१३

[तेरहवाँ अध्याय]

विषय

गोपोंद्वारा भगवान् का प्रभाववर्णन तथा भगवान् का गोपियोंके साथ रासक्रीडा करना

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते शक्रे तु गोपालाः कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ।
ऊचुः प्रीत्या धृतं दृष्ट्वा तेन गोवर्धनाचलम्॥ १॥

मूलम्

गते शक्रे तु गोपालाः कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ।
ऊचुः प्रीत्या धृतं दृष्ट्वा तेन गोवर्धनाचलम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—इन्द्रके चले जानेपर लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको बिना प्रयास ही गोवर्धन-पर्वत धारण करते देख गोपगण उनसे प्रीतिपूर्वक बोले—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमस्मान्महाभाग भगवन्महतो भयात् ।
गावश्च भवता त्राता गिरिधारणकर्मणा॥ २॥

मूलम्

वयमस्मान्महाभाग भगवन्महतो भयात् ।
गावश्च भवता त्राता गिरिधारणकर्मणा॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भगवन्! हे महाभाग! आपने गिरिराजको धारण कर हमारी और गौओंकी इस महान् भयसे रक्षा की है॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालक्रीडेयमतुला गोपालत्वं जुगुप्सितम् ।
दिव्यं च भवतः कर्म किमेतत्तात कथ्यताम्॥ ३॥

मूलम्

बालक्रीडेयमतुला गोपालत्वं जुगुप्सितम् ।
दिव्यं च भवतः कर्म किमेतत्तात कथ्यताम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! कहाँ आपकी यह अनुपम बाललीला, कहाँ निन्दित गोपजाति और कहाँ ये दिव्य कर्म? यह सब क्या है, कृपया हमें बतलाइये॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालियो दमितस्तोये धेनुको विनिपातितः ।
धृतो गोवर्धनश्चायं शङ्कितानि मनांसि नः॥ ४॥

मूलम्

कालियो दमितस्तोये धेनुको विनिपातितः ।
धृतो गोवर्धनश्चायं शङ्कितानि मनांसि नः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने यमुनाजलमें कालियनागका दमन किया, धेनुकासुरको मारा और फिर यह गोवर्धनपर्वत धारण किया; आपके इन अद्भुत कर्मोंसे हमारे चित्तमें बड़ी शंका हो रही है॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं सत्यं हरेः पादौ शपामोऽमितविक्रम ।
यथावद्वीर्यमालोक्य न त्वां मन्यामहे नरम्॥ ५॥

मूलम्

सत्यं सत्यं हरेः पादौ शपामोऽमितविक्रम ।
यथावद्वीर्यमालोक्य न त्वां मन्यामहे नरम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अमितविक्रम! हम भगवान् हरिके चरणोंकी शपथ करके आपसे सच-सच कहते हैं कि आपके ऐसे बल-वीर्यको देखकर हम आपको मनुष्य नहीं मान सकते॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिः सस्त्रीकुमारस्य व्रजस्य त्वयि केशव ।
कर्म चेदमशक्यं यत्समस्तैस्त्रिदशैरपि॥ ६॥

मूलम्

प्रीतिः सस्त्रीकुमारस्य व्रजस्य त्वयि केशव ।
कर्म चेदमशक्यं यत्समस्तैस्त्रिदशैरपि॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे केशव! स्त्री और बालकोंके सहित सभी व्रजवासियोंकी आपपर अत्यन्त प्रीति है । आपका यह कर्म तो देवताओंके लिये भी दुष्कर है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालत्वं चातिवीर्यत्वं जन्म चास्मास्वशोभनम् ।
चिन्त्यमानममेयात्मञ्छङ्का कृष्ण प्रयच्छति॥ ७॥

मूलम्

बालत्वं चातिवीर्यत्वं जन्म चास्मास्वशोभनम् ।
चिन्त्यमानममेयात्मञ्छङ्का कृष्ण प्रयच्छति॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृष्ण! आपकी यह बाल्यावस्था, विचित्र बल-वीर्य और हम-जैसे नीच पुरुषोंमें जन्म लेना—हे अमेयात्मन्! ये सब बातें विचार करनेपर हमें शंकामें डाल देती हैं॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा ।
किमस्माकं विचारेण बान्धवोऽसि नमोऽस्तुते॥ ८॥

