०३

[तीसरा अध्याय]

विषय

निमेषादि काल-मान तथा नैमित्तिक प्रलयका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषामेव भूतानां त्रिविधः प्रतिसञ्चरः।
नैमित्तिकः प्राकृतिकस्तथैवात्यन्तिको लयः॥ १॥

मूलम्

सर्वेषामेव भूतानां त्रिविधः प्रतिसञ्चरः।
नैमित्तिकः प्राकृतिकस्तथैवात्यन्तिको लयः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—सम्पूर्ण प्राणियोंका प्रलय नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यन्तिक तीन प्रकारका होता है॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मो नैमित्तिकस्तेषां कल्पान्ते प्रतिसञ्चरः।
आत्यन्तिकस्तु मोक्षाख्यः प्राकृतो द्विपरार्द्धकः॥ २॥

मूलम्

ब्राह्मो नैमित्तिकस्तेषां कल्पान्ते प्रतिसञ्चरः।
आत्यन्तिकस्तु मोक्षाख्यः प्राकृतो द्विपरार्द्धकः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे जो कल्पान्तमें ब्राह्म प्रलय होता है वह नैमित्तिक, जो मोक्ष नामक प्रलय है वह आत्यन्तिक और जो दो परार्द्धके अन्तमें होता है वह प्राकृत प्रलय कहलाता है॥ २॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परार्द्धसंख्यां भगवन्ममाचक्ष्व यया तु सः।
द्विगुणीकृतया ज्ञेयः प्राकृतः प्रतिसञ्चरः॥ ३॥

मूलम्

परार्द्धसंख्यां भगवन्ममाचक्ष्व यया तु सः।
द्विगुणीकृतया ज्ञेयः प्राकृतः प्रतिसञ्चरः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजी बोले—भगवन्! आप मुझे परार्द्धकी संख्या बतलाइये, जिसको दूना करनेसे प्राकृत प्रलयका परिमाण जाना जा सके॥ ३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थानात्स्थानं दशगुणमेकस्माद‍्गण्यते द्विज।
ततोऽष्टादशमे भागे परार्द्धमभिधीयते॥ ४॥

मूलम्

स्थानात्स्थानं दशगुणमेकस्माद‍्गण्यते द्विज।
ततोऽष्टादशमे भागे परार्द्धमभिधीयते॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! एकसे लेकर क्रमशः दशगुण गिनते-गिनते जो अठारहवीं बार* गिनी जाती है वह संख्या परार्द्ध कहलाती है॥ ४॥

पादटिप्पनी
  • वायुपुराणमें इन अठारह संख्याओंके इस प्रकार नाम हैं—एक, दस, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, वृन्द, खर्व, निखर्व, शंख, पद्म, समुद्र, मध्य, अन्त, परार्द्ध।
विश्वास-प्रस्तुतिः

परार्द्धद्विगुणं यत्तु प्राकृतस्स लयो द्विज।
तदाव्यक्तेऽखिलं व्यक्तं स्वहेतौ लयमेति वै॥ ५॥

मूलम्

परार्द्धद्विगुणं यत्तु प्राकृतस्स लयो द्विज।
तदाव्यक्तेऽखिलं व्यक्तं स्वहेतौ लयमेति वै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! इस परार्द्धकी दूनी संख्यावाला प्राकृत प्रलय है, उस समय यह सम्पूर्ण जगत् अपने कारण अव्यक्तमें लीन हो जाता है॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमेषो मानुषो योऽसौ मात्रा मात्राप्रमाणतः।
तैः पञ्चदशभिः काष्ठा त्रिंशत्काष्ठा कला स्मृता॥ ६॥

मूलम्

निमेषो मानुषो योऽसौ मात्रा मात्राप्रमाणतः।
तैः पञ्चदशभिः काष्ठा त्रिंशत्काष्ठा कला स्मृता॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यका निमेष ही एक मात्रावाले अक्षरके उच्चारण-कालके समान परिमाणवाला होनेसे मात्रा कहलाता है; उन पन्द्रह निमेषोंकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला कही जाती है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाडिका तु प्रमाणेन सा कला दश पञ्च च।
उन्मानेनाम्भसस्सा तु पलान्यर्द्धत्रयोदश॥ ७॥

