३५

[पैंतीसवाँ अध्याय]

विषय

साम्बका विवाह

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूय एवाहमिच्छामि बलभद्रस्य धीमतः।
श्रोतुं पराक्रमं ब्रह्मन् तन्ममाख्यातुमर्हसि॥ १॥

मूलम्

भूय एवाहमिच्छामि बलभद्रस्य धीमतः।
श्रोतुं पराक्रमं ब्रह्मन् तन्ममाख्यातुमर्हसि॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजी बोले—हे ब्रह्मन्! अब मैं फिर मतिमान् बलभद्रजीके पराक्रमकी वार्ता सुनना चाहता हूँ, आप वर्णन कीजिये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमुनाकर्षणादीनि श्रुतानि भगवन्मया।
तत्कथ्यतां महाभाग यदन्यत्कृतवान‍्बलः॥ २॥

मूलम्

यमुनाकर्षणादीनि श्रुतानि भगवन्मया।
तत्कथ्यतां महाभाग यदन्यत्कृतवान‍्बलः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भगवन्! मैंने उनके यमुनाकर्षणादि पराक्रम तो सुन लिये; अब हे महाभाग! उन्होंने जो और-और विक्रम दिखलाये हैं, उनका वर्णन कीजिये॥ २॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैत्रेय श्रूयतां कर्म यद्रामेणाभवत्कृतम्।
अनन्तेनाप्रमेयेन शेषेण धरणीधृता॥ ३॥

मूलम्

मैत्रेय श्रूयतां कर्म यद्रामेणाभवत्कृतम्।
अनन्तेनाप्रमेयेन शेषेण धरणीधृता॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! अनन्त, अप्रमेय, धरणीधर शेषावतार श्रीबलरामजीने जो कर्म किये थे, वह सुनो—॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुयोधनस्य तनयां स्वयंवरकृतक्षणाम्।
बलादादत्तवान्वीरस्साम्बो जाम्बवतीसुतः॥ ४॥

मूलम्

सुयोधनस्य तनयां स्वयंवरकृतक्षणाम्।
बलादादत्तवान्वीरस्साम्बो जाम्बवतीसुतः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार जाम्बवतीनन्दन वीरवर साम्बने स्वयंवरके अवसरपर दुर्योधनकी पुत्रीको बलात् हरण किया॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धा महावीर्याः कर्णदुर्योधनादयः।
भीष्मद्रोणादयश्चैनं बबन्धुर्युधि निर्जितम्॥ ५॥

मूलम्

ततः क्रुद्धा महावीर्याः कर्णदुर्योधनादयः।
भीष्मद्रोणादयश्चैनं बबन्धुर्युधि निर्जितम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महावीर कर्ण, दुर्योधन, भीष्म और द्रोण आदिने क्रुद्ध होकर उसे युद्धमें हराकर बाँध लिया॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा यादवास्सर्वे क्रोधं दुर्योधनादिषु।
मैत्रेय चक्रुः कृष्णश्च तान्निहन्तुं महोद्यमम्॥ ६॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा यादवास्सर्वे क्रोधं दुर्योधनादिषु।
मैत्रेय चक्रुः कृष्णश्च तान्निहन्तुं महोद्यमम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाचार पाकर कृष्णचन्द्र आदि समस्त यादवोंने दुर्योधनादिपर क्रुद्ध होकर उन्हें मारनेके लिये बड़ी तैयारी की॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्निवार्य बलः प्राह मदलोलकलाक्षरम्।
मोक्ष्यन्ति ते मद्वचनाद्यास्याम्ये को हि कौरवान्॥ ७॥

मूलम्

तान्निवार्य बलः प्राह मदलोलकलाक्षरम्।
मोक्ष्यन्ति ते मद्वचनाद्यास्याम्ये को हि कौरवान्॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनको रोककर श्रीबलरामजीने मदिराके उन्मादसे लड़खड़ाते हुए शब्दोंमें कहा—‘‘कौरवगण मेरे कहनेसे साम्बको छोड़ देंगे, अतः मैं अकेला ही उनके पास जाता हूँ’’॥ ७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलदेवस्ततो गत्वा नगरं नागसाह्वयम्।
बाह्योपवनमध्येऽभून्न विवेश च तत्पुरम्॥ ८॥