मूलम्

देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा ।
किमस्माकं विचारेण बान्धवोऽसि नमोऽस्तुते॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप देवता हों, दानव हों, यक्ष हों अथवा गन्धर्व हों; इन बातोंका विचार करनेसे हमें क्या प्रयोजन है? हमारे तो आप बन्धु ही हैं, अतः आपको नमस्कार है॥ ८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणं भूत्वा त्वसौ तूष्णीं किञ्चित्प्रणयकोपवान् ।
इत्येवमुक्तस्तैर्गोपैः कृष्णोऽप्याह महामतिः॥ ९॥

मूलम्

क्षणं भूत्वा त्वसौ तूष्णीं किञ्चित्प्रणयकोपवान् ।
इत्येवमुक्तस्तैर्गोपैः कृष्णोऽप्याह महामतिः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—गोपगणके ऐसा कहनेपर महामति कृष्णचन्द्र कुछ देरतक चुप रहे और फिर कुछ प्रणयजन्य कोपपूर्वक इस प्रकार कहने लगे—॥ ९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्सम्बन्धेन वो गोपा यदि लज्जा न जायते ।
श्लाघ्यो वाहं ततः किं वो विचारेण प्रयोजनम्॥ १०॥

मूलम्

मत्सम्बन्धेन वो गोपा यदि लज्जा न जायते ।
श्लाघ्यो वाहं ततः किं वो विचारेण प्रयोजनम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् ने कहा—हे गोपगण! यदि आपलोगोंको मेरे सम्बन्धसे किसी प्रकारकी लज्जा न हो तो मैं आपलोगोंसे प्रशंसनीय हूँ इस बातका विचार करनेकी भी क्या आवश्यकता है?॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वोऽस्ति मयि प्रीतिः श्लाघ्योऽहं भवतां यदि ।
तदात्मबन्धुसदृशी बुद्धिर्वः क्रियतां मयि॥ ११॥

मूलम्

यदि वोऽस्ति मयि प्रीतिः श्लाघ्योऽहं भवतां यदि ।
तदात्मबन्धुसदृशी बुद्धिर्वः क्रियतां मयि॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मुझमें आपकी प्रीति है और यदि मैं आपकी प्रशंसाका पात्र हूँ तो आपलोग मुझमें बान्धव-बुद्धि ही करें॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो न च दानवः ।
अहं वो बान्धवो जातो नैतच्चिन्त्यमितोऽन्यथा॥ १२॥

मूलम्

नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो न च दानवः ।
अहं वो बान्धवो जातो नैतच्चिन्त्यमितोऽन्यथा॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं न देव हूँ, न गन्धर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव हूँ । मैं तो आपके बान्धवरूपसे ही उत्पन्न हुआ हूँ; आपलोगोंको इस विषयमें और कुछ विचार न करना चाहिये॥ १२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं बद्धमौनास्ततो वनम् ।
ययुर्गोपा महाभाग तस्मिन्प्रणयकोपिनि॥ १३॥

मूलम्

इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं बद्धमौनास्ततो वनम् ।
ययुर्गोपा महाभाग तस्मिन्प्रणयकोपिनि॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे महाभाग! श्रीहरिके प्रणयकोपयुक्त होकर कहे हुए इन वाक्योंको सुनकर वे समस्त गोपगण चुपचाप वनको चले गये॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्तु विमलं व्योम शरच्चन्द्रस्य चन्द्रिकाम् ।
तदा कुमुदिनीं फुल्लामामोदितदिगन्तराम्॥ १४॥
वनराजिं तथा कूजद‍‍्भृङ्गमालामनोहराम् ।
विलोक्य सह गोपीभिर्मनश्चक्रे रतिं प्रति॥ १५॥

मूलम्

कृष्णस्तु विमलं व्योम शरच्चन्द्रस्य चन्द्रिकाम् ।
तदा कुमुदिनीं फुल्लामामोदितदिगन्तराम्॥ १४॥
वनराजिं तथा कूजद‍‍्भृङ्गमालामनोहराम् ।
विलोक्य सह गोपीभिर्मनश्चक्रे रतिं प्रति॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीकृष्णचन्द्रने निर्मल आकाश, शरच्चन्द्रकी चन्द्रिका और दिशाओंको सुरभित करनेवाली विकसित कुमुदिनी तथा वन-खण्डीको मुखर मधुकरोंसे मनोहर देखकर गोपियोंके साथ रमण करनेकी इच्छा की॥ १४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विना रामेण मधुरमतीव वनिताप्रियम् ।
जगौ कलपदं शौरिस्तारमन्द्रकृतक्रमम्॥ १६॥

