११

[ग्यारहवाँ अध्याय]

विषय

इन्द्रका कोप और श्रीकृष्णका गोवर्धन-धारण

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मखे प्रतिहते शक्रो मैत्रेयातिरुषान्वितः।
संवर्तकं नाम गणं तोयदानामथाब्रवीत्॥ १॥

मूलम्

मखे प्रतिहते शक्रो मैत्रेयातिरुषान्वितः।
संवर्तकं नाम गणं तोयदानामथाब्रवीत्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! अपने यज्ञके रुक जानेसे इन्द्रने अत्यन्त रोषपूर्वक संवर्तक नामक मेघोंके दलसे इस प्रकार कहा—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो मेघा निशम्यैतद्वचनं गदतो मम।
आज्ञानन्तरमेवाशु क्रियतामविचारितम्॥ २॥

मूलम्

भो भो मेघा निशम्यैतद्वचनं गदतो मम।
आज्ञानन्तरमेवाशु क्रियतामविचारितम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अरे मेघो! मेरा यह वचन सुनो और मैं जो कुछ कहूँ उसे मेरी आज्ञा सुनते ही, बिना कुछ सोचे-विचारे तुरन्त पूरा करो॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दगोपस्सुदुर्बुद्धिर्गोपैरन्यैस्सहायवान्।
कृष्णाश्रयबलाध्मातो मखभङ्गमचीकरत्॥ ३॥

मूलम्

नन्दगोपस्सुदुर्बुद्धिर्गोपैरन्यैस्सहायवान्।
कृष्णाश्रयबलाध्मातो मखभङ्गमचीकरत्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो अन्य गोपोंके सहित दुर्बुद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सहायताके बलसे अन्धा होकर मेरा यज्ञ भंग कर दिया है॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आजीवो याः परस्तेषां गावस्तस्य च कारणम्।
ता गावो वृष्टिवातेन पीड्यन्तां वचनान्मम॥ ४॥

मूलम्

आजीवो याः परस्तेषां गावस्तस्य च कारणम्।
ता गावो वृष्टिवातेन पीड्यन्तां वचनान्मम॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जो उनकी परम जीविका और उनके गोपत्वका कारण है, उन गौओंको तुम मेरी आज्ञासे वर्षा और वायुके द्वारा पीडित कर दो॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्यद्रिशृङ्गाभं तुङ्गमारुह्य वारणम्।
साहाय्यं वः करिष्यामि वाय्वम्बूत्सर्गयोजितम्॥ ५॥

मूलम्

अहमप्यद्रिशृङ्गाभं तुङ्गमारुह्य वारणम्।
साहाय्यं वः करिष्यामि वाय्वम्बूत्सर्गयोजितम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी पर्वत शिखरके समान अत्यन्त ऊँचे अपने ऐरावत हाथीपर चढ़कर वायु और जल छोड़नेके समय तुम्हारी सहायता करूँगा’’॥ ५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्याज्ञप्तास्ततस्तेन मुमुचुस्ते बलाहकाः।
वातवर्षं महाभीममभावाय गवां द्विज॥ ६॥

मूलम्

इत्याज्ञप्तास्ततस्तेन मुमुचुस्ते बलाहकाः।
वातवर्षं महाभीममभावाय गवां द्विज॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! इन्द्रकी ऐसी आज्ञा होनेपर गौओंको नष्ट करनेके लिये मेघोंने अति प्रचण्ड वायु और वर्षा छोड़ दी॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्षणेन पृथिवी ककुभोऽम्बरमेव च।
एकं धारामहासारपूरणेनाभवन्मुने॥ ७॥

मूलम्

ततः क्षणेन पृथिवी ककुभोऽम्बरमेव च।
एकं धारामहासारपूरणेनाभवन्मुने॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुने! उस समय एक क्षणमें ही मेघोंकी छोड़ी हुई महान् जलधाराओंसे पृथिवी, दिशाएँ और आकाश एकरूप हो गये॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्युल्लताकशाघातत्रस्तैरिव घनैर्घनम्।
नादापुरितदिक्चक्रैर्धारासारमपात्यत॥ ८॥

मूलम्

विद्युल्लताकशाघातत्रस्तैरिव घनैर्घनम्।
नादापुरितदिक्चक्रैर्धारासारमपात्यत॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघगण मानो विद्युल्लतारूप दण्डाघातसे भयभीत होकर महान् शब्दसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए मूसलाधार पानी बरसाने लगे॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्धकारीकृते लोके वर्षद्भिरनिशं घनैः।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च जगदाप्यमिवाभवत्॥ ९॥

