[दसवाँ अध्याय]
विषय
शरद्वर्णन तथा गोवर्धनकी पूजा
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्विहरतोरेवं रामकेशवयोर्व्रजे ।
प्रावृड् व्यतीता विकसत्सरोजा चाभवच्छरत्॥ १॥
मूलम्
तयोर्विहरतोरेवं रामकेशवयोर्व्रजे ।
प्रावृड् व्यतीता विकसत्सरोजा चाभवच्छरत्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—इस प्रकार उन राम और कृष्णके व्रजमें विहार करते-करते वर्षाकाल बीत गया और प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त शरद्-ऋतु आ गयी॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवापुस्तापमत्यर्थं शफर्यः पल्वलोदके ।
पुत्रक्षेत्रादिसक्तेन ममत्वेन यथा गृही॥ २॥
मूलम्
अवापुस्तापमत्यर्थं शफर्यः पल्वलोदके ।
पुत्रक्षेत्रादिसक्तेन ममत्वेन यथा गृही॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गृहस्थ पुरुष पुत्र और क्षेत्र आदिमें लगी हुई ममतासे सन्ताप पाते हैं, उसी प्रकार मछलियाँ गड्ढोंके जलमें अत्यन्त ताप पाने लगीं॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयूरा मौनमातस्थुः परित्यक्तमदा वने ।
असारतां परिज्ञाय संसारस्येव योगिनः॥ ३॥
मूलम्
मयूरा मौनमातस्थुः परित्यक्तमदा वने ।
असारतां परिज्ञाय संसारस्येव योगिनः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारकी असारताको जानकर जिस प्रकार योगिजन शान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मयूरगण मदहीन होकर मौन हो गये॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृज्य जलसर्वस्वं विमलास्सितमूर्त्तयः ।
तत्यजुश्चाम्बरं मेघा गृहं विज्ञानिनो यथा॥ ४॥
मूलम्
उत्सृज्य जलसर्वस्वं विमलास्सितमूर्त्तयः ।
तत्यजुश्चाम्बरं मेघा गृहं विज्ञानिनो यथा॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
विज्ञानिगण [सब प्रकारकी ममता छोड़कर] जैसे घरका त्याग कर देते हैं, वैसे ही निर्मल श्वेत मेघोंने अपना जलरूप सर्वस्व छोड़कर आकाशमण्डलका परित्याग कर दिया॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरत्सूर्यांशुतप्तानि ययुश्शोषं सरांसि च ।
बह्वालम्बममत्वेन हृदयानीव देहिनाम्॥ ५॥
मूलम्
शरत्सूर्यांशुतप्तानि ययुश्शोषं सरांसि च ।
बह्वालम्बममत्वेन हृदयानीव देहिनाम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
विविध पदार्थोंमें ममता करनेसे जैसे देहधारियोंके हृदय सारहीन हो जाते हैं वैसे ही शरत्कालीन सूर्यके तापसे सरोवर सूख गये॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमुदैश्शरदम्भांसि योग्यतालक्षणं ययुः ।
अवबोधैर्मनांसीव समत्वममलात्मनाम्॥ ६॥
मूलम्
कुमुदैश्शरदम्भांसि योग्यतालक्षणं ययुः ।
अवबोधैर्मनांसीव समत्वममलात्मनाम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्मलचित्त पुरुषोंके मन जिस प्रकार ज्ञानद्वारा समता प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार शरत्कालीन जलोंको [स्वच्छताके कारण] कुमुदोंसे योग्य सम्बन्ध प्राप्त हो गया॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारकाविमले व्योम्नि रराजाखण्डमण्डलः ।
चन्द्रश्चरमदेहात्मा योगी साधुकुले यथा॥ ७॥
मूलम्
तारकाविमले व्योम्नि रराजाखण्डमण्डलः ।
चन्द्रश्चरमदेहात्मा योगी साधुकुले यथा॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार साधु-कुलमें चरम-देह-धारी योगी सुशोभित होता है, उसी प्रकार तारका-मण्डल-मण्डित निर्मल आकाशमें पूर्णचन्द्र विराजमान हुआ॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शनकैश्शनकैस्तीरं तत्यजुश्च जलाशयाः ।
ममत्वं क्षेत्रपुत्रादिरूढमुच्चैर्यथा बुधाः॥ ८॥
मूलम्
