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पुस्तक-परिचय

दर्शनों में वेदान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वेदों के अन्तिम भाग तथा वेदों के अर्थ-निश्चय को वेदान्त कहते हैं। वेदान्त की अनेक शाखाओं में विशिष्टाद्वैत वेदान्त अन्यतम है। श्री श्रीनिवासाचार्य द्वारा रचित ‘यतीन्द्रमतदीपिका’ विशिष्टाद्वैतदर्शन का प्रवेश ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के दो भाग हैं-1. प्रमाण-विचार भाग तथा 2. प्रमेय-विचार भाग। यतीन्द्रमतदीपिका के प्रथम तीन अवतारों में प्रमाणों का विचार तथा शेष सात अवतारों में प्रमेयों का विचार किया गया है। इस प्रकार ये अवतार-सत्पक्ष का संरक्षण, सत्पक्षप्रतिपक्षी पक्ष का खण्डन तथा तत्त्व, हित एवं पुमर्थज्ञान रूप सद्धर्म का प्रवर्तन करने का कार्य करते हैं। इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने अधिक से अधिक सैद्धान्तिक भावों को कम से कम शब्दों में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त करके ग्रन्थ को सरल और सुबोध बनाने का प्रयास किया है, जिससे यह ग्रन्थ जिज्ञासुओं के मन में विषय- सम्बद्ध विस्तृत भावों को जानने की अभिलाषा उत्पन्न कर देता है।

आमुख

दर्शनों में वेदान्त का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । वेदों के अन्तिम भाग तथा वेदों के अर्थ निश्चय को वेदान्त कहते हैं । ‘वेदानामन्तः’ यह वेदान्त शब्द का विग्रह है । अन्त शब्द अनेकार्थक है । ‘अन्तः स्वरूपे निकटे प्रान्ते निश्चय- नाशयोः’ ( नानार्थक कोश ) । इस कोशवाक्य के अनुसार यहाँ अन्त शब्द को अन्तिम भागपरक अथवा अर्थनिश्चयपरक माना जा सकता है । वेदों का अन्तिम भाग उपनिषद् है तथा वेदों के अर्थों का निश्चय मीमांसाशास्त्र में किया जाता है । ‘वेदानां - संहिताब्राह्मणोपनिषदाम्, अन्तः - निश्चयो, यत्र सो वेदान्तः ।’ यह वेदान्त शब्द का व्याकृत विग्रह किया जाता है । इस विग्रह के अनुसार विशतिलक्षणी मीमांसा वेदान्तशास्त्र का अभिधेयार्थ है ।

अस्तु, सम्पूर्ण जगत् का हितानुशासन रूप वेद है । पूर्वोत्तर मीमांसाओं में आराध्य ईश्वर तथा आराधन के साधन कर्मों का स्वरूप निरूपित किया गया है । परमात्माराधनैकरूपता ही सभी कर्मों का स्वरूप है; यह सभी तत्त्वों के अभिज्ञ महापुरुष मानते हैं। श्रुति कहती है- ‘क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ’ ब्रह्मनिष्ठो में वह श्रेष्ठ है, जो भगवदाज्ञा-स्वरूप मानकर नित्यनैमित्तिकादि क्रियाओं का फलाभिसंधिरहित होकर अनुष्ठान किया करता है । यज्ञ, दान, तप आदि कर्म तो ब्रह्मनिष्ठों को भी पावित करने का कार्य करते हैं, अतएव वे आजीवन अनुष्ठेय हैं। इस प्रकार सदाचार्य की संन्निधि में उभय मीमांसा का श्रवण करने वाले व्यक्ति की व्युत्पत्ति की पूर्ति हो जाती है । ‘वेदान्तश्रवणेनैव व्युत्पत्तिः पूर्यते ।’ इस सदुक्ति के अनुसार वेदान्त का श्रवण किये बिना ज्ञान की पूर्णता नहीं होती है ।

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वेदान्त के अनुयायियों को श्रीदेवी द्वारा प्रवर्तित दश

आज वेदान्तों की अनेक शाखाएँ प्रचलन में हैं, उनमें विशिष्टाद्वैत वेदान्त अन्यतम है । सम्पूर्ण वेदों की तत्त्वापादकता इस अभिप्रेत है । भगवान् नारायण द्वारा उपदिष्ट, दिव्यसूरियों द्वारा संरक्षित तथा नोथमुनि, यामुनमुनि प्रभृति आचार्यों द्वारा प्रवद्धित श्रीविशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुकूल ब्रह्मसूत्रों के श्रीभाष्य नामक भाष्य का प्रणयन भगवत्पाद रामानुजाचार्य ने किया । श्रीभाष्य के दिव्यालोक द्वारा भगवत्पाद रामानुजाचार्य ने श्रुतियों, स्मृतियों तथा सूत्रों में व्याप्त विसंगतियों का पूर्ण रूप से अपनोदन कर श्रुति सरस्वती का पूर्ण सम्मान किया, ‘जिससे प्रसन्न होकर विद्याधिष्ठात्री देवी सरस्वती ने श्रीभाष्य के सम्मान में

उसे अपने शिर पर धारण किया । तथाहि-

‘तच्छ्र ुत्वा शारदा हृष्टा श्रीभाष्यं तत्कृतं महत् । शिरस्यारोप्य सम्भाव्य ततो बाहू प्रसार्य च ॥

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यतीन्द्रपाणि सगृह्य न प्रक्षिप्तमिदं निजम् । इत्यङ्गीकृत्य वाग्देवी श्रुत्यर्थं तेन भाषितम् ॥ तस्याकरोद् भाष्यकार इति नाम तदा मुदा ।

हयग्रीवं कारयित्वा तस्मै दत्त्वा महौजसे ॥’

श्रीरामानुजाचार्य के विचारों के प्रबल समर्थक तथा शताधिक दुर्धर्ष ग्रन्थों के प्रणेता चतुरस्र प्रतिभासम्पन्न श्रीमद् वेङ्कटनाथ वेदान्तदेशिक श्रीरामा- नुजाचार्य के अप्रतिम व्याख्याकार हुए। वेदान्ताचार्य के व्याख्याकारों में श्रीमन्महाचार्य की सर्वाधिक प्रख्याति हुई । श्रीमन् महाचार्य का जन्मकाल १।२।१५४३ ई० है तथा तिरोभावकाल ३।१०।१६०७ ई० है ।

यतीन्द्र मतदीपिकाकार का परिचय

यतीन्द्रमतदीपिका के प्रणेता श्रीनिवासाचार्य श्रीमन् महाचार्य के शिष्यों में अन्यतम हैं । इसीलिए श्रीनिवासाचार्यं यतीन्द्रमतदीपिका के द्वितीय मङ्गला- चरण में आचार्य-स्तवन करते हुए श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमद्वेदान्तदेशिक तथा महाचार्य की स्तुति करते हैं । वे कहते हैं—

‘यतीश्वरं प्रणम्याहं वेदाचार्यं महागुरुम् । करोमि बालबोधार्थं यतीन्द्रमतदीपिकाम् ॥

( द्वितीय मंगलाचरण यतीन्द्रमतदीपिका )

सभी अवतारों के अन्त में उनकी प्रशस्ति में ‘इति श्रीबाधूलकुलतिलक- श्रीमन्महाचार्य प्रथमदासेन श्रीनिवासदासेन’ इत्यादि पंक्ति देखने को मिलती है । इससे भी पता चलता है कि वे श्रीमन्महाचार्य के शिष्यों में प्रधान शिष्य थे ।

यद्यपि श्रीनिवासाचार्य के काल का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता, किन्तु वे चूंकि श्रीमन्महाचार्य के शिष्यों में प्रधान थे, इससे स्पष्ट है कि उनका भी काल श्रीमन्महाचार्य के काल से कुछ वर्ष पश्चात् का होगा । यह निश्चित है कि श्रीमन् महाचार्य का जन्मकाल १ फरवरी १५४३ है और उनका तिरोभाव काल ३ अक्तूबर १६०७ है । यह भी निश्चित है कि महाचार्य को प्रख्यात विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध होने में जीवन के कम से कम ३० वर्ष लग गये होंगे । इसके पश्चात् ही उनके छात्रों की संख्या भूयसी हुई होगी। श्रीनिवासा- चार्य श्री महाचार्य के उस समय के शिष्यों में है, जब कि उनके शिष्यों की संख्या भूयसी हो गयी होगी । अथवा ‘श्रीमन्महाचार्य प्रथमदासेन’ का यह भी अर्थ हो सकता है कि श्रीनिवासाचार्य महाचार्य के सर्वप्रथम शिष्य रहे हों । अस्तु, जो कुछ भी हो श्रीनिवासाचार्य की अवस्था श्रीमहाचार्य से कम से कम ३० वर्षं तो अवश्य कम रही होगी। इस प्रकार श्रीनिवासाचार्य का काल सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तथा सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के लगभग अवश्य मानना होगा ।

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यतीन्द्रमतदीपिका के उपसंहार ग्रन्थ के अन्त में श्रीनिवासाचार्य की प्रशस्ति के रूप में दो विशेषणों का प्रयोग किया गया है । वे विशेषण हैं- ( १ ) इति

श्रीवाधूलकुलतिलक- श्रीमन्महाचार्यस्य प्रथमदासेन, ( २ ) श्रीवेङ्कट गिरिनाथपदकमलसे वापरायणस्वामिपुष्करिणी श्रीगोविन्दार्य सूनुना । इस दूसरे विशेषण से पता चलता है कि इनके पिताश्री का नाम श्रोगोविन्दाचार्य था, जो श्रीवेङ्कटेश भगवान् के भक्त तथा श्रीवेङ्कटेश मन्दिर के सन्निकट में ही विद्यमान स्वामि पुष्करिणी पर निवास करते थे । इसीलिए वे ‘स्वामिपुष्करिणी गोविन्दाचार्य’ की संज्ञा से अभिहित किये जाते थे ।

अपने पिता की ही परम्परा को सुरक्षित रखने के कारण श्रीनिवासाचार्य यतीन्द्रमतदीपिका के प्रथम मङ्गलाचरण में श्रीवेङ्कटेश भगवान् तथा श्रीभग- वान् के अन्य अर्चावतार रूपों की स्तुति करते हैं । इससे इनके भगवान् वेङ्क- टेश में प्रथित भक्ति का पता चलता है ।

श्रीनिवासाचार्य ने यतीन्द्रमतदीपिका का उपसंहार करते हुए यतीन्द्रमत- दीपिका के उपजीव्य ग्रन्थों की एक लम्बी सूची दी है, जिससे स्पष्ट है कि आपने तात्कालिक विशिष्टाद्वैत दर्शन के उद्भट विद्वानों द्वारा प्रणीत बत्तीस ग्रन्थों को इस ग्रन्थ का उपजीव्य बनाया ।

जिस प्रकार भक्ति के स्वरूप का निरूपण उपनिषदों में व्याख्यात बत्तीस ब्रह्मविद्याएँ करती हैं, जिस प्रकार श्रीमद् वेङ्कटनाथ वेदान्तदेशिक ने पादुका- सहस्र का प्रणयन बत्तीस पद्धतियों में किया, उसी प्रकार श्रीनिवासाचार्य ने विशिष्टाद्वैत दर्शन के मान्य सिद्धान्तों का उन्मीलन अपने पूर्वाचार्यों के बत्तीस ग्रन्थों को आधार बनाकर किया । यह यतीन्द्रमतदीपिका दश अवतारों में विभक्त है । श्रीभगवान् के प्रधान अवतारों की भी संख्या दश मानी जाती है । जिस प्रकार साधु-संत्राण, अधर्म-विनाश तथा धर्म-संस्थापनार्थ श्रीभगवान् अपने प्रधान दश अवतारों में अवतरित हुए, उसी प्रकार यह यतीन्द्रमतदीपिका भी विशिष्टाद्वैतदर्शन का पूर्णरूप से प्रतिपादन तथा वेदान्तार्थाधिजिगमिषु छात्रों में वेदान्त का यथायथ ज्ञान का प्राकट्य करने के लिए दश अवतारों में अवतीर्ण हुई ।