मूलम्

बलदेवस्ततो गत्वा नगरं नागसाह्वयम्।
बाह्योपवनमध्येऽभून्न विवेश च तत्पुरम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर, श्रीबलदेवजी हस्तिनापुरके समीप पहुँचकर उसके बाहर एक उद्यानमें ठहर गये; उन्होंने नगरमें प्रवेश नहीं किया॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलमागतमाज्ञाय भूपा दुर्योधनादयः।
गामर्घ्यमुदकं चैव रामाय प्रत्यवेदयन्॥ ९॥

मूलम्

बलमागतमाज्ञाय भूपा दुर्योधनादयः।
गामर्घ्यमुदकं चैव रामाय प्रत्यवेदयन्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीको आये जान दुर्योधन आदि राजाओंने उन्हें गौ, अर्घ्य और पाद्यादि निवेदन किये॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत्वा विधिवत्सर्वं ततस्तानाह कौरवान्।
आज्ञापयत्युग्रसेनस्साम्बमाशु विमुञ्चत॥ १०॥

मूलम्

गृहीत्वा विधिवत्सर्वं ततस्तानाह कौरवान्।
आज्ञापयत्युग्रसेनस्साम्बमाशु विमुञ्चत॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबको विधिवत् ग्रहण कर बलभद्रजीने कौरवोंसे कहा—‘‘राजा उग्रसेनकी आज्ञा है आपलोग साम्बको तुरन्त छोड़ दें’’॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तद्वचनं श्रुत्वा भीष्मद्रोणादयो नृपाः।
कर्णदुर्योधनाद्याश्च चुक्षुभुर्द्विजसत्तम॥ ११॥

मूलम्

ततस्तद्वचनं श्रुत्वा भीष्मद्रोणादयो नृपाः।
कर्णदुर्योधनाद्याश्च चुक्षुभुर्द्विजसत्तम॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विजसत्तम! बलरामजीके इन वचनोंको सुनकर भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि राजाओंको बड़ा क्षोभ हुआ॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचुश्चकुपितास्सर्वे बाह्लिकाद्याश्च कौरवाः।
अराज्यार्हं यदोर्वंशमवेक्ष्य मुसलायुधम्॥ १२॥

मूलम्

ऊचुश्चकुपितास्सर्वे बाह्लिकाद्याश्च कौरवाः।
अराज्यार्हं यदोर्वंशमवेक्ष्य मुसलायुधम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यदुवंशको राज्यपदके अयोग्य समझ बाह्लिक आदि सभी कौरवगण कुपित होकर मूसलधारी बलभद्रजीसे कहने लगे—॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो किमेतद्भवता बलभद्रेरितं वचः।
आज्ञां कुरुकुलोत्थानां यादवः कः प्रदास्यति॥ १३॥

मूलम्

भो भो किमेतद्भवता बलभद्रेरितं वचः।
आज्ञां कुरुकुलोत्थानां यादवः कः प्रदास्यति॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे बलभद्र! तुम यह क्या कह रहे हो; ऐसा कौन यदुवंशी है जो कुरुकुलोत्पन्न किसी वीरको आज्ञा दे?॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रसेनोऽपि यद्याज्ञां कौरवाणां प्रदास्यति।
तदलं पाण्डुरैश्छत्रैर्नृपयोग्यैर्विडम्बनैः॥ १४॥

मूलम्

उग्रसेनोऽपि यद्याज्ञां कौरवाणां प्रदास्यति।
तदलं पाण्डुरैश्छत्रैर्नृपयोग्यैर्विडम्बनैः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उग्रसेन भी कौरवोंको आज्ञा दे सकता है तो राजाओंके योग्य कौरवोंके इस श्वेत छत्रका क्या प्रयोजन है?॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद‍्गच्छ बल मा वा त्वं साम्बमन्यायचेष्टितम्।
विमोक्ष्यामो न भवतश्चोग्रसेनस्य शासनात्॥ १५॥

मूलम्

तद‍्गच्छ बल मा वा त्वं साम्बमन्यायचेष्टितम्।
विमोक्ष्यामो न भवतश्चोग्रसेनस्य शासनात्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे बलराम! तुम जाओ अथवा रहो, हमलोग तुम्हारी या उग्रसेनकी आज्ञासे अन्यायकर्मा साम्बको नहीं छोड़ सकते॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणतिर्या कृतास्माकं मान्यानां कुकुरान्धकैः।
ननाम सा कृता केयमाज्ञा स्वामिनि भृत्यतः॥ १६॥

