TODO: परिष्कार्यम्
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॥ श्रीसीतारामाभ्यां नमः ॥
श्रीवामिरामानन्दाचार्याय नमः
उभयवेदान्तज्ञ–अनन्त–श्रीस्वामी श्री-श्रमदासजी-महाराजैः संग्रहीता
श्री रामप्रपत्तिः॥
सा च
अनन्तश्रीस्वामि पं० श्रीरामबल्लभाशरणैः
भावबोधिनीभ्यां संस्कृत-भाषाटीकाभ्यां संकलिता
अनन्तश्री-मणिरामछावनी-प्रधानैः
श्रीस्वामि-श्रीरामशोमादास-महोदयैः स्वीयैर् धन-व्ययैः प्राकाश्यं नीता
* श्रीसीतारामाभ्यां नमः ॥
श्रीहनुमते नमः ॥
भाष्यकाराय श्रीस्वामि-रामानन्दाचार्याय नमः श्रीस्वामी अग्रदासजी कृत
श्रीरामप्रपत्तिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतानाथसमारम्भां
रामानन्दार्य मध्यमाम् ।
अस्मदाचार्य-पर्यन्तां
वन्दे गुरुपरम्पराम् ॥१॥
मूलम्
सीतानाथसमारम्भां
रामानन्दार्य मध्यमाम् ।
अस्मदाचार्य-पर्यन्तां
वन्दे गुरुपरम्पराम् ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्री-स्वामि-रामानन्दाचार्य-प्रभृतयो ऽस्मद्-आचार्य-पर्यन्ताः
श्री-रामानन्दानुयायिनः शिष्यान् प्रति
प्रपत्तिम् अमुना प्रकारेण कारयन्ति ॥ १ ॥
मूलम्
श्री-स्वामि-रामानन्दाचार्य-प्रभृतयो ऽस्मद्-आचार्य-पर्यन्ताः
श्री-रामानन्दानुयायिनः शिष्यान् प्रति
प्रपत्तिम् अमुना प्रकारेण कारयन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी
स्व श्रीस्वामी रामानन्दाचार्य जी को आदि लेकर हमारे आचार्य तक श्री सम्प्रदाय के आचार्य वर्य अपने शिष्यों को इस प्रकार प्रपत्तिकराते हैं । अर्थात इसप्रकार अपने शिष्योंको शिक्षा देते हैं, तात्पर्य यह हैं कि शिष्यको भगवान् की शरण में अर्पणकर शिष्यको यह उपदेश देते हैं और भगवानकी प्रार्थना सिखाते हैं कि इस प्रकार से प्रभुसे प्रार्थना करो और तुम इस प्रकार से अनुसन्धान करना यथा
२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वामिन् ते शेष-भूतोऽहं
भोग्यस् ते रक्ष्य एव च ।
अकिञ्चनो ऽनन्योपायस्
त्वत्-कैङ्कर्यैक-भोग्यकः ॥ १ ॥
मूलम्
स्वामिन् ते शेष-भूतोऽहं भोग्यस् ते रक्ष्य एव च ।
अकिञ्चनो ऽनन्योपायस् त्वत्-कैङ्कर्यैक-भोग्यकः ॥ १ ॥
न त्व् अन्येषाम्।
हे स्वामिन्, अहं ते तव शेष-भूतः,
तव शेषतां प्राप्तः,
न केषाञ्चिद् देवानाम् इति भावः।
ते तव भोग्यः,
तवैव भोक्तुं योग्यः।
तथा अहं रक्ष्यः, रक्षितुं योग्यः, रक्षणीय इत्यर्थः।
एव-कारेण श्री-रामाद् अन्येन जीवानां रक्ष्यत्वं वार्यते। जीवा रामेणैव रक्षणीया, न त्व् अन्यैर् इत्यर्थः।
अकिञ्चनः—रामाद् अन्यत् किञ्चन न विद्यते परायणं यस्य सः। अर्थात्—
त्वम् एव माता च पिता त्वम् एव,
त्वम् एव बन्धुश् च सखा त्वम् एव ।
त्वम् एव विद्या द्रविणं त्वम् एव,
त्वम् एव सर्वं मम राम-देव ॥
इत्य् उक्त-प्रकारेण श्री-राम एव मे सर्वस्व-भूत इत्यर्थः॥ अनन्योपायः—न विद्यते अन्य उपायो यस्य सः अनन्योपायः। श्री-राम-प्राप्तौ श्री-राम एवोपाय-भूतः, न तु तत्-प्राप्तौ साधनान्तरं भवति, यतः—
नायम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यम् एवैष वृणुते तेन लभ्यस्
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
इति श्रुत्या भगवत्-कृपैक-लभ्यत्वं निश्चीयते। त्वत्-कैङ्कर्यैक-भोग्यकः—त्वत् तव कैङ्कर्यम् एवैकं भोग्यं यस्य सः, न तु विषय-भोग्यत्वम्॥
२
हिन्दी
हे स्वामिन् मैं आपका शेष भूत हूँ आपको छोड़कर का मैं शेष नही हूं किन्तु हे श्री राम जी में दूसर का हीं शेष हूं जैसे स्रक चन्दन कुसुमादि वस्तु पुरुष के आप का अर्थात् जीवों से यथा रुचि विनियोग करने योग्य हैं। शेष हैं । जीव इनके साथ रुचि के अनुसार व्यवहार कर सकता है। उसी प्रकार मैं जीव भी आप के यथारुचि विनियोग करने योग्यहूं । अर्थात् जीव के भोगने में ईश्वर स्वतन्त्र हैं जिस प्रकार से इसको भोगे जहां चाहें वहां इसको राखें वहीं जीव को उसी प्रकार से रहना होगा जसे चन्दन कुसुमादि पुरुषसे कुछनहीं कह सकते पुरुष जब जैसा चाहे तव तैसा उसको अपने भोग्य में ला सकता है । इसी प्रकार श्रीरामजी जीव को जब जैसा चाहे तब तैसा रख सकते हैं भोग सकते हैं । जीवको उसमें बोलने का कुछ भी अधिकार नहीं है क्योंकि ईश्वर स्वतन्त्र हैं और जीव परतन्त्र है यही शेष भूत पद का मुख्य और मैं आपका भोग्य हूं आप मेरे भोक्ता हैं भोक्ता के आधीन रहती है उसी प्रकार जीव भी तात्पर्य है । भोग्य बस्तु ईश्वर का भोग्य है ईश्वर के अधीन है व जब जैसा चाहे तब तैसा मुझ जीव को भोग सकते हैं। यहां प्रथम पदसे शेष शेषी सम्बन्ध को दिखलाकर दूसरे पद से भोक्तृभोग्य सम्बन्ध दिखाया। अब तृतीयपद से रदय रक्षक सम्बन्ध दिखलाते है’ कि मैं आपका रदय हूँ आप मेरे रक्षक है रक्ष्य वस्तु रक्षक के आधीन मानी जाती है । रक्षक अपनी रक्षयवस्तुकी अवश्य रक्षा करता है. इससे यह समझना कि मैं जब ईश्वर की रक्ष्य वस्तुओं में से हूं तो ईश्वर मेरी अवश्य रक्षा करेंगे और करते भी हैं । मेरा तो धर्म यही है कि मैं पूर्ण विश्वास से श्री रामजी को अपना रक्षक मानूं और यह भी निश्चय है कि जिस समय जीव ईश्वर को अपना रक्षक समझेगा उसीसमय भगवान उसकी रक्षा करेंगे । और जीव अमर हो जायगा । यहां पर जो एव पद आया है वह यह निश्चय करता है कि श्रीरामजीकोछोड़कर अपना कोई रक्षक ही नहीं है जीव सव श्रीरामजी से ही रक्षणीय हैं अन्य देवताओंसे नहीं मैं अकिचनहूं अर्थात् श्रीरामजीको छोड़कर और मेरेपास कुछभी नहीं है श्री