श्रीनिवासाचार्य-प्रणीत यतीन्द्रमतदीपिका का मूल पाठ मैंने वही लिया है, जो पाठ ‘विद्याभूषण तिरुनांगूर प्र० भ० अण्णङ्गराचार्य, विद्वान् स्वामी’ श्रीरङ्गजी मंदिर, वृन्दावन, उ० प्र० ने स्वीकार किया है । इन्हीं विद्वान् स्वामीजी की लघुवर्तिका नाम की संस्कृत व्याख्या यतीन्द्रमतदीपिका पर मुझे उपलब्ध थी । इस प्रकरण-ग्रन्थ पर हिन्दी में कोई भी व्याख्या. उपलब्ध नहीं थी ।

यतीन्द्रमतदीपिका विशिष्टाद्वैतदर्शन का प्रवेश ग्रन्थ है । इसका आकार जितना ही लघु है, इसके भाव उतने ही विस्तृत हैं । ग्रन्थकार ने अधिक से

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अधिक सैद्धान्तिक भावों को कम से कम शब्दों में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त करके इसको जितना ही सरल और सुबोध बनाने का प्रशस्त प्रयास किया, उतना ही यह ग्रन्थ जिज्ञासुओं के मन में विस्तृत भावों को जानने की अभि- लाषा उत्पन्न कर देता है ।

इस ग्रन्थ का जब मैं स्वर्गीय स्वामी को० व० नीलमेघाचार्यजी, वाराणसी की सन्निधि में अध्ययन करता था, उस समय उक्त श्रीस्वामीजी अपने वात्सल्यातिरेक के कारण कभी-कभी इस ग्रन्थ की कुछ पंक्तियों के भावों को मुझे बतलाया करते थे । अध्ययन के पश्चात् मैं तो अध्यापन कार्य में व्यापृत हो गया । इस वर्ष ग्रीष्मावकाश के अवसर पर मन में विचार आया कि- ‘यतीन्द्र मतदीपिका’ के उन विशद भावों को भावप्रकाशिका व्याख्या के रूप में मैं अभिव्यक्त करूँ, जिन भावों को श्रीस्वामी जी कभी-कभी बतलाया करते थे ।

संयोगवशात् चौखम्बा सुरभारती के अध्यक्ष श्रीयुत् नवनीतदासजी से बातें हुई तो उन्होंने भी मुझे इस पवित्र कार्य को करने के लिए प्रेरित किया और मैं इस वर्ष इस कार्य में लग गया और इसी १९८८ के ग्रीष्मावकाश की समाप्ति के पूर्व ही लगभग चालीस दिनों में इस पावन कार्य को पूरा कर लिया । उसी का परिणाम है कि यतीन्द्र मतदीपिका की भावप्रकाशिका आज आपके कर-कमलों में जा रही है ।

भावप्रकाशिका के सारे विचार हमारे पूज्य गुरुदेव स्वर्गीय स्वामी को० व० श्रीनीलमेघाचार्य जी के विचारों के कुछ अंशमात्र हैं, यह दूसरी बात होगी कि उनके विचारों को सुने हुए बहुत दिन हो जाने के कारण उनके पावन भावों से मेरे कुछ अज्ञातजन्य दोष संपृक्त हो गये हों ।

यतीन्द्रमतदीपिका के अवतारों का सारांश भी पाठकों की सुविधा के लिए सम्मिलित किया गया है । भावप्रकाशिका में व्याख्यात प्रधान विषयों की सूची भी प्रस्तुत की गयी है, जिससे कि अध्येताओं को अपने अभीष्ट विषय को अन्वेषित करने में अधिक कठिनाई न उठानी पड़े ।

अन्त में अपने उन सभी सहयोगियों का आभारी हूँ, जिन लोगों ने मुझे इस कार्य को करने के लिए प्रोत्साहित किया । साथ ही मैं चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी के अध्यक्ष श्रीनवनीतदासजी का आभारी हूँ जिन्होंने बड़ी ही उदारता के साथ इस ग्रन्थ के प्रकाशन का भार ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत किया है । विशेष भगवदिच्छा ।

आचार्य शिवप्रसाद द्विवेदीयतीन्द्रमतदीपिका - स्वरस

यतीन्द्र श्रीरामानुजाचार्य का सिद्धान्त है कि सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत् श्रीभगवान् का शरीर है, अतएव यह श्रीभगवान् का नियाम्य, धार्य एवं शेष है और श्रीभगवान् इस सम्पूर्ण जगत् की आत्मा है; अतएव वे सम्पूर्ण जगत् के नियामक, धारक एवं शेषी हैं । इसी अर्थ का प्रतिपादन - १. ‘यस्यात्मा शरीरम्’ अर्थात् जिस परमात्मा का यह आत्मा शरीर है, २. ‘जगत् सर्वं शरीरं ते’ अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् आपका शरीर है, ३. ‘तत् सर्वं वै हरेस्तनुः ’ अर्थात् जो यह जड़-चेतनात्मक जगत् है, वह सम्पूर्ण श्रीहरि का तनु (शरीर ) है - इत्यादि अनेक श्रौतस्मार्त वाक्य करते हैं । यतीन्द्र श्रीरामानुजाचार्य के मत का प्रकाशन करने के कारण ही इस प्रकरण-ग्रन्थ का नाम यतीन्द्रमत- दीपिका है । ‘यतीनामिन्द्रः यतीन्द्रः, श्रीरामानुजाचार्य इत्यर्थः, तस्य मतम् = सिद्धान्तं दीपयति = प्रकाशयति या सा’ यही यतीन्द्रमतदीपिका शब्द की व्युत्पत्ति है ।

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यतिराज श्रीरामानुजाचार्य ने अपनी कृतियों के द्वारा जिस दर्शन का समर्थन किया, उसे विशिष्टाद्वैत के नाम से अभिहित किया जाता है । वेदान्त- वेद्य परमात्मतत्त्व एक तथा चेतनाचेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् से विशिष्ट है । परमात्मा एवं जगत् में शरीर - शरीरीभाव सम्बन्ध है । जिस प्रकार शरीर अपनी आत्मा का अपृथसिद्ध होता है, वह अपनी आत्मा के बिना क्षणभर भी नहीं टिक पाता है, उसी प्रकार जगत् भी परमात्मा का अपृथसिद्ध पदार्थ है, वह परमात्मा से पृथक् होते ही विनष्ट हो जायेगा । वह जड़चेतनविशिष्ट परमात्मा एक ही है, उससे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है; इसी अर्थ को विशिष्टाद्वैत शब्द बतलाता है । जिस प्रकार शरीर अपनी आत्मा से भिन्न होने पर भी अपनी आत्मा से अभिन्न है, उसी प्रकार परमात्मा से भिन्न होकर भी जगत् परमात्म- विशेषणतया उससे अभिन्न ही है । इसी अर्थ को दृष्टिपथ में रखकर विशिष्टा- द्वैत शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्ति की जाती है— ‘द्वयोर्भावो द्विता, द्वितैव द्वैतम् भेद इत्यर्थः । न द्वैतमद्वैतम् अभेद इत्यर्थः । विशिष्टस्य अद्वैतं विशिष्टा- द्वैतम् । वैशिष्ट्यञ्च चिदचिदोः ।’

विशिष्टाद्वैतदर्शन के प्रधान प्रतिपाद्य श्रीभगवान् के प्रधान रूप से दश अवतार स्वीकार किये जाते हैं । भगवत्तत्त्व को ही प्रधानरूप से वेदवेदान्तवेद्य बतलाने वाली इस यतीन्द्रमतदीपिका के भी दश अवतार हैं । जिस प्रकार श्रीभगवान् के अवतारों के प्रयोजन – १. सज्जनों की रक्षा, २. विनाश तथा ३ सज्ज्ञानधर्म का प्रवर्तन - ये तीन माने जाते हैं, उसी प्रकार

असज्जनों के

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इस यतीन्द्रमतदीपिका के भी अवतार - १. सत्पक्ष का संरक्षण, २. सत्पक्षप्रति - पक्षी पक्ष का खण्डन तथा ३. तत्त्व, हित एवं पुमर्थज्ञान रूप सद्धर्म का प्रवर्तन करने का कार्य करते हैं ।

सम्पूर्ण यतीन्द्र मतदीपिका को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- प्रमाणविचार भाग तथा प्रमेयविचार भाग । यतीन्द्रमतदीपिका के प्रथम तीन अवतारों में प्रमाणों का विचार किया गया है तथा शेष सात अवतारों में प्रमेयों का विचार किया गया है । भगवान् मनु ने भी बतलाया है कि- ‘प्रत्यक्षमनुमानञ्च शास्त्रश्च विविधागमम् ।

त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मसिद्धिमभीप्सुना ।’

अर्थात् तत्त्वतः धर्म के स्वरूपज्ञान की कामना वाले मनुष्य को चाहिए कि वह प्रत्यक्ष, अनुमान तथा अनेक आगमों से युक्त शास्त्र ( शब्द ) को अच्छी तरह से जाने । अतएव इस यतीन्द्रमतदीपिका के प्रथम तीन अवतारों में क्रमशः प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द, इन तीन प्रमाणों का निरूपण करके; तत्- तत् वादियों को अभिमत, इन तीन प्रमाणों से भिन्न प्रमाणों का, इन्हीं प्रमाणों में अन्तर्भाव भी बतलाया गया है ।

आगे यतीन्द्रमतदीपिका के दश अवतारों का स्वरस संक्षिप्ततम रूप से विवेचित है ।

प्रथम अवतार

वेदान्तियों की यह मान्यता हैं कि ज्ञान स्वतःप्रमाण द्रव्य है । प्रमाणों की कल्पना वस्तुओं की यथावस्थित रूप से ग्रहणार्थ ही की गयी है । ज्ञान कारण- दोष के कारण कभी-कभी भ्रान्ति तथा संशय के भी जनक होते हैं । अत एव यह स्वीकार किया जाता है कि ज्ञानों में प्रामाण्य स्वतः एवं अप्रामाण्य परतः होता है । मीमांसकों की भी यही मान्यता है । प्रकरणपविका के तृतीय नयवीथी- प्रकरण में श्रीशालिकनाथ ने कहा भी है- ‘यथार्थं सर्वविज्ञानमिति वेदविदां मतम् ।’ अर्थात् वैदिकों का यह सिद्धान्त है कि सभी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं । किन्तु नैयायिकों का कहना है कि ज्ञानों के प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों परतः ही होते हैं, स्वतः नहीं । वे कहते हैं कि प्रमा भी ज्ञान विशेष है, अतएव वह ज्ञान के सामान्य कारणों से अतिरिक्त कारणजन्य है । जिस प्रकार अप्रमा (अप्रामाणिक ज्ञान ) ज्ञान के सामान्य कारणों से भिन्न दोष से जन्य होती है; उसी प्रकार प्रमा ( प्रामाणिक ज्ञान ) भी गुणजन्य होती है । किन्तु यहाँ ज्ञान के स्वतः प्रामाण्य को स्वीकार करने वालों का कहना है कि हम भी प्रमा के जनक, ज्ञान के सामान्य हेतुओं से अतिरिक्त हेतु को मानते हैं और वह हेतु है दोषा- भाव रूप हेतु । जब ज्ञान के जनक हेतु में किसी प्रकार का दोष नहीं होता तो उस हेतु से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रमा कहलाता है । अत एव दोषाभाव को ही प्रमा का जनक मानना चाहिए; ऐसा ही मानने में लाघव भी है ।

