[तीसवाँ अध्याय]
विषय
पारिजात-हरण
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरुडो वारुणं छत्रं तथैव मणिपर्वतम्।
सभार्यं च हृषीकेशं लीलयैव वहन्ययौ॥ १॥
मूलम्
गरुडो वारुणं छत्रं तथैव मणिपर्वतम्।
सभार्यं च हृषीकेशं लीलयैव वहन्ययौ॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—पक्षिराज गरुड उस वारुणछत्र, मणिपर्वत और सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्रको लीलासे-ही लेकर चलने लगे॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्शङ्खमुपाध्मासीत्स्वर्गद्वारगतो हरिः।
उपतस्थुस्तथा देवास्सार्घ्यहस्ता जनार्दनम्॥ २॥
मूलम्
ततश्शङ्खमुपाध्मासीत्स्वर्गद्वारगतो हरिः।
उपतस्थुस्तथा देवास्सार्घ्यहस्ता जनार्दनम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गके द्वारपर पहुँचते ही श्रीहरिने अपना शंख बजाया। उसका शब्द सुनते ही देवगण अर्घ्य लेकर भगवान् के सामने उपस्थित हुए॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स देवैरर्चितः कृष्णो देवमातुर्निवेशनम्।
सिताभ्रशिखराकारं प्रविश्य ददृशेऽदितिम्॥ ३॥
मूलम्
स देवैरर्चितः कृष्णो देवमातुर्निवेशनम्।
सिताभ्रशिखराकारं प्रविश्य ददृशेऽदितिम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंसे पूजित होकर श्रीकृष्णचन्द्रजीने देवमाता अदितिके श्वेत मेघशिखरके समान गृहमें जाकर उनका दर्शन किया॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तां प्रणम्य शक्रेण सह ते कुण्डलोत्तमे।
ददौ नरकनाशं च शशंसास्यै जनार्दनः॥ ४॥
मूलम्
स तां प्रणम्य शक्रेण सह ते कुण्डलोत्तमे।
ददौ नरकनाशं च शशंसास्यै जनार्दनः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीजनार्दनने इन्द्रके साथ देवमाताको प्रणामकर उसके अत्युत्तम कुण्डल दिये और उसे नरक-वधका वृत्तान्त सुनाया॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रीता जगन्माता धातारं जगतां हरिम्।
तुष्टावादितिरव्यग्रा कृत्वा तत्प्रवणं मनः॥ ५॥
मूलम्
ततः प्रीता जगन्माता धातारं जगतां हरिम्।
तुष्टावादितिरव्यग्रा कृत्वा तत्प्रवणं मनः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जगन्माता अदितिने प्रसन्नतापूर्वक तन्मय होकर जगद्धाता श्रीहरिकी अव्यग्रभावसे स्तुति की॥ ५॥
मूलम् (वचनम्)
अदितिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष भक्तानामभयंकर।
सनातनात्मन् सर्वात्मन् भूतात्मन् भूतभावन॥ ६॥
मूलम्
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष भक्तानामभयंकर।
सनातनात्मन् सर्वात्मन् भूतात्मन् भूतभावन॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अदिति बोली—हे कमलनयन! हे भक्तोंको अभय करनेवाले! हे सनातनस्वरूप! हे सर्वात्मन्! हे भूतस्वरूप! हे भूतभावन! आपको नमस्कार है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणेतर्मनसो बुद्धेरिन्द्रियाणां गुणात्मक।
त्रिगुणातीत निर्द्वन्द्व शुद्धसत्त्व हृदि स्थित॥ ७॥
मूलम्
प्रणेतर्मनसो बुद्धेरिन्द्रियाणां गुणात्मक।
त्रिगुणातीत निर्द्वन्द्व शुद्धसत्त्व हृदि स्थित॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके रचयिता! हे गुणस्वरूप! हे त्रिगुणातीत! हे निर्द्वन्द्व! हे शुद्धसत्त्व! हे अन्तर्यामिन्! आपको नमस्कार है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सितदीर्घादिनिश्शेषकल्पनापरिवर्जित।
जन्मादिभिरसंस्पृष्ट स्वप्नादिपरिवर्जित॥ ८॥
मूलम्
सितदीर्घादिनिश्शेषकल्पनापरिवर्जित।
जन्मादिभिरसंस्पृष्ट स्वप्नादिपरिवर्जित॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! आप श्वेत, दीर्घ आदि सम्पूर्ण कल्पनाओंसे रहित हैं, जन्मादि विकारोंसे पृथक् हैं तथा स्वप्नादि अवस्थात्रयसे परे हैं; आपको नमस्कार है॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्ध्या रात्रिरहो भूमिर्गगनं वायुरम्बु च।
हुताशनो मनो बुद्धिर्भूतादिस्त्वं तथाच्युत॥ ९॥
मूलम्
सन्ध्या रात्रिरहो भूमिर्गगनं वायुरम्बु च।
हुताशनो मनो बुद्धिर्भूतादिस्त्वं तथाच्युत॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अच्युत! सन्ध्या, रात्रि, दिन, भूमि, आकाश, वायु, जल, अग्नि, मन, बुद्धि और अहंकार—ये सब आप ही हैं॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गस्थितिविनाशानां कर्ता कर्तृपतिर्भवान्।
ब्रह्मविष्णुशिवाख्याभिरात्ममूर्तिभिरीश्वर॥ १०॥
मूलम्
सर्गस्थितिविनाशानां कर्ता कर्तृपतिर्भवान्।
ब्रह्मविष्णुशिवाख्याभिरात्ममूर्तिभिरीश्वर॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे ईश्वर! आप ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामक अपनी मूर्तियोंसे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशके कर्ता हैं तथा आप कर्ताओंके भी स्वामी हैं॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवा दैत्यास्तथा यक्षा राक्षसास्सिद्धपन्नगाः।
