॥ सद्-अनुष्ठान-दर्पणस्य विषयानुक्रमः ॥
प्रथम-प्रतिफलनम्
( आह्निकम् )
| विषयाः | पृ-सं | |
|---|---|---|
| १ | ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय अनुसन्धेय-सूक्ति-विशेषाः | १ |
| २ | मल-मूत्रोत्सर्जनादि-नियमाः | २ |
| ३ | स्नानादि (आनिद्रम्) अनुष्ठान-क्रमः | ३ |
| ४ | प्रपन्नस्य इज्याआदि-पञ्च-काल-विधानम् | ४ |
| ५ | रहस्य-त्रय-सार-व्याख्यान-सार-प्रकाशिकोक्त-पञ्चका-विधिः | ५ |
| ६ | परत्वादि-पञ्चकम् | ६ |
| ७ | परमार्थ-श्लोकादिकम् | ७ |
| ८ | शौच-प्रकाराः (स्मृत्य्-उकाः) | ७ |
| ९ | स्नान-काले अनुसन्धेय-सूक्ति-विशेषाः | ९ |
| १० | शाण्डिल्योक्तः स्नान-प्रकारः | १० |
| ११ | शिरो-मार्जन-काले वक्तव्य-श्लोकाः | १० |
| १२ | वस्त्र-लक्षणम्, धारण-प्रकारः | ११ |
| १३ | ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारण-काले अनुसन्धेय-पद्यानि | ११ |
| १४ | श्री-नारद अत्रि-पराशराणां च वचनानि (ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारण-प्रकारः) | १२ |
| १५ | गुरु-परम्परा ऽनुसन्धाने प्रमाणम् | १२ |
| १६ | गुरु-परम्परा ऽनुसन्धाने सन्ध्या-वन्दन-कर्तृत्वे प्रमाणानि | १३ |
| १७ | सन्ध्यादीनां गौण-मुख्य-काल-निर्णयः | १४ |
[[Pi]]
विषयाः
१८. जप-विषये सङ्ख्या-नियमः (पृ. सं. १५)
१९. औपासन-करणे, प्रपन्न-सावित्र्य्-अनुसन्धाने प्रमाणम् (पृ. सं. १५)
२०. स्मार्त-माध्व-श्री-वैष्णवानां ताम्र-भाजन-विषये स्व-रूप-भेदः (पृ. सं. १६)
२१. विस्तृतास्य दीर्घाकार-ताम्र-पात्रस्य रामानुजेति नाम (पृ. सं. १७)
२२. श्री-तुलसी-पुष्पोपादान-नियमः (पृ. सं. १७)
२३. वासिष्ठ-संहितोक्तः माध्याह्निक-स्नान-प्रकारः, जलाहरण-प्रकारः (पृ. सं. १८)
२४. अर्चावतार-भेदाः, अर्चावतारे श्रुति-स्मृति-संहिताः (पृ. सं. १९)
२५. वैशाख-पूर्णिमायां क्षीर-संयुक्त-पक्वान्नादि-महा-हविर् निवेदने प्रमाणम् (पृ. सं. १९)
२६. तीर्थ-स्वीकार-प्रकारः श्री-पाद-तीर्थ-स्वीकार-प्रकारः (पृ. सं. १९)
२७. भूमौ स्थल-शुद्धिः तत्र ब्राह्मणादि-भेदेन आकार-भेदाः (पृ. सं. २०)
२८. भोजन-स्थल-शुद्धिः भोजन-पात्र-नियमः (पृ. सं. २१)
२९. परमैकान्तिनां वैश्वदेव-राहित्यम् (पृ. सं. २१)
३०. महा-भागवत, वैष्णव-लक्षणम् (पृ. सं. २१)
३१. श्री-रामायण-परायण-क्रमः (पृ. सं. २१)
३२. वैष्णवस्य कैङ्कर्य-बुद्ध्या ऽनुष्ठानं न साधनतया इति स्मृति-निरूपणम् (पृ. सं. २२)
द्वितीय-प्रतिफलनम्
( कौपीन-धारण-विषयः )