मूलम्

विना रामेण मधुरमतीव वनिताप्रियम् ।
जगौ कलपदं शौरिस्तारमन्द्रकृतक्रमम्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बलरामजीके बिना ही श्रीमुरलीमनोहर स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाला अत्यन्त मधुर, अस्फुट एवं मृदुल पद ऊँचे और धीमे स्वरसे गाने लगे॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रम्यं गीतध्वनिं श्रुत्वा सन्त्यज्यावसथांस्तदा ।
आजग्मुस्त्वरिता गोप्यो यत्रास्ते मधुसूदनः॥ १७॥

मूलम्

रम्यं गीतध्वनिं श्रुत्वा सन्त्यज्यावसथांस्तदा ।
आजग्मुस्त्वरिता गोप्यो यत्रास्ते मधुसूदनः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी उस सुरम्य गीतध्वनिको सुनकर गोपियाँ अपने-अपने घरोंको छोड़कर तत्काल जहाँ श्रीमधुसूदन थे वहाँ चली आयीं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शनैश्शनैर्जगौ गोपी काचित्तस्य लयानुगम् ।
दत्तावधाना काचिच्च तमेव मनसास्मरत्॥ १८॥

मूलम्

शनैश्शनैर्जगौ गोपी काचित्तस्य लयानुगम् ।
दत्तावधाना काचिच्च तमेव मनसास्मरत्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ आकर कोई गोपी तो उनके स्वर-में-स्वर मिलाकर धीरे-धीरे गाने लगी और कोई मन-ही-मन उन्हींका स्मरण करने लगी॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचित्कृष्णेति कृष्णेति प्रोच्य लज्जामुपाययौ ।
ययौ च काचित्प्रेमान्धा तत्पार्श्वमविलम्बितम्॥ १९॥

मूलम्

काचित्कृष्णेति कृष्णेति प्रोच्य लज्जामुपाययौ ।
ययौ च काचित्प्रेमान्धा तत्पार्श्वमविलम्बितम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई ‘हे कृष्ण, हे कृष्ण’ ऐसा कहती हुई लज्जावश संकुचित हो गयी और कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरन्त उनके पास जा खड़ी हुई॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिच्चावसथस्यान्ते स्थित्वा दृष्ट्वाबहिर्गुरुम् ।
तन्मयत्वेन गोविन्दं दध्यौ मीलितलोचना॥ २०॥

मूलम्

काचिच्चावसथस्यान्ते स्थित्वा दृष्ट्वाबहिर्गुरुम् ।
तन्मयत्वेन गोविन्दं दध्यौ मीलितलोचना॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई गोपी बाहर गुरुजनोंको देखकर अपने घरमें ही रहकर आँख मूँदकर तन्मयभावसे श्रीगोविन्दका ध्यान करने लगी॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्चित्तविमलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा ।
तदप्राप्तिमहादुःखविलीनाशेषपातका॥ २१॥
चिन्तयन्ती जगत्सूतिं परब्रह्मस्वरूपिणम् ।
निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका॥ २२॥

मूलम्

तच्चित्तविमलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा ।
तदप्राप्तिमहादुःखविलीनाशेषपातका॥ २१॥
चिन्तयन्ती जगत्सूतिं परब्रह्मस्वरूपिणम् ।
निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा कोई गोपकुमारी जगत‍्के कारण परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रका चिन्तन करते-करते [मूर्च्छावस्थामें] प्राणापानके रुक जानेसे मुक्त हो गयी, क्योंकि भगवद्ध्यानके विमल आह्लादसे उसकी समस्त पुण्यराशि क्षीण हो गयी और भगवान् की अप्राप्तिके महान् दुःखसे उसके समस्त पाप लीन हो गये थे॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपीपरिवृतो रात्रिं शरच्चन्द्रमनोरमाम् ।
मानयामास गोविन्दो रासारम्भरसोत्सुकः॥ २३॥

मूलम्

गोपीपरिवृतो रात्रिं शरच्चन्द्रमनोरमाम् ।
मानयामास गोविन्दो रासारम्भरसोत्सुकः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपियोंसे घिरे हुए रासारम्भरूप रसके लिये उत्कण्ठित श्रीगोविन्दने उस शरच्चन्द्रसुशोभिता रात्रिको [रास करके] सम्मानित किया॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्यश्च वृन्दशः कृष्णचेष्टास्वायत्तमूर्तयः ।
अन्यदेशं गते कृष्णे चेरुर्वृन्दावनान्तरम्॥ २४॥

