[दूसरा अध्याय]
विषय
श्रीव्यासजीद्वारा कलियुग, शूद्र और स्त्रियोंका महत्त्व-वर्णन
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यासश्चाह महाबुद्धिर्यदत्रैव हि वस्तुनि।
तच्छ्रूयतां महाभाग गदतो मम तत्त्वतः॥ १॥
मूलम्
व्यासश्चाह महाबुद्धिर्यदत्रैव हि वस्तुनि।
तच्छ्रूयतां महाभाग गदतो मम तत्त्वतः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे महाभाग! इसी विषयमें महामति व्यासदेवने जो कुछ कहा है वह मैं यथावत् वर्णन करता हूँ, सुनो॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मिन्कालेऽल्पको धर्मो ददाति सुमहत्फलम्।
मुनीनां पुण्यवादोऽभूत्कैश्चासौ क्रियते सुखम्॥ २॥
मूलम्
कस्मिन्कालेऽल्पको धर्मो ददाति सुमहत्फलम्।
मुनीनां पुण्यवादोऽभूत्कैश्चासौ क्रियते सुखम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार मुनियोंमें [परस्पर] पुण्यके विषयमें यह वार्तालाप हुआ कि ‘किस समयमें थोड़ा-सा पुण्य भी महान् फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं?’॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्देहनिर्णयार्थाय वेदव्यासं महामुनिम्।
ययुस्ते संशयं प्रष्टुं मैत्रेय मुनिपुङ्गवाः॥ ३॥
मूलम्
सन्देहनिर्णयार्थाय वेदव्यासं महामुनिम्।
ययुस्ते संशयं प्रष्टुं मैत्रेय मुनिपुङ्गवाः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! वे समस्त मुनिश्रेष्ठ इस सन्देहका निर्णय करनेके लिये महामुनि व्यासजीके पास यह प्रश्न पूछने गये॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशुस्ते मुनिं तत्र जाह्नवीसलिले द्विज।
वेदव्यासं महाभागमर्द्धस्नातं सुतं मम॥ ४॥
मूलम्
ददृशुस्ते मुनिं तत्र जाह्नवीसलिले द्विज।
वेदव्यासं महाभागमर्द्धस्नातं सुतं मम॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! वहाँ पहुँचनेपर उन मुनिजनोंने मेरे पुत्र महाभाग व्यासजीको गंगाजीमें आधा स्नान किये देखा॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नानावसानं ते तस्य प्रतीक्षन्तो महर्षयः।
तस्थुस्तीरे महानद्यास्तरुषण्डमुपाश्रिताः॥ ५॥
मूलम्
स्नानावसानं ते तस्य प्रतीक्षन्तो महर्षयः।
तस्थुस्तीरे महानद्यास्तरुषण्डमुपाश्रिताः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महर्षिगण व्यासजीके स्नान कर चुकनेकी प्रतीक्षामें उस महानदीके तटपर वृक्षोंके तले बैठे रहे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मग्नोऽथ जाह्नवीतोयादुत्थायाह सुतो मम।
शूद्रस्साधुः कलिस्साधुरित्येवं शृण्वतां वचः॥ ६॥
तेषां मुनीनां भूयश्च ममज्ज स नदीजले।
साधु साध्विति चोत्थाय शूद्र धन्योऽसि चाब्रवीत्॥ ७॥
मूलम्
मग्नोऽथ जाह्नवीतोयादुत्थायाह सुतो मम।
शूद्रस्साधुः कलिस्साधुरित्येवं शृण्वतां वचः॥ ६॥
तेषां मुनीनां भूयश्च ममज्ज स नदीजले।
साधु साध्विति चोत्थाय शूद्र धन्योऽसि चाब्रवीत्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय गंगाजीमें डुबकी लगाये मेरे पुत्र व्यासने जलसे उठकर उन मुनिजनोंके सुनते हुए ‘कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है’ यह वचन कहा। ऐसा कहकर उन्होंने फिर जलमें गोता लगाया और फिर उठकर कहा—‘‘शूद्र! तुम ही श्रेष्ठ हो, तुम ही धन्य हो’’॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमग्नश्च समुत्थाय पुनः प्राह महामुनिः।
योषितः साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः॥ ८॥
मूलम्
निमग्नश्च समुत्थाय पुनः प्राह महामुनिः।
योषितः साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कहकर वे महामुनि फिर जलमें मग्न हो गये और फिर खड़े होकर बोले—‘‘स्त्रियाँ ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है?’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स्नात्वा यथान्यायमायान्तं च कृतक्रियम्।
उपतस्थुर्महाभागं मुनयस्ते सुतं मम॥ ९॥
