[बारहवाँ अध्याय]
विषय
शक्र-कृष्ण-संवाद, कृष्ण-स्तुति
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृते गोवर्धने शैले परित्राते च गोकुले।
रोचयामास कृष्णस्य दर्शनं पाकशासनः॥ १॥
मूलम्
धृते गोवर्धने शैले परित्राते च गोकुले।
रोचयामास कृष्णस्य दर्शनं पाकशासनः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—इस प्रकार गोवर्धनपर्वतका धारण और गोकुलकी रक्षा हो जानेपर देवराज इन्द्रको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेकी इच्छा हुई॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽधिरुह्य महानागमैरावतममित्रजित्।
गोवर्धनगिरौ कृष्णं ददर्श त्रिदशेश्वरः॥ २॥
चारयन्तं महावीर्यं गास्तु गोपवपुर्धरम्।
कृत्स्नस्य जगतो गोपं वृतं गोपकुमारकैः॥ ३॥
मूलम्
सोऽधिरुह्य महानागमैरावतममित्रजित्।
गोवर्धनगिरौ कृष्णं ददर्श त्रिदशेश्वरः॥ २॥
चारयन्तं महावीर्यं गास्तु गोपवपुर्धरम्।
कृत्स्नस्य जगतो गोपं वृतं गोपकुमारकैः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः शत्रुजित् देवराज गजराज ऐरावतपर चढ़कर गोवर्धनपर्वतपर आये और वहाँ सम्पूर्ण जगत्के रक्षक गोपवेषधारी महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रको ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते देखा॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरुडं च ददर्शोच्चैरन्तर्द्धानगतं द्विज।
कृतच्छायं हरेर्मूर्ध्नि पक्षाभ्यां पक्षिपुङ्गवम्॥ ४॥
मूलम्
गरुडं च ददर्शोच्चैरन्तर्द्धानगतं द्विज।
कृतच्छायं हरेर्मूर्ध्नि पक्षाभ्यां पक्षिपुङ्गवम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! उन्होंने यह भी देखा कि पक्षिश्रेष्ठ गरुड अदृश्यभावसे उनके ऊपर रहकर अपने पंखोंसे उनकी छाया कर रहे हैं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवरुह्य स नागेन्द्रादेकान्ते मधुसूदनम्।
शक्रस्सस्मितमाहेदं प्रीतिविस्तारितेक्षणः॥ ५॥
मूलम्
अवरुह्य स नागेन्द्रादेकान्ते मधुसूदनम्।
शक्रस्सस्मितमाहेदं प्रीतिविस्तारितेक्षणः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे ऐरावतसे उतर पड़े और एकान्तमें श्रीमधुसूदनकी ओर प्रीतिपूर्वक दृष्टि फैलाते हुए मुसकाकर बोले॥ ५॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कृष्ण शृणुष्वेदं यदर्थमहमागतः।
त्वत्समीपं महाबाहो नैतच्चिन्त्यं त्वयान्यथा॥ ६॥
मूलम्
कृष्ण कृष्ण शृणुष्वेदं यदर्थमहमागतः।
त्वत्समीपं महाबाहो नैतच्चिन्त्यं त्वयान्यथा॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा—हे श्रीकृष्णचन्द्र! मैं जिसलिये आपके पास आया हूँ, वह सुनिये—हे महाबाहो! आप इसे अन्यथा न समझें॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारावतारणार्थाय पृथिव्याः पृथिवीतले।
अवतीर्णोऽखिलाधार त्वमेव परमेश्वर॥ ७॥
मूलम्
भारावतारणार्थाय पृथिव्याः पृथिवीतले।
अवतीर्णोऽखिलाधार त्वमेव परमेश्वर॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अखिलाधार परमेश्वर! आपने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मखभंगविरोधेन मया गोकुलनाशकाः।
समादिष्टा महामेघास्तैश्चेदं कदनं कृतम्॥ ८॥
मूलम्
मखभंगविरोधेन मया गोकुलनाशकाः।
समादिष्टा महामेघास्तैश्चेदं कदनं कृतम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञभंगसे विरोध मानकर ही मैंने गोकुलको नष्ट करनेके लिये महामेघोंको आज्ञा दी थी, उन्हींने यह संहार मचाया था॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रातास्ताश्च त्वया गावस्समुत्पाट्य महीधरम्।
तेनाहं तोषितो वीरकर्मणात्यद्भुतेन ते॥ ९॥
मूलम्
त्रातास्ताश्च त्वया गावस्समुत्पाट्य महीधरम्।
तेनाहं तोषितो वीरकर्मणात्यद्भुतेन ते॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु आपने पर्वतको उखाड़कर गौओंको बचा लिया। हे वीर! आपके इस अद्भुत कर्मसे मैं अति प्रसन्न हूँ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधितं कृष्ण देवानामहं मन्ये प्रयोजनम्।
