विश्वास-प्रस्तुतिः
१२. अत्र साक्षात्-कार–प्रमा-करणम् प्रत्यक्षम् ।
अनुमानादि-व्यावृत्त्य्-अर्थम् “साक्षात्कार” इति ।
दुष्टेन्द्रिय-ज-व्यावृत्त्य्-अर्थम् “प्रमा” इति ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - उन तीनों प्रमाणों में साक्षात्कारी प्रमा के करण को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । प्रत्यक्षप्रमाण का अनुमानादि प्रमाणों से भेद सिद्ध करने के लिए साक्षात्-प्रथमोऽवतारः
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कारी पद को प्रमा का विशेषण बनाया गया है। दूषित इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान से प्रमा की भिन्नता सिद्ध करने के लिए प्रमा पद का प्रयोग किया गया है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - यतीन्द्रमतदीपिकाकार प्रत्यक्षप्रमाण को साक्षात्कारी प्रमा का साधकतम बतलाते हैं । साक्षात्कारिणीप्रमा वह होती है, जो चक्षुरादि इन्द्रियों से उत्पन्न होती है । तर्कभाषाकार केशवमिश्र कहते हैं - ‘साक्षात्कारिणी च प्रमा सैवो- च्यते या इन्द्रियजा’ । अर्थात् विषयों के साथ इन्द्रियों का संबन्ध होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे साक्षात्कारी प्रमा कहते हैं। अनुमान और शब्द प्रमाण से भी प्रमा होती है, किन्तु वह साक्षात्कारिणी नहीं होती; अपितु वह अनुमिति प्रमा तथा शाब्दी प्रमा होती है । उन दोनों प्रमाओं से भिन्न प्रकार की प्रमा का साधकतम सिद्ध करने के लिए लक्षणवाक्य में साक्षात्कारी शब्द कहा गया है। ज्ञान दोषदूषित इन्द्रियों से भी उत्पन्न होता है । जैसे काचकामलादि दोष से दूषित चक्षुरिन्द्रिय से गृहीत उजला भी शंख पीला प्रतीत होता है । तिमिर तथा अङ्गुल्यवष्टम्भ आदि से दूषित चक्षुरिन्द्रिय से एक ही वस्तु दो दिखने लग जाती है । किन्तु इस प्रकार के ज्ञान को प्रमा नहीं कहा जा सकता है। ऐसे ज्ञानों से भी प्रत्यक्षप्रमाण जन्य ज्ञान की भिन्नता सिद्ध करने के लिए लक्षण में प्रमा पद का प्रयोग किया गया है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Of these, pratyaksa is that which is the instru- ment of valid perceptual knowledge. ‘Perceptual’ is used to differentiate it from inference. ‘Valid know- ledge’ is used to differentiate it from the (erroneous) knowledge arising from the defective sense organ.36
मूलम्
१२. अत्र (तत्र) साक्षात्कारप्रमाकरणम् (साक्षात्कारिप्रमाकरणम्) प्रत्यक्षम् । अनुमानादिव्यावृत्त्यर्थं “साक्षात्कारी” इति । दुष्टेन्द्रियजव्यावृत्त्यर्थम् “प्रमा” इति ।
वासुदेवः
साक्षात्कारि-प्रमेति । साक्षात्कारिणी या प्रमेत्य् अर्थः । अत्र केचित् - इन्द्रिय-जन्या प्रमा साक्षात्कारिणीत्य् उच्यते । एतेन प्रत्यक्ष-ज्ञाने जाते साक्षात्त्व-ज्ञानं जाते च तस्मिन् प्रत्यक्ष-प्रमाण-ज्ञानम् इत्य् अन्योन्याश्रय इत्य् अपास्तम् । इन्द्रियत्वेन तज् जन्यत्वस्य विवक्षितत्वान् मनोजन्ये ऽनुमित्यादौ नातिव्याप्तिः शङ्कनीयेति वदन्ति । तच् चिन्त्यम् । मुक्त-नित्येश्वर-ज्ञाने ऽव्याप्तेः। तस्येन्द्रिय-निरपेक्षत्वात्। साक्षात्त्व-लक्षणं तु लैङ्गिकत्व-शाब्दत्व-स्मृतित्वरहितं ज्ञानत्वम् इति बोध्यम्। न च वैशद्य-मात्रं साक्षात्त्वम् इति वाच्यम्। सुषुप्त्यादाव् अविशदात्म-स्वरूपस्य मानात्। प्रकाशांश-वैशद्यस्य परोक्ष-ज्ञाने ऽपि सत्त्वाच्च। दुष्टेन्द्रियेति। दुष्टेन्द्रिय-जन्ये ऽन्यथा-ज्ञानादौ यथावस्थित-व्यवहारानुगुण-ज्ञानत्व-रूप-प्रमा-लक्षणस्याभावात् तेषां प्रमा-करणत्वाभावान् न प्रमाणत्वम् इति बोध्यम्।
निर्विकल्पकं, सविकल्पकम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
१३. तच्च प्रत्यक्षं द्विविधम् – निर्विकल्पक–सविकल्पक-भेदात् ।
निर्विकल्पकं नाम गुण-संस्थानादि-विशिष्ट-प्रथम-पिण्ड-ग्रहणम् ।
सविकल्पकं तु सप्रत्यवमर्शं गुण-संस्थानादिविशिष्ट-द्वितीयादि-पिण्डग्रहणम् ।
उभय-विधम् अपि एतद् विशिष्ट-विषयम् एव । (उभयमप्येतद्विशिष्टविषयमेव ।)
अविशिष्ट-ग्राहिणो ज्ञानस्यानुपलम्भाद् अनुपपत्तेश् च ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रत्यक्षप्रमाण दो प्रकार का होता है— निर्विकल्पक एवं सविकल्पक । गुण तथा संस्थान आदि से विशिष्ट एकजातीय द्रव्यों में प्रथम वस्तु का जो साक्षात्- कार होता है, उसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कहते हैं तथा प्रत्यवमर्शपूर्वक गुणसंस्थानादि- विशिष्ट एकजातीय द्रव्यों में से द्वितीय आदि पिण्डों के साक्षात्कार जन्य ज्ञान को सविकल्पक प्रत्यक्ष कहते हैं । ये दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष विशेषणविशिष्ट वस्तु का ही ग्रहण करते हैं । ये दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष विशेषणविशिष्ट वस्तु का ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि निर्विशेष वस्तु के ग्राहक ज्ञान की न तो उपलब्धि होती है और न तो उस प्रकार का ज्ञान उपपन्न ही हो सकता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० – निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से भी सविशेष वस्तु का ही ग्रहण होता है- निर्विकल्पक - प्रत्यक्षप्रमाण के विषय में विशिष्टाद्वैती विद्वानों की मान्यता अन्य दार्श- निकों की अपेक्षा भिन्न है । नैयायिक अद्वैती आदि मानते हैं कि निर्विकल्पकप्रत्यक्ष
के
द्वारा सभी विशेषणों से शून्य वस्तु का ग्रहण है । अद्वैती विद्वान् तो उसे सन्मात्र का ग्राहक बतलाते हैं । विशिष्टाद्वैती विद्वानों का कहना है कि कोई भी ऐसा प्रत्यक्ष नहीं होता, जो सभी विशेषणों से रहित वस्तु का ग्रहण कर सके । सविकल्पकप्रत्यक्ष
१६
को तो सब लोग मानते है कि वह जाति आदि अनेक विशेषणों से विशिष्ट को
वस्तु
अपना विषय बनाता है, किन्तु निर्विकल्पकप्रत्यक्ष का भी विषय सविशेष वस्तु ही होती है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में अनुभूत विशेषणों का ही तो प्रत्यवमर्श प्रतिसन्धान सविकल्पक प्रत्यक्ष में होता है । निर्विकल्पकप्रत्यक्ष में कुछ विशेषणों से रहित वस्तु का ग्रहण होता है, सभी विशेषणों से रहित वस्तु का नहीं। सभी विशेषणों से रहित वस्तु का ग्राहक कोई भी ज्ञान नहीं होता, यह देखा जाता है । जितने भी ज्ञान होते हैं, उनमें इदन्त्त्र एवं इत्थन्त्व अवश्य पाये जाते हैं । यह वस्तु यह है और ऐसी है इत्यादि रूप से ही हर प्रतीति होती है । संस्थान तथा आकार से रहित किसी भी वस्तु का साक्षात्कार होता ही नहीं हैं, यदि ऐसा भी प्रत्यक्ष होता तो उसकी उपलब्धि अवश्य होती । चूँकि ऐसे प्रत्यक्ष की उपलब्धि होती ही नहीं, अत एव इस प्रकार का ज्ञान योग्यानुपलब्धि पराहत है । साथ ही इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य वस्तु का जो प्रथम प्रत्यक्ष होता है, वह सविशेषवस्तु-विषयक ही होता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष है । सविकल्पक प्रत्यक्ष के समान यह अनुग्राहक तर्क भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के सविशेष- वस्तु-विषयता में साधक है । इस तरह साधकप्रमाणाभाव तथा बाधकप्रमाणों के सद्भाव से सिद्ध होता है कि कोई भी ज्ञान सभी विशेषणों से रहित वस्तु का ग्रहण नहीं करता । अतएव एक जाति की वस्तुओं में से जो प्रथम पिण्ड का साक्षात्कार होता है, उसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कहते हैं तथा द्वितीयादि पिण्डों का जो ग्रहण होता है, उसे सविकल्पक प्रत्यक्ष कहते हैं । प्रथम पिण्ड ग्रहण में गोत्व आदि की अनुवृत्ताकारता नहीं प्रतीत होती और द्वितीय आदि रूप गोत्वादि की अनुवृत्ताकारता की प्रतीति होती है । यह भी गौ है, क्योंकि इसमें भी सास्नादिरूप गोत्व है । इस प्रकार से द्वितीयादि पिण्ड ( व्यक्ति ) के ग्रहण को इसलिए सविकल्प कहा जाता है कि प्रथम प्रतीति में अनुभूत वस्तु के संस्थान रूप गोत्व आदि की विशेषता का द्वितीयादि ग्रहण में निश्चय किया जाता है । इस तरह स्पष्ट है कि गोत्वादि की अनुवृत्ति की प्रतीति तथा प्रतीति का अभाव ही सविकल्पक एवं निर्विकल्पक शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है । प्रथम पिण्डग्रहण में गोत्वादि की अनु- वृत्ति की प्रतीति नहीं होती, अत एव वह ग्रहण निर्विकल्पक है । यदि प्रथम व्यक्ति गोत्व का ग्रहण नहीं माना जाय तो
पिण्डों के ग्रहण में संस्थानादि-
के ग्रहणकाल में अनुवृत्ति का ग्रहण न होने से फिर उसका ग्रहण द्वितीय आदि व्यक्तियों के ग्रहणकाल में नहीं हो सकता है । फलतः ‘इयमपि गौः गोत्वावच्छिन्नत्वात् ।’ यह प्रत्यवमर्श द्वितीयादि पिण्डग्रहण- काल में नहीं हो सकता है । अतः सिद्ध है कि निर्विकल्पकप्रत्यक्ष भी सविशेषवस्तु- विषयक ही होता है, निर्विशेषवस्तु विषयक नहीं ।
आदिदेवानन्दः (En)
- And this perception is twofold, because of the difference as nirvikalpaka (indeterminate) and savikalpaka (determinate). What is called nirvikalpaka is the cognition of the first individual qualified by its attributes, configuration, etc. The savikalpaka is the cognition of the second (third and so on) individual qualified by its attributes, configuration, etc. grasped with retrospection. 37 In both cases this (perception) has for its object only what is qualified (by attributes etc.). Since it is not possible to possess knowledge which apprehends unqualified (objects), (the perception of non-differenced objects) is inadmissible.
मूलम्
१३. तच्च प्रत्यक्षं द्विविधम् – निर्विकल्पकसविकल्पकभेदात् । निर्विकल्पकं नाम गुणसंस्थानादिविशिष्टप्रथमपिण्डग्रहणम् । सविकल्पकं तु सप्रत्यवमर्शं गुण-संस्थानादिविशिष्टद्वितीयादिपिण्डग्रहणम् । उभयविधमपि एतद् विशिष्टविषयमेव । अविशिष्टग्राहिणो ज्ञानस्यानुपलम्भादनुपपत्तेश्च ।
वासुदेवः
निर्विकल्पकं नामेति। केचित् तु जाति-गुण-द्रव्यादीनाम् अन्योन्य-संबन्धं विना पृथक्-पृथक्-उपसम्भो निर्विकल्पक-प्रत्यक्षम्। विशिष्ट-प्रत्यक्षे विशेषण-ज्ञानस्य कारणत्वात्। “दण्डी देवदत्तः” इतिवद् इत्याहुः। तन् न। दण्ड-देवदत्तयोः पृथग्-ग्रहणस्य विशेषण-विशेष्य-भाव-प्रयुक्तत्वाभावात्। दण्ड-देवदत्तयोः संबन्धात् पूर्वं यत् तयोः पृथग्-ग्रहणं तत् तयोः संबन्धाभावाद् एव। संबन्धोत्तरं तु पृथग्-ग्रहणम् एव नास्ति। तदानीं विशेषण-विशेष्य-भावेनैव तयोः प्रतीतत्वात्। जाति-व्यक्त्योस् तु नियमेन संबन्धात् एक-सामग्री-वेद्यत्वाच् च तयोः पृथग्-ग्रहणं नैव संभवति। तस्मान् निर्विकल्पके ऽपि ससंस्थानम् एव वस्त्वित्थम् इति प्रतीयते। द्वितीयादि-प्रत्ययेषु तस्यैव संस्थान-विशेषस्यानेक-वस्तु-निष्ठता-मात्रं प्रतीयते। संस्थान-रूप-प्रकाराख्यस्य पदार्थस्यानेक-वस्तु-निष्ठतया ऽनेक-वस्तु-विशेषणत्वं द्वितीयादि-प्रत्ययावगम्यम् इति द्वितीयादि-प्रत्ययाः सविकल्पकाः इत्य् उच्यन्ते। यद्यपि प्रथम-पिण्ड-ग्रहणे ऽनुवृत्तिर् न प्रतीयते तथा ऽपि जातिः प्रतीयत एव। न ह्य् अनुवृत्तिर् जातिर् अपि त्व् अनुवृत्तं संस्थानम् एवेति वेदार्थ-संग्रहे स्पष्टम्। ननु प्रथम-पिण्ड-ग्रहण-जन्य-संस्कार-नाशोत्तरं जायमानस्य द्वितीय-पिण्ड-ग्रहणस्य निर्विकल्पकत्वं स्यात्। तदानीम् अनुवृत्तेर् अग्रहणाद् इति चेद् इष्टम् एव। द्वितीयादित्वेन यत् द्वितीयादि-पिण्ड-ग्रहणं तद् एव सविकल्पकम् इत्य् अर्थस्य विवक्षितत्वात्।
वस्तूनां ग्रहणप्रकारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
१४. ग्रहण-प्रकारस्तु – आत्मा मानसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियम् अर्थेन । इन्द्रियाणाम् प्राप्य-प्रकाश-कारित्व-नियमात् (प्राप्यकारित्वनियमात् ।) ।
अतो घटादि-रूपार्थस्य चक्षुर्-आदि-रूपेन्द्रियस्य च सन्निकर्षे सति
“अयं घटः” (अयं घटः पट) इति चाक्षुष-ज्ञानं जायते ।
एवमेव स्पार्शन-प्रत्यक्षादयो ऽपि ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – वस्तुओं का ग्रहण इस प्रकार होता है। आत्मा मन से संयुक्त होता है। मन इन्द्रियों से संयुक्त होता है और इन्द्रिय विषयों से संयुक्त होता है । क्योंकि इन्द्रियों का स्वभाव है कि वे अपने विषय को प्राप्त कर उनका प्रकाश अपने आश्रय के प्रति कर देती हैं। घट आदि विषय तथा चक्षु आदि इन्द्रियों का सन्निकर्ष ( सम्बन्ध ) होने पर यह घट है, यह पट है, इत्यादि चाक्षुषज्ञान होता है । इसी तरह स्पार्शन प्रत्यक्ष आदि भी होते हैं ।
आदिदेवानन्दः (En)
- The mode of perception is thus : The indivi- dual self is joined with the mind (manas), mind with the sense organ, and the sense organ with the object of knowledge; since, as a rule, the sense organs do their function by coming into contact with the object to be cognized. Therefore when the visual sense is in contact with an object, in the form of jar etc., ocular knowledge arises in the form ’this is jar’. Thus also are the tactual and other perceptions.
