०३ पदार्थसमुद्देशः

विश्वास-प्रस्तुतिः

२. सर्वम् पदार्थजातम् प्रमाण-प्रमेयभेदेन द्विधा भिन्नम् ।
प्रमाणानि त्रीण्य् एव ।
प्रमेयं द्विविधम् – द्रव्याद्रव्यभेदात् ।
द्रव्यं द्विविधम् – जडम् अजडं चेति ।
जडं च द्वि-विधम् – प्रकृतिः कालश् चेति ।
प्रकृतिश् चतुर्विंशति-तत्त्वात्मिका ।
कालस् तु उपाधि-भेदात् त्रि-विधः ।

अण्णङ्गराचार्यः

त्रीण्येवेति । ‘प्रत्यक्षानुमानशब्दभेदादित्यर्थः ।
त्रिविध इति । भूतभविष्यद्वर्तमानभेदात् कालस्त्रिविध इत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अनुवाद - सम्पूर्ण पदार्थ समूह को दो भागों में विभक्त किया जाता है— प्रमाण एवं प्रमेय । प्रमाण तीन ही हैं । प्रमेय दो प्रकार के हैं- द्रव्य एवं अद्रव्य । द्रव्य दो प्रकार के होते हैं— जड़ एवं अजड़ । जड़ भी दो प्रकार के हैं— प्रकृति एवं काल । प्रकृति चौबीस तत्त्वों वाली हैं । काल तो उपाधि के भेद से तीन प्रकार का होता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

भा० प्र० - इस पदार्थ विभाग के द्वारा ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि विशिष्टाद्वैत दर्शन में वैशेषिकाभिमत सप्तपदार्थी अथवा नैयायिकाभिमत षोडशपदार्थी को स्वीकार न करके द्विपदार्थी सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है । विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रख्यात व्याख्याता श्रीवेदान्तदेशिक ने भी पदार्थों का विभाग इसी प्रकार से करते हुए तत्त्वमुक्ताकलाप के जड़द्रव्यसर में कहा हैं-

‘द्रव्याद्रव्य प्रभेदान् मितमुभयविधं तद्विदस्तत्त्वमाहुः, द्रव्यं द्वेधा विभक्तं जडमजडमिति प्राच्यमव्यक्तकाली । अन्त्यं प्रत्यक् पराक् च प्रथममुभयधा तत्र जीवेशभेदात्, नित्या भूतिर्मतिश्चेत्यपरमिह जडामादिमां केचिदाहुः i’

1

इस श्लोक में वेदान्तदेशिक ने तत्त्व शब्द के द्वारा पदार्थ को बतलाकर कहा है कि पदार्थवेत्ताओं के अनुसार उसके दो भेद हैं- द्रव्य और अद्रव्य । द्रव्य के भी दो भेद हैं- जड़ और अजड । जड़ द्रव्य भी दो प्रकार के होते हैं—अव्यक्त एवं काल । अजड़ द्रव्य भी दो प्रकार के होते हैं - प्रत्यक् एवं पराक् । प्रत्यक् भी दो प्रकार के होते हैं— जीव एवं ईश्वर । पराक् भी दो प्रकार के होते हैं - नित्य विभूति एवं धर्मं- भूतज्ञान । इनमें नित्यविभूति को कुछ लोग जड द्रव्य के अन्तर्गत मानते हैं । तत्त्व- मुक्ताकलाप के इसी पदार्थ - विभाजन का विस्तृत रूप है यतीन्द्रगतदीपिकाकार का यह पदार्थों का समुद्देश। इस अनुच्छेद में कई पारिभाषिक शब्द आये हैं, उनका विवरण निम्न प्रकार का है-

द्रव्य का लक्षण – उपादानत्व है । जो उपादान होता है वही द्रव्य कहलाता है । जिसकी अवस्थाएँ होती हैं वह उपादान कहलाता है । ‘अवस्थाश्रयत्वम् उपा- दानत्वम् ।’ वस्तु के आगन्तुक एवं अपृथक् सिद्ध धर्म को अवस्था कहते हैं । जो उपादान न हो उस वस्तु को अद्रव्य कहते हैं ।

जड — उस द्रव्य को कहते हैं, जो किसी ज्ञान का विषय बनने पर ही प्रकाशित हो ।

गोविन्दाचार्यः (En)

All the sum of things are divisible into two Divisions, (1) Pramāṇa, Authority, or Measurer or Means (of knowledge), and Prameya or the Measured or Object (or Objective) (of know- jedge).

The Means (of knowledge) is only threefold. The Object (of knowledge) is twofold, Dravya or the Thing (or Substance), and A-dravya or the Non-Thing (or Non-Substance).

