आनन्दभाष्यसिंहासनासीनजी

(श्री-वैष्णव-मताब्ज-भास्कर-प्रस्तावात्)

सम्प्रदाय प्रस्तोता—आनन्दभाष्यसिंहासनासीनजी

सम्, प्र उपसर्ग पूर्वक दा धातु से निष्पन्न यह सम्प्रदाय शब्द है। ‘अथाम्नायः सम्प्रदायः’ इस कोष वचन के अनुसार गुरु-परम्परागत प्राप्त होने वाले या प्रचलित उपदेश को सम्प्रदाय कहते हैं, जो अनादिकाल से चलता आया हुआ है, एवं जिसका वर्णन वेद, उपनिषद्, संहिता आदि शास्त्रों में उपलब्ध होता है। श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय का वर्णन ऋग्वेद के दशवें मण्डल ११७ सूक्त ७वें मन्त्र में उपलब्ध होता है, एवं अथर्ववेदीय श्रीरामतापनीयोपनिषद् के उत्तरभाग के चौथे पैराग्राफ में श्रीराम-महामन्त्र-जप, अनुष्ठान एवं परम्परा सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होता है। अथर्ववेदीय श्रीमैथिली-महोपनिषद् के पाँचवें प्रसङ्ग में श्रीसम्प्रदाय यानी श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय की आनुपूर्विकी परम्परा उपलब्ध होती है।

श्रीवशिष्ठसंहिता में महर्षि पराशर एवं ब्रह्मर्षि श्रीवशिष्ठजी के संवाद के रूप में वही परम्परा अनुपूर्वी उपलब्ध होती है। श्रीअगस्त्यसंहिता में उसी परम्परा का आनुपूर्वी उल्लेख प्राप्त होता है। तथा श्रीवाल्मीकिसंहिता में श्रीराम-महामन्त्र के इस भूभाग में अवतरण के प्रसङ्ग के साथ श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी वेद, उपनिषद्, संहिता शास्त्रों में वर्णित अविच्छिन्न परम्परा का उल्लेख गीतानन्दभाष्य के मङ्गलाचरण श्लोक दो में आनन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी ने अपनी परम्परा का उल्लेख करते हुए पूर्वोक्त श्रुति-स्मृतियों का पूर्णतः अनुकरण किया है। जगद्विजयी महामहोपाध्याय शतावधानी जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य-श्रीरघुवराचार्यजी वेदान्तकेसरीजी ने आचार्यस्मृति में इन सभी वेद, उपनिषद्, संहिता एवं आचार्यकृति का अनुसरण करते हुए सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी से लेकर अपने गुरुदेव श्रीयुत-श्रीहनुमदाचार्यजी तक के (३८) अड़तीस आचार्यों का आनुपूर्वी वर्णन किया है। पण्डितसम्राट् स्वामी श्रीवैष्णवाचार्यजी ने आचार्यविजयध्वज में इहीं पूर्वोक्त सभी ग्रन्थों के आदर्श में श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय के आचार्यों एवं द्वाचार्यों की वन्दना की है। पूर्व-वर्णित सभी ग्रन्थों एवं सभी आचार्यों के आदर्श में ही मैंने भी आचार्यमङ्गलध्वज में श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय के उपास्य देव सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी से लेकर अपने सम्मान्य श्रीसद्गुरुदेव श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय के चालिसवें आचार्य जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्यजी योगीन्द्रजी तक अविच्छिन्न परम्परा तथा आनन्दभाष्यकारजी के बाद पृथक् रूप से उपाचार्यों-द्वाराचार्यों के द्वारा प्रचलित छत्तीस द्वाराचार्यों का यथा-तथ्य वर्णन किया है। कविकिङ्कर श्रीबलरामदासजी त्यागी ने इहीं पूर्वोक्त आचार्यों या ग्रन्थों के आदर्श में श्रीरामानन्द-सम्प्रदाय के अविच्छिन्न परम्परा के एकतालिसवें आचार्य आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य-श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी एवं श्रीरामानन्दीय छत्तीस द्वाराचार्यों का निरूपण आचार्यपरिचर्या नामक ग्रन्थ में किया है।

ध्येय—श्रीसम्प्रदाय में ध्येय पदार्थ एक विशेष महत्व रखता है। सद्गुरुदेव से ब्रह्मतारक षडक्षर श्रीराम-महामन्त्र की सविधि दीक्षा प्राप्त काल में जिन उपास्यदेव का गुरुदेव से उपासना-पद्धति के अनुसार शिक्षा प्राप्त हुए हो उसी के अनुसार जिनका ध्यान करने में आता [[P9]] हो वे ध्येय कहलाते हैं। जिसका वर्णन श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर के तीसरे प्रकरण में आनन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी ने छ श्लोकों से किया है। जिसका वास्तविक अर्थ प्रभा एवं किरण नाम की मेरी टीकाओं से समझा जा सकता है।

ज्ञेय—गान करने योग्य या जानने योग्य को ज्ञेय कहते हैं। श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के ज्ञेय तत्व सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी हैं। एवं दैनिक गान करने योग्य दिव्य चरित्र श्रीमद्रामायण महर्षि श्रीवाल्मीकिजी रचित तथा श्रीमद्रामचरितमानस श्रीतुलसीदासजी कृत है।

धाम—अथर्ववेद के ‘देवानाम्पुरयोध्या’ इस वाक्य के अनुसार श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्द सम्प्रदाय का धाम सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी का दिव्यधाम अयोध्या है। वहीं श्रीसाकेत इस नाम से भी वेद, संहिता स्मृति शास्त्रों में उल्लिखित है।