राम ही मेरे सर्वस्व अर्थात् श्रीरामजाही माता हैं पिता हैं बन्धु है सुहृत है और विद्या तथा धन सब श्रीगम जी हीं हैं और मैं अनन्योपाय हूं आपको छोड़कर मेरे दूसरा उपाय साधन नहीं है मेरे सब उपाय आप ही हैं । आप की प्राप्ति के लिये, दूसरा कुछ भी साधन नहीं है । आप की प्राप्ति में साधनान्तरों का तो परम हितैषिणी श्रुति भगवती निषेध ही करती हैं कि परमात्मा प्रवचन तीक्ष्ण बुद्धि बहु शास्त्र श्रवण से नहीं प्राप्तहोता है । प्रत्युत जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसीको प्राप्त होता । और उसीको अपना स्वरूप दिखा देता है। इस श्रुति से भगवान की कृपासे ही भगवान की प्राप्ति हो सकती है दूसरे उपायों से कदापि नहीं हो सकती । इससे जीत्रका उपाय शून्यत्व मुख्यधर्म है यह दिखाया। अतः अन्य उपायों का अवलम्बन लेना भ्रम मात्र है ईश्वरको छोड़कर ईश्वर की प्राप्ति के लिये और योग क्षेम के लिये उपायान्तरों से श्री वैष्णवों को कुछ भी प्रयोजन नहीं है । तथा मैं आप के एक मात्र कैङ्कर्य का भोक्ता हूं आप का कर्य ही मेरा एकमात्र भोग्य है । एतावता यह दिखाये कि जो जीव के लिये विषय भोग प्राप्त हुये हैं वे उसके भोग्य नहीं है जीव का भोग्य तो केवल भगवत्कैङ्कर्य ही एक मात्र है बिषयों को अपना भोग्य समझना बहुत भारी भूल है । अतः " तव कैडूर्य मेव मम सदा प्रयोजनम, आपका कैङ्कर्य ही मेरा सदा प्रयोजन है यहां आचार्य पाद का वचन भी इसी का समर्थक है ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगतिश् चानुकूल्योऽहं
प्रातिकूल्येन वर्जितः ।
रक्षिष्यतीति विश्वासी
स्व-रक्षा-प्रार्थना-युतः ॥ २ ॥
मूलम्
अगतिश् चानुकूल्योऽहं प्रातिकूल्येन वर्जितः ।
रक्षिष्यतीति विश्वासी स्व-रक्षा-प्रार्थना-युतः ॥ २ ॥
अगतिः—नास्ति गतिर् यस्यासौ अगतिः; रामाद् अन्य-गति-शून्यः। आनुकूल्यः—अनुकूलस्य भावः आनुकूल्यं, तद् अस्ति यस्मिन् मयि इति आनुकूल्यः, [[प्रशीद्यच्त्वात्|अर्श-आद्यच्-प्रत्ययत्वात्]]; अनुकूल-संकल्पवान् इत्यर्थः। प्रातिकूल्येन वर्जितः—प्रतिकूलस्य भावः प्रातिकूल्यं, तेन वर्जितः, रहितः; प्रतिकूल-संकल्प-रहित इत्यर्थः। रक्षिष्यतीति विश्वासी—“श्री-रामो माम् अवश्यं रक्षिष्यति, मम अवश्यं रक्षां करिष्यति,” इति विश्वासी, विश्वास-युक्तः। स्व-रक्षा-प्रार्थना-युतः—स्वस्य रक्षायाः प्रार्थना-युतः, अर्थात्, “हे श्री-राम, माम् अभिरक्ष” इति पौनःपुन्येन प्रार्थना-परो भवामि इत्यर्थः। एतेन शरणागति-लक्षणम्—
आनुकूल्यस्य संकल्पः
प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो
गोप्तृत्व-वरणं तथा ।
आत्म-निक्षेप-कार्पण्ये
षड्-विधा शरणागतिः ॥
—इदं फलितम् ॥ २ ॥
हिन्दी
मैं अगति हूँ श्री रामजी ही मेरी गति भूत हैं । अर्थात् श्रीरामजी को छोड़कर मुझे अवलम्वन देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । मेरे सर्वस्वगति अवलम्व श्रीरामजी ही है तथा में अनुकूल संकल्प वाला हूँ अर्थात् आपकी कृपासे मैं अनुकूल संकल्पवान् होगया हूं आपनेही प्रेरणाकरके मुझे अनुकूलवान् वना लिया और प्रतिकूल के संकल्प से मैं वर्जि त हूं । आप की प्राप्ति के जो विरोधी हैं उनके संकल्प से मैं रहित हूं। आपकी कृपा ने मुझे ऐसा बना लिया है कि आप की प्राप्ति के संकल्प को छोड़कर आप की प्राप्ति के वाधक पुत्र, कलत्र, संसार का मैं संकल्प हो नहीं करता हूं यह आपकी कृपा हूं कि मैं ऐसा होगया । श्रीरामजी मेरी रक्षा अवश्य करेगें इस विश्वास से युक हूं, अर्थात् यह बिश्वास मुझे है कि श्री रामजी मेरी रक्षा अवश्य करगें श्री रामजी को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरी रक्षा करने वाला नहीं है अपनी रक्षा की प्रार्थना से युक्तहूँ अर्थात् हे श्री रामजी मेरी . आप अभितः रक्षा करें ऐसी वारम्वार प्रार्थनाकरना यह
- रामः पति | मेरा मुख्य धर्म है। इससे अनुकूल का संकल्प १ प्रतिकूल का वर्जन २ रक्षा करेंगे यह विश्वास ३ श्री रामजी मेरे गोप्ता रक्षक यह वरण करना ४ आत्मनिक्षेप ५ और कार्पण्य ६ यह जो षड् विध शरणागति बताई गई है उसमें चार प्रकार की वर्णन किये अव आत्मनिक्षेय और कार्पण्य रूपाशरणागति द्वितीय मन्त्र से वर्णन करते हैं ।।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपणोऽहं दया-सिन्धो
सर्व-पाप-करस् तथा ।
स्वं च स्वीयं च यत् किञ्चित्
त्वयि न्यस्यामि स्वीकुरु ॥ ३ ॥
मूलम्
कृपणोऽहं दया-सिन्धो
सर्व-पाप-करस् तथा ।
स्वं च स्वीयं च यत् किञ्चित्
त्वयि न्यस्यामि स्वीकुरु ॥ ३ ॥
दया-सिन्धो—दयायाः कृपायाः सिन्धुः समुद्रः, तत्-संबुद्धौ। अहं कृपणः, दीनः। सर्व-पाप-करः—सर्वाणि पापानि कर्तुं शीलम् अस्यास्तीति सर्वेषां पापानाम् अनुष्ठातेत्य् अर्थः। अत्र ताच्छील्ये ऽण्-प्रत्ययात् पाप-प्रवृत्ति-मय एव स्वभाव इति तात्पर्यम्। स्वं—आत्मानं, स्वीयं यत् स्व-सम्बन्धि पुत्र-कलत्र-धनादि, तत् सर्वं त्वयि परमात्मनि श्री-रामे न्यस्यामि, समर्पयामि। तत् सर्वं त्वं स्वीकुरु। तस्य सर्वस्यापि स्वीकृतिस् त्वया कार्येत्य् अर्थः। अत्र “कृपणोऽहं”, “स्वं च स्वीयं च यत् किञ्चित् त्वयि न्यस्यामि” इत्य् आभ्यां द्वाभ्यां पदाभ्याम् आत्म-निक्षेपात्मिका कार्पण्यात्मिका च शरणागतिर् अभिहिता भवति ॥ ३ ॥
हिन्दी
हे दया के समुद्र मैं अत्यन्त कृपण हूं दीन हूं और मैं सब पापों का करने वाला हू अर्थात् सदा मैं सब पापों का ..