१. कौपीने व्यति-स्यूत-कटि-सूत्र-द्वयं पञ्च-बीज-माला च प्रपन्नैर् धार्यं इत्य् अत्र हारीत-स्मृतिः, शेष-संहिता, सच्-चरित्र-परित्राणं प्रमाणम् (पृ. सं. २३)
२. काश्यप-स्मृत्य्-उक्त-पञ्च-कच्छ-धारण-विधिः (पृ. सं. २३)
३. खगेश्वर-संहितायां देवे, पित्र्ये, ब्राह्मे च यज्ञोपवीतादि-धारणवत् पञ्च-कच्छादि-धारणम् इति (पृ. सं. २४)
[[Pii]]
| ४ | शाण्डिल्य, पराशर, अत्रि-स्मृतिषूक्त-कौपीन-धारणावश्यकत्व-वचनानि | २४ | | ५ | श्राद्धे ऽहनि कौपीन-धारणम् ऊर्ध्व-पुण्ड्रादि-धारणम् आवश्यकम् इति (वासिष्ठ-संहिता) | २५ | | ६ | आचार्य, शिष्य, अर्चकानां लक्षणम् | २५ | | ७ | रहस्य-त्रय-सार-व्याख्यान–सार-प्रकाशिकायां प्रभाव-व्यवस्थाधिकारे कौपीनादि-धारणम् आवश्यकम् - तन्-निषेधस्य वैष्णवेतर-विषयत्वम् | २५ | | ८ | कटि-सूत्रस्य रौद्र, ब्राह्म, वैष्णव-भेदाः तामस-राजस-सात्त्विक-भेदाश् च | २५ | | ९ | मात्स्य-पुराण-रीत्या सात्त्विका मोक्ष-दाः राजसाः स्वर्ग-दाः इत्य्-आदि-निरूपणम् | २६ | | १० | कण्ठ-भूषणादौ कौपीन-धारणानुक्तेः द्वेधा समाधानम् | २७ | | ११ | मुमुक्षु-दर्पण-व्याख्याने तदीयैर् एव कौपीन-धारणावश्यकत्व-प्रतिपादनाच् च | २८ | | १२ | कटि-सूत्रेण वस्त्रस्य परितो बन्धनं तत्र कच्छ-बन्धनं च निषिध्यते | २९ | | १३ | नग्नः पञ्च-विधः इति | २९ | | १४ | कटि-सूत्रं कर्माङ्गम् इति | ३० | | १५ | कटि-सूत्रादि-धारणम् आवश्यकम् इति | ३१ |
तृतीय-प्रतिफलनम्
| १ | स-हेतुकं सदा दर्भ-पवित्र-धारणान् आवश्यकत्वं कर्णे तुलसी-धारणं च | ३१ | | २ | रजत-पवित्र-धारणे निषेधः — स्वर्ण-पवित्र-धारणं, कर्मसु विश्वामित्रम् एव शोभनम् — न कुश-काशौ | ३३ | | ३ | वैष्णवानाम् इतराणां च सङ्कल्प-भेद एव कर्म-भेद-कारणम् | ३४ | | ४ | प्रपन्नाधिकारिणाम् अ-ज्ञ–ज्ञानाधिक–शक्ति-पारवश्यत्वेन त्रैविध्यम् | ३४ | | ५ | जनकादयः कर्म-योग-निष्ठाः, भरतादयः ज्ञान-योग-निष्ठाः, प्रह्लादादयो भक्ति-योग-निष्ठाः | ३५ |
[[Piii]]
| ६ | पराङ्कुश-दिव्य-सूरि-भक्तेः त्रैविध्यं श्रुत-प्रकाशिकोक्त-भक्ति-स्व-रूपम् | [[P35]] | | ७ | भक्तिः द्वि-विधा साधन-भक्तिः साध्य-भक्तिश् च इति | [[P35]] | | ८ | अन्-एक-प्रमाण-प्रदर्शन-पूर्वकम् उपाय-भक्ति-साध्य-भक्त्योः स्व-रूप-भेद-निरूपणम् | [[P36]] | | ९ | प्रपत्तिः द्वि-विधः - स्व-गत-स्वीकार, पर-गत-स्वीकार-भेदेन श्री-वचन-भूषण-मीमांसा भाष्य-रीत्या विवरणम् | [[P37]] | | १० | भगवत्-प्राप्ति-कामाश् च त्रि-विधः — उपासकः, साधन-प्रपत्ति-निष्ठः, सिद्ध-साधन-निष्ठश् चेति