कूष्माण्डाश्च पिशाचाश्च गन्धर्वा मनुजास्तथा॥ ११॥
पशवश्च मृगाश्चैव पतंगाश्च सरीसृपाः।
वृक्षगुल्मलता बह्व्यः समस्तास्तृणजातयः॥ १२॥
स्थूला मध्यास्तथा सूक्ष्मा स्सूक्ष्मात्सूक्ष्मतराश्च ये।
देहभेदा भवान् सर्वे ये केचित्पुर्गलाश्रयाः॥ १३॥
मूलम्
देवा दैत्यास्तथा यक्षा राक्षसास्सिद्धपन्नगाः।
कूष्माण्डाश्च पिशाचाश्च गन्धर्वा मनुजास्तथा॥ ११॥
पशवश्च मृगाश्चैव पतंगाश्च सरीसृपाः।
वृक्षगुल्मलता बह्व्यः समस्तास्तृणजातयः॥ १२॥
स्थूला मध्यास्तथा सूक्ष्मा स्सूक्ष्मात्सूक्ष्मतराश्च ये।
देहभेदा भवान् सर्वे ये केचित्पुर्गलाश्रयाः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, पन्नग (नाग), कूष्माण्ड, पिशाच, गन्धर्व, मनुष्य, पशु, मृग, पतंग, सरीसृप (साँप), अनेकों वृक्ष, गुल्म और लताएँ, समस्त तृणजातियाँ तथा स्थूल मध्यम सूक्ष्म और सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म जितने देह-भेद पुर्गल (परमाणु)- के आश्रित हैं वे सब आप ही हैं॥ ११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माया तवेयमज्ञातपरमार्थातिमोहिनी।
अनात्मन्यात्मविज्ञानं यया मूढो निरुद्ध्यते॥ १४॥
मूलम्
माया तवेयमज्ञातपरमार्थातिमोहिनी।
अनात्मन्यात्मविज्ञानं यया मूढो निरुद्ध्यते॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! आपकी माया ही परमार्थतत्त्वके न जाननेवाले पुरुषोंको मोहित करनेवाली है, जिससे मूढपुरुष अनात्मामें आत्मबुद्धि करके बन्धनमें पड़ जाते हैं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्वे स्वमिति भावोऽत्र यत्पुंसामुपजायते।
अहं ममेति भावो यत्प्रायेणैवाभिजायते।
संसारमातुर्मायायास्तवैतन्नाथ चेष्टितम्॥ १५॥
मूलम्
अस्वे स्वमिति भावोऽत्र यत्पुंसामुपजायते।
अहं ममेति भावो यत्प्रायेणैवाभिजायते।
संसारमातुर्मायायास्तवैतन्नाथ चेष्टितम्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! पुरुषको जो अनात्मामें आत्मबुद्धि और ‘मैं-मेरा’ आदि भाव प्रायः उत्पन्न होते हैं वह सब आपकी जगज्जननी मायाका ही विलास है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैः स्वधर्मपरैर्नाथ नरैराराधितो भवान्।
ते तरन्त्यखिलामेतां मायामात्मविमुक्तये॥ १६॥
मूलम्
यैः स्वधर्मपरैर्नाथ नरैराराधितो भवान्।
ते तरन्त्यखिलामेतां मायामात्मविमुक्तये॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! जो स्वधर्मपरायण पुरुष आपकी आराधना करते हैं, वे अपने मोक्षके लिये इस सम्पूर्ण मायाको पार कर जाते हैं॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्माद्यास्सकला देवा मनुष्याः पशवस्तथा।
विष्णुमायामहावर्तमोहान्धतमसावृताः॥ १७॥
मूलम्
ब्रह्माद्यास्सकला देवा मनुष्याः पशवस्तथा।
विष्णुमायामहावर्तमोहान्धतमसावृताः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवगण तथा मनुष्य और पशु आदि सभी विष्णुमायारूप महान् आवर्तमें पड़कर मोहरूप अन्धकारसे आवृत हैं॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराध्य त्वामभीप्सन्ते कामानात्मभवक्षयम्।
यदेते पुरुषा माया सैवेयं भगवंस्तव॥ १८॥
मूलम्
आराध्य त्वामभीप्सन्ते कामानात्मभवक्षयम्।
यदेते पुरुषा माया सैवेयं भगवंस्तव॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भगवन्! [जन्म और मरणके चक्रमें पड़े हुए] ये पुरुष जीवके भव-बन्धनको नष्ट करनेवाले आपकी आराधना करके भी जो नाना प्रकारकी कामनाएँ ही माँगते हैं, यह आपकी माया ही है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया त्वं पुत्रकामिन्या वैरिपक्षजयाय च।
आराधितो न मोक्षाय मायाविलसितं हि तत्॥ १९॥
मूलम्
मया त्वं पुत्रकामिन्या वैरिपक्षजयाय च।
आराधितो न मोक्षाय मायाविलसितं हि तत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने भी पुत्रोंकी जयकामनासे शत्रुपक्षको पराजित करनेके लिये ही आपकी आराधना की है, मोक्षके लिये नहीं। यह भी आपकी मायाका ही विलास है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौपीनाच्छादनप्राया वाञ्छा कल्पद्रुमादपि।
जायते यदपुण्यानां सोऽपराधः स्वदोषजः॥ २०॥
मूलम्
कौपीनाच्छादनप्राया वाञ्छा कल्पद्रुमादपि।
जायते यदपुण्यानां सोऽपराधः स्वदोषजः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्यहीन पुरुषोंको जो कल्पवृक्षसे भी कौपीन और आच्छादन-वस्त्रमात्रकी ही कामना होती है यह उनका कर्म-दोष-जन्य अपराध ही है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्प्रसीदाखिलजगन्मायामोहकराव्यय।
अज्ञानं ज्ञानसद्भावभूतं भूतेश नाशय॥ २१॥
मूलम्
तत्प्रसीदाखिलजगन्मायामोहकराव्यय।