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यतीन्द्रमतदीपिका के प्रारम्भ में पदार्थों के विभाजन के पश्चात् प्रत्यक्ष- प्रमाण के निरूपण का प्रारम्भ किया गया । इस अवतार में प्रत्यक्ष के निवि- कल्पक तथा सविकल्पक, इन दो भेदों को बतलाकर कहा गया है कि निवि- कल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा भी सविशेष ( कतिपय विशेषणविशिष्ट ) वस्तु का ग्रहण होता है । कोई भी प्रत्यक्ष सर्वविशेषणविहीन वस्तु का ग्राहक नहीं होता है । इसी अवतार में सत्ख्याति का भी निरूपण किया गया है । इस अवसर पर बतलाया गया है कि पञ्जीकरण प्रक्रिया के अनुसार एक द्रव्य में दूसरे द्रव्यों का सद्भाव रहता है । किसी द्रव्य में द्रव्यान्तर के सद्भाव की सिद्धि प्रति- निधि विधानोपपादकन्याय से सिद्ध है । जो वस्तु जिसके उसका प्रतिनिधि होता है । श्रीभाष्य में भी बतलाया गया है कि सोम के अभाव में पूतिका लेने का विधान ‘सोमाभावे पूतिकाग्रहणम्’ श्रुति इसलिए करती है कि पूर्तिका में सोम का अंश विद्यमान रहता है । अतएव उसे सोम का प्रतिनिधि माना जाता है । इसी प्रकार रस्सी में सर्प का ज्ञान इसलिए होता है कि रस्सी में सर्पांश विद्यमान रहता है ।

सदृश होती है, वही

सभी वादी ख्यातिभ्रम को मानते हैं । प्रभाकर मीमांसक भ्रमस्थल में अख्याति को स्वीकार करते हैं । उनके अनुसार शुक्ति में रजत का भ्रम इस- लिए होता है कि वहाँ पर शुक्ति तथा रजत के भेद का ज्ञान ही नहीं हो पाता है । इसी के कारण भ्रान्त पुरुष शुक्ति को देखकर उसे रजत समझ लेता है ।

योगाचार बौद्ध भ्रमस्थल में आत्मख्याति स्वीकार करते हैं । योगाचार बौद्ध विज्ञान को ही आत्मा मानते हैं । वे कहते हैं कि वासना - दोष के कारण विज्ञानात्मा ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगती है ।

माध्यमिक बौद्ध भ्रान्तिस्थल में असत्ख्याति को स्वीकारते हैं । उनके अनुसार जिस प्रकार विषय असत् है, उसी प्रकार ज्ञान भी असत् ही है । वह तो संवृति नामक दोष के कारण सत् के समान तथा भिन्न-भिन्न के समान प्रतीत होता है ।

नैयायिक तथा भाट्ट मीमांसक उनके अनुसार सादृश्य-दोष के कारण

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अन्यथाख्याति को स्वीकार करते हैं ।

पुरोवर्ती द्रव्य में ही पूर्वदृष्ट रजतादि पदार्थों की प्रतीति होने के कारण भ्रमज्ञान होता है ।

अद्वैती विद्वान् भ्रमस्थल में अनिर्वचनीय ख्याति को स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं कि शुक्तिरजत-भ्रमस्थल में अविद्या- दोष के कारण एक विशेष प्रकार का रजत उत्पन्न हो जाता है । वह रजत न तो सत् होता है और न असत् । अपि तु वह सदसत् अनिर्वचनीय होता है । उसी का ग्रहण होने के कारण भ्रम- स्थल में अनिर्वचनीय ख्याति होती है ।

विशिष्टाद्वैत दर्शन में माना जाता है कि शुक्ति में भी रजतांश रहता है, अतएव वह रजत के सदृश होता है । चाकचिक्य-दोष के कारण शुक्ति में रजत

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का भ्रम होता है । रजतांश का शुक्ति में सद्भाव होने के कारण यतीन्द्रमत- दीपिकाकार को भ्रमस्थल में सत्ख्याति का स्वीकार अभिप्रेत है । इसके पश्चात् इस अवतार में स्मृति का भी प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव बतलाया गया है । स्मृति- ज्ञान यद्यपि प्रामाणिक होता है, किन्तु अनुभवमूलक होने के कारण उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है । यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने वस्तु प्रत्यक्ष में होने वाले इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को दो प्रकार का माना है - संयोग तथा संयुक्ताश्रय । ब्रह्मसूत्रों में समवाय को नहीं स्वीकारा गया है, अतएव उसे विशिष्टाद्वैती भी नहीं मानते हैं । इसी प्रसङ्ग में यह भी कहा गया है कि ‘दशमस्त्वमसि’ वाक्य- जन्य ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान नहीं है ।

द्वितीय अवतार

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यतीन्द्रमतदीपिका के द्वितीय अवतार में अनुमानप्रमाण का निरूपण किया गया है । इसी प्रसङ्ग में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, बाधित ( प्रकरण- सम ) तथा कालात्ययापदिष्ट, इन पाँच हेत्वाभासों का निरूपण किया गया है । नैयायिक मानते हैं कि अत्यन्त अतीन्द्रिय पदार्थ का भी अनुमान होता है । यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने बतलाया है कि अत्यन्त अतीन्द्रिय पदार्थ का अनुमान इसलिए असंभव है कि उसका व्याप्तिग्रह असंभव होगा । प्रसङ्गवशात् यतीन्द्र- मतदीपिकाकार ने केवलव्यतिरेकी अनुमान का यह कहकर खण्डन किया है कि केवलव्यतिरेकी हेतु पक्षमात्र में विद्यमान रहने के कारण साधक हेतु हो ही नहीं सकता है, क्योंकि हेतु के लिए यह आवश्यक होता है कि वह पक्ष तथा सपक्ष दोनों में विद्यमान रहे तथा विपक्ष में न रहे । किन्तु केवलव्यति- रेकी हेतु सपक्ष में अन्वित होता ही नहीं । अतएव केवलव्यतिरेकी हेतु का असाधारण में ही अन्तर्भाव हो जाता है । किञ्च प्रश्न उठता है कि केवल- व्यतिरेकी अनुमान का साध्य, अनुमान से पूर्व कहीं पर प्रसिद्ध है कि नहीं ? यदि नहीं, तब तो फिर साध्याप्रसिद्धि-दोष होगा । यदि है तो फिर प्रश्न होता है कि वह पक्ष में प्रसिद्ध है कि उससे भिन्न स्थल में ? यदि पक्ष में है तो फिर सिद्धसाधनता दोष होगा । यदि पक्षव्यतिरिक्त में है और उसमें हेतु अन्वित है तो फिर केवलान्वयी ही अनुमान होगा, यदि हेतु उसमें अन्वित नहीं है तो फिर वह असाधारण हेतु होगा ।

नैयायिक विद्वान् यहाँ पर यह कहते हैं कि यदि केवलव्यतिरेकी को न स्वीकारा जाय तो फिर लक्षण की सिद्धि नहीं होगी; क्योंकि वस्तु का लक्षण स्वेतर समस्तवस्तु व्यावर्तक रूप होता है । उसकी सिद्धि तो केवलव्यतिरेकी हेतु के द्वारा ही सम्भव है । किन्तु नैयायिक विद्वानों का यह कथन इसलिए उचित नहीं है कि लक्षण तो अन्वयी रीति से भी किया जा सकता है । यह कहा जा सकता है कि यह गौ है, क्योंकि यह सास्ना वाली है । सास्ना वाली होने के कारण ही यह अश्व आदि से भिन्न भी है ।

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जैसे - मेरी गौ । यदि कहा जाय कि ईश्वर तो एक है, उसका लक्षण अन्वयी रीति से कैसे संभव है ? तो इसका उत्तर है कि शास्त्र ही ईश्वर को स्वेतर समस्त चेतन तथा अचेतन पदार्थों से भिन्न वतलाता है, उसके लिए अनुमान करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। कुछ अनीश्वरों में भी, जो ईश्वरत्व की शङ्का होती है, उनमें भी ईश्वर के लक्षण का अभाव होने के कारण उनका ईश्वर से भेद अन्वयी रीति से ही सिद्ध हो जाता है । अनुमान

के द्वारा अत्यन्त अतीन्द्रिय तथा शरीररहित ईश्वर कर्त्ता सिद्ध नहीं हो सकता है; अत एव अत्यन्त अतीन्द्रिय पदार्थों की अनुमान के द्वारा सिद्धि संभव नहीं है । मही- महीधर आदि पदार्थों को सावयवत्व हेतु के द्वारा कार्य सिद्ध करके कार्यत्व हेतु के द्वारा उनके कर्त्तारूप से ईश्वर का अनुमान करने पर अन्य घटादि के कर्त्ताओं के समान ईश्वर में भी अल्पज्ञत्व तथा शरीरित्व आदि की सिद्धि होने के कारण कार्यत्व हेतु विरुद्ध हेतु होगा । मीमांसकों को भी यह मान्यता अभिप्रेत है । मानमेयोदय नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि बाधक हेतु दो प्रकार का होता है - विरुद्ध तथा विशेष विरुद्ध । मही-महीधर, समुद्र आदि सकर्तृक हैं, क्योंकि ये घट के समान कार्य हैं । इस अनुमान के साध्यभूत क्षित्यादि के कर्त्ता का अशरीरी होना यह विशेष अभिमत है । उस विशेषता के विपरीत शरीरी रूप से घटादि के कर्ताओं को देखे जाने के कारण, यह कार्यत्व हेतु साध्यंविशेष के विरुद्ध व्याप्त है । किञ्च यह अशरीरित्व का बाधक भी सिद्ध होता है, अतएव यह विशेषविरुद्ध बाधक हेतु है । इस प्रकार सिद्ध होता है कि अत्यन्त अती- न्द्रिय पदार्थ की अनुमान के द्वारा सिद्धि सम्भव नहीं है ।

अनुमान के हेतु के पांच रूप अपेक्षित होते हैं—पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्ष व्यावृतत्व अबाधित विषयत्व तथा असत् प्रतिपक्षत्व । इन पांच रूपों से सम्पन्न हेतु ही सद्हेतु माना जाता है । हेतु से भिन्न होने पर भी जिसकी हेतु के समान प्रतीति होती है, उसे हेत्वाभास कहते हैं । ये हेत्वाभास पाँच प्रकार के होते हैं । श्रीनाथमुनि ने न्यायतत्त्व नामक ग्रन्थ में तीन प्रकार के ही हेत्वाभासों का निर्देश किया है। उन्होंने न्यायतत्त्व में कहा है- ‘असिद्धानैकान्तिकविरुद्ध । हेत्वाभासाः ।’ अर्थात् असिद्ध, अनैकान्तिक तथा विरुद्ध, ये तीन हेत्वाभास हैं । श्रीनाथमुनि के अनुसार कालात्ययापदिष्ट पक्षाभास में तथा प्रकरणसम का अनैकान्तिक अथवा असाधारण में अन्तर्भाव सम्भव है । भाट्टमीमांसक मान- मेयोदय में कहते हैं कि असिद्ध, अनैकान्तिक, विरुद्ध तथा असाधारण, ये चार हेत्वाभास हैं । असाधारण का अनैकान्तिक में अन्तर्भाव सम्भव होने के कारण उनके भी मत में तीन ही हेत्वाभास बच जायेंगे । नैयायिक विद्वान् अनैकान्तिक नामक हेत्वाभास का एक अनुपसंहारी नामक भी भेद स्वीकार करते हैं, किन्तु उसका अन्तर्भाव असाधारण में ही हो जाता है, अतएव उसे पृथक् हेत्वाभास मानने की कोई आवश्यकता नहीं है ।

जिस अनुमान

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में सब कुछ पक्षान्तर्गत ही होता है, उसमें सपक्ष का अभाव होने के कारण साध्य तथा हेतु का व्याप्तिग्रह असम्भव होता है। पक्ष पाये जाने वाले हेतु को असाधारण हेतु माना जाता है । अनुपसंहा पक्षमात्रवृत्ति होता है । अतएव उसे असाधारण से अतिरिक्त मानने की कोई