मूलम्
१४. ग्रहणप्रकारस्तु – आत्मा मानसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियमर्थेनेति (इन्द्रियमर्थेन) । इन्द्रियाणाम् प्राप्यप्रकाशकारित्वनियमात् । अतो घटादिरूपार्थस्य चक्षुरादिरूपेन्द्रियस्य (चक्षुरादीन्द्रियस्य) (चक्षूरूपेन्द्रियस्य) च सन्निकर्षे सति “अयं घटः” (अयं घट पट) इति चाक्षुषज्ञानं जायते । एवमेव स्पार्शनप्रत्यक्षादयोऽपि ।
वासुदेवः
इन्द्रियाणाम् इति। तत्र त्वग्-इन्द्रियं रसनेन्द्रियं च स्व-संबद्ध-वस्तु-प्रकाशकम् इत्य् अनुभवाद् एव सिद्धम्। दूरस्थ-गन्धो ऽपि वायु-वशात् समीप-गत एव घ्राणेन्द्रियेण गृह्यत इति तद् अपि प्राप्य-प्रकाशकार्येव। चक्षुः-श्रोत्र-विषये त्व् अनुमानम् उच्यते। चक्षुर्-इन्द्रियं श्रोत्रेन्द्रियं च प्राप्य-प्रकाश-कारि, इन्द्रियत्वात् त्वग्-आदि-इन्द्रियवत्। दूरस्थ-घटादिभिश् चक्षुषः संबन्धस् तु वृत्ति-द्वारा बोध्यः। इन्द्रियाणां योग्य-देशे वृत्ति-प्रसरणात्। स्याद् एतत्। उन्मिषित-मात्रं चक्षुश् चन्द्रं बोधयति। न चैकस्मिन् क्षणे तावान् देशो वृत्त्या लङ्घयितुं क्षमः। क्रमे तु प्रति-परमाण्व्-अवच्छेदं विलम्ब्य गमनात् प्रतीतिर् अपि विलम्बेत। दूरासन्न-ग्रहण-काल-तारतम्यं च स्यात्। वृत्ति-प्रसरणाभावे तु प्राप्य-प्रकाश-कारित्वं न सिध्यति। मैवम्। सूर्योदये सफल-दिग्व्यापिन्याः प्रभाया इवेन्द्रिय-वृत्तेर् अपि तादृश-वेगातिशयाङ्गीकारेणादोषात्। तत्र सतो ऽपि क्रमस्य दुर्लक्ष्यतया पद्म-पत्र-शत-वेध-रीत्या यौगपद्याभिमानात्। तां च वृत्तिम् आलोकाद्य्-अनुप्रवेशानुगुण-संनिवेशवान् अम्बुकाचादिः स्वभावाद् एव न सर्वथा प्रतिबध्नातीति तद्-व्यवहितस्य यथायथम् अविशदं प्रत्यक्षं भवत्येव। वस्तु-स्वभाव-वैचित्र्यं चावश्यं त्वया ऽपिभ्युपेयम्। अन्यथा ह्य् अप्राप्य-ग्रहणे ऽपि कुड्यादि-व्यवहितं न ग्राह्यं काचादि-व्यवहितं तु ग्राह्यम् इत्यत्र नियामकाभावः। अञ्जनादि-संस्कृत-नयन-प्रभायाः पृथिव्यादाव् अनुप्रवेशात् तद्-अक्त-चक्षुषां निधि-प्रभृतेर् उपलम्भः। अथ श्रोत्रेन्द्रियस्य दूरस्थ-शब्देन कथं संबन्धः। सांख्यास् तु चक्षुरिन्द्रियस्येव श्रोत्रेन्द्रियस्यापि वृत्ति-द्वारैव संबन्धः। न तु वायु-वशात् उत्पन्नस्य शब्दस्येन्द्रिय-देश एव संबन्धः। अत एव “भेरी-शब्दो मया श्रुत” इति अभुक्-अदिशि शब्दो जात इति च धीः संगच्छत इत्याहुः। तन् न। तथा सति दूरस्थो भेरी-शब्दं विलम्बेन शृणोति वादकास् तदासन्नाश् चाविलम्बेनेति वैषम्यं निर्बीजं स्यात्। तस्माद् वायु-वशात् समीपम् आगच्छन् नेव शब्दो गृह्यत इत्य् अभ्युपेयम्। एवम् अपि “भेरी-शब्दो मया श्रुत” इति धीर् उपपद्यते। “अमुकादीशि शब्दो जात” इति त्व् अनुमानेनापि गम्यत इति बोध्यम्।
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सम्बन्धविचारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
१५. द्रव्य-ग्रहणे संयोगः सम्बन्धः ।
द्रव्य-गत-रूपादि-ग्रहणे समवायानङ्गीकारात्
संयुक्ताश्रयण-सम्बन्धः ।
वासुदेवः
संयोग इति। तद् उक्तं तत्त्व-रत्नाकरे -
तत्र वृद्धा विदामासुः संयोगं संनिकर्षणम्।
संयुक्ताश्रयणं चेति यथासंभवम् ऊह्यताम्॥
इति।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - द्रव्य के ग्रहण में संयोग नामक संबन्ध होता है तथा द्रव्य के रूप आदि के ग्रहण में संयुक्ताश्रय संबन्ध होता है, क्योंकि हम समवाय नामक सम्बन्ध को नहीं स्वीकारते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - विशिष्टाद्वंतियों का सन्निकर्ष-विषयक विचार - नैयायिक विद्वान् छह प्रकार के सन्निकर्ष को स्वीकारते हैं-संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय और विशेष्यविशेषणभाव ।
दो पदार्थों के बीच होने वाला ऐसा संबंध जो टूट सकता है, वह संयोगसंबंध कहलाता है । चक्षुरिन्द्रिय का घट के साथ संयोगसंबंध होता है। समवाय एक ऐसा संबंध है, जो टूट नहीं सकता है । रूप का शरीर के साथ समवायसम्बन्ध है, क्योंकि शरीर के बिना शरीर रूप नहीं रह सकता । रूपी द्रव्य में रूप समवायसम्बन्ध से रहता है । चक्षुरिन्द्रिय से संयुक्त घट के रूप का ग्रहण चक्षुरिन्द्रिय संयुक्तसमवाय- सम्बन्ध से करती है और चक्षुरिन्द्रिय से संयुक्त घट में समवायसंबंध से रहने वाले रूप में रूपत्व भी समवायसंबंध से रहता है; अतएव उसका ग्रहण संयुक्तसमवेत- समवायसम्बन्ध से होता है । शब्द आकाश का गुण है, गुण और गुणी में समवाय- सम्बन्ध होता है । न्यायसिद्धान्तानुसार आकाश एक है । कर्णकुहर में रहने वाली श्रोत्रेन्द्रिय भी आकाश ही है । अत एव उसमें शब्द समवायसम्बन्ध से विद्यमान है । श्रवणेन्द्रिय का शब्द के साथ समवायसम्बन्ध है । उस शब्द में शब्दत्व जाति भी समवायसम्बन्ध से रहती है । अतएव श्रवणेन्द्रिय द्वारा शब्दत्व जाति का जो साक्षा- त्कार होता है, वह समवेतसमवायसम्बन्ध से होता है । नैयायिकों का कहना है कि अभाव अपने आश्रय में विशेषण रूप से विद्यमान रहता है। पृथिवी पर घटाभाव है । इसका अर्थ है कि पृथिवी का विशेषण है घटाभाव । अतएव उस अभाव का जो प्रत्यक्ष होता है, उसमें विशेषणविशेष्यभाव रूप सम्बन्ध होता है । यही नैयायिकों के सम्बन्ध अथवा सन्निकर्षो का स्वरूप है ।
।
१८
यतीन्द्रमतदीपिकाकार इन सभी सम्बन्धों को न मानकर केवल दो सम्बन्ध मानते हैं - संयोग और संयुक्ताश्रय । इनका अभिप्राय है कि नैयायिकों के जो प्रथम पाँच सम्बन्ध हैं, उनमें दो ही सम्बन्ध प्रमुख हैं—संयोग और समवाय । यतीन्द्रमत- दीपिकाकार नैयायिकों के संयोग नामक संबंध को ज्यों का त्यों मान लेते हैं । वे समवाय को नहीं मानते, उसका एकमात्र कारण यह है कि महर्षि बादरायण ने स्वयम् शारीरक-मीमांसा के ‘समवायाभ्युपगमाच्च साम्यादनवस्थिते: । ’ ( २।२।१२ ) सूत्र में समवाय का खण्डन किया है। इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि वैशेषिक दर्शन में समवाय को स्वीकारा जाता है । समवाय को सिद्ध करने के लिए वे कहते हैं कि जाति-व्यक्ति, गुण-गुणी, अवयव अवयवी आदि अयुतसिद्ध पदार्थों में विशिष्ट प्रतीति जिस सम्बन्ध के कारण होती है, उसका नाम समवाय है । इस तरह उनके अनुसार अयुतसिद्ध पदार्थों में जाति आदि का निर्वाहक समवायसम्बन्ध हुआ । किन्तु उन्हें यह सोचना चाहिए कि जिस तरह अयुतसिद्ध उपलब्धियों में जाति आदि का निर्वा- हक समवाय है, उसी तरह उस समवाय का भी निर्वाहक कोई न कोई हेतु होना चाहिए । उसका निर्वाहक जो हेतु होगा, उसके भी निर्वाहक हेतु की आकांक्षा होगी । इस तरह समवाय को स्वीकारने में उपर्युपरि अनन्तापेक्षकत्व रूप अनवस्था दोष है । अतएव वैशेषिकाभिमत समवाय को नहीं स्वीकारा जा सकता है । संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवेतसमवाय, इन तीन संबन्धों की जो वे पृथक् कल्पना करते हैं, उसका एकमात्र कारण है कि वे जाति को संस्थानादि से भिन्न मानते हैं तथा उसका प्रत्यक्ष भी मानते हैं, किन्तु उनकी संस्थानादि व्यतिरिक्त को जाति मानने की कल्पना अनुपलब्धि पराहत है । क्योंकि द्रव्यादिकों के साक्षात्कार में संस्था- नादि से व्यतिरिक्त जाति नामक पदार्थ का आज तक किसी ने साक्षात्कार नहीं किया है । अतएव उनकी जाति तथा उपर्युक्त तीनों सम्बन्ध भी अनादरणीय हैं । विशेष्य- विशेषणभाव रूप संबन्ध को मानना इसलिए प्रत्यक्ष में अनावश्यक है कि विशिष्टा- द्वैत दर्शन में अभाव को विशेषण रूप से स्वीकारा ही नहीं जाता; अपितु यहाँ अभाव को भावान्तर रूप माना जाता है ।
अब प्रश्न है कि तो फिर द्रव्य में अपृथसिद्ध संबंध से रहने वाले रूप आदि के प्रत्यक्ष में कौन-सा संबंध विशिष्टाद्वैती मानते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि उनके ग्रहण के लिए हम संयोगाश्रय संबंध मानते हैं, क्योंकि उन रूपादिकों के आश्रय रूपी आदि पदार्थ हैं और उनके साथ चक्षुरादि इन्द्रियों के साथ संयोग सम्बन्ध होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Conjunction ( samyoga) is the sense-relation when a substance is perceived. When the colour of a substance is perceived, the sense-relation is dependence in what is conjoined (with the sense organ ), 38 since we do not admit (the relation of ) ‘inherence’. 39
मूलम्
१५. द्रव्यग्रहणे संयोगः सम्बन्धः । द्रव्यगतरूपादिग्रहणे समवायानङ्गीकारात् संयुक्ताश्रयणसम्बन्धः ।
वासुदेवः
द्रव्य-ग्रहणम् इति। त्वक्-चक्षुर्-मनांसि द्रव्याद्रव्य-ग्राहकाणि। श्रोत्र-जिह्वा-घ्राणान्य् अद्रव्य-ग्राहकाणि।
प्रत्यक्षस्यावान्तरभेदाः
विश्वास-प्रस्तुतिः
१६. निर्विकल्पक-सविकल्पक-भिन्नम् प्रत्यक्षं द्विविधम् –
अर्वाचीनम् अनर्वाचीनं चेति ।
अर्वाचीनम् पुनर् द्वि-विधम् – इन्द्रिय-सापेक्षं तद्-अनपेक्षं चेति ।
तद्-अनपेक्षं च द्वि-विधम् – स्वयं-सिद्धं दिव्यं चेति ।
स्वयं-सिद्धं योग-जन्यम् ।
दिव्यम् भगवत्-प्रसाद-जन्यम् ।
अनर्वाचीनं तु इन्द्रियानपेक्षम् मुक्त-नित्येश्वर-ज्ञानम् (नित्यमुक्तेश्वरज्ञानम्) ।
अनर्वाचीनं तु प्रसङ्गादुक्तम् (अनर्वाचीनं प्रसङ्गादुक्तम्) ।
एवं साक्षात्-कार-प्रमा-करणम् (साक्षात्कारिप्रमाकरणम्) प्रत्यक्षम् इति सिद्धम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रत्यक्ष के दो भेद बतलाए गये हैं - निर्विकल्पक एवं सविकल्पक । उन दोनों के भी दो-दो भेद होते हैं-अर्वाचीन और अनर्वाचीन । अर्वाचीन के भी दो भेद होते हैं - इन्द्रिय सापेक्ष एवं इन्द्रिय निरपेक्ष । इन्द्रियनिरपेक्षप्रत्यक्ष भी दो प्रकार के होते हैं - स्वयंसिद्ध एवं दिव्य । स्वयंसिद्ध योग से उत्पन्न होता है तथा दिव्य प्रत्यक्ष भगवान् की कृपा से होता है । अनर्वाचीन प्रत्यक्ष तो इन्द्रिय निरपेक्ष ही होता है। नित्य, मुक्त जीवों तथा ईश्वर का ज्ञान अनर्वाचीन प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष का प्रकरण होने से यहाँ अनर्वाचीन प्रत्यक्ष की चर्चा कर दी गयी है । इस तरह सिद्ध हुआ कि साक्षात्कारी प्रमा के करण को प्रत्यक्ष कहते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - यतीन्द्रमतदीपिकाकार विशिष्टाद्वैत दर्शन में प्रख्यात तथा अन्य दर्शनों में अचचित प्रत्यक्ष के कुछ विभागों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि निर्वि- कल्पक एवं सविकल्पक, इन दोनों प्रत्यक्षों के दो-दो भेद होते हैं–अर्वाचीन और अनर्वाचीन । अर्वाचीन का अर्थ है जन्य; अनर्वाचीन का अर्थ है अजन्य । अनर्वाचीन प्रत्यक्ष नित्य-मुक्त जीवों को तथा सर्वज्ञ परमात्मा को होता है । नित्यमुक्त जीवों के अनर्वाचीन प्रत्यक्ष के विषय में सामश्रुति भी कहती है- ‘सदा पश्यन्ति सूरयः’ ईश्वर तो सर्वदा सभी विषयों का माक्षात्कार करता ही है । उसके साक्षात्कार में देश एवं काल का व्यवधान बाधक नहीं बनता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Nirvikalpaka and savikalpaka perceptions are twofold, as the arvācīna (recent) and anarvācīna (the ancient ). The arvācīna is again twofold, as the dependent of sense and the independent cf sense. The independent of sense is twofold, as the self-accomplish- ed and the divine. The self-accomplished is the result of yoga. The divine (perception) is what is engendered by the grace of Bhagavan. The anarvācīna does not require the aid of the senses; it is the knowledge of the liberated (selfs), the eternals and Iśvara. The anar- vācīna has been referred to owing to the context. Thus it is established that pratyakşa is the instrument of valid perceptual knowledge.
मूलम्
१६. निर्विकल्पकसविकल्पकभिन्नम् प्रत्यक्षं द्विविधम् – अर्वाचीनम् अनर्वाचीनं चेति । अर्वाचीनम् पुनर्द्विविधम् – इन्द्रियसापेक्षं तदनपेक्षं चेति । तदनपेक्षं च द्विविधम् (तदनपेक्षं द्विविधम्) – स्वयंसिद्धं दिव्यं चेति । स्वयं सिद्धं योगजन्यम् । दिव्यम् भगवत्प्रसादजन्यम् । अनर्वाचीनं तु इन्द्रियानपेक्षम् मुक्तनित्येश्वरज्ञानम् । अनर्वाचीनम् तु (अनर्वाचीनं) प्रसङ्गादुक्तम् । एवं साक्षात्कारप्रमाकरणम् (साक्षात्कारिप्रमाकरणम्) प्रत्यक्षमिति सिद्धम् ।
आदिदेवानन्दः (En)
[[११]] Xi
- Now, pramā was defined as that knowledge which is adapted to practical interests of life as they really are. But exactly the recollection ( smrti) also has the quality of being adapted to experience as it really is; since recollection also may be considered as a pra- māṇa, how was it stated that the pramaņas are three only ? If this be asked, it is said in reply : Even if re- collection is admitted as pramāṇa, it has to depend on reminiscent impressions (samskāra); since perception is the origin of reniniscent impression, it (recollection) is brought under perception which is the original cause,40 and so there is no need to regard it as a separate pramāṇa. Therefore the pramāņas are three only.
स्मृतेः प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः
विश्वास-प्रस्तुतिः
१७.
ननु यथावस्थित-व्यवहारानुगुण-ज्ञानम् प्रमेत्य् उक्तम् ।
एवञ्च स्मृतेर् अपि यथावस्थित-व्यवहारानुगुणत्वेन प्रामाण्यात्
स्मृतेर् अपि प्रमाणत्वेन परिगणनाच् च
त्रीण्य् एव प्रमाणानीति कथम् प्रतिपाद्यते?
इति चेत्, उच्यतेः –
स्मृतेः प्रामाण्याङ्गीकारेऽपि
संस्कार-सापेक्षत्वात् तस्य प्रत्यक्ष-मूलत्वात्,
मूल-भूत-प्रत्यक्षेऽन्तर्भाव इति
न पृथक् प्रमाणत्व-कल्पनम् ।
अतस् त्रीण्य् एवेति प्रमाणानि सम्भवन्ति ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रश्न उठता है कि यथावस्थितव्यवहार के अनुकूल ज्ञान को प्रमा कहते हैं, यह कहा गया है। स्मृति भी यथावस्थितव्यवहार के अनुकूल ही ज्ञान है, अतएव उसका भी प्रामाण्य स्वीकारा जाता है । फलतः स्मृति भी एक प्रमाण सिद्ध होती है । ऐसी स्थित में तीन ही प्रमाण हैं, यह प्रतिपादन ग्रन्थकार कैसे करते हैं ? तो इसका उत्तर है कि, यद्यपि हम स्मृति का प्रामाण्य स्वीकार करते हैं फिर भी, वह संस्कार सापेक्ष होती है । संस्कार पूर्वानुभूत वस्तु का ही होता है। स्मृति का मूल प्रत्यक्ष प्रमाण है; अतएव उसका अपने मूलभूत प्रमाण प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । इस तरह स्मृति को उपर्युक्त तीन से अतिरिक्त प्रमाण नहीं माना जा सकता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - स्मृति के पृथक् प्रमाण की शंका और उसका खण्डन - इस अनुच्छेद में ग्रन्थकार स्मृति के पृथक प्रमाणत्व की शङ्का की उद्भावना करके उसका निरास करते हैं । प्रश्न यह है कि ‘यदि पथावस्थितव्यवहार के अनुकूल ज्ञान को प्रमा कहा
1
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जाता है और उस प्रमा के साधकतम को प्रमाण कहा जाता है तो स्मृति को भी एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि वह यथावस्थितव्यवहार के अनुकूल ज्ञान का जनक है । किश्व श्रुति स्पष्ट रूप से स्मृति को एक अलग प्रमाण बतलाती है । वह श्रुति है । ‘स्मृतिः प्रत्यक्ष मैतिह्यमनुमानम्’ ऐतिह्य शब्द से यहाँ पर शब्दप्रमाण कहा गया है । इस तरह इस श्रुति में चार प्रमाणों को बतलाया गया है— स्मृति, प्रत्यक्ष, शब्द तथा अनुमान । जिस तरह इस श्रुति में प्रोक्त प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द, इन तीनों प्रमाणों को विशिष्टाद्वैती स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, उसी तरह स्मृति को भी उन्हें स्वतन्त्र प्रमाण मानना चाहिए ? इस शंका का समाधान यह है कि विशिष्टाद्वैत दर्शन में स्मृति को भी प्रमा का जनक माना जाता है । इस दर्शन में अद्वैती विद्वानों के समान उसे न तो अप्रमा का जनक माना जाता है और न तो भ्रम ही । किन्तु उसको स्वतन्त्र प्रमाण इसलिए नहीं माना जाता है कि विशिष्टाद्वैती उसका प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव मानते हैं । स्मृति संस्कारजन्य ज्ञान का नाम है ! संस्कार पूर्वानुभूत वस्तुओं का होता है । जिन वस्तुओं का पहले प्रत्यक्ष किया जाता है, उसी का संस्कार पड़ता है। इस तरह स्मृति के मूल में प्रत्यक्ष विद्यमान रहता है । अतएव इस स्मृति का उसके मूलभूत प्रमाण प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव कर दिया जाता है ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘परिगणना’**दिति । ‘स्मृतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं, चतुर्विधम् प्रमाण’मिति वचन इति शेषः । प्रमाणशब्दस्तन्त्रेण प्रमातत्करणोभयवाची भवति । प्रमाकरणस्य प्रमाणत्वे प्रमा तत्फलम् भवति । प्रमायास्तथात्वे चार्थपरिच्छित्तिर्हानोपादानादिर्वा फलं भवति । अर्थपरिच्छित्तिर्नाम हेयोपादेयादिविवेकः ।
‘तस्या’ इति । स्मृतेः प्रत्यक्षमूलकत्वात् इत्यर्थः । प्रत्यक्षस्यैव संस्कारजनकत्वं, संस्कारद्वारा स्मृतिहेतुत्वं चेति केषाञ्चित्पक्षः स्यादित्यूह्यत एतत्सन्दर्भतः । यद्वा दृष्टघटादिस्मृतिमभिप्रेत्य तस्या मूलभूते प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः कथितोऽत्र । प्रत्यक्ष-शब्दश्चायं पूर्वानुभवमात्रस्य स्मृतिहेतोरुपलक्षको बोध्यः । ऐदम्पर्येण श्रुतस्याप्यर्थस्य संस्कारात्स्मृतेर्दर्शनात् ।
मूलम्
१७, ननु यथावस्थितव्यवहारानुगुणज्ञानम् प्रमेत्युक्तम् । एवञ्च स्मृतेरपि यथावस्थितव्यवहारानुगुणत्वेन प्रामाण्यात् स्मृतेरपि प्रमाणत्वेन परिगणनाच्च त्रीण्येव प्रमाणानीति कथम् प्रतिपाद्यते? इति चेत्, उच्यते, – स्मृतेः प्रामाण्याङ्गीकारेऽपि संस्कारसापेक्षत्वात् तस्याः प्रत्यक्षमूलत्वात् मूलभूतप्रत्यक्षेऽन्तर्भाव इति न पृथक् प्रमाणत्वकल्पनम् । अतस्त्रीण्येवेति प्रमाणानि (प्रमाणानि त्रीण्येवेति) सम्भवन्ति (सम्भवति) ।
स्मृतिनिरूपणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
१८. स्मृतिर् नाम पूर्वानुभव-जन्य-संस्कार-मात्र-जन्यं ज्ञानम् ।
संस्कारोद्बोधश् च
“सदृशादृष्ट-चिन्ताद्याः
स्मृतिबीजस्य बोधकाः”
इत्य्-उक्त-प्रकारेण क्वचित् सदृश-दर्शनाद् भवति,
क्वचिद् अदृष्टात्, क्वचिच् चिन्तया ।
