३१

[इकतीसवाँ अध्याय]

विषय

भगवान् का द्वारकापुरीमें लौटना और सोलह हजार एक सौ कन्याओंसे विवाह करना

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तुतो भगवानित्थं देवराजेन केशवः।
प्रहस्य भावगम्भीरमुवाचेन्द्रं द्विजोत्तम॥ १॥

मूलम्

संस्तुतो भगवानित्थं देवराजेन केशवः।
प्रहस्य भावगम्भीरमुवाचेन्द्रं द्विजोत्तम॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे द्विजोत्तम! इन्द्रने जब इस प्रकार स्तुति की तो भगवान् कृष्णचन्द्र गम्भीर- भावसे हँसते हुए इस प्रकार बोले—॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीकृष्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवराजो भवानिन्द्रो वयं मर्त्या जगत्पते।
क्षन्तव्यं भवतैवेदमपराधं कृतं मम॥ २॥

मूलम्

देवराजो भवानिन्द्रो वयं मर्त्या जगत्पते।
क्षन्तव्यं भवतैवेदमपराधं कृतं मम॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णजी बोले—हे जगत्पते! आप देवराज इन्द्र हैं और हम मरणधर्मा मनुष्य हैं। हमने आपका जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिजाततरुश्चायं नीयतामुचितास्पदम्।
गृहीतोऽयं मया शक्र सत्यावचनकारणात्॥ ३॥

मूलम्

पारिजाततरुश्चायं नीयतामुचितास्पदम्।
गृहीतोऽयं मया शक्र सत्यावचनकारणात्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने जो यह पारिजातवृक्ष लिया था इसे इसके योग्य स्थान (नन्दनवन)-को ले जाइये। हे शक्र! मैंने तो इसे सत्यभामाके कहनेसे ही ले लिया था॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रं चेदं गृहाण त्वं यदत्र प्रहितं त्वया।
तवैवैतत्प्रहरणं शक्र वैरिविदारणम्॥ ४॥

मूलम्

वज्रं चेदं गृहाण त्वं यदत्र प्रहितं त्वया।
तवैवैतत्प्रहरणं शक्र वैरिविदारणम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और आपने जो वज्र फेंका था उसे भी ले लीजिये; क्योंकि हे शक्र! यह शत्रुओंको नष्ट करनेवाला शस्त्र आपहीका है॥ ४॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमोहयसि मामीश मर्त्योऽहमिति किं वदन्।
जानीमस्त्वां भगवतो न तु सूक्ष्मविदो वयम्॥ ५॥

मूलम्

विमोहयसि मामीश मर्त्योऽहमिति किं वदन्।
जानीमस्त्वां भगवतो न तु सूक्ष्मविदो वयम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले—हे ईश! ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा कहकर मुझे क्यों मोहित करते हैं? हे भगवन्! मैं तो आपके इस सगुणस्वरूपको ही जानता हूँ, हम आपके सूक्ष्म-स्वरूपको जाननेवाले नहीं हैं॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसि सोऽसि जगत्त्राणप्रवृत्तो नाथ संस्थितः।
जगतश्शल्यनिष्कर्षं करोष्यसुरसूदन॥ ६॥

मूलम्

योऽसि सोऽसि जगत्त्राणप्रवृत्तो नाथ संस्थितः।
जगतश्शल्यनिष्कर्षं करोष्यसुरसूदन॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आप जो हैं वही हैं, [हम तो इतना ही जानते हैं कि] हे दैत्यदलन! आप लोकरक्षामें तत्पर हैं और इस संसारके काँटोंको निकाल रहे हैं॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीयतां पारिजातोऽयं कृष्ण द्वारवतीं पुरीम्।
मर्त्यलोके त्वया त्यक्ते नायं संस्थास्यते भुवि॥ ७॥

मूलम्

नीयतां पारिजातोऽयं कृष्ण द्वारवतीं पुरीम्।
मर्त्यलोके त्वया त्यक्ते नायं संस्थास्यते भुवि॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृष्ण! इस पारिजात-वृक्षको आप द्वारकापुरी ले जाइये, जिस समय आप मर्त्यलोक छोड़ देंगे, उस समय वह भूर्लोकमें नहीं रहेगा॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदेव जगन्नाथ कृष्ण विष्णो महाभुज।
शङ्खचक्रगदापाणे क्षमस्वैतद्‍व्यतिक्रमम्॥ ८॥

मूलम्

देवदेव जगन्नाथ कृष्ण विष्णो महाभुज।
शङ्खचक्रगदापाणे क्षमस्वैतद्‍व्यतिक्रमम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देवदेव! हे जगन्नाथ! हे कृष्ण! हे विष्णो! हे महाबाहो! हे शंखचक्रगदापाणे! मेरी इस धृष्टताको क्षमा कीजिये॥ ८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वा च देवेन्द्रमाजगाम भुवं हरिः।
प्रसक्तैः सिद्धगन्धर्वैः स्तूयमानः सुरर्षिभिः॥ ९॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा च देवेन्द्रमाजगाम भुवं हरिः।
प्रसक्तैः सिद्धगन्धर्वैः स्तूयमानः सुरर्षिभिः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर श्रीहरि देवराजसे ‘तुम्हारी जैसी इच्छा है वैसा ही सही’ ऐसा कहकर सिद्ध, गन्धर्व और देवर्षिगणसे स्तुत हो भूर्लोकमें चले आये॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्शङ्खमुपाध्माय द्वारकोपरि संस्थितः।
हर्षमुत्पादयामास द्वारकावासिनां द्विज॥ १०॥