एषां स्व-रूपम् | [[P40]] | | ११ | प्रपत्तेः लक्षणं व्याजत्व-लक्षणम् | [[P40]] | | १२ | स्वार्थ-कैङ्कर्य-पर-विषये परार्थ-कैङ्कर्य-विषये च विद्या-फल-स्व-रूपम् | [[P41]] | | १३ | मुक्षौ फल-भेदः अस्ति वा इति विचारः | [[P42]] | | १४ | विकल्पो ऽविशिष्ट-फलत्वात् अधिकरण-तात्पर्यम् | [[P43]] | | १५ | तत्-क्रतु-न्याय-विचारः | [[P44]] | | १६ | महा-सिद्धान्त-श्रुत-प्रकाशिका | [[P45]] | | १७ | पञ्चाग्नि-विद्या-विचारः | [[P46]] | | १८ | रहस्य-मञ्जरी-ग्रन्थ-श्लोकाः | [[P47]] | | १९ | गुरु-भाव-प्रकाशिका-विवरणम् | [[P51]] | | २० | सार-फल-भेदेन कैङ्कर्य-द्वैविध्यम् | [[P52]] | | २१ | अनुकूल-प्रतिकूलाद्य्-अधिकारिणां स्व-रूप-प्रदर्शनम् | [[P53]] | | २२ | प्रयोजयितृत्वं द्वि-विधम् आज्ञा-शास्त्रम् अनुज्ञा-शास्त्रम् | [[P53]] | | २३ | नियोज्य-कर्तृत्वम् | [[P54]] | | २४ | शेषत्व-लक्षणम्, परतन्त्र्य-लक्षणम् | [[P55]] |
[[Piv]]
| २५ | सिद्धोपाय-याथात्म्यम्, पुरुषार्थ-याथार्थ्यम् | ५६ | | २६ | ईश्वर एव कर्ता, भोक्ता, अनुमन्ता | ५७ | | २७ | परायताधिकरण-श्रुत-प्रकाशिका | ५७ | | २८ | अचिद्वत् पारतन्त्र्यम् | ५८ | | २९ | मुक्तौ फल-भेदोपपत्तिः | ५९ | | ३० | श्री-विष्णु-पुराणं, तद्-व्याख्यान-विवरणम् | ६१ | | ३१ | भक्तेः उपायत्व-परिशोधनम् | ६३ | | ३२ | श्रियः पुरुष-कारत्वम् | ६४ | | ३३ | श्रियः अणुत्व-पत्नीत्व-समर्थनम् | ६५ | | ३४ | वेदान्ताचार्य-श्री-सूक्तिः (चतुः-श्लोकी-भाष्यम्) | ७१ | | ३५ | विरोध-परिहार-ग्रन्थस्य कुमार-वेदान्ताचार्य-श्री-सूक्तिः | ७२ | | ३६ | श्रियः जगत्-पतित्वे विष्णु-पत्नीत्व-निबन्धनम् | ७३ | | ३७ | श्री-विषय-विचारः पूर्विक-ग्रन्थाः — १. तत्त्व-निर्णय २. तत्त्व-सङ्ग्रह ३. तत्त्व-दीप ४. तत्त्व-भूषण ५. तत्त्व-रूपण ६. रहस्यामृत ७. रहस्य-मञ्जरी ८. रहस्य-विवेक ९. रहस्य-त्रय-सार १०. रहस्य-त्रय-मीमांसा भाष्यम् | ७३ | | ३८ | न्यास-विद्या, शरणागति-विद्या च भिन्ना | ९५ | | ३९ | शरणागतेः अधिकारि-विशेषणत्वम् | १०५ | | ४० | पञ्च-महा-यज्ञादि-विद्याङ्गत्वम्, आश्रमाङ्गत्वं च श्री-भाष्य-विवरण-मुखेन | ११२ | | ४१ | प्रपन्नानां कैङ्कर्य-बुद्ध्यैवानुष्ठानम् | ११३ | | ४२ | अ-ज्ञ-सर्व-ज्ञ-भक्ति-परवशानां भगवत्-प्रीत्य् अर्थम् एव नित्य-नैमित्तिक-कर्मानुष्ठानम् | ११३ |
[[Pv]]
तुरीय-प्रतिफलम् ( सर्व-कर्मेषु सङ्कल्पानावश्यकत्व-विचारः )