मुक्ति—उपनिषद् संहिता ब्रह्मसूत्र आदि सत्शास्त्रों के उल्लेखानुसार सारूप्य, सामीप्य, सालोक्य एवं सायुज्य इसप्रकार चार मुक्ति की चर्चा उपलब्ध होती है। इनमें से श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्दसम्प्रदाय में सायुज्य मुक्ति स्वीकृत है। जिसका वर्णन आनन्दभाष्यकारजी ने ब्रह्मसूत्र आनन्दभाष्य के चौथे अध्याय के प्रसङ्ग में विशद रूपसे उल्लेख किया है। एवं श्रीवैष्णव मताब्जभास्कर में नौवें परिच्छेद के श्लोक १ से १० तक में मुक्तिमार्ग का तात्विक विवेचन आनन्दभाष्यकारजी ने किया है। उन श्लोकों का वास्तविक अर्थ समझने हेतु मेरी प्रभा-किरण टीका का अनुसन्धान करें। जिसमें श्रीरामानन्दसम्प्रदाय से स्वीकृत अचिरादिमार्ग का शास्त्रीय प्रमाण के द्वारा प्रतिपादन किया गया है। उस अचिरादिमार्ग का उत्कृष्ट वर्णन दूसरे के मतों का निरसन करते हुए महामहोपाध्याय वेदान्तकेसरी जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीयुत रघुवराचार्यजी ने गीता के आठवें अध्याय के तेविसवें श्लोक के अर्थ चन्द्रिका टीका में अतिविस्तृत वर्णन किया है। जिसका स्वाध्याय वहीं करना अपेक्षित है। सायुज्य शब्द का संक्षिप्त तात्पर्य यह कि सहभाव यानी सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी का नित्य कैङ्कर्य करते हुए निकट में नित्य निवास प्राप्त करना।

मुक्ति का साधन—श्रीसम्प्रदाय-श्रीरामानन्दसम्प्रदाय में सर्वेश्वर श्रीरामजी की शरणागति स्वीकार करना मुक्ति का साधन माना गया है। जो अविच्छिन्न परम्परा गत सत् आचार्यजी के पास से धनुष बाण का छाप श्रीरामरज से ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक श्रीरामनाम के साथ संयुक्त नाम ब्रह्मतारक छ अक्षरवाला श्रीराममहामन्त्र एवं तुलसी की कण्ठी इन पाँच संस्कारों से संस्कृत होकर श्रीसद्गुरुदेवजी के उपदेश के अनुसार ब्रह्मतारक षडक्षर श्रीराममहामन्त्र की उपासना अर्थात् श्रीराममहामन्त्रराज का जप मुक्ति का साधन है। जिसका उल्लेख आनन्दभाष्यकारजी ने श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर के चौथे परिच्छेद में ५९ श्लोकों से अतिविशद रूपमें वर्णन किया है। जिसका स्वाध्याय प्रभा-किरण टीका के साथ वहीं कर लेना सम्भव है।

परन्तु सायुज्य मुक्ति की इच्छा से श्रीरामशरणागति स्वीकार करनेवाले साधक को खासकर यह ध्यान में रखना चाहिए कि अन्धे लूले, लङ्गडे कुष्ठरोगी, वामन नेत्ररोगी व्यर्थ में बहुत बोलनेवाले काला दाँतवाले मायावी, अधिक अङ्ग वाले, कम अङ्गवाले, बीडी, गांजा, भांग सिगरेट चरस खैनी वगैरह व्यसनवाले प्रमाण से अधिक सोनेवाले, प्रमाण से अधिक खानेवाले, खराव नाखूनवाले से कभी भी गुरु दीक्षा यानी श्रीरामशरणागति कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए। [[P10]]

उत्तम कुल में उत्पन्न धोती खेश, आदि श्रीसम्प्रदायीय स्वच्छ वेशवाले, पवित्र इन्द्रियों को वश में रखनेवाले सदाचार परायण, नम्र, सब शास्त्रों को जाननेवाले, श्रीवैष्णवीय धर्म के उपदेश में कुशल विरक्त श्रीवैष्णवधर्म के पालन में तत्पर सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी के ध्यान में संलग्न, शुद्ध बुद्धिवाले, सच्चरित्रवाले को ही गुरु यानी आचार्य बनाना चाहिए अन्य को नहीं।

卐 श्रीरामानन्दसम्प्रदायाचार्यदर्शन 卐

卐 श्रीरामतापनियोपनिषद् 卐

परतत्त्व-निर्णय-परायण मिथिलाधिपति विदेह राजा जनक से समायोजित सभा में ब्रह्म, रुद्र, बृहस्पति, याज्ञवल्क्य, भरद्वाज, अत्रि प्रभृति तत्त्वज्ञ महापुरुष संमिलित हुये। चर्चा-प्रसङ्ग में श्रीराम-पूर्व-तापनीय-उपनिषद् प्रधानतया केन्द्र-विन्दु बनी रही, उसमें सर्वेश्वर श्रीरामजी के नाम, रूप, लीला एवं धाम के विषय में व्यास-समास चर्चा के अनन्तर उत्तर-भाग में सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी के महामन्त्रों का वैभव, विशिष्ट महिमा तथा सम्प्रदाय-सम्बन्धी सम्वाद महर्षियों के सम्पन्न हुये। महर्षियों के प्रश्न एवं प्रतिवचन के अनन्तर कोई नवीन प्रश्न उपस्थित न होने से श्रीराम-तत्त्वज्ञ महर्षि याज्ञवल्क्यजी ने श्रीराम-महामन्त्र का परत्व-प्रतिपादन एवं सम्प्रदाय तथा परम्परा-प्रतिपादनार्थ महर्षि अत्रि ऋषिजी के प्रति स्वयं कहा—