मूलम्

गोप्यश्च वृन्दशः कृष्णचेष्टास्वायत्तमूर्तयः ।
अन्यदेशं गते कृष्णे चेरुर्वृन्दावनान्तरम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् कृष्णके अन्यत्र चले जानेपर कृष्णचेष्टाके अधीन हुईं गोपियाँ यूथ बनाकर वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णे निबद्धहृदया इदमूचुः परस्परम्॥ २५॥
कृष्णोऽहमेष ललितं व्रजाम्यालोक्यतां गतिः ।
अन्या ब्रवीति कृष्णस्य मम गीतिर्निशम्यताम्॥ २६॥

मूलम्

कृष्णे निबद्धहृदया इदमूचुः परस्परम्॥ २५॥
कृष्णोऽहमेष ललितं व्रजाम्यालोक्यतां गतिः ।
अन्या ब्रवीति कृष्णस्य मम गीतिर्निशम्यताम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णमें निबद्धचित्त हुई वे व्रजांगनाएँ परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगीं—[उसमेंसे एक गोपी कहती थी—] ‘‘मैं ही कृष्ण हूँ; देखो, कैसी सुन्दर चालसे चलता हूँ; तनिक मेरी गति तो देखो ।’’ दूसरी कहती—‘‘कृष्ण तो मैं हूँ, अहा! मेरा गाना तो सुनो’’॥ २५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्टकालिय तिष्ठात्र कृष्णोऽहमिति चापरा ।
बाहुमास्फोट्य कृष्णस्य लीलया सर्वमाददे॥ २७॥

मूलम्

दुष्टकालिय तिष्ठात्र कृष्णोऽहमिति चापरा ।
बाहुमास्फोट्य कृष्णस्य लीलया सर्वमाददे॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई अन्य गोपी भुजाएँ ठोंककर बोल उठती—‘‘अरे दुष्ट कालिय! मैं कृष्ण हूँ, तनिक ठहर तो जा’’ ऐसा कहकर वह कृष्णके सारे चरित्रोंका लीलापूर्वक अनुकरण करने लगती॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्या ब्रवीति भो गोपा निश्शांकैः स्थीयतामिति ।
अलं वृष्टिभयेनात्र धृतो गोवर्धनो मया॥ २८॥

मूलम्

अन्या ब्रवीति भो गोपा निश्शांकैः स्थीयतामिति ।
अलं वृष्टिभयेनात्र धृतो गोवर्धनो मया॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई और गोपी कहने लगती—‘‘अरे गोपगण! मैंने गोवर्धन धारण कर लिया है, तुम वर्षासे मत डरो, निश्शंक होकर इसके नीचे आकर बैठ जाओ’’॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धेनुकोऽयं मयाक्षिप्तो विचरन्तु यथेच्छया ।
गावो ब्रवीति चैवान्या कृष्णलीलानुसारिणी॥ २९॥

मूलम्

धेनुकोऽयं मयाक्षिप्तो विचरन्तु यथेच्छया ।
गावो ब्रवीति चैवान्या कृष्णलीलानुसारिणी॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई दूसरी गोपी कृष्णलीलाओंका अनुकरण करती हुई बोलने लगती—‘‘मैंने धेनुकासुरको मार दिया है, अब यहाँ गौएँ स्वच्छन्द होकर विचरें’’॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं नानाप्रकारासु कृष्णचेष्टासु तास्तदा ।
गोप्यो व्यग्राः समं चेरू रम्यं वृन्दावनान्तरम्॥ ३०॥

मूलम्

एवं नानाप्रकारासु कृष्णचेष्टासु तास्तदा ।
गोप्यो व्यग्राः समं चेरू रम्यं वृन्दावनान्तरम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समस्त गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्रकी नाना प्रकारकी चेष्टाओंमें व्यग्र होकर साथ-साथ अति सुरम्य वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोक्यैका भुवं प्राह गोपी गोपवराङ्गना ।
पुलकाञ्चितसर्वाङ्गी विकासिनयनोत्पला॥ ३१॥

मूलम्

विलोक्यैका भुवं प्राह गोपी गोपवराङ्गना ।
पुलकाञ्चितसर्वाङ्गी विकासिनयनोत्पला॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

खिले हुए कमल-जैसे नेत्रोंवाली एक सुन्दरी गोपांगना सर्वांग पुलकित हो पृथिवीकी ओर देखकर कहने लगी—॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजवज्राङ्कुशाब्जाङ्करेखावन्त्यालि पश्यत ।
पदान्येतानि कृष्णस्य लीलाललितगामिनः॥ ३२॥