ही अनुष्ठान करता हूं शुभाचरण तो मेरे से बनता ही नहीं है मेरे पापप्रवृत्ति मय स्वभाव होरहा है अतः आप ही रक्षाकरें मेरे पाप से प्रवृत्तिको रोककर अपनी तरफकरलें तथा मैं अपने को और अपने सम्बन्धी पुत्र कलत्र परिवार धनादिको आप के चरणों में समर्पणकरताहूं याने आपकी वस्तुको आपको ही समर्पण करताहूं । उसे आप स्वीकार कीजिये । यहां पर कृपणः और स्वच स्वीयञ्च यत् किञ्चित् त्वपन्यस्यामि इन दोनों पदों से कार्पण्य रूपा और आत्मनिक्षेपरूपा शरणा गति कही गई इति ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरं न्यस्याम्य् अकिञ्चनः
श्रीमन्न् आत्म-रक्षा-भरं त्वयि ।
त्वत्-प्राप्त्य्-उपायस् त्वं
कृपया भव राघव ॥ ४ ॥
मूलम्
भरं न्यस्याम्य् अकिञ्चनः
श्रीमन्न् आत्म-रक्षा-भरं त्वयि ।
त्वत्-प्राप्त्य्-उपायस् त्वं
कृपया भव राघव ॥ ४ ॥
अहम् अकिञ्चनः—न किञ्चन कर्तुं समर्थः, त्वत्-प्राप्तेर् उपायान्तर-रहित इत्यर्थः। अतएव, हे श्रीमन्, आत्मनो रक्षाया भरं भारं त्वयि श्री-रामे न्यस्यामि। मदात्मनः स्वाधीन-प्रवृत्तिकत्वात् त्वय्य् एव रक्षा-भारं निवेशयामि। त्वं च रक्षकत्वात् मे रक्षां कुरु। तथा च, हे राघव, स्वस्य प्राप्तेर् उपायो मे मम कृपया त्वम् एव भव ॥ ४ ॥
हिन्दी
में अकिञ्चन हूं कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं अर्थात् आपकी प्राप्ति के उपायान्तरों से रहित हूं अतएव हे श्रीमन् अपनी रक्षा का भार आप में न्यास करताहूं । क्योंकि मेरी • आत्मा की प्रवृति आपके आधीन है इससे आप में इसकी रक्षा
योग्य ही है और आप मेरे रक्षक है आपका रक्ष्य ही हूं इस हेतु से भी रक्षा कीजिये हे श्री राधव आप ही अपनी प्राप्ति के लिये मेरे उपाय रूप हो जाय क्यों कि अपनी प्राप्ति के जब श्रापही उपायसिद्ध हैं तोमेरे लिये भी आप हो जाइये | ४ |
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच् चराचरं सर्वं
यच् च यावच् च श्रूयते ।
सर्वम् अस्ति त्वदीयं हि
श्रुतिभिश् चावगम्यते ॥ ५ ॥
मूलम्
एतच् चराचरं सर्वं
यच् च यावच् च श्रूयते ।
सर्वम् अस्ति त्वदीयं हि
श्रुतिभिश् चावगम्यते ॥ ५ ॥
यद् एतत् यावत्-यावत्-परिमितं साकल्येनेत्य् अर्थः, तत् सर्वं सम्पूर्ण-चराचरं, चरश् च [[प्रचरञ्चेति|प्रचरंश् चेति]] तज्-जङ्गम-स्थावरात्मकं जगत् श्रूयते, तत् सर्वं त्वदीयम् एव, त्वत्-स्वरूपत्वात्, त्वया व्याप्यत्वाद् वा। तवैवेदम् इति। यो वै श्री-रामचन्द्रः, स भगवान् अद्वैत-परमानन्द आत्मा, यत् पर-ब्रह्म, भूर् भुवः स्वस्, तस्मै वै नमो नमः। “अहं ब्रह्मास्मि”, “अयम् आत्मा ब्रह्म”, “तत् त्वम् असि” एवम् आदिभिः श्रुतिभिः, “[[वहिर् अन्तर् एतत् ह च व्याप्यत्वतः अस्य तादात्म्यता गतम्|बहिर् अन्तश् च भूतानाम्]]” इत्यादिभिः श्रुत्य्-उपबृंहण-भूताभिः स्मृतिभिश् चावगम्यते ॥ ५ ॥
हिन्दी
आता यह सम्पूर्ण जङ्गम और स्थावर रूप जगत् सुनने में है, वह सब आपका ही है, क्योंकि यह जगत् आपका स्वरूप है आप इसके कारण हे । कार्य कारण से अनन्य होता ह इसी से कार्य को कारण स्वरूप ही माना गया है और आप इसके व्यापक हैं’ यह आपका व्याप्य है । अतः यह जगत् आपका है यह श्रुतियों से निश्चय होता है, अर्थात् वेदों के१०
- श्रीप्रस्वामिकृत देखने से यह जाना जाता है कि सम्पूर्ण चराचर जगत् मात्र आपका है। इस का दूसरा स्वामी नहीं है आपही है अतः इसकी रक्षा करना परम कर्तव्य है क्योंकि अपनी वस्तु की सब कोई रक्षा करता है. यह आपकी बस्तु है अतः आपसे इसकी रक्षा होनी ही चाहिये ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तादृशं दृढं ज्ञानं
मयि स्वामिन् प्रतिष्ठितम् ।
त्वं तु सर्वं विजानासि
सर्वं वस्तु ममेति च ॥ ६ ॥
मूलम्
न तादृशं दृढं ज्ञानं मयि स्वामिन् प्रतिष्ठितम् ।
त्वं तु सर्वं विजानासि सर्वं वस्तु ममेति च ॥ ६ ॥
हे स्वामिन्, स्वामि-गुण-समपन्न, मयि त्वया रक्षणीये सर्वोपाय-शून्ये [[तादृशरदयरक्षक|तादृश-दया-रक्षक]]-स्वामि-सेवक-सम्बन्ध-विशिष्टं, [[सर्व’|सर्वं]] वस्तु त्वद्-आत्मकम् इति वा ज्ञानं दृढं न, किन्तु कादाचित्कम् एव विद्यते। सर्वं वस्तु मम, मया च सर्वं रक्षणीयम् इति स्वयं सर्वदा [[नानासि|जानासि]], सर्वज्ञत्वात्, स्व-प्रकाशत्वात्, सद्-एक-स्वरूप-ज्ञानत्वाच् चेत्य् अर्थः ॥ ६ ॥
हिन्दी
हे स्वामिन् हमारे हृदय में तादृश ज्ञान दृढ़ रूप से स्थिर नहीं रहता है, अर्थात् रदय रक्षक, स्वामि सेवक सम्बन्ध वाला ज्ञान अथवा सब वस्तु आपकी हे ऐसा ज्ञान दृढ़ एक रूप से सदा एक रस नहीं रहता है। कभी २ क्षणिक ज्ञान होता है पर आप यह सर्वदा जानते है कि यह सब वस्तु मेरी है. इसकी रक्षा करना मेरा परमकर्तव्य है क्योंकि आप सर्वज्ञ है’ स्वप्रकाश स्वरूप हैं सदा एक रूप ज्ञान वाले हैं, अतः आप
