विश्वास-प्रस्तुतिः
७. एवम् उद्दिष्टानाम् उद्देश-क्रमेण लक्षण-परीक्षे क्रियेते ।
तत्र, प्रमा-करणम् प्रमाणम् ।
प्रमाणं लक्ष्यम् । प्रमा-करणत्वं लक्षणम् ।
यथावस्थित-व्यवहारानुगुणं ज्ञानम् प्रमा ।
प्रमा लक्ष्यम् । यथावस्थितव्यवहारानुगुण-ज्ञानत्वं लक्षणम् ।
“ज्ञानम् प्रमा” इत्युक्ते
शुक्तिकायाम् “इदं रजतम्” इति ज्ञाने अतिव्याप्तिः;
अत उक्तम् “व्यवहारानुगुणम्” इति ।
एवम् अपि तत्रैवातिव्याप्तिः;
भ्रान्ति-दशायाम् अपि “इदं रजतम्” इति व्यवह्रियमाणत्वात् ।
अत उक्तम् “यथावस्थितम्” इति ।
“यथावस्थित” इति पदेन संशयान्यथा-ज्ञान–विपरीत-ज्ञान–व्यावृत्तिः ।
अण्णङ्गराचार्यः
एवमिति । नाम्ना पदार्थसङ्कीर्तनमुद्देशः । असाधारणधर्मो लक्षणम् । परीक्षा - लक्ष्यस्य लक्षणमुक्तं सम्भवति न वेति विचारः ।
यथावस्थितेति । व्यवहारो वाचिकः कायिकश्चेति द्विविधः । व्यवहारे यथावस्थितत्वविनियोगयोग्यार्थविषयकत्वम् । विनियोगः प्रेप्सितार्थोपयोगः ।
शुक्तौ तु रजतं सद् अपि न विनियोगार्हम् ।
‘यथावस्थितपदेने’ति । अव्यवस्थितव्यवहारहेतोः संशयस्य, अयथाव्यवहारहेतोरन्यथाज्ञानादेश्च व्यावृत्तिरित्यर्थः ।
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद - उपर्युक्त प्रकार से निर्दिष्ट पदार्थों के निर्देश क्रम से उनका लक्षण तथा लक्षणों की परीक्षा की जा रही है ।
अनुवाद - प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं । इस वाक्य में लक्ष्य प्रमाण है तथा लक्षण प्रमाकरणत्व है ।
अनुवाद - जो वस्तु जैसी है, उसके उसी प्रकार के व्यवहार के अनुकूल जो ज्ञान होता है, उस ज्ञान को प्रमा कहते हैं । इस वाक्य में प्रमा लक्ष्य है तथा यथावस्थित- व्यवहारानुकूलज्ञानत्व उसका लक्षण है। ज्ञान को ही प्रमा मानने पर शुक्ति को देखकर यह रजत है, इस प्रकार का जो भ्रमज्ञान होता है, उसमें प्रमा की अतिव्याप्ति होने लगती, अतएव व्यवहार के अनुकूल ज्ञान को प्रमा कहा गया । किन्तु सीपी को
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रजत समझकर उसे उठाने आदि का व्यवहार होता है, अतः शुक्तिरजत-ज्ञानस्थल में प्रमा की अतिव्याप्ति रह ही गयी । इसीलिए यथावस्थित व्यवहार के अनुकूल ज्ञान को प्रमा कहा गया । यथावस्थित पद के प्रयोग के द्वारा प्रमा की संशय, अन्यथाज्ञान तथा विपरीतज्ञान, इन तीनों प्रकार के ज्ञानों से भिन्नता सिद्ध हो गयी ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
मा० प्र० - ऊपर के अनुच्छेद में पदार्थों का विस्तृत विभाग प्रस्तुत किया गया है ।
उद्देश पदार्थ – पदार्थों के नाम को गिनाना ही उद्देश कहलाता है- ‘नाम्ना पदार्थसङ्कीर्तनम् उद्देशः ।’ उद्देश के अन्तर्गत उनके स्वरूपादि की कोई भी चर्चा नहीं की जाती है, केवल उनका नाम गिना दिया जाता है । उपर्युक्त उद्दिष्ट पदार्थों के लक्षण तथा उन लक्षणों की परीक्षा की प्रतिज्ञा इस पंक्ति में ग्रन्थकार करते हैं—