त्वयायमद्रिप्रवरः करेणैकेन यद्धृतः॥ १०॥
मूलम्
साधितं कृष्ण देवानामहं मन्ये प्रयोजनम्।
त्वयायमद्रिप्रवरः करेणैकेन यद्धृतः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कृष्ण! आपने जो अपने एक हाथपर गोवर्धन धारण किया है, इससे मैं देवताओंका प्रयोजन [आपके द्वारा] सिद्ध हुआ ही समझता हूँ॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोभिश्च चोदितः कृष्ण त्वत्सकाशमिहागतः।
त्वया त्राताभिरत्यर्थं युष्मत्सत्कारकारणात्॥ ११॥
मूलम्
गोभिश्च चोदितः कृष्ण त्वत्सकाशमिहागतः।
त्वया त्राताभिरत्यर्थं युष्मत्सत्कारकारणात्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
[गोवंशकी रक्षाद्वारा] आपसे रक्षित [कामधेनु आदि] गौओंसे प्रेरित होकर ही मैं आपका विशेष सत्कार करनेके लिये यहाँ आपके पास आया हूँ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वां कृष्णाभिषेक्ष्यामि गवां वाक्यप्रचोदितः।
उपेन्द्रत्वे गवामिन्द्रो गोविन्दस्त्वं भविष्यसि॥ १२॥
मूलम्
स त्वां कृष्णाभिषेक्ष्यामि गवां वाक्यप्रचोदितः।
उपेन्द्रत्वे गवामिन्द्रो गोविन्दस्त्वं भविष्यसि॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कृष्ण! अब मैं गौओंके वाक्यानुसार ही आपका उपेन्द्र-पदपर अभिषेक करूँगा तथा आप गौओंके इन्द्र (स्वामी) हैं इसलिये आपका नाम ‘गोविन्द’ भी होगा॥ १२॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोपवाह्यादादाय घण्टामैरावताद्गजात्।
अभिषेकं तया चक्रे पवित्रजलपूर्णया॥ १३॥
मूलम्
अथोपवाह्यादादाय घण्टामैरावताद्गजात्।
अभिषेकं तया चक्रे पवित्रजलपूर्णया॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर इन्द्रने अपने वाहन गजराज ऐरावतका घण्टा लिया और उसमें पवित्र जल भरकर उससे कृष्णचन्द्रका अभिषेक किया॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियमाणेऽभिषेके तु गावः कृष्णस्य तत्क्षणात्।
प्रस्रवोद्भूतदुग्धार्द्रां सद्यश्चक्रुर्वसुन्धराम्॥ १४॥
मूलम्
क्रियमाणेऽभिषेके तु गावः कृष्णस्य तत्क्षणात्।
प्रस्रवोद्भूतदुग्धार्द्रां सद्यश्चक्रुर्वसुन्धराम्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णचन्द्रका अभिषेक होते समय गौओंने तुरन्त ही अपने स्तनोंसे टपकते हुए दुग्धसे पृथिवीको भिगो दिया॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषिच्य गवां वाक्यादुपेन्द्रं वै जनार्दनम्।
प्रीत्या सप्रश्रयं वाक्यं पुनराह शचीपतिः॥ १५॥
मूलम्
अभिषिच्य गवां वाक्यादुपेन्द्रं वै जनार्दनम्।
प्रीत्या सप्रश्रयं वाक्यं पुनराह शचीपतिः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार गौओंके कथनानुसार श्रीजनार्दनको उपेन्द्र-पदपर अभिषिक्त कर शचीपति इन्द्रने पुनः प्रीति और विनयपूर्वक कहा—॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गवामेतत्कृतं वाक्यं तथान्यदपि मे शृणु।
यद्ब्रवीमि महाभाग भारावतरणेच्छया॥ १६॥
मूलम्
गवामेतत्कृतं वाक्यं तथान्यदपि मे शृणु।
यद्ब्रवीमि महाभाग भारावतरणेच्छया॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे महाभाग! यह तो मैंने गौओंका वचन पूरा किया, अब पृथिवीके भार उतारनेकी इच्छासे मैं आपसे जो कुछ और निवेदन करता हूँ वह भी सुनिये॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममांशः पुरुषव्याघ्र पृथिव्यां पृथिवीधर।
अवतीर्णोऽर्जुनो नाम संरक्ष्यो भवता सदा॥ १७॥
मूलम्
ममांशः पुरुषव्याघ्र पृथिव्यां पृथिवीधर।
अवतीर्णोऽर्जुनो नाम संरक्ष्यो भवता सदा॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पृथिवीधर! हे पुरुषसिंह! अर्जुन नामक मेरे अंशने पृथिवीपर अवतार लिया है; आप कृपा करके उसकी सर्वदा रक्षा करें॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारावतरणे साह्यं स ते वीरः करिष्यति।