शनकैश्शनकैस्तीरं तत्यजुश्च जलाशयाः ।
ममत्वं क्षेत्रपुत्रादिरूढमुच्चैर्यथा बुधाः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार क्षेत्र और पुत्र आदिमें बढ़ी हुई ममताको विवेकीजन शनैः-शनैः त्याग देते हैं, वैसे ही जलाशयोंका जल धीरे-धीरे अपने तटको छोड़ने लगा॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं त्यक्तैस्सरोऽम्भोभिर्हंसा योगं पुनर्ययुः ।
क्लेशैः कुयोगिनोऽशेषैरन्तरायहता इव॥ ९॥
मूलम्
पूर्वं त्यक्तैस्सरोऽम्भोभिर्हंसा योगं पुनर्ययुः ।
क्लेशैः कुयोगिनोऽशेषैरन्तरायहता इव॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार अन्तरायों१ (विघ्नों)-से विचलित हुए कुयोगियोंका क्लेशों से पुनः संयोग हो२ जाता है उसी प्रकार पहले छोड़े हुए सरोवरके जलसे हंसका पुनः संयोग हो गया॥ ९॥
पादटिप्पनी
१. अन्तराय नौ हैं—
‘व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः । (यो० द० १ ।३०)
अर्थात् व्याधि, स्त्यान (साधनमें अप्रवृत्ति), संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति (वैराग्यहीनता), भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व (लक्ष्यकी उपलब्धि न होना) और अनवस्थितत्व (लक्ष्यमें स्थिर न होना) ये नौ अन्तराय हैं ।
२. क्लेश पाँच हैं; जैसे—
*अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः । (यो० द० २ ।३)
*अर्थात् अविद्या, अस्मिता (अहंकार) राग, द्वेष और अभिनिवेश (मरणत्रास) ये पाँच क्लेश हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निभृतोऽभवदत्यर्थं समुद्रः स्तिमितोदकः ।
क्रमावाप्तमहायोगो निश्चलात्मा यथा यतिः॥ १०॥
मूलम्
निभृतोऽभवदत्यर्थं समुद्रः स्तिमितोदकः ।
क्रमावाप्तमहायोगो निश्चलात्मा यथा यतिः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रमशः महायोग (सम्प्रज्ञातसमाधि) प्राप्त कर लेनेपर जैसे यति निश्चलात्मा हो जाता है, वैसे ही जलके स्थिर हो जानेसे समुद्र निश्चल हो गया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वत्रातिप्रसन्नानि सलिलानि तथाभवन् ।
ज्ञाते सर्वगते विष्णौ मनांसीव सुमेधसाम्॥ ११॥
मूलम्
सर्वत्रातिप्रसन्नानि सलिलानि तथाभवन् ।
ज्ञाते सर्वगते विष्णौ मनांसीव सुमेधसाम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार सर्वगत भगवान् विष्णुको जान लेनेपर मेधावी पुरुषोंके चित्त शान्त हो जाते हैं वैसे ही समस्त जलाशयोंका जल स्वच्छ हो गया॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभूव निर्मलं व्योम शरदा ध्वस्ततोयदम् ।
योगाग्निदग्धक्लेशौघं योगिनामिव मानसम्॥ १२॥
मूलम्
बभूव निर्मलं व्योम शरदा ध्वस्ततोयदम् ।
योगाग्निदग्धक्लेशौघं योगिनामिव मानसम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगाग्निद्वारा क्लेशसमूहके नष्ट हो जानेपर जैसे योगियोंके चित्त स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार शीतके कारण मेघोंके लीन हो जानेसे आकाश निर्मल हो गया॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्यांशुजनितं तापं निन्ये तारापतिः शमम् ।
अहंमानोद्भवं दुःखं विवेकः सुमहानिव॥ १३॥
मूलम्
सूर्यांशुजनितं तापं निन्ये तारापतिः शमम् ।
अहंमानोद्भवं दुःखं विवेकः सुमहानिव॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार अहंकारजनित महान् दुःखको विवेक शान्त कर देता है, उसी प्रकार सूर्यकिरणोंसे उत्पन्न हुए तापको चन्द्रमाने शान्त कर दिया॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नभसोऽब्दं भुवः पङ्कं कालुष्यं चाम्भसश्शरत् ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रत्याहार इवाहरत्॥ १४॥
मूलम्