सर्वेश्वर श्रीरामजी के ब्रह्मतारक षडक्षर महामन्त्र-राज का सहस्त्रों मन्वन्तर तक जप, होम, अर्चन एवं आगे निर्दिष्ट सप्तचत्वारिंशत् मन्त्रों द्वारा स्तुति करते हुये वृषभध्वज-श्रीशङ्करजी काशी में जप किये, अनन्तर ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, तेज, शक्ति प्रभृति छओं ऐश्वर्यों से परिपूर्ण सर्वेश्वर श्रीरामजी प्रसन्न होकर श्रीशङ्करजी से कहे—“हे परमेश्वर! जो अभीष्ट हो, मांगिये, उसे दे देता हूँ” ॥१-२॥

शरणागत-वत्सल श्रीरामजी की दिव्य-वाणी श्रवण कर श्रीशङ्करजी ने प्रार्थना की—“सर्वेश्वर श्रीरामजी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो मणिकर्णिका में, मेरे इस पञ्च-कोशी काशी-क्षेत्र में अथवा गंगा के तट में मरे हुये जन्तुओं को मुक्ति प्रदान कर दें। यही वर मैं मांगता हूँ, दूसरा कोई वर हमें नहीं चाहिये” ॥३॥

अथ तं प्रत्युवाच स्वयम् एव याज्ञवल्क्यः— श्रीरामस्य मनुं काश्यां जजाप वृषभ-ध्वजः । मन्वन्तर-सहस्रैस् तु जप-होम-ार्चनादिभिः ॥ ४-१ ॥ ततः प्रसन्नो भगवान् श्रीरामः प्राह शङ्करम् । वृणीष्व यद् अभीष्टं तद् दास्यामि परमेश्वर ! इति ॥ २ ॥

सहोवाच— मणिकर्णिकायां मत्-क्षेत्रे गङ्गायां वा तटे पुनः । म्रियते देहि तज्-जन्तोर् मुक्तिं नातो वरान्तरम् ॥ ३ ॥ इति ।

अथ सहोवाच श्रीरामः—

शरणागत-वत्सल श्रीरामजी की दिव्य-वाणी श्रवण कर श्रीशङ्करजी ने प्रार्थना की—“सर्वेश्वर श्रीरामजी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो मणिकर्णिका में मेरे इस पञ्च-कोशी काशी-क्षेत्र में अथवा गङ्गा के तट में मरे हुए जन्तुओं को मुक्ति प्रदान कर दें। यही वर मैं माँगता हूँ, दूसरा कोई वर हमें नहीं चाहिये” ॥३॥

श्रीशङ्करजी की प्रार्थना सुनकर प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामचन्द्रजी ने कहा—“हे देवेश! इस तुम्हारी काशी-क्षेत्र में—पञ्चकोशी के अन्दर—कहीं भी मरे मनुष्य, कीटादि सभी इसी जन्मान्त में मुक्त होंगे, यह मेरा वर है जो असत्य नहीं होगा। इस आपके अविमुक्त-क्षेत्र में सभी को मुक्ति प्रदानार्थ पाषाण या अन्य प्रतिमाओं में भी मैं सदा सन्निहित ही रहूँगा” ॥४-५॥

“हे शिवजी! जिस महामन्त्र के द्वारा अनुष्ठान आपने किया है, उस मन्त्र-राज से कोई भी भक्ति-भावपूर्वक मेरी पूजा करेगा, उसे अज्ञानावस्था में हुए ब्रह्महत्यादि पापों से भी मुक्त कर दूँगा। इस विषय में आप चिन्ता न करें” ॥६॥

सर्वेश्वर श्रीरामजी ने कहा—“श्रीशङ्करजी! जिस षडक्षर ब्रह्मतारक श्रीराम-महामन्त्र का अनुष्ठान आपने किया है, उस महामन्त्र-राज को आपसे या ब्रह्माजी अथवा अविच्छिन्न परम्परागत आचार्यजी से विधिपूर्वक ग्रहण कर जो साधक-वर्ग साधना करेंगे, वे जीवन-काल में ही मन्त्र-सिद्ध होंगे एवं परिणामतः सायुज्य-मुक्ति प्राप्त कर मुझे मेरे दिव्य-लोक श्रीसाकेत-धाम में प्राप्त करेंगे।” सर्वशरण्य श्रीरामजी के इस वरदान-रूप आदेश से श्रीराम-महामन्त्र की दो परम्परा चली—एक श्रीशङ्करजी की, जिसमें महर्षि अगस्त्यजी, महर्षि सुतीक्ष्णजी प्रभृति आते हैं। दूसरी श्रीब्रह्माजी की, जिसमें ब्रह्मर्षि श्रीवशिष्ठजी, महर्षि श्रीपराशरजी, महर्षि श्रीव्यासजी, परमहंस-शिरोमणि श्रीराम-ब्रह्म-तत्त्वोपदेशक श्रीशुकमुनिजी प्रभृति का समावेश है, जिनकी विरक्त एवं गृहस्थ शिष्यों की परम्परा आज तक विश्व में सर्वत्र न्यूनाधिक रूप से व्याप्त है। इन्हीं महर्षियों को विरक्त परम्परा में २२वें श्रीसम्प्रदायाचार्य आनन्दभाष्यकारजी हुए। अग्रिम अविच्छिन्न परम्परा में ४१वें आचार्य के रूप में मेरी—इस निबन्ध के लेखक—की गणना है, जिसका क्रमबद्ध विवेचन आगे होगा ॥७॥

