[पचीसवाँ अध्याय]
विषय
बलभद्रजीका व्रज-विहार तथा यमुनाकर्षण
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने विचरतस्तस्य सह गोपैर्महात्मनः।
मानुषच्छद्मरूपस्य शेषस्य धरणीधृतः॥ १॥
निष्पादितोरुकार्यस्य कार्येणोर्वीप्रचारिणः।
उपभोगार्थमत्यर्थं वरुणः प्राह वारुणीम्॥ २॥
मूलम्
वने विचरतस्तस्य सह गोपैर्महात्मनः।
मानुषच्छद्मरूपस्य शेषस्य धरणीधृतः॥ १॥
निष्पादितोरुकार्यस्य कार्येणोर्वीप्रचारिणः।
उपभोगार्थमत्यर्थं वरुणः प्राह वारुणीम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—अपने कार्योंसे पृथिवीको विचलित करनेवाले, बड़े विकट कार्य करनेवाले, धरणीधर शेषजीके अवतार माया-मानवरूप महात्मा बलरामजीको गोपोंके साथ वनमें विचरते देख उनके उपभोगके लिये वरुणने वारुणी (मदिरा)-से कहा—॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीष्टा सर्वदा यस्य मदिरे त्वं महौजसः।
अनन्तस्योपभोगाय तस्य गच्छ मुदे शुभे॥ ३॥
मूलम्
अभीष्टा सर्वदा यस्य मदिरे त्वं महौजसः।
अनन्तस्योपभोगाय तस्य गच्छ मुदे शुभे॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे मदिरे! जिन महाबलशाली अनन्तदेवको तुम सर्वदा प्रिय हो; हे शुभे! तुम उनके उपभोग और प्रसन्नताके लिये जाओ’’॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता वारुणी तेन सन्निधानमथाकरोत्।
वृन्दावनसमुत्पन्नकदम्बतरुकोटरे॥ ४॥
मूलम्
इत्युक्ता वारुणी तेन सन्निधानमथाकरोत्।
वृन्दावनसमुत्पन्नकदम्बतरुकोटरे॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरुणकी ऐसी आज्ञा होनेपर वारुणी वृन्दावनमें उत्पन्न हुए कदम्ब-वृक्षके कोटरमें रहने लगी॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचरन् बलदेवोऽपि मदिरागन्धमुत्तमम्।
आघ्राय मदिरातर्षमवापाथ वराननः॥ ५॥
मूलम्
विचरन् बलदेवोऽपि मदिरागन्धमुत्तमम्।
आघ्राय मदिरातर्षमवापाथ वराननः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मनोहर मुखवाले बलदेवजीको वनमें विचरते हुए मदिराकी अति उत्तम गन्ध सूँघनेसे उसे पीनेकी इच्छा हुई॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदम्बात्सहसा मद्यधारां स लाङ्गली।
पतन्तीं वीक्ष्य मैत्रेय प्रययौ परमां मुदम्॥ ६॥
मूलम्
ततः कदम्बात्सहसा मद्यधारां स लाङ्गली।
पतन्तीं वीक्ष्य मैत्रेय प्रययौ परमां मुदम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! उसी समय कदम्बसे मद्यकी धारा गिरती देख हलधारी बलरामजी बड़े प्रसन्न हुए॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पपौ च गोपगोपीभिस्समुपेतो मुदान्वितः।
प्रगीयमानो ललितं गीतवाद्यविशारदैः॥ ७॥
मूलम्
पपौ च गोपगोपीभिस्समुपेतो मुदान्वितः।
प्रगीयमानो ललितं गीतवाद्यविशारदैः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा गाने-बजानेमें कुशल गोप और गोपियोंके मधुर स्वरसे गाते हुए उन्होंने उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक मद्यपान किया॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मत्तोऽत्यन्तघर्माम्भः कणिकामौक्तिकोज्ज्वलः।
आगच्छ यमुने स्नातुमिच्छामीत्याह विह्वलः॥ ८॥
मूलम्
स मत्तोऽत्यन्तघर्माम्भः कणिकामौक्तिकोज्ज्वलः।
आगच्छ यमुने स्नातुमिच्छामीत्याह विह्वलः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अत्यन्त घामके कारण स्वेद-बिन्दुरूप मोतियोंसे सुशोभित मदोन्मत्त बलरामजीने विह्वल होकर कहा—‘‘यमुने! आ, मैं स्नान करना चाहता हूँ’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वाचं नदी सा तु मत्तोक्तामवमत्य वै।
नाजगाम ततः क्रुद्धो हलं जग्राह लाङ्गली॥ ९॥
मूलम्
तस्य वाचं नदी सा तु मत्तोक्तामवमत्य वै।
नाजगाम ततः क्रुद्धो हलं जग्राह लाङ्गली॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके वाक्यको उन्मत्तका प्रलाप समझकर यमुनाने उसपर कुछ भी ध्यान न दिया और वह वहाँ न आयी। इसपर हलधरने क्रोधित होकर अपना हल उठाया॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वा तां हलान्तेन चकर्ष मदविह्वलः।
पापे नायासि नायासि गम्यतामिच्छयान्यतः॥ १०॥
मूलम्
गृहीत्वा तां हलान्तेन चकर्ष मदविह्वलः।
पापे नायासि नायासि गम्यतामिच्छयान्यतः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मदसे विह्वल होकर यमुनाको हलकी नोकसे पकड़कर खींचते हुए कहा—‘‘अरी पापिनि! तू नहीं आती थी! अच्छा अब [यदि शक्ति हो तो] इच्छानुसार अन्यत्र जा तो सही॥ १०॥’’