नभसोऽब्दं भुवः पङ्कं कालुष्यं चाम्भसश्शरत् ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रत्याहार इवाहरत्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्याहार जैसे इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच लेता है वैसे ही शरत्कालने आकाशसे मेघोंको, पृथिवीसे धूलिको और जलसे मलको दूर कर दिया॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणायाम इवाम्भोभिस्सरसां कृतपूरकैः ।
अभ्यस्यतेऽनुदिवसं रेचकाकुम्भकादिभिः॥ १५॥
मूलम्
प्राणायाम इवाम्भोभिस्सरसां कृतपूरकैः ।
अभ्यस्यतेऽनुदिवसं रेचकाकुम्भकादिभिः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
[पानीसे भर जानेके कारण] मानो तालाबोंके जल पूरक कर चुकनेपर अब [स्थिर रहने और सूखनेसे] रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रियाद्वारा प्राणायामका अभ्यास कर रहे हैं॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमलाम्बरनक्षत्रे काले चाभ्यागते व्रजे ।
ददर्शेन्द्रमहारम्भायोद्यतांस्तान्व्रजौकसः॥ १६॥
मूलम्
विमलाम्बरनक्षत्रे काले चाभ्यागते व्रजे ।
ददर्शेन्द्रमहारम्भायोद्यतांस्तान्व्रजौकसः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार व्रजमण्डलमें निर्मल आकाश और नक्षत्रमय शरत्कालके आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने समस्त व्रजवासियोंको इन्द्रका उत्सव मनानेके लिये तैयारी करते देखा॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्तानुत्सुकान्दृष्ट्वा गोपानुत्सवलालसान् ।
कौतूहलादिदं वाक्यं प्राह वृद्धान्महामतिः॥ १७॥
मूलम्
कृष्णस्तानुत्सुकान्दृष्ट्वा गोपानुत्सवलालसान् ।
कौतूहलादिदं वाक्यं प्राह वृद्धान्महामतिः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामति कृष्णने उन गोपोंको उत्सवकी उमंगसे अत्यन्त उत्साहपूर्ण देखकर कुतूहलवश अपने बड़े-बूढ़ोंसे पूछा—॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोऽयं शक्रमखो नाम येन वो हर्ष आगतः ।
प्राह तं नन्दगोपश्च पृच्छन्तमतिसादरम्॥ १८॥
मूलम्
कोऽयं शक्रमखो नाम येन वो हर्ष आगतः ।
प्राह तं नन्दगोपश्च पृच्छन्तमतिसादरम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘आपलोग जिसके लिये फूले नहीं समाते वह इन्द्रयज्ञ क्या है?’’ इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक पूछनेपर उनसे नन्दगोपने कहा—॥ १८॥
मूलम् (वचनम्)
नन्दगोप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघानां पयसां चेशो देवराजश्शतक्रतुः ।
तेन सञ्चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बुमयं रसम्॥ १९॥
मूलम्
मेघानां पयसां चेशो देवराजश्शतक्रतुः ।
तेन सञ्चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बुमयं रसम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दगोप बोले—मेघ और जलका स्वामी देवराज इन्द्र है । उसकी प्रेरणासे ही मेघगण जलरूप रसकी वर्षा करते हैं॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्वृष्टिजनितं सस्यं वयमन्ये च देहिनः ।
वर्त्तयामोपयुञ्जानास्तर्पयामश्च देवताः॥ २०॥
मूलम्
तद्वृष्टिजनितं सस्यं वयमन्ये च देहिनः ।
वर्त्तयामोपयुञ्जानास्तर्पयामश्च देवताः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम और अन्य समस्त देहधारी उस वर्षासे उत्पन्न हुए अन्नको ही बर्तते हैं तथा उसीको उपयोगमें लाते हुए देवताओंको भी तृप्त करते हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरवत्य इमा गावो वत्सवत्यश्च निर्वृताः ।
तेन संवर्द्धितैस्सस्यैस्तुष्टाः पुष्टा भवन्ति वै॥ २१॥
मूलम्
क्षीरवत्य इमा गावो वत्सवत्यश्च निर्वृताः ।
