०६ करणपदार्थविवेचनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

१०. साधकतमं करणम्
अतिशयितं साधकं साधकतमम् ।
यस्मिन् सति अविलम्बेन ज्ञानम् उत्पद्यते
तत् “अतिशयितम्” इत्युच्यते ।

तेन प्रमा-करणम् प्रमाणम् इति सिद्धम् ।

अण्णङ्गराचार्यः

अनधिगतेति । अज्ञातार्थज्ञानजनकप्रमाण-प्रमाकरणमित्यर्थः ।
यद्वा प्रमाणमिति भावल्युडन्तम् । गन्तृ-गमक, प्रकाशकम् । अज्ञातार्थप्रकाशकं ज्ञानं प्रमेत्यर्थः । सौगताद्यभिमतमज्ञातार्थज्ञानं प्रमेति लक्षणं स्मृतौ धारावाहिकद्वितीयादिज्ञाने चाव्याप्तम् । अपरोक्षानुभवः प्रमेति चानुमित्यादावव्याप्तमिति बोध्यम् । साक्षात्कारि-लौकिकविषयिताशालि, विशदावभासात्मकम्, यद्वा अनुमितित्वशाब्दत्वस्मृतित्वरहितम् (ज्ञानम्) । सप्रत्यवमर्शमिति । सप्रतिसन्धानमित्यर्थः । तत्तोल्लेखीति वा । अनुपपत्तेः - केनचिद्धर्मेण विना वस्तुनो ग्रहणायोगात् । प्राप्यकारित्वेति । सम्बध्यार्थेन तत्प्रकाशरूपकार्यकरत्वमिन्द्रियाणामिति नियमादित्यर्थः । संयुक्ताश्रयणम् इन्द्रियसंयुक्तद्रव्याश्रितत्वम् । योग्येऽर्थे इन्द्रियसन्निकर्षः प्रत्यक्षहेतुः इति च बोध्यम् । अर्वाचीनजन्यम् । अनर्वाचीनमजन्यम् । प्रसङ्गादिति । जन्यप्रत्यक्षस्यैव प्रमाणनिरूपणं प्रकृतम् । अजन्यस्य तु प्रत्यक्षस्य स्मृतस्योपेक्षानर्हत्वादत्र निर्देशः कृत इत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - साधकतम साधन को करण कहते हैं । कार्य जो सर्वोत्कृष्ट साधन होता है, उसे साधकतम कहते हैं । जिस साधन का प्रयोग होते ही कार्य हो जाता है, उसे अतिशयित अर्थात् सर्वोत्कृष्ट साधन कहते हैं । इस तरह प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं, यह सिद्ध हुआ ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० – प्रमाण का लक्षण करते हुए ग्रन्थकार ने प्रमा के करण को प्रमाण कहा है । उपर्युक्त अनुच्छेद में प्रमा का विवेचन किया जा चुका है। अतएव यहाँ पर करण पदार्थ का निरूपण करते हुए उन्होंने बतलाया कि साधकतम को करण कहते हैं । अब प्रश्न है कि साधकतम किसे कहते हैं तो इसका उत्तर वे देते हैं कि कार्य के अतिशयित साधन ( हेतु ) को साधकतम कहते हैं । साधक शब्द से यहाँ पर सर्वोत्कृष्ट अर्थ में ‘अतिशायने तमबिष्टनी’ ( अष्टाध्यायी ५।३।५५ ) सूत्र से तमप् प्रत्यय होकर साधकतम शब्द बना है । इसका अर्थ है कार्य के सम्पादक अनेक साधनों में सर्वोत्कृष्ट साधन । इसीलिए कहा गया कि जिस साधन का प्रयोग होते ही अवि- लम्ब कार्य उत्पन्न हो जाय, उसे अतिशयित साधन कहते हैं ।

आदिदेवानन्दः (En)
  1. The instrument (karana) is that which is the best cause (for the production of prama). 34 The best cause is that which is most important. It is said that (instrument) is ‘most important’ by which knowledge arises without delay. Hence it is established pramāṇa is the cause of valid knowledge.
मूलम्

१०. साधकतमं करणम् । अतिशयितं साधकं साधकतमम् । यस्मिन् सति अविलम्बेन ज्ञानमुत्पद्यते तत् “अतिशयितम्” इत्युच्यते । तेन प्रमाकरणम् प्रमाणमिति सिद्धम् ।