अज्ञानं ज्ञानसद्भावभूतं भूतेश नाशय॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अखिलजगन्माया-मोहकारी अव्यय प्रभो! आप प्रसन्न होइये और हे भूतेश्वर! ‘मैं ज्ञानवान् हूँ’ मेरे इस अज्ञानको नष्ट कीजिये॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते चक्रहस्ताय शार्ङ्गहस्ताय ते नमः।
गदाहस्ताय ते विष्णो शङ्खहस्ताय ते नमः॥ २२॥
मूलम्
नमस्ते चक्रहस्ताय शार्ङ्गहस्ताय ते नमः।
गदाहस्ताय ते विष्णो शङ्खहस्ताय ते नमः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे चक्रपाणे! आपको नमस्कार है, हे शार्ङ्गधर! आपको नमस्कार है; हे गदाधर! आपको नमस्कार है; हे शंखपाणे! हे विष्णो! आपको बारम्बार नमस्कार है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्पश्यामि ते रूपं स्थूलचिह्नोपलक्षितम्।
न जानामि परं यत्ते प्रसीद परमेश्वर॥ २३॥
मूलम्
एतत्पश्यामि ते रूपं स्थूलचिह्नोपलक्षितम्।
न जानामि परं यत्ते प्रसीद परमेश्वर॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं स्थूल चिह्नोंसे प्रतीत होनेवाले आपके इस रूपको ही देखती हूँ; आपके वास्तविक परस्वरूपको मैं नहीं जानती; हे परमेश्वर! आप प्रसन्न होइये॥ २३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदित्यैवं स्तुतो विष्णुः प्रहस्याह सुरारणिम्*।
माता देवि त्वमस्माकं प्रसीद वरदा भव॥ २४॥
मूलम्
अदित्यैवं स्तुतो विष्णुः प्रहस्याह सुरारणिम्*।
माता देवि त्वमस्माकं प्रसीद वरदा भव॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—अदितिद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान् विष्णु देवमातासे हँसकर बोले—‘‘हे देवि! तुम तो हमारी माता हो; तुम प्रसन्न होकर हमें वरदायिनी होओ’’॥ २४॥
पादटिप्पनी
- दीपयिवीम्।
मूलम् (वचनम्)
अदितिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्तु तथेच्छा ते त्वमशेषैस्सुरासुरैः।
अजेयः पुरुषव्याघ्र मर्त्यलोके भविष्यसि॥ २५॥
मूलम्
एवमस्तु तथेच्छा ते त्वमशेषैस्सुरासुरैः।
अजेयः पुरुषव्याघ्र मर्त्यलोके भविष्यसि॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अदिति बोली—हे पुरुषसिंह! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। तुम मर्त्यलोकमें सम्पूर्ण सुरासुरोंसे अजेय होगे॥ २५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृष्णस्य पत्नी च शक्रपत्न्या सहादितिम्।
सत्यभामा प्रणम्याह प्रसीदेति पुनः पुनः॥ २६॥
मूलम्
ततः कृष्णस्य पत्नी च शक्रपत्न्या सहादितिम्।
सत्यभामा प्रणम्याह प्रसीदेति पुनः पुनः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर शक्रपत्नी शचीके सहित कृष्णप्रिया सत्यभामाने अदितिको पुनः-पुनः प्रणाम करके कहा—‘‘माता! आप प्रसन्न होइये’’॥ २६॥
मूलम् (वचनम्)
अदितिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्प्रसादान्न ते सुभ्रु जरा वैरूप्यमेव वा।
भविष्यत्यनवद्याङ्गि सुस्थिरं नवयौवनम्॥ २७॥
मूलम्
मत्प्रसादान्न ते सुभ्रु जरा वैरूप्यमेव वा।
भविष्यत्यनवद्याङ्गि सुस्थिरं नवयौवनम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अदिति बोली—हे सुन्दर भृकुटिवाली! मेरी कृपासे तुझे कभी वृद्धावस्था या विरूपता व्याप्त न होगी। हे अनिन्दितांगि! तेरा नवयौवन सदा स्थिर रहेगा॥ २७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदित्या तु कृतानुज्ञो देवराजो जनार्दनम्।
यथावत्पूजयामास बहुमानपुरस्सरम्॥ २८॥
मूलम्
अदित्या तु कृतानुज्ञो देवराजो जनार्दनम्।
यथावत्पूजयामास बहुमानपुरस्सरम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर अदितिकी आज्ञासे देवराजने अत्यन्त आदर-सत्कारके साथ श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन किया॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शची च सत्यभामायै पारिजातस्य पुष्पकम्।
न ददौ मानुषीं मत्वा स्वयं पुष्पैरलङ्कृता॥ २९॥
मूलम्
शची च सत्यभामायै पारिजातस्य पुष्पकम्।
न ददौ मानुषीं मत्वा स्वयं पुष्पैरलङ्कृता॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु कल्पवृक्षके पुष्पोंसे अलंकृता इन्द्राणीने सत्यभामाको मानुषी समझकर वे पुष्प न दिये॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ददर्श कृष्णोऽपि सत्यभामासहायवान्।
देवोद्यानानि हृद्यानि नन्दनादीनि सत्तम॥ ३०॥
मूलम्
ततो ददर्श कृष्णोऽपि सत्यभामासहायवान्।
देवोद्यानानि हृद्यानि नन्दनादीनि सत्तम॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे साधुश्रेष्ठ! तदनन्तर सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्रने भी देवताओंके नन्दन आदि मनोहर उद्यानोंको देखा॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श च सुगन्धाढ्यं मञ्जरीपुञ्जधारिणम्।