आवश्यकता नहीं है ।

I

भाट्टमीमांसकों की मान्यता है कि जिस अनुमान में पक्ष में साध्य का अभाव निश्चित हो जाता है, उसमें जिज्ञासित साध्यवत्वरूप पक्षता की निवृति होने के कारण वह वाद्य पक्ष का दोष होता है, किन्तु नैयायिक पक्ष आदि के दोषों का भी हेतुदोप में पर्यवसान मानते हैं, जो उचित नहीं है । हेत्वाभास रूप जो दोष होते हैं, वे व्याप्ति तथा पक्षधर्मता ज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञान विषयक होते हैं । इसीलिए सिद्धसाधनतास्थल में हेत्वाभास नहीं होता है, किन्तु बाधस्थल में हेत्वाभास होता है; यह नैयायिकों का अभिप्राय है । सिद्धान्त में माना जाता है कि सिद्धिस्थल में भी सिषाधयिषा ( सिद्ध करने की इच्छा ) के ही द्वारा अनुमिति ( अनुमान जन्य ज्ञान ) की उत्पत्ति होती है, अतएव सिद्धसाधनस्थल में भी नियमतः पक्षत्व की असिद्धि नहीं हो सकती है। बाधस्थल में तो आहार्यं परोक्ष को स्वीकार न करने के कारण सिसाधयिषा के द्वारा भी अनुमिति की उत्पत्ति न हो सकने सकने के कारण कालात्ययापदिष्ट बाधित को है । पक्ष में साध्य के अभाव का निश्चय करवाकर, बाध तथा साध्याभाव की व्याप्यवत्ता का निश्चय करवाकर, विरुद्ध एवं सत्प्रतिपक्ष अनुमानजन्य ज्ञान ( अनुमिति ) के प्रतिबन्धक बनते हैं । हेतु की अनैकान्तता (व्यभिचारयुक्तता ) का ज्ञान हेतु एवं साध्य के सहचारज्ञान रूप व्याप्तिज्ञान का विरोधी होता है। हेतु के आश्रयासिद्धि तथा स्वरूपासिद्धि का ज्ञान पक्षधर्मता ज्ञान का विरोधी होता है । व्याप्यत्वासिद्धिस्थल में उपाधि व्यभिचार का अनुमान करवाकर हेतु के व्याप्तिज्ञान का प्रतिबन्धक बनता है । इस प्रकार सिद्ध होता है कि सर्वत्र हेत्वाभासों में दोषों का ज्ञान ही अनुमिति का प्रतिबन्धक होता है ।

तथा पक्षत्व की सिद्धिन हो हेत्वाभास मानना उचित ही

इसके पश्चात् यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने केवलान्वयी अनुमान का समर्थन करके अनुमान के दो भेदों को स्वीकारा है - अन्वयव्यतिरेकी तथा केवलान्वयी । पुनः यहीं पर उपमान तथा अर्थापत्ति का भी अनुमानादि में अन्तर्भाव प्रदर्शित किया गया है।

तृतीय अवतार

यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने दो प्रकार का शब्दप्रमाण स्वीकार किया है. लौकिक एवं वैदिक । विशिष्टाद्वैतदर्शन की मान्यता है कि वेद अपौरुषेय एवं

( १७ )

नित्य हैं । ईश्वर वेदों का कर्त्ता नहीं है, अपितु सृष्टि के प्रारम्भ में वे पूर्व- कल्पानुसारी आनुपूर्वी सम्पन्न वेदों का स्मरण करके उसका उपदेश ब्रह्माजी को दे देते हैं । यदि कहा जाय कि विशिष्टाद्वैती भी वर्णों की उत्पत्ति तथा विनाश स्वीकार करते हैं, अतएव अक्षरराशि रूप वेदों की नित्यता वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? तो इसका उत्तर है कि-सभी कल्पों में वेदों की आनुपूर्वी एकसमान होती है, कोई भी पुरुष स्वतन्त्र रूप से अपने मनोनुकूल वेदों की आनुपूर्वी का प्रणयन नहीं कर सकता है । यही कारण है कि सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा भी पूर्वकल्प में वेद जिस आनुपूर्वी से विशिष्ट रहता है, उसी आनुपूर्वीविशिष्ट वेद का उपदेश ब्रह्माजी को करते हैं । इस प्रकार वह सर्वदा एकसमानानुपूर्वीक ही रहता है सर्वदा एकसमानानुपूर्वीक रूप से पढ़ा जाना ही वेदों की नित्यता है । किञ्च ईश्वर भी स्वतन्त्रतापूर्वक उसकी रचना नहीं कर सकते हैं, अतएव वेद अपौरुषेय हैं । श्रीभाष्य के प्रथम अध्याय के तीसरे पाद के दैवताधिकरण में कहा भी गया है – ‘इदमेव वेदस्यापौरुषे- यत्वं नित्यत्वं च यत् - पूर्वपूर्वोच्चारण क्रमजनितसंस्कारेण तमेव क्रमविशेषं स्मृत्वा तेनैव क्रमेणोच्चार्यत्वम् । तदस्मासु सर्वेश्वरेऽपि समानम् । इयांस्तु विशेषः - संस्कारानपेक्षं स्वयमनुसन्दधे पुरुषोत्तमः ।’ अर्थात् वेदों की अपौरुषे- यता तथा नित्यता यही है कि- पूर्व-पूर्व उच्चारण के क्रम से उत्पन्न संस्कार के द्वारा पूर्वोच्चरित क्रमविशेष को स्मरण करके उसी (पूर्वोच्चारित) क्रम से उसका उच्चारण किया जाता है । पूर्वोच्चारित क्रम से ही वेदों का उच्चारण हम संसारी जीव तथा परमात्मा दोनों समान रूप से करते हैं । जीवों तथा परमात्मा के वेदोच्चारण में एक अन्तर अवश्य है कि हम जीवों का वेदोच्चा- रण संस्कार सापेक्ष होता है; किन्तु श्रीभगवान् पूर्वकल्प में जिस आनुपूर्वी से युक्त वेद होता है, उस आनुपूर्वी से विशिष्ट वेद का उच्चारण करने के लिए संस्कार की अपेक्षा नहीं रखते हैं, अपितु वे संस्कार निरपेक्ष होकर स्वयं उसका अनुसंधान करके श्रीब्रह्माजी को उपदेश कर देते हैं । यतीन्द्रमत- दीपिकाकार ने इसी अवतार में श्रीपाञ्चरात्र, वैखानसागम, दिव्यसूरियों के दिव्य प्रबन्ध तथा पूर्वाचार्यों के प्रबन्धों की वेदों के ही समान प्रामाणिकता प्रतिपादित की है । किञ्च - यह भी बतलाया गया है कि सभी चेतन तथा अचेतन पदार्थों के वाचक शब्दों का चरम पर्यवसान सभी की आत्मा परमात्मा के ही प्रतिपादन में होता है ।

चतुर्थ अवतार

·

यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने चतुर्थ अवतार से लेकर दशम अवतार - पर्यन्त प्रमेयों का विस्तृत विचार किया है । इस चतुर्थ अवतार में प्रकृति तथा प्राकृत चोबीस तत्वों का विवेचन है । प्रकृतिजन्य पश्चभूतों से ही चौदह भुवनों का

२. ५०

( १८ )

निर्माण होता है । नैयायिकों ने पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मन, इन नव द्रव्यों को स्वीकार किया है। विशिष्टाद्वैतदर्शन में दिक् को पृथक् द्रव्य नहीं माना जाता है; क्योंकि उपाधिविशिष्ट आकाश को ही दिक् कहा जाता है । अतएव वह आकाश से भिन्न नहीं है । भाट्टमीमांसकों ने तो नैयायिकों द्वारा स्वीकृत नव द्रव्यों के साथ-साथ तमस् एवं शब्द, इन दो अन्य द्रव्यों को स्वीकार किया है । यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने तमस् का पृथिवी में अन्तर्भाव बतलाया है तथा शब्द, रूप आदि के समान गुणविशेष एवं अद्रव्य है । भाट्टमीमांसकों ने शब्दों को द्रव्य सिद्ध करते हुए कहा है कि जिस प्रकार घटादि द्रव्यों का साक्षात्कार इन्द्रियसन्निकर्ष से होता है, उसी प्रकार शब्द का भी साक्षात्कार श्रोत्रेन्द्रियसन्निकर्ष के द्वारा होता है, अतएव वह घटादि के समान द्रव्य है, किन्तु भाट्टमीमांसकों का यह कथन इसलिए उचित नहीं है कि शब्द के साक्षात्कार में शब्दाश्रय वायु आदि के अवयव के द्वारा ही इन्द्रिय- सन्निकर्ष होता है । प्रकृति चतुर्विंशति तत्त्वात्मिका है; यह श्रुतियों तथा पुराणों में प्रसिद्ध है तथा सांख्यमतावलम्बी भी इस मान्यता का समर्थन करते हैं । प्रकृति तथा प्राकृत तत्त्वों की चौबीस संख्या इस प्रकार होती है - प्रकृति, महान्, अहङ्कार, पञ्च तन्मात्राएँ ( रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा, गन्धतन्मात्रा, शब्दतन्मात्रा तथा स्पर्शतन्मात्रा), पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ (चक्षुः, जिह्वा, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र ), पञ्च कर्मेन्द्रियाँ ( वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ ), मन तथा पञ्च महाभूत ( पृथिवी, जल, तेज, वायु तथा आकाश ) । इन चौबीस तत्त्वों से भिन्न पच्चीसवाँ तत्त्व जीव है तथा छब्बीसवाँ तत्त्व परमात्मतत्त्व है । जीवात्मा तथा परमात्मा, ये दोनों अप्राकृत हैं । तत्त्वों की गणना के प्रसङ्ग में शैवों ने ३६ तत्त्वों को स्वीकार किया है । वे परंतत्त्व पशुपति को स्वीकार करते हैं । शुद्धसत्त्व पाँच हैं- शिवतत्त्व, शक्तितत्त्व, सदाशिवतत्त्व, ईश्वरतत्त्व तथा विद्यातत्त्व । माया, माया की कार्यभूत प्रकृति तथा प्राकृत चौबीस तत्त्व एवं जीव के ज्ञातृत्व एवं कर्तृत्व के उपपादक — काल, नियति, कला, विद्या तथा राग – ये पाँच तत्त्व, इस प्रकार शैव मत में तत्त्वों की संख्या छत्तीस हो जाती है । प्रकृति तथा प्राकृतिक चौबीस तत्त्वों के निरूपण के ही प्रसङ्ग में पञ्चीकरण प्रक्रिया, शरीर के स्वरूप का निरूपण तथा उसकी व्यापकता का विचार करते हुए कहा गया है कि यह सम्पूर्ण प्रकृति तथा प्राकृत पदार्थ श्रीभगवान् का शरीर है । पुनः समष्टि-सृष्टि के निरूपण के पश्चात् ब्रह्माण्ड का निरूपण किया गया है ।

पञ्चम अवतार

इस अवतार में यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने कालतस्व का विशद निरूपण किया है। यद्यपि सदियमतावलम्बी काल को प्राकृत तत्वों में नहीं गिनते हैं;

( १९ )

किन्तु विशिष्टाद्वैत दर्शन तथा इतिहास-पुराणों में काल की चर्चा प्राकृतिक तत्त्वों के अन्तर्गत की गयी है । कालतत्त्व को लेकर प्रकृति को पञ्चविंशति तत्त्वात्मिका मानने के ही कारण मान्त्रिकोपनिषद् जीव को छब्बीसवाँ तत्त्व तथा परमात्मा को सत्ताइसव तत्त्व बतलाते हुए कहता है- ‘तं षड्विंश- मित्याहुः सप्तविंशमथापरे ।’ अर्थात् औपनिषद्मतावलम्बी जीव को छब्बीसवाँ तथा परमात्मा को सत्ताइसवाँ तत्त्व मानते हैं । यहाँ पर ‘अपरे’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘न परे अपरे - औपनिषदा इति यावत्’ यह समझनी चाहिए ।