मूलम्

नाडिका तु प्रमाणेन सा कला दश पञ्च च।
उन्मानेनाम्भसस्सा तु पलान्यर्द्धत्रयोदश॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पन्द्रह कला एक नाडिकाका प्रमाण है। वह नाडिका साढ़े बारह पल ताँबेके बने हुए जलके पात्रसे जानी जा सकती है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मागधेन तु मानेन जलप्रस्थस्तु स स्मृतः।
हेममाषैः कृतच्छिद्रश्चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः॥ ८॥

मूलम्

मागधेन तु मानेन जलप्रस्थस्तु स स्मृतः।
हेममाषैः कृतच्छिद्रश्चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मगधदेशीय मापसे वह पात्र जलप्रस्थ कहलाता है; उसमें चार अंगुल लम्बी चार मासेकी सुवर्ण-शलाकासे छिद्र किया रहता है [उसके छिद्रको ऊपर करके जलमें डुबो देनेसे जितनी देरमें वह पात्र भर जाय उतने ही समयको एक नाडिका समझना चाहिये]॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाडिकाभ्यामथ द्वाभ्यां मुहूर्तो द्विजसत्तम।
अहोरात्रं मुहूर्तास्तु त्रिंशन्मासो दिनैस्तथा॥ ९॥

मूलम्

नाडिकाभ्यामथ द्वाभ्यां मुहूर्तो द्विजसत्तम।
अहोरात्रं मुहूर्तास्तु त्रिंशन्मासो दिनैस्तथा॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विजसत्तम! ऐसी दो नाडिकाओंका एक मुहूर्त होता है, तीस मुहूर्तका एक दिन-रात होता है तथा इतने (तीस) ही दिन-रातका एक मास होता है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासैर्द्वादशभिर्वर्षमहोरात्रं तु तद्दिवि।
त्रिभिर्वर्षशतैर्वर्षं षष्ट्या चैवासुरद्विषाम्॥ १०॥

मूलम्

मासैर्द्वादशभिर्वर्षमहोरात्रं तु तद्दिवि।
त्रिभिर्वर्षशतैर्वर्षं षष्ट्या चैवासुरद्विषाम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

बारह मासका एक वर्ष होता है, देवलोकमें यही एक दिन-रात होता है। ऐसे तीन सौ साठ वर्षोंका देवताओंका एक वर्ष होता है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैस्तु द्वादशसाहस्रैश्चतुर्युगमुदाहृतम्।
चतुर्युगसहस्रं तु कथ्यते ब्रह्मणो दिनम्॥ ११॥

मूलम्

तैस्तु द्वादशसाहस्रैश्चतुर्युगमुदाहृतम्।
चतुर्युगसहस्रं तु कथ्यते ब्रह्मणो दिनम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे बारह हजार दिव्य वर्षोंका एक चतुर्युग होता है और एक हजार चतुर्युगका ब्रह्माका एक दिन होता है॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कल्पस्तत्र मनवश्चतुर्दश महामुने।
तदन्ते चैव मैत्रेय ब्राह्मो नैमित्तिको लयः॥ १२॥

मूलम्

स कल्पस्तत्र मनवश्चतुर्दश महामुने।
तदन्ते चैव मैत्रेय ब्राह्मो नैमित्तिको लयः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामुने! यही एक कल्प है। इसमें चौदह मनु बीत जाते हैं। हे मैत्रेय! इसके अन्तमें ब्रह्माका नैमित्तिक प्रलय होता है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य स्वरूपमत्युग्रं मैत्रेय गदतो मम।
शृणुष्व प्राकृतं भूयस्तव वक्ष्याम्यहं लयम्॥ १३॥

