२४

[चौबीसवाँ अध्याय]

विषय

मुचुकुन्दका तपस्याके लिये प्रस्थान और बलरामजीकी व्रजयात्रा

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं स्तुतस्तदा तेन मुचुकुन्देन धीमता।
प्राहेशः सर्वभूतानामनादिनिधनो हरिः॥ १॥

मूलम्

इत्थं स्तुतस्तदा तेन मुचुकुन्देन धीमता।
प्राहेशः सर्वभूतानामनादिनिधनो हरिः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वभूतोंके ईश्वर अनादिनिधन भगवान् हरि बोले॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाभिवाञ्छितान्दिव्यान्गच्छ लोकान्नराधिप।
अव्याहतपरैश्वर्यो मत्प्रसादोपबृंहितः॥ २॥

मूलम्

यथाभिवाञ्छितान्दिव्यान्गच्छ लोकान्नराधिप।
अव्याहतपरैश्वर्यो मत्प्रसादोपबृंहितः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् ने कहा—हे नरेश्वर! तुम अपने अभिमत दिव्य लोकोंको जाओ; मेरी कृपासे तुम्हें अव्याहत परम ऐश्वर्य प्राप्त होगा॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्त्वा दिव्यान्महाभोगान्भविष्यसि महाकुले।
जातिस्मरो मत्प्रसादात्ततो मोक्षमवाप्स्यसि॥ ३॥

मूलम्

भुक्त्वा दिव्यान्महाभोगान्भविष्यसि महाकुले।
जातिस्मरो मत्प्रसादात्ततो मोक्षमवाप्स्यसि॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अत्यन्त दिव्य भोगोंको भोगकर तुम अन्तमें एक महान् कुलमें जन्म लोगे, उस समय तुम्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहेगा और फिर मेरी कृपासे तुम मोक्षपद प्राप्त करोगे॥ ३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्रणिपत्येशं जगतामच्युतं नृपः।
गुहामुखाद्विनिष्क्रान्तस्स ददर्शाल्पकान्नरान्॥ ४॥

मूलम्

इत्युक्तः प्रणिपत्येशं जगतामच्युतं नृपः।
गुहामुखाद्विनिष्क्रान्तस्स ददर्शाल्पकान्नरान्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—भगवान् के इस प्रकार कहनेपर राजा मुचुकुन्दने जगदीश्वर श्रीअच्युतको प्रणाम किया और गुफासे निकलकर देखा कि लोग बहुत छोटे-छोटे हो गये हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कलियुगं मत्वा प्राप्तं तप्तुं नृपस्तपः।
नरनारायणस्थानं प्रययौ गन्धमादनम्॥ ५॥

मूलम्

ततः कलियुगं मत्वा प्राप्तं तप्तुं नृपस्तपः।
नरनारायणस्थानं प्रययौ गन्धमादनम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कलियुगको वर्तमान समझकर राजा तपस्या करनेके लिये श्रीनरनारायणके स्थान गन्धमादनपर्वतपर चले गये॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णोऽपि घातयित्वारिमुपायेन हि तद‍्बलम्।
जग्राह मथुरामेत्य हस्त्यश्वस्यन्दनोज्ज्वलम्॥ ६॥
आनीय चोग्रसेनाय द्वारवत्यां न्यवेदयत्।
पराभिभवनिश्शङ्कं बभूव च यदोः कुलम्॥ ७॥

मूलम्

कृष्णोऽपि घातयित्वारिमुपायेन हि तद‍्बलम्।
जग्राह मथुरामेत्य हस्त्यश्वस्यन्दनोज्ज्वलम्॥ ६॥
आनीय चोग्रसेनाय द्वारवत्यां न्यवेदयत्।
पराभिभवनिश्शङ्कं बभूव च यदोः कुलम्॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपायपूर्वक शत्रुको नष्टकर फिर मथुरामें आ उसकी हाथी, घोड़े और रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारकामें लाकर राजा उग्रसेनको अर्पण कर दिया। तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे निःशंक हो गया॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलदेवोऽपि मैत्रेय प्रशान्ताखिलविग्रहः।
ज्ञातिदर्शनसोत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम्॥ ८॥