अखण्ड काल एक तथा नित्य है । भूत, भविष्यत्, वर्तमान, दिन-रात आदि उसके औपाधिक भेद हैं । काल भी श्रीभगवान् की क्रीडा का साधन है । ईश्वर की दो विभूतियाँ हैं - नित्यविभूति और लीलाविभूति । श्रीभगवान् इन दोनों विभूतियों के स्वामी होने के कारण उभयविभूति नायक कहे जाते हैं । लीलाविभूति में आकर ईश्वर भी काल के अधीन ही कार्यों को करते हैं; किन्तु श्रीभगवान् की नित्यविभूति, जिसे त्रिपाद्विभूति भी कहा जाता है, ́ उसमें काल स्वतन्त्र नहीं है ।

षष्ठ अवतार

इस अवतार में श्रीभगवान् की नित्यविभूति का वर्णन किया गया है । ‘पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।’ अर्थात् श्रीभगवान् के ऐश्वर्य के एक भाग में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्यवस्थित है और ‘श्रीभगवान् के ऐश्वर्य का तीन भाग द्युलोक में व्यवस्थित है । यह त्रिपादैश्वर्य अमृत ऐश्वर्य है । इसे ही नित्यविभूति कहते हैं ।’ यह श्रुति नित्यविभूति का वर्णन करती है । इस नित्यविभूति को ही वैकुण्ठलोक भी कहा जाता है । यह नित्यविभूति शुद्धसत्त्व- मय है । प्रकृति में जो सत्त्वगुण है, वह रजोगुण एवं तमोगुण से मिश्रित है; किन्तु नित्यविभूति में जो सत्त्वगुण है, वह रजोगुण एवं तमोगुण के संस्पर्श से रहित है । नित्यविभूति में श्रीभगवान् श्रीदेवी एवं भूदेवी इन दो पत्नियों तथा नित्यमुक्त जीवों के साथ निवास करते हैं । नित्यविभूति के सभी जीव आविर्भूत गुणाष्टक - सम्पन्न होते हैं । नित्यविभूति को पञ्चोपनिषन्मयी कहा गया है । यह श्रीभगवान् की भोगभूमि है तथा श्रीभगवान् के सत्यसंकल्प से ही आविर्भूत गुणाष्टक नित्यमुक्त जीव तत् तत् भोगों को यहाँ प्राप्त करते हैं । वे श्रीभगवान् का मुखोल्लास करने के लिए ही अनेक शरीरों को भी धारण कर लेते हैं । नित्यविभूति दिव्यविभूति है; अतएव यहाँ पर प्राप्त होने वाले रूप, रस आदि भोग भी दिव्य हैं । उनमें प्राकृत भोगों में पाए जाने वाले दोषों की गन्ध भी नही रहती है । श्रीभगवान् का दिव्यरूप ही सभी का आश्रय है ।

सप्तम अवतार

इस अवतार में धर्मभूत ज्ञान का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है । विशिष्टाद्वैतदर्शन में ज्ञान को धर्मभूतज्ञान शब्द से अभिहित किंमा जाता है ।

( २० )

इस अभिधान का कारण यह है कि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । उस ज्ञान- स्वरूप आत्मा का धर्म होने के कारण ज्ञान को धर्मभूतज्ञान कहा जाता है । इस धर्मभूतज्ञान को ही बुद्धि, धी, ज्ञान, संवित् तथा मति आदि नामों से भी जाना जाता है ।

धर्मभूतज्ञान अचेतन, योग्य होने के कारण विभु

होता है । यह स्वभावतः

स्वयम्प्रकाश, सविषय, सभी द्रव्यों से संयोग के

नित्य है । विशिष्टा-

प्रभावान् द्रव्य का गुण तथा विषयों का प्रकाशक नित्य होता है, उसकी संकोचावस्था तथा विकासा- वस्था को ही लेकर यह उसकी उत्पत्ति तथा विनाश आदि का व्यवहार होता है । आत्मा के ज्ञान की नित्यता का प्रतिपादन करती हुई श्रुति भी कहती है- ‘न विज्ञातुविज्ञाते विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात् ।’ अर्थात् ज्ञाता आत्मा के ज्ञान का कभी नाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञाता आत्मा द्वैतदर्शन में स्वीकार किया जाता है कि ज्ञान स्वयम्प्रकाश तथा स्वतः प्रमाण है । सिद्धान्त में ज्ञान को द्रव्य इसलिए माना जाता है कि वह अवस्थाश्रयी होता है । अवस्थाश्रयी होने के कारण ही ज्ञान की संकोचावस्था तथा विकासावस्था होती है । अवस्थाश्रयत्व ही द्रव्य का असाधारण धर्म है । अतएव धर्मभूतज्ञान में गुणत्व एवं द्रव्यत्व दोनों धर्मं पाए जाते हैं । सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि धर्मभूतज्ञान के अवस्थाविशेष हैं ।

भक्ति एवं प्रपत्ति भी ज्ञान के ही अवस्थाविशेष हैं । भक्ति एवं प्रपत्ति से प्रसन्न होकर श्रीभगवान् शरणागत जीवों को मोक्ष प्रदान कर देते हैं । अतएव मोक्ष के साधन रूप से शास्त्रों में जिन ज्ञानयोग- कर्मयोग आदि का निर्देश किया गया है, वे ज्ञानयोग आदि भी भक्ति के द्वारा ही मोक्षावाप्ति के साधन बनते हैं । उस भक्ति के तीन पर्व बतलाए गये हैं- परभक्ति, परज्ञान तथा परमभक्ति ।

उपनिषदों में भगवत्प्राप्ति के साधन रूप से जिन बत्तीस विद्याओं का वर्णन किया गया है, वे भक्ति के ही भिन्न-भिन्न भेद हैं । इन विद्याओं में से किसी एक विद्या की भी प्राप्ति हो जाने पर; जीव के पूर्वाघ का नाश तथा उत्तराध का संश्लेषाभाव हो जाता है । इस विद्या के ही माहात्म्य से जीव

अपने चरमदेह का अवसान होने पर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।

अष्टम अवतार

आठवें अवतार में जीवों के स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है । जीव परमात्मा का स्वभावतः शेष, नियाम्य एवं धार्य होते हुए चेतन है; यही उसका स्वरूप है । जीवात्मा के स्वरूप के विषय में विभिन्न वादियों के मतभेद है । देहात्मवादी चार्वाक देह को ही आत्मा मानते हैं; इन्द्रियात्मवादी इन्द्रियों को आत्मा मानते हैं; तीसरे प्रकार के चार्वाकमतावलम्बी प्राणों को ही आत्मा( २१ )

मानते हैं तथा चौथे प्रकार के चार्वाक मन को ही आत्मा मानते हैं । बौद्ध दार्शनिक क्षणिकविज्ञान को ही आत्मा मानते हैं । अद्वैती विद्वान् भी ज्ञान ( संवित् ) को ही आत्मा मानते हैं । किन्तु उनका ज्ञान बौद्धों के ज्ञान के समान अनित्य न होकर नित्य, निर्विकार, एक एवं निर्धर्मक है; इस प्रकार वह कूटस्थ एवं नित्यप्रकाशकस्वरूप है । वे आत्मा से भिन्न परमात्मा को नहीं मानते हैं । वे मानते हैं कि उपर्युक्त प्रकारक ज्ञान ही वेदान्तवाक्यों के तात्पर्य का विषय है ।

विशिष्टाद्वैती दार्शनिकों का कहना है कि बोद्धों के ज्ञानात्मवाद को अद्वैती विद्वानों ने वैदिक रूप दे दिया है । यद्यपि बौद्धों तथा अद्वैती विद्वानों के ज्ञानात्मवाद में यह अन्तर अवश्य है कि बौद्ध क्षणिक ज्ञान को आत्मा मानते हैं और अद्वैती विद्वान् स्थिर ज्ञान को । फिर भी जो दोष वौद्धसम्मत ज्ञानात्मवाद में आते हैं, वे सभी दोष अद्वैतिसम्मत ज्ञानात्मवाद में भी आते ही हैं । साथ ही अद्वैती विद्वानों के ज्ञानात्मवाद में यह सबसे बड़ा दोष है कि वे ज्ञान को निर्धर्मक मानते हैं । किन्तु कोई भी ऐसा ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है, जो आश्रय और विषय रहित हो। इस प्रकार अद्वैतीसम्मत ज्ञानात्मवाद अप्रामाणिक सिद्ध होता है ।

आत्मा ज्ञानमात्र नहीं, अपितु ज्ञाता रूप है; इस बात को स्पष्ट करते हुए महर्षि बादरायण ‘ज्ञोऽत एव’ ( शा० मी० सू० २।३।१९ ) सूत्र पढ़ते हैं । इस सूत्र में तीन पद हैं— ‘ज्ञः अतः एव’ । ‘एव’ पद का सम्बन्ध ‘ज्ञ’ तथा ‘अतः ’ इन दोनों पदों से होता है । ‘ज्ञ’ के साथ एवकार अन्ययोगव्यावर्तक रूप से अन्वित होता है तथा ‘अतः’ के साथ वह अयोगव्यावर्तक रूप से अन्वित होता

। इस सूत्र का ‘अतः ’ शब्द पूर्ववर्ती ‘नात्मा श्रुतेः’ सूत्र के ‘श्रुतेः’ पद का परामर्शक है । इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है कि आत्मा ज्ञानवान् ही है, ज्ञानमात्र नहीं । यह ‘ज्ञ एव’ का अर्थ हुआ । ‘अत एव’ शब्द का अर्थ है कि श्रुतियाँ आत्मा के ज्ञातृत्व को बतलाती हैं ।

आत्मा को ज्ञातृत्वधर्मावच्छिन्न सिद्ध करते हुए इस सूत्र के ‘ज्ञ’ पद के शाङ्करभाष्य में भी कहा गया है – ‘यो नित्यचैतन्योऽयमात्मात एव’ अर्थात् नित्यचैतन्य रूपी गुण वाला ही आत्मा है । ‘नित्यं चैतन्यं यस्याऽसौ ’ यह ‘नित्य चैतन्य : ’ इस पुंल्लिङ्ग पद का विग्रह है ।

औपनिषद्-वाक्यों के आलोक में यतीन्द्रमतदीपिकाकार ने आत्मा को अणु- परिमाण वाला, नित्य तथा अनेक सिद्ध किया है ।

मुक्त

विशिष्टाद्वैतदर्शन में जीवों के तीन भेद स्वीकार किये जाते हैं— बद्ध, और नित्य । बद्धजीवों के भी दो भेद माने जाते हैं-बुभुक्षु और मुमुक्षु । तथा इन जीवों के भी अवान्तर कई भेद होते हैं । संसारपाश में निगडित संसारी

( २२ )

जीव हो बद्ध कहे जाते हैं । हम सभी बद्धजीवों की कोटि में आते हैं। मुक्तजीव वे हैं, जो श्रीभगवान् की आराधना करके इस संसारचक्र से मुक्ति प्राप्त कर लिए हैं । नित्यजीव श्रीभगवान् की सेवा में सदा संलग्न रहते हैं । जैसे - शेष, गरुड़ इत्यादि ।

नवम अवतार

[[1]]