११ का ज्ञान सदा दृढ़ रूप से एक रसा बना रहता है कि सब ’ बस्तु मेरी है और हम से रक्षणीय है । ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसार-सागरे भूमन्
तत् त्वद्-वस्तु निमज्जितम् ।
पश्यसि त्वं समर्थः सन्
कारणं किं वद प्रभो ॥ ७ ॥
मूलम्
संसार-सागरे भूमन्
तत् त्वद्-वस्तु निमज्जितम् ।
पश्यसि त्वं समर्थः सन्
कारणं किं वद प्रभो ॥ ७ ॥
हे [[भ्रमन् सर्वाश्रयणाहि गुणक|भूमन् सर्वाश्रयणार्ह-गुणक]]! तत् मदात्मकं त्वद्-वस्तु, त्वदीयं वस्तु, अहम् इत्य् अर्थः, संसार-सागरे, संसारः सागर इव तस्मिन्, निमज्जितं [[निमग्न’|निमग्नम्]]। त्वं च समर्थः सन् सर्वम् एतत् पश्यसि। समर्थः सन् त्वं संसार-समुद्रे निमज्ज्यमानं स्वकीयं वस्तु मां न [[परित्रासि|परित्रायसे]], अथ च पश्यसि। अथ च स्व-वस्त्व्-अपरित्राणे किं कारणं, तत् त्वम् एव वद, कथयेत्य् अर्थः ॥ ७ ॥
हिन्दी
हेभूमन यह सब जो आपकी बस्तु है सो संसार समुद्र में सब डूब रहे हें आप हम सबके निकालने में समर्थ भी हैं। तो भी सब देख रहे हैं। समर्थ होते हुये भी आप संसार सागर में डूबते हुये मेरी रक्षा नहीं करते प्रत्युत देख रहे हैं इसका कारण क्या है कि आप रक्षा नहीं करते हैं । इसका उत्तर आपहा दोजिये ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
“चेतनाचेतनं सर्वं मदीयं
सत्यम् अस्ति वै ।
जीवोऽप्य् असौ मदीयश् चेत्य्
अभिमानान् निमज्जते ॥ ८ ॥”
मूलम्
चेतनाचेतनं सर्वं मदीयं सत्यम् अस्ति वै ।
जीवोऽप्य् असौ मदीयश् चेत्य् अभिमानान् निमज्जते ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
“यावत् स्वत्वाभिमानोऽस्य
तावत् संसार-सागरे ।
निमज्जितो ऽभिमानान्ते
ह्य् उद्धरिष्यामि” चेद् वद ॥ ९ ॥
मूलम्
यावत् स्वत्वाभिमानोऽस्य तावत् संसार-सागरे ।
निमज्जितोऽभिमानान्ते ह्य् उद्धरिष्यामि चेद् वद ॥ ९ ॥
चेद् यद्य् एवं मन्यसे यत् चेतनाचेतनं जीव-प्रकृति-मयं सर्वं जगत् मदीयम् एव इति सत्यम् अस्ति। चेतनाचेतनात्मकस्य जगतो मदीयत्वाज् जीवोऽप्य् असौ मदीयोऽस्त्य् एव। स्वकीये वस्तुनि स्वत्वाभिमानस्य उचितत्वात्, परकीय-वस्तुनि स्वत्वाभिमानं करोति तस्मात् निमज्जते। परन्तु मदीये वस्तुनि यावद् अस्य जीवस्य स्वत्वाभिमानस्, तावद् असौ जीवः संसार-सागरे निमज्जितो वर्तते। यदास्य मदीय-वस्तुनि स्वत्वाभिमानस्यान्तो नाशो भविष्यति, अर्थात् जीवो यदैवं वेत्स्यति यन् मत्-सहितं सर्वं चेतनाचेतनं जगत् परमात्मन एव, तदोद्धरिष्यामि, संसार-सागराद् निःसारयिष्यामीति वद, कथयेत्य् अर्थः ॥ ८ ॥ ९ ॥
हिन्दी
यदि आप यह कहें कि यह चेतन और अचेतन अर्थात् जीव और प्रकृति रूप सब जगत् मेरा ही है और जीव भी मेरा ही है। अपनी वस्तु में अपनपौ का अभिमान होना स्वाभाविक है, परकीय वस्तु में स्वत्वाभिमान अनुचित है। जीव मेरी वस्तु है, उसमें जीव जो स्वत्वाभिमान करता है वह उसके लिये अनुचित है। इसी कारण से संसार में डूबा हुआ है ॥ ८ ॥
परञ्च मेरी वस्तु में जीव को जब तक स्वकीयपने का अर्थात् यह सब मेरी वस्तु है ऐसा अभिमान रहेगा, तब तक संसार-सागर में डूबा रहेगा और जब अभिमान का नाश हो जायगा, अर्थात् जीव स्वत्वाभिमान को त्याग कर जब अपने सहित सम्पूर्ण चेतन और अचेतन जगत् परमात्मा का है, ऐसा जब ज्ञान होगा, तब उद्धार करूँगा, ऐसा यदि आप कहें तो उसका उत्तर सुनिये ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यम् अहं मदीयं च
सर्वम् अन्यत् तवास्ति वै ।
तथाप्य् एषोऽभिमानो मे
हेतुस् तव नियोजनम् ॥ १० ॥
मूलम्
सत्यम् अहं मदीयं च सर्वम् अन्यत् तवास्ति वै ।
तथाप्य् एषोऽभिमानो मे हेतुस् तव नियोजनम् ॥ १० ॥
अहं, मदीयं च—मत्-सम्बन्धि पुत्र-कलत्र-धनादिकम् अन्यच् च यावत् पदार्थ-जातं, तत् सर्वम् एव तवैव सत्यम् अस्ति निश्चयेन। तथा त्वदीये एतस्मिन् वस्तुनि य एष मम अभिमानः, स मिथ्या-भूत एव। यद् अयं मां मिथ्या-भूतोऽभिमानः, तस्य तव नियोजन-प्रेरणम् एव हेतुः। तद् उक्तम्—
येनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि, स एव साधु कर्म कारयति यम् ऊर्ध्वं निनीषति, स एवासाधु कर्म कारयति यम् अधो निनीषति।
॥ १० ॥
हिन्दी
हे नाथ, मैं और मेरी संबन्धी जितनी वस्तु है, वे अथवा अन्यत्र भी जितना पदार्थ देखने-सुनने में आता है, वह सब यथार्थतया आपका ही है। तथापि उसमें जो मेरा अभिमान हो गया है कि यह पदार्थ मेरा है, यह अभिमान मेरा झूठा है, यथार्थ नहीं, क्योंकि त्वदायत्त पदार्थ में सदाऽऽयत्तत्व का अभिमान करना असत्य ही है। पर हमारे इस मिथ्याभूत अभिमान का कारण आपकी प्रेरणा ही है, आप की जब ऐसी प्रेरणा होती है कि इसको इस प्रकार का अभिमान हो, तभी तो मुझे अभिमान होता है। बिना आपकी प्रेरणा के मुझे ऐसा अभिमान हो ही नहीं सकता, क्योंकि मेरे सब तरह के प्रेरक आप ही हैं। तब मेरा यह अभिमान भी आप ही का हुआ, मेरा नहीं। और जब यह अभिमान आपका सिद्ध हुआ, तो इस अभिमान से मुझे जो संसार-पतन-रूप दुःख मिलता है, सो नहीं मिलना चाहिये ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं मदीयञ् चेत्य् एषो