मूलम्
ततः स्नात्वा यथान्यायमायान्तं च कृतक्रियम्।
उपतस्थुर्महाभागं मुनयस्ते सुतं मम॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब मेरे महाभाग पुत्र व्यासजी स्नान करनेके अनन्तर नियमानुसार नित्यकर्मसे निवृत्त होकर आये तो वे मुनिजन उनके पास पहुँचे॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतसंवन्दनांश्चाह कृतासनपरिग्रहान्।
किमर्थमागता यूयमिति सत्यवतीसुतः॥ १०॥
मूलम्
कृतसंवन्दनांश्चाह कृतासनपरिग्रहान्।
किमर्थमागता यूयमिति सत्यवतीसुतः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर जब वे यथायोग्य अभिवादनादिके अनन्तर आसनोंपर बैठ गये तो सत्यवतीनन्दन व्यासजीने उनसे पूछा—‘‘आपलोग कैसे आये हैं?’’॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमूचुः संशयं प्रष्टुं भवन्तं वयमागताः।
अलं तेनास्तु तावन्नः कथ्यतामपरं त्वया॥ ११॥
मूलम्
तमूचुः संशयं प्रष्टुं भवन्तं वयमागताः।
अलं तेनास्तु तावन्नः कथ्यतामपरं त्वया॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनियोंने उनसे कहा—‘‘हमलोग आपसे एक सन्देह पूछनेके लिये आये थे, किंतु इस समय उसे तो जाने दीजिये, एक और बात हमें बतलाइये॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिस्साध्विति यत्प्रोक्तं शूद्रः साध्विति योषितः।
यदाह भगवान् साधु धन्याश्चेति पुनः पुनः॥ १२॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामो न चेद् गुह्यं महामुने।
तत्कथ्यतां ततो हृत्स्थं पृच्छामस्त्वां प्रयोजनम्॥ १३॥
मूलम्
कलिस्साध्विति यत्प्रोक्तं शूद्रः साध्विति योषितः।
यदाह भगवान् साधु धन्याश्चेति पुनः पुनः॥ १२॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामो न चेद् गुह्यं महामुने।
तत्कथ्यतां ततो हृत्स्थं पृच्छामस्त्वां प्रयोजनम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपने जो स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ हैं, स्त्रियाँ ही साधु और धन्य हैं’, सो क्या बात है? हम यह सम्पूर्ण विषय सुनना चाहते हैं। हे महामुने! यदि गोपनीय न हो तो कहिये। इसके पीछे हम आपसे अपना आन्तरिक सन्देह पूछेंगे’’॥ १२-१३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो मुनिभिर्व्यासः प्रहस्येदमथाब्रवीत्।
श्रूयतां भो मुनिश्रेष्ठा यदुक्तं साधु साध्विति॥ १४॥
मूलम्
इत्युक्तो मुनिभिर्व्यासः प्रहस्येदमथाब्रवीत्।
श्रूयतां भो मुनिश्रेष्ठा यदुक्तं साधु साध्विति॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर व्यासजीने हँसते हुए कहा—‘‘हे मुनिश्रेष्ठो! मैंने जो इन्हें बारम्बार साधु-साधु कहा था, उसका कारण सुनो’’॥ १४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीव्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्कृते दशभिर्वर्षैस्त्रेतायां हायनेन तत्।
द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रेण तत्कलौ॥ १५॥
तपसो ब्रह्मचर्यस्य जपादेश्च फलं द्विजाः।
प्राप्नोति पुरुषस्तेन कलिस्साध्विति भाषितम्॥ १६॥
मूलम्
यत्कृते दशभिर्वर्षैस्त्रेतायां हायनेन तत्।
द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रेण तत्कलौ॥ १५॥
तपसो ब्रह्मचर्यस्य जपादेश्च फलं द्विजाः।
प्राप्नोति पुरुषस्तेन कलिस्साध्विति भाषितम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीव्यासजी बोले—हे द्विजगण! जो फल सत्ययुगमें दस वर्ष तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि करनेसे मिलता है उसे मनुष्य त्रेतामें एक वर्ष, द्वापरमें एक मास और कलियुगमें केवल एक दिन-रातमें प्राप्त कर लेता है, इस कारण ही मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है॥ १५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम्॥ १७॥
मूलम्
ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो फल सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ और द्वापरमें देवार्चन करनेसे प्राप्त होता है वही कलियुगमें श्रीकृष्णचन्द्रका नाम-कीर्तन करनेसे मिल जाता है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मोत्कर्षमतीवात्र प्राप्नोति पुरुषः कलौ।
अल्पायासेन धर्मज्ञास्तेन तुष्टोऽस्म्यहं कलेः॥ १८॥
मूलम्
धर्मोत्कर्षमतीवात्र प्राप्नोति पुरुषः कलौ।
अल्पायासेन धर्मज्ञास्तेन तुष्टोऽस्म्यहं कलेः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे धर्मज्ञगण! कलियुगमें थोड़े-से परिश्रमसे ही पुरुषको महान् धर्मकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिये मैं कलियुगसे अति सन्तुष्ट हूँ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतचर्यापरैर्ग्राह्या वेदाः पूर्वं द्विजातिभिः।
ततस्स्वधर्मसम्प्राप्तैर्यष्टव्यं विधिवद्धनैः॥ १९॥
मूलम्
व्रतचर्यापरैर्ग्राह्या वेदाः पूर्वं द्विजातिभिः।
ततस्स्वधर्मसम्प्राप्तैर्यष्टव्यं विधिवद्धनैः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
[अब शूद्र क्यों श्रेष्ठ हैं, यह बतलाते हैं] द्विजातियोंको पहले ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है और फिर स्वधर्माचरणसे उपार्जित धनके द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करने पड़ते हैं॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृथा कथा वृथा भोज्यं वृथेज्या च द्विजन्मनाम्।
पतनाय ततो भाव्यं तैस्तु संयमिभिस्सदा॥ २०॥
मूलम्
वृथा कथा वृथा भोज्यं वृथेज्या च द्विजन्मनाम्।
पतनाय ततो भाव्यं तैस्तु संयमिभिस्सदा॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतनके कारण होते हैं; इसलिये उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असम्यक्करणे दोषस्तेषां सर्वेषु वस्तुषु।
भोज्यपेयादिकं चैषां नेच्छाप्राप्तिकरं द्विजाः॥ २१॥
मूलम्
असम्यक्करणे दोषस्तेषां सर्वेषु वस्तुषु।
भोज्यपेयादिकं चैषां नेच्छाप्राप्तिकरं द्विजाः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी कामोंमें अनुचित (विधिके विपरीत) करनेसे उन्हें दोष लगता है; यहाँतक कि भोजन और पानादि भी वे अपने इच्छानुसार नहीं भोग सकते॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारतन्त्र्यं समस्तेषु तेषां कार्येषु वै यतः।
जयन्ति ते निजाँल्लोकान्क्लेशेन महता द्विजाः॥ २२॥
मूलम्
पारतन्त्र्यं समस्तेषु तेषां कार्येषु वै यतः।
जयन्ति ते निजाँल्लोकान्क्लेशेन महता द्विजाः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण कार्योंमें परतन्त्रता रहती है। हे द्विजगण! इस प्रकार वे अत्यन्त क्लेशसे पुण्य-लोकोंको प्राप्त करते हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजशुश्रूषयैवैष पाकयज्ञाधिकारवान्।
निजाञ्जयति वै लोकाञ्च्छूद्रो धन्यतरस्ततः॥ २३॥
मूलम्
द्विजशुश्रूषयैवैष पाकयज्ञाधिकारवान्।
निजाञ्जयति वै लोकाञ्च्छूद्रो धन्यतरस्ततः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जिसे केवल [मन्त्रहीन] पाक-यज्ञका ही अधिकार है वह शूद्र द्विजोंकी सेवा करनेसे ही सद्गति प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह अन्य जातियोंकी अपेक्षा धन्यतर है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्याभक्ष्येषु नास्यास्ति पेयापेयेषु वै यतः।
नियमो मुनिशार्दूलास्तेनासौ साध्वितीरितः॥ २४॥
मूलम्
भक्ष्याभक्ष्येषु नास्यास्ति पेयापेयेषु वै यतः।
नियमो मुनिशार्दूलास्तेनासौ साध्वितीरितः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनिशार्दूलो! शूद्रको भक्ष्याभक्ष्य अथवा पेयापेयका कोई नियम नहीं है, इसलिये मैंने उसे साधु कहा है॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधर्मस्याविरोधेन नरैर्लब्धं धनं सदा।
प्रतिपादनीयं पात्रेषु यष्टव्यं च यथाविधि॥ २५॥
मूलम्