नित्याह्लादकरं ताम्रबालपल्लवशोभितम्॥ ३१॥
मथ्यमानेऽमृते जातं जातरूपोपमत्वचम्।
पारिजातं जगन्नाथः केशवः केशिसूदनः॥ ३२॥
मूलम्
ददर्श च सुगन्धाढ्यं मञ्जरीपुञ्जधारिणम्।
नित्याह्लादकरं ताम्रबालपल्लवशोभितम्॥ ३१॥
मथ्यमानेऽमृते जातं जातरूपोपमत्वचम्।
पारिजातं जगन्नाथः केशवः केशिसूदनः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँपर केशिनिषूदन जगन्नाथ श्रीकृष्णने सुगन्धपूर्ण मंजरी-पुंजधारी, नित्याह्लादकारी और ताम्रवर्ण बाल पत्तोंसे सुशोभित, अमृत-मन्थनके समय प्रकट हुआ तथा सुनहरी छालवाला पारिजात-वृक्ष देखा॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुतोष परमप्रीत्या तरुराजमनुत्तमम्।
तं दृष्ट्वा प्राह गोविन्दं सत्यभामा द्विजोत्तम।
कस्मान्न द्वारकामेष नीयते कृष्ण पादपः॥ ३३॥
मूलम्
तुतोष परमप्रीत्या तरुराजमनुत्तमम्।
तं दृष्ट्वा प्राह गोविन्दं सत्यभामा द्विजोत्तम।
कस्मान्न द्वारकामेष नीयते कृष्ण पादपः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! उस अत्युत्तम वृक्षराजको देखकर परम प्रीतिवश सत्यभामा अति प्रसन्न हुई और श्रीगोविन्दसे बोली—‘‘हे कृष्ण! इस वृक्षको द्वारकापुरी क्यों नहीं ले चलते?॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि चेत्त्वद्वचः सत्यं त्वमत्यर्थं प्रियेति मे।
मद्गेहनिष्कुटार्थाय तदयं नीयतां तरुः॥ ३४॥
मूलम्
यदि चेत्त्वद्वचः सत्यं त्वमत्यर्थं प्रियेति मे।
मद्गेहनिष्कुटार्थाय तदयं नीयतां तरुः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आपका यह वचन कि ‘तुम ही मेरी अत्यन्त प्रिया हो’ सत्य है तो मेरे गृहोद्यानमें लगानेके लिये इस वृक्षको ले चलिये॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे जाम्बवती तादृगभीष्टा न च रुक्मिणी।
सत्ये यथा त्वमित्युक्तं त्वया कृष्णासकृत्प्रियम्॥ ३५॥
मूलम्
न मे जाम्बवती तादृगभीष्टा न च रुक्मिणी।
सत्ये यथा त्वमित्युक्तं त्वया कृष्णासकृत्प्रियम्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कृष्ण! आपने कई बार मुझसे यह प्रिय वाक्य कहा है कि ‘हे सत्ये! मुझे तू जितनी प्यारी है उतनी न जाम्बवती है और न रुक्मिणी ही’॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं तद्यदि गोविन्द नोपचारकृतं मम।
तदस्तु पारिजातोऽयं मम गेहविभूषणम्॥ ३६॥
मूलम्
सत्यं तद्यदि गोविन्द नोपचारकृतं मम।
तदस्तु पारिजातोऽयं मम गेहविभूषणम्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गोविन्द! यदि आपका यह कथन सत्य है—केवल मुझे बहलाना ही नहीं है—तो यह पारिजातवृक्ष मेरे गृहका भूषण हो॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभ्रती पारिजातस्य केशपक्षेण मञ्जरीम्।
सपत्नीनामहं मध्ये शोभेयमिति कामये॥ ३७॥
मूलम्
बिभ्रती पारिजातस्य केशपक्षेण मञ्जरीम्।
सपत्नीनामहं मध्ये शोभेयमिति कामये॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी ऐसी इच्छा है कि मैं अपने केश-कलापोंमें पारिजातपुष्प गूँथकर अपनी अन्य सपत्नियोंमें सुशोभित होऊँ’’॥ ३७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तस्स प्रहस्यैनां पारिजातं गरुत्मति।
आरोपयामास हरिस्तमूचुर्वनरक्षिणः॥ ३८॥
मूलम्
इत्युक्तस्स प्रहस्यैनां पारिजातं गरुत्मति।
आरोपयामास हरिस्तमूचुर्वनरक्षिणः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर श्रीहरिने हँसते हुए उस पारिजातवृक्षको गरुडपर रख लिया; तब नन्दनवनके रक्षकोंने कहा—॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो शची देवराजस्य महिषी तत्परिग्रहम्।
पारिजातं न गोविन्द हर्तुमर्हसि पादपम्॥ ३९॥
मूलम्
भो शची देवराजस्य महिषी तत्परिग्रहम्।
पारिजातं न गोविन्द हर्तुमर्हसि पादपम्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे गोविन्द! देवराज इन्द्रकी पत्नी जो महारानी शची हैं यह पारिजातवृक्ष उनकी सम्पत्ति है, आप इसका हरण न कीजिये॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पन्नो देवराजाय दत्तस्सोऽपि ददौ पुनः।
महिष्यै सुमहाभाग देव्यै शच्यै कुतूहलात्॥ ४०॥
मूलम्
उत्पन्नो देवराजाय दत्तस्सोऽपि ददौ पुनः।
महिष्यै सुमहाभाग देव्यै शच्यै कुतूहलात्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षीर-समुद्रसे उत्पन्न होनेके अनन्तर यह देवराजको दिया गया था; फिर हे महाभाग! देवराजने कुतूहलवश इसे अपनी महिषी शचीदेवीको दे दिया है॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शचीविभूषणार्थाय देवैरमृतमन्थने।
उत्पादितोऽयं न क्षेमी गृहीत्वैनं गमिष्यसि॥ ४१॥
मूलम्
शचीविभूषणार्थाय देवैरमृतमन्थने।
