०२ व्याप्ति-निरूपणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

२. अन्-अधिक-देश-काल-नियतम् व्याप्यम्
अ-न्यून-देश-काल-वृत्ति व्यापकं,
तद् इदम् अविनाभूतम् व्याप्यम्; तत्-प्रतिसम्बन्धि व्यापकम् इति ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘अनधिके’**ति अधिकः - साध्यानधिकरणीभूतः देशः कालश्च । तत्रावृत्तिस्सद्धेतुरित्यर्थः । साध्यसामानाधिकरण्ये सति साध्याभाववदवृत्तित्वं व्याप्तिरित्येकः पक्षः । **‘अन्यूने’**ति । हेतुमति सर्वत्र वर्तमानं साध्यं व्यापकमित्यर्थः । तत्प्रतिसम्बन्धि हेतुनिष्ठाविनाभावनिरूपकम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - व्याप्य साध्य की अपेक्षा अधिक देश तथा अधिक काल में नहीं रहता है । व्यापक व्याप्य की अपेक्षा न्यूनदेश अथवा न्यूनकाल में नहीं रहता है । व्याप्य व्यापक का अविनाभूत है । अर्थात् व्यापक के बिना व्याप्य नहीं रहता है । व्यापक व्याप्य का प्रतिसंबंधी होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० – अनुमान के लिए व्याप्य एवं व्यापक के स्वरूप का ज्ञान अपेक्षित है । व्याप्य को न्याय की भाषा में हेतु तथा लिङ्ग भी कहा जाता है । व्यापक को साध्य तथा लिङ्गी भी कहा जाता है । साध्य उसे कहते हैं, जिसको अनुमान द्वारा सिद्ध किया जाता है । जैसे— पर्वत में दृश्यमान धूम के द्वारा सिद्ध की जाने वाली अग्नि साध्य है। हेतु, साधन, व्याप्य अथवा लिङ्ग उसे कहते हैं, जो साध्य का साधक होता है । व्याप्य का स्वरूप है कि वह व्यापक के समान अथवा न्यून देश तथा काल में रहता है । व्यापक की अपेक्षा अधिक देश अथवा उससे अधिक काल में व्याप्य नहीं रहता है । व्यापक व्याप्य के समान देश अथवा समान काल में रहता है । अथवा उससे अधिक देश एवं अधिक काल में रहता है । व्यापक कभी भी व्याप्य की अपेक्षा न्यून देश अथवा न्यून काल में नहीं रहता है । व्याप्य का स्वभाव है कि वह व्यापक का अविनाभूत है । ‘न विना अविना तथाभूतम् अविनाभूतम्’ यह अविनाभूत शब्द की व्युत्पत्ति है । अर्थात् व्याप्य बिना व्यापक के रहता ही नहीं ।

जहाँ अग्नि होगी वहीं धूम होगा, अग्नि के बिना घूम रह ही नहीं सकता है, क्योंकि धूम अग्नि का अविनाभूत है । और जिसके बिना व्याप्य नहीं होता, वह व्यापक कहलाता है; जैसे- अग्नि धूम का व्यापक है । अतएव व्यापक अविनाभूत ( व्याप्य ) का प्रतिसंबंधी होता है । अर्थात् वह हेतु में रहने वाले अविनाभाव का निरूपक होता है ।

मूलम्

२. अनधिकदेशकालनियतम् (नियमं) व्याप्यम् । अन्यूनदेशकालवृत्ति व्यापकम् । तदिदमविनाभूतं व्याप्यम्; तत्प्रतिसम्बन्धि व्यापकमिति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३. तेन निर्-उपाधिकतया नियत-सम्बन्धो व्याप्तिर् इत्युच्यते (व्याप्तिरित्युक्तं भवति) ।
सेयं “यत्र धूमस् तत्र वह्निः”
इति व्याप्तिर् भूयो-दर्शनात् (भूयोदर्शनेन) गृह्यते ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘नियते’**ति । अव्यभिचरितसामानाधिकरण्यम् इत्यर्थः । हेतुमन्निष्ठाभावप्रतियोगितानवच्छेदकसाध्यतावच्छेदकावच्छिन्नं साध्यसामानाधिकरण्यं हेतोस् साध्यनिरूपिता व्याप्तिरित्यर्थः । इयमन्वयव्याप्तिः । नियतत्वोपपादकं निरुपाधिकत्वम् । उपाधिरहितत्वे सति साध्यवद्वृत्तित्वं हेतोर्व्याप्तिरिति पक्षान्तरम् ।
भूयोदर्शनेन भूयस्साध्यहेत्वोरेकस्मिन्नधिकरणे सहवृत्तित्वदर्शनेन ।

शिवप्रसादः (हिं)