Dravya or Substance is of two kinds, Jada or the Non-sentient " and A-jada or the Sentient “.

Jada or the Non-sentient is twofold, viz., Prakrti or Matter and Kala or Time.

Prakrti or Matter is composed of twenty- four (sub-) principles (tattva).

Kala or Time is, by reason of limitation or condition (upadhi), threefold.

आदिदेवानन्दः (En)
  1. All knowable things are divided into two kinds, as pramāna (the means of valid knowledge) and prameya (object of valid knowledge). The means of valid knowledge is only threefold.22 The object of valid knowledge is twofold, because of the difference as dra- vya (substance) and adravya (non-substance). Dravya is of two kinds, as jada (material) and ajada ( im - material). Jada is of two kinds, as prakrti (primordial matter) and time. Prakrti is of the nature of twenty- four categories.28 Time is of three kinds owing to limitation. 24
मूलम्

२. सर्वं पदार्थजातं प्रमाणप्रमेयभेदेन द्विधा भिन्नम् । प्रमाणानि त्रीण्येव । प्रमेयं द्विविधम् – द्रव्याद्रव्यभेदात् । द्रव्यं द्विविधम् – जडमजडं चेति । जडं च द्विविधम् – प्रकृतिः कालश्चेति । प्रकृतिश्चतुर्विंशतितत्त्वात्मिका । कालस्तु उपाधिभेदात् त्रिविधः ।

वासुदेवः

त्रीण्येवेति । प्रत्यक्षानुमान-शब्द-रूपाणि त्रीण्येवेत्य् अर्थः । इतरेषामेष्व् एवान्तर्भावं वक्ष्यति । चतुर्विंशति-तत्त्वेति । प्रकृति-महद्-अहङ्कार-मनः-श्रोत्र-त्वक्-चक्षुर्-जिह्वा-घ्राण-वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थ-शब्द-तन्मात्र-स्पर्श-तन्मात्र-रूप-तन्मात्र-रस-तन्मात्र-गन्ध-तन्मात्राकाश-वायु-तेजोप्-पृथिवी-रूपाणि चतुर्विंशति-तत्त्वानि । उपाधि-भेदात् । वर्तमान-भूत-भविष्य-रूपोपाधि-भेदात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

३. अजडं तु द्विविधम् – पराक् प्रत्यक् चेति ।
अजडम् पराग् अपि तथा – नित्य-भूतिर् धर्मभूतज्ञानं चेति ।

अण्णङ्गराचार्यः

अजडम् - स्वयं प्रकाशं द्रव्यम् । पराक् - परस्मै स्वयं भासमानं परागत्र विवक्षितम् । प्रत्यक् - स्वस्मै स्वयं भासमानम् । परस्मै परत एव भासमानं पराग्वस्तु जडमिति विवेकः ।

शिवप्रसादः (हिं)

अजड़ भी दो प्रकार के होते हैं—पराक् एवं प्रत्यक् । पराक् भी दो प्रकार के होते हैं - नित्य विभूति एवं धर्मभूतज्ञान ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

अजड - द्रव्य अपने प्रकाश के लिए प्रकाशकान्तर की अपेक्षा नहीं रखते हैं, वे स्वयम् प्रकाशित होते हैं । प्रकृति के चौबिस तत्त्व ये हैं- प्रकृति, महान्, अहङ्कार, पांच तन्मात्राएँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ, पञ्चवज्ञानेन्द्रिय, मन एवं पचमहाभूत ।

गोविन्दाचार्यः (En)

A-jada or the Sentient is twofold; Parāk or outward (objective) and Pratyak or Inward (subjective).

Parak or Outward is also twofold: the Nitya- vibhuti or Eternal Estate, and the Dharma- bhūta-jñāna or attributive (or adjectival) con- sciousness or cognition.

आदिदेवानन्दः (En)
  1. The ajada is of two kinds, as parāk (the exter- nal) and pratyak (the internal). The parāk which is ajada, is in its turn of two kinds, as nityavibhūti (the eternal manifestation) and dharmabhūtajñāna (the attributive consciousness).
मूलम्

३. अजडं तु द्विविधम् – पराक् प्रत्यक् चेति । अजडम् परागपि तथा – नित्यविभूतिर् धर्मभूतज्ञानं चेति । (परागपि द्विधा - नित्यभूतिः धर्मभूतज्ञानं चेति ।)