| १ | पराशर-विश्वामित्र-गर्गादि-स्मृत्य्-अनुसारेण प्रातः-स्नाने सङ्कल्पो ऽनावश्यकः | ११९ | | २ | विवाहोपनयनादिषु मन्वाद्य्-उक्त-नियम-सङ्कल्पः अभिगमनादिषु पञ्चसु कृतं च करिष्यामीतिति सङ्कल्पः; सन्ध्या-वन्दनादिषु आज्ञा-कैङ्कर्यम् इति सङ्कल्पः | १२० | | ३ | श्री-भाष्य-कारोक्त-नित्याराधने सङ्कल्पः; श्री-वर-वर-मुनीन्द्र-प्रणीत आराधने सङ्कल्प-विरहः | १२१ |
पञ्चम-प्रतिफलम् ( प्रातः-स्नानादि-कर्तव्यम्)
| १ | भगवद्-भागवताचार्यादि-कैङ्कर्यं प्रातः-स्नानादि-कर्तव्यत्वे प्रमाणम् | १२१ | | २ | उषः-काल-स्नानेन दश-गुणाः भवन्ति शरीर-मनश्-शुद्ध्य्-आदयः | १२२ | | ३ | प्रपन्नानां फलार्थं गङ्गा-स्नानादि-निषेधः | १२२ | | ४ | पाप-प्रशमनार्थं प्रायश्चित्तार्थम् अपि तत्र कर्तव्यम् | १२२ | | ५ | प्रपनैः भगवतो माहात्म्येनैव पापापनोदनम् | १२२ | | ६ | सामान्य-शास्त्रोक्त-प्रायश्चित्तानुष्ठाने महा-पातक-तुल्यत्वं इत्य् अत्र प्रमाणम् | १२३ | | ७ | एतेषां अभिगमनादि-पाञ्चकालिकं यथार्हम् आवश्यकम् | १२३ | | ८ | वैष्णव, एकान्ति-परमैकान्तिनां भेदः उपायतया ऽनुष्ठानम्, कैङ्कर्यतया ऽनुष्ठानं भोगतया ऽनुष्ठानम् इति | १२३ | | ९ | प्रतिदिनं सायम् अग्नि-कार्यं कर्तव्यम् इत्य् अत्र प्रमाणम् | १२४ |
[[Pvi]]
| १० | पञ्चकालिक-कर्मानुष्ठाने अभिगमनाद्य्-अन्यतमेन सार्वकालिकानुष्ठाने प्रमाणम् | १२४ | | ११ | आचार्य-निष्ठस्य तु तद्-आराधनम् एव तत्-स्थानापन्नम् | १२४ | | १२ | स्वाध्याय-स्व-रूपम् | १२४ | | १३ | सर्वाधिकारिणाम् अपि निषिद्ध-वर्जनम् आवश्यकम्, प्रायश्चित्तं तु प्रपत्तिर् एव | १२४ | | १४ | षड्-विधेषु ज्ञानेषु नित्य-नैमित्तिकाव् एव प्रपन्नानाम् अनुष्ठेयौ | १२६ | | १५ | सिद्धोपाय-निष्ठानां पूर्व-प्रपदन-स्मरणम् एव प्रायश्चित्तं न तु पुनः प्रपत्तिः इत्य् अत्र प्रमाणम् | १२६ |
षष्ठ-प्रतिफलम् (स-पाद ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारण-विषयः)
| १ | वैदिकोपनिषत्सु प्रतिपादित ऊर्ध्व-पुण्ड्राकारः | १२९ | | २ | नासादि-केशान्तम् ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणे प्रमाणम् | १३० | | ३ | नासादेर् लक्षणम् | १३० | | ४ | सान्तरालम् एव ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणम् | १३१ | | ५ | कुक्ष्यादि-त्रिकान्तेषु मध्य-स्थ-पद्माकार-पीठ-सहित-चतुर्-अश्र-पीठ-कल्पने प्रमाणम् | १३१ | | ६ | कुण्डली-कृत-सर्पस्य इत्य् अत्रापि पाद-रहित-पुण्ड्रस्य अन्-अवकाशत्व-निरूपणम् | १३१ | | ७ | मुक्ति-योग्याः के, पङ्क्ति-योग्याः के, इत्य् अत्र प्रमाणम् | १३२ | | ८ | ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणे (मन्त्र-विशेषाः, तत् अस्य प्रियम् इत्य्-आदयः) | १३३ | | ९ | श्री-वैष्णवानां गृहे, वदने, भाण्डादिषु च ऊर्ध्व-पुण्ड्रादि-लेखने प्रमाणम् | १३३ |