मूलम्

तस्य स्वरूपमत्युग्रं मैत्रेय गदतो मम।
शृणुष्व प्राकृतं भूयस्तव वक्ष्याम्यहं लयम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! सुनो, मैं उस नैमित्तिक प्रलयका अत्यन्त भयानक रूप वर्णन करता हूँ। इसके पीछे मैं तुमसे प्राकृत प्रलयका भी वर्णन करूँगा॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्युगसहस्रान्ते क्षीणप्राये महीतले।
अनावृष्टिरतीवोग्रा जायते शतवार्षिकी॥ १४॥

मूलम्

चतुर्युगसहस्रान्ते क्षीणप्राये महीतले।
अनावृष्टिरतीवोग्रा जायते शतवार्षिकी॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक सहस्र चतुर्युग बीतनेपर जब पृथिवी क्षीणप्राय हो जाती है तो सौ वर्षतक अति घोर अनावृष्टि होती है॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यान्यल्पसाराणि तानि सत्त्वान्यशेषतः।
क्षयं यान्ति मुनिश्रेष्ठ पार्थिवान्यनुपीडनात्॥ १५॥

मूलम्

ततो यान्यल्पसाराणि तानि सत्त्वान्यशेषतः।
क्षयं यान्ति मुनिश्रेष्ठ पार्थिवान्यनुपीडनात्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! उस समय जो पार्थिव जीव अल्प शक्तिवाले होते हैं वे सब अनावृष्टिसे पीड़ित होकर सर्वथा नष्ट हो जाते हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स भगवान‍‍्विष्णू रुद्ररूपधरोऽव्ययः।
क्षयाय यतते कर्तुमात्मस्थास्सकलाः प्रजाः॥ १६॥

मूलम्

ततः स भगवान‍‍्विष्णू रुद्ररूपधरोऽव्ययः।
क्षयाय यतते कर्तुमात्मस्थास्सकलाः प्रजाः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर, रुद्ररूपधारी अव्ययात्मा भगवान् विष्णु संसारका क्षय करनेके लिये सम्पूर्ण प्रजाको अपनेमें लीन कर लेनेका प्रयत्न करते हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्स भगवान‍‍्विष्णुर्भानोस्सप्तसु रश्मिषु।
स्थितः पिबत्यशेषाणि जलानि मुनिसत्तम॥ १७॥

मूलम्

ततस्स भगवान‍‍्विष्णुर्भानोस्सप्तसु रश्मिषु।
स्थितः पिबत्यशेषाणि जलानि मुनिसत्तम॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिसत्तम! उससमय भगवान् विष्णु सूर्यकी सातों किरणोंमें स्थित होकर सम्पूर्ण जलको सोख लेते हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीत्वाम्भांसि समस्तानि प्राणिभूमिगतान्यपि।
शोषं नयति मैत्रेय समस्तं पृथिवीतलम्॥ १८॥

मूलम्

पीत्वाम्भांसि समस्तानि प्राणिभूमिगतान्यपि।
शोषं नयति मैत्रेय समस्तं पृथिवीतलम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! इस प्रकार प्राणियों तथा पृथिवीके अन्तर्गत सम्पूर्ण जलको सोखकर वे समस्त भूमण्डलको शुष्क कर देते हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्रान्सरितः शैलनदीप्रस्रवणानि च।
पातालेषु च यत्तोयं तत्सर्वं नयति क्षयम्॥ १९॥

मूलम्

समुद्रान्सरितः शैलनदीप्रस्रवणानि च।
पातालेषु च यत्तोयं तत्सर्वं नयति क्षयम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्र तथा नदियोंमें, पर्वतीय सरिताओं और स्रोतोंमें तथा विभिन्न पातालोंमें जितना जल है वे उस सबको सुखा डालते हैं॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्यानुभावेन तोयाहारोपबृंहिताः।
त एव रश्मयस्सप्त जायन्ते सप्त भास्कराः॥ २०॥

मूलम्

ततस्तस्यानुभावेन तोयाहारोपबृंहिताः।
त एव रश्मयस्सप्त जायन्ते सप्त भास्कराः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् के प्रभावसे प्रभावित होकर तथा जलपानसे पुष्ट होकर वे सातों सूर्यरश्मियाँ सात सूर्य हो जाती हैं॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधश्चोर्ध्वं च ते दीप्तास्ततस्सप्त दिवाकराः।
दहन्त्यशेषं त्रैलोक्यं सपातालतलं द्विज॥ २१॥