उत्पादितोऽयं न क्षेमी गृहीत्वैनं गमिष्यसि॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्र-मन्थनके समय शचीको विभूषित करनेके लिये ही देवताओंने इसे उत्पन्न किया था; इसे लेकर आप कुशलपूर्वक नहीं जा सकेंगे॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवराजो मुखप्रेक्षी यस्यास्तस्याः परिग्रहम्।
मौढ्यात्प्रार्थयसे क्षेमी गृहीत्वैनं हि को व्रजेत्॥ ४२॥
मूलम्
देवराजो मुखप्रेक्षी यस्यास्तस्याः परिग्रहम्।
मौढ्यात्प्रार्थयसे क्षेमी गृहीत्वैनं हि को व्रजेत्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज भी जिसका मुँह देखते रहते हैं, उस शचीकी सम्पत्ति इस पारिजातकी इच्छा आप मूढताहीसे करते हैं; इसे लेकर भला कौन सकुशल जा सकता है?॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यमस्य देवेन्द्रो निष्कृतिं कृष्ण यास्यति।
वज्रोद्यतकरं शक्रमनुयास्यन्ति चामराः॥ ४३॥
मूलम्
अवश्यमस्य देवेन्द्रो निष्कृतिं कृष्ण यास्यति।
वज्रोद्यतकरं शक्रमनुयास्यन्ति चामराः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कृष्ण! देवराज इन्द्र इस वृक्षका बदला चुकानेके लिये अवश्य ही वज्र लेकर उद्यत होंगे और फिर देवगण भी अवश्य ही उनका अनुगमन करेंगे॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदलं सकलैर्देवैर्विग्रहेण तवाच्युत।
विपाककटु यत्कर्म तन्न शंसन्ति पण्डिताः॥ ४४॥
मूलम्
तदलं सकलैर्देवैर्विग्रहेण तवाच्युत।
विपाककटु यत्कर्म तन्न शंसन्ति पण्डिताः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे अच्युत! समस्त देवताओंके साथ रार बढ़ानेसे आपका कोई लाभ नहीं; क्योंकि जिस कर्मका परिणाम कटु होता है, पण्डितजन उसे अच्छा नहीं कहते’’॥ ४४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते तैरुवाचैतान् सत्यभामातिकोपिनी।
का शची पारिजातस्य को वा शक्रस्सुराधिपः॥ ४५॥
मूलम्
इत्युक्ते तैरुवाचैतान् सत्यभामातिकोपिनी।
का शची पारिजातस्य को वा शक्रस्सुराधिपः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—उद्यान-रक्षकोंके इस प्रकार कहनेपर सत्यभामाने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा—‘‘शची अथवा देवराज इन्द्र ही इस पारिजातके कौन होते हैं?॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामान्यस्सर्वलोकस्य यद्येषोऽमृतमन्थने।
समुत्पन्नस्तरुः कस्मादेको गृह्णाति वासवः॥ ४६॥
मूलम्
सामान्यस्सर्वलोकस्य यद्येषोऽमृतमन्थने।
समुत्पन्नस्तरुः कस्मादेको गृह्णाति वासवः॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यह अमृत-मन्थनके समय उत्पन्न हुआ है, तो सबकी समान सम्पत्ति है। अकेला इन्द्र ही इसे कैसे ले सकता है?॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सुरा यथैवेन्दुर्यथा श्रीर्वनरक्षिणः।
सामान्यस्सर्वलोकस्य पारिजातस्तथा द्रुमः॥ ४७॥
मूलम्
यथा सुरा यथैवेन्दुर्यथा श्रीर्वनरक्षिणः।
सामान्यस्सर्वलोकस्य पारिजातस्तथा द्रुमः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे वनरक्षको! जिस प्रकार [समुद्रसे उत्पन्न हुए] मदिरा, चन्द्रमा और लक्ष्मीका सब लोग समानतासे भोग करते हैं, उसी प्रकार पारिजातवृक्ष भी सभीकी सम्पत्ति है॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तृबाहुमहागर्वाद्रुणद्ध्येनमथो शची।
तत्कथ्यतामलं क्षान्त्या सत्या हारयति द्रुमम्॥ ४८॥
मूलम्
भर्तृबाहुमहागर्वाद्रुणद्ध्येनमथो शची।
तत्कथ्यतामलं क्षान्त्या सत्या हारयति द्रुमम्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पतिके बाहुबलसे गर्विता होकर शचीने ही इसपर अपना अधिकार जमा रखा है तो उससे कहना कि सत्यभामा उस वृक्षको हरण कराकर लिये जाती है, तुम्हें क्षमा करनेकी आवश्यकता नहीं है॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथ्यतां च द्रुतं गत्वा पौलोम्या वचनं मम।
सत्यभामा वदत्येतदिति गर्वोद्धताक्षरम्॥ ४९॥
यदि त्वं दयिता भर्तुर्यदि वश्यः पतिस्तव।
मद्भर्तुर्हरतो वृक्षं तत्कारय निवारणम्॥ ५०॥
मूलम्
कथ्यतां च द्रुतं गत्वा पौलोम्या वचनं मम।
सत्यभामा वदत्येतदिति गर्वोद्धताक्षरम्॥ ४९॥
यदि त्वं दयिता भर्तुर्यदि वश्यः पतिस्तव।
मद्भर्तुर्हरतो वृक्षं तत्कारय निवारणम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे मालियो! तुम तुरन्त जाकर मेरे ये शब्द शचीसे कहो कि सत्यभामा अत्यन्त गर्वपूर्वक कड़े अक्षरोंमें यह कहती है कि यदि तुम अपने पतिको अत्यन्त प्यारी हो और वे तुम्हारे वशीभूत हैं तो मेरे पतिको पारिजात हरण करनेसे रोकें॥ ४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि ते पतिं शक्रं जानामि त्रिदशेश्वरम्।
पारिजातं तथाप्येनं मानुषी हारयामि ते॥ ५१॥
मूलम्
जानामि ते पतिं शक्रं जानामि त्रिदशेश्वरम्।