लक्षण पदार्थ- किसी भी वस्तु का असाधारण धर्म ही उसका लक्षण कहलाता है ‘असाधारणघर्मो लक्षणम्’ असाधारण धर्मं वह धर्म है, जो उससे भिन्न पदार्थों में न पाया जाय । उसी धर्म के द्वारा वह वस्तु स्वेतर समस्त वस्तुओं से भिन्न प्रतीत होती है । वस्तु का जो लक्षण किया गया है वह लक्षण ठीक है कि नहीं, इस प्रकार का विचार ही परीक्षा कहलाता है । परीक्षा के अन्तर्गत देखा जाता है कि इस लक्षण- वाक्य में कहीं कोई दोष तो नहीं है । निर्दुष्ट लक्षण ही परीक्षकों की गोष्ठी में समादृत होता है, अत एव लक्षणों की परीक्षा आवश्यकीय होती है ।
भार प्र० - जिसका लक्षण बतलाया जाता है, उसको लक्ष्य कहा जाता है तथा लक्ष्य पदार्थ का जो असाधारण धर्म होता है, उसे लक्षण कहा जाता है । ‘असाधारण- धर्मो लक्षणम् ।’ असाधारण धर्म वह होता है, जो लक्ष्यतावच्छेदक समनियत होता है । यहाँ लक्ष्य प्रमाण है, अतएव प्रमाण में लक्ष्यता है तथा लक्ष्यतावच्छेदक हुआ प्रमाणत्व, अतएव जहाँ-जहाँ प्रमाणत्व होगा वहाँ-वहाँ प्रमाकरणत्व अवश्य रहेगा । प्रकृत वाक्य में लक्ष्य प्रमाण है । प्रमाण का लक्षण है-प्रमा का करण होना । किसी भी वस्तु के अनेक कारण होते हैं । उन सभी कारणों के द्वारा कार्य किया जाता है । जैसे—घट के चक्र, चीवर, दण्ड, मृत्पिण्ड, कुलाल आदि अनेक कारण हैं और इन सभी कारणों से. घट निर्वर्तित होता है । किन्तु कार्य के सम्पादक कारणों में जो सर्वोत्कृष्ट कारण होता है, उसे ही करण कहते हैं । ‘प्रकृष्टं कारणं करणम् ।’ महर्षि पाणिनि ने करण को साधकतम कहा है- ‘साधकतमं करणम्’ अर्थात् जिसका प्रयोग होते ही शीघ्र ही कार्य पूर्ण हो जाय, उसे करण अथवा साधकतम कहते हैं । इस तरह सिद्ध है कि प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं । अर्थात् प्रमाण प्रमा का साधकतम है ।
भा० प्र० - प्रमा का लक्षण – सामान्यतः ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - प्रमा एवं अप्रमा। इस प्रमा को लक्षित करते हुए कहा गया है - ‘यथा- वस्थितव्यवहारानुगुणं ज्ञानम् ।’ किसी भी वस्तु को दो प्रकार से जाना जा सकता है, जो वस्तु जैसी है उसको ठीक-ठीक उसी प्रकार से जानना तथा उसको उस प्रकार का न जानकर उससे भिन्न प्रकार का अथवा भिन्न रूप से जानना । ग्रन्थकार का अभिप्राय यह है कि यदि ज्ञानमात्र को प्रमा माना जाय तो भ्रम भी एक प्रकार का ज्ञान ही है । अत एव वह भी प्रमा कहलाने लग जायेगा । यदि व्यवहार के अनुकूल ज्ञान को प्रमा कहा जाय तो भी जो व्यक्ति चाकचिक्य आदि दोषों के कारण सीपी को रजत समझ लेता है, वह उसे उठाने का व्यवहार भी करता है, अत एव वह ज्ञान भी व्यवहारानुगुण ज्ञान हुआ । फलतः भ्रमस्थल में ही पुनः प्रमा की अतिव्याप्ति होगी । इस अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए कहा गया यथावस्थित व्यवहारानुकूल ज्ञान को प्रमा कहते हैं । सीपी रजत नहीं है। सीपी को सीपी समझकर व्यवहार करना ही यथा- वस्थित व्यवहारानुकूल ज्ञान कहलायेगा और इस प्रकार का ज्ञान ही प्रमा कहलाता है । संशयज्ञान, अन्यथाज्ञान तथा विपरीतज्ञान भी यथावस्थित व्यवहारानुकूल ज्ञान नहीं है । अतएव इनमें भी अब प्रमा की अतिव्याप्ति नहीं हो सकती है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Now the definition and examination of the categories will be attempted in the order in which they have been enumerated above. Of these, the instrument of valid