मूलम्

अन्धकारीकृते लोके वर्षद्भिरनिशं घनैः।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च जगदाप्यमिवाभवत्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मेघोंके अहर्निश बरसनेसे संसारके अन्धकारपूर्ण हो जानेपर ऊपर-नीचे और सब ओरसे समस्त लोक जलमय-सा हो गया॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावस्तु तेन पतता वर्षवातेन वेगिना।
धूताः प्राणाञ्जहुस्सन्नत्रिकसक्थिशिरोधराः॥ १०॥

मूलम्

गावस्तु तेन पतता वर्षवातेन वेगिना।
धूताः प्राणाञ्जहुस्सन्नत्रिकसक्थिशिरोधराः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा और वायुके वेगपूर्वक चलते रहनेसे गौओंके कटि, जंघा और ग्रीवा आदि सुन्न हो गये और काँपते-काँपते अपने प्राण छोड़ने लगीं [अर्थात् मूर्च्छित हो गयीं]॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोडेन वत्सानाक्रम्य तस्थुरन्या महामुने।
गावो विवत्साश्च कृता वारिपूरेण चापराः॥ ११॥

मूलम्

क्रोडेन वत्सानाक्रम्य तस्थुरन्या महामुने।
गावो विवत्साश्च कृता वारिपूरेण चापराः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महामुने! कोई गौएँ तो अपने बछड़ोंको अपने नीचे छिपाये खड़ी रहीं और कोई जलके वेगसे वत्सहीना हो गयीं॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वत्साश्च दीनवदना वातकम्पितकन्धराः।
त्राहि त्राहीत्यल्पशब्दाः कृष्णमूचुरिवातुराः॥ १२॥

मूलम्

वत्साश्च दीनवदना वातकम्पितकन्धराः।
त्राहि त्राहीत्यल्पशब्दाः कृष्णमूचुरिवातुराः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुसे काँपते हुए दीनवदन बछड़े मानो व्याकुल होकर मन्द-स्वरसे कृष्णचन्द्रसे ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ ऐसा कहने लगे॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तद‍्गोकुलं सर्वं गोगोपीगोपसङ्कुलम्।
अतीवार्त्तं हरिर्दृष्ट्वा मैत्रेयाचिन्तयत्तदा॥ १३॥

मूलम्

ततस्तद‍्गोकुलं सर्वं गोगोपीगोपसङ्कुलम्।
अतीवार्त्तं हरिर्दृष्ट्वा मैत्रेयाचिन्तयत्तदा॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! उस समय गो, गोपी और गोपगणके सहित सम्पूर्ण गोकुलको अत्यन्त व्याकुल देखकर श्रीहरिने विचारा॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत्कृतं महेन्द्रेण मखभंगविरोधिना।
तदेतदखिलं गोष्ठं त्रातव्यमधुना मया॥ १४॥

मूलम्

एतत्कृतं महेन्द्रेण मखभंगविरोधिना।
तदेतदखिलं गोष्ठं त्रातव्यमधुना मया॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ-भंगके कारण विरोध मानकर यह सब करतूत इन्द्र ही कर रहा है; अतः अब मुझे सम्पूर्ण व्रजकी रक्षा करनी चाहिये॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इममद्रिमहं धैर्यादुत्पाट्योरुशिलाघनम्।
धारयिष्यामि गोष्ठस्य पृथुच्छत्रमिवोपरि॥ १५॥

मूलम्

इममद्रिमहं धैर्यादुत्पाट्योरुशिलाघनम्।
धारयिष्यामि गोष्ठस्य पृथुच्छत्रमिवोपरि॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं धैर्यपूर्वक बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस पर्वतको उखाड़कर इसे एक बड़े छत्रके समान व्रजके ऊपर धारण करूँगा॥ १५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति कृत्वा मतिं कृष्णो गोवर्धनमहीधरम्।
उत्पाट्यैककरेणैव धारयामास लीलया॥ १६॥

मूलम्

इति कृत्वा मतिं कृष्णो गोवर्धनमहीधरम्।
उत्पाट्यैककरेणैव धारयामास लीलया॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—श्रीकृष्णचन्द्रने ऐसा विचारकर गोवर्धनपर्वतको उखाड़ लिया और उसे लीलासे ही अपने एक हाथपर उठा लिया॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपांश्चाह हसञ्छौरिस्समुत्पाटितभूधरः।
विशध्वमत्र त्वरिताः कृतं वर्षनिवारणम्॥ १७॥

मूलम्

गोपांश्चाह हसञ्छौरिस्समुत्पाटितभूधरः।
विशध्वमत्र त्वरिताः कृतं वर्षनिवारणम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतको उखाड़ लेनेपर शूरनन्दन श्रीश्यामसुन्दरने गोपोंसे हँसकर कहा— ‘‘आओ, शीघ्र ही इस पर्वतके नीचे आ जाओ, मैंने वर्षासे बचनेका प्रबन्ध कर दिया है॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनिवातेषु देशेषु यथा जोषमिहास्यताम्।
प्रविश्यतां न भेतव्यं गिरिपाताच्च निर्भयैः॥ १८॥

