१५

[पन्द्रहवाँ अध्याय]

विषय

कंसका श्रीकृष्णको बुलानेके लिये अक्रूरको भेजना

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ककुद्मति हतेऽरिष्टे धेनुके विनिपातिते।
प्रलम्बे निधनं नीते धृते गोवर्धनाचले॥ १॥
दमिते कालिये नागे भग्ने तुङ्गद्रुमद्वये।
हतायां पूतनायां च शकटे परिवर्तिते॥ २॥
कंसाय नारदः प्राह यथावृत्तमनुक्रमात्।
यशोदादेवकीगर्भपरिवृत्त्याद्यशेषतः॥ ३॥

मूलम्

ककुद्मति हतेऽरिष्टे धेनुके विनिपातिते।
प्रलम्बे निधनं नीते धृते गोवर्धनाचले॥ १॥
दमिते कालिये नागे भग्ने तुङ्गद्रुमद्वये।
हतायां पूतनायां च शकटे परिवर्तिते॥ २॥
कंसाय नारदः प्राह यथावृत्तमनुक्रमात्।
यशोदादेवकीगर्भपरिवृत्त्याद्यशेषतः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—वृषभरूपधारी अरिष्टासुर, धेनुक और प्रलम्ब आदिका वध, गोवर्धनपर्वतका धारण करना, कालियनागका दमन, दो विशाल वृक्षोंका उखाड़ना, पूतनावध तथा शकटका उलट देना आदि अनेक लीलाएँ हो जानेपर एक दिन नारदजीने कंसको, यशोदा और देवकीके गर्भ-परिवर्तनसे लेकर जैसा-जैसा हुआ था, वह सब वृत्तान्त क्रमशः सुना दिया॥ १—३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तत्सकलं कंसो नारदाद्देवदर्शनात्।
वसुदेवं प्रति तदा कोपं चक्रे सुदुर्मतिः॥ ४॥

मूलम्

श्रुत्वा तत्सकलं कंसो नारदाद्देवदर्शनात्।
वसुदेवं प्रति तदा कोपं चक्रे सुदुर्मतिः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदर्शन नारदजीसे ये सब बातें सुनकर दुर्बुद्धि कंसने वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त क्रोध प्रकट किया॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिकोपादुपालभ्य सर्वयादवसंसदि।
जगर्ह यादवांश्चैव कार्यं चैतदचिन्तयत्॥ ५॥
यावन्न बलमारूढौ रामकृष्णौ सुबालकौ।
तावदेव मया वध्यावसाध्यौ रूढयौवनौ॥ ६॥

मूलम्

सोऽतिकोपादुपालभ्य सर्वयादवसंसदि।
जगर्ह यादवांश्चैव कार्यं चैतदचिन्तयत्॥ ५॥
यावन्न बलमारूढौ रामकृष्णौ सुबालकौ।
तावदेव मया वध्यावसाध्यौ रूढयौवनौ॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अत्यन्त कोपसे वसुदेवजीको सम्पूर्ण यादवोंकी सभामें डाँटा तथा समस्त यादवोंकी भी निन्दा की और यह कार्य विचारने लगा—‘ये अत्यन्त बालक राम और कृष्ण जबतक पूर्ण बल प्राप्त नहीं करते हैं तभीतक मुझे इन्हें मार देना चाहिये; क्योंकि युवावस्था प्राप्त होनेपर तो ये अजेय हो जायँगे॥ ५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चाणूरोऽत्र महावीर्यो मुष्टिकश्च महाबलः।
एताभ्यां मल्लयुद्धेन मारयिष्यामि दुर्मती॥ ७॥

मूलम्

चाणूरोऽत्र महावीर्यो मुष्टिकश्च महाबलः।
एताभ्यां मल्लयुद्धेन मारयिष्यामि दुर्मती॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे यहाँ महावीर्यशाली चाणूर और महाबली मुष्टिक-जैसे मल्ल हैं। मैं इनके साथ मल्लयुद्ध कराकर उन दोनों दुर्बुद्धियोंको मरवा डालूँगा॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्महमहायोगव्याजेनानीय तौ व्रजात्।
तथा तथा यतिष्यामि यास्येते सङ्क्षयं यथा॥ ८॥