मूलम्

ततश्शङ्खमुपाध्माय द्वारकोपरि संस्थितः।
हर्षमुत्पादयामास द्वारकावासिनां द्विज॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! द्वारकापुरीके ऊपर पहुँचकर श्रीकृष्णचन्द्रने [अपने आनेकी सूचना देते हुए] शंख बजाकर द्वारकावासियोंको आनन्दित किया॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतीर्याथ गरुडात्सत्यभामासहायवान्।
निष्कुटे स्थापयामास पारिजातं महातरुम्॥ ११॥

मूलम्

अवतीर्याथ गरुडात्सत्यभामासहायवान्।
निष्कुटे स्थापयामास पारिजातं महातरुम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सत्यभामाके सहित गरुडसे उतरकर उस पारिजात-महावृक्षको [सत्यभामाके] गृहोद्यानमें लगा दिया॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमभ्येत्य जनस्सर्वो जातिं स्मरति पौर्विकीम्।
वास्यते यस्य पुष्पोत्थगन्धेनोर्वी त्रियोजनम्॥ १२॥

मूलम्

यमभ्येत्य जनस्सर्वो जातिं स्मरति पौर्विकीम्।
वास्यते यस्य पुष्पोत्थगन्धेनोर्वी त्रियोजनम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके पास आकर सब मनुष्योंको अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आता है और जिसके पुष्पोंसे निकली हुई गन्धसे तीन योजनतक पृथिवी सुगन्धित रहती है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते यादवास्सर्वे देहबन्धानमानुषान्।
ददृशुः पादपे तस्मिन् कुर्वन्तो मुखदर्शनम्॥ १३॥

मूलम्

ततस्ते यादवास्सर्वे देहबन्धानमानुषान्।
ददृशुः पादपे तस्मिन् कुर्वन्तो मुखदर्शनम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यादवोंने उस वृक्षके पास जाकर अपना मुख देखा तो उन्हें अपना शरीर अमानुष दिखलायी दिया॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंकरैस्समुपानीतं हस्त्यश्वादि ततो धनम्।
विभज्य प्रददौ कृष्णो बान्धवानां महामतिः॥ १४॥
कन्याश्च कृष्णो जग्राह नरकस्य परिग्रहान्॥ १५॥

मूलम्

किंकरैस्समुपानीतं हस्त्यश्वादि ततो धनम्।
विभज्य प्रददौ कृष्णो बान्धवानां महामतिः॥ १४॥
कन्याश्च कृष्णो जग्राह नरकस्य परिग्रहान्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महामति श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकोंद्वारा लाये हुए हाथी-घोड़े आदि धनको अपने बन्धु-बान्धवोंमें बाँट दिया और नरकासुरकी वरण की हुई कन्याओंको स्वयं ले लिया॥ १४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काले शुभे प्राप्ते उपयेमे जनार्दनः।
ताः कन्या नरकेणासन्सर्वतो यास्समाहृताः॥ १६॥

मूलम्

ततः काले शुभे प्राप्ते उपयेमे जनार्दनः।
ताः कन्या नरकेणासन्सर्वतो यास्समाहृताः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभ समय प्राप्त होनेपर श्रीजनार्दनने उन समस्त कन्याओंके साथ, जिन्हें नरकासुर बलात् हर लाया था, विवाह किया॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्मिन्नेव गोविन्दः काले तासां महामुने।
जग्राह विधिवत्पाणीन‍्पृथग्गेहेषु धर्मतः॥ १७॥

मूलम्

एकस्मिन्नेव गोविन्दः काले तासां महामुने।
जग्राह विधिवत्पाणीन‍्पृथग्गेहेषु धर्मतः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामुने! श्रीगोविन्दने एक ही समय पृथक्-पृथक् भवनोंमें उन सबके साथ विधिवत् धर्मपूर्वक पाणिग्रहण किया॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षोडशस्त्रीसहस्राणि शतमेकं ततोऽधिकम्।
तावन्ति चक्रे रूपाणि भगवान् मधुसूदनः॥ १८॥

मूलम्

षोडशस्त्रीसहस्राणि शतमेकं ततोऽधिकम्।
तावन्ति चक्रे रूपाणि भगवान् मधुसूदनः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सोलह हजार एक सौ स्त्रियाँ थीं; उन सबके साथ पाणिग्रहण करते समय श्रीमधुसूदनने इतने ही रूप बना लिये॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकमेव ताः कन्या मेनिरे मधुसूदनः।
ममैव पाणिग्रहणं मैत्रेय कृतवानिति॥ १९॥

मूलम्

एकैकमेव ताः कन्या मेनिरे मधुसूदनः।
ममैव पाणिग्रहणं मैत्रेय कृतवानिति॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! परंतु उस समय प्रत्येक कन्या ‘भगवान् ने मेरा ही पाणिग्रहण किया है’ इस प्रकार उन्हें एक ही समझ रही थी॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशासु च जगत्स्रष्टा तासां गेहेषु केशवः।
उवास विप्र सर्वासां विश्वरूपधरो हरिः॥ २०॥

मूलम्

निशासु च जगत्स्रष्टा तासां गेहेषु केशवः।
उवास विप्र सर्वासां विश्वरूपधरो हरिः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विप्र! जगत्स्रष्टा विश्वरूपधारी श्रीहरि रात्रिके समय उन सभीके घरोंमें रहते थे॥ २०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकत्रिंशोऽध्यायः॥ ३१॥