विश्वास-प्रस्तुतिः
१. श्रीमन्नारायण एव चिद्-अचिद्-विशिष्टाद्वैत-तत्त्वम्,
भक्ति-प्रपत्तिभ्याम् प्रसन्नः स उपायः,
अ-प्राकृत-देश-विशिष्टः स एव प्राप्य
इति वेदान्त-वाक्यैः प्रतिपादयताम्
श्री-व्यास-बोधायन–
गुह-देव–भा-रुचि–ब्रह्म-नन्दि–द्रमिडाचार्य–
श्री-पराङ्कुश–नाथ-यामुन-मुनि–यतीश्वर-प्रभृतीनाम्
मतानुसारेण बाल-बोधार्थम् वेदान्तानुसारिणी
यतीन्द्र-मत-दीपिकाख्या शारीरक-परिभाषा
महाचार्य-कृपावलम्बिना मया
यथामति सङ्ग्रहेण प्रकाश्यते ।
अण्णङ्गराचार्यः
तत्र तावत् तत्त्वहितपुरुषार्थान् सङ्गृह्णाति ‘श्रीम’दिति । चिदचित्प्रकारविशिष्टः श्रीमन्नारायण एवाद्वैतम् - एकं तत्वमित्यर्थः । द्वयोर्भावोद्विता द्वित्वम् । द्वितैव द्वैतम् । नास्ति द्वैतं यस्मिन् तदद्वैतम् । चिदचितोरपृथक्सिद्धविशेषणत्वेन ब्रह्मण्यन्तर्भूतत्वात् विशिष्टमेकमेव तत्त्वमित्यर्थः । सः श्रीमान् नारायण एव, उपाय-मोक्षप्रापकः । परमे पदे श्रीवैकुण्ठे विराजमानः स एव परवासुदेवाख्यः मुक्तप्राप्य इति तत्वादित्रयसङग्रहः । ‘व्यास’ इत्यादि । व्यासादयोऽमी विशिष्टाद्वैतमतस्य प्रतिपादकाः परिपोषकाः प्रतिष्ठापकाश्च मता यथायथम् । तत्र व्यासो ब्रह्ममींमासादिप्रणेता । बोधायनो ब्रह्मसूत्रेषु वृत्तिकारः । गुहदेवो वेदभाष्यकर्ता, श्रौतसूत्रव्याख्याता च । भारुचिश्च विष्णुस्मृतिव्याख्यातेति विमर्शकुशला प्राहुः । ब्रह्मनन्दिः टङ्काचार्यः छान्दोग्यस्य वाक्यनामकव्याख्याकारः । द्रमिडाचार्यो वाक्यस्य भाष्यकृत् । श्रीपराङ्कुशमुनिर्दिव्यप्रबन्धाविष्कर्त्ता श्रीमन्नाथमुनेर्योगे दिव्यरूपतः सिद्धान्तरहस्योपदेशकश्च । श्रीमन्नाय[[??]]मुनिः न्यायतत्त्वशास्त्रादिप्रणेता । श्रीमद्यामुनमुनिः सिद्धित्रयादिकर्ता । यतीश्वरः श्रीमद्भगवद्रामानुजमुनिः श्रीभाष्यादिकृत् इति अनुसन्धेयम् ।
१ - चिदचिद्विशिष्टाद्वैततत्वम् ।[[??]]