पारिजातं तथाप्येनं मानुषी हारयामि ते॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हारे पति शक्रको जानती हूँ और यह भी जानती हूँ कि वे देवताओंके स्वामी हैं तथापि मैं मानवी ही तुम्हारे इस पारिजातवृक्षको लिये जाती हूँ’’॥ ५१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता रक्षिणो गत्वा शच्याः प्रोचुर्यथोदितम्।
श्रुत्वा चोत्साहयामास शची शक्रं सुराधिपम्॥ ५२॥
मूलम्
इत्युक्ता रक्षिणो गत्वा शच्याः प्रोचुर्यथोदितम्।
श्रुत्वा चोत्साहयामास शची शक्रं सुराधिपम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर वनरक्षकोंने शचीके पास जाकर उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों कह दिया। यह सब सुनकर शचीने अपने पति देवराज इन्द्रको उत्साहित किया॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्समस्तदेवानां सैन्यैः परिवृतो हरिम्।
प्रययौ पारिजातार्थमिन्द्रो योद्धुं द्विजोत्तम॥ ५३॥
मूलम्
ततस्समस्तदेवानां सैन्यैः परिवृतो हरिम्।
प्रययौ पारिजातार्थमिन्द्रो योद्धुं द्विजोत्तम॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! तब देवराज इन्द्र पारिजातवृक्षको छुड़ानेके लिये सम्पूर्ण देवसेनाके सहित श्रीहरिसे लड़नेके लिये चले॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परिघनिस्त्रिंशगदाशूलवरायुधाः।
बभूवुस्रिदशास्सज्जाः शक्रे वज्रकरे स्थिते॥ ५४॥
मूलम्
ततः परिघनिस्त्रिंशगदाशूलवरायुधाः।
बभूवुस्रिदशास्सज्जाः शक्रे वज्रकरे स्थिते॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय इन्द्रने अपने हाथमें वज्र लिया उसी समय सम्पूर्ण देवगण परिघ, निस्त्रिंश, गदा और शूल आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो गये॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निरीक्ष्य गोविन्दो नागराजोपरिस्थितम्।
शक्रं देवपरीवारं युद्धाय समुपस्थितम्॥ ५५॥
चकार शङ्खनिर्घोषं दिशश्शब्देन पूरयन्।
मुमोच शरसङ्घातान्सहस्रायुतशश्शितान्॥ ५६॥
मूलम्
ततो निरीक्ष्य गोविन्दो नागराजोपरिस्थितम्।
शक्रं देवपरीवारं युद्धाय समुपस्थितम्॥ ५५॥
चकार शङ्खनिर्घोषं दिशश्शब्देन पूरयन्।
मुमोच शरसङ्घातान्सहस्रायुतशश्शितान्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवसेनासे घिरे हुए ऐरावतारूढ इन्द्रको युद्धके लिये उद्यत देख श्रीगोविन्दने सम्पूर्ण दिशाओंको शब्दायमान करते हुए शंख-ध्वनि की और हजारों-लाखों तीखे बाण छोड़े॥ ५५- ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिशो नभश्चैव दृष्ट्वा शरशतैश्चितम्।
मुमुचुस्त्रिदशास्सर्वे ह्यस्त्रशस्त्राण्यनेकशः॥ ५७॥
मूलम्
ततो दिशो नभश्चैव दृष्ट्वा शरशतैश्चितम्।
मुमुचुस्त्रिदशास्सर्वे ह्यस्त्रशस्त्राण्यनेकशः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सम्पूर्ण दिशाओं और आकाशको सैकड़ों बाणोंसे पूर्ण देख देवताओंने अनेकों अस्त्र-शस्त्र छोड़े॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकमस्त्रं शस्त्रं च देवैर्मुक्तं सहस्रशः।
चिच्छेद लीलयैवेशो जगतां मधुसूदनः॥ ५८॥
मूलम्
एकैकमस्त्रं शस्त्रं च देवैर्मुक्तं सहस्रशः।
चिच्छेद लीलयैवेशो जगतां मधुसूदनः॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिलोकीके स्वामी श्रीमधुसूदनने देवताओंके छोड़े हुए प्रत्येक अस्त्र-शस्त्रके लीलासे ही हजारों टुकड़े कर दिये॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाशं सलिलराजस्य समाकृष्योरगाशनः।
चकार खण्डशशचञ्च्वा बालपन्नगदेहवत्॥ ५९॥
मूलम्
पाशं सलिलराजस्य समाकृष्योरगाशनः।
चकार खण्डशशचञ्च्वा बालपन्नगदेहवत्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पाहारी गरुडने जलाधिपति वरुणके पाशको खींचकर अपनी चोंचसे सर्पके बच्चेके समान उसके कितने ही टुकड़े कर डाले॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमेन प्रहितं दण्डं गदाविक्षेपखण्डितम्।
पृथिव्यां पातयामास भगवान् देवकीसुतः॥ ६०॥
मूलम्
यमेन प्रहितं दण्डं गदाविक्षेपखण्डितम्।
पृथिव्यां पातयामास भगवान् देवकीसुतः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीदेवकीनन्दनने यमके फेंके हुए दण्डको अपनी गदासे खण्ड-खण्ड कर पृथिवीपर गिरा दिया॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिकां च धनेशस्य चक्रेण तिलशो विभुः।
चकार शौरिरर्कं च दृष्टिदृष्टहतौजसम्॥ ६१॥
मूलम्
शिबिकां च धनेशस्य चक्रेण तिलशो विभुः।
चकार शौरिरर्कं च दृष्टिदृष्टहतौजसम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेरके विमानको भगवान् ने सुदर्शनचक्रद्वारा तिल-तिल कर डाला और सूर्यको अपनी तेजोमय दृष्टिसे देखकर ही निस्तेज कर दिया॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीतोऽग्निश्शीततां बाणैर्द्राविता वसवो दिशः।
चक्रविच्छिन्नशूलाग्रा रुद्रा भुवि निपातिताः॥ ६२॥
मूलम्
नीतोऽग्निश्शीततां बाणैर्द्राविता वसवो दिशः।