मूलम्

ध्वजवज्राङ्कुशाब्जाङ्करेखावन्त्यालि पश्यत ।
पदान्येतानि कृष्णस्य लीलाललितगामिनः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरी आली! ये लीलाललितगामी कृष्णचन्द्रके ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल आदिकी रेखाओंसे सुशोभित पदचिह्न तो देखो॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कापि तेन समायाता कृतपुण्या मदालसा ।
पदानि तस्याश्चैतानि घनान्यल्पतनूनि च॥ ३३॥

मूलम्

कापि तेन समायाता कृतपुण्या मदालसा ।
पदानि तस्याश्चैतानि घनान्यल्पतनूनि च॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

और देखो, उनके साथ कोई पुण्यवती मदमाती युवती भी आ गयी है, उसके ये घने छोटे-छोटे और पतले चरणचिह्न दिखायी दे रहे हैं॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पापचयमत्रोच्चैश्चक्रे दामोदरो ध्रुवम् ।
येनाग्राक्रान्तमात्राणि पदान्यत्र महात्मनः॥ ३४॥

मूलम्

पुष्पापचयमत्रोच्चैश्चक्रे दामोदरो ध्रुवम् ।
येनाग्राक्रान्तमात्राणि पदान्यत्र महात्मनः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ निश्चय ही दामोदरने ऊँचे होकर पुष्पचयन किये हैं; इसी कारण यहाँ उन महात्माके चरणोंके केवल अग्रभाग ही अंकित हुए हैं॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रोपविश्य वै तेन काचित्पुष्पैरलंकृता ।
अन्यजन्मनि सर्वात्मा विष्णुरभ्यर्चितस्तया॥ ३५॥

मूलम्

अत्रोपविश्य वै तेन काचित्पुष्पैरलंकृता ।
अन्यजन्मनि सर्वात्मा विष्णुरभ्यर्चितस्तया॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ बैठकर उन्होंने निश्चय ही किसी बड़भागिनीका पुष्पोंसे शृंगार किया है; अवश्य ही उसने अपने पूर्वजन्ममें सर्वात्मा श्रीविष्णुभगवान् की उपासना की होगी॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पबन्धनसम्मानकृतमानामपास्य ताम् ।
नन्दगोपसुतो यातो मार्गेणानेन पश्यत॥ ३६॥

मूलम्

पुष्पबन्धनसम्मानकृतमानामपास्य ताम् ।
नन्दगोपसुतो यातो मार्गेणानेन पश्यत॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यह देखो, पुष्पबन्धनके सम्मानसे गर्विता होकर उसके मान करनेपर श्रीनन्दनन्दन उसे छोड़कर इस मार्गसे चले गये हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुयातैनमत्रान्या नितम्बभरमन्थरा ।
या गन्तव्ये द्रुतं याति निम्नपादाग्रसंस्थितिः॥ ३७॥

मूलम्

अनुयातैनमत्रान्या नितम्बभरमन्थरा ।
या गन्तव्ये द्रुतं याति निम्नपादाग्रसंस्थितिः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरी सखियो! देखो, यहाँ कोई नितम्बभारके कारण मन्दगामिनी गोपी कृष्णचन्द्रके पीछे-पीछे गयी है । वह अपने गन्तव्य स्थानको तीव्रगतिसे गयी है, इसीसे उसके चरणचिह्नोंके अग्रभाग कुछ नीचे दिखायी देते हैं॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तन्यस्ताग्रहस्तेयं तेन याति तथा सखी ।
अनायत्तपदन्यासा लक्ष्यते पदपद्धतिः॥ ३८॥

मूलम्

हस्तन्यस्ताग्रहस्तेयं तेन याति तथा सखी ।
अनायत्तपदन्यासा लक्ष्यते पदपद्धतिः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ वह सखी उनके हाथमें अपना पाणिपल्लव देकर चली है, इसीसे उसके चरणचिह्न पराधीन-से दिखलायी देते हैं॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तसंस्पर्शमात्रेण धूर्तेनैषा विमानिता ।
नैराश्यान्मन्दगामिन्या निवृत्तं लक्ष्यते पदम्॥ ३९॥

मूलम्

हस्तसंस्पर्शमात्रेण धूर्तेनैषा विमानिता ।
नैराश्यान्मन्दगामिन्या निवृत्तं लक्ष्यते पदम्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, यहाँसे उस मन्दगामिनीके निराश होकर लौटनेके चरणचिह्न दीख रहे हैं, मालूम होता है उस धूर्तने [उसकी अन्य आन्तरिक अभिलाषाओंको पूर्ण किये बिना ही] केवल कर-स्पर्श करके उसका अपमान किया है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनमुक्ता त्वरामीति पुनरेष्यामि तेऽन्तिकम् ।
तेन कृष्णेन येनैषा त्वरिता पदपद्धतिः॥ ४०॥