knowledge is pramāna. What is defined (here) is pramāna. The definition is that it (pramāna) has the quality of causing pramā (valid knowledge). Prama is that knowledge which is adapted to practical interests of life as they really are. 31 What is defined (here) is pramā. The definition is that it (pramā) has the quality of knowledge adapted to practical interests of life as they really are. If it be said ‘Pramā is knowledge’, there would be over-pervasion in the (erroneous) cognition of a nacre in the form, ’this is silver’; hence it is said ‘adapted to practical interests of life’. Even then there would be over-pervasion as one may have the percep- tion (of a nacre) in the form, ’this is silver’ in a state of delusion; hence it is said ‘as they really are’. By the expression ‘as they really are’, sarśaya (doubt ), anya- thājñāna (wrong knowledge) and viparītajñāna (con- trary knowledge) are excluded.
गोविन्दाचार्यः (En)
Of those, Pramāņa or Means of knowledge is the producer (or maker or giver) of Pramā or knowledge. Means’ is what is to be defined; the definition of it is that it is the producer of Pramā, knowledge’. Pramā is jñāna or ‘knowledge consonant with experience in its exactitude’. Prama or knowledge is the thing to be defined. The definition is that which [[23]] has the quality of knowledge consonant with experience in its exactitude’. Supposing the definition of Prama was simply knowledge’, the knowledge which sees silver in a pearl-oyster would be a definition overlapping its bounds (ati-vyāpti), (or over-pervading its legitimate limits). Hence the definition of Pramā takes the form: ‘knowledge consonant with experience’. Even then the fault of over-pervasion (ati-vyāpti) remains, inasmuch as one in a moment of illusion (or delusion) may mistake the pearl-oyster for silver. Hence (the further) qualificatory clause to the definition: in its exactitude (yathâvas- thita)’.
By this expression, samsaya, anyathā-jñāna and viparīta-jñāna are avoided (which would) otherwise vitiate the definition.
मूलम्
७. एवमुद्दिष्टानामुद्देशक्रमेण लक्षणपरीक्षे क्रियेते । तत्र प्रमाकरणं प्रमाणम् । प्रमाणं लक्ष्यम् । प्रमाकरणत्वं लक्षणम् । यथावस्थितव्यवहारानुगुणज्ञानम् प्रमा । प्रमा लक्ष्यम् । यथावस्थितव्यवहारानुगुणज्ञानत्वं लक्षणम् । “ज्ञानं प्रमा” इत्युक्ते शुक्तिकायाम् “इदं रजतम्” इति ज्ञाने अतिव्याप्तिः; अत उक्तम् “व्यवहारानुगुणम्” इति । एवमपि तत्रैवातिव्याप्तिः; भ्रान्तिदशायामपि “इदं रजतम्” इति व्यवह्रियमाणत्वात् । अत उक्तम् “यथावस्थितम्” इति । “यथावस्थित” इति पदेन संशयान्यथा-ज्ञानविपरीतज्ञानव्यावृत्तिः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
८. धर्मिग्रहणे मिथो-विरुद्धानेक-विशेष-स्मरणं संशयः -