योऽभिमानो दुरत्ययः ।
त्वयि न्यस्यामि तं स्वामिन्
त्वदीयं तं हि स्वीकुरु ॥ ११ ॥
मूलम्
अहं मदीयञ् चेत्य् एषो योऽभिमानो दुरत्ययः ।
त्वयि न्यस्यामि तं स्वामिन् त्वदीयं तं हि स्वीकुरु ॥ ११ ॥
स्वामिन्, अहं मदीयं च (अहङ्कार-ममकार-रूपः) य एष अभिमानः, [[अमितः|अमित-]] सर्वतः-मानः, स दुरत्ययः, दुःखेन अत्ययो नाशः कर्तुम् अयोग्यः। तम् अहं भूमाभिमानं त्वयि सत्याभिमानिनि मिथ्याभिमानी अहं न्यस्यामि, न्यासं करोमि। तं स्वीकुरु। मिथ्या-भूत-मदीयाभिमान-स्वीकारेण मां स्वीकुरु, कृतार्थयेत्य् अर्थः ॥ ११ ॥
हिन्दी
हे स्वामिन्, यह मैं हूँ, यह सब मेरा है, यह जो मुझे अभिमान हो रहा है, सो हमारे छुड़ाये न छुटेगा, क्योंकि वह दुरत्यय है, अर्थात् दुःख से भी उसका नाश नहीं हो सकता है। यह है कि यह अभिमान भी तो आपकी ही प्रेरणा से प्राप्त हुआ, तब हम से कैसे छूट सकता है? आप ही फिर इस तरह का संकल्प करें कि “इस जीव का अहम्-ममाभिमान छूट जाय”, बस शीघ्र ही छूट जायगा। “जोई बाँधे सोई छोरे”। अतः हे प्रभो, इस अभिमान का मैं आप में न्यास करता हूँ, अर्थात् आपको ही अर्पण करता हूँ, आप इसको स्वीकार करें ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्हेतु-कृपया सर्वं
स्वीकृत्य करुणा-निधे ।
अहं-ममाभिमानं मे
निखिलं छिन्धि मूलतः ॥ १२ ॥
मूलम्
निर्हेतु-कृपया सर्वं स्वीकृत्य करुणा-निधे ।
अहं-ममाभिमानं मे निखिलं छिन्धि मूलतः ॥ १२ ॥
हे करुणा-निधे, मे मम सर्वम् अहं-ममाभिमानं निर्हेतु-कृपया, हेतु-रहितया कृपया, स्वीकृत्य, अङ्गीकारं कृत्वा, अथ च तं निखिलं सम्पूर्णं ममाभिमानं मूलतश् छिन्धि। मूल-विनाशेन शाखा-पल्लव-समन्वितो यथा भूरुहो विनश्यति, तथैव त्वदीय-निर्हेतुकया कृपया मूलतोऽहं-ममाभिमाने शाखा-पल्लवान्विते संसार-वृक्षे विनश्यत्य् एवेत्य् अर्थः ॥ १२ ॥
हिन्दी
हे करुणानिधे, मुझे अहं-पने का अर्थात् मैं धनी हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं विद्वान् हूँ, यह जो अभिमान, और यह सब पुत्र, कलत्र, गृह, धनादिक मेरे हैं, यह जो अभिमान हो रहा है, इसको आप अपनी निर्हेतुकी कृपा से स्वीकार कीजिये। क्योंकि मैं यह प्रथम ही प्रार्थना कर चुका हूँ कि इसको मैं आपके चरणों में समर्पित करता हूँ। कारण यह है कि आपका तो यह नियम है कि “पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तद् अहं भक्त्य्-उपहृतम् अश्रामि प्रयतात्मनः”, अर्थात् भक्त-जन भक्ति-पूर्वक जो कुछ मुझे समर्पण करते हैं, उसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ। अतः मेरे पास जो कुछ है, उसे मैं भी समर्पण करता हूँ, आप अपनी निर्हेतुकी कृपा से स्वीकार करें और उसी अपनी निर्हेतुकी कृपा से इस अभिमान को जड़ से छेदन कर दीजिये। यद्यपि आपकी कृपा प्राप्त करने के लिये मेरे पास कोई साधन नहीं है, अतः आप ही निर्हेतुकी कृपा करें, क्योंकि आप कारण-रहित कृपालु, कारण-रहित कृपा करने वाले हैं। उसी कृपा से इस मिथ्याभूत अभिमान का मूल कारण अज्ञान है, अतः मूलतः अर्थात् अज्ञान के सहित इस अभिमान को छुड़ाइये और मुझे अपना शुद्ध दास बनाइये ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नास्त्य् आनुकूल्यादिर्
मयि स्वामिन् यथाऽर्थतः ।
बद्धाञ्जलि-पुटं दीनं
रक्ष मां शरणागतम् ॥ १३ ॥
मूलम्
यदि नास्त्य् आनुकूल्यादिर् मयि स्वामिन्य् अथार्थतः ।
बद्धाञ्जलि-पुटं दीनं रक्ष मां शरणागतम् ॥ १३ ॥
हे स्वामिन्, यदि मयि यथार्थतोऽनुकूल्यादि-षड्विधा शरणागतिर् नास्त्य् एव, तथापि बद्धाञ्जलि-पुटं, बद्धम् अञ्जलि-पुटं येन स तं, ललाट-न्यस्त-मुकुलित-हस्तं, दीनं शरणागतं, श्रीमतः शरणे प्राप्तं, मां रक्ष। अयम् अत्राभिसन्धिः—यद्यपि मय्य् आनुकूल्यादि-षड्विधासु शरणागतिषु कापि नास्ति, तथापि बद्धाञ्जलि-पुटं दीनं याचन्तं शरणागतम्—“न हन्याद् आनृशंस्यार्थम् अपि शत्रुं परंतप। आर्तो वा यदि वा दृप्तः परेषां शरणं गतः। अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना”, “सकृद् एव प्रपन्नाय” इत्यादि इत्य् उक्तां स्वकीयां प्रतिज्ञाम् अवलोक्य माम् अभिरक्षेत्य् अर्थः ॥ १३ ॥
हिन्दी
हे स्वामिन्, यद्यपि मेरे में अनुकूल का संकल्प, प्रतिकूल का वर्जन आदि जो षड्विध शरणागति यथार्थतः नहीं है, तथापि मैं हाथ जोड़ कर दीन होकर शरण में आया हुआ हूँ, अतः आप मेरी रक्षा कीजिये। तात्पर्य यह है कि छः प्रकार की शरणागति में से मेरे में एक भी नहीं है, तथापि हाथ जोड़ दीन होकर याचना करते हुये अपनी शरण में आये हुये शत्रु को आप न मारें, क्योंकि आर्त हो वा दृप्त हो, पर शरण में आये हुये शत्रु की प्राणों को देकर भी रक्षा करनी चाहिये। जो एक बार भी “मैं आपका हूँ” ऐसा कहता है और शरण में प्राप्त होता है, उसके लिये मैं सब भूतों से अभय प्रदान कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है, प्रतिज्ञा है, इस प्रतिज्ञा के अनुसार अपनी प्रतिज्ञा को देखकर मेरी रक्षा कीजिये ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाहं च मदीयं च