सर्वेश्वर श्रीरामजी ने पुनः कहा—“हे शिवजी! जिस मुमूर्षु व्यक्ति के दाहिने कान में इस मेरे षडक्षर तारक महामन्त्र का स्वयं उपदेश करेंगे, वह अवश्य ही मुक्त हो जायेगा।” यहाँ यह स्मरण रहे—परम्परागत आचार्यजी से सविधि उपदिष्ट श्रीराम-महामन्त्र से ही मुक्ति सम्भव है, मनमुखीपना से नहीं ॥८॥

सहोवाच—
मणिकर्णिकायां मत्-क्षेत्रे गङ्गायां वा तटे पुनः ।
म्रियते देहि तज्-जन्तोर् मुक्तिर् नातो वरान्तरम् ॥ ३ ॥ इति ।

अथ सहोवाच श्रीरामः—
क्षेत्रेऽत्र तव देवेश ! यत्र कुत्रापि वा मृताः ।
कृमि-कीटादयोऽप्य् आशु मुक्ताः सन्तु न चान्यथा ॥ ४ ॥
अविमुक्ते तव क्षेत्रे सर्वेषां मुक्ति-सिद्धये ।
अहं सन्निहितस् तत्र पाषाण-प्रतिमादिषु ॥ ५ ॥
क्षेत्रेऽस्मिन् योऽर्चयेद् भक्त्या मन्त्रेणानेन मां शिव ! ।
ब्रह्म-हत्यादि-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ६ ॥
तत्त्वो वा ब्रह्मणो वापि ये लभन्ते षडक्षरम् ।
जीवन्तो मन्त्र-सिद्धाः स्युर् मुक्ता मां प्राप्नुवन्ति ते ॥ ७ ॥
मुमूर्षोर् दक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् ।
उपदेक्ष्यसि मन्-मन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ! ॥ ८ ॥

卐 श्रीमैथिलीमहोपनिषद् 卐

इमम् एव मनुं पूर्वं साकेत-पतिर् माम् अवोचत् । अहं हनुमते मम प्रियाय प्रियतराय । स वेद-वेदिने ब्रह्मणे । स वशिष्ठाय । स पराशराय । स व्यासाय । स शुकाय । इत्य् एषोपनिषत् । इत्य् एषा ब्रह्म-विद्या । (श्रीमैथिलीमहोपनिषद्-५)

प्रकृत उपनिषद् में लाट्यायन प्रभृति महर्षियों को विशिष्ट तत्त्वोपदेशान्तर श्रीराम महामन्त्रराज की परम्परा के विषय में सर्वेश्वरी श्रीसीताजी कहती है—यही षडक्षर श्रीराम महामन्त्र को दिव्यलोक में श्रीसाकेताधिनायक सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी ने मुझे कहा अर्थात् सविधि उपदेश दिया। मैंने मेरे प्रियातिप्रिय सेवक मरुतनन्दन श्रीहनुमानजी को यथाशास्त्र विधि विधान से उपदेश दिया। श्रीहनुमानजी ने भी शास्त्रीय विधान से वेद के ज्ञाता श्रीब्रह्माजी को उपदेश दिया। श्रीब्रह्माजी ने भी शास्त्र विधान के अनुसार ही स्वमानस पुत्र श्रीवशिष्ठजी को उपदेश दिया। श्रीवशिष्ठ जी ने शास्त्रीय विधि से श्रीपराशरजी को उपदेश दिया। श्रीपराशरजी ने शास्त्र विधान के अनुसार श्रीव्यासजी को उपदेश दिया। श्रीव्यासजी ने शास्त्र विधानानुसार श्रीशुकदेवजी को उपदेश दिया। यही उपनिषद् श्रीरामचन्द्रजी के दिव्यधाम श्रीसाकेत में जाने का साधन है यानी शास्त्रीय विधि से श्रीगुरुमुख से प्राप्त तारक श्रीराम महामन्त्र के अनुष्ठान से ही सायुज्य मुक्ति या श्रीराम प्राप्ति की जा सकती है अन्य साधनों से नहीं। यही ब्रह्मविद्या है—उपरोक्त क्रम से सत् आचार्य परम्परया प्राप्त श्रीराम मन्त्रराज से या उसके सविधि सदनुष्ठान से जीवों की मुक्ति होती है अतः यह ब्रह्मविद्या इस नामसे संसार में प्रसिद्ध है। इससे यह स्फुटित हुआ कि श्री सम्प्रदाय की परम्परा निम्न रूपसे है—१-सर्वेश्वर श्रीरामजी २-सर्वेश्वरी श्रीसीताजी ३-श्रीहनुमानजी ४-श्रीब्रह्माजी ५-श्रीवशिष्ठजी ६-श्रीपराशरजी ७-श्रीव्यासजी ८-श्री शुकदेवजी।

गुह्यतम वेदार्थ तत्त्वों के प्रचारक-प्रसारक संहिता शास्त्रों ने श्रीसम्प्रदाय के परम्परा तत्त्व को निम्न रूपसे वर्णन किया है—

卐 श्रीवशिष्ठसंहिता 卐

शृणु वदामि ते वत्स ! मन्त्र-राज-परम्पराम् ।
यस्याश् च वन्दनाद् रामश् चात्यन्तं हि प्रसीदति । सृष्ट्यादौ च सिसृक्षुः श्रीरामो विधिं विधाय हि ।
सृष्टये प्रेषयामास वेदं ज्ञान-महानिधिम् ॥ तथाप्य् अर्थावबोधस्याभावाद् विधिः ससर्ज न ।
जातायाम् ईश-भक्तौ च गुरु-भक्तिर् यतो न हि ॥ भक्ति-द्वये यतश् चास्ति तत्त्व-प्रकाश-हेतुता ।
ततो वेदार्थ-बोधो न गुरोर् भक्तेर् अभावतः ॥ ततो रामस्य खेदं हि समुद्वीक्ष्य च मैथिली ।
गृहीत्वा विधिवद् रामान् मन्त्र-राजं षडक्षरम् ॥ हनुमते च दत्त्वा तं राम-मन्त्रं षडक्षरम् ।
विधये मन्त्र-दानाय प्रेरयामास मारुतिम् ॥