[[Pvii]]
| १० | उभयोः पार्श्वयोः पृथक् पृथक् मन्त्र-विनियोगात् चरण-द्वयम् एव, इति निर्णयः | १३३ | | ११ | त्रि-शूल-ऊर्ध्व-पुण्ड्र-निरासः | १३५ | | १२ | पाद-रहित-ऊर्ध्व-पुण्ड्र-निरासः | १३५ | | १३ | पद-शब्दस्य पाद-परत्वम् | १३५ | | १४ | दीप-शिखाकार-ऊर्ध्व-पुण्ड्र-निरासः | १३६ | | १५ | वासुदेवाय नमः; इति शिरसि पुण्ड्र-धारण-निषेधः | १३७ | | १६ | निगमान्त-गुरुभिर् अपि सच्-चरित्र-रक्षायां द्वादश-पुण्ड्राणि धार्याणि इति निर्णीतम् | १३७ | | १७ | द्वादश-पुण्ड्र-धारणे क्रमः; स्थान-विशेष-निर्णयः | १३७ | | १८ | तत्रैव ललाटादि-त्रि-कान्तेषु अङ्गुलि-न्यासः | १३७ | | १९ | मोक्षं देहि शिरसि इति क्षालन-तीर्थ-प्रोक्षणम् एव न तु पृथक् पुण्ड्र-धारणम् | १३८ | | २० | श्री-पाद-तीर्थ-भगवत्-प्रसादानन्तरं हस्त-क्षालनं आचमनं न कार्यम् | १३८ | | २१ | एक-पादोर्ध्व-पुण्ड्र-निरासः | १४० | | २२ | कुक्ष्यादि-स्थलेषु मध्य-पद्म-सहित-चतुर्-अश्र-पीठं इति निर्णयः | १४० | | २३ | स्वर्ण-पवित्रे यथा शिष्टानुष्ठानं तद्वत् | १४० | | २४ | तात्पर्यम् अन्तरा केवल-वाक्य-मात्रेण निर्णये तेषां पक्षे श्री-चूर्णस्य अन्-अवकाशः | १४२ | | २५ | श्री-रङ्गादि-दिव्य-देशेषु विराजमान-स-पादोर्ध्व-पुण्ड्रं कथम् इति चेत्, तत् प्रमाणानि | १४२ | | २६ | दक्षिण-हस्त-तर्जन्यैव ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणम् | १४५ | | २७ | अर्चा-विग्रहादिषु यथा-सम्भवं स-श्री-चूर्ण-स-पाद-ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणम् | १४५ |
[[Pviii]]
२८ तूप्पुल्-नामक-निगमान्त-गुर्व्-अवतार-स्थले तदीय आचार्यं विग्रहे स-पादोर्ध्व-पुण्ड्रम् एव अद्यापि समुल्लसति [[P१४५]]
२९ श्री-मृत्तिकायाः वर्ण-विचारः [[P१४६]]
३० कामनाभेदेनाङ्गुलि-भेदः मध्यमाङ्गुलि-निषेधश् च [[P१४६]]
३१ तीर्थ-पात्र-लक्षणम् [[P१४६]]
३२ स-पादोर्ध्व-पुण्ड्र-धारणम् आवश्यकम् इति [[P१४७]]
३३ सोर्ध्व-पुण्ड्र-मुख-दर्शने चान्द्रायणादि अनुष्ठेयम् इत्य् अस्य अ-च्छिद्रोर्ध्व-पुण्ड्र-विषयम् इति निर्णये प्रमाणम् [[P१४८]]
३४ पुण्ड्रान्तराले भस्मादि-धारणात् पतितत्वे प्रमाणम् [[P१४९]]