आदि-शब्देन साहचर्यस्यापि ग्रहणात् तेनापि च भवति ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘संस्कारमात्रे’**ति । इन्द्रियार्थसन्निकर्षाजन्यं संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिरित्यर्थः । ‘स्मृतिर्बीजस्येति स्मृतिहेतुसंस्कारस्योद्बोधका इत्यर्थः । चिन्ताद्या इत्याद्यपदेन सहचरितस्य ग्रहणम् । अत्र सदृशसहचरितयोः प्रतीयमानयोः संस्कारोद्बोधकत्वं बोध्यम् । चिन्ता पर्यालोचनविचारः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – पहले किये गये अनुभवों से उत्पन्न जो संस्कार, उस संस्कारमात्र से होने वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं । स्मृति का कारण संस्कारों का उदबुद्ध ( जागृत ) होना है । संस्कार के उद्बोधकों को निर्दिष्ट करते हुए कहा गया है— सदृशादृष्ट- चिन्ताद्याः स्मृतिबीजस्य बोधका ।’ अर्थात् सदृश, अदृष्ट, चिन्ता आदि ( साहचर्य ) स्मृति के बीज संस्कार के उदबोधक हैं । इस सूक्ति के अनुसार कही समान आकृति वाली वस्तु को देखकर संस्कार का उन्मेष हो जाता है, तो कही अदृष्टवशात्, तो कहीं चिन्तन करते-करते । मूल के आदि पद से साहचर्य का ग्रहण होता है, अतएव उसके द्वारा भी स्मृति उत्पन्न होती है।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
स्मृति का स्वरूप
भा० प्र० - प्रश्न उठता है कि प्रत्यक्ष तथा श्रुति समर्थित होने के कारण जिस स्मृति का प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है, उस स्मृति का स्वरूप क्या है ? इस शंका का समाधान ग्रन्थकार ‘स्मृतिर्नाम ०’ इत्यादि वाक्य से करते हैं । पूर्वानुभूत वस्तुओं का जो बुद्धि में संस्कार पड़ जाता है, उस संस्कारमात्र से उत्पन्न ज्ञान को स्मृति कहते हैं । लक्षण - वाक्य में मात्र शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट किया गया है कि स्मृति का कारण केवल संस्कार है । उससे अतिरिक्त इन्द्रियार्थसन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं होती । स्मृति के लिए संस्कार का उद्बोधमात्र अपेक्षित होता है । उस संस्कार के उद्बोधक चार हैं— सदृश, अदृष्ट, चिन्तन एवं साहचर्यं ।
सभी पूर्वानुभूत वस्तुओं का स्मरण क्यों नहीं होता है ? - इसका समाधान यह है कि सम्यक्तया अनुभूत सभी वस्तुओं के स्मरण होते हैं । जिन वस्तुओं के अनुभव का संस्कार प्रमुष्ट हो जाता है, उन्हीं का स्मरण नहीं होता । संस्कारों के प्रमोषक काल की दीर्घता, व्याधि आदि हैं। किसी अनुभव किये गये वस्तु का संस्कार बहुत समय बीत जाने पर समाप्त हो जाता है, पुनः उस वस्तु का स्मरण भी नहीं होता है । किञ्च किसी ऐसी व्याधि के हो जाने पर भी पूर्वानुभूत वस्तुओं के संस्कार विनष्ट हो जाते हैं, जिससे बुद्धि में विकार पैदा हो जाय ।
विष्णुपुराण में भी स्मृति - विषयक प्रश्न का हृदयग्राह्य समाधान दिया गया है । प्रश्न है कि पूर्वजन्म में अनुभूत वस्तुओं का स्मरण क्यों नहीं होता है, इसका समाधान किया गया है कि-
‘प्रायणान्नरकक्लेशात् प्रसूतिव्यसनादपि ।
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पूर्वानुभूतप्राग्जन्म भोगामस्मृतिगोचराः ॥’
अर्थात् मृत्यु के समय में अत्यधिक वेदना होती है, उससे उस जन्म में अनुभूत वस्तुओं के संस्कार विनष्ट हो जाते हैं । उससे भी बचे संस्कार नारकीय यातनाओं के सहने के काल में विनष्ट हो जाते हैं । उससे भी यदि पूर्वजन्मानुभूत वस्तुओं के
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संस्कार बच गये हों तो वे जन्मकाल में होने वाली वेदना से विनष्ट हो जाते हैं । क्योंकि जन्म एवं मरण काल में अत्यधिक कष्ट होता है । इसलिए पूर्वजन्म में अनुभूत वस्तुओं का स्मरण नहीं होता है ।
स्मृति के विषय में यह भी प्रश्न उठाया जाता है कि स्मृति के विषय पूर्वानुभूत विषय होते हैं । किन्तु वह पूर्वानुभूत वस्तुमात्र को ही अपना विषय बनाए इसमें क्या नियामक है ? तो इसका उत्तर यह है कि जो स्मृति जिस ज्ञान से उत्पन्न होती है, उस स्मृति का विषय भी उसके उत्पादक ज्ञान का ही विषय होता है ।
‘या स्मृति- र्येन ज्ञानेनोत्पद्यते तद्विषयमेव सा गृह्णातीति नियम: ।’ इस हेतुहेतुमद्भाव नियम के ही कारण वह पूर्वानुभूत विषयमान को अपना विषय बनाती है, क्योंकि उस स्मृति का हेतु भी उस पूर्वानुभूत वस्तु का ज्ञान ही होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- What is called recollection is the knowledge derived only from the reminiscent impressions caused by a prior experience. And what recalls the reminiscent impression is as follows: ‘Those that rouse the seed of recollection are sadrśa (similarity), adrśta (unseen effect of previous karma), cinta (deep thinking), etc.’ In accordance with what has been said (above), the ( recaller) is sometimes the similar-sight (of an object previously seen); sometimes an unseen effect (of one’s actions); sometimes deep thinking. Since from the term ‘adi’ (etcetera), ‘association’ (or concomitance) is to be understood, even that becomes (the cause of recollection). [[१२]]
मूलम्
१८. स्मृतिर्नाम पूर्वानुभवजन्यसंस्कारमात्रजन्यं ज्ञानम् । (तत्र चोद्बुद्धसंस्कारो हेतुः ।) संस्कारोद्बोधश्च “सदृशादृष्टचिन्ताद्याः स्मृतिबीजस्य बोधकाः” इत्युक्तप्रकारेण क्वचित्सदृशदर्शनाद्भवति, क्वचिददृष्टात्, क्वचिच्चिन्तया । आदिशब्देन साहचर्यस्यापि ग्रहणात्तेनापि च (तेनापि) भवति ।
वासुदेवः
वासुदेवः
स्मृतेर् इति । सदृशादृष्ट-चिन्ताद्यैः संस्कारानुग्रहे ततः संस्कारोद्बोधे या परिणमति मतिः सा स्मृतिः। सा च स्व-कारण-भूत-प्रमिति-भ्रान्ति-संशयानुरोधेन स्वयम् अपि तादृग्-रूपा सती त्रि-प्रकारेति सर्वार्थ-सिद्धाव् उक्तम्। केचित् तु सर्वा ऽपि स्मृतिर् अयथार्थैवार्थ-शून्यत्वात्। न हि पाकरक्ते घटे श्यामता-मतिर् यथार्था। तद्वन् निवृत्त-पूर्वावस्थे वस्तुनि तत्ताम् उल्लिखन्ती स्मृतिर् अयथार्थैवेत्य् आहुः। तन् न। स्मर्तव्यस्यापि विषयस्य स्व-काले विद्यमानत्वात्। न हि स्मृतिर् निवृत्ताम् अपि पूर्वावस्थां वर्तमानत्वेनोल्लिखति। तथा चेद् इदम् इत्य् एवोल्लिखेत्। अपि तु निवृत्तत्वेनैव। अन्यथा तत्तोल्लेखाभाव-प्रसङ्गात्। पाकरक्ते तु श्यामता-प्रत्ययो निवृत्तम् अपि श्यामत्वं वर्तमानत्वेनोल्लिखतीति विषमो दृष्टान्तः। एवम् एवातीतानागतानुमानागम-योगि-प्रत्यक्षेषु नष्ट-विषयत्वे ऽपि याथार्थ्यं द्रष्टव्यम्। नन्व् एवम् स्मृतेर् यथार्थत्वे ऽपि प्रमाणत्वं कुतः। कणादेन तेष्व् अपरिगणनाद् इति चेद् अत्र सर्वार्थ-सिद्धिकाराः “न ह्य् अक्षपादः कणादः कपिल इत्यादयः प्रामाणिकत्वेन परिग्राह्याः। युक्ति-युक्तं तु गृह्णीमः। न पुनस् तद्-वाक्य-गौरवाद्” इति। तथा च तैर् अनुक्तम् अपि युक्ति-युक्तं चेद् ग्राह्यम् एव। तैर् उक्तम् अपि युक्ति-विरुद्धं चेत् त्याज्यम् एव। दृश्यते च स्मृतेः प्रमाणत्वेन परिगणनम् -
स्मृतिः प्रत्यक्षम् ऐतिह्यम् अनुमानं चतुष्टयम्।
इत्यादौ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
१९. सादृश्यजा यथा –
देव-दत्त–यज्ञ-दत्तयोः स-दृशयोर् देव-दत्त-दर्शनेन यज्ञ-दत्त–स्मृतिः।
द्वितीया +++(अदृष्टजा)+++ यथा – यादृच्छिकी कालान्तरानुभूत–श्रीरङ्गादि–दिव्य-देश-स्मृतिः।
तृतीया +++(चिन्ताजा)+++ यथा –
चिन्त्य-माने सति श्री-वेङ्कटेशस्य कमनीय-दिव्य-मङ्गल-विग्रह-स्मृतिः ।
चतुर्थी तु सहचरितयोर् देव-दत्त–यज्ञ-दत्तयोर् मध्ये
अन्यतर-दर्शनेन तद्-अन्यतर-स्मृतिः ।
शिवप्रसादः (हिं)
जैसे— देवदत्त एवं यज्ञदत्त सदृश हैं, उनमें से देवदत्त
1
२१
को देखकर उसके सदृश आकार वाले यज्ञदत्त की स्मृति हो जाती है। यह सादृश्य- जन्य स्मृति का उदाहरण है । दूसरे देश एवं दूसरे काल में अनुभव किये गये श्रीरङ्गम् आदि दिव्य देशों की अचानक स्मृति ( अदृष्ट ) वशात् द्वितीय प्रकार की स्मृति का उदाहरण है । चिन्तन करते-करते श्रीवेङ्कटेश भगवान् के मनोज्ञ दिव्य मङ्गलमय विग्रह की स्मृति का होना तीसरे प्रकार की स्मृति का उदाहरण है । एक साथ रहने वाले यज्ञदत्त एवं देवदत्त में से किसी एक को देखते ही दूसरे की स्मृति का हो जाना चौथे प्रकार की स्मृति का उदाहरण है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- What is caused by similarity is thus : If Devadatta and Yajñadatta resemble each other, the sight of Devadatta kindles the recollection of Yajña- datta. The second: like the spontaneous remembrance of a prior experience, such as the sacred place of Sri- rangam etc.41 The third: like the recollection of the lovely, divine, and auspicious figure of Sri Venkatesa while (consciously) thinking. The fourth is thus: between Devadatta and Yajñadatta who are seen in association, the sight of one kindles the recollection of the other.
मूलम्
१९. सादृश्यजा यथा – देवदत्तयज्ञदत्तयोः सदृशयोर्देवदत्तदर्शनेन यज्ञदत्तस्मृतिः । द्वितीया यथा – यादृच्छिकी (यादृच्छिक) कालान्तरानुभूतश्रीरङ्गादिदिव्यदेशस्मृतिः (कालान्तरदेशान्तरानुभूत..) । तृतीया यथा – चिन्त्य-माने सति श्रीवेङ्कटेशस्य कमनीयदिव्यमङ्गलविग्रहस्मृतिः । चतुर्थी तु, सहचरितयोर्देवदत्तयज्ञदत्तयोर्मध्ये अन्यतरदर्शनेन तदन्यतरस्मृतिः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२०. संयक् पूर्वम् अनुभूतस्य सर्वस्य स्मृति-विषयत्व-नियमः ।
क्वचित् काल-दैर्घ्यात् व्याध्य्-आदिना वा
संस्कार-प्रमोषात् स्मृत्य्-अभावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अच्छी तरह से अनुभव किये गये सभी विषयों का स्मरण होता है । कहीं-कहीं पर बहुत समय बीत जाने अथवा व्याधि आदि के कारण संस्कार का प्रमोष हो जाने से भी पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण नहीं होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- The principle is that whatever is well experienced before, becomes the object of recollection. The absence of recollection is caused either by long duration of time (after experience) or by disease etc. which obscure the reminiscent impressions.
मूलम्
२०, संयक् पूर्वमनुभूतस्य (सम्यगनुभूतस्य) सर्वस्य स्मृतिविषयत्वनियमः । क्वचित्कालदैर्घ्यात् व्याध्यादिना वा संस्कारप्रमोषात् (संस्कारस्य प्रमोषात्) स्मृत्यभावः ।
[[१३]]
प्रत्यभिज्ञादीनां प्रत्यक्षेऽन्तर्भावप्रकारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
२१. यथा स्मृतेः प्रत्यक्षे ऽन्तर्भावस्
तथा “सोऽयं देव-दत्त” इति प्रत्यभिज्ञायाम् [[या??]] अपि प्रत्यक्षे ऽन्तर्भावः ।
अस्मन्-मते अभावस्य भावान्तर-रूपत्वात्
तज्-ज्ञानस्यापि प्रत्यक्षान्तर्-भावः ।
भूतले घटात्यन्ताभावो भूतलम् एव ।
घट-प्राग्-अभावो नाम मृद् एव ।+++(5)+++
घट-ध्वंसश् च कपालम् एव ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘यथास्मृते’**रिति । स्मृतिप्रामाण्यस्य तन्मूलप्रत्यक्षरूपपूर्वानुभवप्रामाण्याधीनत्वात्स्मृतिप्रमाणस्य मूलभूते प्रत्यक्ष एवान्तर्भाव इत्यर्थः । प्रत्यभिज्ञासंस्कारसहकृतेन्द्रियसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं, तच्च प्रत्यक्षेऽन्तर्भूतम् । अभावग्राहिकाऽनुपलब्धिप्रमाणान्तरमिति भाट्टादीनां मन निरस्यन्नाह ‘अस्मन्मत’ इति । घटवत्तयाऽगृह्यमाणस्वरूपतो गृह्यमाणभूतलमेव घटाभावव्यवहारहेतुस्तत्र । अग्रहश्च ज्ञानस्यावस्थाविशेषः । मृदेव मृत्पिण्डावस्थैव । कपालमेव - कपालावस्थैव । भेदो घटपटयोस्तत्तत्सस्थानलक्षण एव । एवमभावस्य भावान्तरत्वात् प्रत्यक्षेणैव तद्ग्रहः सम्भवतीति नाभावग्राहकं प्रमाणान्तरं कल्पनीयमित्याशयः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - जिस तरह स्मृति का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है, इसी तरह ‘यह वही देवदत्त है’ इस प्रकार से होने वाली प्रत्यभिज्ञा का भी प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । हमारे मत में अभाव भी भावान्तर रूप है, अतएव अभाव- ज्ञान का भी प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । पृथ्वी पर घट का अत्यन्ताभाव पृथ्वी है । घट का प्रागभाव मृत्तिका ही है । घट का ध्वंस कपाल है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र०—उपर्युक्त अनुच्छेद में प्रत्यभिज्ञा आदि का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव बत- लाया जा चुका है कि स्मृति का प्रामाण्य है । उसको एक स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना जा सकता । स्मृति का प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव होता है । स्मृति के समान प्रत्यभिज्ञा का भी अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में हो जाता है । प्रत्यभिज्ञा संस्कार तथा सन्निकर्ष उभयजन्य होते हैं । ‘सोऽयं देवदत्तः’ यह वही देवदत्त है, यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञा है। इस ज्ञान में दो प्रकार के ज्ञान का संयोग है । ‘सः देवदत्तः’ यह ज्ञान संस्कारजन्य ज्ञान है तथा ‘अयं देवदत्तः’ इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य है । इस तरह अतीत देशकाल में दृष्ट वस्तु को वर्तमान देशकाल में देखकर जहाँ पर उसे पहचाना जाता है, उस ज्ञान को
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प्रत्यभिज्ञा कहते हैं । बौद्ध दार्शनिक प्रत्यभिज्ञा की प्रामाणिकता नहीं स्वीकारते, किन्तु विशिष्टाद्वैत दर्शन में उसकी प्रामाणिकता स्वीकार की जाती है। चूँकि यह ज्ञान पूर्वानुभवजन्य संस्कार तथा वर्तमानकालिकसाक्षात्कारिप्रमा रूप होता है, अत एव इसका भी अपने मूलभूत प्रत्यक्षप्रमाण में ही अन्तर्भाव हो जाता है । अभाव के विषय में भी दार्शनिकों का मतभेद है । वैशेषिक विद्वान् अभाव को उसके आश्रय का विशेषण रूप मानकर उसका ग्राहक प्रत्यक्षप्रमाण को मानते हैं । अद्वैती विद्वान् अभाव का ग्राहक अनुपलब्धि प्रमाण को मानते हैं । विशिष्टाद्वैती अभाव को भावान्तर रूप मानते हैं । उनका कहना है कि अभाव चार प्रकार का होता है- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव तथा अत्यन्ताभाव । घट का प्रागभाव मृत्पिण्ड -स्वरूप है, घट का प्रध्वंसाभाव कपाल-स्वरूप होता है । पट में घट का अन्योन्याभाव घट-स्वरूप है तथा पृथिवी पर घट का अत्यन्ताभाव पृथिवी स्वरूप है । इनका साक्षात्कार भावान्तर रूप से होने के कारण अभाव का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । ऊह तर्कापरपर्याय रूप है । उसमें भी ऊहित वस्तु का साक्षात्कार किये जाने के कारण उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Just as recollection is included in pratyaksa, recognition (pratyabhijñā) also in the form of ’this is that Devadatta’ is included in perception. 42 In our system, since non-existence is nothing but another form of existence, 43 the knowledge of non-existence is also included in pratyakṣa. (For instance), on this floor, the absolute non-existence of the jar is the floor itself. The antecedent non-existence of the jar is clay itself. The destruction of the jar means potsherds.
मूलम्
२१. यथा स्मृतेः प्रत्यक्षेऽन्तर्भावस्तथा (अन्तर्भावः, एवं) “सोऽयं देवदत्त” इति प्रत्यभिज्ञायाम् [[प्रत्यभिज्ञाया??]] अपि प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः । अस्मन्मते अभावस्य भावान्तररूपत्वात् तज्ज्ञानस्यापि प्रत्यक्षान्तर्भावः (प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः) । भूतले घटात्यन्ताभावो भूतलमेव । घटप्रागभावो नाम मृदेव । घटध्वंसश्च कपालमेव ।
वासुदेवः
अथानुपलब्धि-प्रमाणस्य प्रत्यक्षे ऽन्तर्भावम् आह - “अस्मन्-मत” इति। अन्तर्भाव इति। तथा च प्रयोगः - “अभाव-ज्ञानम् इन्द्रिय-जन्यम् इन्द्रियान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वाद् घटादि-ज्ञानवद्” इति। ननु गजाभाववति क्वचित् प्रदेशे विद्यमानम् अपि गजाभावं कारणाभावाद् अननुभूयान्यत्र गतश् चैत्रो मैत्रेण ‘तस्मिन् प्रदेशे गजो दृष्टः किम्’ इति पृष्टः संस् तत्-प्रदेशे गजाभावं निश्चिनोतीति तद्-अर्थम् अनुपलब्धि-प्रमाणम् अङ्गिकार्यम् एव। न ह्य् अत्र प्रत्यक्षं क्रमते। तत्-प्रदेशस्य इदानीम् इन्द्रियासंनिकर्षाद् इति चेत् सत्यम्। तत्-प्रदेशे गजाभावः स्मर्तव्यस्य स्मरणाभावाद् अनुमीयते। तथा च प्रयोगः - “विप्रतिपन्नः प्रदेशो गजवतया मया ऽननुभूतः स्मर्तव्यत्वे सति तद्वत्तयेदानीम् अस्मर्यमाणत्वाद्” इति। तथा च स्मरणाभावाद् अनुभवाभावः। अनुभवाभावाच् च विषयाभाव इति तत्-सिद्ध्यर्थं न प्रमाणान्तरापेक्षेति भावः। एतयोर् अपीति।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२२. “प्रायः पुरुषेण अनेन भवितव्यम्” इत्य् एतद् ऊहः ।
“पुरः किं-सञ्ज्ञकोऽयं वृक्ष” इति अनध्यवसायो ज्ञानम् संशय उक्तः ।
एतयोर् अपि प्रत्यक्षे ऽन्तर्भावः ।
पुण्य-पुरुष-निष्ठा प्रतिभा ऽपि प्रत्यक्षेऽन्तर्गता ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘एतयो’**रिति ।
ऊहानध्यवसाययोर् इन्द्रिय-संनिकृष्टार्थ-विषययोः प्रत्यक्षे ऽन्तर्भाव इत्यर्थः ।
प्रतिभा प्रकृष्टादृष्ट-जन्य-मानस-प्रत्यक्षात्मिकेति बोध्यम् ॥
शिवप्रसादः (हिं)
प्रायः इसे पुरुष होना चाहिए, इस प्रकार के ज्ञान को ऊह कहते हैं । इस सामने वाले वृक्ष का क्या नाम है ? इस प्रकार के अनिश्चयात्मक ज्ञान को संशय कहते हैं । इन दोनों का भी प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । पुण्यवान् पुरुष में होने वाली प्रतिभा का भी प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव होता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
संशय के अन्तर्गत इन्द्रियसन्निकृष्ट वस्तु के स्वरूप का निर्णय किसी कारणवश नहीं हो पाता । वह कारण अन्धकार, अथवा देश एवं काल की विप्रकृष्टता आदि कुछ भी हो सकता है । जैसे अन्धकारस्थ वस्तु को देखकर यह संशय होता है कि यह क्या कोई आदमी है या खम्भा है ? इत्यादि । इस संशय का भी प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव होता है । प्रतिभा किसी पुण्यात्मा के भीतर पायी जाती है । यह बुद्धि की तीव्रता रूप होती है अथवा मानसप्रत्यक्ष रूप होती है । विचारकों ने नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि को प्रतिभा कहा है । यह चूंकि मानसप्रत्यक्षात्मिका होती है, अतएव उसका भी प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Conjecture (ūha) is such as this : ‘Indeed this must be a person’. It has been said that doubt is the non-determinative cognition of the form, ‘What is this tree in front of me?". These (conjecture and doubt) are also included in pratyakṣa. Special mental powers (pratibha) of holy personages are also included in pratyaksa.