विशिष्टाद्वैतदर्शन की अन्य मान्यताओं के ही समान अर्थपञ्चक विज्ञान की मान्यता भी प्रख्याततम है । इसके अनुसार विशिष्टाद्वैती दार्शनिक ईश्वर के पांच रूपों को स्वीकार करते हैं । विशिष्टाद्वैतदर्शन में परब्रह्म, नारायण, ईश्वर, परमात्मा, श्रीभगवान् इन सभी शब्दों को समानार्थक माना जाता है । विशिष्टाद्वैतियों के अनुसार श्रीभगवान् के पर, व्यूह, विभव, अन्त- र्यामी तथा अर्चावतार, ये पांच रूप हैं । पररूप से श्रीभगवान् नित्य वैकुण्ठ में अपनी पत्नियों तथा परिजनों के साथ निवास किया करते हैं । सृष्टि का कार्य चलाने के लिए वे वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धं, इन चार व्यूह रूपों को धारण करते हैं । केशवादि द्वादश व्यूहों का भी इन्हीं में अन्तर्भाव होता है । विभवरूप से श्रीभगवान् सज्जन जनता के परित्राण, पापियों के प्रणाश तथा वैदिक धर्म की संस्थापना हेतु इस भूतल पर श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि रूपों से अवतरित होते हैं । अन्तर्यामीरूप से वे सभी जीवों के अन्तः- करण में विराजमान रहकर उनकी रक्षा किया करते हैं । वे अर्चावताररूप से वेङ्कटाचल, श्रीरङ्गम् आदि दिव्य देशों में अवतरित होकर कल्याणकामी जीवों की मनोकामना अपने दिव्यमङ्गलमय विग्रह का दर्शन देकर पूर्ण किया करते हैं ।

दशम अवतार

इस अवतार में बतलाया गया है कि अद्रव्यों की संख्या दश हैं— सत्त्व, रजस्, तमस्, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, संयोग तथा शक्ति । इस प्रकरण में नैयायिकाभिमत चौबीस गुणों का संयोगादि में अन्तर्भाव दिखलाया गया है । कुछ लोग ग्यारहवें अद्रव्य कर्म को भी स्वीकार करते हैं ।

उपसंहार ग्रन्थ का स्वरस - इस अंश में बतलाया गया है कि महर्षि बादरायण ने शारीरक-मीमांसा में समस्त चेतनाचेतन विशिष्ट भगवान् श्रीपति को अखिल वेदान्तवेद्य-रूप से बतलाया है । ब्रह्ममीमांसा के प्रथम-द्विक ( प्रथम एवं द्वितीय अध्याय ) में महर्षि बादरायण ने परमब्रह्म की अखिल- जगत्कारणता का प्रतिपादन करके द्वितीय द्विक ( तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय ) में श्रीभगवान् को ही सम्पूर्ण मुमुक्षु जीवों का उपास्य बतलाया है । इसके पश्चात् यतीन्द्रमतदीपिका के उपजीव्य ग्रन्थों की चर्चा की गयी है ।

विषय-सूची

मूलस्थ-यतीन्द्रमतदीपिकायाः विषयानुक्रमः

प्रथमोऽवतारः

प्रथमं मङ्गलाचरणम्

द्वितीयं मङ्गलाचरणम्

तत्त्वैक्यस्य प्रतिज्ञा पदार्थसमुद्देशः

उद्दिष्टपदार्थानां लक्षणपरीक्षायाः प्रतिज्ञा

प्रमाणलक्षणम्

प्रमालक्षणम्

लक्षणस्य दोषत्रयम्

करणपदार्थविवेचनम्

धर्म राजाध्वरीन्द्रकृत प्रमालक्षणखण्डनम्

विशिष्टाद्वैताभिमतप्रमाण संख्या

प्रत्यक्षप्रमाणलक्षणम्

प्रत्यक्षस्य निर्विकल्पकं सविकल्पकमिति भेदद्वयनिरूपणम्

वस्तूनां ग्रहणप्रकारः

सम्बन्ध ( सन्निकर्ष ) विचारः

प्रत्यक्षस्यावान्तरभेदाः

स्मृतेः प्रत्यक्षेऽन्तर्भावः

स्मृतिनिरूपणम्

प्रत्यभिज्ञादीनां प्रत्यक्षेऽन्तर्भावप्रकारः

यथार्थख्यातेः समर्थनम्

प्रथमप्रत्यक्षेणाऽपि भेदविशिष्टस्यैव वस्तुनो ग्रहणम्

[[१]]

omm

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[[३]]

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[[३३]]

दशमस्त्वमसीति वाक्यजन्यज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वनिरासः

प्रत्यक्षविषयेऽद्वैतिनां नैयायिकानाञ्च मतखण्डनम्

नैयायिकानां बहिष्कारपक्षः

द्वितीयोऽवतारः

अनुमानलक्षणम् अनुमितिलक्षणञ्च

[[३४]]

व्याप्तिनिरूपणम्

[[३४]]

उपाधिनिरूपणम्

[[३६]]

व्याप्यनिरूपणम्

व्याप्यभेदी

अनुमानस्य भेदद्वयम्

( २४ )

अनुमानस्यावयवपञ्चकम्

अनुमानस्यावयवानां विषये दार्शनिकानां मतभेदप्रदर्शनम्

हेत्वाभासाः

उपमानस्यानुमानादावन्तर्भावनिरूपणम्

[[३८]]

[[४०]]

[[४२]]

[[४३]]

[[४४]]

[[४४]]

[[४८]]

[[४९]]

अर्थापत्त्यादिकस्यानुमानेऽन्तर्भावप्रकारः

तृतीयोऽवतारः

शब्दनिरूपणम्

[[५३]]

सम्पूर्णस्य वेदस्य प्रामाण्यप्रतिपादनम्

[[५४]]

वेदस्य विभागः

वेदाङ्गानि

स्मृत्यादीनां प्रामाण्यविवेचनम्

अन्येषां पुराणागमादीनां प्रामाण्यव्यवस्था

वाक्यादिविचारः

[[५७]]

[[५९]]

[[६०]]

[[६२]]

सहस्रगीतिश्रीभाष्ययोः प्रामाण्यप्रतिपादनम्

[[६४]]

६.४

चतुर्थोऽवतारः

प्रमेयस्य द्रव्याद्रव्येति भेदद्वयसमर्थनम्

[[६९]]

द्रव्यविभागः

[[७२]]

प्रकृतिनिरूपणम्

[[७२]]

इन्द्रियनिरूपणम्

[[७३]]

पञ्चतन्मात्राणां पञ्चभूतानाञ्च निरूपणम्

[[७६]]

आकाश निरूपणम्

[[७७]]

वायुनिरूपणम्

[[८०]]

तेजोनिरूपणम्

[[८३]]

अपां निरूपणम्

[[८६]]

पृथिवीनिरूपणम्

[[८६]]

पञ्चीकरणप्रक्रियाया निरूपणम्

[[८८]]

शरीरलक्षणम्

[[९०]]

शरीरविभागः

समष्टिसृष्टी कारणकार्यभावनिरूपणम् जम्बूद्वीपवर्णनम्

सप्तद्वीपवत्याः पृथिव्या वर्णनम्

[[९१]]

[[९३]]

[[९६]]

[[९७]]

( २५ )

भूमेरधोभागस्य विस्तारवर्णनम्

[[९७]]

भूमेरूर्ध्वभागस्य विस्तारस्य वर्णनम्

[[९८]]

पश्वमोऽवतारः

कालनिरूपणम्

[[१००]]

ब्रह्मणोऽह्नो वर्णनम्

[[१०२]]

षष्ठोऽवतारः

नित्य विभूतेनिरूपणम्

[[१०४]]

नित्य विभूतेर्भोग्यत्वनिरूपणम्

[[१०६]]

नित्यविभूते दिव्यत्वप्रतिपादनम्

[[१०७]]

भगवतो दिव्यमङ्गलविग्रहस्य सर्वाश्रयत्वप्रतिपादनम्

[[१११]]

सप्तमोऽवतारः

धर्मभूतज्ञानस्य लक्षणादिकम्

[[११६]]

सर्वं ज्ञानं स्वतः प्रमाणं स्वप्रकाशञ्च

[[११९]]

ज्ञानस्य द्रव्यत्वसमर्थनम्

भक्तिप्रपत्त्योरद्वार कमोक्षसाधनत्वम्

ज्ञानस्य नित्यत्वेऽपि जागरादिदशानामुपपादनम्

ज्ञानस्य विविधानि नामानि रूपाणि च

धर्मभूतज्ञानस्य विविधा अवस्थाविशेषाः

भंगवतः कल्याणगुणानां स्वरूपनिरूपणम्

कर्मयोगस्वरूपनिरूपणम्

[[१२५]]

[[१२६]]

[[१२८]]

[[१२९]]

[[१३१]]

[[१३६]]

[[१३७]]

ज्ञानयोगस्य स्वरूपनिरूपणम्

[[१३८]]

भक्तियोगस्य स्वरूपनिरूपणम्

[[१३८]]

वेदान्तेषु ध्यानस्यैव विधानमिति प्रतिपादनम्

[[१४५]]

विद्याभेदाद् भक्तिभेदः

[[१४५]]

न्यासविद्याया वर्णनम्

[[१५४]]

मोक्षोपायविषयक मतान्तर निरासः

[[१५७]]

अष्टमोऽवतारः

जीवस्वरूपनिरूपणम्

[[१५९]]

जीवस्य देहेन्द्रियादिभ्यो भिन्नत्वसाधनम्

[[१६१]]

आत्मनः अणुपरिमाणकत्वसमर्थनम्

[[१७२]]

जीवानां नित्यत्वसाधनम्

[[१७४]]

जीवानामनेकत्वादिसाधनम्

[[१७५]]

आत्मविषये मतान्तरनिरासः

[[१७९]]

अणूनामपि जीवानामदृष्टजनित देशान्तर फलोपलब्धेः प्रतिपादन म्

[[१८५]]

( २६ )

जीवविभागः

[[१८६]]

बद्धजीवनिरूपणम्

[[१८६]]

शास्त्रवश्यजीवानां विभागः

[[१९१]]

मोक्षपराणां मुमुक्षूणां भेदाः

[[१९६]]

प्रपन्नानां स्वरूपं भेदाश्च

[[१९९]]

मुक्तजीववर्णनम्

[[२०४]]

मुक्तजीवस्य सर्वलोकसञ्चरणत्वप्रतिपादनम्

[[२१५]]

नित्यजीवानां स्वरूपम्

[[२१५]]

नवमोऽवतारः

ईश्वरस्य स्वरूपनिरूपणम्

[[२१७]]

ईश्वरस्य जगत्कारणत्वसमर्थनम्

[[२१८]]

नारायणे जगत्कारणत्वस्य पर्यवसानप्रतिपादनम्

[[२२२]]

अन्तरादित्य दहर विद्ययोर्नारायणपरत्वसमर्थनम्

[[२२८]]

अद्वैत्यभिमते निर्विशेषे ब्रह्मणि वेदान्तानां तात्पर्यं निरसनम्

[[२३०]]

परमतनिरासपूर्वकं सिद्धान्त्यभिमतेश्वराङ्गीकारे दोषाभावसमर्थनम्

[[२३८]]

परमात्मन आनन्त्यप्रतिपादनम्

[[२४१]]

ईश्वरस्यैव सृष्टिस्थितिसंहारकर्तृत्वम्

[[२४४]]

ईश्वरस्य पञ्चप्रकाराः

[[२४७]]

ईश्वरस्य पररूपस्य वर्णनम्

[[२४७]]

ईश्वरस्य व्यूहरूपस्य वर्णनम्

[[२४९]]

ईश्वरस्य विभवरूपस्य वर्णनम्

[[२५३]]

ईश्वरस्यान्तर्यामिरूपस्य वर्णनम्

[[२५५]]

ईश्वरस्य अर्चावताररूपस्य वर्णनम्

[[२५६]]

दशमोऽवतारः

अद्रव्यलक्षणं तद् भेदाश्र्व

[[२५९]]

सत्त्वरजस्तमसां विवेचनम्

शब्दनिरूपणम्

स्पर्श निरूपणम्

रूपनिरूपणम्

[[२५९]]

[[२६३]]

[[२६७]]

[[२६८]]

रसनिरूपणम्

[[२७१]]

गन्धनिरूपणम्

[[२७२]]

संयोगनिरूपणम्

[[२७४]]

शक्तिनिरूपणम्

[[२७७]]

वैशेषिकाभिमत-दशगुणेषु चतु विंशतिगुणानामन्तर्भावः

[[२७८]]