स्वधर्मस्याविरोधेन नरैर्लब्धं धनं सदा।
प्रतिपादनीयं पात्रेषु यष्टव्यं च यथाविधि॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
[अब स्त्रियोंको किसलिये श्रेष्ठ कहा, यह बतलाते हैं—] पुरुषोंको अपने धर्मानुकूल प्राप्त किये हुए धनसे ही सर्वदा सुपात्रको दान और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यार्जने महाक्लेशः पालने च द्विजोत्तमाः।
तथासद्विनियोगेन विज्ञातं गहनं नृणाम्॥ २६॥
मूलम्
तस्यार्जने महाक्लेशः पालने च द्विजोत्तमाः।
तथासद्विनियोगेन विज्ञातं गहनं नृणाम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तमगण! इस द्रव्यके उपार्जन तथा रक्षणमें महान् क्लेश होता है और उसको अनुचित कार्यमें लगानेसे भी मनुष्योंको जो कष्ट भोगना पड़ता है वह मालूम ही है॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमन्यैस्तथा क्लेशैः पुरुषा द्विजसत्तमाः।
निजाञ्जयन्ति वै लोकान् प्राजापत्यादिकान्क्रमात्॥ २७॥
मूलम्
एवमन्यैस्तथा क्लेशैः पुरुषा द्विजसत्तमाः।
निजाञ्जयन्ति वै लोकान् प्राजापत्यादिकान्क्रमात्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार हे द्विजसत्तमो! पुरुषगण इन तथा ऐसे ही अन्य कष्टसाध्य उपायोंसे क्रमशः प्राजापत्य आदि शुभ लोकोंको प्राप्त करते हैं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योषिच्छुश्रूषणाद्भर्त्तुः कर्मणा मनसा गिरा।
तद्धिता शुभमाप्नोति तत्सालोक्यं यतो द्विजाः॥ २८॥
नातिक्लेशेन महता तानेव पुरुषो यथा।
तृतीयं व्याहृतं तेन मया साध्विति योषितः॥ २९॥
मूलम्
योषिच्छुश्रूषणाद्भर्त्तुः कर्मणा मनसा गिरा।
तद्धिता शुभमाप्नोति तत्सालोक्यं यतो द्विजाः॥ २८॥
नातिक्लेशेन महता तानेव पुरुषो यथा।
तृतीयं व्याहृतं तेन मया साध्विति योषितः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु स्त्रियाँ तो तन-मन-वचनसे पतिकी सेवा करनेसे ही उनकी हितकारिणी होकर पतिके समान शुभ लोकोंको अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं जो कि पुरुषोंको अत्यन्त परिश्रमसे मिलते हैं। इसीलिये मैंने तीसरी बार यह कहा था कि ‘स्त्रियाँ साधु हैं’॥ २८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद्वः कथितं विप्रा यन्निमित्तमिहागताः।
तत्पृच्छत यथाकामं सर्वं वक्ष्यामि वः स्फुटम्॥ ३०॥
मूलम्
एतद्वः कथितं विप्रा यन्निमित्तमिहागताः।
तत्पृच्छत यथाकामं सर्वं वक्ष्यामि वः स्फुटम्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे विप्रगण! मैंने आपलोगोंसे यह [अपने साधुवादका रहस्य] कह दिया, अब आप जिसलिये पधारे हैं वह इच्छानुसार पूछिये। मैं आपसे सब बातें स्पष्ट करके कह दूँगा’’॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयस्ते ततः प्रोचुर्यत्प्रष्टव्यं महामुने।
अस्मिन्नेव च तत् प्रश्ने यथावत्कथितं त्वया॥ ३१॥
मूलम्
ऋषयस्ते ततः प्रोचुर्यत्प्रष्टव्यं महामुने।
अस्मिन्नेव च तत् प्रश्ने यथावत्कथितं त्वया॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ऋषियोंने कहा—‘‘हे महामुने! हमें जो कुछ पूछना था उसका यथावत् उत्तर आपने इसी प्रश्नमें दे दिया है। [इसलिये अब हमें और कुछ पूछना नहीं है]॥ ३१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रहस्य तानाह कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
विस्मयोत्फुल्लनयनांस्तापसांस्तानुपागतान्॥ ३२॥
मूलम्
ततः प्रहस्य तानाह कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
विस्मयोत्फुल्लनयनांस्तापसांस्तानुपागतान्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तब मुनिवर कृष्णद्वैपायनने विस्मयसे खिले हुए नेत्रोंवाले उन समागत तपस्वियोंसे हँसकर कहा॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयैष भवतां प्रश्नो ज्ञातो दिव्येन चक्षुषा।
ततो हि वः प्रसङ्गेन साधु साध्विति भाषितम्॥ ३३॥