महर्षि पराशरजी के श्रीराममन्त्र परम्परा विषयक जिज्ञासा करने पर ब्रह्मर्षि श्रीवशिष्ठजी ने श्रीराम महामन्त्र का महत्व एवं पूर्व भूमिका बताते हुये कहा कि सर्वेश्वरी श्रीसीताजी ने सर्वेश्वर श्रीरामजी से प्रार्थनापूर्वक सविधि षडक्षर श्रीराम महामन्त्र की दीक्षा-शिक्षा प्राप्तकर यथानियम श्रीहनुमानजी को प्रदान की एवं उन्हें प्रेरित किया कि ब्रह्माजी को यथाशास्त्र उपदेश करो। इससे यह ज्ञात हुआ कि ऊपर उपनिषद् में वर्णित क्रमानुसार ही श्रीसम्प्रदाय परम्परा सुस्थिर है।

卐 श्रीअगस्त्यसंहिता 卐

ब्रह्माददौ वशिष्ठाय स्व-सुताय मनुं ततः ।
वशिष्ठोऽपि स्व-पौत्राय दत्तवान् मन्त्रम् उत्तमम् ॥ पराशराय रामस्य मन्त्रं मुक्ति-प्रदायकम् ।
स वेद-व्यास-मुनये ददाव् इत्थं गुरु-क्रमः ॥ वेद-व्यास-मुखेनात्र मन्त्रो भूमौ प्रकाशितः ।
वेद-व्यासो महा-तेजः शिष्येभ्यः समुपादिशत् ॥

प्रस्तुत अगस्त्यसंहिता के श्लोकानुसन्धान से यही अवगत होता है कि यह क्रम श्रीवशिष्ठ संहितानुकूल ही है। क्योंकि श्रीब्रह्माजी श्रीवशिष्ठजी श्रीपराशरजी श्री व्यासजी श्रीशुक देवजी प्रभृति का यथापूर्व वर्णन हुआ है।

卐 श्रीवाल्मीकिसंहिता 卐

इदं तु परमं तत्त्वं देवानाम् अप्य् अगोचरम् ।
पृष्टं युष्माभिर् अनघं कथ्यते शृणुतर्षयः ॥ भगवान् रामचन्द्रो वै परं ब्रह्म श्रुति-श्रुतः ।
दयालुः शरणं नित्यं दासानां दीन-चेतसाम् ॥ इमां सृष्टिं समुत्पाद्य जीवानां हित-काम्यया ।
आद्या-शक्तिं महा-देवीं श्रीसीतां जनकात्मजाम् ॥ तारकं मन्त्र-राजं तु श्रावयामास ईश्वरः ।
जानकी तु जगन्-माता हनुमन्तं गुणाकरम् ॥ श्रावयामास नूनं स ब्रह्माणं सुधियां वरम् ।
तस्माल् लेभे वशिष्ठर्षिः क्रमाद् अस्माद् अवातरम् ॥ भूमौ हि राम-मन्त्रोऽयं योगिनां सुखदः शिवः ।
एवं क्रमं समासाद्य मन्त्र-राज-परम्परा ॥

प्रस्तुत श्रीवाल्मीकि संहिता उपरोक्त उपनिषद् मार्ग को ही श्रीरामजी श्रीसीताजी श्रीहनुमानजी श्रीब्रह्माजी श्रीवशिष्ठजी आदि का आनुपूर्वी वर्णन कर परम्परा को प्रस्फुटित करती है। इहीं उपनिषद् तथा संहिताओं में वर्णित श्रीसम्प्रदायीय परम्परा को ही जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी ने अपने भाष्य में आबद्धकर अपनी परम्परा प्रस्तुत की है—

卐 गीतानन्दभाष्यम् 卐

श्रीरामं जनकात्मजाम् अनिलजं वेधो वशिष्ठावृषी
योगीशं च पराशरं श्रुति-विदं व्यासं जिताक्षं शुकम् ।
श्रीमन्तं पुरुषोत्तमं गुण-निधिं गङ्गाधराद्यान् यतीन्
श्रीमद्-राघव-देशिकं च वरदं स्वाचार्य-वर्यं श्रये ॥

यानी अब क्रम बद्ध परम्परा यों बनी १-सर्वेश्वर श्रीरामजी २-सर्वेश्वरी श्रीसीताजी ३-श्रीहनुमानजी ४-श्रीब्रह्माजी ५-श्रीवशिष्ठजी ६-श्रीपराशरजी ७-श्रीव्यासजी ८-श्रीशुक देवजी ९-श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी १०-श्रीगङ्गाधराचार्यजी श्लोक के आदि शब्द से ११-श्रीसदानन्दाचार्यजी १२-श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी (प्रथम) १३-श्रीद्वारानन्दाचार्यजी १४-श्रीदेवानन्दाचार्यजी १५-श्रीश्यामानन्दाचार्यजी १६-श्रीश्रुतानन्दाचार्यजी १७-श्रीचिदानन्दाचार्यजी १८-श्रीपूर्णानन्दाचार्यजी १९-श्रीश्रियानन्दाचार्यजी २०-श्रीहर्यानन्दाचार्यजी २१-श्रीराघवानन्दाचार्यजी २२वें में स्वयं आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी।