यथा ऊर्ध्वता-विशिष्टे “स्थाणुर् वा पुरुषो वा” इति ज्ञानम् ।
अन्यथा-ज्ञानं नाम धर्मि-विपर्यासः -
यथा, कर्तृत्वेन भासमाने आत्मनि
कु-युक्तिभिः कर्तृत्वस्य भ्रान्तत्वोपपादनम् ।
विपरीत-ज्ञानं नाम धर्मि-विपर्यासः -
यथा वस्तुनो वस्त्व्-अन्तर-ज्ञानम् ।
अण्णङ्गराचार्यः
संशयलक्षणमाह- **‘धर्मी’**ति । साधारणाकारेण धर्मिग्रहे तदुपस्थापितमिथोविरुद्धनानाकोटिस्फुरणं संशय इत्यर्थः ।ा तार्किकमतवत् सिद्धान्ते संशयो नैकं ज्ञानं मतम्[[??]] । किन्तु धर्मि-ग्रहणं कोटिद्वयप्रतीतिश्चेति ज्ञानद्वयम् । दोषाद्भेदाग्रहणेन सहितः तदेवायं स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यनवस्थितव्यवहारहेतुर्भवतीति स्वीकृतम् । धर्मविपर्यास-अन्यदीयधर्मस्य धर्म्यन्तरे भानम् । आत्मनि कर्तर्यकर्तृत्वज्ञानमन्यथाज्ञानं, सिद्धान्ते कर्तृत्वस्वीकारादात्मनः’ । ‘कुयुक्तिभिः’ सारव्यादिदुस्तर्कैः । भ्रान्तत्वोपपादनम् - आत्मनि कर्तृत्वस्य भ्रम-सिद्धत्वोपपादनम् । वस्त्वन्तरेति भावप्रधानो निर्देशः । वस्त्वन्तरत्व-ज्ञानमिति यत्वत्[[यावत्??]] ।
धर्मि–स्वरूप-निरूपक-धर्मस्यान्यत्र धर्मिण्य् अध्यासो विपरीतज्ञानम्,
यथा शुक्तौ रजतमिति, देहे आत्मेति च ।
तद्भिन्नधर्मस्याध्यासोऽन्यथाज्ञानम्, यथा शङ्खः पीतः, इति । आत्माऽकर्तेति च ।
शिवप्रसादः (हिं)
जहाँ पर किसी भी वस्तु में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म प्रतीत होते हैं, वह ज्ञान संशय कहलाता है । जैसे अन्धेरे में किसी ऊँची वस्तु को देखकर यह ठूंठा वृक्ष ( स्तम्भ ) है या कोई आदमी है, इस प्रकार के अनिश्चय गर्भ अनेक प्रकार के धर्म प्रतीत होने लगना ही संशय है । किसी वस्तु के धर्म को दूसरे प्रकार का समझना ही अन्यथाज्ञान है । जैसे कर्तारूप से आत्मा की प्रतीति होती है, फिर भी कुयुक्ति के द्वारा आत्मा के कर्तृत्व को भ्रमजन्य सिद्ध करना अन्यथाज्ञान है । किसी वस्तु को ही उल्टा समझ लेना विपरीत- ज्ञान है । जैसे भैंस को अश्व समझ लेना ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
संशयज्ञान - में वस्तु के स्वरूप का निर्णय नहीं हो सकने के कारण उसको अनेक प्रकार की प्रतीति होती है । जैसे अन्धकार में किसी ऊँचे आकार वाली वस्तु को देखकर मनुष्य को जब यह प्रतीत होने लग जाय कि यह क्या है ? कोई चोर तो नहीं खड़ा है ? या यह कोई स्तम्भ है ? इसी प्रकार के ज्ञान को संशयज्ञान कहते हैं ।
।
अन्यथाज्ञान - में वस्तु का धर्म ही दूसरे प्रकार का प्रतीत होने लग जाता है । श्रुतियाँ आत्मा को स्वभावत: कर्तृत्व एवं ज्ञातृत्व आदि धर्मों से विशिष्ट बतलाती हैं । ‘एष हि द्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः ’ ( प्रश्नोपनिषत् ४।९ ) । श्रुति आत्मा के द्रष्टृत्व, श्रोतृत्व, घ्रातृत्व, आस्वादयितृत्व,