मूलम्

बलदेवोऽपि मैत्रेय प्रशान्ताखिलविग्रहः।
ज्ञातिदर्शनसोत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! इस सम्पूर्ण विग्रहके शान्त हो जानेपर बलदेवजी अपने बान्धवोंके दर्शनकी उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गोपांश्च गोपीश्च यथा पूर्वममित्रजित्।
तथैवाभ्यवदत्प्रेम्णा बहुमानपुरस्सरम्॥ ९॥

मूलम्

ततो गोपांश्च गोपीश्च यथा पूर्वममित्रजित्।
तथैवाभ्यवदत्प्रेम्णा बहुमानपुरस्सरम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचकर शत्रुजित् बलभद्रजीने गोप और गोपियोंका पहलेहीकी भाँति अति आदर और प्रेमके साथ अभिवादन किया॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कैश्चित्सम्परिष्वक्तः कांश्चिच्च परिषस्वजे।
हास्यं चक्रे समं कैश्चिद‍्गोपैर्गोपीजनैस्तथा॥ १०॥

मूलम्

स कैश्चित्सम्परिष्वक्तः कांश्चिच्च परिषस्वजे।
हास्यं चक्रे समं कैश्चिद‍्गोपैर्गोपीजनैस्तथा॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीने उनका आलिंगन किया और किसीको उन्होंने गले लगाया तथा किन्हीं गोप और गोपियोंके साथ उन्होंने हास-परिहास किया॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियाण्यनेकान्यवदन् गोपास्तत्र हलायुधम्।
गोप्यश्च प्रेमकुपिताः प्रोचुस्सेर्ष्यमथापराः॥ ११॥

मूलम्

प्रियाण्यनेकान्यवदन् गोपास्तत्र हलायुधम्।
गोप्यश्च प्रेमकुपिताः प्रोचुस्सेर्ष्यमथापराः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपोंने बलरामजीसे अनेकों प्रिय वचन कहे तथा गोपियोंमेंसे कोई प्रणयकुपित होकर बोलीं और किन्हींने उपालम्भयुक्त बातें की॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्यः पप्रच्छुरपरा नागरीजनवल्लभः।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णश्चलप्रेमलवात्मकः॥ १२॥

मूलम्

गोप्यः पप्रच्छुरपरा नागरीजनवल्लभः।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णश्चलप्रेमलवात्मकः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हीं अन्य गोपियोंने पूछा—चंचल एवं अल्प प्रेम करना ही जिनका स्वभाव है, वे नगर-नारियोंके प्राणाधार कृष्ण तो आनन्दमें हैं न?॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मच्चेष्टामपहसन्न कच्चित्पुरयोषिताम्।
सौभाग्यमानमधिकं करोति क्षणसौहृदः॥ १३॥

मूलम्

अस्मच्चेष्टामपहसन्न कच्चित्पुरयोषिताम्।
सौभाग्यमानमधिकं करोति क्षणसौहृदः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे क्षणिक स्नेहवाले नन्दनन्दन हमारी चेष्टाओंका उपहास करते हुए क्या नगरकी महिलाओंके सौभाग्यका मान नहीं बढ़ाया करते?॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित्स्मरति नः कृष्णो गीतानुगमनं कलम्।
अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति॥ १४॥

मूलम्

कच्चित्स्मरति नः कृष्णो गीतानुगमनं कलम्।
अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या कृष्णचन्द्र कभी हमारे गीतानुयायी मनोहर स्वरका स्मरण करते हैं? क्या वे एक बार अपनी माताको भी देखनके लिये यहाँ आवेंगे?॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा किं तदालापैः क्रियन्तामपराः कथाः।
यस्यास्माभिर्विना तेन विनास्माकं भविष्यति॥ १५॥