प्रकृत आर्ष प्रबन्धों के सामञ्जस्य में ही निम्न दिव्य प्रबन्ध-निबन्ध ग्रथित हुये हैं-जिन से श्रीरामानन्दसम्प्रदाय के ४१वें आचार्य तक एवं ३६ द्वाराचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा का तात्विक रूपसे ज्ञान प्राप्त होता है-

  • ०१-आचार्यपरम्परा (श्रीमन्त्रराजपरम्परा) १ से २२ तक आचार्यों का विवरण ले. ज-गद्‌गुरु श्रीअग्रदेवाचार्यजी।
  • ०२-आचार्यस्मृतिः १ से ३८ तक आचार्यों का चरित चित्रण है ले. महामहोपाध्याय जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी वेदान्तकेसरी।
  • ०३-आचार्यस्तुतिचन्द्रिका १ से ३९ तक आचार्यों की स्तुति है ले. जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्यजी योगीन्द्र।
  • ०४-प्राचार्यविजयध्वजः १ से २२ आचार्यों एवं द्वाराचार्यों का विवरण है ले. अभिनववाचस्पति पण्डितसम्राट् स्वामी श्रीवैष्णवाचार्यजी। [[P19]]
  • ०५-आचार्यपरिचर्या १ से ४१ आचार्यों तथा ३६ द्वाराचार्यों का विवरण है ले. कविकिङ्कर श्रीबलरामदासजी त्यागी।
  • ०६-देशिकपरिचर्या १ से ४१ आचार्यों तथा ३६ द्वाराचार्यों का चित्रण है ले. आनन्दभाष्य सिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • ०७-श्रीसम्प्रदायदिग्दर्शन १ से ४१ आचार्यों तथा ३६ द्वाराचार्यों का विवरण है ले. श्रीमहन्त श्रीअवधेशदासजी रामायणी (श्रीवैष्णवाचार्य)।
  • ०८-परम्परावन्दनम् १ से ४० आचार्यों का स्तवन है ले. आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • ०९-श्रीरामानन्दसम्प्रदाय का इतिहास १ से २२ आचार्यों का विवरण सम्पादक वैद्यराज श्रीत्रिभुवनदासजी शास्त्री।
  • १०-आचार्यमङ्गलध्वजः १ से ४१ आचार्य एवं ३६ द्वाराचार्यों का चित्रण ले. आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यश्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • ११-श्रीरामानन्दसम्प्रदाय का इतिहास ३६ द्वाराचार्यों का चित्रण सम्पादक वैद्यराज श्रीत्रिभुवनदासजी शास्त्री।
  • १२-श्रीगुरुमहिम्नस्तोत्रम् १ से ४० आचार्यों का स्तवन ले. आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • १३-आचार्यकीर्तिलता १ से ४१ आचार्यों का चित्रण ले. पं. वैद्यनाथमिश्रजी।
  • १४-जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यः १ से ४१ आचार्यों तथा ३६ द्वाराचार्यों का चित्रण ले. आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • १५-आचार्यकीर्तिरत्नमञ्जूषा १ से ४१ आचार्यों के चरित्र चित्रण ले. विद्यावारिधि पं. श्रीघनेशझाजी।
  • १६-श्रीशेषमठ शींगडा ले. पुरातत्त्व लेखक उमेशपाल वर्णवालजी।
  • १७-श्रीरामानन्दसम्प्रदाय की पूर्व परम्परा का सांस्कृतिकपक्ष ले. पुरातत्त्व लेखक श्रीपुष्पेन्द्र वर्णवालजी।
  • १८-श्रीआनन्दभाष्यकार-सप्तशती ले. श्रीवैष्णव हरिराम लश्करी।
  • १९-आचार्यमङ्गलम् ले. महामहोपाध्याय जगद्‌गुरुश्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी।
  • २०-श्रीरामानन्दसम्प्रदायमहिम्नस्तवः ले. विद्यावाचस्पति श्रीउमारमणझाजी।
  • २१-श्रीरामानन्दाचार्यशतकम् ले. विद्यावारिधि पं. श्रीघनेशझाजी।
  • २२-श्रीबोधायनाख्यान ले. दार्शनिक सार्वभौम श्रीवासुदेवाचार्यजी।
  • २३-श्रीरामानन्दाचार्यमहिम्नस्तवः ले. आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • २४-आचार्यमहिम्नस्तवः ले. आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी।
  • २५-श्रीयतिराजशतकम् ले. जगद्‌गुरु श्रीरघुनाथाचार्यजी।
  • २6-प्रबोधरत्नमाला ले. जगद्‌गुरु श्रीकेवलरामाचार्यजी। [[P20]]
  • २७-श्रीरामानन्दबालविरद ले. पुरातत्त्व लेखक श्रीपुष्पेन्द्र वर्णवालजी।
  • २८-रत्नप्रकाशिका ले. जगद्गुरु श्रीवैदेहीवल्लभाचार्यजी।