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मननकर्तृत्व, कर्तृत्व तथा ज्ञानाश्रयत्व आदि गुणों को बतलाती है । ‘एष आत्मापहत पाप्मा विजरो विमृत्युरविशोकोऽवि जिघत्सोऽविपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः ।’ यह छान्दोग्योपनिषद् की पुरुषविद्या की श्रुति जीव की स्वाभाविक गुणाष्टक सम्पन्नता को बतलाती है । प्रत्यक्षतः भी आत्मा के कर्तृत्व आदि गुणों को देखा जाता है । महर्षि बादरायण ‘ज्ञोऽत. एव’ ( शा० मी० २।३।१९ ) सूत्र में आत्मा के स्वाभाविक ज्ञातृत्व धर्म को बतलाते हैं; किन्तु कुछ दार्शनिक आत्मा के ज्ञातृत्व आदि धर्मों को अपनी कुयुक्तियों के बल पर भ्रमजन्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। आत्मा में ज्ञातृत्व को भ्रान्तिजन्य जानना ही उनका अन्यथाज्ञान है ।
विपरीत ज्ञान - उसे कहते हैं, जहाँ पर किसी वस्तु को दूसरी वस्तु समझ लिया जाता है । अश्व को महिष समझ लेना विपरीतज्ञान है । जीव को ही ब्रह्म समझ लेना विपरीतज्ञान है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Samśaya is the recollection of several mutually contradictory attributes when a thing is apprehended; for instance, the (dubitative) cognition in respect of a tall object, ‘Is this a stump or man?".
What is called anyathājñāna is the misapprehension of one attribute for another; for instance, the predication made by sophistic arguments, that the agency (of the individual self) is a delusion, whereas the individual self shines as an agent.
What is called viparītajñāna is the misappre- hension of one thing for another; for instance, the cognition of another object in the place of the (intend- ed) object. 32
गोविन्दाचार्यः (En)
Samsaya or Doubt is the apperception of mutually contradicting attributes in a thing (dharmi) to be apprehended. For example, the doubt whether a long-looking or erect object is post or person.
Anyathā-jśāna or Wrong Apprehension is the mistaken apperception of one attribute for another. For example, the proposition which ascribes the agency in the real agent, soul, as due to illusion. (This is dharma-viparyāsa).
Viparita-jñāna or Reversed Apprehension is the mistaken apperception of one thing itself for another. (For example the mistaking of the post itself for the person). (This is dharmi- viparyāsa).
मूलम्
८. धर्मिग्रहणे मिथो विरुद्धानेकविशेष स्मरणम् संशयः । यथा ऊर्ध्वताविशिष्टे “स्थाणुर्वा पुरुषो वा” इति ज्ञानम् । अन्यथाज्ञानं नाम धर्मविपर्यासः । यथा कर्तृत्वेन भासमाने आत्मनि कुयुक्तिभिः कर्तृत्वस्य भ्रान्तत्वोपपादनम् । विपरीत-ज्ञानं नाम धर्मिविपर्यासः । यथा वस्तुनो वस्त्वन्तरज्ञानम् ।
वासुदेवः
धर्म-विपर्यास इति । पीतः शङ्ख इतिवत् । कर्तृत्वेन भासमान इति । स्वर्गापवर्ग-साधनानुष्ठान-विधान-शास्त्राणाम् अर्थवत्त्वाय कर्तैवा ऽऽत्मेति मन्तव्यम् । प्रकृतेः कर्तृत्वे मोक्ष-साधनभूत-समाध्य्-अभावश् च स्यात् । प्रकृतेर् अन्यो ऽस्मीति समाधौ प्रकृतेः कर्तृत्वायोगात् । तच् च कर्तृत्वं नैमित्तिकम् इति गीता-भाष्य उक्तम् । तथा च भाष्यम् – ‘आत्मनः स्वतः परिशुद्ध-स्वभावस्य पूर्व-पूर्व-कर्म-मूल-सङ्ग-निमित्तं विविध-कर्मसु कर्तृत्वम् ’ ( गी० १४ । १९ ) इति । धर्मिविपर्यास इति । यथा शुक्ताविदं रजतम् इत्य् अत्र ।