संरक्षणीयो भवता यथात्मा मधुसूदन॥ १८॥
मूलम्
भारावतरणे साह्यं स ते वीरः करिष्यति।
संरक्षणीयो भवता यथात्मा मधुसूदन॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मधुसूदन! वह वीर पृथिवीका भार उतारनेमें आपका साथ देगा, अतः आप उसकी अपने शरीरके समान ही रक्षा करें’’॥ १८॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि भारते वंशे जातं पार्थं तवांशतः।
तमहं पालयिष्यामि यावत्स्थास्यामि भूतले॥ १९॥
मूलम्
जानामि भारते वंशे जातं पार्थं तवांशतः।
तमहं पालयिष्यामि यावत्स्थास्यामि भूतले॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले—भरतवंशमें पृथाके पुत्र अर्जुनने तुम्हारे अंशसे अवतार लिया है—यह मैं जानता हूँ। मैं जबतक पृथिवीपर रहूँगा, उसकी रक्षा करूँगा॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्महीतले शक्र स्थास्याम्यहमरिन्दम।
न तावदर्जुनं कश्चिद्देवेन्द्र युधि जेष्यति॥ २०॥
मूलम्
यावन्महीतले शक्र स्थास्याम्यहमरिन्दम।
न तावदर्जुनं कश्चिद्देवेन्द्र युधि जेष्यति॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शत्रुसूदन देवेन्द्र! मैं जबतक महीतलपर रहूँगा तबतक अर्जुनको युद्धमें कोई भी न जीत सकेगा॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंसो नाम महाबाहुर्दैत्योऽरिष्टस्तथासुरः।
केशी कुवलयापीडो नरकाद्यास्तथा परे॥ २१॥
हतेषु तेषु देवेन्द्र भविष्यति महाहवः।
तत्र विद्धि सहस्राक्ष भारावतरणं कृतम्॥ २२॥
मूलम्
कंसो नाम महाबाहुर्दैत्योऽरिष्टस्तथासुरः।
केशी कुवलयापीडो नरकाद्यास्तथा परे॥ २१॥
हतेषु तेषु देवेन्द्र भविष्यति महाहवः।
तत्र विद्धि सहस्राक्ष भारावतरणं कृतम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवेन्द्र! विशाल भुजाओंवाला कंस नामक दैत्य, अरिष्टासुर, केशी, कुवलयापीड और नरकासुर आदि अन्यान्य दैत्योंका नाश होनेपर यहाँ महाभारत-युद्ध होगा। हे सहस्राक्ष! उसी समय पृथिवीका भार उतरा हुआ समझना॥ २१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं गच्छ न सन्तापं पुत्रार्थे कर्तुमर्हसि।
नार्जुनस्य रिपुः कश्चिन्ममाग्रे प्रभविष्यति॥ २३॥
मूलम्
स त्वं गच्छ न सन्तापं पुत्रार्थे कर्तुमर्हसि।
नार्जुनस्य रिपुः कश्चिन्ममाग्रे प्रभविष्यति॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तुम प्रसन्नतापूर्वक जाओ, अपने पुत्र अर्जुनके लिये तुम किसी प्रकारकी चिन्ता मत करो; मेरे रहते हुए अर्जुनका कोई भी शत्रु सफल न हो सकेगा॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनार्थे त्वहं सर्वान्युधिष्ठिरपुरोगमान्।
निवृत्ते भारते युद्धे कुन्त्यै दास्याम्यविक्षतान्॥ २४॥
मूलम्
अर्जुनार्थे त्वहं सर्वान्युधिष्ठिरपुरोगमान्।
निवृत्ते भारते युद्धे कुन्त्यै दास्याम्यविक्षतान्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके लिये ही मैं महाभारतके अन्तमें युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंको अक्षत-शरीरसे कुन्तीको दूँगा॥ २४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः सम्परिष्वज्य देवराजो जनार्दनम्।
आरुह्यैरावतं नागं पुनरेव दिवं ययौ॥ २५॥
मूलम्
इत्युक्तः सम्परिष्वज्य देवराजो जनार्दनम्।
आरुह्यैरावतं नागं पुनरेव दिवं ययौ॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र उनका आलिंगन कर ऐरावत हाथीपर आरूढ हो स्वर्गको चले गये॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णो हि सहितो गोभिर्गोपालैश्च पुनर्व्रजम्।
आजगामाथ गोपीनां दृष्टिपूतेन वर्त्मना॥ २६॥
मूलम्
कृष्णो हि सहितो गोभिर्गोपालैश्च पुनर्व्रजम्।
आजगामाथ गोपीनां दृष्टिपूतेन वर्त्मना॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कृष्णचन्द्र भी गोपियोंके दृष्टिपातसे पवित्र हुए मार्गद्वारा गोपकुमारों और गौओंके साथ व्रजको लौट आये॥ २६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