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकृष्टा सहसा तेन मार्गं सन्त्यज्य निम्नगा।
यत्रास्ते बलभद्रोऽसौ प्लावयामास तद्वनम्॥ ११॥
मूलम्
साकृष्टा सहसा तेन मार्गं सन्त्यज्य निम्नगा।
यत्रास्ते बलभद्रोऽसौ प्लावयामास तद्वनम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बलरामजीके खींचनेपर यमुनाने अकस्मात् अपना मार्ग छोड़ दिया और जिस वनमें बलरामजी खड़े थे उसे आप्लावित कर दिया॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरिणी तदाभ्येत्य त्रासविह्वललोचना।
प्रसीदेत्यब्रवीद्रामं मुञ्च मां मुसलायुध॥ १२॥
मूलम्
शरीरिणी तदाभ्येत्य त्रासविह्वललोचना।
प्रसीदेत्यब्रवीद्रामं मुञ्च मां मुसलायुध॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह शरीर धारणकर बलरामजीके पास आयी और भयवश डबडबाती आँखोंसे कहने लगी— ‘‘हे मुसलायुध! आप प्रसन्न होइये और मुझे छोड़ दीजिये’’॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्याः सुवचनमाकर्ण्य स हलायुधः।
सोऽब्रवीदवजानासि मम शौर्यबले नदि।
सोऽहं त्वां हलपातेन नयिष्यामि सहस्रधा॥ १३॥
मूलम्
ततस्तस्याः सुवचनमाकर्ण्य स हलायुधः।
सोऽब्रवीदवजानासि मम शौर्यबले नदि।
सोऽहं त्वां हलपातेन नयिष्यामि सहस्रधा॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके उन मधुर वचनोंको सुनकर हलायुध बलभद्रजीने कहा—‘‘अरी नदि! क्या तू मेरे बल-वीर्यकी अवज्ञा करती है? देख, इस हलसे मैं अभी तेरे हजारों टुकड़े कर डालूँगा’’॥ १३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तयातिसन्त्रासात्तया नद्या प्रसादितः।
भूभागे प्लाविते तस्मिन्मुमोच यमुनां बलः॥ १४॥
मूलम्
इत्युक्तयातिसन्त्रासात्तया नद्या प्रसादितः।
भूभागे प्लाविते तस्मिन्मुमोच यमुनां बलः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—बलरामजीद्वारा इस प्रकार कही जानेसे भयभीत हुई यमुनाके उस भू-भागमें बहने लगनेपर उन्होंने प्रसन्न होकर उसे छोड़ दिया॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्स्नातस्य वै कान्तिरजायत महात्मनः॥ १५॥
अवतंसोत्पलं चारु गृहीत्वैकं च कुण्डलम्।
वरुणप्रहितां चास्मै मालामम्लानपङ्कजाम्।
समुद्राभे तथा वस्त्रे नीले लक्ष्मीरयच्छत॥ १६॥
मूलम्
ततस्स्नातस्य वै कान्तिरजायत महात्मनः॥ १५॥
अवतंसोत्पलं चारु गृहीत्वैकं च कुण्डलम्।
वरुणप्रहितां चास्मै मालामम्लानपङ्कजाम्।
समुद्राभे तथा वस्त्रे नीले लक्ष्मीरयच्छत॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय स्नान करनेपर महात्मा बलरामजीकी अत्यन्त शोभा हुई। तब लक्ष्मीजीने [सशरीर प्रकट होकर] उन्हें एक सुन्दर कर्णफूल, एक कुण्डल, एक वरुणकी भेजी हुई कभी न कुम्हलानेवाले कमल-पुष्पोंकी माला और दो समुद्रके समान कान्तिवाले नीलवर्ण वस्त्र दिये॥ १५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतावतंसस्स तदा चारुकुण्डलभूषितः।
नीलाम्बरधरस्स्रग्वी शुशुभे कान्तिसंयुतः॥ १७॥
मूलम्
कृतावतंसस्स तदा चारुकुण्डलभूषितः।
नीलाम्बरधरस्स्रग्वी शुशुभे कान्तिसंयुतः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन कर्णफूल, सुन्दर कुण्डल, नीलाम्बर और पुष्प-मालाको धारणकर श्रीबलरामजी अतिशय कान्तियुक्त हो सुशोभित होने लगे॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं विभूषितो रेमे तत्र रामस्तथा व्रजे।
मासद्वयेन यातश्च स पुनर्द्वारकां पुरीम्॥ १८॥
मूलम्
इत्थं विभूषितो रेमे तत्र रामस्तथा व्रजे।
मासद्वयेन यातश्च स पुनर्द्वारकां पुरीम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विभूषित होकर श्रीबलभद्रजीने व्रजमें अनेकों लीलाएँ कीं और फिर दो मास पश्चात् द्वारकापुरीको चले आये॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेवतीं नाम तनयां रैवतस्य महीपतेः।
उपयेमे बलस्तस्यां जज्ञाते निशठोल्मुकौ॥ १९॥
मूलम्
रेवतीं नाम तनयां रैवतस्य महीपतेः।
उपयेमे बलस्तस्यां जज्ञाते निशठोल्मुकौ॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर बलदेवजीने राजा रैवतकी पुत्री रेवतीसे विवाह किया; उससे उनके निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए॥ १९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चविंशोऽध्यायः॥ २५॥