चक्रविच्छिन्नशूलाग्रा रुद्रा भुवि निपातिताः॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् ने तदनन्तर बाण बरसाकर अग्निको शीतल कर दिया और वसुओंको दिशा-विदिशाओंमें भगा दिया तथा अपने चक्रसे त्रिशूलोंकी नोंक काटकर रुद्रगणको पृथिवीपर गिरा दिया॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्या विश्वेऽथ मरुतो गन्धर्वाश्चैव सायकैः।
शार्ङ्गिणा प्रेरितैरस्ता व्योम्नि शाल्मलितूलवत्॥ ६३॥
मूलम्
साध्या विश्वेऽथ मरुतो गन्धर्वाश्चैव सायकैः।
शार्ङ्गिणा प्रेरितैरस्ता व्योम्नि शाल्मलितूलवत्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् के चलाये हुए बाणोंसे साध्यगण, विश्वेदेवगण, मरुद्गण और गन्धर्वगण सेमलकी रूईके समान आकाशमें ही लीन हो गये॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरुत्मानपि तुण्डेन पक्षाभ्यां च नखाङ्कुरैः।
भक्षयंस्ताडयन् देवान् दारयंश्च चचार वै॥ ६४॥
मूलम्
गरुत्मानपि तुण्डेन पक्षाभ्यां च नखाङ्कुरैः।
भक्षयंस्ताडयन् देवान् दारयंश्च चचार वै॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् के साथ गरुडजी भी अपनी चोंच, पंख और पंजोंसे देवताओंको खाते, मारते और फाड़ते फिर रहे थे॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्शरसहस्रेण देवेन्द्रमधुसूदनौ।
परस्परं ववर्षाते धाराभिरिव तोयदौ॥ ६५॥
मूलम्
ततश्शरसहस्रेण देवेन्द्रमधुसूदनौ।
परस्परं ववर्षाते धाराभिरिव तोयदौ॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर जिस प्रकार दो मेघ जलकी धाराएँ बरसाते हों उसी प्रकार देवराज इन्द्र और श्रीमधुसूदन एक-दूसरेपर बाण बरसाने लगे॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐरावतेन गरुडो युयुधे तत्र संकुले।
देवैस्समस्तैर्युयुधे शक्रेण च जनार्दनः॥ ६६॥
मूलम्
ऐरावतेन गरुडो युयुधे तत्र संकुले।
देवैस्समस्तैर्युयुधे शक्रेण च जनार्दनः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें गरुडजी ऐरावतके साथ और श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके साथ लड़ रहे थे॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिन्नेष्वशेषबाणेषु शस्त्रेष्वस्त्रेषु च त्वरन्।
जग्राह वासवो वज्रं कृष्णश्चक्रं सुदर्शनम्॥ ६७॥
मूलम्
भिन्नेष्वशेषबाणेषु शस्त्रेष्वस्त्रेषु च त्वरन्।
जग्राह वासवो वज्रं कृष्णश्चक्रं सुदर्शनम्॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण बाणोंके चूक जाने और अस्त्र-शस्त्रोंके कट जानेपर इन्द्रने शीघ्रतासे वज्र और कृष्णने सुदर्शनचक्र हाथमें लिया॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हाहाकृतं सर्वं त्रैलोक्यं द्विजसत्तम।
वज्रचक्रकरौ दृष्ट्वा देवराजजनार्दनौ॥ ६८॥
मूलम्
ततो हाहाकृतं सर्वं त्रैलोक्यं द्विजसत्तम।
वज्रचक्रकरौ दृष्ट्वा देवराजजनार्दनौ॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजश्रेष्ठ! उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीमें इन्द्र और कृष्णचन्द्रको क्रमशः वज्र और चक्र लिये हुए देखकर हाहाकार मच गया॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्तं वज्रमथेन्द्रेण जग्राह भगवान्हरिः।
न मुमोच तदा चक्रं शक्रं तिष्ठेति चाब्रवीत्॥ ६९॥
मूलम्
क्षिप्तं वज्रमथेन्द्रेण जग्राह भगवान्हरिः।
न मुमोच तदा चक्रं शक्रं तिष्ठेति चाब्रवीत्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहरिने इन्द्रके छोड़े हुए वज्रको अपने हाथोंसे पकड़ लिया और स्वयं चक्र न छोड़कर इन्द्रसे कहा—‘‘अरे, ठहर!’’॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणष्टवज्रं देवेन्द्रं गरुडक्षतवाहनम्।
सत्यभामाब्रवीद्वीरं पलायनपरायणम्॥ ७०॥
मूलम्
प्रणष्टवज्रं देवेन्द्रं गरुडक्षतवाहनम्।
सत्यभामाब्रवीद्वीरं पलायनपरायणम्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वज्र छिन जाने और अपने वाहन ऐरावतके गरुडद्वारा क्षत-विक्षत हो जानेके कारण भागते हुए वीर इन्द्रसे सत्यभामाने कहा—॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्येश न ते युक्तं शचीभर्तुः पलायनम्।
पारिजातस्रगाभोगा त्वामुपस्थास्यते शची॥ ७१॥
मूलम्
त्रैलोक्येश न ते युक्तं शचीभर्तुः पलायनम्।
पारिजातस्रगाभोगा त्वामुपस्थास्यते शची॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे त्रैलोक्येश्वर! तुम शचीके पति हो, तुम्हें इस प्रकार युद्धमें पीठ दिखलाना उचित नहीं है। तुम भागो मत, पारिजात-पुष्पोंकी मालासे विभूषिता होकर शची शीघ्र ही तुम्हारे पास आवेगी॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशं देवराज्यं ते पारिजातस्रगुज्ज्वलाम्।
अपश्यतो यथापूर्वं प्रणयाभ्यागतां शचीम्॥ ७२॥
मूलम्
कीदृशं देवराज्यं ते पारिजातस्रगुज्ज्वलाम्।