मूलम्

अथवा किं तदालापैः क्रियन्तामपराः कथाः।
यस्यास्माभिर्विना तेन विनास्माकं भविष्यति॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा अब उनकी बात करनेसे हमें क्या प्रयोजन है, कोई और बात करो। जब उनकी हमारे बिना निभ गयी तो हम भी उनके बिना निभा ही लेंगी॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता माता तथा भ्राता भर्ता बन्धुजनश्च किम्।
सन्त्यक्तस्तत्कृतेऽस्माभिरकृतज्ञध्वजो हि सः॥ १६॥

मूलम्

पिता माता तथा भ्राता भर्ता बन्धुजनश्च किम्।
सन्त्यक्तस्तत्कृतेऽस्माभिरकृतज्ञध्वजो हि सः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या माता, क्या पिता, क्या बन्धु, क्या पति और क्या कुटुम्बके लोग? हमने उनके लिये सभीको छोड़ दिया, किन्तु वे तो अकृतज्ञोंकी ध्वजा ही निकले॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि कच्चिदालापमिहागमनसंश्रयम्।
करोति कृष्णो वक्तव्यं भवता राम नानृतम्॥ १७॥

मूलम्

तथापि कच्चिदालापमिहागमनसंश्रयम्।
करोति कृष्णो वक्तव्यं भवता राम नानृतम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि बलरामजी! सच-सच बतलाइये क्या कृष्ण कभी यहाँ आनेके विषयमें भी कोई बातचीत करते हैं?॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दामोदरोऽसौ गोविन्दः पुरस्त्रीसक्तमानसः।
अपेतप्रीतिरस्मासु दुर्दर्शः प्रतिभाति नः॥ १८॥

मूलम्

दामोदरोऽसौ गोविन्दः पुरस्त्रीसक्तमानसः।
अपेतप्रीतिरस्मासु दुर्दर्शः प्रतिभाति नः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दामोदर कृष्णका चित्त नागरी-नारियोंमें फँस गया है; हममें अब उनकी प्रीति नहीं है, अतः अब हमें तो उनका दर्शन दुर्लभ ही जान पड़ता है॥ १८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमन्त्रितश्च कृष्णेति पुनर्दामोदरेति च।
जहसुस्सस्वरं गोप्यो हरिणा हृतचेतसः॥ १९॥

मूलम्

आमन्त्रितश्च कृष्णेति पुनर्दामोदरेति च।
जहसुस्सस्वरं गोप्यो हरिणा हृतचेतसः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर श्रीहरिने जिनका चित्त हर लिया है, वे गोपियाँ बलरामजीको कृष्ण और दामोदर कहकर सम्बोधन करने लगीं और फिर उच्चस्वरसे हँसने लगीं॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्देशैस्साममधुरैः प्रेमगर्भैरगर्वितैः।
रामेणाश्वासिता गोप्यः कृष्णस्यातिमनोहरैः॥ २०॥

मूलम्

सन्देशैस्साममधुरैः प्रेमगर्भैरगर्वितैः।
रामेणाश्वासिता गोप्यः कृष्णस्यातिमनोहरैः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रका अति मनोहर और शान्तिमय, प्रेमगर्भित और गर्वहीन सन्देश सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपैश्च पूर्ववद्रामः परिहासमनोहराः।
कथाश्चकार रेमे च सह तैर्व्रजभूमिषु॥ २१॥

मूलम्

गोपैश्च पूर्ववद्रामः परिहासमनोहराः।
कथाश्चकार रेमे च सह तैर्व्रजभूमिषु॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा गोपोंके साथ हास्य करते हुए उन्होंने पहलेकी भाँति बहुत-सी मनोहर बातें कीं और उनके साथ व्रजभूमिमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते रहे॥ २१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्विंशोऽध्यायः॥ २४॥