२२

[बाईसवाँ अध्याय]

विषय

जरासन्धकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासन्धसुते कंस उपयेमे महाबलः।
अस्तिं प्राप्तिं च मैत्रेय तयोर्भर्तृहणं हरिम्॥ १॥
महाबलपरीवारो मगधाधिपतिर्बली।
हन्तुमभ्याययौ कोपाज्जरासन्धस्सयादवम्॥ २॥

मूलम्

जरासन्धसुते कंस उपयेमे महाबलः।
अस्तिं प्राप्तिं च मैत्रेय तयोर्भर्तृहणं हरिम्॥ १॥
महाबलपरीवारो मगधाधिपतिर्बली।
हन्तुमभ्याययौ कोपाज्जरासन्धस्सयादवम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! महाबली कंसने जरासन्धकी पुत्री अस्ति और प्राप्तिसे विवाह किया था, अतः वह अत्यन्त बलिष्ठ मगधराज क्रोधपूर्वक एक बहुत बड़ी सेना लेकर अपनी पुत्रियोंके स्वामी कंसको मारनेवाले श्रीहरिको यादवोंके सहित मारनेकी इच्छासे मथुरापर चढ़ आया॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपेत्य मथुरां सोऽथ रुरोध मगधेश्वरः।
अक्षौहिणीभिस्सैन्यस्य त्रयोविंशतिभिर्वृतः॥ ३॥

मूलम्

उपेत्य मथुरां सोऽथ रुरोध मगधेश्वरः।
अक्षौहिणीभिस्सैन्यस्य त्रयोविंशतिभिर्वृतः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मगधेश्वर जरासन्धने तेईस अक्षौहिणी सेनाके सहित आकर मथुराको चारों ओरसे घेर लिया॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्क्रम्याल्पपरीवारावुभौ रामजनार्दनौ।
युयुधाते समं तस्य बलिनौ बलिसैनिकैः॥ ४॥

मूलम्

निष्क्रम्याल्पपरीवारावुभौ रामजनार्दनौ।
युयुधाते समं तस्य बलिनौ बलिसैनिकैः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाबली राम और जनार्दन थोड़ी-सी सेनाके साथ नगरसे निकलकर जरासन्धके प्रबल सैनिकोंसे युद्ध करने लगे॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामश्च कृष्णश्च मतिं चक्रतुरञ्जसा।
आयुधानां पुराणानामादाने मुनिसत्तम॥ ५॥

मूलम्

ततो रामश्च कृष्णश्च मतिं चक्रतुरञ्जसा।
आयुधानां पुराणानामादाने मुनिसत्तम॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिश्रेष्ठ! उस समय राम और कृष्णने अपने पुरातन शस्त्रोंको ग्रहण करनेका विचार किया॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तरं हरेश्शार्ङ्गं तूणौ चाक्षयसायकौ।
आकाशादागतौ विप्र तथा कौमोदकी गदा॥ ६॥

मूलम्

अनन्तरं हरेश्शार्ङ्गं तूणौ चाक्षयसायकौ।
आकाशादागतौ विप्र तथा कौमोदकी गदा॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विप्र! हरिके स्मरण करते ही उनका शार्ङ्ग धनुष, अक्षय बाणयुक्त दो तरकश और कौमोदकी नामकी गदा आकाशसे आकर उपस्थित हो गये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हलं च बलभद्रस्य गगनादागतं महत्।
मनसोऽभिमतं विप्र सुनन्दं मुसलं तथा॥ ७॥

मूलम्

हलं च बलभद्रस्य गगनादागतं महत्।
मनसोऽभिमतं विप्र सुनन्दं मुसलं तथा॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! बलभद्रजीके पास भी उनका मनोवांछित महान् हल और सुनन्द नामक मूसल आकाशसे आ गये॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युद्धे पराजित्य ससैन्यं मगधाधिपम्।
पुरीं विविशतुर्वीरावुभौ रामजनार्दनौ॥ ८॥

मूलम्

ततो युद्धे पराजित्य ससैन्यं मगधाधिपम्।
पुरीं विविशतुर्वीरावुभौ रामजनार्दनौ॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दोनों वीर राम और कृष्ण सेनाके सहित मगधराजको युद्धमें हराकर मथुरापुरीमें चले आये॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिते तस्मिन्सुदुर्वृत्ते जरासन्धे महामुने।
जीवमाने गते कृष्णस्तेनामन्यत नाजितम्॥ ९॥

मूलम्

जिते तस्मिन्सुदुर्वृत्ते जरासन्धे महामुने।
जीवमाने गते कृष्णस्तेनामन्यत नाजितम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामुने! दुराचारी जरासन्धको जीत लेनेपर भी उसके जीवित चले जानेके कारण कृष्णचन्द्रने अपनेको अपराजित नहीं समझा॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरप्याजगामाथ जरासन्धो बलान्वितः।
जितश्च रामकृष्णाभ्यामपक्रान्तो द्विजोत्तम॥ १०॥