मूलम्

नूनमुक्ता त्वरामीति पुनरेष्यामि तेऽन्तिकम् ।
तेन कृष्णेन येनैषा त्वरिता पदपद्धतिः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ कृष्णने अवश्य उस गोपीसे कहा है ‘[तू यहीं बैठ] मैं शीघ्र ही जाता हूँ [इस वनमें रहनेवाले राक्षसको मारकर] पुनः तेरे पास लौट आऊँगा । इसीलिये यहाँ उनके चरणोंके चिह्न शीघ्र गतिके-से दीख रहे हैं’॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टो गहनं कृष्णः पदमत्र न लक्ष्यते ।
निवर्तध्वं शशाङ्कस्य नैतद्दीधितिगोचरे॥ ४१॥

मूलम्

प्रविष्टो गहनं कृष्णः पदमत्र न लक्ष्यते ।
निवर्तध्वं शशाङ्कस्य नैतद्दीधितिगोचरे॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँसे कृष्णचन्द्र गहन वनमें चले गये हैं, इसीसे उनके चरण-चिह्न दिखलायी नहीं देते; अब सब लौट चलो; इस स्थानपर चन्द्रमाकी किरणें नहीं पहुँच सकतीं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तास्तास्तदा गोप्यो निराशाः कृष्णदर्शने ।
यमुनातीरमासाद्य जगुस्तच्चरितं तथा॥ ४२॥

मूलम्

निवृत्तास्तास्तदा गोप्यो निराशाः कृष्णदर्शने ।
यमुनातीरमासाद्य जगुस्तच्चरितं तथा॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे गोपियाँ कृष्ण-दर्शनसे निराश होकर लौट आयीं और यमुनातटपर आकर उनके चरितोंको गाने लगीं॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ददृशुरायान्तं विकासिमुखपंकजम् ।
गोप्यस्त्रैलोक्यगोप्तारं कृष्णमक्लिष्टचेष्टितम्॥ ४३॥

मूलम्

ततो ददृशुरायान्तं विकासिमुखपंकजम् ।
गोप्यस्त्रैलोक्यगोप्तारं कृष्णमक्लिष्टचेष्टितम्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब गोपियोंने प्रसन्नमुखारविन्द त्रिभुवनरक्षक लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको वहाँ आते देखा॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिदालोक्य गोविन्दमायान्तमतिहर्षिता ।
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति प्राह नान्यदुदीरयत्॥ ४४॥

मूलम्

काचिदालोक्य गोविन्दमायान्तमतिहर्षिता ।
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति प्राह नान्यदुदीरयत्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कोई गोपी तो श्रीगोविन्दको आते देखकर अति हर्षित हो केवल ‘कृष्ण! कृष्ण!! कृष्ण!!!’ इतना ही कहती रह गयी और कुछ न बोल सकी॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिद‍्भ्रूभङ्गुरं कृत्वा ललाटफलकं हरिम् ।
विलोक्य नेत्रभृङ्गाभ्यां पपौ तन्मुखपंकजम्॥ ४५॥

मूलम्

काचिद‍्भ्रूभङ्गुरं कृत्वा ललाटफलकं हरिम् ।
विलोक्य नेत्रभृङ्गाभ्यां पपौ तन्मुखपंकजम्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई [प्रणयकोपवश] अपनी भ्रूभंगीसे ललाट सिकोड़कर श्रीहरिको देखते हुए अपने नेत्ररूप भ्रमरोंद्वारा उनके मुखकमलका मकरन्द पान करने लगी॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिदालोक्य गोविन्दं निमीलितविलोचना ।
तस्यैव रूपं ध्यायन्ती योगारूढेव सा बभौ॥ ४६॥

मूलम्

काचिदालोक्य गोविन्दं निमीलितविलोचना ।
तस्यैव रूपं ध्यायन्ती योगारूढेव सा बभौ॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई गोपी गोविन्दको देख नेत्र मूँदकर उन्हींके रूपका ध्यान करती हुई योगारूढ-सी भासित होने लगी॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः काञ्चित्प्रियालापैः काञ्चिद‍्भ्रूभङ्गवीक्षितैः ।
निन्येऽनुनयमन्यां च करस्पर्शेन माधवः॥ ४७॥