वासुदेवः
**अप्राकृतेति ।**अप्राकृत-देशश् च वैकुण्ठ-लोकः । प्रकाश्यत इति ।
दशावतारा ग्रन्थे ऽस्मिन् ग्रन्थकारेण निर्मिताः ।
प्रमाण-त्रितय-द्रव्य-षट्काद्रव्य-विभागतः ॥ १ ॥
प्रमाणं प्रथमे प्रोक्तं प्रत्यक्षं स्मरणं तथा ।
द्वितीये ऽनुमिति-व्याप्तिहेत्वाभासा निरूपिताः ॥ २ ॥
तृतीये प्रमितिः शाब्दी चतुर्थे द्रव्य-लक्षणम् ।
चतुर्विंशति-तत्त्वानाम् उत्पत्तिश् चैव वर्णिता ॥ ३ ॥
पञ्चमे लक्षितः कालस् तद्भेदा अप्य् उपाधितः ।
नित्या विभूतिः षष्ठे तु सप्तमे बुद्धि-लक्षणम् ॥ ४ ॥
अष्टमे वर्णितं जीव-स्वरूपं तद्गुणा अपि ।
अवतारे तु नवमे परमात्म-निरूपणम् ॥ ५ ॥
अद्रव्यं दशधा प्रोक्तम् अवतारे तथा ऽन्तिमे ।
एवं दशावतारेषु पदार्था वर्णिताः क्रमात् ॥ ६ ॥
शिवप्रसादः (हिं)
अनुवाद – चेतन तथा अचेतन तत्त्वों से विशिष्ट श्रीमन्नारायण ही अद्वैत तत्त्व हैं । भक्ति एवं प्रपत्ति नामक साधनों से प्रसन्न होकर वे ही ( अपनी प्राप्ति में ) साधन बन जाते हैं । दिव्य वैकुण्ठलोक में रहकर वे ही सभी जीवों के लिए प्राप्य हैं । इस अर्थ का वेदान्तवाक्यों के आलोक में प्रतिपादन करने वाले व्यास, बोधायन, गुहदेव, भारुचि, ब्रह्मानन्द, द्रमिडाचार्य श्रीशठकोपसूरि, नाथमुनि, यामुनाचार्य तथा रामा- नुजाचार्य आदि के मतानुसार वेदान्तशास्त्र में प्रवेश पाने की इच्छा वाले बालकों के ज्ञानार्थं, वेदान्तचार्य का कृपापात्र मैं ( श्रीनिवासाचार्य ) वेदान्त ( उपनिषदों ) का अनुसरण करने वाली यतीन्द्रमत- दीपिका नामक शारीरक - परिभाषा का अपनी बुद्धि के अनुसार प्रणयन कर रहा हूँ ।
शिवप्रसादः (हिं) - टिप्पनी
भा० प्र० - भगवान् नारायण ही तत्त्व हैं- महाभारत के मोक्षधर्मं नामक प्रक- रण में कहा गया है कि-
‘तत्त्वं जिज्ञासमानानां हेतुभिः सर्वतोमुखैः ।
तत्त्वमेको महायोगी हरिर्नारायणः प्रभुः ॥’
इस वाक्य के अनुसार स्पष्ट है कि तत्त्व एक ही है । श्लोक का अभिप्राय है कि सार्वभौम हेतुओं के आधार पर तत्त्वजिज्ञासा से विचार करने वाले विद्वानों को इसी निर्णय पर पहुँचना पड़ता है कि सम्पूर्ण जगत् के स्वामी महायोगी नारायण ही एक- मात्र तत्त्व हैं । न्यायनिबन्धनात्मिका शारीरक -मीमांसा में किया गया विचार ही इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में निर्दिष्ट है । अत एंव एकतत्त्ववाद ही शारीरक - मीमांसा का अभिप्रेत अर्थ सिद्ध होता है । उसी तत्त्व को श्रीमन्नारायण शब्द से अभिहित किया गया है । यहां पर श्रीमन्नारायण को मूल में ‘चिदचित्प्रकारकविशिष्टाद्वैतं तत्त्वम्’ कहा गया है ।
विशिष्टाद्वैत शब्द का अर्थ - विशिष्टाद्वैत शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- ‘द्वयोर्भावो द्विता । द्वितैव द्वैतम् । न द्वैतमद्वैतम् । विशिष्टञ्चेदमद्वैतं विशिष्टाद्वैतम् । वैशिष्ट्यश्च चिदचिदोः शरीरशरीरी भावसम्बन्धेन ।’ कहने का अभिप्राय है कि शास्त्रों के अनेक वाक्य हैं, जो सम्पूर्ण जगत् को श्रीभगवान् का शरीर बतलाकर श्रीभगवान् को जगत् की आत्मा बतलाते हैं । जैसे – ‘ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्’ यह छान्दोग्य श्रुति बतलाती है कि इस सम्पूर्ण जगत् की आत्मा परमब्रह्म है । ‘यस्य आत्मा शरीरम्’ अर्थात् यह जीवात्मा जिस परमात्मा का शरीर है । ‘यस्य पृथिवी शरीरम्’ जिसका पृथिवी शरीर है । ‘य आत्मानमन्तरो यमात्मान वेद यस्यात्मा शरीरम्’ अर्थात् जो परमब्रह्म इस आत्मा की अपेक्षा अन्तरङ्ग है, जिसे आत्मा नहीं जानती । आत्मा जिसका शरीर है । ‘जगत् सर्वं शरीरं ते ।’ अर्थात् हे भगवन् (श्रीराम) ! यह सम्पूर्ण जगत् आपका शरीर है । ‘तत्सर्वं वै हरेस्तनुः’ सम्पूर्ण जगत् श्रीहरि का शरीर है । इस तरह सम्पूर्ण चेतनाचेतनात्मक जगत् परमब्रह्म का शरीर सिद्ध होता है । शरीर होने के कारण जगत् ब्रह्म का उसी तरह विशेषण हैं, जिस तरह हम लोगों का शरीर हम लोगों का विशेषण है । जिस तरह शरीर विशिष्ट स्वरूप को हम लोग ‘मैं’ ‘मैं’ इस रूप से अनुभव करते हैं, उसी तरह परमब्रह्म भी चेतनाचेतन विशिष्ट अपने स्वरूप को ‘मैं’ ( अहम् ) इस रूप से अनुभव करता है । अतएव वह ‘अहम् बहु स्याम’ इस प्रकार से सृष्टि के प्रारम्भ में सत्य संकल्प करता है ।
हम लोगों को चेतनाचेतनात्मक जगत् परमब्रह्म का शरीर नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि हम लोग जिन प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाणों के आधार पर चेतनाचेतन पदार्थ को समझते हैं, उन प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाणों के द्वारा श्रीभगवान् को नहीं जाना जा सकता है । श्रीभगवान् तो शास्त्रकसमधिगम्य हैं । उनके विषय में प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाणों की गति नहीं है । परब्रह्म के प्रत्यक्ष एवं अनुमान का अविषय होनेप्रथमोऽवतारः
के ही कारण प्रत्यक्ष एवं अनुमान के विषयभूत चेतनाचेतनात्मक जगत् परब्रह्म का शरीर नहीं प्रतीत होता है । परब्रह्म शास्त्रों के विषय हैं, अतएव शास्त्रों से सिद्ध होता है कि जगत् परब्रह्म का शरीर है और परब्रह्म जगत् की आत्मा हैं ।
श्रीभगवान् की प्रसन्नता के साधन - ‘भक्तिप्रपत्तिभ्याम् ०’ इत्यादि वाक्य से बतलाया गया है कि श्रीभगवान् ही जीवों के परम प्राप्य हैं । किन्तु श्रीभगवान् की प्राप्ति के साधन उनकी प्रसन्नता है । अपने प्रयासों द्वारा उनको प्राप्त करना कठिन है । वे जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसको प्राप्त हो जाते हैं। काठकश्रुति कहती है – ‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः ।’ अर्थात् जिसको परमात्मा अपना लेता है उसीको वह प्राप्त होता है । अतएव परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयास न करके उसकी प्रसन्नता के लिए प्रयास करना चाहिए । श्रीभगवान् की प्रसन्नता के लिए दो साधन हैं- भक्ति एवं प्रपत्ति । इन दोनों से ही श्रीभगवान् प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर अपनी प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं । गीता में वे स्वयं कहते हैं -
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
अर्थात् जो जीव तैलधारावदविच्छिन्न स्मृतिसन्तान रूप प्रीतिपूर्वक सदा मेरे स्वरूप रूपैश्वर्यादि का चिन्तन किया करते हैं, उनको मैं ऐसी बुद्धि का योग दे देता हूँ कि वे मेरे सन्निकट में पहुँच जाते हैं ।