मूलम्

पुनरप्याजगामाथ जरासन्धो बलान्वितः।
जितश्च रामकृष्णाभ्यामपक्रान्तो द्विजोत्तम॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विजोत्तम! जरासन्ध फिर उतनी ही सेना लेकर आया, किन्तु राम और कृष्णसे पराजित होकर भाग गया॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दश चाष्टौ च सङ्ग्रामानेवमत्यन्तदुर्मदः।
यदुभिर्मागधो राजा चक्रे कृष्णपुरोगमैः॥ ११॥

मूलम्

दश चाष्टौ च सङ्ग्रामानेवमत्यन्तदुर्मदः।
यदुभिर्मागधो राजा चक्रे कृष्णपुरोगमैः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अत्यन्त दुर्धर्ष मगधराज जरासन्धने राम और कृष्ण आदि यादवोंसे अट्ठारह बार युद्ध किया॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेष्वेतेषु युद्धेषु यादवैस्स पराजितः।
अपक्रान्तो जरासन्धस्स्वल्पसैन्यैर्बलाधिकः॥ १२॥

मूलम्

सर्वेष्वेतेषु युद्धेषु यादवैस्स पराजितः।
अपक्रान्तो जरासन्धस्स्वल्पसैन्यैर्बलाधिकः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सभी युद्धोंमें अधिक सैन्यशाली जरासन्ध थोड़ी-सी सेनावाले यदुवंशियोंसे हारकर भाग गया॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तद‍्बलं यादवानां विजितं यदनेकशः।
तत्तु सन्निधिमाहात्म्यं विष्णोरंशस्य चक्रिणः॥ १३॥

मूलम्

न तद‍्बलं यादवानां विजितं यदनेकशः।
तत्तु सन्निधिमाहात्म्यं विष्णोरंशस्य चक्रिणः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यादवोंकी थोड़ी-सी सेना भी जो [उसकी अनेक बड़ी सेनाओंसे] पराजित न हुई, यह सब भगवान् विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्रकी सन्निधिका ही माहात्म्य था॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यधर्मशीलस्य लीला सा जगतीपतेः।
अस्त्राण्यनेकरूपाणि यदरातिषु मुञ्चति॥ १४॥

मूलम्

मनुष्यधर्मशीलस्य लीला सा जगतीपतेः।
अस्त्राण्यनेकरूपाणि यदरातिषु मुञ्चति॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन मानवधर्मशील जगत्पतिकी यह लीला ही है जो कि ये अपने शत्रुओंपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र छोड़ रहे हैं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसैव जगत्सृष्टिं संहारं च करोति यः।
तस्यारिपक्षक्षपणे कियानुद्यमविस्तरः॥ १५॥

मूलम्

मनसैव जगत्सृष्टिं संहारं च करोति यः।
तस्यारिपक्षक्षपणे कियानुद्यमविस्तरः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो केवल संकल्पमात्रसे ही संसारकी उत्पत्ति और संहार कर देते हैं, उन्हें अपने शत्रुपक्षका नाश करनेके लिये भला उद्योग फैलानेकी कितनी आवश्यकता है?॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि यो मनुष्याणां धर्मस्तमनुवर्तते।
कुर्वन्बलवता सन्धिं हीनैर्युद्धं करोत्यसौ॥ १६॥

मूलम्

तथापि यो मनुष्याणां धर्मस्तमनुवर्तते।
कुर्वन्बलवता सन्धिं हीनैर्युद्धं करोत्यसौ॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि वे बलवानोंसे सन्धि और बलहीनोंसे युद्ध करके मानव-धर्मोंका अनुवर्तन कर रहे थे॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साम चोपप्रदानं च तथा भेदं च दर्शयन्।
करोति दण्डपातं च क्वचिदेव पलायनम्॥ १७॥

मूलम्

साम चोपप्रदानं च तथा भेदं च दर्शयन्।
करोति दण्डपातं च क्वचिदेव पलायनम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहीं साम, कहीं दान और कहीं भेदनीतिका व्यवहार करते थे तथा कहीं दण्ड देते और कहींसे स्वयं भाग भी जाते थे॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यदेहिनां चेष्टामित्येवमनुवर्तते।
लीला जगत्पतेस्तस्यच्छन्दतः परिवर्तते॥ १८॥

मूलम्

मनुष्यदेहिनां चेष्टामित्येवमनुवर्तते।
लीला जगत्पतेस्तस्यच्छन्दतः परिवर्तते॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मानवदेहधारियोंकी चेष्टाओंका अनुवर्तन करते हुए श्रीजगत्पतिकी अपनी इच्छानुसार लीलाएँ होती रहती थीं॥ १८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वाविंशोऽध्यायः॥ २२॥