मूलम्

अधश्चोर्ध्वं च ते दीप्तास्ततस्सप्त दिवाकराः।
दहन्त्यशेषं त्रैलोक्यं सपातालतलं द्विज॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! उस समय ऊपर-नीचे सब ओर देदीप्यमान होकर वे सातों सूर्य पातालपर्यन्त सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म कर डालते हैं॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमानं तु तैर्दीप्तैस्त्रैलोक्यं द्विज भास्करैः।
साद्रिनद्यर्णवाभोगं निस्नेहमभिजायते॥ २२॥

मूलम्

दह्यमानं तु तैर्दीप्तैस्त्रैलोक्यं द्विज भास्करैः।
साद्रिनद्यर्णवाभोगं निस्नेहमभिजायते॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! उन प्रदीप्त भास्करोंसे दग्ध हुई त्रिलोकी पर्वत, नदी और समुद्रादिके सहित सर्वथा नीरस हो जाती है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निर्दग्धवृक्षाम्बु त्रैलोक्यमखिलं द्विज।
भवत्येषा च वसुधा कूर्मपृष्ठोपमाकृतिः॥ २३॥

मूलम्

ततो निर्दग्धवृक्षाम्बु त्रैलोक्यमखिलं द्विज।
भवत्येषा च वसुधा कूर्मपृष्ठोपमाकृतिः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीके वृक्ष और जल आदिके दग्ध हो जानेसे यह पृथिवी कछुएकी पीठके समान कठोर हो जाती है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कालाग्निरुद्रोऽसौ भूत्वा सर्वहरो हरिः।
शेषाहिश्वाससम्भूतः पातालानि दहत्यधः॥ २४॥

मूलम्

ततः कालाग्निरुद्रोऽसौ भूत्वा सर्वहरो हरिः।
शेषाहिश्वाससम्भूतः पातालानि दहत्यधः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सबको नष्ट करनेके लिये उद्यत हुए श्रीहरि कालाग्नि-रुद्ररूपसे शेषनागके मुखसे प्रकट होकर नीचेसे पातालोंको जलाना आरम्भ करते हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातालानि समस्तानि सदग्ध्वा ज्वलनो महान्।
भूमिमभ्येत्य सकलं बभस्ति वसुधातलम्॥ २५॥

मूलम्

पातालानि समस्तानि सदग्ध्वा ज्वलनो महान्।
भूमिमभ्येत्य सकलं बभस्ति वसुधातलम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह महान् अग्नि समस्त पातालोंको जलाकर पृथिवीपर पहुँचता है और सम्पूर्ण भूतलको भस्म कर डालता है॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुवर्लोकं ततस्सर्वं स्वर्लोकं च सुदारुणः।
ज्वालामालामहावर्तस्तत्रैव परिवर्तते॥ २६॥

मूलम्

भुवर्लोकं ततस्सर्वं स्वर्लोकं च सुदारुणः।
ज्वालामालामहावर्तस्तत्रैव परिवर्तते॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह दारुण अग्नि भुवर्लोक तथा स्वर्गलोकको जला डालता है और वह ज्वाला-समूहका महान् आवर्त वहीं चक्कर लगाने लगता है॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्बरीषमिवाभाति त्रैलोक्यमखिलं तदा।
ज्वालावर्तपरीवारमुपक्षीणचराचरम्॥ २७॥

मूलम्

अम्बरीषमिवाभाति त्रैलोक्यमखिलं तदा।
ज्वालावर्तपरीवारमुपक्षीणचराचरम्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अग्निके आवर्तोंसे घिरकर सम्पूर्ण चराचरके नष्ट हो जानेपर समस्त त्रिलोकी एक तप्त कराहके समान प्रतीत होने लगती है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तापपरीतास्तु लोकद्वयनिवासिनः।
कृताधिकारा गच्छन्ति महर्लोकं महामुने॥ २८॥
तस्मादपि महातापतप्ता लोकात्ततः परम्।
गच्छन्ति जनलोकं ते दशावृत्त्या परैषिणः॥ २९॥