अपश्यतो यथापूर्वं प्रणयाभ्यागतां शचीम्॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब प्रेमवश अपने पास आयी हुई शचीको पहलेकी भाँति पारिजात-पुष्पकी मालासे अलंकृत न देखकर तुम्हें देवराजत्वका क्या सुख होगा?॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं शक्र प्रयासेन न व्रीडां गन्तुमर्हसि।
नीयतां पारिजातोऽयं देवास्सन्तु गतव्यथाः॥ ७३॥
मूलम्
अलं शक्र प्रयासेन न व्रीडां गन्तुमर्हसि।
नीयतां पारिजातोऽयं देवास्सन्तु गतव्यथाः॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शक्र! अब तुम्हें अधिक प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं है, तुम संकोच मत करो; इस पारिजात-वृक्षको ले जाओ। इसे पाकर देवगण सन्तापरहित हों॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिगर्वावलेपेन बहुमानपुरस्सरम्।
न ददर्श गृहं यातामुपचारेण मां शची॥ ७४॥
मूलम्
पतिगर्वावलेपेन बहुमानपुरस्सरम्।
न ददर्श गृहं यातामुपचारेण मां शची॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पतिके बाहुबलसे अत्यन्त गर्विता शचीने अपने घर जानेपर भी मुझे कुछ अधिक सम्मानकी दृष्टिसे नहीं देखा था॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीत्वादगुरुचित्ताहं स्वभर्तृश्लाघनापरा।
ततः कृतवती शक्र भवता सह विग्रहम्॥ ७५॥
मूलम्
स्त्रीत्वादगुरुचित्ताहं स्वभर्तृश्लाघनापरा।
ततः कृतवती शक्र भवता सह विग्रहम्॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री होनेसे मेरा चित्त भी अधिक गम्भीर नहीं है, इसलिये मैंने भी अपने पतिका गौरव प्रकट करनेके लिये ही तुमसे यह लड़ाई ठानी थी॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदलं पारिजातेन परस्वेन हृतेन मे।
रूपेण गर्विता सा तु भर्त्रा का स्त्री न गर्विता॥ ७६॥
मूलम्
तदलं पारिजातेन परस्वेन हृतेन मे।
रूपेण गर्विता सा तु भर्त्रा का स्त्री न गर्विता॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे दूसरेकी सम्पत्ति इस पारिजातको ले जानेकी क्या आवश्यकता है? शची अपने रूप और पतिके कारण गर्विता है तो ऐसी कौन-सी स्त्री है जो इस प्रकार गर्वीली न हो?’’॥ ७६॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो वै निववृते देवराजस्तया द्विज।
प्राह चैनामलं चण्डि सख्युः खेदोक्तिविस्तरैः॥ ७७॥
मूलम्
इत्युक्तो वै निववृते देवराजस्तया द्विज।
प्राह चैनामलं चण्डि सख्युः खेदोक्तिविस्तरैः॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर देवराज लौट आये और बोले—‘‘हे क्रोधिते! मैं तुम्हारा सुहृद् हूँ, अतः मेरे लिये ऐसी वैमनस्य बढ़ानेवाली उक्तियोंके विस्तार करनेका कोई प्रयोजन नहीं है?॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि सर्गसंहारस्थितिकर्ताखिलस्य यः।
जितस्य तेन मे व्रीडा जायते विश्वरूपिणा॥ ७८॥
मूलम्
न चापि सर्गसंहारस्थितिकर्ताखिलस्य यः।
जितस्य तेन मे व्रीडा जायते विश्वरूपिणा॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं, उन विश्वरूप प्रभुसे पराजित होनेमें भी मुझे कोई संकोच नहीं है॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माज्जगत्सकलमेतदनादिमध्या-
द्यस्मिन्यतश्च न भविष्यति सर्वभूतात्।
तेनोद्भवप्रलयपालनकारणेन
व्रीडा कथं भवति देवि निराकृतस्य॥ ७९॥
मूलम्
यस्माज्जगत्सकलमेतदनादिमध्या-
द्यस्मिन्यतश्च न भविष्यति सर्वभूतात्।
तेनोद्भवप्रलयपालनकारणेन
व्रीडा कथं भवति देवि निराकृतस्य॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस आदि और मध्यरहित प्रभुसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जिसमें यह स्थित है और फिर जिसमें लीन होकर अन्तमें यह न रहेगा; हे देवि! जगत्की उत्पत्ति, प्रलय और पालनके कारण उस परमात्मासे ही परास्त होनेमें मुझे कैसे लज्जा हो सकती है?॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकलभुवनसूतिर्मूर्तिरल्पाल्पसूक्ष्मा
विदितसकलवेदैर्ज्ञायते यस्य नान्यैः।
तमजमकृतमीशं शाश्वतं स्वेच्छयैनं
जगदुपकृतिमर्त्यं को विजेतुं समर्थः॥ ८०॥
मूलम्
सकलभुवनसूतिर्मूर्तिरल्पाल्पसूक्ष्मा
विदितसकलवेदैर्ज्ञायते यस्य नान्यैः।
तमजमकृतमीशं शाश्वतं स्वेच्छयैनं
जगदुपकृतिमर्त्यं को विजेतुं समर्थः॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी अत्यन्त अल्प और सूक्ष्म मूर्तिको, जो सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करनेवाली है, सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले अन्य पुरुष भी नहीं जान पाते तथा जिसने जगत्के उपकारके लिये अपनी इच्छासे ही मनुष्यरूप धारण किया है उस अजन्मा, अकर्ता और नित्य ईश्वरको जीतनेमें कौन समर्थ है?’’॥ ८०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रिंशोऽध्यायः॥ ३०॥