मूलम्

ततः काञ्चित्प्रियालापैः काञ्चिद‍्भ्रूभङ्गवीक्षितैः ।
निन्येऽनुनयमन्यां च करस्पर्शेन माधवः॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीमाधव किसीसे प्रिय भाषण करके, किसीकी ओर भ्रूभंगीसे देखकर और किसीका हाथ पकड़कर उन्हें मनाने लगे॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताभिः प्रसन्नचित्ताभिर्गोपीभिस्सह सादरम् ।
ररास रासगोष्ठीभिरुदारचरितो हरिः॥ ४८॥

मूलम्

ताभिः प्रसन्नचित्ताभिर्गोपीभिस्सह सादरम् ।
ररास रासगोष्ठीभिरुदारचरितो हरिः॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उदारचरित श्रीहरिने उन प्रसन्नचित्त गोपियोंके साथ रासमण्डल बनाकर आदरपूर्वक रमण किया॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रासमण्डलबन्धोऽपि कृष्णपार्श्वमनुज्झता ।
गोपीजनेन नैवाभूदेकस्थानस्थिरात्मना॥ ४९॥

मूलम्

रासमण्डलबन्धोऽपि कृष्णपार्श्वमनुज्झता ।
गोपीजनेन नैवाभूदेकस्थानस्थिरात्मना॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु उस समय कोई भी गोपी कृष्णचन्द्रकी सन्निधिको न छोड़ना चाहती थी; इसलिये एक ही स्थानपर स्थिर रहनेके कारण रासोचित मण्डल न बन सका॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तेन गृह्य चैकैकां गोपीनां रासमण्डलम् ।
चकार तत्करस्पर्शनिमीलितदृशं हरिः॥ ५०॥

मूलम्

हस्तेन गृह्य चैकैकां गोपीनां रासमण्डलम् ।
चकार तत्करस्पर्शनिमीलितदृशं हरिः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन गोपियोंमेंसे एक-एकका हाथ पकड़कर श्रीहरिने रासमण्डलकी रचना की । उस समय उनके करस्पर्शसे प्रत्येक गोपीकी आँखें आनन्दसे मुँद जाती थीं॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रववृते रासश्चलद्वलयनिस्वनः ।
अनुयातशरत्काव्यगेयगीतिरनुक्रमात्॥ ५१॥

मूलम्

ततः प्रववृते रासश्चलद्वलयनिस्वनः ।
अनुयातशरत्काव्यगेयगीतिरनुक्रमात्॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रासक्रीडा आरम्भ हुई । उसमें गोपियोंके चंचल कंकणोंकी झनकार होने लगी और फिर क्रमशः शरद‍्वर्णन-सम्बन्धी गीत होने लगे॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णश्शरच्चन्द्रमसं कौमुदीं कुमुदाकरम् ।
जगौ गोपीजनस्त्वेकं कृष्णनाम पुनः पुनः॥ ५२॥

मूलम्

कृष्णश्शरच्चन्द्रमसं कौमुदीं कुमुदाकरम् ।
जगौ गोपीजनस्त्वेकं कृष्णनाम पुनः पुनः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कृष्णचन्द्र चन्द्रमा, चन्द्रिका और कुमुदवन-सम्बन्धी गान करने लगे; किन्तु गोपियोंने तो बारम्बार केवल कृष्णनामका ही गान किया॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवृत्तिश्रमेणैका चलद्वलयलापिनीम् ।
ददौ बाहुलतां स्कन्धे गोपी मधुनिघातिनः॥ ५३॥

मूलम्

परिवृत्तिश्रमेणैका चलद्वलयलापिनीम् ।
ददौ बाहुलतां स्कन्धे गोपी मधुनिघातिनः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर एक गोपीने नृत्य करते-करते थककर चंचल कंकणकी झनकारसे युक्त अपनी बाहुलता श्रीमधुसूदनके गलेमें डाल दी॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचित्प्रविलसद‍्बाहुः परिरभ्य चुचुम्ब तम् ।
गोपी गीतस्तुतिव्याजान्निपुणा मधुसूदनम्॥ ५४॥

मूलम्

काचित्प्रविलसद‍्बाहुः परिरभ्य चुचुम्ब तम् ।
गोपी गीतस्तुतिव्याजान्निपुणा मधुसूदनम्॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी निपुण गोपीने भगवान् के गानकी प्रशंसा करनेके बहाने भुजा फैलाकर श्रीमधुसूदनको आलिंगन करके चूम लिया॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपीकपोलसंश्लेषमभिगम्य हरेर्भुजौ ।
पुलकोद‍्गमसस्याय स्वेदाम्बुघनतां गतौ॥ ५५॥