भगवान् ही जीवों के प्राप्य हैं- ‘अप्राकृतदेशविशिष्टः’ इत्यादि वाक्य से बतलाया गया है कि दिव्य श्रीवैकुण्ठलोक में रहने वाले श्रीभगवान् ही जीवों के लिए प्राप्य हैं । इसीलिए विष्णुसहस्रनाम में भीष्म कहते हैं- ‘मुक्तानां परमागतिः ।’ अर्थात् भगवान् ही मुक्त जीवों के लिए परम प्राप्य हैं । महर्षि बादरायण ‘मुक्तोपसृत्य व्यपदेशाच्च’ सूत्र में भी कहते हैं कि श्रुतियां बतलाती हैं कि परमब्रह्म मुक्तजीवों का प्राप्य है । इस अर्थ का वेदान्तवाक्यों के आलोक में प्रतिपादन करने वाले आचार्यों की नामावली का निर्देश ग्रन्थकार व्यास बोधायन इत्यादि वाक्य से करते हैं ।
यतीन्द्रमत-दीपिका का दूसरा नाम ग्रन्थकार ने शारीरक- परिभाषा बतलाया है । चेतनाचेतनात्मक जगत् परमब्रह्म का शरीर है, अतएव ‘जगत् शरीरमस्ति अस्य’ इस अर्थ में ‘शारीरः ’ पद बनता है । शारीर का अर्थ है परमात्मा । उस जगत् रूप शरीर वाले ब्रह्म का वर्णन करने के कारण ‘शरीरं कायति = गायति = वर्णयति’ इस अर्थ में शारीरक पद से वेदान्तशास्त्र का अभिधान होता है । इस तरह इस ग्रन्थ का दूसरा नाम वेदान्त- परिभाषा भी है ।
आदिदेवानन्दः (En)
- Sriman Narayana alone having cit (the senti- ent) and acit (the non-sentient) for His qualifications is the sole Reality, one without a second. He alone, propitiated by devotion and self-surrender, is the means (to salvation) and He alone qualified by the non-material realm10 is the goal to be attained. Śrī Vyāsa, Bodhāyana, " Guhadeva, Bhāruci, Brahma- nandin, 13 Dramidācārya, 14 Śrī Parānkuśa, 15 Nātha, 16 Yamunamuni,17 Yatīśvara18 and others establish this by means of the Vedanta texts. Following their school I, by the grace of Mahācārya,19 proceed to expound to the best of my ability and in a summary fashion (the work) Sārīrakaparibhāsā, called Yatindramatadipikar based on the Vedanta for the instruction of beginners.
गोविन्दाचार्यः (En)
The BLESSED LORD (Śriman-Nārāyaṇa) " alone is the Truth (tattva), adjectivated by soul and non-soul, and secondless. By Love (Bhakti) and Resignation (Prapatti,) propitiated, He alone is the Means; and He alone is the Goal, adjectivated by the Spiritual Universe. Thus, by means of the texts (or passages) of the Vedanta, do they establish-viz., Vyasa, Bodhāyana, Guhadeva, Bhāruci, Brahmanandi, Dramiḍācārya, Śrī Parānkuśa, Natha,’ Yamu- namuni, Yatiśvara’ and others. According to their School, I proclaim, by the grace of Mahā- cārya (my Guru or Spiritual Preceptor), the Śariraka-Paribhasha," named Yatindra-mata- Dipika (or the Light of Ramanuja’s School),- which follows the Vedanta-for the instruction of students.
मूलम्
१. श्रीमन्नारायण एव चिदचिद्विशिष्टाद्वैततत्त्वं (चिदचिद्विशिष्टोऽद्वैतं तत्त्वम्), भक्तिप्रपत्तिभ्यां प्रसन्नः स एवोपायः, अप्राकृतदेशविशिष्टः स एव प्राप्यः इति वेदान्तवावाक्यैः प्रतिपादयताम् श्रीव्यासबोधायन-गुहदेवभारुचिब्रह्मनन्दिद्रमिडाचार्य-श्रीपराङ्कुशनाथयामुनमुनियतीश्वरप्रभृतीनां मतानुसारेण बालबोधनार्थं वेदान्तानुसारिणी यतीन्द्रमतदीपिकाख्या शारीरकपरिभाषा महाचार्यकृपावलम्बिना मया यथामति सङ्ग्रहेण प्रकाश्यते ।