मूलम्

धनुर्महमहायोगव्याजेनानीय तौ व्रजात्।
तथा तथा यतिष्यामि यास्येते सङ्क्षयं यथा॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें महान् धनुर्यज्ञके मिससे व्रजसे बुलाकर ऐसे-ऐसे उपाय करूँगा, जिससे वे नष्ट हो जायँ॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वफल्कतनयं शूरमक्रूरं यदुपुङ्गवम्।
तयोरानयनार्थाय प्रेषयिष्यामि गोकुलम्॥ ९॥

मूलम्

श्वफल्कतनयं शूरमक्रूरं यदुपुङ्गवम्।
तयोरानयनार्थाय प्रेषयिष्यामि गोकुलम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें लानेके लिये मैं श्वफल्कके पुत्र यादवश्रेष्ठ शूरवीर अक्रूरको गोकुल भेजूँगा॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृन्दावनचरं घोरमादेक्ष्यामि च केशिनम्।
तत्रैवासावतिबलस्तावुभौ घातयिष्यति॥ १०॥

मूलम्

वृन्दावनचरं घोरमादेक्ष्यामि च केशिनम्।
तत्रैवासावतिबलस्तावुभौ घातयिष्यति॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही वृन्दावनमें विचरनेवाले घोर असुर केशीको भी आज्ञा दूँगा, जिससे वह महाबली दैत्य उन्हें वहीं नष्ट कर देगा॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजः कुवलयापीडो मत्सकाशमिहागतौ।
घातयिष्यति वा गोपौ वसुदेवसुतावुभौ॥ ११॥

मूलम्

गजः कुवलयापीडो मत्सकाशमिहागतौ।
घातयिष्यति वा गोपौ वसुदेवसुतावुभौ॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा [यदि किसी प्रकार बचकर] वे दोनों वसुदेवपुत्र गोप मेरे पास आ भी गये तो उन्हें मेरा कुवलयापीड हाथी मार डालेगा’॥ ११॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यालोच्य स दुष्टात्मा कंसो रामजनार्दनौ।
हन्तुं कृतमतिर्वीरावक्रूरं वाक्यमब्रवीत्॥ १२॥

मूलम्

इत्यालोच्य स दुष्टात्मा कंसो रामजनार्दनौ।
हन्तुं कृतमतिर्वीरावक्रूरं वाक्यमब्रवीत्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—ऐसा सोचकर उस दुष्टात्मा कंसने वीरवर राम और कृष्णको मारनेका निश्चय कर अक्रूरजीसे कहा॥ १२॥

मूलम् (वचनम्)

कंस उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो दानपते वाक्यं क्रियतां प्रीतये मम।
इतः स्यन्दनमारुह्य गम्यतां नन्दगोकुलम्॥ १३॥

मूलम्

भो भो दानपते वाक्यं क्रियतां प्रीतये मम।
इतः स्यन्दनमारुह्य गम्यतां नन्दगोकुलम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंस बोला—हे दानपते! मेरी प्रसन्नताके लिये आप मेरी एक बात स्वीकार कर लीजिये। यहाँसे रथपर चढ़कर आप नन्दके गोकुलको जाइये॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवसुतौ तत्र विष्णोरंशसमुद्भवौ।
नाशाय किल सम्भूतौ मम दुष्टौ प्रवर्द्धतः॥ १४॥

मूलम्

वसुदेवसुतौ तत्र विष्णोरंशसमुद्भवौ।
नाशाय किल सम्भूतौ मम दुष्टौ प्रवर्द्धतः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ वसुदेवके विष्णुअंशसे उत्पन्न दो पुत्र हैं। मेरे नाशके लिये उत्पन्न हुए वे दुष्ट बालक वहाँ पोषित हो रहे हैं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्महो ममाप्यत्र चतुर्दश्यां भविष्यति।
आनेयौ भवता गत्वा मल्लयुद्धाय तत्र तौ॥ १५॥

मूलम्

धनुर्महो ममाप्यत्र चतुर्दश्यां भविष्यति।
आनेयौ भवता गत्वा मल्लयुद्धाय तत्र तौ॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे यहाँ चतुर्दशीको धनुषयज्ञ होनेवाला है; अतः आप वहाँ जाकर उन्हें मल्लयुद्धके लिये ले आइये॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चाणूरमुष्टिकौ मल्लौ नियुद्धकुशलौ मम।
ताभ्यां सहानयोर्युद्धं सर्वलोकोऽत्र पश्यतु॥ १६॥