मूलम्

गोपीकपोलसंश्लेषमभिगम्य हरेर्भुजौ ।
पुलकोद‍्गमसस्याय स्वेदाम्बुघनतां गतौ॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीहरिकी भुजाएँ गोपियोंके कपोलोंका चुम्बन पाकर उन (कपोलों)-में पुलकावलिरूप धान्यकी उत्पत्तिके लिये स्वेदरूप जलके मेघ बन गयीं॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रासगेयं जगौ कृष्णो यावत्तारतरध्वनिः ।
साधु कृष्णेति कृष्णेति तावत्ता द्विगुणं जगुः॥ ५६॥

मूलम्

रासगेयं जगौ कृष्णो यावत्तारतरध्वनिः ।
साधु कृष्णेति कृष्णेति तावत्ता द्विगुणं जगुः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णचन्द्र जितने उच्चस्वरसे रासोचित गान गाते थे उससे दूने शब्दसे गोपियाँ ‘‘धन्य कृष्ण! धन्य कृष्ण!!’’ की ही ध्वनि लगा रही थीं॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतेऽनुगमनं चक्रुर्वलने सम्मुखं ययुः ।
प्रतिलोमानुलोमाभ्यां भेजुर्गोपाङ्गना हरिम्॥ ५७॥

मूलम्

गतेऽनुगमनं चक्रुर्वलने सम्मुखं ययुः ।
प्रतिलोमानुलोमाभ्यां भेजुर्गोपाङ्गना हरिम्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के आगे जानेपर गोपियाँ उनके पीछे जातीं और लौटनेपर सामने चलतीं, इस प्रकार वे अनुलोम और प्रतिलोम-गतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा सह गोपीभी ररास मधुसूदनः ।
यथाब्दकोटिप्रतिमः क्षणस्तेन विनाभवत्॥ ५८॥

मूलम्

स तथा सह गोपीभी ररास मधुसूदनः ।
यथाब्दकोटिप्रतिमः क्षणस्तेन विनाभवत्॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमधुसूदन भी गोपियोंके साथ इस प्रकार रासक्रीडा कर रहे थे कि उनके बिना एक क्षण भी गोपियोंको करोड़ों वर्षोंके समान बीतता था॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिभ्रार्तृभिस्तथा ।
कृष्णं गोपाङ्गना रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः॥ ५९॥

मूलम्

ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिभ्रार्तृभिस्तथा ।
कृष्णं गोपाङ्गना रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे रास-रसिक गोपांगनाएँ पति, माता-पिता और भ्राता आदिके रोकनेपर भी रात्रिमें श्रीश्यामसुन्दरके साथ विहार करती थीं॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि कैशोरकवयो मानयन्मधुसूदनः ।
रेमे ताभिरमेयात्मा क्षपासु क्षपिताहितः॥ ६०॥

मूलम्

सोऽपि कैशोरकवयो मानयन्मधुसूदनः ।
रेमे ताभिरमेयात्मा क्षपासु क्षपिताहितः॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुहन्ता अमेयात्मा श्रीमधुसूदन भी अपनी किशोरावस्थाका मान करते हुए रात्रिके समय उनके साथ रमण करते थे॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्भर्तृषु तथा तासु सर्वभूतेषु चेश्वरः ।
आत्मस्वरूपरूपोऽसौ व्यापी वायुरिव स्थितः॥ ६१॥

मूलम्

तद्भर्तृषु तथा तासु सर्वभूतेषु चेश्वरः ।
आत्मस्वरूपरूपोऽसौ व्यापी वायुरिव स्थितः॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सर्वव्यापी ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंमें, उनके पतियोंमें तथा समस्त प्राणियोंमें आत्मस्वरूपसे वायुके समान व्याप्त थे॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा समस्तभूतेषु नभोऽग्निः पृथिवी जलम् ।
वायुश्चात्मा तथैवासौ व्याप्य सर्वमवस्थितः॥ ६२॥

मूलम्

यथा समस्तभूतेषु नभोऽग्निः पृथिवी जलम् ।
वायुश्चात्मा तथैवासौ व्याप्य सर्वमवस्थितः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार आकाश, अग्नि, पृथिवी, जल, वायु और आत्मा समस्त प्राणियोंमें व्याप्त हैं उसी प्रकार वे भी सब पदार्थोंमें व्यापक हैं॥ ६२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३॥