३५ ऊर्ध्व-पुण्ड्र-मृत्तिकायाः वर्ण-भेदाद् गुण-भेदः [[P१४९]]
३६ कालाग्नि-रुद्रोपनिषद्-उक्तम् अपि भस्म-धारणं न धार्यम्, तस्य शैव-शाक्त-विषयत्वात् [[P१४९]]
३७ श्री-चूर्ण-धारणे प्रमाणम् [[P१५०]]
३८ अभिषिक्तं श्री-चूर्णम् एव धार्यम् [[P१५०]]
३९ श्री-चूर्ण-धारणे मन्त्रः, घर्षण-मन्त्रः, इत्य्-आदि-निरूपणम् [[P१५१]]
४० सश्रीचूर्ण-स-पादोर्ध्व-पुण्ड्र-धारण-काले मूर्ति, आयुध, श्री-देवी-इत्य्-आदि-ध्यान-विषये प्रमाणानि [[P१५२]]
४१ हरिद्रा-चूर्णस्य बिल्व-करण्डकम् एव मुख्यम् [[P१५४]]
४२ श्रीमत्-पवित्र-पद्माक्ष-तुलसी-मणि-माला-धारणे प्रमाणम् [[P१५४]]
४३ विष्णोः प्रीत्य्-अर्थं पद्माक्षादि-मालां धृत्वा नित्य-नैमित्तिकादिकं कार्यम् [[P१५४]]
४४ चन्दन-प्रतिबिम्बिताभय-हस्तादि-सेवने प्रमाणम् [[P१५५]]
४५ पादुका-ग्रहणे श्री-पादाङ्कित-पट्ट-वस्त्र-ग्रहण-विषये च प्रमाणम् [[P१५६]]
[[Pix]]
४६ तयोः सेवने सुवर्ण-रजत-कौशेय-दार्वादिषु यथा-शक्ति कार्यम् [[P१५६]]
४७ तुलसी-मृत्तिका-तीर्थ-प्राशनम्, श्री-पाद-तीर्थ-प्राशनं च [[P१५६]]
४८ सङ्कट-विषये नालिकेर-करण्डे ऽपि श्री-चूर्ण-निक्षेपः [[P१५७]]
४९ सङ्कट-विषये नीरोर्ध्व-पुण्ड्र-धारणम् [[P१५७]]
५० आद्य्-अन्त-पुण्ड्र-धारणे प्रमाणम् [[P१५७]]
५१ ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणे स्थान-दिग्-आदि-निर्णयः [[P१५७]]
५२ तुलसी-मूल-मृत्तिका-वाटक-निर्माणे प्रमाणम् [[P१५८]]
५३ पुण्ड्र-धारणानन्तरं गुरु-परम्पराद्य्-अनुसन्धान-क्रमः [[P१५९]]
५४ पुण्ड्र-मध्ये श्रिया सह रमेशः समासीनः इत्य् अत्र प्रमाणम् [[P१५९]]
५५ वेद-तपो-यज्ञाद्य्-अपेक्षया ऊर्ध्व-पुण्ड्र-धारणस्य प्रभावातिशयः इति [[P१६०]]
सप्तम-प्रतिफलनम्
(जपारम्भात्-पूर्वं भागवत-वन्दन-विषयः)
१ प्रपन्नानां जपारम्भात् पूर्वं भागवत-वन्दनं युक्तं, बहु-स्मृति-मूलकत्वात् [[P१६०]]
२ उपस्थानानन्तरं पित्रोर् वन्दनम् इत्य् एतत् अ-सन्निहित-पितृ-विषयकम्, त्रि-वर्ष-पूर्वाणां वन्दनम् इत्य् एतत् वैष्णवेतर-विषयम् [[P१६०]]
३ अज्ञो, बालः, पिता मन्द-दः, अतः वयो-नियमो नास्ति [[P१६०]]
४ वैष्णवस्य दूरे दर्शनानन्तरम् एव उपचारः कार्यः [[P१६२]]
५ कनीयान् अपि वैष्णवः वन्द्यः इत्य् अत्र ऐतिह्य-प्रदर्शनम् [[P१६२]]
६ यात्रार्थं देवे बहिर्-गते — सन्ध्या-प्राप्तौ मण्डप-गमनानन्तरं अ-काले ऽपि सन्ध्या-वन्दनं कार्यं मध्ये न कार्यम् इत्य् अत्र प्रमाण-प्रदर्शनम् [[P१६२]]
श्रीर् अस्तु ॥
[[Px]]