मूलम्

चाणूरमुष्टिकौ मल्लौ नियुद्धकुशलौ मम।
ताभ्यां सहानयोर्युद्धं सर्वलोकोऽत्र पश्यतु॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल युग्म-युद्धमें अति कुशल हैं, [उस धनुर्यज्ञके दिन] उन दोनोंके साथ मेरे इन पहलवानोंका द्वन्द्वयुद्ध यहाँ सब लोग देखें॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजः कुवलयापीडो महामात्रप्रचोदितः।
स वा हनिष्यते पापौ वसुदेवात्मजौ शिशू॥ १७॥

मूलम्

गजः कुवलयापीडो महामात्रप्रचोदितः।
स वा हनिष्यते पापौ वसुदेवात्मजौ शिशू॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा महावतसे प्रेरित हुआ कुवलयापीड नामक गजराज उन दोनों दुष्ट वसुदेव-पुत्र बालकोंको नष्ट कर देगा॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ हत्वा वसुदेवं च नन्दगोपं च दुर्मतिम्।
हनिष्ये पितरं चैनमुग्रसेनं सुदुर्मतिम्॥ १८॥

मूलम्

तौ हत्वा वसुदेवं च नन्दगोपं च दुर्मतिम्।
हनिष्ये पितरं चैनमुग्रसेनं सुदुर्मतिम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उन्हें मारकर मैं दुर्मति वसुदेव, नन्दगोप और इस अपने मन्दमति पिता उग्रसेनको भी मार डालूँगा॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्समस्तगोपानां गोधनान्यखिलान्यहम्।
वित्तं चापहरिष्यामि दुष्टानां मद्वधैषिणाम्॥ १९॥

मूलम्

ततस्समस्तगोपानां गोधनान्यखिलान्यहम्।
वित्तं चापहरिष्यामि दुष्टानां मद्वधैषिणाम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर, मेरे वधकी इच्छावाले इन समस्त दुष्ट गोपोंके सम्पूर्ण गोधन तथा धनको मैं छीन लूँगा॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामृते यादवाश्चैते द्विषो दानपते मम।
एतेषां च वधायाहं यतिष्येऽनुक्रमात्ततः॥ २०॥

मूलम्

त्वामृते यादवाश्चैते द्विषो दानपते मम।
एतेषां च वधायाहं यतिष्येऽनुक्रमात्ततः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दानपते! आपके अतिरिक्त ये सभी यादवगण मुझसे द्वेष करते हैं, अतः मैं क्रमशः इन सभीको नष्ट करनेका प्रयत्न करूँगा॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीर गम्यताम्॥ २१॥

मूलम्

तदा निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीर गम्यताम्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मैं आपके साथ मिलकर इस यादवहीन राज्यको निर्विघ्नतापूर्वक भोगूँगा, अतः हे वीर! मेरी प्रसन्नताके लिये आप शीघ्र ही जाइये॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च माहिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
गोपास्समानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते॥ २२॥

मूलम्

यथा च माहिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
गोपास्समानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप गोकुलमें पहुँचकर गोपगणोंसे इस प्रकार कहें जिससे वे माहिष्य (भैंसके) घृत और दधि आदि उपहारोंके सहित शीघ्र ही यहाँ आ जायँ॥ २२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्याज्ञप्तस्तदाक्रूरो महाभागवतो द्विज।
प्रीतिमानभवत्कृष्णं श्वो द्रक्ष्यामीति सत्वरः॥ २३॥

मूलम्

इत्याज्ञप्तस्तदाक्रूरो महाभागवतो द्विज।
प्रीतिमानभवत्कृष्णं श्वो द्रक्ष्यामीति सत्वरः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! कंससे ऐसी आज्ञा पा महाभागवत अक्रूरजी ‘कल मैं शीघ्र ही श्रीकृष्णचन्द्रको देखूँगा’—यह सोचकर अति प्रसन्न हुए॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वा च राजानं रथमारुह्य शोभनम्।
निश्चक्राम ततः पुर्या मथुराया मधुप्रियः॥ २४॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा च राजानं रथमारुह्य शोभनम्।
निश्चक्राम ततः पुर्या मथुराया मधुप्रियः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव-प्रिय अक्रूरजी राजा कंससे ‘जो आज्ञा’ कह एक अति सुन्दर रथपर चढ़े और मथुरापुरीसे बाहर निकल आये॥ २४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