मूलम्
२२. प्रायः पुरुषेण अनेन भवितव्यम् इत्येतदूहः । पुरः किं-सञ्ज्ञकोऽयं वृक्ष इति अनध्यवसायो ज्ञानं संशय उक्तः । एतयोरपि प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः । पुण्यपुरुषनिष्ठा प्रतिभापि प्रत्यक्षेऽन्तर्गता ।
वासुदेवः
ननु संशयस्यायथार्थ-ज्ञानत्वेन कणादेन प्रतिपादनात् कथं प्रामाण्यम् इति चेन् न। “स्थाणुर् वा पुरुषो वे"त्यत्र पुरोवर्ति-वस्तु-ज्ञानं स्थाणुत्व-पुरुषत्व-विषयकं ज्ञानं चैकम् एवेति वक्तुं न शक्यते। पुरोवर्ति-वस्तुनः स्थाणुत्व-विशिष्टतया भाने पुरुषत्व-विशिष्टतया भानासंभवात्। एवं पुरुषत्व-विशिष्टतया भाने स्थाणुत्वावशिष्टतया भानासंभवात्। तथा च तत्र ज्ञान-द्वयम् अवश्यं वाच्यम्। तत्र चोर्ध्व-द्रव्य-मानम् अनुभवः। स्थाणु-पुरुष-मानं तु स्मरणम्। तत्रापि पूर्वम् अनुभवः। तेन कोटि-द्वय-स्मृति-हेतु-संस्कारोद्बोधे पश्चात् कोटि-द्वय-स्मरणं जायते। यथार्थत्वं तु द्वयोर् अप्य् अनयोर् निर्विवादम् एव। ऊह-विषये ऽप्य् एवम् एव बोध्यम्। प्रतिभा ऽपीति।
यथार्थख्यातेः समर्थनम्
विश्वास-टिप्पनी
यथार्थख्यातिर् इह वर्णिता
आधुनिकभूतशास्त्रज्ञैर् नाङ्गीकारार्हा - रूपान्तरेण त्व् अस्तु।
विस्तारो ऽत्र ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२३. सर्वम् विज्ञानं यथार्थम् इति
वेदान्त-विदाम् मतम् इत्य् उक्तत्वात्,
भ्रमादि-प्रत्यक्ष-ज्ञानं यथार्थम् एव …
अण्णङ्गराचार्यः
**‘यथार्थ’**मित्यादि श्रीभाष्ये ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - वेदज्ञों का सिद्धान्त है कि सभी ज्ञान सत्य होते हैं । इस सूक्ति के अनुसार भ्रमादि का प्रत्यक्ष ज्ञान यथार्थ ही है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Since it has been said that according to the knowers of Vedanta all knowledge is of the real, the perceptual knowledge in the form of error etc. is of the real. 44
मूलम्
२३. सर्वं विज्ञानं यथार्थमिति वेदान्तविदाम् (यथार्थं सर्वविज्ञानमिति वेदविदां मतम्) मतमित्युक्तत्वात्, भ्रमादिप्रत्यक्ष-ज्ञानं यथार्थमेव ।
वासुदेवः
भूत-भावि-वस्तु-साक्षात्कार-रूपाया अप्य् अस्या यथार्थत्वम् एव। वस्तु-साक्षात्कारस्य वस्तु-सदृश-वस्तु-साक्षात्कार-रूपत्वात्। स्व-सदृशे वस्तुनि स्वस्यांशतो विद्यमानत्वात्। तद् आह - “सर्वं विज्ञानम्” इति।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२४. … अख्यात्य्–आत्म-ख्यात्य्–अनिर्वचनीयता-ख्यात्य्—
अन्यथा-ख्यात्य्–अ-सत्-ख्याति-वादिनो निरस्य
सत्-ख्याति-पक्ष-स्वीकारात् ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘सत्ख्याती’**ति ।
श्रीभाष्ये भ्रान्तिस्थले सत्ख्यातिः समर्थिता
ख्यात्य्-अन्तर-वादिनो निरस्य ।
अख्यातिर् गुरुमते ।
“इदम्” इति “रजतम्” इति च ज्ञानद्वयम् ।
दोषाज् ज्ञान-तद्-विषययोर् भेदाग्रहाद्
“इदं रजतम्” इति व्यवहारस् ततो भवतीति गुरुमतम् ।
योगाचार-मत आत्म-ख्यातिः,
चिन्-मात्रात्मैव वासनातो नानार्थाकारेण भासत इति ।
मायिनां मते ऽनिर्वचनीय-ख्यातिः,
इदम् अवच्छिन्ने चैतन्ये ऽज्ञानात्,
तत्-कालोत्पन्नं सद्-असद्भ्याम् अनिर्वचनीयं रजतादि
गृह्यत इति ।
अन्यथा-ख्यातिस् तार्किकाणाम् ।
सादृश्याद् उपनीतस्यान्य-धर्मस्य
पुरोवर्तिनि भानं दोषाद् इति ।
एतन्मते त्व्
एकं ज्ञानं तद्-अभाववति तत्-प्रकारकं मन्यते ।
असत्-ख्यातिर् माध्यमिकानाम्, सवृत्याऽसद् एव सर्वं सद् भासत इति ।
एतेषां वादानां निरासो
न्याय-परिशुद्ध्य्-आदौ विस्तरतो ऽनुसन्धेयः ।
एतावद् अत्र ब्रूमः -
ज्ञातृ-ज्ञेय-ज्ञानानां भेदस्याहम् इदं जानामीत्य् अबाधित-प्रतीति-सिद्धतया सत्यत्वाद्
आत्मख्यात्य्-असत्ख्याति-वादयोर् नावकाशः,
अनिर्वचनीयस्य
निर्वचनीयत्वेन भानम् अन्तरा व्यवहारस्यायोगाद्
अन्यथा-ख्यातेर् अवर्जनीयत्वाद्,
अनिर्वचनीयस्योत्पत्तेर् अयोगाच् चानिर्वचनीय-ख्यातेरप्य् अनिर्वचनीयता ।
अन्यथाख्यातिपक्षे स्वारस्यम् ।
अख्यातिपक्षे तु लाघवम् ।
अतोऽख्याति-सहिता सत्-ख्यातिर् उप-गता भ्रान्ति-स्थले सिद्धान्तिभिरिति ।
शिवप्रसादः (हिं)
क्योंकि अख्याति, आत्मख्याति, अनिर्वचनीयख्याति, अन्यथाख्याति तथा असत्ख्याति वादियों का खण्डन करके हम सत्ख्याति पक्ष को स्वीकार करते हैं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
मा० प्र०—’ धातूनामनेके अर्थाः’ इस सूक्ति के अनुसार धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं । किन्तु ख्याति शब्द भ्रमज्ञान का वाचक है, यह सभी दार्शनिक मानते हैं । अन्धेरे में रस्सी को देखकर इसे सर्प समझ लेना भ्रम है । एक वस्तु को दूसरी वस्तु समझ लेना भ्रम है । इस भ्रमज्ञान की व्यवस्था करने के लिए तत्-तत् वादियों ने अपने-अपने वाद को तत् तत् नाम से अभिहित किये। जैसे – अख्याति, आत्मख्याति आदि । इन सभी ख्यातियों का संग्रह करते हुए कहा है-
‘आत्मख्यातिर् असत्-ख्यातिर्
अख्यातिः सत्ख्यातिर् अन्यथा ।
तथानिर्वचनख्यातिर्
इत्येतत् ख्यातिपञ्चकम् ॥’
अर्थात् प्रख्यात पाँच ख्यातियाँ हैं— आत्मख्याति, असत्ख्याति, अख्याति, अन्यथाख्याति तथा अनिर्वचनीयख्याति । विशिष्टाद्वैती विद्वान् इन पाँचों ख्यातियों का खण्डन करके यथार्थख्याति को स्वीकारते हैं ।
प्रकृत में यथार्थस्याति के समर्थन तथा ख्यात्यन्तर का निरास करने के पूर्व ख्याति - पञ्चक का स्वरूप संक्षेपतः स्पष्ट करना आवश्यक है-
(१) आत्मख्याति - सौत्रान्तिक तथा वैभाषिक बौद्ध आत्मख्याति स्वीकार करते हैं ।
उनका कहना है कि जिस तरह इन्द्रियार्थसन्निकर्ष के बिना ही
बुद्धि का प्रत्यक्ष होता है,
उसी प्रकार बुद्धि रूप रजत का भी
इन्द्रियार्थसन्निकर्ष के बिना ही साक्षात्कार होता है ।
संस्कार के सामर्थ्य के कारण
विज्ञान ही रजत रूप होकर
नेत्र-सम्मुख रजत रूप से गृहीत होता है ।
[[२६]]
अत एव ‘यह रजत नहीं है’
इस बाधक ज्ञान के उत्पन्न होने पर
उसके सामने होने मात्र का निषेध होता है,
रजत का नहीं ।
धर्मी तथा धर्म दोनों के निषेध की कल्पना करने की अपेक्षा
उसके पुरोवर्तित्व रूप धर्म का ही निषेध मानने में लाघव है ।
विज्ञानवादी बौद्ध
विज्ञान को ही आत्मा मानते हैं,
अतएव इनके द्वारा चर्चित ख्याति को
आत्मख्याति कहते हैं ।
विज्ञानात्मा ही रजताकार होता है
और उसका पुरोवर्तित्व ही भ्रम है ।
( २ ) असत्ख्याति - सर्वशून्यवादी माध्यमिक बौद्ध
असत्ख्यातिवाद को स्वीकार करते हैं ।
उनके अनुसार विज्ञान असत् का ही प्रकाशक है,
अतएव विज्ञान का असत्-पक्षपातित्व नियम बनता है ।
सभी सत्ख्यातिवादी
प्रकाशमानता मात्र को ही वस्तुसत्ता स्वीकारते हैं ।
ऐसी स्थिति में जब सभी भासमान हैं
तो सभी की सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी।
इस दोष से बचने के लिए
असत्ख्याति से भिन्न कोई भी मार्ग नहीं है,
यह माध्यमिक बौद्धों का कहना है ।
( ३ ) अख्याति - प्रभाकर गुरु के मत से
भ्रमज्ञान के लिए अख्याति पद का प्रयोग किया जाता है।
उनका कहना है कि जब हम शुक्ति को देखकर
‘इदं रजतम्’ प्रयोग करते हैं
तो इस ज्ञान में दो ज्ञान होते हैं -
एक ‘इदम्’ तथा दूसरा ‘रजतम्’ ।
इनमें पहला ज्ञान प्रत्यक्ष है
और दूसरा स्मरण ।
इन दोनों ज्ञानों
तथा इन दोनों ज्ञानों के विषयों का
ठीक-ठीक विवेकख्याति न हो सकने के कारण
भ्रमत्व का व्यवहार
और प्रवृत्ति आदि होते हैं ।
अख्याति ( विवेक का ज्ञान न होना ) ही भ्रम का कारण है,
संसर्ग नहीं ।
यदि संसर्ग को भ्रम का हेतु मान लिया जाय
तो कौन-सा विज्ञान ठीक है
और कौन-सा ठीक नहीं है,
इसका कोई भी निश्चय नहीं हो पायेगा ।
( ४ ) अन्यथाख्याति - वैशेषिक तथा नैयायिक भ्रमस्थल में
अन्यथाख्याति स्वीकार करते हैं ।
उनका कहना है कि सीपी को सीपी न समझकर
उसे चांदी ही समझ लेना अन्यथाख्याति है ।
चांदी किसी दूसरे स्थान पर रहती है ।
तदात्म्य सम्बन्ध से जब ज्ञान लक्षण की प्रत्यासत्ति होती है,
तब सीपी में अलौकिक चाक्षुष्-प्रत्यक्ष से
चांदी की प्रतीति होती है ।
यही अन्यथा-ख्याति का स्वरूप है ।
(५) अनिर्वचनीयख्याति - अद्वैती विद्वान् भ्रमस्थल में
अनिर्वचनीयख्याति स्वीकार करते हैं ।
उनका कहना है कि शुक्ति में प्रतीयमान रजत
न तो सत् है और न तो असत् ।
क्योंकि यदि वह सत् होता
तो उसका बाध नहीं होता,
किञ्च यदि वह रजत असत् होता
तो उसकी प्रतीति उसी तरह नहीं होती,
जैसे शशक-शृङ्ग की प्रतीति नहीं होती है ।
इस तरह
वह भ्रमस्थल में प्रतीयमान रजत
सत् एवं असत् - इन दोनों शब्दों से अनिर्वचनीय है ।
वह अनिर्वचनीय रजत ही शुक्तिकावच्छिन्न चैतन्य में
विवर्तित होता है ।
विशिष्टाद्वैत दर्शन में इन पाँचों में से
कोई भी ख्याति नहीं स्वीकार करके
यथार्थख्याति स्वीकार की गयी है ।
उसका स्वरूप निम्न प्रकार का है ।
[[२७]]
(६) यथार्थख्याति - भ्रमज्ञान के विषय की सत्यता का स्वीकार ही
यथार्थ - ख्याति कहलाता है ।
विशिष्टाद्वैत दर्शन पूर्णरूप से वैदिक दर्शन है ।
इस दर्शन के अनुयायी अपनी सारी मान्यताओं का आधार
वैदिक वाक्यों को मानते हैं ।
छान्दोग्योपनिषद् की आत्मविद्या प्रकरण में
त्रिवृत्करण प्रक्रिया की चर्चा आयी है ।
‘तेषां त्रिवृतं त्रिवृतं करणानि ।’
इस तरह सृष्ट्युन्मुख परमात्मा
सृष्टि के प्रारम्भ में पृथिवी, जल एवं तेज की सृष्टि करके
उनके त्रिवृत्करण का सत्य संकल्प करता है ।
परमात्मा के इस त्रिवृत्करण का सत्य संकल्प ही
पञ्चीकरण प्रक्रिया का मूल है ।
पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार
सभी द्रव्यों में सभी द्रव्य मिले हैं ।
फिर भी स्वांशभूयस्त्व के कारण
तत् तत् द्रव्यों का तत् तत् नामों से व्यपदेश होता है ।
तत्-तत् नाम्ना व्यपदेश में भूयस्त्व न्याय का महत्त्व
महर्षि बादरायण भी ब्रह्मसूत्रों में देते हैं ।
इस पञ्चीकरण-प्रक्रिया के अनुसार
शुक्ति में विद्यमान रजत ही प्रतीत होता है ।
इसलिए शुक्ति में रजत की प्रतीति यथार्थ ही है ।
इसको भ्रम इसलिए कहते हैं कि
शुक्ति में विद्यमान रजत के व्यवहार का बाध होता है ।
उस रजत के द्वारा आभूषणादि नहीं बनाए जातें हैं ।
इसलिए जब शुक्ति के भूयस्त्व का ज्ञान हो जाता है
तो उस भ्रम का बाध हो जाता है ।
अतएव भ्रमस्थल में यथार्थख्याति ही होती है ।
यथार्थ-यथार्थख्याति के आलोक में
उपर्युक्त पञ्चख्यातियों का खण्डन —
यथार्थ-ख्यातिवादी उपर्युक्त पांचों ख्यातियों का खण्डन करके
यथार्थख्याति का समर्थन करते हैं ।
श्रीभाष्यकार ने ख्यातियों के खण्डन का दिङ्-निर्देश करते हुए कहा कि
ख्यात्यन्तर को स्वीकार करने वाले
अन्यथाख्याति के चपेट में आ ही जाते हैं ।
असत्-ख्यातिवादी माध्यमिक को भी
सारी प्रतीतियाँ सत् रूप से ही होती है,
न कि असत् रूप से ।
असत् रूप से प्रतीतियों को मानने पर
भ्रम तथा उसके बाध का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है ।
विज्ञानात्मवादी योगाचारों को तो विज्ञानात्मा की ही विज्ञानत्व रूप से प्रतीति न होकर
वही प्रपञ्च रूप से प्रतीत होता है ।
अतएव वे भी अन्यथाप्रतीति की चपेट में आ ही गये ।
अख्याति का अर्थ है ख्याति का अभावाविवेक गुण होना ।
अर्थात् विशिष्ट ज्ञान का अभाव ।
अन्यथाख्यातिवादियों के ही मत में
सर्वप्रथम ‘इदं रजतम्’ इस भ्रमस्थल में
‘इदम् ’ रूप से शुक्ति का ज्ञान होता है,
इसके बाद वहाँ रजत का स्मरण होता है ।
‘इदं रजतम्’ यह विशिष्ट ज्ञान
प्रत्यक्ष एवं स्मरण ज्ञान - उभय-ज्ञान-मूलक है।
अख्यातिवादी प्राभाकर मीमांसकों के मत में तो
दूसरे का विशेषण दूसरे के विशेषण रूप से प्रतीत होता है
तथा दो ज्ञान एक ज्ञान के रूप में प्रतीत होता है ।
असत्ख्यातिवादियों के मत में सभी ज्ञान भ्रमात्मक हैं।
क्योंकि असत् वस्तुएँ सत् रूप से प्रतीत होती हैं ।
अनिर्वचनीयख्यातिवादी शुक्ति-रजतस्थल में
अनिर्वचनीय रजत की उत्पत्ति स्वीकार कर लेते हैं ।
किन्तु वे यह नहीं बतलाते हैं
कि उस अनिर्वचनीय रजत का कारण क्या है ?
[[२८]]
आदिदेवानन्दः (En)
- Rejecting the theories of akhyāti (non-appre- hension), ātmakhyāti (self-apprehension), anirvacanīya- khyāti (indefinable apprehension), anyathākhyāti (mis- apprehension) and asatkhyāti (non-being’s apprehen- sion), the theory of satkhyāti ( reality-apprehension) is accepted.45
मूलम्
२४. अख्यात्यात्मख्यात्यनिर्वचनीयताख्यात्यन्यथाख्यात्यसत्ख्यातिवादिनो निरस्य सत्ख्यातिपक्षस्वीकारात् ।
वासुदेवः
अख्यातीति।
आत्म-ख्यातिर् असत्-ख्यातिः अख्यातिः ख्यातिर् अन्यथा। तथा ऽनिर्वचन-ख्यातिर् इत्य् एतत् ख्याति-पञ्चकम्॥ १ ॥
योगाचारा माध्यमिकास् तथा मीमांसका अपि। नैयायिका मायिनश् च प्रायः ख्यातीः क्रमाज् जगुः॥ २ ॥
तत्रा ऽऽत्मख्यातिर्नामा ऽऽत्मनो बुद्धेः ख्यातिर् विषयरूपेण प्रतिभासः। इदं रजतम् इति बुद्धिर् एव रजत-रुपेणावभासते। न तत्र विषयान्तरापेक्षा। अयं घट इत्यादिषु सर्वत्र बुद्धिरेव विषयाकारोल्लेख-संभवेनात्रापि तथैवौचित्यात्। प्रयोगश् च - विमतं रजतं बुद्धि-रूपं चक्षुरादि-प्रयोग-मन्तरेणो-परोक्षत्वात् संमत-बुद्धिवदिति विज्ञान-वादिनो बौद्धाः। तच् चिन्त्यम्। चतुर्विधान् हेतून् प्रतीत्य चित्तचैत्ता उत्पद्यन्त इति हि तेषां मतम्। तत्र न तावत् सहकारि-प्रत्ययाख्याद् आलोकादे रजताकारोदयः संभवति। तस्य स्पष्टता-मात्र-हेतुत्वात्। नाप्यधिपति-प्रत्ययाख्याच् चक्षुरादेः। तस्य विषय-नियम-मात्र-हेतुत्वात्। नापि समनन्तर-प्रत्ययाख्यात् पूर्वज्ञानात्। विजातीय-घट-ज्ञानान्तरं विजातीय-रजत-भ्रमोदया-दर्शनात्। नाप्यालम्बन-प्रत्ययाख्याद् बाह्यात्। विज्ञान-वादिना तद् अनङ्गीकारात्। ततः कथं रजत-द्यसत्त्वे विज्ञानस्य रजताकार-समर्पणम्। न च संस्कार-सामर्थ्येन तत् कल्पनम् इति वाच्यम्। विकल्पासहत्वात्। तथा हि – स संस्कारः किं स्थायी क्षणिको वा। आद्ये क्षणिकं सर्वमिति त्वदीय-सिद्धान्त-हानिः। अन्त्ये तस्य द्वितीय-क्षणावृत्तित्वेन रजताकार-कल्पना-हेतुत्वायोगात्। पक्ष-द्वये ऽपि तस्य संस्कारस्य ज्ञेयत्वेन विज्ञान-मात्र-वाद-हानिश् च। किं च स रजताकारः कथम् उत्पद्यते। बाह्यार्थाज् जायत इति तु वक्तुम्-अशक्यम्। त्क्या बाह्यार्थस्यानङ्गीकारात्। ज्ञानमपि विशुद्धं तावन्न तज्जनकम्। तस्य मोक्ष-रुपत्वात्। दुष्ट-कारण-जन्य-ज्ञानं तज् जनकमिति चेत् तत्रापि जनकी-भूत-ज्ञानमेव रजत-ग्राहकमन्यद् वा। ना ऽऽद्यः। क्षणिक-योर्जन्य-जनकयोर् भिन्न-कालीनत्वेनापरोक्ष-रजत-प्रतीत्यभाव-प्रसङ्गात्। नान्त्यः। अन्यस्य ज्ञानस्य रजत-जन्यत्वे रजतादिर् बाह्यो ऽर्थो ऽङ्गी-कार्यः स्यात्। रजताजन्यत्वे तु रजतं न तद् विषयः स्यात्। ज्ञानाकारार्पको हेतुर् विषय इत्य् अङ्गीकारात्। तस्माद् आत्मख्याति-पक्षे रजतमेव न प्रतीयेत। किं च बुद्धि-बोध्ययोर् अभेदं ब्रुवता विरुद्ध-धर्माध्यासेन भेदः कश्चिद् अङ्गीकृतो न वा। न चेत् क्षण-भेदाद्यसिद्धि-प्रसङ्गः। अङ्गीकृतश् चेच् छ्वेतपीताद्यनेकाकार-ग्राहिण्येकत्र ज्ञाने कथं मियोविरुद्ध श्वेत-पीतादितादात्म्य-संभव इति बोध्यम्।
असत् ख्यातिर् नामासतो रजतादेः ख्यातिः प्रतीतिर् इति शून्यवादिनो बौद्धाः । वाचस्पति-मिश्रा अपि शुक्ताविदं रजतस् इति ज्ञाने प्रसिद्धयोः शुक्ति-रजतत्वयोर् अलीक एव समवायो भासत इत्य् असत् ख्यातिमङ्गी चक्रुः । तच् चिन्त्यम् । असतो भानासंभवात् । अन्यथा शश-शृङ्गादेर् अपि भानं स्यात् । ननु पदार्थस्य सत्वं न सिध्यतीत्य् असत् ख्यातिर् अवश्यमेष्टव्या । पदार्थश् च प्रमाण-प्रमेय-भेदेन द्विधा भिन्नः । तत्र प्रमेय-सिद्धिः प्रमाणाधीना । प्रमाण-सिद्धिश् च तस्माद् एव प्रमाणाद् अन्यतो वा । आद्य आत्माश्रयः । द्वितीये ऽनवस्था । तथा च प्रमाणासिद्धौ प्रमेयमपि न सिध्यतीति सर्वत्रासत् ख्यातिरेवेति चेन् न । त्वदुक्तो ऽयं प्रमाण-प्रतिषेधः प्रमाण-सिद्धो न वा । आद्ये व्याहतिः । अन्त्ये प्रमाण-प्रतिषेधं स्वीकुर्वता त्वया प्रमाणं कुतो न स्वीक्रियते । प्रमाण-प्रतिषेधस्य प्रमाणस्य च प्रमाणासिद्धत्वाविशेषादित्यलमनेन ।
मीमांसकास्त्वख्यातिमाहुः - अख्यातिर्नाम- न ख्यातिरख्यातिर् अप्रतीतिः । शुकिरतस्थलम् इदं रजतम् इत्यत्रेदमंश एव प्रत्यक्ष-प्रतीति-विषयः । न रजतांशः । तस्य चक्षुराद्यसन्निकर्षात् । रजतम् इति तु स्मृत्याकार-दर्शनम् इत्य् आहुः । तदपि चिन्त्यम् । रजतस्य प्रत्यक्षत्वेनानुभूयमानत्वात् । स्मर्यमाणस्याप्रवर्तकत्वाच् च । न च यथा शुष्के पतिष्यामीति वाय्वादिवशात् कर्दमे पतति तथैवात्रावशागत-प्रवृत्ति-न्यायेन रजत-प्रतीत्य-भावे ऽपि प्रवृत्तिर् इति वाच्यम् । इदं रजतमित्यत्रेदमर्थ-भूतभास्वर-द्रव्याजिघृक्षयेव प्रवृत्तेरूपलभ्यमानत्वात् । न चारजते ऽपि रजत-भेदाग्रहात् प्रवृत्तिर् अस्त्विति वाच्यम् । अग्रहस्य क्वचिदपि प्रवृत्ति-हेतुत्वादर्शनात् । किं च यथा निवृत्ति-कारण-भूत-भेद-ग्रहाभावात् प्रवर्तते तथा प्रवृत्ति-कारण-भूताभेद-ग्रहाभावात्किं न निवर्तेत । यथा भेद-ग्रहस्य निवृत्ति-कारणत्वं नेदं रजतम् इत्यत्र दृश्यत एवम् अभेद-ग्रहस्य प्रवृत्ति-कारणत्वमिदं रजतम् इत्य् भ्रान्त-बुद्धौ दृष्टम् एव । ततश् चाभेद-ग्रह-रुप-प्रवृत्ति-कारणाभावात् प्रवृत्ति-प्रतिपक्ष-भूता निवृत्तिः कथं न स्यात् । न च सत्य-रजते प्रवृत्तिर् अपि रजत-भेदाग्रहाद् एवेति वाच्यम् । तथा ऽपि रजतार्थिनः कदाचिद् रजतान्निवृत्तिर् अपि रजताभेदाग्रहादिति दृश्यत इति शुक्ति-रजत-स्थले निवृत्ति-कारण-भूत-रजताभेदाग्रह-सद्भावान् निवृत्तिर् अनिवार्यैवेत्यवधेयम् ।