मूलम्

प्रणतिर्या कृतास्माकं मान्यानां कुकुरान्धकैः।
ननाम सा कृता केयमाज्ञा स्वामिनि भृत्यतः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें कुकुर और अन्धकवंशीय यादवगण हम माननीयोंको प्रणाम किया करते थे सो अब वे ऐसा नहीं करते तो न सही, किन्तु स्वामीको यह सेवककी ओरसे आज्ञा देना कैसा?॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्वमारोपिता यूयं समानासनभोजनैः।
को दोषो भवतां नीतिर्यत्प्रीत्या नावलोकिता॥ १७॥

मूलम्

गर्वमारोपिता यूयं समानासनभोजनैः।
को दोषो भवतां नीतिर्यत्प्रीत्या नावलोकिता॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोगोंके साथ समान आसन और भोजनका व्यवहार करके तुम्हें हमहीने गर्वीला बना दिया है; इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है; क्योंकि हमने ही प्रीतिवश नीतिका विचार नहीं किया॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्माभिरर्घो भवतो योऽयं बल निवेदितः।
प्रेम्णैतन्नैतदस्माकं कुलाद्युष्मत्कुलोचितम्॥ १८॥

मूलम्

अस्माभिरर्घो भवतो योऽयं बल निवेदितः।
प्रेम्णैतन्नैतदस्माकं कुलाद्युष्मत्कुलोचितम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे बलराम! हमने जो तुम्हें यह अर्घ्य आदि निवेदन किया है यह प्रेमवश ही किया है, वास्तवमें हमारे कुलकी तरफसे तुम्हारे कुलको अर्घ्यादि देना उचित नहीं है’’॥ १८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा कुरवः साम्बं मुञ्चामो न हरेस्सुतम्।
कृतैकनिश्चयास्तूर्णं विविशुर्गजसाह्वयम्॥ १९॥

मूलम्

इत्युक्त्वा कुरवः साम्बं मुञ्चामो न हरेस्सुतम्।
कृतैकनिश्चयास्तूर्णं विविशुर्गजसाह्वयम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—ऐसा कहकर कौरवगण यह निश्चय करके कि ‘‘हम कृष्णके पुत्र साम्बको नहीं छोड़ेंगे’’ तुरन्त हस्तिनापुरमें चले गये॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्तः कोपेन चाघूर्णंस्ततोऽधिक्षेपजन्मना।
उत्थाय पार्ष्ण्या वसुधां जघान स हलायुधः॥ २०॥

मूलम्

मत्तः कोपेन चाघूर्णंस्ततोऽधिक्षेपजन्मना।
उत्थाय पार्ष्ण्या वसुधां जघान स हलायुधः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हलायुध श्रीबलरामजीने उनके तिरस्कारसे उत्पन्न हुए क्रोधसे मत्त होकर घूरते हुए पृथिवीमें लात मारी॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विदारिता पृथ्वी पार्ष्णिघातान्महात्मनः।
आस्फोटयामास तदा दिशश्शब्देन पूरयन्॥ २१॥
उवाच चातिताम्राक्षो भृकुटीकुटिलाननः॥ २२॥

मूलम्

ततो विदारिता पृथ्वी पार्ष्णिघातान्महात्मनः।
आस्फोटयामास तदा दिशश्शब्देन पूरयन्॥ २१॥
उवाच चातिताम्राक्षो भृकुटीकुटिलाननः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा बलरामजीके पाद-प्रहारसे पृथिवी फट गयी और वे अपने शब्दसे सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजाकर कम्पायमान करने लगे तथा लाल-लाल नेत्र और टेढ़ी भृकुटि करके बोले-॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो मदावलेपोऽयमसाराणां दुरात्मनाम्।
कौरवाणां महीपत्वमस्माकं किल कालजम्।
उग्रसेनस्य ये नाज्ञां मन्यन्तेऽद्यापि लङ्घनम्॥ २३॥