न मे रामस्य तत्त्वतः ।
भाति मे हृदये सम्यक्
तथा कुरु दया-निधे ॥ १४ ॥
मूलम्
यथाहं च मदीयं च न मे रामस्य तत्त्वतः ।
भाति मे हृदये सम्यक् तथा कुरु दया-निधे ॥ १४ ॥
हे दया-निधे, अहं च मदीयं चेदं सर्वं तत्त्वतो यथार्थतः मे मम न, किन्तु श्री-रामस्यैव चिद्-अचिद्-आत्मकं सर्वं वस्तु-जातम् इति सम्यक् पूर्ण-बोधतया यथा येन प्रकारेण मे हृदये भातु, उदयतु, तथा कुरु। तादृश्य् अनुकम्पा विधेया येनैतस्मिन् वस्तुनि सदा तावकीयत्व-बोधः स्थिरः स्याद् इत्य् अर्थः ॥ १४ ॥
हिन्दी
हे दयानिधे, अमुक नाम से प्रसिद्ध अमुक जाति वाला मैं हूँ, ऐसा जो मैं ने अपने को समझ लिया है, वह और पुत्र, कलत्र, धन, धर, प्रभृति जगत् मेरा है, ये दोनों हीं मेरे अभिमान झूठे हैं, क्योंकि तत्त्वतः यह मेरे नहीं हैं, किन्तु मैं और मेरा यह सब श्री राम जी का है। इस प्रकार का ज्ञान मेरे हृदय में जिस प्रकार पूर्ण रूप से प्रकाशित होवे, वैसा अपनी ओर से कीजिये ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्-मायया मलीमसं
हृदयं निर्मलं कुरु ।
येनाहं संविजानामि
त्वां त्वदीयं च तत्त्वतः ॥ १५ ॥
मूलम्
त्वन्-मायया मलीमसं हृदयं निर्मलं कुरु ।
येनाहं संविजानामि त्वां त्वदीयं च तत्त्वतः ॥ १५ ॥
तव माययाऽविद्यया मम हृदयं मनः मलीमसं दूषितम्। तद् धृदयं त्वं निर्मलं कुरु। येन निर्मलेन हृदयेन त्वां मत्-प्रेरकं तत्त्वतः संविजानामि, इदं सर्वं परिदृश्यमानं चराचरं जगत् त्वदीयं, त्वम् अस्य जगतः कर्ता प्रेरकः नियामकश् च। जगद् एतच् च तव कार्यं त्वया प्रेर्यं नियाम्यं च तव कार्याधीनम् इत्य् अर्थः। एतत् सर्वं तत्त्वतो यथार्थतोऽहं संविजानामि, तथा मे ज्ञानं सम्पादयेत्य् अर्थः ॥ १५ ॥
हिन्दी
हे प्रभो, मेरा मन आपकी माया से मलिन हो गया है, इसे आप निर्मल कर दीजिये, जिससे मैं उस निर्मल मन से आप को अर्थात् आपके स्वरूप को और “आप ही प्रेरक हैं और नियामक हैं और यह जगत् रूप कार्य आप का है, आपके आधीन है,” यह सब मैं यथार्थ से जानूँ, ऐसा ज्ञान मुझे प्रदान कीजिये। यह ज्ञान आपके प्रदान करने से मुझे मिल सकता है, दूसरे किसी प्रकार से किन्हीं साधनों से नहीं मिल सकता है ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्-कृपया दृष्टि-मात्रेण
तद् धि सर्वं भविष्यति ।
न वै परिश्रमः कश्चित्
तव तत्र दया-निधे ॥ १६ ॥
मूलम्
त्वत्-कृपया दृष्टि-मात्रेण तद् धि सर्वं भविष्यति ।
न वै परिश्रमः कश्चित् तव तत्र दया-निधे ॥ १६ ॥
हे दया-निधे, त्वत्-कृपा-दृष्टि-मात्रेण, तत्र कृपाया अवलोकनाद् एव, तत् त्वत्-स्वरूप-बोधकं च सर्वं ज्ञानं मम हृदये भविष्यति। तत्र तादृश-ज्ञानोत्पादने तव कश्चित् परिश्रमो न भविष्यति। मन्-मनसि तादृश-ज्ञानोत्पादनेच्छावत्या कृपया श्रीमतावलोकित एवानायासेनैव तादृश-ज्ञानम् उदेष्यतीति तात्पर्यम् ॥ १६ ॥
हिन्दी
हे दयानिधे, आपके स्वरूप-बोधक और चराचर-स्वरूप-बोधक ज्ञान आपकी कृपा-दृष्टि मात्र से हो जायगा, आप की कृपा होनी चाहिये। यह ज्ञान आपकी कृपा से ही होगा। दूसरे उपायों से नहीं, मैं यदि अन्य उपाय करूँ भी, तथापि वैसा अर्थात् आप इस विश्व के कर्त्ता हैं, कारण हैं, यह विश्व आपका कार्य है, आपके आधीन है, क्योंकि कारण की शक्ति के अधीन ही कार्य रहता है, अतः आपकी ही शक्ति सब काल में इसके नियमन करती है, यह ज्ञान आपकी कृपा के विना प्राप्त ही नहीं हो सकती है। तथा आप को मेरे ऊपर कृपा-दृष्टि करने में और मेरे हृदय में वैसा ज्ञानोत्पादन करने में कुछ भी परिश्रम नहीं है। अनायास से ही हो जायगा, केवल कृपावलोकन मात्र की देरी है, कृपावलोकन से ही मुझे तादृश ज्ञान प्राप्त हो जायगा ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रार्थयामि महा-दीनो
दीनोद्धार कृपा-निधे ।
एतद्-देहावसाने मां
स्वं प्रापय दया-कर ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रार्थयामि महा-दीनो दीनोद्धार कृपा-निधे ।
एतद्-देहावसाने मां स्वं प्रापय दया-कर ॥ १७ ॥
हे दीनोद्धार, दीनान् मायया संतप्यमानान् उद्धरतीति तत्-संबोधनं, दीनोद्धार-संकल्प-शीलेत्य् अर्थः। हे कृपायाः निधे, कृपा-समुद्र, महा-दीनोऽहं प्रार्थयामि यत्, हे दया-कर, एतद्-देहस्य अवसाने अन्ते मां स्व-कृपा-पात्रं स्वात्मानं प्रापयेत्य् अर्थः ॥ १७ ॥
हिन्दी