अन्यथा-ख्यातिर् नामान्यस्यान्यरूपेण प्रतीतिः । > देशकालान्तर-गतं रजतमेव शुक्तिसंप्रयुक्तेन दोषोपहतेनेन्द्रियेण शुक्त्यात्मना गृह्यते । न चैवमननुभूतस्यापि ग्रहणं स्यादिति वाच्यम् । सादृश्यादेर् नियामकत्वात् । प्रयोगश् च विवाद-पदं शुक्तिशकलं रजत-ज्ञान-विषयो रजतोपायान्यत्वे सति रजतार्थि-प्रवृत्ति-विषयत्वात् सत्य-रजतवत् । रजतस्योपायः कारणं खन्यादिः । तस्य रजतार्थि-प्रवृत्ति-विषयत्वे ऽपि रजत-ज्ञान-विषयत्वाभावाद् व्यभिचारः तद् वारणाय सत्यन्तं विशेषणम् उत्पत्तिम् इति नैयायिकाः । तत्रान्यथात्वं किं ज्ञाने ऽथवा फल उत वस्तुनि । ना ऽऽद्यः । रजताकारं ज्ञानं शुक्तिमालम्बत इति ज्ञाने ऽन्यथात्वं वाच्यम् । तत्र रजताकार-ग्रस्तं ज्ञानं प्रति शुक्तेः स्वाकार-समर्पणासंभवः । न द्वितीयः । फलस्य स्फुरणस्य भ्रान्तौ सम्यग् ज्ञाने वा स्वरूपतो वैषम्यादर्शनात् । नापि तृतीयः । वस्तुन्यन्यथात्वं हि शुक्तिकायां रजततादात्म्यं किंवा रजताकारेण परिणामः । आद्ये ऽत्यन्त-भिन्नयोर् वास्तव-तादात्मासंभवः । द्वितीये तु बाध एव न स्यात् । रजत-ज्ञानम्-अबाध्यं परिणाम-ज्ञानत्वात् क्षीरपरिणाम-दुग्ध-ज्ञानवत् । शुक्तिः पुनः क्षीरवदेव बाध्येत। तथा चान्यथाख्यातिर् दुर्वचा । प्रयोगश्च-विमता शुक्ती रजत-ज्ञानाविषयः शुक्तित्वादितर-शुक्तिवत्। न च प्रागुक्त-हेतुना सत् प्रतिपक्ष इति वाच्यम्। तस्य सविशेषणत्वेन दुर्बलत्वात्।
मायाविनस्त्वनिर्वचनीय-ख्यातिमाहुः -
अनिर्वचनीय-ख्यातिर् नाम सत्त्वेनासत्त्वेन चानिर्वचनीयस्य रजतादेः ख्यातिः प्रतीतिः । शुक्ति-रजत-स्थले च रजतं न सत् । भ्रान्ति-बाधयोर् असंभवात् । नाप्य् असत्। ख्याति-बाधयोर् असंभवात्। बाध्यस्य प्रतियोगि-पूर्वकत्वेनासतस् तद् असंभवात्। किंतु शुक्त्य् अज्ञान-परिणाम-भूतं सदसद्भ्यामनिर्वचनीयम् अपूर्वं रजतम् उत्पद्यते। तदेव च तत्र रजत-ज्ञान-विषयः। तदुक्तम् —
सत्त्वे न भ्रान्ति-बाधौ स्तो नासत्त्वे ख्याति-बाधने ।
सदसद्भ्याम् अनिर्वाच्या-विद्या ऽऽविद्येः सह भ्रमः ॥
इति।
आविद्यैर् अविद्या-परिणाम-भूतैः रजतादिभिः । प्रपञ्चस्याप्य् अनाद्य-विद्या-परिणाम-भूतत्वाद-निर्वचनीयत्वमेवेति । तदपि चिन्त्यम् । अनिर्वचनीयत्वं वाच्यत्वराहित्यं चेत् सर्व-व्यवहार-विरोधः। ब्रह्मण्य् अपि त्वया वाच्यत्वराहित्याभ्युपगमेन तस्यापि प्रपञ्च-तुल्यत्वापत्तिश् च। सत्त्वासत्त्व-रहितत्वमिति चेच् छुक्ति-रजतादाव् अपि प्रातिमासिक-सत्त्वस्य त्वया ऽङ्गीकारेण तत्रानिर्वचनीयत्वानापत्तिः। न च सत्त्व-पदेन पारमार्थिकमेव सत्त्वं गृह्यत इति वाच्यम् । तथा ऽपि ब्रह्मण्यतिप्रसङ्गात् । न हि ब्रह्मण्यपि पारमार्थिकं सत्त्वं नाम कश्चिद् धर्मस्त्वयेष्यते। तस्य निर्धर्मकत्वेन त्वया ऽङ्गीकारात्। अथ सदसद्विलणत्वमेवानिर्वचनीयत्वम् इति चेन् न । तथाविधस्य वस्तुनः प्रमाण-शून्यत्वात्। सर्वं हि वस्तुजातं प्रतीति-व्यवस्थाप्यम् । प्रतीतिश् च काचित्सदाकारा घटादि-विषया। काचित्सदाकारा च शश-शृङ्गादि-विषया। न तत्र तृतीया विधा काचिदुपलभ्यते। प्रतीति-विरुद्धस्यापि प्रतीति-विषयत्वे ऽङ्गीक्रियमाणे सर्वं सर्वप्रतीतेर् विषयः स्यात् । सतो ऽपि घटादेर् असत् प्रतीति-विषयत्वं स्यात्। असतो ऽपि शश-शृङ्गादेः सत्प्रतीति-विषयत्वं स्यात्। किं च प्रपञ्चस्य प्रतीति-बाधाभ्यां सत्त्वासत्त्वयोः सिद्धौ तयोः समुच्चयो विकल्पो वा स्यान् न तद् विलक्षणत्त्वम् । किं चैतद् अनिर्वचनीयत्वं स्वयं सदसद् वा । सत्त्वे कथं तस्यासत्य-प्रपञ्च-वृत्तिता । असत्त्वे तु किं तेन कृतं स्यात् । किं चानिर्वचनीय-रजताद्युत्पत्तौ किं कारणम् । न तावत् प्रतीतिः । उत्पत्तेः प्राक्तस्या असंभवात् । नापीन्द्रियाणि । तेषां ज्ञान-कारणत्वात् । नापि तद् गतो दोषः । तस्य पुरुषाश्रयत्वेन शुक्तावनिर्वचनीय-रजतोत्पादकत्वायोगात्। नापि दुष्टानीन्द्रियाणि । तेषामपि स्वकार्य-भूते ज्ञान एव विशेषकरत्वात् । अथ विषय-गतो दोषः कारणमिति चेत् स किं विषय-मात्र-निष्ठो विषय-निष्ठ-दोषस्य । आद्ये पुरुषस्य सर्वथा निर्दोषत्त्वेन भ्रमासंभवः। अन्त्ये तूभय-निष्ठ-दोषस्य केवल-विषये कार्योत्पादकत्वासंभव इति बोध्यम्।
[[१४]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
२५.
सत्-ख्यातिर् नाम ज्ञान-विषयस्य सत्यत्वम् ।
तर्हि भ्रमत्वं कथम्?
इति चेत्, विषय-व्यवहार-बाधात् भ्रमत्वम् ।
तद्-उपपादयामः -
पञ्चीकरण-प्रक्रियया पृथिव्य्-आदिषु सर्वत्र सर्व-भूतानाम् विद्यमानत्वात् ।
अत एव शुक्तिकादौ (शुक्तिकायां) रजताशंस्य विद्यमानत्वाज्
ज्ञान-विषयस्य सत्यत्वम् ।
तत्र रजताशंस्य स्वल्पत्वात्
तत्र (स्वल्पत्वात्तु) न व्यवहार इति
तज्+++(=रजतत्व)+++-ज्ञानम् भ्रमः (तद्बाधात्तज्ज्ञानं भ्रमः) ।
शुक्त्य्-अंश-भूयस्त्व-ज्ञानात् भ्रम-निवृत्तिः ।
अण्णङ्गराचार्यः
शुक्ति-रूप्य-भ्रमे सत्-ख्यातिं तावद् उपपादयति पञ्चीकरणेति ।
अत एव - भूतेषु भूतान्तरांश-संमिश्रणाद् एव ।
दोषाच् छुक्त्य्-आग्रह-सहित-विद्यमान–सूक्ष्म-रजतांश-ग्रहणं भवति । (दोषात् शुक्त्यंशाग्रहसहितविद्यमानसूक्ष्मरजतांशग्रहणं भवति ।)
तस्य व्यवहारायोग्यत्व + अग्रहश् च (आग्रहश्च??) दोषाद् एव ।
अतस् सत्-ख्यातिर् “इदं रजतम्” इति ।
तर्हि भ्रमत्वं कथम् अस्येत्य्-अत्राह ‘तत्रे’ ति ।
न व्यवहार- न रजत-साध्य-कार्यकरणम् ।
तद्-बाधात् - व्यवहार-बाधात् ।
बाधित-व्यवहार-हेतुर् ज्ञानं भ्रमः ।
रूप्यस्य सूक्ष्मस्य सतोऽपि
रूप्य-कार्य-करणाक्षमत्वात्
तज्-ज्ञानस्य शुक्तिकायां((याः??)) बाधित-व्यवहार-हेतुत्वाद् भ्रमत्वम् इति भावः ।
‘शुक्त्यंशे’ ति ।
इयं शुक्तिर् इति भूयश् शुक्त्य्-अंश-ग्रहणात्
शुक्ति-रूप्य-भ्रम-कृत-व्यवहार-निवृत्तिः ।
शुक्ति-भूयस्त्व-ज्ञानेन
तद्-गत-रजतस्य व्यवहारायोग्यत्व-निर्णय एव
शुक्ति-रूप्य-बाध इत्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
ज्ञान के विषय को सत्य मानना ही सत्ख्याति है । तो प्रश्न यह है कि भ्रमस्थलीय ज्ञान को आप भ्रम कैसे कहते हैं ? तो इसका उत्तर है कि चूंकि भ्रम के विषय के व्यवहार का बाध होता है। हम उसका प्रतिपादन करते हैं । पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार सभी वस्तुओं- पृथिवी आदि सभी द्रव्यों में सभी द्रव्यों के विद्यमान रहने के कारण ही शुक्ति में रजतांश चूंकि विद्यमान रहता है, अतएव शुक्ति में प्रतीयमान ज्ञान का विषय रजत सत्य ही है । किन्तु शुक्ति में रज- तांश स्वल्प रहता है, अतः उसका रजत रूप से व्यवहार नहीं होता है । शुक्ति के अंश का भूयस्त्वज्ञान हो जाने से भ्रम की निवृत्ति हो जाती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
रजत की प्रतीति को उसका कारण इसलिए नहीं माना जा सकता कि
रजत ही उस प्रतीति का विषय है,
अतएव रजत की उत्पत्ति के पूर्व
वह नहीं हो सकती है ।
किन्तु कारण कार्य से पहले होता है, यह नियम है ।
यह कहना तो अत्यन्त उपहासास्पद है
कि निर्विषयिणी प्रतीति ही
उस रजत को उत्पन्न करके
पुनः उस रजत को ही अपना विषय बनाती है ।
इन्द्रियों के दोष को
उसका उत्पादक इसलिए नहीं माना जा सकता
कि वह पुरुषाश्रित है,
वह विषयगत कार्य का उत्पादक नहीं हो सकता है ।
इन्द्रियां तो ज्ञान के करण हैं,
अतएव वे रजत के कारण नहीं बन सकतीं ।
दूषित इन्द्रियों को भी
उस अनिर्वचनीय रजत का जनक नहीं कहा जा सकता,
क्योंकि वे भी ज्ञान में विशेषता ला सकते हैं,
विषय में नहीं ।
इस तरह अनिर्वचनीयख्याति भी उपपन्न नहीं हो सकती है ।
हाँ, अख्याति - पक्ष में स्वारस्य अवश्य है,
किन्तु इस पक्ष में यह दोष है कि
नैयायिक भ्रमस्थल में प्रत्यक्षमात्र नहीं मानकर
वहाँ प्रत्यक्ष एवं स्मरण दो ज्ञानों का सद्भाव मानते हैं ।
इसलिए वस्तुतः यथार्थख्याति ही स्वीकार की जानी चाहिए ।
प्रतीयमान विषय की सत्यता ही सत्ख्याति है ।
इस सत्ख्याति का समर्थन
उपनिषदों की त्रिवृत्करण प्रक्रिया अथवा पञ्चीकरण प्रक्रिया,
जो सभी दार्शनिकों को मान्य है,
के अनुसार होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- What is called satkhyāti (the theory of reality- apprehension) is the reality of the object of conscicus- ness. If it be asked what then is (bhrama (error), (it is said in reply) that bhrama consists in invalidating the workability of an object. 46 We shall thus explain it; By the process of quintuplication, all the elements are present in all (the elements) like earth etc. Therefore owing to the presence of a small portion of silver in the nacre, the object of that consciousness (i.e., silver) is true. But there, as the portion of silver-content is infinitesimal, it cannot serve the purpose of practical life; hence that cognition is bhrama. 47 The bhrama disappears, because of the knowledge of the preponderance of the nacre-content (in the object).
मूलम्
२५. सत्ख्यातिर्नाम ज्ञानविषयस्य सत्यत्वम् । तर्हि भ्रमत्वं कथम्? इति चेत्, विषयव्यवहारबाधात् भ्रमत्वम् । तदुपपादयामः । पञ्चीकरणप्रक्रियया पृथिव्यादिषु सर्वत्र सर्वभूतानां विद्यमानत्वात् । अत एव शुक्तिकादौ (शुक्तिकायां) रजताशंस्य विद्यमानत्वाज्ज्ञानविषयस्य सत्यत्वम् । तत्र रजतांशस्य स्वल्पत्वात् तत्र (स्वल्पत्वात्तु) न व्यवहार इति तज्ज्ञानम् भ्रमः (तद्बाधात्तज्ज्ञानं भ्रमः) । शुक्त्यंशभूयस्त्वज्ञानात् भ्रमनिवृत्तिः ।
वासुदेवः
विषय-व्यवहारेति । रज्ज्वां दूरतः सर्प-ज्ञानो ततः समीपम् गतः सर्प-ज्ञानं भ्रम इति प्रत्येति । तत्र यद्यपि रज्ज्वां सर्पांशानां विद्यमानत्वेन विषयस्य सत्यत्वं तथा ऽपि तदंशानामल्पत्वेन तत्रायं सर्प इति व्यवहारो न भवति । अत एव तस्य भ्रमत्वम् । न तु विषयासत्यत्वात् । रज्ज्वां सर्पांशानां विद्यमानत्वं तु —
तदेव सदृशं तस्य यत्तद्द्रव्यैकदेश-भाक् ।
इत्युक्त-रीत्या सिद्धम् । अत एव —
सोमाभावे च पूतीक-ग्रहणं श्रुति-चोदितम् ।
सोमावयव-सद्भावाद् इति न्याय-विदो विदुः ॥
शुक्तिकादाविति । रजतस्य तेजस्त्वेन तदंशानां पञ्चीकरण-प्रक्रियया शुक्तिकादि-पृथिव्यां विद्यमानत्वाद् इत्य् अर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२६. स्वप्नादि-ज्ञानं तु सत्यम् एव ।
तत्-तत्-पुरुषानुभाव्यतया
तत्-तत्-कालावसानान् रथादीन्
परम-पूरुषः सृजतीति श्रुत्या ऽवगम्यते ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘श्रुत्या’ इति ।
‘न तत्र रथा. X X[[??]] पथः सृजते, स हि कर्ता’ (बृ.) इति श्रुतिः
स्वाप्नार्थ-स्रष्टारं परमात्मानम् आह ।
अत स्वाप्नार्थस्य (स्वाप्नज्ञानस्य) सत्-ख्यातित्वम् ।
बाह्य-व्यवहारायोग्यत्वाच् च
तद्-अर्थस्य मिथ्यात्वं क्वचिद् उच्यते ।
आदिदेवानन्दः (En)
- The cognition of dream etc. is also real. From the śruti we understand that the Supreme Person creates chariots etc., 48 subsisting for a certain time only, 48 for the experience of the particular individual selfso (in accordance with its spiritual merit and demerit).
शिवप्रसादः (हिं)
स्वप्न आदि का ज्ञान तो सत्य ही है। श्रुतियों से पता चलता है कि स्वप्नकाल में परमात्मा स्वप्न देखने वाले पुरुषमात्र से अनुभव किये जाने योग्य स्वप्नकाल - पर्यन्त ही रहने वाले रथ आदि की सृष्टि कर देता है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
स्वाप्न ज्ञान की प्रामाणिकता -
स्वाप्न ज्ञान के विषय में विचारकों के विविध विचार है ।
कोई स्वाप्न ज्ञान को मिथ्या मानता है,
कोई निरालम्बन,
तो कोई अनिर्वचनीय ।
किन्तु विशिष्टाद्वैत दर्शन में स्वप्न को सत्य माना जाता है ।
बृहदारण्यकोपनिषद् की श्रुति कहती है-
‘न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्ति ।
अथ रथान् रथयोगान् पथः सृजते ।
न तत्राऽऽनन्दामुदःप्रमुदो भवन्ति ।
अथानन्दान् मुदः प्रमुदः सृजते ।
न तत्र वेशान्ताः पुष्करिण्यः स्रवन्त्यो भवन्ति,
अथ वेशान्तान् पुष्करिण्यः स्रवन्त्यः सृजते ।
स हि कर्ता’ ( बृ० उ० ६ । ३ । १० ) ।
अर्थात् स्वप्न में न रथ रहते हैं, न घोड़े, न मार्ग,
किन्तु परमात्मा रथ, घोड़े तथा मार्गों की सृष्टि कर देता है ।
वहीं आनन्द, मोद एवं प्रमोद नहीं रहते हैं,
किन्तु परमात्मा उन सबों की सृष्टि कर देता है ।
वहाँ न भवन होते हैं, न पुष्करिणियां और न तो निर्झर,
किन्तु परमात्मा इन सभी की सृष्टि कर देता है ।
वही जगत् का कर्ता है।
इस श्रुति से स्पष्ट है कि परमात्मसृष्ट स्वापकालिक विषय भी
उसी प्रकार सत्य हैं,
जिस तरह जाग्रत्-कालिक अनुभूयमान विषय ।
परमात्मा ही स्वाप्नकालिक विषयों की सृष्टि का कारण है,
क्योंकि जीवों द्वारा किये गये कुछ ऐसे भी पुण्य-पाप कर्म होते हैं,
जिनके फल का अनुभव जाग्रत्काल में नहीं किया जा सकता है ।
अत एव परमात्मा स्वप्नकाल में ऐसी वस्तुओं की सृष्टि कर देता है
कि वह ( स्वप्न देखने वाला ) जीवमात्र ही इन वस्तुओं से उत्पन्न सुख- दुःख का अनुभव कर पाता है,
दूसरा कोई नहीं ।
चूंकि वे स्वप्नकाल में ही उत्पन्न होते हैं,
अत एव स्वप्नकाल - पर्यन्त ही रहते हैं ।
स्वाप्न पदार्थों की सत्यता का समर्थन
कठोपनिषद् की — ‘य एषु सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निमिमाणः ’
( कठोपनिषद् २५८ ) श्रुति भी करती है ।
[[२९]]
ब्रह्मसूत्रकार भी शारीरक-मीमांसा के तीसरे अध्याय के दूसरे पाद के प्रथम एवं द्वितीय सूत्रों में
स्वाप्न-पदार्थों के स्रष्टृत्व की आशङ्का करके
‘मायामात्रं तु कार्त्स्न्येनानभिव्यक्त-स्वरूपत्वात् ।’
इस सूत्र के द्वारा बतलाते हैं कि
परमात्मा ही अपने सत्यसङ्कल्प मात्र से
उन आश्चर्यकारी वस्तुओं की सृष्टि कर देते हैं ।
अतएव स्वप्नकाल में
तत् तत् जीवों द्वारा अनुभूयमान पदार्थ भी सत्य ही है ।
मूलम्
२६. स्वप्नादिज्ञानं तु सत्यमेव । तत्तत्पुरुषानुभाव्यतया तत्तत्कालावसानान् रथादीन् परमपूरुषः सृजतीति (हि) श्रुत्याऽवगम्यते ।
वासुदेवः
श्रूत्येति । तथा च श्रुतिः —
न तत्र रथा न रथ-योगा न पन्थानो भवन्त्य् अथ रथान् रथ-योगान् पथः सृजते — स हि कर्त्ता ( बृ. ४।३।१० )
इति । रथे युज्यन्त इति रथ-योगा अश्वाः । एते च पदार्थास् तत्-तत्-पुरुषानुभाव्या एवेत्य् अन्येषां न तद्-अनुपलब्धिः । तत्-तत्-कालावसाना एवेते तस्यैव स्वप्नद्रष्टुर् - जागृतौ न तद्-अनुपलक्षिः । एतादृश-विचित्र-पदार्थ-कर्तृत्वं सत्य-संकल्पस्या ऽश्चर्य-शक्तेर् ईश्वरस्य संभवत्य् एवेति न काचिद् अनुपपत्तिः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२७. “पीतः शङ्ख” इत्यादौ
नयन-वर्ति-पित्त-द्रव्य-संयुक्ता/संभिन्ना नायन-रश्मयः
शङ्खादिभिः सह संयुज्यन्ते ।
तत्र पित्त-गत-पीतिमाभिभूतः शङ्ख-गत-शुक्लिमा न गृह्यते ।
अतः सुवर्णानुलिप्त-शङ्खवत् “पीतः शङ्ख” इति प्रतीयते ।
सूक्ष्मत्वात् पीतिमा स्व-नयन-निष्क्रान्ततया स्वेनैव गृह्यते,
न तु +अन्यैः ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘पीत’ इति । संभिन्नाः संश्लिष्टाः ।
शङ्खः पीतिमा च सन्न् एव गृह्येते ।
पीतिम्ना ऽभिभूतत्वाच् छङ्ख-श्वैत्यस्य +अग्रहः ।
तयोर् असंसर्गाग्रहो दोषात् ।
तत एव “पीतः शङ्ख” इति बाधितो व्यवहार इति भावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
शंख पीला है इत्यादि प्रतीति-स्थल में नेत्र के पित्त द्रव्य से मिश्रित नेत्र की ज्योतियाँ शंख आदि से संयुक्त होती हैं। वहीं पित्त की पीतिमा से अभिभूत हो जाने के कारण शंख की शुक्लिमा की प्रतीति नहीं हो पाती है । इसी- लिए उजला भी शंख सुवर्णजटित शंख के समान पीला प्रतीत होता है । अपने नेत्र से निकलने के कारण तथा सूक्ष्म होने के कारण पीतिमा की प्रतीति केवल अपने को ही हो पाती है, दूसरों को नहीं ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
‘पीतः शङ्खः ’ इस प्रतीति की सत्यता -
जिस व्यक्ति को पीलिया रोग हो जाता है,
उसको उजला भी शंख पीला प्रतीत होता है ।
उसका कारण यह है कि
उसकी आँखों की ज्योति निकलते समय पित्त द्रव्य की पीतिमा से संभिन्न हो जाती है ।
अतएव शंख की धवलिमा उस पित्तगत पीतिमा से अभिभूत होने के कारण
उस व्यक्ति को उजला भी शंख पीला प्रतीत होता है ।
वह अपनी ही आंखों से निकलने
तथा अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण
अपने मात्र से गृहीत होता है,
दूसरों को उस पित्त की पीतिमा नहीं प्रतीत होती है ।
अतएव उसको पीले शंख की होने वाली प्रतीति भी सत्य ही है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- In the case of (the cognition), the conch is yellow’, (the explanation is as follows) : The visual rays of the eye which are in contact with the bile of the eyes enter into conjunction with the conch; then the whiteness belonging to the conch is overpowered by the yellowness of the bile, and hence not cognized. There- fore arises the cognition, ’the conch is yellow’, like a gold-gilt conch. The yellowness issuing from his eye, owing to his extreme subtlety, is apprehended by him alone and not by others.