मूलम्

अहो मदावलेपोऽयमसाराणां दुरात्मनाम्।
कौरवाणां महीपत्वमस्माकं किल कालजम्।
उग्रसेनस्य ये नाज्ञां मन्यन्तेऽद्यापि लङ्घनम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अहो! इन सारहीन दुरात्मा कौरवोंको यह कैसा राजमदका अभिमान है। कौरवोंका महीपालत्व तो स्वतःसिद्ध है और हमारा सामयिक—ऐसा समझकर ही आज ये महाराज उग्रसेनकी आज्ञा नहीं मानते; बल्कि उसका उल्लंघन कर रहे हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रसेनः समध्यास्ते सुधर्मां न शचीपतिः।
धिङ्मानुषशतोच्छिष्टे तुष्टिरेषां नृपासने॥ २४॥

मूलम्

उग्रसेनः समध्यास्ते सुधर्मां न शचीपतिः।
धिङ्मानुषशतोच्छिष्टे तुष्टिरेषां नृपासने॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभामें स्वयं विराजमान होते हैं, उसमें शचीपति इन्द्र भी नहीं बैठने पाते। परन्तु इन कौरवोंको धिक्कार है जिन्हें सैकड़ों मनुष्योंके उच्छिष्ट राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिजाततरोः पुष्पमञ्जरीर्वनिताजनः।
बिभर्ति यस्य भृत्यानां सोऽप्येषां न महीपतिः॥ २५॥

मूलम्

पारिजाततरोः पुष्पमञ्जरीर्वनिताजनः।
बिभर्ति यस्य भृत्यानां सोऽप्येषां न महीपतिः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके सेवकोंकी स्त्रियाँ भी पारिजात-वृक्षकी पुष्प-मंजरी धारण करती हैं वह भी इन कौरवोंके महाराज नहीं हैं? [यह कैसा आश्चर्य है?]॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समस्तभूभृतां नाथ उग्रसेनस्स तिष्ठतु।
अद्यनिष्कौरवामुर्वीं कृत्वा यास्यामि तत्पुरीम्॥ २६॥

मूलम्

समस्तभूभृतां नाथ उग्रसेनस्स तिष्ठतु।
अद्यनिष्कौरवामुर्वीं कृत्वा यास्यामि तत्पुरीम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उग्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओंके महाराज बनकर रहें। आज मैं अकेला ही पृथिवीको कौरवहीन करके उनकी द्वारकापुरीको जाऊँगा॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णं दुर्योधनं द्रोणमद्य भीष्मं सबाह्लिकम्।
दुश्शासनादीन्भूरिं च भूरिश्रवसमेव च॥ २७॥
सोमदत्तं शलं चैव भीमार्जुनयुधिष्ठिरान्।
यमौ च कौरवांश्चान्यान्हत्वा साश्वरथद्विपान्॥ २८॥
वीरमादाय तं साम्बं सपत्नीकं ततः पुरीम्।
द्वारकामुग्रसेनादीन्गत्वा द्रक्ष्यामि बान्धवान्॥ २९॥

मूलम्

कर्णं दुर्योधनं द्रोणमद्य भीष्मं सबाह्लिकम्।
दुश्शासनादीन्भूरिं च भूरिश्रवसमेव च॥ २७॥
सोमदत्तं शलं चैव भीमार्जुनयुधिष्ठिरान्।
यमौ च कौरवांश्चान्यान्हत्वा साश्वरथद्विपान्॥ २८॥
वीरमादाय तं साम्बं सपत्नीकं ततः पुरीम्।
द्वारकामुग्रसेनादीन्गत्वा द्रक्ष्यामि बान्धवान्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज कर्ण, दुर्योधन, द्रोण, भीष्म, बाह्लिक, दुश्शासनादि, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त, शल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवोंको उनके हाथी-घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधूके साथ वीरवर साम्बको लेकर ही मैं द्वारकापुरीमें जाकर उग्रसेन आदि अपने बन्धु-बान्धवोंको देखूँगा॥ २७—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वा कौरवावासं समस्तैः कुरुभिस्सह।
भागीरथ्यां क्षिपाम्याशु नगरं नागसाह्वयम्॥ ३०॥

मूलम्

अथ वा कौरवावासं समस्तैः कुरुभिस्सह।
भागीरथ्यां क्षिपाम्याशु नगरं नागसाह्वयम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा समस्त कौरवोंके सहित उनके निवासस्थान इस हस्तिनापुर नगरको ही अभी गंगाजीमें फेंके देता हूँ’’॥ ३०॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा मदरक्ताक्षः कर्षणाधोमुखं हलम्।
प्राकारवप्रदुर्गस्य चकर्ष मुसलायुधः॥ ३१॥