आचार्य-ततिः

卐 अब क्रमबद्ध परम्परा निम्नानुसार नियत हुई 卐

  1. सर्वेश्वर श्रीरामजी (अनादि-अनन्त होते हुये भी लोक लीलार्थ प्रादुर्भाव काल त्रेतायुग चैत्रशुक्ल श्रीरामनवमी के दिन अयोध्या में)
  2. सर्वेश्वरी श्रीसीताजी (अनादि-अनन्त होते हुये भी लोक लीलार्थ प्रादुर्भाव काल त्रेतायुग वैशाख शुक्ल नवमी के दिन सीतामढी मिथिला में)
  3. श्रीहनुमानजी (स्वपरमाराध्य श्रीरामजी के साथ लोक लीला सम्पादनार्थ प्रादुर्भाव काल त्रेतायुग कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी गन्धमादन पर्वत पर)
  4. श्रीब्रह्माजी (भगवान् के संकल्पानुसार सृष्टि का प्रारम्भकाल अक्षयनवमी श्री विष्णु के नाभिकमलाग्र भाग में आविर्भूत)
  5. श्रीवशिष्ठजी (ऋषिपञ्चमी के दिन ब्रह्मलोक में प्रकट)
  6. श्रीपराशरजी (आश्विन शुक्ल पूर्णिमा श्रीवशिष्ठ काल में उनके आश्रम में प्रकट)
  7. श्रीबादरायण व्यासजी (पराशर काल में गुरुपूर्णिमा के दिन, कालापी उ.प्र. में जन्म)
  8. श्रीशुकदेवाचार्यजी (श्रावण शुक्ल पूर्णिमा व्यासकाल में व्यासाश्रम में जन्म)
  9. महर्षि बोधायन श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी (वि.पू. पौष कृष्ण १२, ५६९-३२० पौषकृष्ण १२ बोधायनसर मिथिला में।)
  10. जगद्‌गुरु श्रीगङ्गाधराचार्यजी (माघकृष्ण एकादशी को आविर्भाव ४८९ वि.पू. तथा तिरोभाव २८९ वि.पू. माघशुक्ल पञ्चमी स्थान प्रतिष्ठानपुर प्रयाग)
  11. जगद्‌गुरु श्रीसदानन्दाचार्यजी (आविर्भाव ३३७ विक्रमपूर्व माघशुक्ल पञ्चमी तिरो भाव ८० विक्रमपूर्व वसन्तपञ्चमी जन्मस्थल गढमुक्तेश्वर)
  12. जगद्‌गुरु श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी (आविर्भाव १३६ वि.सं. पूर्व वैशाख शुक्ल तृतीया तिरोभाव ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी वि.सं. २३६ जन्मस्थल कामदगिरि)
  13. जगद्‌गुरु श्रीद्वारानन्दाचार्यजी (आविर्भाव फाल्गुन पूर्णिमा वि.सं. १९६ द्वारका में तिरोभाव आषाढ शुक्ल तृतीया ३७६ वि.सं. में)
  14. जगद्‌गुरु श्रीदेवानन्दाचार्यजी (आविर्भाव वैशाखशुक्ल दशमी वि.सं. ३२६ में प्रयाग में तिरोभाव माघपूर्णिमा ५२६ वि.सं. में)
  15. जगद्‌गुरु श्रीश्यामानन्दाचार्यजी (आविर्भाव आषाढ़ शुक्ल २ वि.सं. ४८६ जगन्नाथपुरी में तिरोभाव ६८६ आषाढशुक्ल द्वितीया वि.सं. में)
  16. जगद्‌गुरु श्रीश्रुतानन्दाचार्यजी (श्रावण शुक्ल सप्तमी ६३६ वि.सं. मिथिला में जन्म ८३६ वि.सं. श्रावण शुक्ल ७ में साकेत गमन)
  17. जगद्‌गुरु श्रीचिदानन्दाचार्यजी (चैत्र पूर्णिमा ७४६ वि.सं. चित्रकूट में जन्म ८९६ वि.सं. आश्विन शु. १२ में साकेतवास)
  18. जगद्‌गुरु श्रीपूर्णानन्दाचार्यजी (वैशाखकृष्ण त्रयोदशी ८६६ वि.सं. में अवन्तिका में जन्म [[P21]] वैशाख पूर्णिमा १०६७ वि.सं. में साकेतवास)
  19. जगद्‌गुरु श्रीश्रियानन्दाचार्यजी (वैशाखशुक्ल नवमी १०२६ वि.सं. में जनकपुर में जन्म १२०६ वि.सं. चैत्र शु. ९ में अन्तर्धान)
  20. जगद्‌गुरु श्रीहर्यानन्दाचार्यजी (आषाढ शुक्ल एकादशी ११५६ वि.सं. में कर्ण पुर में जन्म साकेतवास १३५६ वि.सं. वैशाख शु. १२)
  21. जगद्‌गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी (चैत्रशुक्ल एकादशी १२०६ वि.सं. में अयोध्या जी में अवतार १३९६ वि.सं. वैशाख शु. ११ में तिरोभाव)
  22. वें स्वयं आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी (आविर्भाव माघकृष्ण सप्तमी १३५६ तिरोभाव चैत्रशुक्ल ९-१५३२) पूर्व विवरणानुसार आनन्दभाष्य कारजी २२वें आचार्य हैं। अग्रिम अविच्छिन्न इस लेख के लेखक तक की आचार्य परम्परा निम्नानुसार है—
  23. जगद्‌गुरु श्रीभावानन्दाचार्यजी (आविर्भाव वैशाख कृष्ण ६ विक्रमसम्वत् १३७६ मिथिला में तिरोभाव ज्येष्ठ पूर्णिमा १५३९ वि.सं.)
  24. जगद्‌गुरु श्रीअनुभवानन्दाचार्यजी (आविर्भाव वसन्तपञ्चमी १५०३ काशी में तिरोभाव श्रीरामनवमी १६११ विक्रमसम्वत्)
  25. जगद्‌गुरु श्रीविरजानन्दाचार्यजी (श्रावण शुक्ल ९ विक्रमसम्वत् १५५० व्रज में आविर्भाव तिरोभाव श्रावण शुक्ल नवमी वि.सं. १७७५)