[[१६]]
मूलम्
२७. “पीतः शङ्ख” इत्यादौ नयनवर्तिपित्तद्रव्यसंयुक्ता (सम्भिन्नाः) नायनरश्मयः शङ्खादिभिः सह संयुज्यन्ते । तत्र पित्तगतपीतिमाभिभूतः शङ्खगतशुक्लिमा न गृह्यते। अतः सुवर्णानुलिप्तशङ्खवत् “पीतः शङ्ख” इति प्रतीयते । सूक्ष्मत्वात् पीतिमा स्वनयननिष्क्रान्ततया स्वेनैव गृह्यते, न तु अन्यैः ।
वासुदेवः
प्रतीयत इति । ननु दूरस्थ-शङ्खस्य सामीप्याभावात् तत्रस्थपित्त-द्रव्यं पित्तोपहतेनापि पुरुषेण कथं गृह्यत इति चेन् न । पित्तोपहतेन पुरुषेण स्व-नयन-निष्कान्त-पित्त-द्रव्य-ज्ञान-जनित-संस्कार-सहायेन शङ्खस्थं पित्त-द्रव्यं दूरस्थम् अपि स्वचाक्षुष-रश्मिभिर् ज्ञायते । यथा ऽऽकाशे ऽतिदूरगतः पक्षी न द्रष्टुं शक्यते, परं तु स्व-समीपदेशोत्पतन-कालाद्-आरभ्य सततं दृश्यमानस्-तत्-संस्कार-सह कृतेन चक्षुषा दूरगतो ऽपि ज्ञायते तद्-वत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२८. जपा-कुसुम-समीप-वर्ति-स्फटिक-मणिर् अपि
“रक्त” इति गृह्यते ।
तज्-ज्ञानम् सत्यम् एव ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘जपे’**ति ।
स्फटिके जपा-कुसुम-रक्त-कान्ते प्रति-फलनाद् रक्त-प्रतीतिः ।
सतोर् एव स्फटिक-रक्तयोर् दोषाद् असंसर्ग+अग्रहः ।
अत एव “रक्तः स्फटिक” इति व्यवहारो बाधितो भवति ।
शिवप्रसादः (हिं)
जपाकुसुम (ओड़हूल पुष्प ) के सन्निकटस्थ स्फटिक- मणि भी लाल प्रतीत होता है । वह ज्ञान भी सत्य ही है ।
आदिदेवानन्दः (En)
28.59(Like wise) the crystal which is placed near a China-rose is cognized as red. 52 The cognition of that also is real.
मूलम्
२८. जपाकुसुमसमीपवर्तिस्फटिकमणिरपि “रक्त” इति गृह्यते । तज्ज्ञानं सत्यमेव ।
वासुदेवः
रक्त इतीति । जपा-कुसुम-प्रभाभिभूतत्वात् । तत्र जपा-कुसुम-प्रभा वितता ऽपि स्फटिकादि-स्वच्छद्रव्य-संयुक्ता स्फुटतरम् उपलभ्यते । तत एव च तत्-समीपवर्तिनो ऽन्ये घटादयः पदार्था न रक्ता उपलभ्यन्ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
२९. मरीचिकायां जलज्ञानमपि पञ्चीकरणप्रक्रियया पूर्वोक्तवद् उपपद्यते ।
पञ्ची-करणप्रक्रिया तु उत्तरत्र वक्ष्यते ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘मरीचिके’**ति । सूर्यातपे ऽम्भः सद् एव भासते - पञ्चीकरणात् ।
परं तूदन्यान्य+अशमन+अयोग्यत्वात्
तस्य तृषितस्य तत्र पानार्थ-प्रवृत्तिर् बाधिता भवति ।
अतो मरीचिका-जल-ज्ञानं भ्रम उच्यत
इति भावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
मरु-मरीचिका में होने वाला जल का ज्ञान भी पञ्जीकरण-प्रक्रिया से पहले के समान ( शुक्तिरजत केप्रथमोऽवतारः
[[२५]]
समान ) सिद्ध होता है । पञ्चीकरण प्रक्रिया हम आगे बतलायेंगे ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
मरु-मरीचिका में जल-ज्ञान की सत्यता -
मरु-मरीचिका में भी जल की जो प्रतीति होती है,
वह भी प्रतीति सत्य ही है,
क्योंकि पञ्चीकरण प्रक्रिया के अनुसार
सूर्य की किरणों में भी जलांश विद्यमान रहता ही है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- In the aforesaid manner the cognition of water in the mirage also is true owing to the quintupli cation of elements. The process of pañcīkarana will be described in the sequel.
मूलम्
२९. मरीचिकायां जलज्ञानमपि पञ्चीकरणप्रक्रियया पूर्वोक्तवदुपपद्यते । पञ्चीकरणप्रक्रिया तु उत्तरत्र वक्ष्यते ।
वासुदेवः
पञ्चीकरण- प्रक्रिययेति । तथा च तेजः-पृथिव्योर्-अप्य्-अम्बुनो विद्यमानत्वात् तज्ज्ञानं सत्यम् एव । तेत्रेन्द्रिय-दोषेण तेजः-पृथिव्योर्-ग्रहणम् । अदृष्ट-वशाच्-चाम्बुन एन ग्रहणम् । अयथार्थज्ञान-वादिभिर् अपि क्वचिद् एव भ्रमस्य स्वीकृतत्वेन तन्-नियामकलत्वमदृष्टस्याङ्गीकर्तव्यम् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३०. दिग्भ्रमोऽपि तथैव ।
दिशि दिग्-अन्तरस्य विद्यमानत्वात्
अवच्छेदकम् अन्तरेण दिग् इति द्रव्यान्तरानङ्गीकाराच् च ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘दिशी’**ति । दिग्-भ्रमे उत्तरस्यां दिशि पूर्वत्वं गृहीतं सद् एव ।
तस्या एवान्य-पुरुषापेक्षया पूर्वत्वात् ।
भ्रान्त-पुरुषापेक्षयोत्तरत्वाग्रहस् तस्य दोषात् ।
तत एव तस्य स्व-पूर्वत्व-व्यवहारस् तत्र भवति ।
स च बाधित इत्यर्थः ।
वस्तुतः सिद्धान्ते न दिक् तत्त्वान्तरम् इत्याह ‘अवच्छेदक’म् इति-
अवच्छेदकम् उदयाचल-संयुक्त-मूर्तादि ।
तत्-तद्-उपाध्य्-अवच्छिन्नाकाशाद् एव पूर्वादि-व्यवहारो भवतीति भावः ।
एतद् विवरणम् आकाश-निरूपणे ।
शिवप्रसादः (हिं)
दिग्भ्रम में भी होने वाला ज्ञान सत्य ही है; क्योंकि एक दिशा में दूसरी दिशा विद्यमान रहती है । किञ्च दिशा को द्रव्यान्तर न मानकर हम उसे अवच्छेदकमात्र मानते हैं।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
विग्भ्रम की सत्यता -
कभी-कभी ऐसा होता है कि पूर्व दिशा में जाते हुए मनुष्य को भ्रम होता है
कि मैं पश्चिम दिशा में जा रहा हूँ।
यह ज्ञान भी सत्य ही है,
क्योंकि एक दिशा में दूसरी दिशा विद्यमान रहती है ।
उदाहरणार्थ एक यज्ञशाला के बाहर चारों ओर
एक - एक पुरुष खड़े हैं।
वह यज्ञशाला पूर्वं वाले पुरुष की पश्चिम दिशा में होगी ।
पश्चिम वाले पुरुष की पूर्व दिशा में
और उत्तर वाले पुरुष की दक्षिण दिशा में
तथा दक्षिण वाले पुरुष की उत्तर दिशा में वह यज्ञशाला होगी ।
इससे सिद्ध होता है कि एक दिशा में दूसरी दिशा विद्यमान रहती है ।
अतः विशिष्टाद्वैत दर्शन में दिशा नामक कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं माना जाता है,
जैसा कि वैशेषिक मानते हैं ।
विशिष्टाद्वैत दर्शन में अवच्छेदक से अतिरिक्त
दिशा नामक कोई द्रव्य नहीं है ।
उदयाचल पर्वत से संयुक्त मूर्तादि पदार्थ ही अवच्छेदक हैं ।
इसका विस्तृत विवेचन आकाश-निरूपण के प्रसङ्ग में स्वयं ग्रन्थकार करेंगे ।
आदिदेवानन्दः (En)
- In the same way, the case of one direction being mistaken for another is true; since one direction. which (really) exists in another direction is cognized54 and apart from the limiting adjuncts (which divide the directions) no (distinct ) substance as direction (dik) is admitted (in our system). 55
मूलम्
३०. दिग्भ्रमोऽपि तथैव । दिशि दिगन्तरस्य विद्यमानत्वात् अवच्छेदकमन्तरेण दिगिति द्रव्यान्तरानङ्गीकाराच्च ।
वासुदेवः
विद्यमानत्वाद् इति । तथा च पूर्व-दिशः पश्चिम-दिक्त्वेन ज्ञानं यथार्थम् एव । पूर्वस्यां दिशि पश्चिम-दिगंशस्य वस्तुतः सत्त्वात् । वस्तुतो दिश एकत्वात् । दिग्भेदस्यौपाधिकत्वात् । यो ग्रामस्-तत् पश्चिम-दिक्स्थैः पूर्व-दिक्स्थ इति व्यवह्रियते स एव तत्-पूर्व-दिक्स्थैः पश्चिम-दिक्स्थ इति व्यवह्रियते । द्रव्यान्तरानङ्गीकाराद् इति । एतच्-च चतुर्थे ऽवतार आकाश-निरूपणे वक्ष्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३१. अलात-चक्रादौ तु शैघ्र्यात् (अतिशैघ्र्यात्) तद्-अन्तरालाग्रहणात् तत्-तद्-देश-संयुक्त–तत्-तद्-वस्तुन एव चक्राकारेण ग्रहणम् ।
तद् अपि सत्यमेव ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘अलाते’**ति । अर्धाग्र-दग्ध-काष्ठादि परिभ्राम्यमाणम् अलातचक्रम् उच्यते ।
तद्-अन्तरालम् - तत्-तद्-देश-संयोगस्य क्षणं व्यवधानम् ।
द्रुत-परिभ्रामत्वाद् (परिभ्रामणात्) अन्तरालाग्रहणम् ।
तत्-सहितं तत्-तद्-देश-संयुक्तालात-ग्रहणम् अलात-चक्र-व्यवहार-हेतुर् इति भावः ।
शिवप्रसादः (हिं)
आलात- चक्र आदि में तो अत्यन्त शीघ्रता के कारण उसके अन्तराल का ग्रहण न हो सकने के कारण तत् तत् देशों से संयुक्त विभिन्न वस्तुओं की ही चक्र रूप से प्रतीति होती है । अत एव वह ज्ञान भी सत्य ही है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
आलात+++(=अङ्गार)+++-चक्र में अन्तराल की अप्रतीति का कारण -
अग्नि से जलते हुए काष्ठ इत्यादि को जो चारो तरफ तेजी से घुमाया जाता है,
उसे आलात कहते हैं ।
आलात के चारों तरफ अत्यन्त शीघ्रता से घुमाए जाने पर लगता है
कि एक बड़ा अग्नि- ज्वाला का वृत्त बन गया ।
यद्यपि अग्नि की लपट तो एकत्र ही होती है,
किन्तु मालात इतनी शीघ्रता से घुमाया जाता है कि
उसके अन्तराल का ग्रहण नहीं होता ।
अतएव वह चक्र की प्रतीति भी सत्य ही है ।
५ य०
[[३०]]
आदिदेवानन्दः (En)
- In the case of the firebrand swung round rapidly, owing to the non-apprehension of the inter- vals56 by virtue of the rapidity of the movement, that object itself which is in conjunction with (all) points of the space (i.e. circle) is cognized in the form of a ( fiery ) wheel. This cognition is also real.
मूलम्
३१. अलातचक्रादौ तु शैघ्र्यात् (अतिशैघ्र्यात्) तदन्तरालाग्रहणात्तत्तद्देशसंयुक्ततत्तद्वस्तुन एव चक्राकारेण ग्रहणम् । तदपि सत्यमेव ।
वासुदेवः
अलातेति । अलातमुल्मुकम् तद्-यदा चक्रवद्-भ्राम्यते तदा वस्तुतस्-तत्-प्रतिक्षणमैकैकदिक्-संयुक्तम् अपि सर्वदिक्-संयुक्तम्-इव वर्तुलाकारं दृश्यते । तत्रान्तराला-ग्रहणाद्-वर्तुलाकार-प्रतीतिर् भवति । वास्तविक-चक्रे ऽपि वर्तुलाकार-प्रतीताव्-अन्तरालाग्रहणम् एव मूलम् । इयांस्तु विशेषः — वास्तविक-चक्रे ऽन्तरालाभावाद् एव तद्-ग्रहणम् । अत्र त्वन्तराल-सत्त्वे ऽपि शैघ्र्यात्-तद्-अग्रहणम् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३२. दर्पणादिषु निज-मुखादि-प्रतीतिर् अपि यथार्था ।
दर्पणादि-प्रतिहत-गतयोः नायन-रश्मयोः
दर्पणादि-ग्रहण-पूर्वकं निज-मुखादि गृह्णन्ति ।
तत्राप्य् अतिशैघ्र्याद् अन्तरालाग्रहणात्
तथा प्रतीतिः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘दर्पणे’**ति ।
ऋजु-प्रवृत्त-नेत्र-रश्मि-संयोग-जनितं दर्पण-ग्रहणं,
दर्पण-प्रतिहत-प्रतिलोम-गति–तद्-रश्मि-संयोग-जनित–मुख-ग्रहणयोः (दर्पणं प्रतिहतं प्रतिलोमगतितद्रश्मिसंयोगजनितं मुखग्रहणयोः)
क्षण-व्यवधानस्य शैघ्र्याद् अग्रहणात् दर्पण-मुख-ग्रहणं भवति,
दर्पणं मुखवद् इति बाधितं व्यवहारहेतुः ।
दर्पण-प्रतिहति-रूप–नेत्र-रश्मि-दोषत
एवं प्रतिहत-नायन-रश्मि-ग्राह्य–मुखादि–प्रतिघातक-दर्पणादि-गतम् (प्रतिहतनायनं रश्मिग्राह्यं मुखादि प्रतिघातकदर्पणादिगतमिव) इव
प्रतीतं व्यवह्रियते ।
दोष-स्वभाव-विशेषोऽयम् इति बोध्यम् ॥
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
दर्पण आदि में होने वाली अपने मुख आदि की प्रतीति भी यथार्थ ही है; क्योंकि नेत्र की रश्मियों की गति दर्पण आदि से अवरुद्ध हो जाती है । अतएव वह दर्पण के ग्रहण- पुरस्सर अपने मुख आदि का ग्रहण कर लेती हैं । वहाँ भी ज्योति की गति अतितीव्र होने के कारण अन्तराल का ग्रहण नहीं हो पाता है । अतएव दर्पण में मुखादि की प्रतीति होती है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
दर्पण में मुखादि-प्रतीति का याथार्थ्य –
दर्पण जब हम देखते हैं
तो लगता है कि हमारे मुखादि दर्पण में ही हैं।
उसका कारण है कि नेत्र से निकली हुई ज्योति
दर्पण से टकराकर लौट जाती है
तथा द्रष्टा के मुखादि को ग्रहण कर लेती है ।
इसीलिए द्रष्टा को लगता है कि
उसके मुखादि दर्पण के भीतर है।
चूंकि ज्योति की गति अत्यन्त तीव्र होती है,
अतएव दर्पण एवं मुख के अन्तराल का ग्रहण नहीं होता है ।
अतएव वह भी प्रतीति यथार्थ ही है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- The cognition of one’s own face in mirrors etc. : 7 is likewise true. (What happens is) that when
that the motion of the visual rays (issuing from the eye to- wards the mirror) is reversed by the mirror, those rays cognize the person’s own face after the perception of the mirror; and even in this case, owing to the non- apprehension of any interval (between the mirror- perception and face-perception) by virtue of the rapidity (of the process), the face is perceived as if in the mirror.