धर्मराजाध्वरीन्द्रकृत-प्रमालक्षणखण्डनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनधिगतार्थ–गन्तृ प्रमाणम् इत्यादिकं तु
तत्-तद्-वादिभिर् एव निरस्तत्वाद् अनादरणीयम् ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - अज्ञात अर्थ का बोधक प्रमाण होता है, इत्यादि प्रमाण लक्षण तो विभिन्न वादियों के द्वारा ही खण्डित होने के कारण अनादरार्ह हैं ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० - वेदान्तपरिभाषाकार-कृत प्रमा के लक्षण का खण्डन - ‘अनधिगतार्थ- गन्तृप्रमाणम्’ इस वाक्य का विग्रह इस प्रकार है- ‘न अधिगतः अनधिगतः, अज्ञात इत्यर्थः । अनधिगतश्वासो अर्थः अनधिगतार्थः, अनधिगतम् अर्थं गच्छति यत् तत् ज्ञानं प्रमाणम् ।’ यहाँ पर अनधिगत पद को अबाधित का भी उपलक्षण मानना चाहिए । प्रमाण शब्द में भी ‘पूर्वं धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात् प्रत्ययेन’ इस नियम के अनुसार ‘प्रमा’ शब्द से ‘ल्युट् च’ ( अष्टाध्यायी ३।३।११५ ) सूत्र से भाव में ल्युट् प्रत्यय मानना चाहिए। इस तरह उक्त वाक्य का अर्थ यह हुआ कि अज्ञात एवं अबाधित विषयों के ज्ञान को प्रमा कहते हैं । इस वाक्य के द्वारा यतीन्द्रमतदीपिका- कार को वेदान्तपरिभाषाकार के— ‘अनधिगताबाधित विषयज्ञानत्वम्’ इस प्रमा के

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लक्षण का खण्डन अभिप्रेत है । यतीन्द्रमतदीपिकाकार के अभिप्रेतार्थ को समझने के पूर्व वेदान्तपरिभाषाकार के उक्त लक्षण का अभिप्राय ठीक से समझना आवश्यक है । कुछ अद्वैती विद्वान् स्मृति को प्रमा नहीं मानते हैं । अतएव स्मृति में प्रमा की अतिव्याप्ति के वारण के लिए अनधिगत पद का लक्षण में सन्निवेश किया गया है । स्मृति तो अनुभूत अर्थ की ही हुआ करती है, अतः वह अधिगत अर्थविषयिणी है । किन्तु अज्ञातार्थमात्र के ज्ञान को प्रमा मानने पर शुक्ति में होने वाले रजत-भ्रमस्थल में लक्षण की अतिव्याप्ति होगी । शुक्ति-रजत में अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए ही अबाधित पद को विषय का विशेषण बनाया गया । शुक्ति में होने वाला रजत- ज्ञान बाधित होता है, अत एव वह अबाधित विषय का ज्ञान नहीं है । फलतः अब शुक्तिरजत में लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं होगी । यहाँ पर यदि कोई यह कहें कि अनधिगत विषयमात्र के ज्ञान को प्रमा मानने पर धारावाहिक बुद्धिस्थल में लक्षण की अव्याप्ति होगी । एक ही वस्तु का अनेक क्षणों तक ‘अयम् घटः, अयम् घटः’ इत्यादि प्रकार से होने वाले ज्ञानस्थल को धारावाहिकबुद्धिस्थल ज्ञान कहते हैं । ऐसे स्थल में अनेकक्षण - पर्यन्त ज्ञान की एक ही प्रकार की धारा प्रवाहित होती रहती है । यहाँ पर प्रथम क्षण में जो घटज्ञान होता है, द्वितीयादि क्षणों में भी वही घटज्ञान होता है, अत एव वह ज्ञान अनधिगत वस्तुविषयक न हो सकने के कारण प्रमा नहीं हो पायेगा । किन्तु धारावाहिकबुद्धिस्थल में होने वाले ज्ञान को अप्रमा नही माना जाता । फलतः यह अव्याप्त लक्षण होगा । तो इस आक्षेप का उत्तर देते हुए वेदान्तपरिभाषाकार कहते हैं कि यह दोष होना तो तव संभव है जब कि काल का साक्षात्कार हम नहीं मानते । जिस तरह नैयायिक नीरूप रूप का भी चाक्षुषत्व मानते हैं, उसी तरह हम नीरूप काल का भी चाक्षुष्प्रत्यक्ष स्वीकार करते