हे दीनोद्धार, दीनों के उद्धार करने से आपका नाम दीनोद्धार है। आप दया के निधि, समुद्र हैं, अतएव आप दयानिधि कहलाते हैं, और दीनों के ऊपर आपकी दया सर्वदा अधिक रूप से रहती है, अतएव आपको भक्त-जन दयाकर कहते हैं। हे दयानिधे, मैं महान् दीन हूँ, सर्व-साधन-धन-हीन हूँ, अतः आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे इस देह के अन्त में अपने स्वरूप की प्राप्ति करा दीजिये। तात्पर्य यह है कि यद्यपि मैं सब पाप से युक्त हूँ और कुछ भी साधन मेरे पास नहीं है, इसी कारण से आप को दयाकर, दयानिधि, तथा दीनोद्धार समझ कर महादीन हो मैं प्रार्थना करता हूँ कि इस देह के अन्त में मुझे अपनी प्राप्ति करा दीजिये, अर्थात् मैं जिस प्रकार से आप को प्राप्त हो सकूँ वैसा कीजिये ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्व-दत्त-ज्ञान-दीपेन
नाशयाज्ञान-जं तमः ।
स्व-तत्त्व-ज्ञान-पूर्वं मां
स्वार्थं स्वम् अर्पय स्वयम् ॥ १८ ॥
मूलम्
स्व-दत्त-ज्ञान-दीपेन नाशयाज्ञान-जं तमः ।
स्व-तत्त्व-ज्ञान-पूर्वं मां स्वार्थं स्वम् अर्पय स्वयम् ॥ १८ ॥
स्व-दत्त-ज्ञान-दीपेन—स्वेन दत्तं यज् ज्ञानम् एव दीपस् तेन, अज्ञान-जम्—अज्ञानेन जातं तमः अन्धकारं नाशय। “नाशयाम्य् आत्म-भाव-स्थो ज्ञान-दीपेन भास्वता” इति भवता प्रतिज्ञातत्वाद् इत्य् अर्थः। तथा स्व-तत्त्व-ज्ञान-पूर्वं—स्वस्य तत्त्वस्य ज्ञानं तत्-पूर्वं, स्व-स्वरूप-बोधक-बोध-पुरःसरं, स्वार्थं—स्वं स्वकीयम् आत्मानं मां मह्यम् इत्य् अर्थः, स्वयं त्वम् एव प्रापयेत्य् अर्थः ॥ १८ ॥
हिन्दी
हे प्रभो, अपने से दिये हुये ज्ञान-रूपी दीप से मेरे अज्ञान से जायमान अंधकार को नाश कीजिये। और अपने तत्त्व के ज्ञान-पूर्वक मुझे अपनी आत्मा को समर्पण कीजिये जो मेरा सच्चा स्वार्थ है, क्योंकि भगवान् की प्राप्ति वा प्रीति ही जीव का सच्चा स्वार्थ है ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि सञ्चित-पापानि
तानि नाशय मे प्रभो ।
अकृत्येषु प्रवृत्तिं मे
वारय बुद्धि-प्रेरक ॥ १९ ॥
मूलम्
यानि सञ्चित-पापानि तानि नाशय मे प्रभो ।
अकृत्येषु प्रवृत्तिं मे वारय बुद्धि-प्रेरक ॥ १९ ॥
हे प्रभो, सञ्चित-प्रारब्ध-क्रियमाणेषु त्रि-विध-कर्मसु सञ्चित-पापानि सञ्चित-कर्माणि, अत्र पाप-शब्देन भगवत्-स्वरूप-प्राप्ति-विरोधीनि कर्माण्य् उच्यन्ते, पुण्य-पापात्मकयोर् उभयोर् अपि कर्मणाम् इन्द्रादि-लोक-नरकादि-प्रदत्वेन मोक्ष-विरोधित्वात्, यानि यावत्-परिमितानि, तानि सर्वाण्य् अपि नाशय। तथा च, हे बुद्धि-प्रेरक, बुद्धिं प्रेरयतीति तत्-संबोधनं, हे गायत्री-प्रतिपादित-देव श्री-राम, अकृत्येषु त्वत्-स्वरूप-प्राप्ति-विरोधिषु मे मम प्रवृत्तिं वारय, प्रतिरोधयेत्य् अर्थः। नन्व् एतेन सञ्चित-क्रियमाणयोर् एव कर्मणोर् विनाशः स्यात्, न तु प्रारब्धस्य। तथा च तयोर् विनाशस्, तथा प्रारब्धस्य कथं विनाशो न स्याद् इति चेत्, उच्यते—यदि प्रभुः स्वकीयया निर्हेतुकया कृपया प्रारब्धम् अपि विनाशयेत्, तर्हि प्रारब्धावसाने शरीर-पातः स्यात्। अथ च भगवत्-कृपायां सत्यां शरीरस्य नाशो भवतीति प्रवादोऽपि स्यात्। ततश् च तदीय-कृपानुलाभाय कश्चिद् अपि न यतेत, ततश् च स्वकीया कृपा निरवकाशा न भवेद् इति कृत्वा, सञ्चित-क्रियमाणे कर्मणी विनाश्यापि प्रारब्धं कर्म न विनाशयति। अतएव “इतरं तु भोगेनैव क्षपयित्वा”, इतरस्य प्रारब्धस्य कर्मणो भोगेनैव क्षपणम् उक्तम् इत्य् अर्थः ॥ १९ ॥
हिन्दी
प्रभो, सर्व-शक्तिमान्, सञ्चित, क्रियमाण और प्रारब्ध रूप कर्मों में से मेरे सञ्चित-कर्मों को आप नाश कर दीजिये। यहाँ पर पाप पद से भगवान् के स्वरूप-प्राप्ति के विरोधी कर्म कहे जाते हैं। क्योंकि पुण्यात्मक शुभ कर्मों से इन्द्रादि लोकों की प्राप्ति होगी, ये दोनों कर्म भगवत्-प्राप्ति के विरोधी हैं, अतः ये सब पाप पद वाच्य हैं। इसलिये इन दोनों प्रकार के मेरे कर्मों को नाश कर दीजिये, अर्थात् मुझे ऐसा कर दीजिये कि मैं उनमें पुनः कभी प्रीति न कर सकूँ। क्योंकि इन सञ्चित कर्मों के बने रहने में बुद्धि उन्हीं में लगी रहती है, इससे उन्हीं में प्रवृत्ति अधिक होती है। और जब आप सञ्चितों को नाश कर देंगे, तो बुद्धि शुद्ध होकर आप में लगेगी। और हे बुद्धि-प्रेरक, अर्थात् हे गायत्री-प्रतिपाद्य देव श्री-रामजी, आप मेरी बुद्धि की अकृत्यों में प्रवृत्ति रोकिये। आप जब अपनी परम कृपा से मेरी बुद्धि को शुद्ध करके अपनी तरफ प्रेरणा करेंगे, तभी आपकी तरफ मेरी प्रवृत्ति होगी। और दूसरी तरफ से प्रवृत्ति हटेगी। बुद्धि-प्रेरक कहने से वेदों का मुख्य मन्त्र जो गायत्री है, उसके प्रतिपाद्य देव आप ही को जाना जाता है, क्योंकि गायत्री में “धियो यो नः प्रचोदयात्” बुद्धि-प्रेरकत्वेन प्रार्थना के पद आते हैं। अतएव बुद्धि-प्रेरक इस सम्बोधन से आप को ही गायत्री-प्रतिपाद्य सिद्ध किया। जैसे कि श्री-राम-स्तव-राज में आपकी “भर्गं वरेण्यं विश्वेशं”, “आदित्य-रविम् ईशानम्”, “सूर्य-मण्डल-मध्यस्थम्” इत्यादि मन्त्रों से गायत्री-प्रतिपाद्यत्व प्रतिपादन किया है। तात्पर्य यह है कि यदि श्री-रामजी कहें कि तुम हम से इतनी प्रार्थना क्यों करते हो, तो उसके उत्तर में कहा है कि आप ही तो बुद्धियों के प्रेरक हैं, दूसरा तो है नहीं, फिर किस से प्रार्थना करूँ ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा निर्मुच्य पापेभ्यस्