मूलम्
३२. दर्पणादिषु निजमुखादिप्रतीतिरपि यथार्था । दर्पणादिप्रतिहतगतयोः नायनरश्मयो दर्पणादिग्रहणपूर्वकं निजमुखादि गृह्णन्ति । तत्राप्यतिशैघ्र्यादन्तरालाग्रहणात् तथा प्रतीतिः ।
वासुदेवः
गृह्णन्तीति । ननु स्व-मुखस्यैव ग्रहणे स्व-मुखस्य स्वामि-मुखत्वाभावेन तस्य स्वाभिमुखत्वेन कथं प्रतीतिर् इत्य् अत आह — तत्रापीति । अन्तराला-ग्रहणात् । दर्पण-मुखयोर् अन्तरालं तद्-ग्रहणात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३३. द्विचन्द्र-ज्ञानादाव् अपि
अङ्गुल्य्-अवष्टम्भ-तिमिरादिभिर् नयन-तेजो-गति-भेदेन सामग्री-भेदात् (नायन)
सामग्री-द्वयम् अन्योन्य-निरपेक्षं
चन्द्र-द्वय-ग्रहणे (द्विचन्द्रग्रहणहेतुः) हेतुर् भवति ।
सामग्री-द्वयम् पारमार्थिकम्+++(=??)+++, तेन द्वि-चन्द्र-ज्ञानम् भवति ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘द्विचन्द्र’**ति ।
तिमिर-दोषेणाक्षिणि अङ्गुल्य्-अवष्टम्भेन वा
नेत्ररश्मि-गति-भेदो (नेत्ररश्मेर्गतिभेदो) जायते ।
तत्र ऋजु-गतिक-रश्मिना स्वदेश-स्थ-चन्द्र-ग्रहणं यथार्थं भवति ।
वक्रगतिना तु तेन चन्द्र-समीप-देश-ग्रहण-पूर्वकं स्वदेश-वियुक्त-चन्द्र-मात्र-ग्रहणं भवति ।
तत्र क्षण-भेदस्य शैघ्र्याद् अप्रतीतेर् वार-द्वय–चन्द्र-ग्रहणं द्वि-चन्द्र-व्यवहार-हेतुर् भवति ।
दोषनिवृत्तौ तु
द्विवारं चन्द्रग्रहणस्याभावेन
स व्यवहारो निवर्तते ।
एवं भ्रान्ति-स्थलेषु सत्ख्यातिर् भ्रन्तित्वं च समर्थितम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अङ्गुल्यवष्टम्भ अथवा तिमिर रोग के द्वारा नेत्र ज्योतियों के विभक्त हो जाने से चन्द्रमा आदि दो प्रतीत होते हैं । क्योंकि वहाँ दोनों की सामग्री भिन्न-भिन्न हो जाती है तथा परस्पर में निरपेक्ष रूप से वे दोनों सामग्रियों दो चन्द्रमा की प्रतीति का कारण बन जाती हैं। दोनों साम- ग्रियाँ सत्य हैं । इसीलिए दो चन्द्रमा का ज्ञान होता है।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
द्विचन्द्रादि ज्ञानों का याथार्थ्य –
जब हम कभी अपनी आँख के कोने को अंगुली से दबाते हैं
तो एक ही वस्तु दो दिखने लग जाती है।
ऐसे ही जिसकी आँख में तिमिर नामक रोग हो जाता है,
उसको भी एक ही वस्तु दो दिखती है ।
इसका कारण यह है कि
अंगुल्यवष्टम्भ अथवा तिमिर रोग के कारण
आंख से निकली हुई ज्योति का एक अंश तिरछे जाकर वस्तु को ग्रहण करती है
तथा दूसरी सीधे ।
इसीलिए एक ही वस्तु दो दिखने लग जाती है।
चूंकि ग्राहक सामग्री दो है,
अतएव वस्तु दो दिखती है ।
अतएव द्विचन्द्रादि का ज्ञान भी यथार्थ ही है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- In the case of the apprehension of a double moon (what happens is this): Owing to pressure of the finger on the eye, or by some disease of the eye called timira etc., the visual rays are divided ; ( and conse- quently), there originates difference in the apparatus of the vision (sāmagri); (then) the mutually independent double apparatus of the vision becomes the cause for the cognition of the double moon.58 The doubling of the apparatus of vision being true, by it the double apprehension of the moon takes place. In
१८
मूलम्
३३. द्विचन्द्रज्ञानादावपि अङ्गुल्यवष्टम्भतिमिरादिभिर्नायनतेजोगतिभेदेन सामग्रीभेदात् सामग्रीद्वयमन्योन्यनिरपेक्षं चन्द्रद्वयग्रहणे हेतुर्भवति (द्विचन्द्रग्रहणहेतुर्भवति) । सामग्रीद्वयम् पारमार्थिकम्, तेन द्विचन्द्रज्ञानम् भवति ।
वासुदेवः
अङ्गुल्यवष्टम्भः । अङ्गुल्या नेत्र-निरोधः । तिमिरः । नेत्र-रोगः । तेजो-गतीति । तेजो-गतिर् एव चन्द्र-ग्रहण-सामग्री । सा च द्विधा । एका स्वाभाविकी ऋजुः । द्वितीया त्व् अङ्गुली-निरोधादि-मूलिका वक्र-भूता । तत्रैका सामग्री स्व-देशविशिष्टं चन्द्रं गृह्णाति । द्वितीया तु किञ्चिद्-वक्र-गतिश्-चन्द्र-समीप-देश-ग्रहण-पूर्वकं चन्द्रं स्व-देश-वियुक्तं गृह्णाति । न च चन्द्र-समीप-देशे चन्द्र-भावात् कथं तत्र चन्द्र-ग्रहणम् इति वाच्यम् । चन्द्राधिकरण-देश-तत् समीप-देशयोर्-अन्तरालाग्रहणेन द्वितीय-सामग्र्या चन्द्रस्य स्वाधिकरण-देशस्थत्त्वेनाग्रहणाच् च तथा प्रतीतेः । ततश् च ग्रहणभेदेन ग्राह्याकार-भेदादेकत्व-ग्रहणाभावच् च द्वौ चन्द्राव् इति भवति प्रतीतिर् इति बोध्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३४. अतः +++(सत्-ख्यातेः समर्थितत्वात्)+++
सर्वं ज्ञानं सत्यम्,
स-विशेष-विषयं च - निर्विशेष-वस्तुनो ऽग्रहणात् ।
अण्णङ्गराचार्यः
अतः - सत्-ख्यातेः समर्थितत्वात् ।
सत्यं - स्व-रूपतो विषयतश् च सत्यम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
इस तरह सिद्ध हुआ कि सभी विज्ञान सत्य तथा सविशेषवस्तु-विषयक होते हैं; क्योंकि किसी भी ज्ञान के द्वारा निर्विशेष वस्तु का ग्रहण नहीं होता है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Hence all apprehensions are likewise true, having for their contents objects affected with differ- ence, because a non-differenced object is never ap- prehended. 59
मूलम्
३४. अतः सर्वं ज्ञानम् (विज्ञानं) सत्यं सविशेषविषयं च । निर्विशेषवस्तुनोऽग्रहणात् ।
वासुदेवः
अग्रहणाद् इति । विशेष-रहितस्य वस्तुनो रूपाद्यभावान् न तत्र प्रत्यक्षं क्रमते निर्विकल्पक-प्रत्यक्षम् अपि गुण-संस्थानादि-विशिष्ट-विषयकम् एवेति प्राग् उक्तम् एव ।
भेदविशिष्टस्यैव वस्तुनो ग्रहणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
३५. एवम्-भूतम् प्रत्यक्षम् प्रथमतो ( जात्यादि-रूप- ) भेद-विशिष्टम् एव गृह्णाति +++(यथा “गौः” इति)+++ ।
“भेद” +++(←“अयम् अश्वाद् भिन्न”)+++ इति व्यवहारे तु प्रतियोग्य्-अपेक्षा, न स्वरूपे (न तु स्वरूपेण) ।
तेन अनवस्थान्योन्याश्रय-दोषोऽपि नास्ति ।
उपर्य् उपर्य् अपेक्षा ऽनवस्था ।
परस्परापेक्षो ऽन्योन्याश्रयः ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘भेदेति’ ।
गोत्वादि-संस्थानस्यैवाश्वादि-तादात्म्य-धी–विरोधि-ज्ञान-विषयत्वेन
+अश्वादि-भेद-रूपत्वात्
तद्ग्रहणे न प्रतियोगि-ज्ञानापेक्षा ।
“अयम् अश्वाद् भिन्न” इति व्यवहार-विशेषे पुनस् तद्-अपेक्षेति भावः ।
**‘तेने’**ति । संस्थानस्यैव भेदत्वेन,
जाति-भेदयोर् भिन्नत्वे यो दोषः प्रसक्तः,
अस्मत्-पक्षे स न भवतीत्य् अर्थः ।
तज्-जातीयत्व-ग्रहणे परस्माद् अग्रहणम् (परस्माद्भेदग्रहणं),
भेद-ग्रहणे च तज्-जातीयत्व-ग्रहणम्
इत्य् अन्योन्याश्रयः ।
भेदस्यातिरिक्तत्वे
तस्यापि स्वधर्मितो भेदो ऽतिरिक्तः ।
एवं तद्-अभेदस्यापीत्य् अनवस्था ऽपरमते ।
स्व-ज्ञप्त्य्-अधीन–ज्ञप्त्य्-अधीन–स्व-ज्ञप्तिकत्वम् अन्योन्याश्रयः ।
अप्रामाणिक-पदार्थ-कल्पना-परम्परा ऽनवस्था ।
सस्थानस्यैव-स्व-पर-निर्वाहकत्वं सिद्धान्तेऽभ्युपगम्यत
इति नानवस्थादि-प्रसङ्ग इति बोध्यम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - उपर्युक्त प्रकार का प्रत्यक्ष पहले प्रत्यक्ष में भी जाति आदि भेदों से विशिष्ट वस्तु का ही ग्रहण करता है । भेद के व्यवहार में प्रतियोगी की अपेक्षा होती है, स्वरूप में नहीं । इसलिए भेदविशिष्ट वस्तु के ग्रहण में न तो अनवस्था दोष है और न तो अन्योन्याश्रय । अनवस्था उत्तरोत्तर अनन्तापेक्षकत्व रूप होती है तथा अन्योन्याश्रय परस्परापेक्षा रूप ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र०—- ऊपर साङ्गोपाङ्ग प्रत्यक्ष का निरूपण किया जा चुका है। वह प्रत्यक्ष जाति आदि भेदों से विशिष्ट वस्तु को ग्रहण करता है। अब यहाँ पर यह शंका होती है कि जाति आदि जो धर्म रूप भेद हैं, उनका स्वरूप से भेद अवश्य होगा, यदि भेद है तो फिर उसका भेद मानना होगा, पुनः उस भेद का भी धर्म मानना होगा । उस धर्म का भी भेद होगा और भेद का धर्म । इस तरह अनन्तापेक्षकत्व रूप अनवस्था होगी । किश्व – जाति आदि से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होने पर भेद का ग्रहण होगा और भेद का ग्रहण होने पर जाति आदि से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होगा । इस तरह इस मान्यता में अन्योन्याश्रय दोष भी है । इन दो दोषों से दूषित होने के कारण भेद जात्यादिभेदविशिष्ट वस्तु का ग्रहण नहीं स्वीकारा जा सकता है ? इस शंका का समाधान करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि भेद के व्यवहार
में
[[३१]]
प्रतियोगी की अपेक्षा होती है, स्वरूपज्ञान में नहीं । गोत्वादिसंस्थान रूपा जाति ही गवादि के अश्वादि से अभेद ज्ञान के विरोधी ज्ञान के विषय हैं, अतएव अश्वादि से भेद रूप से उनके ग्रहण में प्रतियोगी ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । अतः जाति आदि स्वपरनिर्वाहक न्याय से व्यावृत्ति रूप धर्मान्तरनिरपेक्ष तथा प्रतियोगी निरपेक्ष होते हैं । अतएव भेदविशिष्ट वस्तु के प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण में न तो अन्योन्याश्रय दोष है और न तो अनवस्था ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Then, perception which is of the aforesaid nature at first apprehends difference alone.
Difference in its experience (or expression) as such requires a counter-entity, but never in its essential nature.60
Hence the faults of regressus in infinitum and logical seesaw are absent.61
Regressus in infinitum is begging the question.
Logical seesaw is mutual dependence.
मूलम्
३५. एवम्भूतम् प्रत्यक्षम् प्रथमतो (जात्यादिरूप) भेदमेव (भेदविशिष्टमेव) गृह्णाति । भेद इति व्यवहारे तु प्रतियोग्यपेक्षा न स्वरूपे (स्वरूपेण) । तेन अनवस्थान्योन्याश्रयदोषोऽपि नास्ति । उपर्युपर्यपेक्षाऽनवस्था । परस्परापेक्षोऽन्योन्याश्रयः ।
वासुदेवः
भेद-विशिष्टम् एवेति । संस्थान-रूपजातेर् एव भेद-स्वरूपत्वेन तादृश-भेद-विशिष्टम् एव गृह्णातीत्य् अर्थः । यदि भेदो नाम जात्य्-अपेक्षया कश्चिद्-अन्यो ऽन्याभावरूपः स्यात् तर्हि तत् स्वरूपे प्रतियोग्यपेक्षा स्याद्-घटः पटाद्-भिन्न इति । तत्र च घट-निष्ठो भेदो घट-स्वरूप एव वा घटाद्-भिन्नो वा । आद्ये घट-स्वरूपे गृहीते स्वरूप-व्यवहारवत्-सर्वस्माद्-भेद-व्यवहार-प्रसक्तेः । स्वरूप- मात्र-भेद-वादिनो प्रतियोग्यपेक्षायाः कल्पयितुम् अशक्यत्वात् । हस्तः कर इतिवद् घटो भिन्न इति पर्यावत्वं च स्यात् । अन्ये घट-निष्ठे प्रथमे भेदे घट-प्रतियोगिको द्वितीयो भेदः कल्प्यः । तस्मिंश्-च द्वितीये भेदे प्रथम-भेद-प्रतियोगिकस्-तृतीयो भेदः कल्प्य इत्य् अनवस्था स्यात् । किं च जात्यादि-धर्म-विशिष्ट-वस्तु-ग्रहणे सति भेद-ग्रहणं भेद-ग्रहणे सति जात्यादि-धर्म-विशिष्ट-वस्तु-ग्रहणम् । अगृहीते हि घटस्य पटाद्-भेदे ऽयं घट-जातीय इति ज्ञातुम् अशक्यत्वाद्-इत्य्-अन्योन्य्-आश्रयः स्यात् । अतो जातिर् एव भेद इत्य् अङ्गीकार्यम् इति भेद-विशिष्टस्यैव प्रत्यक्षम् इति सिद्धम् ।
दशमस्त्वमसीति वाक्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
३६.
ननु “दशमस् त्वम् असि” इत्य् एतद् अपि प्रत्यक्षं किं न स्यात्?
इति चेत्, न ।
“त्वम्” इत्य् एतस्य प्रत्यक्षत्वे ऽपि “दशमोऽहम्” (दशमोऽसि) इत्य्-अस्य (इत्येतस्य) वाक्य-जन्यत्वात् ।
यदि “दशमोऽहम्” (दशमोऽसि) इत्य्-अस्य प्रत्यक्ष-विषयत्वं (प्रत्यक्षत्व)
तर्हि “धर्मवाँस् त्वम् असि” इत्य्-एतस्यापि प्रत्यक्षत्वम् स्यात् ।
अङ्गीकारे अतिप्रसङ्गात् -
अत एव ‘तत् त्वम् असि’ इति वाक्यस्य नापरोक्ष-ज्ञान-जनकत्वम् ।
अण्णङ्गराचार्यः
वाक्यजन्यमपि प्रत्यक्षम् अस्तीति मतं निरस्यति - ‘ननु’ इत्यादिना ।
“दशमस् त्वम्” इति वाक्येनाहं दशमो ऽस्मीति ज्ञानं जायते ।
अहम्-अर्थस्य प्रत्यक्षत्वात्
तद्-विषयम् इदं ज्ञानं प्रत्यक्षम्
इति पूर्वपक्ष्याशयः ।
अहम्-अर्थस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि
दशमत्व-विशिष्टाहम्-अर्थ-विषयम् एतद्-वाक्य-जन्यं ज्ञानं
परोक्षम् एव ।
दशमत्वस्येन्द्रियासन्निकृष्टत्वात् ।
विशेष्यमात्रस्य प्रत्यक्षत्वेन विशिष्ट-ज्ञानस्यापि प्रत्यक्षत्व-स्वीकारे
“धार्मिकस् त्वम् असी"ति वाक्य-जन्यम् अपि ज्ञानं प्रत्यक्षं भवेत्
इति सिद्धान्त्याशयः ।
‘अतः’ इति । “तत् त्वम् असि” वाक्यजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्
इति मतम् अद्वैतिनाम् ।
अहम्-अर्थस्य प्रत्यक्षत्वे ऽपि
ब्रह्मात्मकत्वस्य तस्मिन् शास्त्र-वेद्यतया परोक्षम् एवाह
“ब्रह्मात्मको ऽस्मी"ति ज्ञानम् उक्त-वाक्याद् भवतीति सिद्धान्तिनाम् आशयः ।
योगेन त्व् आत्मनो ब्रह्मात्मकत्व-साक्षात्कारो मानसो जायत
इत्य् अन्यद् एतत् +++(→योगि-प्रत्यक्ष-रूपतः??)+++।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - यदि कहा जाय कि ‘दसवां तू है’ इस वाक्य से उत्पन्न ज्ञान को भी प्रत्यक्षान्तर्गत क्यों न माना जाय ? तो यह नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि ‘तू है’ इसका प्रत्यक्ष होने पर भी ‘तू दसवाँ है’ यह ज्ञान वाक्यजन्य ही है यदि ‘तू दसवाँ है’ इसको प्रत्यक्ष का विषय माना जाय तो फिर तुम धर्मवान् हो ? इस वाक्यजन्य ज्ञान का भी प्रत्यक्षत्व स्वीकारना होगा ? और उसको स्वीकार करने में अतिप्रसंग होगा ? अतएव ‘तत्त्वमसि’ यह वाक्य भी अपरोक्ष ज्ञान का जनक नहीं है ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० – ‘दशमस्त्वमसि’ तथा तत्त्वमसि’ ये वाक्य अपरोक्ष ज्ञान के जनक नहीं हैं - अद्वैती विद्वान् मानते हैं कि ‘तत्त्वमसि’ यह वाक्य अपरोक्ष तत्त्वज्ञान का जनक है । अपने इस कथन की पुष्टि वे एक आख्यायिका के माध्यम से करते हुए कहते हैं । दस व्यक्ति कहीं गये । लौटते समय लोगों ने सोचा हम लोग अपने को गिन तो लें । प्रत्येक व्यक्ति अपने से भिन्न नव व्यक्तियों को गिनता था, किन्तु उसे दसवें व्यक्ति का पता नहीं चलता था, अतएव वे सब उदास हो गये । उनकी उदासी के कारण को जानने वाले उपदेशक पुरुष ने गिनने वालों को समझाते हुए कहा – अरे, ‘दसवाँ तू ही है ।’ इस बात को सुनकर उस व्यक्ति को अपरोक्ष ज्ञान हो गया कि दसवीं मैं ही हूँ । किस तरह यह लौकिक वाक्य अपरोक्ष ज्ञान का जनक है, उसी तरह ‘तत्त्वमसि’ यह वाक्य भी अपरोक्ष ज्ञान का जनक है ।
अद्वैती विद्वानों की इस मान्यता का प्रत्याख्यान करते हुए विशिष्टाद्वैती कहते हैं कि न तो ‘दशमस्त्वमसि’ यह वाक्य अपरोक्ष ज्ञान का जनक है और न तो ‘तत्त्व- मसि’ यह वाक्य । क्योंकि ‘दशमस्त्वमसि’ इस वाक्य के ‘त्वम्’ के अर्थ का तो श्रोता स्वात्मरूप से साक्षात्कार करता है, किन्तु दशमत्व का वह साक्षात्कार नहीं करता । दशमत्व ज्ञान तो शब्दजन्य होता है । यदि दशमत्व ज्ञान को भी प्रत्यक्षजन्य माना जाय तो ‘तुम धर्मवान् हो’। इस वाक्य को सुनकर श्रोता को अपनी धार्मिकता का भी
[[३२]]
साक्षात्कार होना चाहिए । किन्तु धर्म का साक्षात्कार कोई भी नहीं स्वीकार करता है । इसी तरह ‘तत्त्वमसि’ इस वाक्य से भी अपरोक्ष ज्ञान नहीं माना जा सकता है, क्योंकि श्रोता श्वेतकेतु को अहमर्थ का तो साक्षात्कार होता है, किन्तु अपने ब्रह्मात्म- कत्व का ज्ञान तो शास्त्रों के द्वारा ही होता है । अतएव वह ज्ञान शाब्द ही है, अपरोक्ष नहीं ।
आदिदेवानन्दः (En)
- ‘Now, why should not the apprehension derived from “Thou art the tenth” be treated as per- ception ?’ 2 If this be asked, the reply is no; for, though ’thou’ is a perceptual cognition, ’the tenth I am’ is sentence-generated cognition. If it be insisted that ‘Thou art the tenth’ must be treated as an object of perceptual cognition, then (by the same logic) “Thou art meritorious’ also must come under perception.63 If that be admitted, then it will be an extra-ordinary stretch of a rule! Hence knowledge generated from such a sentence as ‘Thou art That’ is not immediate.