तेषां तेषां गुणानां ते ते धर्मिणः

[[२८३]]

( २७ )

उपसंहार ग्रन्थः

यतीन्द्रमतदीपिकाया उपजीव्यग्रन्थाः

[[२८५]]

यतीन्द्रमतदीपिकायाः तत्त्वहितपुरुषार्थप्रतिपादकत्वम्

[[२८७]]

यतीन्द्र मतदीपिकायाः तत्त्वापादकत्वम्

[[२८८]]

चिदचिद्विशिष्टम् अद्वैतं तत्त्वमेकमेवेति वेदान्तानां तात्पर्यम्

[[२९०]]

यतीन्द्र मतदीपिकाया उपसंहारः

[[२९०]]

[[६]]

[[७]]

[[७]]

[[७]]

x x 5s w 9 9 9 9

[[४]]

भावप्रकाशिका

यतीन्द्रमतदीपिका की भावप्रकाशिका व्याख्या में वर्णित प्रमुख विषयों की सूची

प्रथम अवतार

भगवान् नारायण ही तत्त्व हैं विशिष्टाद्वैत शब्द का अर्थ

श्रीभगवान् की प्रसन्नता के साधन भगवान् ही जीवों के प्राप्य हैं

पदार्थ - विभाग

पदार्थ-चक्र

द्रव्य का लक्षण

जड़-लक्षण

अजड़ - लक्षण

प्रत्यक् द्रव्य

उद्देशपदार्थं

[[७]]

[[७]]

[[८]]

लक्षणपदार्थ

प्रमा का लक्षण

संशयज्ञान

अन्यथाज्ञान

विपरीतज्ञान

दार्शनिकों में प्रमाणसंख्या-विषयक मतभेद

निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का स्वरूप

[[८]]

[[१०]]

[[१०]]

[[१०]]

[[११]]

वेदान्तपरिभाषाकार-कृत प्रमा के लक्षण का खण्डन

विशिष्टाद्वैतियों का सन्निकर्ष विषयक विचार

[[१२]]

[[१४]]

[[१५]]

[[१७]]

स्मृति के पृथक प्रमाण की शंका और उसका खण्डन स्मृति का स्वरूप

[[१९]]

[[२१]]

~ x = = = =

( २८ )

सभी पूर्वानुभूत वस्तुओं का स्मरण क्यों नहीं होता ? प्रत्यभिज्ञा आदि का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव ख्य । तिपदार्थ और उसके भेद

आत्मख्याति-निरूपण

असत्ख्याति-निरूपण

अख्याति-निरूपण

अन्यथाख्याति-निरूपण

अनिर्वचनीयख्याति - निरूपण

यथार्थख्याति निरूपण

यथार्थख्याति के आलोक में उपर्युक्त पञ्चख्यातियों का खण्डन

स्वाप्नज्ञान की प्रामाणिकता

‘पीतः शंखः’ इस ज्ञान की सत्यता

मरु-मरीचिका में जलज्ञान की सत्यता

दिग्भ्रम की सत्यता

आलातचक्र में अन्तराल की अप्रतीति का कारण

दर्पण में मुखादि प्रतीति का याथार्थ्य

[[२१]]

[[२२]]

[[२५]]

[[२५]]

[[२६]]

[[२६]]

[[२६]]

[[२६]]

[[२७]]

[[२७]]

[[२८]]

[[२९]]

[[२९]]

[[२९]]

[[२९]]

[[३०]]

[[३०]]

द्विचन्द्रादि ज्ञानों का याथार्थ्य

‘दशमस्त्वमसि’ तथा ‘तत्त्वमसि’ ये वाक्य अपरोक्ष- ज्ञान के जनक नहीं हैं ३१

व्याप्तिग्रह

व्याप्ति के भेद

अन्वयव्याप्ति

व्यतिरेकव्याप्ति

द्वितीय अवतार

उपाधि का स्वरूप

उपाधि के दो भेद - ( १ ) निश्चितोपाधि ( २ ) शंकितोपाधि पक्षधर्मता

व्याप्य के पाँच रूप - ( क ) पक्षधर्मवत्त्व ( ख ) सपक्ष सत्त्व ( ग ) विपक्षव्यावृतत्व (घ ) अबाधितविषयत्व (ङ) असत्प्रतिपक्षत्व

केवलान्वयी - अनुमान

केवलव्यतिरेकी अनुमान

हेत्वाभास और उनके भेदोपभेद

उपमान का अनुमान में अन्तर्भाव-निरूपण

अर्थापत्ति आदि का अनुमान में अन्तर्भाव-निरूपण - ( क ) अर्थापत्ति,

( ख ) तर्क, ( ग ) निश्चय, (घ) वाद, (ङ) जल्प, (च) वितण्डा, (छ) छल, (ज) जाति और ( झ ) निग्रहस्थान

[[३५]]

[[३६]]

[[३६]]

[[३६]]

[[३७]]

[[३७]]

[[३९]]

[[३९]]

[[४१]]

[[४१]]

[[४६]]

[[४८]]

[[५०]]

( २९ )

तृतीय अवतार

शब्दप्रमाण का निरूपण

सम्पूर्ण वेद की प्रामाणिकता

वेद का विभाग

वेद के विधिवाक्यों के तीन भेद - ( क ) अपूर्व विधि, ( ख ) परिसंख्या-

विधि और ( ग ) नियमविधि

स्मृतियों आदि का प्रामाण्य- विवेचन

पुराणादि के प्रामाण्य की व्यवस्था

सहस्रगीति तथा श्रीभाष्य की प्रामाणिकता

वाक्यविचार

आकांक्षा

योग्यता

आसत्ति

वृत्तिभेद के कारण वाक्यभेद

उपचार पदार्थ

मुख्यार्थबाध का हेतु और उदाहरण

[[५३]]

[[५५]]

[[५८]]

[[५८]]

[[६१]]

[[६२]]

[[६४]]

[[६६]]

[[६६]]

[[६६]]

[[६६]]

[[६७]]

[[६७]]

[[६७]]

[[६७]]

दो प्रकार की औपचारिकी वृत्ति

वैदिक एवं लौकिक सभी प्रकार के वाक्यों के विषय सविशेष ही होते हैं ६८

प्रमेय-निरूपण

चतुर्थ अवतार

प्रमेय के दो भेद

वैशेषिकाभिमत सप्त पदार्थों का द्रव्य एवं अद्रव्य में अन्तर्भाव-निरूपण

प्रकृति-निरूपण

इन्द्रिय - निरूपण

इन्द्रियों के दो भेद

इन्द्रियों के अतीन्द्रियत्व आदि का निरूपण

पञ्चतन्मात्राओं तथा पञ्चमहाभूतों का निरूपण

सांख्याभिमत सृष्टिक्रम का अनौचित्य

आकाश का लक्षण

आकाश का प्रत्यक्षत्व प्रतिपादन

दिशा के द्रव्यान्तरत्व का खण्डन

वायु-निरूपण

प्राण-निरूपण

पञ्च प्राण

[[७०]]

[[७०]]

[[७१]]

[[७३]]

[[७३]]

[[७५]]

[[७६]]

[[७७]]

[[७८]]

[[७९]]

[[७९]]

[[७९]]

[[८०]]

[[८१]]

[[८२]]

( ३० )

वायु के अनुमेयत्व का खण्डन

तेज का उपादानकारण वायु ही है

[[८४]]

[[2223]]

[[८२]]

तेज के चतुर्विध भेद

[[८५]]

प्रमा संकोच - विकासशील तेजोद्रव्य है

[[८५]]

पृथिवी - निरूपण

[[८७]]

अन्धकार - निरूपण

[[८७]]

अन्धकार के विषय में कुछ वादियों के मत

[[८७]]

अन्धकार का द्रव्यत्व- प्रतिपादन

[[८८]]

पञ्चीकरण प्रक्रिया

[[८९]]

शरीर का लक्षण

[[९१]]

शरीरों के भेद

[[९२]]

समष्टि सृष्टि

व्यष्टि सृष्टि

[[९४]]

[[९४]]

कार्य- लक्षण

[[९५]]

जम्बूद्वीप का वर्णन

[[९६]]

पश्चम अवतार

काल का निरूपण

[[१००]]

ब्रह्मा की आयु

[[१०२]]

काल के दो भेद

[[१०३]]

षष्ठ अवतार

नित्यविभूति का निरूपण

[[१०४]]

शुद्धसत्त्वपदार्थ

[[१०५]]

शुद्धसत्त्व के दो लक्षण

[[१०५]]

नित्य विभूति का भोग्यत्व

ईश्वर के सभी शरीर दिव्य होते हैं

नित्यविभूति की दिव्यता

श्रीभगवान् के कुछ दिव्य गुण – १. ओज्वल्य,

४. सौकुमार्य, ५. लावण्य, ६. यौवन, ७.

. श्रीभगवान् के दिव्यरूप की व्यापकता

२. सौन्दर्य, ३. सौगन्ध्य,

मार्दव और ७.

मार्दव और ७ आर्जव १०९

श्रीभगवान् द्वारा जगत् का अस्त्रभूषण रूप में धारण

सप्तम अवतार

[[११०]]

[[११२]]

[[१०७]]

[[१०७]]

[[१०८]]

धर्मभूतज्ञान के प्रथम लक्षण की व्याख्या

धर्मभूतज्ञान के द्वितीय लक्षण की व्याख्या

धर्मभूतज्ञान की स्वाभाविक नित्यता

[[११७]]

[[११७]]

११७( ३१ )

ज्ञान की उत्पत्ति तथा विनाश का अर्थ

[[११८]]

ज्ञान का संकोच तथा विकासरूप अवस्थाओं की सिद्धि आत्मा के ज्ञान की नित्यता की सिद्धि

[[११८]]

[[११८]]

ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य

[[१२०]]

नैयायिकाभिमत ज्ञान के परतः प्रामाण्य का खण्डन

[[१२०]]

ज्ञान के स्वयम्प्रकाशत्व की सिद्धि

[[१२०]]

ज्ञान के मानस प्रत्यक्ष का खण्डन

[[१२१]]

ज्ञान के प्राकट्यानुमेयवाद का खण्डन

[[१२२]]

धारावाहिक बुद्धिस्थल में ज्ञान की एकता का प्रतिपादन

[[१२३]]

ज्ञान के नित्य होने पर भी जागरादि अवस्थाओं का उपपादन

[[१२५]]

ज्ञान के द्रव्यत्व का समर्थन

[[१२७]]

इच्छा आदि ज्ञान के विभिन्न रूप

[[१२८]]

ज्ञान की प्रत्यक्ष आदि विविध अवस्थाएँ

.१३०

श्रीभगवान् के कुछ दिव्यगुणों की व्याख्या - १. ज्ञान, २. शक्ति, ३. बल,

४. ऐश्वर्य, ५. वीर्य, ६. तेज, ७. सौशील्य, ८. वात्सल्य, ९. मार्दव, १०. आर्जव, ११. सौहार्द, १२. साम्य, १३. कारुण्य, १४. माधुर्य, १५. गाम्भीर्य, १६. औदार्य, १७. चातुर्य, १८. स्थैर्य, १९. धैर्य, २०. शौर्य, २१. पराक्रम ।

भिन्न-भिन्न अधिकारियों की दृष्टि से मोक्ष के भिन्न-भिन्न साधन कर्मयोग का स्वरूप

भक्तियोग का स्वरूप

[[१३२]]

[[१३६]]

[[१३७]]

१४० M

योग के आठ अङ्ग – १. यम पञ्च, २. नियम- पञ्च, ३. आसन, ४.