। अतएव प्रथम क्षण में होने वाला ‘अयम् घट: ’ यह प्रत्यक्ष ज्ञान द्वितीय क्षण में होने वाले ‘अयम् घट:’ इस ज्ञान के पूर्व ही विनष्ट हो गया रहता है । इस तरह तृतीयादि क्षणों में होने वाले ज्ञान के विषय में भी समझना चाहिए । फलतः धारा- वाहिकबुद्धिस्थल में भी प्रत्येक क्षण में होने वाला ज्ञान नवीन नवीन ही होने के कारण अनधिगतार्थविषयक ही होता है, अधिगतार्थविषयक नहीं । अतएव उक्त लक्षण में अत्र्याप्ति दोष की शंका नहीं की जा सकती है ।

किन्तु वेदान्तपरिभाषाकार के इस लक्षण का खण्डन विभिन्न वादियों ने किया है। उन वादियों का कहना है कि प्रमा के इस लक्षण को अव्याप्ति दोष से रहित नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा काल के सूक्ष्म भेदों का साक्षात्कार असम्भव है । सूक्ष्मकाल के भेदों का भी आकलन प्रत्यक्ष के द्वारा मानने पर ‘नीलो- त्पलपत्रशतं मया समकालं भिन्नम्’ इस प्रकार का यौगपद्याभिमान अनुपपन्न हो जायेगा । किञ्च किसी भी क्रिया में होने वाले वस्तु में क्रिया, उस क्रिया से विभाग, पूर्व संयोग का नाश तथा उत्तर संयोग की उत्पत्ति इन चारों क्रिया का यौगपद्याभि-

४ म०

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मान भी असंभव होगा । अतः काल के सूक्ष्म भेदों का साक्षात्कार असंभव है । मूल के आदि पद से बौद्धाभिमत प्रमा लक्षण का भी खण्डन यहाँ अभिप्रेत है ।

आदिदेवानन्दः (En)

The definition of pramāņa as one which makes known what is not al- ready known and the like are unacceptable inasmuch as they have been refuted by their own propounders.35

मूलम्

अनधिगतार्थ–गन्तृ प्रमाणमित्यादिकं तु तत्तद्वादिभिरेव निरस्तत्वादनादरणीयम् ।

वासुदेवः

निरस्तत्वाद् इति । मायावादिनाम् इदं लक्षणम् । ’ अनधिगतार्थ-गन्तृ ’ इत्य् अनेन स्मृतोर् निरासः । तस्या अधिगतार्थ-गन्तृत्वात् । एतच् च रक्षणं नैयायिकैः खण्डितम् । धारावाहिक-बुद्धि-स्थले द्वितीयादि-ज्ञानानाम् अनधिगतार्थ-गन्तृत्वाभावेन तल्-लक्षणस्याव्याप्ति-ग्रस्तत्वात् । न चेदानीं घट इत्यादि-प्रतीत्या नीरूपस्यापि कालस्य षड्-इन्द्रिय-वेद्यत्वाभ्युपगमेन द्वितीयादि-ज्ञानानां पूर्व-पूर्व-ज्ञानाविषय-तत्त्-तत्-क्षणाविशेष-विषयत्वेन न तत्राव्याप्तिर् इति वाच्यम् । इदानीं घट इत्यादौ घटादेर् एवेन्द्रिय-वेद्यत्वात् । कालस्य तत्त्वाभ्युपगमे तु ‘आकाशे बलाकाः’ इत्यादि-प्रतीत्या ऽऽकाशस्यापि चाक्षुष-प्रत्यक्ष-विषयतापत्तेः । न चेष्टापत्तिः । मायावादि-मत आकाशस्याचाक्षुषत्वात् । रामानुज-मते धारावाहिक-ज्ञानस्यैकत्वम् आकाशस्य प्रत्यक्ष-विषयत्वं चास्तीत्य् अन्यद् एतत् ।