मूलम्
३६. ननु “दशमस्त्वमसि” इत्येतदपि प्रत्यक्षं किं न स्यात्? इति चेत्, न । “त्वम्” इत्येतस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि “दशमोऽहम्” (दशमोऽसीत्येतस्य) इत्यस्य वाक्यजन्यत्वात् । यदि “दशमोऽहम्” (दशमोऽसि) इत्यस्य प्रत्यक्षविषयत्वं तर्हि “धर्मवाँस्त्वमसि” इत्येतस्यापि प्रत्यक्षत्वं स्यात् । अङ्गीकारे अतिप्रसङ्गात् । अत एव ‘तत्त्वमसि’ इति वाक्यस्य नापरोक्षज्ञानजनकत्वम् ।
वासुदेवः
ननु यदि जातिर् एव भेदस्-तर्हि तस्य प्रतियोग्यपेक्षा न स्याद् इति चेद् इष्टम्-एवैतत् । कथं तर्हि सा लोके इत्यत आह — भेद इति व्यवहार इति । धर्मवान् इति । न च धर्मस्यातीन्द्रियत्वान् न प्रत्यक्षम् इति वाच्यम् । तथा ऽप्ययं पर्वतः परभागे वह्निमान् इत्य् उपदेश-जन्य-ज्ञानस्य वह्न्यंशे प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्। न च वह्निमत्त्वेन पर्वतस्य प्रत्यक्ष-विषयत्वम् असिद्धम् इति वाच्यम्। अत्रापि दशमत्व-विशिष्टाकारेण प्रत्यक्ष-विषयत्वासिद्धेः। एतेन तत्त्वमसीति वाक्यं स्वार्थ-प्रत्यक्ष-ज्ञान-जनकं स्वतः प्रत्यक्षार्थ-विषयत्वाद् दशमस्त्वमसीत्य् आदिवाक्यवद् इत्य् अनुमानं निरस्तम्। तदेवा ऽह — अत एवेति ।
अद्वैतिनां नैयायिकानाञ्च मतखण्डनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
३७. एतेन
प्रत्यक्ष-प्रमा-करणम् प्रमाणम् ।
प्रमा च (चात्र) आत्म-चैतन्यम् एव ।
चैतन्यं च त्रिविधम् –
अन्तः-करणावच्छिन्न-चैतन्यम् +++(प्रमाता)+++,
अन्तः-करण-वृत्त्य्-अवच्छिन्न-चैतन्यम् +++(प्रमाणम्)+++,
विषयावच्छिन्न-चैतन्यं +++(प्रमेयम्)+++ चेति ।
यदा त्रयाणाम् +++(इन्द्रिय-द्वारा निर्गत्य विषय-देशे)+++ ऐक्यं
तदा साक्षात्-कारः +++(=प्रत्यक्षम्)+++ ।
सोऽपि (तदपि) निर्विशेष-विषय (निर्विशेषविषयम्) एव,
अभेदम् एव गृह्णाति,
+++(भेदस्तु भ्रान्त्यैव, न प्रमया)+++
इत्य्-आदि-कु-दृष्टि-कल्पना निरस्ता
+++(मन एव संसृजति, नात्मेति)+++।
अण्णङ्गराचार्यः
अद्वैतिना प्रत्यक्ष-निरूपण-प्रक्रियां निरस्यति **‘एतेने’**ति ।
एकमेव चैतन्यं त्रिधा भवत्य् उपाधि-भेदात्
अन्तःकरणावच्छिन्न-प्रमाता, अन्तःकरण-वृत्त्य्-अवच्छिन्न-प्रमाणं, विषयावच्छिन्नं प्रमेयम् इति ।
प्रत्यक्ष-स्थले त्रयाणाम् एकत्वं भवति ।
एक-देशस्थोपाधेर् उपधेयाभेदकत्वात् ।
चक्षुर्-आदि-द्वारा ऽन्तः-करणस्य विषयदेशं गत्वा
विषयाकार-परिणामो भवति ।
इयम् एव वृत्तिः ।
वृत्त्य्-अवच्छिन्न-विषयावच्छिन्न-चैतन्ययोर् ऐक्ये प्रत्यक्ष-ज्ञानत्वम्
इति तेषां कल्पना ।
तद् अपि प्रत्यक्षं सन्-मात्र-विषयम् अभेदम् एव गृह्णाति,
न तु भेदम्,
भेदस्तु भ्रान्त्यैव सिद्ध्यति,
न तु प्रमयेति तदाशयः ।
**‘निरस्ते’**ति अद्वैत-परिरक्षण-श्रद्धामूलेयं कल्पना
आकरे श्रीभाष्यादौ प्रतिक्षिप्तेत्य् अर्थः ।
इन्द्रियाणां हि चरता
यन् मनोऽनुविधीयते ।
तद् अस्य हरति प्रज्ञाम् । ( गी)
इन्द्रियाणां हि सर्वेषां
यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् ।
तेनास्य क्षरति प्रज्ञा (मनु)
इत्यादि-प्रमाण-सिद्ध-ज्ञानस्यैवात्म-धर्मस्य (प्रमाणादिसिद्धं)
मन-इन्द्रिय-द्वारा विषयैस् संयुज्य
तत्-प्रकाशकत्वम्
इति सिद्धान्तिभिः स्वीकृतम् ।
इति ज्ञेयम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - इस प्रतिपादन से स्पष्ट हो गया कि
प्रत्यक्ष प्रमा के साधकतम को प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं ।
यहां पर प्रमा शब्द से चैतन्य को ही कहा गया है ।
चैतन्य भी तीन प्रकार का होता है— अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य, अन्तःकरणवृत्त्यवच्छिन्न चैतन्य तथा विषयावच्छिन्न चैतन्य ।
इन तीनों चैतन्यों की एकता होने पर ही साक्षात्कार होता है ।
उस प्रत्यक्ष का विषय भी निर्विशेष पदार्थ होता है ।
वह ( प्रत्यक्ष ) अभेदमात्र का ग्राहक होता है, इत्यादि
कुदृष्टि कल्पनाओं का खण्डन किया गया ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - अद्वैती विद्वान् प्रत्यक्ष प्रमाण को
प्रत्यक्ष प्रमा का करण रूप वे बतलाकर
प्रमा को चैतन्यमात्र बतलाते हैं ।
वह चैतन्य निर्विशेष है ।
पुनः चैतन्य का तीन भेद मानते हैं—-
अतः करणावच्छिन्न चैतन्य, विषयावच्छिन्न चैतन्य तथा अन्तःकरणवृत्त्यवच्छिन्न चैतन्य ।
किसी भी विषय का प्रत्यक्ष तब होता है
जब कि तीनों चैतन्य एक होते हैं ( मिल जाते हैं ) ।
किञ्च अद्वैती विद्वान् प्रत्यक्ष को निर्विशेष वस्तु का ग्राहक बतलाते हैं ।
उसके द्वारा वस्तु की जाति आदि भेदों का ग्रहण नहीं होता है,
किन्तु ये सभी बातें अद्वैती विद्वानों की कुदृष्टिजन्य कल्पनामात्र हैं ।
अतएव विशिष्टाद्वैत दर्शन में
उनकी इनमें से कोई भी मान्यता नहीं स्वीकारी जाती ।
आदिदेवानन्दः (En)
- By what has been said, the (following) dis- torted views are hereby refuted:64
‘Pramāņa is that which is the instrument of valid perceptual knowledge; (that) valid knowledge is but consciousness. Conscious- ness is of three kinds: consciousness limited by the internal organ, consciousness limited by the activity (vṛtti) of the internal organ, and consciousness limited by the content. When all the three kinds of conscious- ness become one, then there is immediate apprehen- sion; and that (sākṣatkāra) has for its object that which is devoid of any difference; it comprehends non- difference only. '
मूलम्
३७. एतेन प्रत्यक्षप्रमाकरणम् प्रमाणम् (प्रत्यक्षप्रमाणम्) । प्रमा (चात्म) च (चात्र) आत्मचैतन्यमेव (चैतन्यमेव) । चैतन्यं च त्रिविधम् – अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यम्, अन्तःकरणवृत्त्यवच्छिन्नचैतन्यम् (वृत्त्यवच्छिन्नचैतन्यं), विषयावच्छिन्नचैतन्यं चेति । यदा त्रयाणामैक्यं तदा साक्षात्कारः । सोऽपि निर्विशेष-विषय (तदपि निर्विशेषविषयम्) एव अभेदमेव गृह्णातीत्यादिकुदृष्टिकल्पना निरस्ता ।
वासुदेवः
प्रत्यक्षमिति । मायावादिनां मतमेतत्। आत्म-चैतन्यम् एवेति । अत्र प्रमाणं ‘यत् साक्षाद् अपरोक्षाद् ब्रह्म’ (बृ० ३।४।१) इति श्रुतिः। अपरोक्षादित्यस्यापरोक्षम् - इत्य् अर्थः। ब्रह्मणः प्रमाण-व्यापार-द्वारकं प्रत्यक्षत्वं व्यावर्तयितुं श्रुतौ साक्षाद् इति विशेषणम्। अन्तःकरणावच्छिन्नम् इति। इदं प्रमातृ-चैतन्यम् इति व्यवह्रियते। अन्तःकरण-वृत्त्यवच्छिन्नम् इति। इदं विषय-चैतन्यम् इति व्यवह्रियते । विषयावच्छिन्नम् इति। इदं विषय-चैतन्यम् इति व्यवह्रियते। प्रयाणामैक्यमिति । यथा तडागोदकं छिद्रान्निर्गत्य कुल्यात्मना केदारान् प्रविश्य तद्वदेव चतुष्कोणाद्याकारं भवति तथा तैज-समन्तःकरणम् अपि चक्षुरादिद्वारा घटादि-विषय-देशं गत्वा घटादि-विषयाकाद्याकारेण परिणमते । स एव परिणामो वृत्तिर् इत्य् उच्यते । तत्र च घटादेस्तदाकारवृत्तेश् च बहिर् एकत्र देशे समवधानात्तदुभयावच्छिन्नं चैतन्यमेकम् एव । विभाजकयोर् अप्य् अन्तःकरण-वृत्ति-घट-विषययोर् एकदेशस्थत्वेन भेदाजनकत्वात्। अत एव मठान्तर्वर्ति-घटावच्छिन्नाकाशो न मठावच्छिन्नाकाशाद् भिद्यते । तथा चायं घट इत्य् आदि-प्रत्यक्ष-स्थले घटाकार-वृत्तेर् घट-संयोगितया घटावच्छिन्न-चैतन्याद् वृत्त्यवच्छिन्न-चैतन्यस्याभिन्नतया घटज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वम् इति वेदान्त-परिभाषायामुक्तम्। निर्विशेषा-विषय इति। घटो ऽस्तीत्य् अत्रास्तित्वं तद् भेदश् च व्यवह्रियते। तत्र द्वयोरपि व्यवहारयोः प्रत्यक्ष-मूलत्वं न संभवति। अस्तित्व-व्यवहार-प्रयोजक-घट-स्वरूप-प्रत्यक्षानन्तरं घटेतरस्मृतौ सत्यां तादृशेतर-प्रतियोगिक-भेद-प्रत्यक्ष-संभवेन तयोर् भिन्न-कालज्ञान-फलत्वात्। प्रत्यक्ष-ज्ञानस्यैकक्षणवर्त्तित्वात्। तत्र प्रत्यक्षस्य प्राथमिकं स्वरूप-विषयकत्वम् अवश्याश्रयणीयम् इति न भेदः प्रत्यक्षेण गृह्यते। किं तु निर्विशेष-सन्मात्रम् एवेति तदाशयः।
विश्वास-प्रस्तुतिः
३८.
निर्विकल्पकं (निर्विकल्पकं तु) नाम-जात्य्-आदि-योजना-हीनं वस्तु-मात्रावगाहि
“किञ्चिद् इदम्”
इत्यादि-नैयायिक-मतम् अपि निरस्तम् । +++(“किञ्चिद् इदम्” इत्य् अपि नामादिविशेषानवगाहि वस्तुत्वादि-सामान्यावगाह्येवेति)+++।
अण्णङ्गराचार्यः
तार्किकमतं निरस्यति **‘निर्विकल्पक’**मिति ।
योजना-हीनम् - सम्बन्धानवगाहि ।
सामान्येन वा विशेषेण वा केनचिद् धर्मेण
विशिष्टम् एव चक्षुस्-संनिकृष्टं गृह्यते ।
न तु वस्तु-मात्रम् ।
अननुभवात् तथा ।
“किञ्चिद् इदम्” इत्य् अपि नामादिविशेषानवगाहि वस्तुत्वादि-सामान्यावगाह्येवेति सिद्धान्तिनाम् आशयः ।
निर्विकल्पक-समाधाव् अपि सविशेषम् एव ध्येय-वस्त्व्-अवभासते ।
‘प्रकाशादिवच् चावैशेष्यम्’ (ब्र. मी.) इति सूत्रे स्पष्टो ऽयम् अर्थः ।
ध्येयेन तन्-मयीभावात् भावना-प्रकर्षतः
सविकल्पक इव ध्यातृ-ध्यानयोः न स्फुट-विविक्तावभासो निर्विकल्पके ।
सविकल्पके पुनस् त्रिपुटी भासते इति विवेकः ।
शिवप्रसादः (हिं)
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष
नाम एवं जाति आदि के संबन्ध से रहित
वस्तुमात्र का ग्राहक होता है ।
निर्विकल्पक - प्रत्यक्ष में
‘यह कुछ है’
इस प्रकार का ज्ञान होता है,
इस तरह के नैयायिकों के मत का खण्डन किया गया ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
इसी तरह नैयायिक भी मानते हैं कि
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा
नाम, जाति आदि के संबन्ध से रहित
वस्तुमात्र का ग्रहण होता है।
इस प्रत्यक्ष में ‘यह कुछ है’ इतना ही मात्र ज्ञात हो पाता है।
यह क्या है, इसका नाम क्या है ?
इत्यादि का ज्ञान नहीं होता ।
अतएव नैयायिकों के निर्विकल्पक - प्रत्यक्ष विषयक इस मान्यता का भी
सिद्धान्त में खण्डन किया जाता है ।
[[३३]]
आदिदेवानन्दः (En)
- The Naiyayika viewes that the non-deter- minate cognition is the apprehension of the mere object divested of all (qualifications) such as genus etc. is also refuted. [[२०]]
मूलम्
३८. निर्विकल्पकं (निर्विकल्पकं तु) नाम जात्यादियोजनाहीनं वस्तुमात्रावगाहि किञ्चिदिदमित्यादि- (किञ्चिदिदमिति) नैयायिकमतमपि निरस्तम् ।
वासुदेवः
निरस्तम् इति। निर्विकल्पकम् अपि सविशेष-विषयम् एव। तस्य सविकल्पके स्वस्मिन्ननुभूत-पदार्थ-विशिष्ट-प्रतिसंधान-हेतुत्वात्। निर्विकल्पकं न सविशेष-रहितस्य ग्रहणम्। तथाभूतस्य कदाचिद् अपि ग्रहणायोगात्। अनुपपत्तेश् च। केनचिद् विशेषेणेदमित्थम् इति सर्वा प्रतीति-रूप-जायते । किंतु गुण-संस्थानादि विशिष्ट-प्रथम-पिण्ड-ग्रहणम् एव निर्विकल्पकम् । तथैव प्राग् उक्तम् ।
नैयायिकानां बहिष्कारपक्षः
विश्वास-प्रस्तुतिः
३९. ननु “काणादम् पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्” इत्य् उक्तत्वात्
कथं गौतम-मत-निरासः?
इति चेत्, उच्यते ।
(न खलु) नास्माभिः कार्त्स्न्येनास्य मतस्य निरासः क्रियते ।
यावद् इह युक्ति-युक्तं तावत् स्वीक्रियते ।
पर-कल्पित-तटाकोपजीवनवत् ।
न खलु तटाकस्थः पङ्कोऽपि स्वीक्रियते ।
अण्णङ्गराचार्यः
‘काणादम्’ इति गोतमीयस्याप्य् उपलक्षणम् - तर्कशास्त्रम् ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - प्रश्न उठता है कि वैशेषिक (न्याय) तथा व्याकरणशास्त्र सभी शास्त्रों के उपकारक है, इस सूक्ति के रहते आप गौतम के मत का खण्डन कैसे करते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि हम लोग पूर्णरूप से गौतम के मत का खण्डन नहीं करते; अपितु गौतम के मत का जितना अंश युक्तिसंगत है, उतना ही स्वीकार करते हैं, दूसरे के द्वारा बनाये गये सरोवर के जल के समान । प्यासा व्यक्ति उस सरोवर के जल मात्र को पीता है, उसके कीचड़ को भी वह नहीं पी लेता, वैसे ही हम गौतम के मत के असंगत विचारों को स्वीकार नहीं करते हैं ।
आदिदेवानन्दः (En)
- ‘Now, how is the school of Gautama66 refutis the school of Gautamas re ed ? For, it has been said that the schools of Kanāda67 and Panini64 are helpful (to the understanding of) every branch of knowledge”. If this be said, it is replied: that school is not refuted by us in toto. Whatever is amenable to reason that is accepted by us, like the subsistence derived from the tank built by others, but not the mire in it.
मूलम्
३९. ननु “काणादम् पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्”
इत्युक्तत्वात् कथं गौतममतनिरासः? इति चेत्, उच्यते । नास्माभिः (न खलु) कार्त्स्न्येनास्य मतस्य निरासः क्रियते । यावदिह युक्तियुक्तं तावत्स्वीक्रियते । परकल्पिततटाकोपजीवनवत् न खलु तटाकस्थः पङ्कोऽपि स्वीक्रियते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
४०. अतः परमाणु-कारणत्व–वेद-पौरुषेयत्वेश्वरानुमानिकत्व–जीव-विभुत्वानि,
सामान्य-समवाय-विशेषाणाम् (सामान्यविशेषसमवायानां) पदार्थत्वेन स्वीकारः,
उपमानादेः पृथक् प्रमाणत्व-कल्पनम्,
सङ्ख्या-परिमाण-पृथक्त्व–परत्वापरत्व-गुरुत्व-द्रवत्वादीनाम् (विभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वादीनां) पृथक् गुणत्व-कल्पनम्,
दिशोऽपि द्रव्यत्व-कल्पनम् इत्य्-आदि-सूत्र-कारादि-विरुद्धा प्रक्रिया
नास्माभिः स्वीक्रियते
इति न विरोधः ।
अण्णङ्गराचार्यः
**‘सूत्र-कारादी’**ति ।
परमाणु-कारणत्व-समवायाभ्युपगमयोः खण्डनं
महद्दीर्घाधिकरणे कृतं ब्रह्मसूत्रकृद्भिः ।
आनुमानिकत्वम् ईश्वरस्य प्रतिषिद्धं “शास्त्र-योनित्वाद्” इत्य्-अत्र ।
वेदानां नित्यत्वस्य देवताधिकरणे प्रतिपादितत्वात् -तत्-पौरुषेयत्ववादः प्रतिक्षिप्तः ।
उत्क्रान्त्य्-आदिभिर् जीवात्मनाम् अणुत्व-स्थापनात् तद्विभुत्व-पक्षोऽपि तार्किकाभिमतो निरस्तम् इत्य् अनुसन्धेयम् ॥
शिवप्रसादः (हिं)
अतएव हम वैशेषिकों के परमाणुकारणवाद, वेदों की अपौरुषेयता, ईश्वर का अनुमानप्रमाण समधिगम्यत्व, जीवों को विभु मानना, सामान्य ( जाति ) विशेष तथा समवाय को पृथक्-पृथक् पदार्थं मानना, उपमान आदि को पृथक प्रमाण मानना, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व तथा द्रवत्व आदि के पृथक्-पृथक् गुण की कल्पना करना, दिशा को भी एक स्वतंत्र द्रव्य स्वीकार करना, ये सभी सूत्रकार आदि के विरुद्ध प्रक्रियाएँ हैं । अतएव हम इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं ।
सूत्रकार इत्यादि की अनुकूल मान्यताओं को तो हम स्वीकार करते ही हैं । अतएव परिहार में भी कोई विरोध नहीं है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Hence there is no contradiction in our reject- ing the (following) views which are against the opinion of the Sūtrakāra and others: the causation (of the uni- verse) by atoms 69; the personal origin of the Vedas70; proving (the existence of) Iśvara by inference 71; the pervasiveness of the individual self”; acceptance of generality, inherence and particularity as categories73; to regard ‘comparison’ as a separate pramāna74; [[२१]] consider number, size, separateness, remoteness, proxi- mity, weight, fluidity, etc. as separate attributes75; to regard ‘direction’ as a separate substance etc.
मूलम्
४०. अतः परमाणुकारणत्ववेदपौरुषेयत्वेश्वरानुमानिकत्वजीवविभुत्वानि, सामान्यसम-वायविशेषाणाम् (सामान्यविशेषसमवायानां) पदार्थत्वेन स्वीकारः, उपमानादेः पृथक् प्रमाणत्वकल्पनम्, सङ्ख्या- परिमाणपृथक्त्वपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वादीनाम् पृथक् गुणत्वकल्पनम्, दिशोऽपि द्रव्यत्वकल्पनमित्यादिसूत्रकारादिविरुद्धा प्रक्रिया (विरुद्धप्रक्रिया) नास्माभिः स्वीक्रियते इति न विरोधः ।
वासुदेवः
परमाणुकारणत्वेति । इदम् अग्रे चतुर्थे ऽवतारे वक्ष्यते। वेद-पौरुषेयत्वेति । ननु वेद-वाक्यं सकर्तृकं वाक्यत्वाद् अस्मदादि-वाक्यवद् इत्य् अनुमानेन तस्य पौरुषेयत्वं सिध्यतीति चेन् न । अनुग्राहक-तर्काभावेनास्य हेतोर् अप्रयोजकत्वात् । वाचा विरूप-नित्ययेति श्रुति-विरोधेन कालत्ययापदिष्टत्वाच् च । कर्तृस्मरणाभावाच् च तस्यापौरुषेयत्वम्। न च जीर्ण-कूपारामादिषु व्यभिचार इति वाच्यम्। उपदेश-पारम्पर्येण स्मर्तव्यत्वे सत्य-स्मरणस्य कर्त्र-भाव-नियतत्वात्। वेदस्याकर्तृकत्वमिति परमर्षिणवादाच् च। ननु सर्व-वेद-कर्तरि भगवति विद्यमाने ऽपि मन्वादयस्तदनुविधायिनश् च वेदवत्कारमपलपन्तीति वाच्यम्। तेषां तदपलापे प्रयोजनाभावात्। न हि सत्य-निष्ठास् तादृशा महात्मानो भगवन्तम् अप्य् अपलपन्तीति संभवति। न च नित्यस्य वेदस्य स्फ्य-कपालादिभिर् अनित्यैः कथं योग इति वाच्यम् । स्फ्य-कपाल-पुरोडाशादीनाम् अपि साजात्येनानादित्वात्। न चैवं ‘प्रतिमन्वन्तरं चैषा श्रुतिर् अन्या विधीयते’ इत्य् उक्तिर् असंगतेति वाच्यम् । अनादि सिद्धानां वेदांशानामनन्तत्वात् कस्मिंश्चिन् मन्वन्तरे कश्चिद्वेदांशः प्रवर्तत इति तद् अभिप्रायात्। ऋचः सामानि-जज्ञिर इति श्रुतिस् तु प्रादुर्भाव-मात्र-परा। ईश्वरानुमानिकत्वेति। ननु क्षित्य्-अङ्कुरादि सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवद् इत्य् अनुमानात् तत्-सिद्धिर् इति चेन् न। तथा सति सपक्षे यादृक् साध्यम् अवगतं तादृग् एव पक्षे स्यात्। न हि पर्वते ऽनुमीयमानो वह्निर् उष्णत्वम् अपहाय सिध्येत्। तथा च स कर्ता कर्तृ-व्यापक-कार्य-करण-कर्मादिमान् स्यात्। स चानिष्टः। अधिकं तत्त्व-मुक्ताकलापे (३। १८) द्रष्टव्यम्। नन्वेवम् ईश्वरानुमान-दूषणे -
विद्याचारो गुरु-द्रोही वेदेश्वर-विदूषकः। त एते बहु-पाप्मानः सद्यो दण्ड्या इति श्रुतिः॥
इति शास्त्र-विरोधः स्याद् इति चेन् न। अनुमान-दूषणे ऽप्य् आगमात् तत्-सिद्धेः। अन्यथा ऽस्मदादि-प्रत्यक्ष-वेद्यत्व-निषेधेन तवापि तद्-दूषकत्व-प्रसङ्गः।
आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यास-रसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगम् उत्तमम्॥
इत्याप्तोक्ताव् अनुमान-पदं मनन-परम् इति बोध्यम्। जीव-विभुत्वेति। इदम् अग्रे जीव-निरूपणे वक्ष्यते। सामान्येति। इदम् अपि प्रमेय-निरूपणारम्भे वक्ष्यते। उपमानादेर् इति। इदम् अनुमान-निरूपणे वक्ष्यते। संख्येति। इदं गुण-निरूपणे वक्ष्यते। दिशो ऽपीति। इदम् आकाश-निरूपणे वक्ष्यते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन विरचितायां यतीन्द्रमतदीपिकायाम् प्रत्यक्षनिरूपणम् नाम प्रथमोऽवतारः ॥
शिवप्रसादः (हिं)
इस प्रकार हारीत - कुलतिलक श्रीमन्महाचार्य के प्रथम शिष्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा प्रणीत यतीन्द्रमतदीपिका नामक शारीरक - परिभाषा का प्रत्यक्ष- निरूपण नामक प्रथम अवतार पूर्ण हुआ ॥। १॥
आदिदेवानन्दः (En)
Here ends the first ‘avatara’ on pratyakṣa of Yatindramatadipika composed by Srinivasadāsa, the foremost disciple of Sriman wh Mahācārya, an ornament in the line of Sri Vadhūlas
मूलम्
इति श्रीवाधूलकुलतिलकश्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन विरचितायां यतीन्द्रमतदीपिकायाम् प्रत्यक्षनिरूपणम् नाम प्रथमोऽवतारः ॥
वासुदेवः
इति श्री यतीन्द्र-मत-दीपिका-प्रकाशे प्रथमो ऽवतारः॥ १॥