक्य में शाकपाकजत्वोपाधि है । यह शाकपाकजत्व उक्त व्याप्ति वाक्य के साध्यभूत श्यामवर्णत्व में तो व्यापक है, किन्तु उस श्यामवर्णत्व के साधक मैत्रीतन- यत्व में अव्यापक है ।

मूलम्

५. सेयमुभयविधा व्याप्तिरुपाधिसम्भवे दुष्यति (दुष्टा) । साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वम् उपाधिः । यथा वह्निना धूमे साध्यमाने आर्द्रेन्धनसम्बन्ध (संयोगः) उपाधिः । मैत्रीतनयत्वेन श्यामत्वे साध्यमाने शाकपाकजत्वमुपाधिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

६. स चोपाधिर् द्वि-विधः – निश्चितः शङ्कितश् चेति।

निश्चितो यथा –

विप्रतिपन्ना सेवा दुःखहेतुः, सेवात्वात्, राज-सेवावत्

इत्य्-अत्र पापारब्धत्वम् उपाधिः ।
अयन् तु (अयं च) ईश्वर-सेवायां नास्तीति निश्चयाद्
अयं निश्चितोपाधिः

शङ्कितो यथा –

“विप्रतिपन्नो जीव एतच्-छरीरावसाने मुक्तिमान्,
निष्पन्न-समाधित्वात्, शुकादिवत्”

इत्यत्र कर्मात्यन्त-परिक्षय उपाधिः ।
स च निष्पन्न-समाधौ विप्रतिपन्ने जीवे,
अस्ति (वा) नास्तीति सन्दिग्धत्वात् शङ्कितोपाधिः

अतो निरुपाधिक-सम्बन्धवत् व्याप्यम् इति सिद्धम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

वह उपाधि दो प्रकार की होती है - निश्चित एवं शंकित । निश्चित उपाधि का उदाहरण है— विवादास्पद सेवा दुःखद होती है, क्योंकि वह सेवा राजा की सेवा के समान है । यहाँ पर पापारब्धत्व उपाधि है । किन्तु दुःखप्रदत्व ईश्वर की सेवा में नहीं है, यह निश्चय हो जाने से निश्चितोपाधि है । शंकितोपाधि का उदाहरण है— विवादास्पद जीव इस शरीर की समाप्ति पर मुक्ति प्राप्त कर लेगा, क्योंकि उसकी समाधि शुक आदि के समान निष्पन्न हो गयी है । यहाँ पर कर्मों का अत्यन्त विनाश ही उपाधि है । वह कर्मों का आत्यन्तिक विनाश इस निष्पन्न समाधि वाले जीव का हो चुका है कि नहीं ? यह सन्दिग्ध है, अतएव यह शंकितोपाधि का उदाहरण है । अतएव सिद्ध हुआ कि उपाधिरहित सम्बन्ध वाला ही व्याप्य होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

उपाधि के दो भव – उपाधि दो प्रकार की होती है— निश्चितोपाधि और शंकितोपाधि । ३८.

निश्चितोपाधि – किसी ने सिद्ध करना चाहा - सभी सेवाएँ दुःखद होती हैं, क्योंकि वे सेवा राजा की सेवा के समान हैं । इस कथन में पापारब्धत्व उपाधि है । क्योंकि किसी पापविशेष के ही कारण जीव राजा का अनुचर बन कर उसकी सेवा करता है । राजा की सेवा में कष्ट भी बहुत अधिक होता है । इसी तरह सांसारिक सभी सेवाएँ जो अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए की जाती हैं, तत् तत्प्रकारक पापादृष्टजन्य ही है । अतएव वे सभी सेवाएँ दुःखद हैं, किन्तु यह दुःखप्रदत्व श्रीभगवान् की सेवा में नहीं पाया जाता । श्रीपरमात्मा की सेवा में दुख नहीं सुख मिलता है । परमात्मा की सेवा करने में प्रवृत्ति भी किसी महान् पुण्यादृष्ट का परि- णाम है । अतएव सेवा के दुःखप्रदत्व में पापारब्धत्वोपाधि है । यह पापारब्धत्व दुःख- प्रदत्व में व्यापक होते हुए भी सभी सेवाओं में अव्यापक है । किञ्च यह भी निश्चित रहता है कि परमात्मा की सेवा में पापारब्धत्व नहीं हैं । अतएव यह निश्चितोपाधि का उदाहरण है ।

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शंकितोपाधि - इस जीव को इस शरीर की समाप्ति के पश्चात् मुक्ति मिलेगी, क्योंकि इसको शुक आदि के समान समाधि लग गयी है। इस कथन में कर्मों का आत्यन्तिक विनाश उपाधि है । क्योंकि मुक्ति उसको मिलती है, जिसके सभी कर्म विनष्ट हो जाते हैं । निष्पन्न समाधित्व के कारण नहीं, किञ्च इस निष्पन्न समाधि वाले जीव के सभी कर्मों का आत्यन्तिक विनाश हो गया है कि नहीं ? यह संदिग्ध है । यह कर्मों का आत्यन्तिक विनाश मुक्तिमत्व रूप साध्य में तो व्यापक है, किन्तु उसके साधन निष्पन्नसमाधित्व में अव्यापक है । अतएव यह शंकितोपाधि का उदाहरण है ।

इस तरह सिद्ध हुआ कि अनुमान का वही व्याप्य सद्व्याप्य होता है, जिसका व्यापक के साथ निरुपाधिक सम्बन्ध होता है ।

मूलम्

६. स चोपाधिर्द्विविधः – निश्चितः शङ्कितश्चेति । निश्चितो यथा – “विप्रतिपन्ना सेवा दुःखहेतुः, सेवात्वात्, राजसेवावत्” इत्यत्र पापारब्धत्वमुपाधिः । अयन्तु (अथ च) ईश्वरसेवायां नास्तीति निश्चयादयं निश्चितोपाधिः । शङ्कितो यथा – “विप्रतिपन्नो जीव एतच्छरीरावसाने मुक्तिमान्, निष्पन्नसमाधित्वात्, शुकादिवत्” इत्यत्र कर्मात्यन्तपरिक्षय उपाधिः। स च निष्पन्नसमाधौ विप्रतिपन्ने जीवे, अस्ति नास्तीति सन्दिग्धत्वात् शङ्कितोपाधिः । अतो निरुपाधिकसम्बन्धवत् व्याप्यमिति सिद्धम् ।

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