मूलम्

ततस्तापपरीतास्तु लोकद्वयनिवासिनः।
कृताधिकारा गच्छन्ति महर्लोकं महामुने॥ २८॥
तस्मादपि महातापतप्ता लोकात्ततः परम्।
गच्छन्ति जनलोकं ते दशावृत्त्या परैषिणः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामुने! तदनन्तर अवस्थाके परिवर्तनसे परलोककी चाहवाले भुवर्लोक और स्वर्गलोकमें रहनेवाले [मन्वादि] अधिकारिगण अग्निज्वालासे सन्तप्त होकर महर्लोकको चले जाते हैं किन्तु वहाँ भी उस उग्र कालानलके महातापसे सन्तप्त होनेके कारण वे उससे बचनेके लिये जनलोकमें चले जाते हैं॥ २८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दग्ध्वा जगत्सर्वं रुद्ररूपी जनार्दनः।
मुखनिःश्वासजान्मेघान्करोति मुनिसत्तम॥ ३०॥

मूलम्

ततो दग्ध्वा जगत्सर्वं रुद्ररूपी जनार्दनः।
मुखनिःश्वासजान्मेघान्करोति मुनिसत्तम॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! तदनन्तर रुद्ररूपी भगवान् विष्णु सम्पूर्ण संसारको दग्ध करके अपने मुख-निःश्वाससे मेघोंको उत्पन्न करते हैं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गजकुलप्रख्यास्तडित्वन्तोऽतिनादिनः।
उत्तिष्ठन्ति तथा व्योम्नि घोरास्संवर्तका घनाः॥ ३१॥

मूलम्

ततो गजकुलप्रख्यास्तडित्वन्तोऽतिनादिनः।
उत्तिष्ठन्ति तथा व्योम्नि घोरास्संवर्तका घनाः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब विद्युत् से युक्त भयंकर गर्जना करनेवाले गजसमूहके समान बृहदाकार संवर्तक नामक घोर मेघ आकाशमें उठते हैं॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिन्नीलोत्पलश्यामाः केचित्कुमुदसन्निभाः।
धूम्रवर्णा घनाः केचित्केचित्पीताः पयोधराः॥ ३२॥

मूलम्

केचिन्नीलोत्पलश्यामाः केचित्कुमुदसन्निभाः।
धूम्रवर्णा घनाः केचित्केचित्पीताः पयोधराः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे कोई मेघ नील कमलके समान श्यामवर्ण, कोई कुमुद-कुसुमके समान श्वेत, कोई धूम्रवर्ण और कोई पीतवर्ण होते हैं॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद्रासभवर्णाभा लाक्षारसनिभास्तथा।
केचिद्वैडूर्यसंकाशा इन्द्रनीलनिभाः क्वचित्॥ ३३॥

मूलम्

केचिद्रासभवर्णाभा लाक्षारसनिभास्तथा।
केचिद्वैडूर्यसंकाशा इन्द्रनीलनिभाः क्वचित्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई गधेके-से वर्णवाले, कोई लाखके-से रंगवाले, कोई वैडूर्य-मणिके समान और कोई इन्द्रनील-मणिके समान होते हैं॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खकुन्दनिभाश्चान्ये जात्यञ्जननिभाः परे।
इन्द्रगोपनिभाः केचित्ततश्शिखिनिभास्तथा॥ ३४॥

मूलम्

शङ्खकुन्दनिभाश्चान्ये जात्यञ्जननिभाः परे।
इन्द्रगोपनिभाः केचित्ततश्शिखिनिभास्तथा॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई शंख और कुन्दके समान श्वेत-वर्ण, कोई जाती (चमेली)-के समान उज्ज्वल और कोई कज्जलके समान श्यामवर्ण, कोई इन्द्रगोपके समान रक्तवर्ण और कोई मयूरके समान विचित्र वर्णवाले होते हैं॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनश्शिलाभाः केचिद्वै हरितालनिभाः परे।
चाषपत्रनिभाः केचिदुत्तिष्ठन्ते महाघनाः॥ ३५॥