त्वत्-प्राप्ति-योग्यता भवेत् ।
मयि स्वामिन् हरे राम
तथा त्वं मां स्वयं कुरु ॥ २० ॥
मूलम्
यथा निर्मुच्य पापेभ्यस् त्वत्-प्राप्ति-योग्यता भवेत् ।
मयि स्वामिन् हरे राम तथा त्वं मां स्वयं कुरु ॥ २० ॥
हे हरे, स्व-प्राप्ति-विरोधीनि सर्वाणि दुरितानि हरतीति हरिस्, तत्-संबोधनं। मयि सर्वेभ्यः पापेभ्यो निर्मुक्तो भूत्वा त्वदीयस्याः प्राप्तेः योग्यता स्यात्, तथा हे स्वामिन् श्री-राम, मां त्वं स्वयम् एव कुरु। एतेन “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत् त्वं पूषन्न् अपावृणु सत्य-धर्माय दृष्टये” इति मन्त्रोक्तम् उपहितम्। यतो हिरण्मयेन सांसारिक-भोग-विलासेच्छया सत्यस्य जीवस्य मुखम् अपिहितं, विषयेच्छया त्वत्-प्राप्ति-साधनीभूतायास् त्वदीयायाः कृपायाः विमुखी-वर्तते जीवः। हे पूषन्, स्व-निर्हेतुक-कृपावलोकन-पुरःसर-प्राप्ति-साधनी-भूत-भक्ति-रूप-शक्तिं दत्त्वा जीवस्य धर्म-भूत-ज्ञानम् अपावृणु, अनाच्छादितं कुरु, येन सत्यस्य धर्मणो दर्शनं भवेत्। तादृशीं योग्यतां देहि येन त्वद्-दर्शनं त्वत्-प्राप्तिर् भवेद् इत्य् अर्थः ॥ २० ॥
हिन्दी
हे स्वामिन्, हे हरे, हे श्री-रामजी, मुझ में पापों से मुक्ति-पूर्वक आपकी प्राप्ति की योग्यता हो, वैसा आप स्वतः कीजिये। अर्थात् प्रथम आप मेरे पापों को दूर करें, क्योंकि अपनी प्राप्ति के विरोधी पापों को आप दूर करने वाले हैं, इसी से आपको हरि कहते हैं। और उसके बाद अपनी प्राप्ति की योग्यता मुझे प्रदान करें, ताकि मैं आपको प्राप्त कर सकूँ। यह सब आपके चाहने से ही हो सकेगा, क्योंकि आप बुद्धि के प्रेरक हैं, अतः प्रेरणा करके उसे पापों से हटा देंगे, तब आपकी प्राप्ति की योग्यता स्वयं हो जायगी, क्योंकि पाप ही तो आपकी प्राप्ति के विरोधी थे। उनको आपने जैसे हटाया, वैसे ही त्वत्-प्राप्ति-योग्यता हो जायगी। जैसे भोजन करने से क्षुधा की निवृत्ति होती है, उसके बाद तुष्टि, पुष्टि आदि अपने आप होते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसार-सागरान् नाथ
पुत्र-मित्र-गृहाकुलात् ।
गोप्तारौ मे दया-सिन्धू
प्रपन्न-भय-भञ्जनौ ॥ २३ ॥
मूलम्
संसार-सागरान् नाथ पुत्र-मित्र-गृहाकुलात् ।
गोप्तारौ मे दया-सिन्धू प्रपन्न-भय-भञ्जनौ ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽहं ममास्ति यत् किञ्चिद्
इह लोके परत्र च ।
तत् सर्वं भवतोर् एव
चरणेषु समर्पितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
योऽहं ममास्ति यत् किञ्चिद् इह लोके परत्र च ।
तत् सर्वं भवतोर् एव चरणेषु समर्पितम् ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहम् अस्म्य् अपराधानाम्
आलयस् त्यक्त-साधनः ।
अगतिश् च ततो नाथौ
भवन्ताव् एव मे गतिः ॥ २५ ॥
मूलम्
अहम् अस्म्य् अपराधानाम् आलयस् त्यक्त-साधनः ।
अगतिश् च ततो नाथौ भवन्ताव् एव मे गतिः ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवास्मि जानकी-कान्त
कर्मणा मनसा गिरा ।
राम-कान्ते तवैवास्मि
युवाम् एव गती मम ॥ २६ ॥
मूलम्
तवास्मि जानकी-कान्त कर्मणा मनसा गिरा ।
राम-कान्ते तवैवास्मि युवाम् एव गती मम ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं वां प्रपन्नोऽस्मि
करुणा-वरुणालयौ ।
प्रसादं कुरुतां दासे
मयि दुष्टेऽपराधिनि ॥ २७ ॥
मूलम्
शरणं वां प्रपन्नोऽस्मि करुणा-वरुणालयौ ।
प्रसादं कुरुतां दासे मयि दुष्टेऽपराधिनि ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्-समो नास्ति पापात्मा
त्वत्-समो नास्ति पाप-हा ।
इति सञ्चिन्त्य देवेश
यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २८ ॥ +++(5)+++
मूलम्
मत्-समो नास्ति पापात्मा त्वत्-समो नास्ति पाप-हा ।
इति सञ्चित्य देवेश यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यथा हि गतिर् नास्ति
भवन्तौ हि गतिर् मम ।
तस्मात् कारुण्य-भावेन
कृपां कुरु कृपा-निधे ॥ २९ ॥
मूलम्
अन्यथा हि गतिर् नास्ति भवन्तौ हि गतिर् मम ।
तस्मात् कारुण्य-भावेन कृपां कुरु कृपा-निधे ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासोऽहं शेष-भूतोऽहं
तवैव शरणं गतः ।
पराधीनोऽहं दीनोऽहं
पाहि मां करुणा-कर ॥ ३० ॥
मूलम्
दासोऽहं शेष-भूतोऽहं तवैव शरणं गतः ।
पराधीनोऽहं दीनोऽहं पाहि मां करुणा-कर ॥ ३० ॥