  26. जगद्‌गुरु श्रीआशारामाचार्यजी (हाथीरामजी) (जन्मस्थान नागौर राजस्थान कार्तिकशुक्ल १२ विक्रमसम्वत् १५६५ तिरोभाव कार्तिकशुक्ल १२ वि.सं. १७६८)
  27. जगद्‌गुरु श्रीरामभद्राचार्यजी (आविर्भाव वैशाख पूर्णिमा विक्रमसम्वत् १७३३ तिरोभाव माघपूर्णिमा १७८९ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल कन्दरामनिक्कम-तंजौर)
  28. जगद्‌गुरु श्रीरघुनाथाचार्यजी (श्रावण अमावास्या १७५७ विक्रमसम्वत् अवतार तिरोभाव ऋषिपञ्चमी १८०७ जन्मस्थल लखना इटावा)
  29. जगद्‌गुरु श्रीविश्वम्भराचार्यजी (आविर्भाव चैत्रकृष्ण तृतीया १७७७ विक्रमसम्वत् तिरोभाव ज्येष्ठ शुक्ल दशमी १८२७ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल पूना)
  30. जगद्‌गुरु श्रीराघवेन्द्राचार्यजी (आविर्भाव चैत्रशुक्ल पञ्चमी १८०७ विक्रमसम्वत् तिरोभाव वैशाख शुक्ल नवमी १८३८ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल सिरसी बिहार)
  31. जगद्‌गुरु श्रीवैदेहीवल्लभाचार्यजी (जन्माष्टमी १८११ विक्रमसम्वत् तिरोभाव मौनी अमावास्या १८७१ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल पोखरा-नेपाल)
  32. जगद्‌गुरु श्रीकोसलेन्द्राचार्यजी (आविर्भाव रथसप्तमी १८३५ विक्रमसम्वत् तिरोभाव अक्षयतृतीया १८८५ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल रायगढ)
  33. जगद्‌गुरु श्रीरामकिशोराचार्यजी (आविर्भाव अनन्तचतुर्दशी १८५१ विक्रमसम्वत् तिरोभाव भाद्रपद चतुर्थी १९११ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल भुवनेश्वर)
  34. जगद्‌गुरु श्रीजानकीनिवासाचार्यजी (आविर्भाव माघकृष्ण सप्तमी १८५१ विक्रम सम्वत् तिरोभाव श्रावणशुक्ल सप्तमी १९१५ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल मलेर कोटला-पंजाब) [[P22]]
  35. जगद्‌गुरु श्रीसाकेतनिवासाचार्यजी (आविर्भाव चैत्रशुक्ल प्रतिपदा १८६७ विक्रम सम्वत् तिरोभाव ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी १९३५ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल मण्डी)
  36. जगद्‌गुरु श्रीजानकीजीवनाचार्यजी (आविर्भाव नागपञ्चमी १८७५ विक्रमसम्वत् तिरोभाव १९०२ श्रावण कृष्ण द्वितीया जन्मस्थल सुचीन्द्र-केरल)
  37. जगद्‌गुरु श्रीभरताग्रजाचार्यजी (अवतार माघी अमावास्या १८४८ वि.सं. साकेत वास वैशाख शुक्ल द्वितीया १९२३ विक्रमसम्वत् जन्मस्थल कुण्डराग्राम विदर्भ)
  38. जगद्‌गुरु श्रीहनुमदाचार्यजी (अवतार अक्षयतृतीया १९०७ विक्रमसम्वत् साकेत वास कार्तिक शुक्ल एकादशी १९७८ जन्मस्थल राजपीपला)
  39. महामहोपाध्याय जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी श्रीरघुवराचार्यजी वेदान्तकेसरी (अवतार विजयादशमी विक्रमसम्वत् १९४३ साकेतवास वसन्तपञ्चमी २००७ विक्रमसम्वत् अवतार स्थल मुरादाबाद) श्रीरघुवरीयवृत्तिकार।
  40. जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यश्रीरामप्रपन्नाचार्यजी योगीन्द्र (काशी में प्रधान आचार्यपीठ आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यपीठ के संस्थापक अवतार श्रीरामनवमी विक्रमसम्वत् १९४४ तिरोभाव २०४६ भाद्र कृष्णनवमी) भाष्यदीपकार।
  41. आनन्दभाष्यसिंहानासीन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी (जन्म वैशाखशुक्ल ३ विक्रमसम्वत् १९८८ जन्मस्थल पूर्व नेपाल) भाष्यप्रकाशकार।

आचार्यश्री के जनकल्याण कारक परमविरक्त प्रधान बारह शिष्य (महाभागवत) थे वे इसप्रकार हैं—१-जगद्‌गुरु श्रीअनन्तानन्दाचार्यजी २-जगद्‌गुरु श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी ३-जगद्‌गुरु श्रीसुखानन्दाचार्यजी ४-जगद्‌गुरु श्रीभावानन्दाचार्यजी ५-जगद्‌गुरु श्रीयोगानन्दाचार्यजी ६-जगद्‌गुरु श्रीनरहर्यानन्दाचार्यजी ७-जगद्‌गुरु श्रीगालवानन्दाचार्यजी ८-जगद्‌गुरु श्रीपीपाचार्यजी ९-जगद्‌गुरु श्रीरामकबीराचार्यजी १०-जगद्‌गुरु श्रीरमादासजी (रैदासजी) ११-जगद्‌गुरु श्रीधनादासजी १२-जगद्‌गुरु श्रीसेनजी जो द्वादश महाभागवत के अवतार होने से बारह सूर्य के समान तेजस्वी लोकोत्तर चमत्कारी तथा लोक कल्याण कारक थे।