मूलम्

इत्युक्त्वा मदरक्ताक्षः कर्षणाधोमुखं हलम्।
प्राकारवप्रदुर्गस्य चकर्ष मुसलायुधः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—ऐसा कहकर मदसे अरुणनयन मुसलायुध श्रीबलभद्रजीने हलकी नोंकको हस्तिनापुरके खाईं और दुर्गसे युक्त प्राकारके मूलमें लगाकर खींचा॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आघूर्णितं तत्सहसा ततो वै हास्तिनं पुरम्।
दृष्ट्वा संक्षुब्धहृदयाश्चुक्षुभुः सर्वकौरवाः॥ ३२॥

मूलम्

आघूर्णितं तत्सहसा ततो वै हास्तिनं पुरम्।
दृष्ट्वा संक्षुब्धहृदयाश्चुक्षुभुः सर्वकौरवाः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसा डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्धचित्त होकर भयभीत हो गये॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम महाबाहो क्षम्यतां क्षम्यतां त्वया।
उपसंह्रियतां कोपः प्रसीद मुसलायुध॥ ३३॥

मूलम्

राम राम महाबाहो क्षम्यतां क्षम्यतां त्वया।
उपसंह्रियतां कोपः प्रसीद मुसलायुध॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहने लगे—] ‘‘हे राम! हे राम! हे महाबाहो! क्षमा करो, क्षमा करो। हे मुसलायुध! अपना कोप शान्त करके प्रसन्न होइये॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष साम्बस्सपत्नीकस्तव निर्यातितो बल।
अविज्ञातप्रभावाणां क्षम्यतामपराधिनाम्॥ ३४॥

मूलम्

एष साम्बस्सपत्नीकस्तव निर्यातितो बल।
अविज्ञातप्रभावाणां क्षम्यतामपराधिनाम्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे बलराम! हम आपको पत्नीके सहित इस साम्बको सौंपते हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते थे, इसीसे आपका अपराध किया; कृपया क्षमा कीजिये’’॥ ३४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निर्यातयामासुस्साम्बं पत्नीसमन्वितम्।
निष्क्रम्य स्वपुरात्तूर्णं कौरवा मुनिपुङ्गव॥ ३५॥

मूलम्

ततो निर्यातयामासुस्साम्बं पत्नीसमन्वितम्।
निष्क्रम्य स्वपुरात्तूर्णं कौरवा मुनिपुङ्गव॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मुनिश्रेष्ठ! तदनन्तर कौरवोंने तुरन्त ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मद्रोणकृपादीनां प्रणम्य वदतां प्रियम्।
क्षान्तमेव मयेत्याह बलो बलवतां वरः॥ ३६॥

मूलम्

भीष्मद्रोणकृपादीनां प्रणम्य वदतां प्रियम्।
क्षान्तमेव मयेत्याह बलो बलवतां वरः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रणामपूर्वक प्रिय वाक्य बोलते हुए भीष्म, द्रोण, कृप आदिसे वीरवर बलरामजीने कहा—‘‘अच्छा मैंने क्षमा किया’’॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्याप्याघूर्णिताकारं लक्ष्यते तत्पुरं द्विज।
एष प्रभावो रामस्य बलशौर्योपलक्षणः॥ ३७॥

मूलम्

अद्याप्याघूर्णिताकारं लक्ष्यते तत्पुरं द्विज।
एष प्रभावो रामस्य बलशौर्योपलक्षणः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! इस समय भी हस्तिनापुर [गंगाकी ओर] कुछ झुका हुआ-सा दिखायी देता है, यह श्रीबलरामजीके बल और शूरवीरताका परिचय देनेवाला उनका प्रभाव ही है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु कौरवास्साम्बं सम्पूज्य हलिना सह।
प्रेषयामासुरुद्वाहधनभार्यासमन्वितम्॥ ३८॥

मूलम्

ततस्तु कौरवास्साम्बं सम्पूज्य हलिना सह।
प्रेषयामासुरुद्वाहधनभार्यासमन्वितम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कौरवोंने बलरामजीके सहित साम्बका पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें द्वारकापुरी भेज दिया॥ ३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥ ३५॥