मूलम्

मनश्शिलाभाः केचिद्वै हरितालनिभाः परे।
चाषपत्रनिभाः केचिदुत्तिष्ठन्ते महाघनाः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई गेरूके समान, कोई हरितालके समान और कोई महामेघ, नील-कण्ठके पंखके समान रंगवाले होते हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित्पुरवराकाराः केचित्पर्वतसन्निभाः।
कूटागारनिभाश्चान्ये केचित्स्थलनिभा घनाः॥ ३६॥

मूलम्

केचित्पुरवराकाराः केचित्पर्वतसन्निभाः।
कूटागारनिभाश्चान्ये केचित्स्थलनिभा घनाः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई नगरके समान, कोई पर्वतके समान और कोई कूटागार (गृहविशेष)-केसमान बृहदाकार होते हैं तथा कोई पृथिवीतलके समान विस्तृत होते हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महारावा महाकायाः पूरयन्ति नभःस्थलम्।
वर्षन्तस्ते महासारांस्तमग्निमतिभैरवम्।
शमयन्त्यखिलं विप्र त्रैलोक्यान्तरधिष्ठितम्॥ ३७॥

मूलम्

महारावा महाकायाः पूरयन्ति नभःस्थलम्।
वर्षन्तस्ते महासारांस्तमग्निमतिभैरवम्।
शमयन्त्यखिलं विप्र त्रैलोक्यान्तरधिष्ठितम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे घनघोर शब्द करनेवाले महाकाय मेघगण आकाशको आच्छादित कर लेते हैं और मूसलाधार जल बरसाकर त्रिलोकव्यापी भयंकर अग्निको शान्त कर देते हैं॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टे चाग्नौ च सततं वर्षमाणा ह्यहर्निशम्।
प्लावयन्ति जगत्सर्वमम्भोभिर्मुनिसत्तम॥ ३८॥

मूलम्

नष्टे चाग्नौ च सततं वर्षमाणा ह्यहर्निशम्।
प्लावयन्ति जगत्सर्वमम्भोभिर्मुनिसत्तम॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! अग्निके नष्ट हो जानेपर भी अहर्निश निरन्तर बरसते हुए वे मेघ सम्पूर्ण जगत‍्को जलमें डुबो देते हैं॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धाराभिरतिमात्राभिः प्लावयित्वाखिलं भुवम्।
भुवर्लोकं तथैवोर्ध्वं प्लावयन्ति हि ते द्विज॥ ३९॥

मूलम्

धाराभिरतिमात्राभिः प्लावयित्वाखिलं भुवम्।
भुवर्लोकं तथैवोर्ध्वं प्लावयन्ति हि ते द्विज॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! अपनी अति स्थूल धाराओंसे भूर्लोकको जलमें डुबोकर वे भुवर्लोक तथा उसके भी ऊपरके लोकोंको भी जलमग्न कर देते हैं॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्धकारीकृते लोके नष्टे स्थावरजङ्गमे।
वर्षन्ति ते महामेघा वर्षाणामधिकं शतम्॥ ४०॥

मूलम्

अन्धकारीकृते लोके नष्टे स्थावरजङ्गमे।
वर्षन्ति ते महामेघा वर्षाणामधिकं शतम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सम्पूर्ण संसारके अन्धकारमय हो जानेपर तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जीवोंके नष्ट हो जानेपर भी वे महामेघ सौ वर्षसे अधिक कालतक बरसते रहते हैं॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भवति कल्पान्ते समस्तं मुनिसत्तम।
वासुदेवस्य माहात्म्यान्नित्यस्य परमात्मनः॥ ४१॥

मूलम्

एवं भवति कल्पान्ते समस्तं मुनिसत्तम।
वासुदेवस्य माहात्म्यान्नित्यस्य परमात्मनः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! सनातन परमात्मा वासुदेवके माहात्म्यसे कल्पान्तमें इसी प्रकार यह समस्त विप्लव होता है॥ ४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेंऽशे तृतीयोऽध्यायः॥३॥