वासुदेवः

तथा द्विविधम् ।

उद्देश-क्रमेणेति । नाम्ना पदार्थ-सङ्कीर्तनम् उद्देशः । लक्षणेति । अव्याप्त्यातिव्याप्त्य्-असम्भव-रूप-दोष-त्रय-रहित-धर्म-वचनं लक्षणम् । यथा लक्षितस्यैतल्-लक्षणम् उपपद्यते न वेति विचारः परीक्षा । यथावस्थितेति । अवस्थितं वस्त्वनतिक्रम्य यो व्यवहार ‘इदम् अमुकं वस्तु’ इत्यादिस् तद्-अनुगुणं तद्-उपयोगि ज्ञानम् इत्य् अर्थः । यथावस्थितेति ज्ञान-विशेषणं वा ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

४. प्रत्यग् अपि द्विविधः- जीवेश्वरभेदात् ।
जीवस् त्रिविधः - बद्ध-मुक्त-नित्य-भेदात् ।
बद्धो ऽपि द्विविधः – बुभुक्षु-मुमुक्षु-भेदात् ।
बुभुक्षुर् द्विविधः – अर्थ-काम-परो धर्म-परश् चेति ।
धर्म-परो द्विविधः – देवतान्तर-परो भगवत्-परश् चेति ।
मुमुक्षुर् द्विविधः- कैवल्य-परो मोक्षपरश् चेति ।
मोक्ष-परो द्विविधः – भक्तः प्रपन्नश् चेति ।
प्रपन्नो द्विविधः – एकान्ती परमैकान्ती चेति ।
परमैकान्ती द्विविधः – दृप्तार्त-भेदात् ।

अण्णङ्गराचार्यः

एकान्ती - भयवत एव मोक्षमैहिकं च फलं कामयमानः - अन्-अन्य-दैवत इति यावत् ।
परमैकान्ती - भगवत एव तद्-अनुभव-सेवा–तद्-उपकरणातिरिक्तं किम् अपि फलम् अकामयमानः । दृप्तः – वर्तमानदेहधारणक्षमः, देहान्तरान्वयासहिष्णुः, । आर्तः – वर्तमानदेहसम्बन्धम् अपि असहमानो भगवत्प्राप्तौ उत्कट-त्वरावान् ।

शिवप्रसादः (हिं)

प्रत्यक् भी दो प्रकार के हैं— जीव एवं ईश्वर । बद्ध, मुक्त एवं नित्य के भेद से जीव तीन प्रकार के होते हैं । बद्ध ( जीव ) भी दो प्रकार के होते हैं— बुभुक्षु एवं मुमुक्षु । बुभुक्षु जीव भी दो प्रकार के होते हैं—अर्थ एवं काम को चाहने वाले तथा धर्म को चाहने वाले । धर्मपरक जीव भी दो प्रकार के होते हैं – देवतान्तरपरक एवं भगवत्परक । मुमुक्षु जीव भी दो प्रकार के होते हैं— कैवल्य चाहने वाले तथा मोक्ष चाहने वाले । मोक्षपरक जीव भी दो प्रकार के होते हैं - भक्त एवं प्रपन्न । प्रपन्नमुमुक्षु भी दो प्रकार के होते हैं- एकान्ती एवं परमै- कान्ती । परमैकान्ती जीव भी दो तरह के होते हैं - दृप्त एवं आर्त ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

प्रत्यक् द्रव्य — ‘आत्मानं प्रति अवति’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने लिए तथा स्वयम् प्रकाशित होते हैं । पराक् द्रव्य स्वयम्प्रकाश तो होते हैं, किन्तु वे अपने लिए प्रकाशित नहीं होते हैं । ‘परस्मै अञ्चति’ यह पराक् शब्द की व्युत्पत्ति है । अत एव - ‘स्वस्मै भासमानत्वम्’ तथा ‘परस्मै भासमानत्वम्’ क्रमशः प्रत्यक एवं पराक् के लक्षण हैं । काल के औपाधिक भेद – भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् हैं । नित्य विभूति वैकुण्ठलोक का एक नाम है । धर्मभूतज्ञान बुद्धि को कहते हैं । भोग को चाहने वाले जीवों को बुभुक्षु तथा मोक्ष को चाहने वाले जीवों को मुमुक्षु कहते हैं ।

कैवल्यपरक – वे जीव होते हैं, जो प्रकृति के बन्धन से विनिर्मुक्त होकर आत्मा- नुभव करना चाहते हैं । मोक्षपरक जीव संसार के बन्धन से मुक्त होकर परमानन्द- स्वरूप परब्रह्म का अनुभव करना चाहते हैं ।

प्रपन्न - जीव वे हैं, जो एकमात्र श्रीभगवान् को ही अपना रक्षक मानते हैं ।

आदिदेवानन्दः (En)
  1. The pratyak is also of two kinds, because of the difference as jīva (the individual self) and Iśvara. Jiva is of three kinds, because of the difference as baddha (the bound jīva in sarsāra), mukta (the releas- ed jīva) and nitya (the eternally free). The baddha is of two kinds, because of the difference as bubhuksu25 (the pleasure-seeker) and mumukṣu26 (the salvation-seeker). The bubhukṣu is of two kinds, as arthakāmapara (the votary of artha and kama) and dharmapara (the votary of dharma). The dharmapara is of two kinds, as the votary of various gods and the votary of Bhagavan.