मूलम्
मयैष भवतां प्रश्नो ज्ञातो दिव्येन चक्षुषा।
ततो हि वः प्रसङ्गेन साधु साध्विति भाषितम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं दिव्य दृष्टिसे आपके इस प्रश्नको जान गया था इसीलिये मैंने आपलोगोंके प्रसंगसे ही ‘साधु-साधु’ कहा था॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वल्पेन हि प्रयत्नेन धर्मस्सिद्ध्यति वै कलौ।
नरैरात्मगुणाम्भोभिः क्षालिताखिलकिल्बिषैः॥ ३४॥
मूलम्
स्वल्पेन हि प्रयत्नेन धर्मस्सिद्ध्यति वै कलौ।
नरैरात्मगुणाम्भोभिः क्षालिताखिलकिल्बिषैः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन पुरुषोंने गुणरूप जलसे अपने समस्त दोष धो डाले हैं उनके थोड़े-से प्रयत्नसे ही कलियुगमें धर्म सिद्ध हो जाता है॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रैश्च द्विजशुश्रूषातत्परैर्द्विजसत्तमाः।
तथा स्त्रीभिरनायासात्पतिशुश्रूषयैव हि॥ ३५॥
मूलम्
शूद्रैश्च द्विजशुश्रूषातत्परैर्द्विजसत्तमाः।
तथा स्त्रीभिरनायासात्पतिशुश्रूषयैव हि॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजश्रेष्ठो! शूद्रोंको द्विजसेवापरायण होनेसे और स्त्रियोंको पतिकी सेवामात्र करनेसे ही अनायास धर्मकी सिद्धि हो जाती है॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्रितयमप्येतन्मम धन्यतरं मतम्।
धर्मसम्पादने क्लेशो द्विजातीनां कृतादिषु॥ ३६॥
मूलम्
ततस्त्रितयमप्येतन्मम धन्यतरं मतम्।
धर्मसम्पादने क्लेशो द्विजातीनां कृतादिषु॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये मेरे विचारसे ये तीनों धन्यतर हैं, क्योंकि सत्ययुगादि अन्य तीन युगोंमें भी द्विजातियोंको ही धर्म सम्पादन करनेमें महान् क्लेश उठाना पड़ता है॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवद्भिर्यदभिप्रेतं तदेतत्कथितं मया।
अपृष्टेनापि धर्मज्ञाः किमन्यत्क्रियतां द्विजाः॥ ३७॥
मूलम्
भवद्भिर्यदभिप्रेतं तदेतत्कथितं मया।
अपृष्टेनापि धर्मज्ञाः किमन्यत्क्रियतां द्विजाः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे धर्मज्ञ ब्राह्मणो! इस प्रकार आपलोगोंका जो अभिप्राय था वह मैंने आपके बिना पूछे ही कह दिया, अब और क्या करूँ?’’॥ ३७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्सम्पूज्य ते व्यासं प्रशशंसुः पुनः पुनः।
यथाऽऽगतं द्विजा जग्मुर्व्यासोक्तिकृतनिश्चयाः॥ ३८॥
मूलम्
ततस्सम्पूज्य ते व्यासं प्रशशंसुः पुनः पुनः।
यथाऽऽगतं द्विजा जग्मुर्व्यासोक्तिकृतनिश्चयाः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर उन्होंने व्यासजीका पूजनकर उनकी बारम्बार प्रशंसा की और उनके कथनानुसार निश्चयकर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतोऽपि महाभाग
रहस्यं कथितं मया।
अत्यन्तदुष्टस्य कलेर्
अयम् एको महान् गुणः।
कीर्तनाद् एव कृष्णस्य
मुक्तबन्धः परं व्रजेत्॥ ३९॥
मूलम्
भवतोऽपि महाभाग रहस्यं कथितं मया।
अत्यन्तदुष्टस्य कलेरयमेको महान्गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तबन्धः परं व्रजेत्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाभाग मैत्रेयजी! आपसे भी मैंने यह रहस्य कह दिया। इस अत्यन्त दुष्ट कलियुगमें यही एक महान् गुण है कि इस युगमें केवल कृष्णचन्द्रका नाम-संकीर्तन करनेसे ही मनुष्य परमपद प्राप्त कर लेता है॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच् चाहं भवता पृष्टो
जगताम् उपसंहृतिम्।
प्राकृताम् अन्तरालां च
ताम् अप्य् एष वदामि ते॥ ४०॥
मूलम्
यच्चाहं भवता पृष्टो जगतामुपसंहृतिम्।
प्राकृतामन्तरालां च तामप्येष वदामि ते॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब आपने मुझसे जो संसारके उपसंहार—प्राकृत प्रलय और अवान्तर प्रलयके विषयमें पूछा था वह भी सुनाता हूँ॥ ४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