व्याप्य से व्यापक का उपाधिरहित संबंध व्याप्ति कहलाती है । उस व्याप्ति का ग्रहण; जहाँ-जहाँ घूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है; इस प्रकार बार-बार देखने से होता है ।

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शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अनुमिति के लिए व्याप्तिज्ञान का होना अनिवार्य है । बिना व्याप्तिज्ञान के अनुमान नहीं किया जा सकता है । व्याप्य के साथ व्यापक का अव्यभिचरित संबंध ही व्याप्ति है । एकत्राव्यवस्था को व्यभिचार कहते हैं । अर्थात् नियमनिपात या नियम के भंग को व्यभिचार कहते हैं । व्यभिचार से रहित संबंध को अव्यभिचरित सम्बन्ध कहते हैं । धूम और अग्नि का अव्यभिचरित सम्बन्ध है । अव्यभिचरित सम्बन्ध को ही नियत सम्बन्ध कहते हैं । अव्यभिचरित सम्बन्ध को ही निरुपाधिक सम्बन्ध कहते हैं । उपाधि रहने पर ही व्याप्ति दूषित होती है। जैसे - जहाँ जहाँ घूम होता है, वहाँ-वहाँ वह्नि अवश्य होती है । इस प्रकार का ज्ञान ही व्याप्तिग्रह कहलाता है । व्याप्तिग्रह का अर्थ है व्याप्ति का ज्ञान ।

व्याप्तिग्रह — व्याप्तिग्रह के विषय में विचारकों के दो प्रकार के मत हैं । कुछ लोग भूयो भूयो साहचर्य दर्शन को व्याप्ति का ग्राहक मानते हैं ।

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जैसे किसी ने बार-बार महानस ( रसोईघर ) गोष्ठ तथा चत्वर इत्यादि स्थलों में देखा है कि जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ वहाँ आग अवश्य होती है । इस भूयो भूयो साहचर्यं दर्शन के बल पर वह निश्चित करता है कि जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है । दूसरे प्रकार के लोग भूयो भूयो साहचर्य दर्शन का महत्त्व न देकर नियत साहचर्य दर्शन को व्याप्ति का ग्राहक मानते हैं । वे देखते हैं कि धूम और अग्नि का साहचर्य नियत है, अतएव धूम अग्नि का व्याप्य है । दोनों में होने वाला सम्बन्ध व्याप्ति सम्बन्ध कहलाता है । व्याप्ति सम्बन्ध को ही अव्यभिचरित सम्बन्ध, ऐकान्तिक सम्बन्ध तथा अविनाभाव सम्बन्ध भी कहते हैं ।

मूलम्

३. तेन निरुपाधिकतया नियतसम्बन्धो व्याप्तिरित्युच्यते (व्याप्तिरित्युक्तं भवति) । सेयं “यत्र धूमस्तत्र वह्निः” इति व्याप्तिर्भूयोदर्शनात् (भूयोदर्शनेन) गृह्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४. व्याप्तिर् द्वि-विधा (द्विधा) – अन्वय-व्यतिरेक-भेदात् ।

साधन-विधौ साध्य-विधि-रूपेण प्रवृत्ता व्याप्तिर् अन्वय-व्याप्तिः
यथा –

यो यो धूमवान्
स सोऽग्निमान्

इति ।

साध्य-निषेधे साधन-निषेध-रूपेण प्रवृत्ता व्याप्तिर् व्यतिरेक-व्याप्तिः ।
यथा – “योऽनग्निः स निर्धूम” इति ।

अण्णङ्गराचार्यः

**‘साधन-विधा’**व् इति ।
यत्र यत्र हेतुरस्ति, तत्र तत्र साध्यमस्तीति अन्वयमुखेन सत्त्वमुखेन, हेतुसाध्ययोः, सामानाधिकरण्यद्वारा प्रवृत्ता गृह्यमाणाऽन्वयव्यातिरित्यर्थः । ‘साध्यनिषेध’ इति । यत्र यत्र साध्यः नास्ति तत्र तत्र हेतुर्नास्तीति अभावमुखेन साध्यभावहेत्वभावयोः साहचर्यमुखेन गृहीता व्यतिरेकव्याप्तिरित्यर्थः । साध्याभावव्यापकाभावप्रतियोगित्वहेतोरिति भावः । दुष्टा - बाधिता । उपाधि - उपाधिलक्षणम् । साधनाव्यापक उपाधिरिति पाठः साधीयान् ।

शिवप्रसादः (हिं)

व्याप्ति दो प्रकार की होती है - अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति । साधन का सद्भाव बतलाकर साध्य का सद्भावप्रतिपादनपुरस्सर गृहीत की जाने वाली व्याप्ति अन्वयव्याप्ति है । जैसे—जो-जो धूम वाला होता है, वह वह अग्नि वाला होता है । साध्य का निषेध करके साधन का निषेधपूर्वक गृहीत की जाने वाली व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति कहलाती है । जैसे - जो-जो अग्निरहित होता है, वह निर्धूम होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