Mumukşu is of two kinds, as the votary of self-realiza- tion (kaivalya) and the votary of release (moksa). The votary of mokṣa is of two kinds, as bhakta (lover of God) and prapanna (one who has resigned his self to God). The prapanna is of two kinds, as ekāntin (one- pointed) and parama-ekantin (extremely one-pointed). The parama-ekāntin is of two kinds, because of the difference as drpta (the patient aspirant ) and ārta (the impatient aspirant ).

गोविन्दाचार्यः (En)

Pratyak or Inward is also twofold: Jwa or the Individual Soul and Iśvara or Ruling (Universal) Soul (God).

Jiva or Individual Soul is threefold: (1) Bad- dha or the Bound, (2) Mukta or the Freed, and (3) Nitya or the Eternal (or Free).”

The Baddha or bound soul is also twofold: Bubhukshu or Pleasure-desirer," and Mumu- kshu or Freedom-desirer."

The Bubhukshu or Pleasure-desirer is two- fold: the addicted to Artha" or wealth, and Kāma" or gratifications; and the devoted to Dharma" or Duties.

The devoted to Dharma or duties are two- fold: the devoted to godlings, and the devoted to Bhagavan " (God).

The Mumukshu or Freedom-desirer is two- fold: the addicted to Kaivalya or Isolation," and the devoted to Moksha or Salvation."

The Moksha or Salvation-seeker is twofold:

the Bhakta1 or God-lover, and the Prapanna” or God-resigned.

The Prapanna or God-resigned is twofold: the Ekūnti or the One-pointed, and the Para- mâikanti or the One-only-pointed.

The Paramaikanti is twofold: the Drpta" or The Postulant-Patient, and the Arta" or The Postulant-Impatient.

मूलम्

४. प्रत्यगपि द्विविधः - जीवेश्वरभेदात् । जीवस्त्रिविधः - बद्धमुक्तनित्यभेदात् । बद्धोऽपि द्विविधः – बुभुक्षुमुमुक्षुभेदात् । बुभुक्षुर्द्विविधः – अर्थकामपरो धर्मपरश्चेति । धर्मपरो द्विविधः – देवतान्तरपरो भगवत्परश्चेति । मुमुक्षुर्द्विविधः - कैवल्यपरो मोक्षपरश्चेति । मोक्षपरो द्विविधः – भक्तः प्रपन्नश्चेति । प्रपन्नो द्विविधः – एकान्ती परमैकान्ती चेति । परमैकान्ती द्विविधः – दृप्तार्तभेदात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

५. पञ्चधावस्थित ईश्वरः – पर-व्यूह-विभवान्तर्याम्यवतार-भेदात् ।
पर एकधा ।
व्यूहश् चतुर्द्धा – वासुदेव-सङ्कर्षण-प्रद्युम्नानिरुद्ध-भेदात् ।
केशवादि व्यूहान्तरम्
मत्स्यादयो विभवाः पुनर् अनन्ताः ।
अन्तर्यामी प्रतिशरीरम् अवस्थितः ।
अर्चावतारस् तु – श्रीरङ्ग-वेङ्कटाद्रि–हस्ति-गिरि–यादवाद्रि–घटिकाचलादिषु
सकल-मनुज-नयन-विषयतां गतो मूर्ति-विशेषः ।

अण्णङ्गराचार्यः

‘विभवा’ इति । देवमनुष्यादिस्वविभूतिसजातीया भगवतोऽवतारा उपेन्द्ररामकृष्णादिका विभवा इत्यर्थः ।

शिवप्रसादः (हिं)

ईश्वर के पाँच रूप हैं - पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी एवं अर्चावतार । पर रूप से ईश्वर एक ही प्रकार का है । व्यूह रूप से वह चार प्रकार का है- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध । केशव आदि जो द्वादश व्यूह हैं, उनका भी इन्हीं चार व्यूहों में अन्तर्भाव हो जाता है । विभव रूप से ईश्वर के मत्स्य आदि अनन्त भेद हैं । अन्तर्यामी रूप से ईश्वर सभी शरीरों के भीतर अन्तरात्मा रूप से विद्यमान है । अर्चावतार तो श्रीरङ्गम्, वेङ्कटाद्रि, हस्तिगिरि, यादवाद्रि, घटिकाचल आदि तत्तत् दिव्य देशों में सभी मनुष्यों द्वारा दर्शन किये जाने वाले रङ्गनाथ, वेङ्कटेश आदि मूर्तिविशेष को ही कहा जाता है ।

शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी

ईश्वर के पांच रूपों का प्रतिपादन करते हुए आगम ग्रन्थों में कहा गया है-

‘मम प्रकाराः पञ्चेति प्राहुर्वेदान्तपारगाः ।

परो व्यूहश्च विभवो नियन्ता सर्वदेहिनाम् ॥ अर्चावतारश्च तथा दयालुः पुरुषाकृतिः ।

इत्येवं पञ्चधा प्राहुः मां रहस्यविदो जनाः ॥’

अर्थात् रहस्यों के जानकार तथा वेदान्तशास्त्र के पारंगत विद्वान् मेरे निम्न प्रकार के पांच रूपों को बतलाते हैं – पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी तथा दयालु एवं पुरुषाकार वाला अर्चावतार । तत्त्वत्रयकार भी ईश्वर के पाँच रूपों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं— ‘ईश्वररूपञ्च – परव्यूहविभवान्तर्याम्यर्चावतारभेदेन पञ्चविधम्’ ( तत्त्वत्रयम् ३।३४ ) ।

आदिदेवानन्दः (En)
  1. Iśvara abides in five forms, because of the difference as Para, Vyūha, Vibhava, Antaryāmin and Arcā. Para (the self-transcendent absolute) is uniform (i.e., single and complete). The Vyuha is fourfold, because of the difference as Vasudeva, Sankarṣaṇa, Pradyumna and Aniruddha. Kesava etc. are other types of Vyuhas. Matsya and others are Vibhavas ( incarnations), and they are numberless. The Antar- yāmin (the indweller ) abides in every body. The incar- nations of Arcă are those special forms presented to the vision of all men in sacred shrines like Srirangam, 27 Venkatadri, 28 Hastigiri, Yadavadri, Ghatikācala, 30 etc.
गोविन्दाचार्यः (En)

Iśvara or God Supreme is (hypostatically) existent in five modes, viz., (1) Para or the Transcendant, (2) Vyuha or the Grouped, (3) Vibhava or the Incarnational (4) Antaryāmi or the In-Ruler, and (5) Arca or the Worship- pable.“9

Para or the Transcendant is Uniform (or the Immutable Spirit-Unit).

Vyuha or the Grouped is fourfold: (1) Vasu- deva, (2) Sankarshaṇa, (3) Pradyumna, and (4) Aniruddha. Keśava and others are derivative (Logal) groups. The Matsya or the Fish and other Incarnations are innumerable.”

Antaryāmi or the In-Ruler dwells in every body.

Arcă or the Worshippable are those unique Images presented to the eyes of all men in such Holy Shrines as Śrirangam.”

मूलम्

५. पञ्चधावस्थित ईश्वरः – परव्यूहविभवान्तर्याम्यवतारभेदात् । पर एकधा । व्यूहश्चतुर्द्धा – वासुदेवसङ्कर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धभेदात् । केशवादि व्यूहान्तरम् [[अत्रैवान्तर्भवति??]] । मत्स्यादयो विभवाः पुनरनन्ताः । अन्तर्यामी प्रतिशरीरमवस्थितः । अर्चावतारस्तु – श्रीरङ्ग-वेङ्कटाद्रिहस्तिगिरियादवाद्रिघटिकाचलादिषु सकलमनुजनयनविषयतां गतो मूर्तिविशेषः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

६. अद्रव्यं तु सत्त्व-रजस्-तमः-शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध-संयोग-शक्ति-भेदाद् दशधैव ।

शिवप्रसादः (हिं)

अद्रव्य तो दस प्रकार के ही हैं— सत्व, रजस्, तमस्, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध,

संयोग तथा शक्ति ।

आदिदेवानन्दः (En)
  1. Adravya is of ten kinds, because of the differ- ence as sattva (goodness), rajas (passion or activity), tamas (darkness or inertia), Śabia (sound), sparśa (touch), rūpa (colour), rasa (taste), gandha ( smell ), samyoga (conjunction) and śakti (potentiality).
मूलम्

६. अद्रव्यं तु सत्त्वरजस्तमःशब्दस्पर्शरूपरसगन्धसंयोगशक्तिभेदाद्दशधैव ।