मूलम्

सुनिवातेषु देशेषु यथा जोषमिहास्यताम्।
प्रविश्यतां न भेतव्यं गिरिपाताच्च निर्भयैः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ वायुहीन स्थानोंमें आकर सुखपूर्वक बैठ जाओ; निर्भय होकर प्रवेश करो, पर्वतके गिरने आदिका भय मत करो’’॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तास्तेन ते गोपा विविशुर्गोधनैस्सह।
शकटारोपितैर्भाण्डैर्गोप्यश्चासारपीडिताः॥ १९॥

मूलम्

इत्युक्तास्तेन ते गोपा विविशुर्गोधनैस्सह।
शकटारोपितैर्भाण्डैर्गोप्यश्चासारपीडिताः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जलकी धाराओंसे पीडित गोप और गोपी अपने बर्तन-भाँड़ोंको छकड़ोंमें रखकर गौओंके साथ पर्वतके नीचे चले गये॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णोऽपि तं दधारैव शैलमत्यन्तनिश्चलम्।
व्रजैकवासिभिर्हर्षविस्मिताक्षैर्निरीक्षितः॥ २०॥

मूलम्

कृष्णोऽपि तं दधारैव शैलमत्यन्तनिश्चलम्।
व्रजैकवासिभिर्हर्षविस्मिताक्षैर्निरीक्षितः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रज वासियोंद्वारा हर्ष और विस्मयपूर्वक टकटकी लगाकर देखे जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी गिरिराजको अत्यन्त निश्चलतापूर्वक धारण किये रहे॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपगोपीजनैर्हृष्टैः प्रीतिविस्तारितेक्षणैः।
संस्तूयमानचरितः कृष्णश्शैलमधारयत्॥ २१॥

मूलम्

गोपगोपीजनैर्हृष्टैः प्रीतिविस्तारितेक्षणैः।
संस्तूयमानचरितः कृष्णश्शैलमधारयत्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रीतिपूर्वक आँखें फाड़कर देख रहे थे उन हर्षितचित्त गोप और गोपियोंसे अपने चरितोंका स्तवन होते हुए श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतको धारण किये रहे॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तरात्रं महामेघा ववर्षुर्नन्दगोकुले।
इन्द्रेण चोदिता विप्र गोपानां नाशकारिणा॥ २२॥

मूलम्

सप्तरात्रं महामेघा ववर्षुर्नन्दगोकुले।
इन्द्रेण चोदिता विप्र गोपानां नाशकारिणा॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विप्र! गोपोंके नाशकर्ता इन्द्रकी प्रेरणासे नन्दजीके गोकुलमें सात रात्रितक महाभयंकर मेघ बरसते रहे॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धृते महाशैले परित्राते च गोकुले।
मिथ्याप्रतिज्ञो बलभिद्वारयामास तान‍्घनान्॥ २३॥

मूलम्

ततो धृते महाशैले परित्राते च गोकुले।
मिथ्याप्रतिज्ञो बलभिद्वारयामास तान‍्घनान्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वत धारणकर गोकुलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यर्थ हो जानेसे इन्द्रने मेघोंको रोक दिया॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यभ्रे नभसि देवेन्द्रे वितथात्मवचस्यथ।
निष्क्रम्य गोकुलं हृष्टं स्वस्थानं पुनरागमत्॥ २४॥

मूलम्

व्यभ्रे नभसि देवेन्द्रे वितथात्मवचस्यथ।
निष्क्रम्य गोकुलं हृष्टं स्वस्थानं पुनरागमत्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशके मेघहीन हो जानेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जानेपर समस्त गोकुलवासी वहाँसे निकलकर प्रसन्नतापूर्वक फिर अपने-अपने स्थानोंपर आ गये॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमोच कृष्णोऽपि तदा गोवर्धनमहाचलम्।
स्वस्थाने विस्मितमुखैर्दृष्टस्तैस्तु व्रजौकसैः॥ २५॥

मूलम्

मुमोच कृष्णोऽपि तदा गोवर्धनमहाचलम्।
स्वस्थाने विस्मितमुखैर्दृष्टस्तैस्तु व्रजौकसैः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और कृष्णचन्द्रने भी उन व्रजवासियोंके विस्मयपूर्वक देखते-देखते गिरिराज गोवर्धनको अपने स्थानपर रख दिया॥ २५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकादशोऽध्यायः॥ ११॥