प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि । १४० विवेकादि साधन - सप्तक - १. विवेक, २. विमोक, ३. अभ्यास, ४. क्रिया,

५. कल्याण, ६. अनवसाद और ७. अनुद्धर्ष ।

[[१४२]]

भक्ति के तीन पर्व - १. परभक्ति, २. परज्ञान और ३. परमभक्ति ।

[[१४४]]

साधनभक्ति

[[१४४]]

साध्यभक्ति

[[१४४]]

भगवच्छास्त्र में आठ प्रकार की भक्तियों का निर्देश

[[१४४]]

नवधाभक्ति

[[१४४]]

उपनिषदों की चार काम्य विद्याएँ - ( क ) उद्गीथविद्या, ( ख ) नामादि

प्रतीकविद्या, (ग) मनश्चित्तादि विद्या, (घ) उद्गीथ में रस- तमत्वादि दृष्टिविद्या

उपनिषदों की बत्तीस ब्रह्मविद्याएँ - १. सद्विद्या, २. आनन्दविद्या, ३.

अन्तरादित्यविद्या, ४. आकाशविद्या, ५ः प्राणविद्या, ६. गायत्री-

[[१४६]]

विद्या,

( ३२ )

ज्योतिर्विद्या, ७ इन्द्रप्राणविद्या, ८. शाण्डिल्यविद्या, ९. नाचिकेतस- १०. उपकोसलविद्या, ११. अन्तर्यामीविद्या, १२. अक्षर- परविद्या, १३. वैश्वानरविद्या, १४. भूमविद्या, १५. गार्ग्यक्ष रविद्या, १६. प्रणवोपास्य परमपुरुषविद्या, १७. दहरविद्या, १८. अंगुष्ठ- प्रमितविद्या, १९. देवोपास्यज्योतिर्विद्या, २०. मधुविद्या, २१. संवर्ग- विद्या, २२. अजाशरीरकविद्या, २३. बाला किविद्या, २४. मैत्रेयी- विद्या, २५. द्रुहिणरुद्रादिशरीरक विद्या, २६. पञ्चाग्निविद्या, २७. आदित्यस्थार्नामक विद्या, २८. अक्षिस्थाहन्नामकविद्या, २९. पुरुष- विद्या, ३०. ईशावास्य विद्या, ३१. उषस्तिकहोलविद्या, ३२. व्याहृति- शरीरकविद्या या न्यासविद्या ।

न्यासविद्या का महत्त्व

[[१४७]]

[[१५५]]

अष्टम अवतार

जीव और ईश्वर में कुछ साम्य

[[१५९]]

जीव के लक्षण

[[१६०]]

देहात्मवाद

[[१६१]]

देहात्मवाद का खण्डन

[[१६२]]

इन्द्रियात्मवाद का प्रतिपादन

[[१६३]]

इन्द्रियात्मवाद की समालोचना

[[१६४]]

मन-आत्मवाद का प्रतिपादन

१.६५

मन आत्मवाद का खण्डन

[[१६५]]

प्राणात्मवाद का प्रतिपादन

[[१६७]]

प्राणात्मवाद का खण्डन

[[१६७]]

बौद्धाभिमत ज्ञानात्मवाद का प्रतिपादन

[[१६९]]

बौद्धाभिमत ज्ञानात्मवाद का खण्डन

[[१७०]]

अद्वैतिसम्मत ज्ञानात्मवाद का प्रतिपादन

[[१७१]]

अद्वैतिसम्मत ज्ञानात्मवाद का खण्डन

[[१७१]]

आत्मा के अणुत्व का प्रतिपादन

[[१७२]]

जीवों की नित्यता का प्रतिपादन

[[१७४]]

आत्मा के अनेकत्व की सिद्धि

[[१७६]]

जीवों के स्वतः सुखित्व का प्रतिपादन

[[१७७]]

जीवों के कर्तृत्वभोक्तृत्व आदि की स्वाभाविकता

[[१७८]]

आत्मा के स्वयम्प्रकाशत्व का प्रतिपादन

[[१७८]]

देहसमपरिमाणात्मवाद

[[१८०]]

देहसमपरिमाणात्मवाद का खण्डन

[[१८०]]

( ३३ )

सांख्यमत का प्रत्याख्यान

[[१८१]]

यादवाभिमत ब्रह्मांश जीववाद की समालोचना

[[१८१]]

भास्कराभिमत सोपाधिक ब्रह्मखण्डजीववाद की समालोचना

[[१८२]]

शाङ्कराभिमत अविद्याकल्पित जीवैत्रयवाद की समालोचना

[[१८३]]

अन्तःकरणावच्छिन्नानेकजीववाद की समालोचना

[[१८४]]

अणुपरिमाणक जीवों की देशान्तर में भी फलोपलब्धि का प्रतिपादन बद्धजीव

[[१८५]]

[[१८८]]

देवसृष्टि का वर्णन - ( १ ) चार सनकादि, ( २ ) नव प्रजापति, (३)

दश दिक्पाल, (४) चौदह मनु, (५) चौदह इन्द्र, (६) एकादश रुद्र और ( ७ ) द्वादशादित्य

[[१८९]]

बुभुक्षु जीवों का स्वरूप तथा भेद

[[१९३]]

मुमुक्षु जीवों का स्वरूप तथा भेद

[[१९४]]

कैवल्यपरायण जीव

[[१९४]]

कैवल्यानुभव के मार्ग

[[१९५]]

अचिरादि मार्ग

[[१९५]]

मोक्षपरायण जीव के दो भेद ( भक्त एवं प्रपन्न )

[[१९७]]

ब्रह्मविद्या में देवताओं का अधिकार- प्रतिपादन

[[१९८]]

प्रपन्न जीव

[[२००]]

आचार्य के गुण

[[२०१]]

श्रीलक्ष्मीजी में पुरुषकार की पूर्णता का प्रतिपादन

[[२०२]]

प्रपत्ति की सुगमता

[[२०३]]

प्रपन्न जीवों के भेद

[[२०४]]

परमैकान्ती प्रपन्न जीवों के दो भेद

[[२०४]]

मुक्तजीव का वर्णन

[[२०६]]

विद्याप्राप्त जीव का सुषुम्णानाड़ी में प्रवेश

[[२०८]]

वैकुण्ठ की नदी आदि का वर्णन

[[२०९]]

मुक्तजीव का पाँच सौ दिव्य अप्सराओं द्वारा ब्रह्मालंकार

[[२०९]]

अनन्त का वर्णन

[[२१०]]

गरुड़ का वर्णन

[[२१०]]

विष्वक्सेन का वर्णन

[[२११]]

श्रीभगवान् की तीन पत्नियाँ

[[२११]]

नवम अवतार

ईश्वर- लक्षण - १. सर्वेश्वरत्व, २. सर्वशेषित्व, ३. सर्वकर्मसमाराध्यत्व,

४. सर्वकर्मफलप्रदत्व, ५. सर्वाधारत्व ६. सर्वकार्योत्पादकत्व और ७. स्वज्ञानस्वेतरसमस्त द्रव्यशरीरकत्व

३ य०

[[२१७]]

( ३४ )

ईश्वर जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है

उपादानकारण का लक्षण

[[२१९]]

[[२२०]]

निमित्तकारण का लक्षण

[[२२१]]

सहकारीकारण का लक्षण

[[२२२]]

नारायण में ही जगत्कारणत्व का पर्यवसान

[[२२४]]

प्रकृति के जगत्कारणत्व का खण्डन

[[२२४]]

सर्वशाखा प्रत्ययन्याय

[[२२५]]

छागपशुन्याय ( सामान्य विशेषन्याय )

[[२२५]]

इन्द्रादि के जगत्कारणत्व का खण्डन

[[२२६]]

अन्तरादित्य तथा दहरविद्या का नारायणपरत्व

[[२२९]]

निर्विशेष ब्रह्म जगत् का कारण नहीं

[[२३१]]

निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म की सिद्धि

[[२३१]]

अविद्याग्रस्त ब्रह्म का संसार में संसरण

[[२३२]]

अपच्छेदन्याय

[[२३३]]

अपच्छेदन्याय का प्रवृत्तिस्थल

[[२३४]]

विरोधाधिकरणन्याय

[[२३४]]

उत्सर्गापवादन्याय

[[२३५]]

भेदाभेदवादिनी श्रुतियों का तात्पर्य - निरूपण

[[२३६]]

जगत् के सत्यत्व की सिद्धि

[[२३६]]

निवर्तकानुपपत्ति

[[२३७]]

ईश्वर - सिद्धि

[[२३९]]

ईश्वर की त्रिविध व्यापकता

[[२४२]]

ईश्वर का आनन्त्य

[[२४३]]

परमात्म-सृष्टि का स्वरूप

[[२४५]]

परमात्मा की चार प्रकार की सद्वारक सृष्टियाँ

[[२४५]]

परमात्मा द्वारा जगत् की स्थिति का स्वरूप

[[२४५]]

परमात्मा द्वारा जगत् का चार प्रकार से पालन

[[२४६]]

परमात्म-कृत जगत् के संहार का अभिप्राय

[[२४६]]

परमात्मा द्वारा किये जानेवाले संहार के चार प्रकार

[[२४६]]

ईश्वर के पररूप का वर्णन

[[२४८]]

ईश्वर के व्यूहरूप का वर्णन

[[२५०]]

व्यूहरूपों का प्रयोजन

[[२५०]]

वासुदेवरूप का वर्णन संकर्षण रूप का वर्णन प्रद्युम्नरूप का वर्णन

[[२५१]]

[[२५१]]

[[२५२]]

( ३५ )

अनिरुद्धरूप का वर्णन

[[२५२]]

द्वादश व्यूहान्तरों का निरूपण

[[२५३]]

ईश्वर के विभव रूपों का वर्णन

[[२५४]]

ईश्वर के अन्तर्यामी रूप का वर्णन

[[२५५]]

भगवान् का सुलभतम रूप अर्चावतार

[[२५७]]

दशम अवतार

अद्रव्यसामान्य का लक्षण

[[२५९]]

अद्रव्यों की संख्या

[[२५९]]

सत्त्वगुण का लक्षण

[[२६१]]

सत्त्व के दो भेद

रजोगुण का लक्षण

तमोगुण का लक्षण

[[२६१]]

[[२६१]]

[[२६१]]

तीनों गुणों की प्रकृति में व्यापकता

[[२६२]]

सत्त्वादि के अद्रव्यत्व की सिद्धि

[[२६३]]

शब्द का निरूपण

[[२६४]]

वर्णों की संख्या

[[२६४]]

शब्द के श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्व प्रकार का निरूपण

[[२६५]]

शब्द के अद्रव्यत्व का प्रतिपादन

[[२६५]]

स्पर्श का निरूपण

[[२६७]]

स्पर्श के दो भेद

[[२६८]]

रूप का निरूपण

रूपों के दो भेद

[[२६९]]

[[२६९]]

चित्ररूप का खण्डन

[[२७०]]

रस का लक्षण

[[२७१]]

गन्ध-निरूपण

[[२७२]]

पाकज गुणान्तरोत्पत्ति-विषयक विचार

[[२७३]]

संयोग का निरूपण

[[२७५]]

कार्य-संयोग

[[२७६]]

संयोगज संयोग का खण्डन

[[२७६]]

अकार्य-संयोग

[[२७६]]

शक्ति का निरूपण

[[२७७]]

संस्कार का संयोग में अन्तर्भाव

[[२७९]]

पृथक्त्व एवं विभाग की संयोगाभावरूपता

[[२८०]]

( ३६ )

वैशेषिकाभिमत गुण, संख्या, परिमाण, द्रवत्व एवं स्नेह की तत् तत्

द्रव्य स्वरूपता

गुरुत्व का शक्ति में अन्तर्भाव

[[२८१]]

[[२८३]]

उपसंहार ग्रन्थ

यतीन्द्रमतदीपिका के बत्तीस उपजीव्य ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय

[[२८५]]

यतीन्द्रमतदीपिका की तत्त्वापादकता

[[२८७]]

ग्रन्थ का उपसंहार

[[२९१]]

11 at: 11

श्रीनिवासाचार्यविरचिता

यतीन्द्रमतदीपिका

हिन्द्यनुवादेन ‘भावप्रकाशिकया’ च समन्विता