व्याप्ति के भेद - यह व्याप्ति दो प्रकार की होती है - अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति ।

अन्वयव्याप्ति - ’ अन्वयमधिकृत्य प्रवृत्ता व्याप्तिः अन्वयव्याप्तिः’ यह अन्वयव्याप्ति की व्युत्पत्ति है । अन्वय को लेकर होने वाली व्याप्ति अन्वयव्याप्ति कहलाती है । ‘तत्सत्त्वे तत्सत्त्वम्’ यह अन्वय का स्वरूप है । अर्थात् व्याप्य के रहने पर व्यापक का रहना अन्वय कहलाता है । अतएव व्याप्य के सद्भाव को बतलाकर व्यापक के सद्भाव- प्रतिपादनपूर्वक गृहीत होने वाली व्याप्ति अन्वयव्याप्ति है । जैसे—धूम के सद्भाव को देखकर अग्नि के सद्भाव का प्रतिपादनपूर्वक गृहीत होने वाली व्याप्ति । उदाहरणार्थं - ‘यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः’ यह अन्वयव्याप्ति का उदाहरण है ।

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व्यतिरेकव्याप्ति - ‘व्यतिरेकं प्रकृत्य प्रवृत्ता व्याप्तिः’ यह व्यतिरेकव्याप्ति की व्युत्पत्ति है । अर्थात् व्यतिरेक को आधार बनाकर होने वाली व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति है । ‘तद्भावे तदभावो व्यभिचारः । साध्याभावे साधनाभावो व्यभिचारः ।’ अर्थात् जिस व्याप्ति में साध्य का अभाव बतलाकर साधन का अभाव बतलाया जाय, वह व्यतिरेक- व्याप्ति है । जैसे – अग्नि के अभाव को बतलाकर घूम का अभाव प्रतिपादित करना व्यतिरेकव्याप्ति है । जैसे- ‘योऽग्निः सो निर्धूमः’ । जो अग्नि से रहित होता है, वह धूमरहित होता है, यह व्यतिरेकव्याप्ति का उदाहरण है ।

मूलम्

४. व्याप्तिर्द्विविधा (द्विधा) – अन्वयव्यतिरेकभेदात् । साधनविधौ साध्यविधिरूपेण प्रवृत्ता व्याप्तिरन्वयव्याप्तिः । यथा – “यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान्” इति । साध्यनिषेधे साधननिषेधरूपेण प्रवृत्ता व्याप्तिर्व्यतिरेकव्याप्तिः । यथा – “योऽनग्निः स निर्धूम” इति ।

वासुदेवः

साधन-विधाविति । हेतु-सद्भावे साध्य-सद्भावो ऽन्वयः । साध्याभावे साधनाभावौ व्यतिरेकः । न पुनः साधनाभावे साध्याभावः ।

व्याप्य-व्यापकमात्रो हि भावयोर् यादृग् इष्यते ।
तयोर् अभावरोस् तस्माद् विपरीतः प्रतीयते ॥

इत्य् उक्तेः ।

यथा वह्निनेति । यत्र यत्र धूमस् तत्र तत्रार्द्रेन्धन-संयोगो वर्तत इति तस्य साध्य-व्यापकत्वम् । यत्र यत्र वह्निस् तत्र तत्रार्द्रेन्धन-संयोगो नास्ति, अयोगोलके व्यभिचाराद् इति तस्य साधना-व्यापकत्वम् । एवम् अग्रे ऽपि । स्व-व्यापकत्वेनाभिनाभिमतस्य यो व्यापकः स यदि स्व-व्यापको न भवति तर्हि स्व-व्यापकत्वेनाभिमते स्व-व्यापकत्वं नास्त्येव । पर्वतो धूमवानित्यनुमाने वह्नि-व्यापकत्वेनाभिमतस्य धूनस्य व्यापको य आर्द्रेन्धन-संयोगः स वह्नि-व्यापको न भवतीत्य् उपाधि-लक्षणाद् अवगते वह्नि-व्यापकत्वं धूमस्य नास्तीति निश्वयो भवति । एतद् एवोपाधेर् दूषकता-बीजम् । तद् उक्तम् - निरुपाधिक-सम्बन्धस्य व्याप्ति-स्वरूपत्वात् तद्-अभावेन व्याप्तिम् अवसादयन्न् उपाधिर् दूषणम् इति । उपाधि-व्यभिचारेण हेतौ साध्य-व्यभिचारानुमानम् अपि भवति । यथा वह्निर्धूम-व्यभिचारी, धूम-व्यापकार्द्रेन्धन-संयोग-व्यभिचारित्वात् । व्यापक-व्यभिचारिणो व्याप्य-व्यभिचारावश्यकत्वाद् इति ।