तेन संवर्द्धितैस्सस्यैस्तुष्टाः पुष्टा भवन्ति वै॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस (वर्षा)- से बढ़े हुए अन्नसे ही तृप्त होकर ये गौएँ तुष्ट और पुष्ट होकर वत्सवती और दूध देनेवाली होती हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नासस्या नातृणा भूमिर्न बुभुक्षार्दितो जनः ।
दृश्यते यत्र दृश्यन्ते वृष्टिमन्तो बलाहकाः॥ २२॥
मूलम्
नासस्या नातृणा भूमिर्न बुभुक्षार्दितो जनः ।
दृश्यते यत्र दृश्यन्ते वृष्टिमन्तो बलाहकाः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस भूमिपर बरसनेवाले मेघ दिखायी देते हैं, उसपर कभी अन्न और तृणका अभाव नहीं होता और न कभी वहाँके लोग भूखे रहते ही देखे जाते हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भौममेतत्पयो दुग्धं गोभिः सूर्यस्य वारिदैः ।
पर्जन्यस्सर्वलोकस्योद्भवाय भुवि वर्षति॥ २३॥
तस्मात्प्रावृषि राजानस्सर्वे शक्रं मुदा युताः ।
मखैस्सुरेशमर्चन्ति वयमन्ये च मानवाः॥ २४॥
मूलम्
भौममेतत्पयो दुग्धं गोभिः सूर्यस्य वारिदैः ।
पर्जन्यस्सर्वलोकस्योद्भवाय भुवि वर्षति॥ २३॥
तस्मात्प्रावृषि राजानस्सर्वे शक्रं मुदा युताः ।
मखैस्सुरेशमर्चन्ति वयमन्ये च मानवाः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह पर्जन्यदेव (इन्द्र) पृथिवीके जलको सूर्यकिरणोंद्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियोंकी वृद्धिके लिये उसे मेघोंद्वारा पृथिवीपर बरसा देते हैं । इसलिये वर्षा ऋतुमें समस्त राजालोग, हम और अन्य मनुष्यगण देवराज इन्द्रकी यज्ञोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं॥ २३-२४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दगोपस्य वचनं श्रुत्वेत्थं शक्रपूजने ।
रोषाय त्रिदशेन्द्रस्य प्राह दामोदरस्तदा॥ २५॥
मूलम्
नन्दगोपस्य वचनं श्रुत्वेत्थं शक्रपूजने ।
रोषाय त्रिदशेन्द्रस्य प्राह दामोदरस्तदा॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—इन्द्रकी पूजाके विषयमें नन्दजीके ऐसे वचन सुनकर श्रीदामोदर देवराजको कुपित करनेके लिये ही इस प्रकार कहने लगे—॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वयं कृषिकर्त्तारो वाणिज्याजीविनो न च ।
गावोऽस्मद्दैवतं तात वयं वनचरा यतः॥ २६॥
मूलम्
न वयं कृषिकर्त्तारो वाणिज्याजीविनो न च ।
गावोऽस्मद्दैवतं तात वयं वनचरा यतः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे तात! हम न तो कृषक हैं और न व्यापारी, हमारे देवता तो गौएँ ही हैं; क्योंकि हमलोग वनचर हैं॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्ता दण्डनीतिस्तथा परा ।
विद्या चतुष्टयं चैतद्वार्त्तामात्रं शृणुष्व मे॥ २७॥
मूलम्
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्ता दण्डनीतिस्तथा परा ।
विद्या चतुष्टयं चैतद्वार्त्तामात्रं शृणुष्व मे॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र), त्रयी (कर्मकाण्ड), दण्डनीति और वार्ता—ये चार विद्याएँ हैं, इनमेंसे केवल वार्ताका विवरण सुनो॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिर्वणिज्या तद्वच्च तृतीयं पशुपालनम् ।
विद्या ह्येका महाभाग वार्त्ता वृत्तित्रयाश्रया॥ २८॥
मूलम्
कृषिर्वणिज्या तद्वच्च तृतीयं पशुपालनम् ।
विद्या ह्येका महाभाग वार्त्ता वृत्तित्रयाश्रया॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाभाग! वार्ता नामकी विद्या कृषि, वाणिज्य और पशुपालन इन तीन वृत्तियोंकी आश्रयभूता है॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्षकाणां कृषिर्वृत्तिःपण्यं विपणिजीविनाम् ।
अस्माकं गौः परा वृत्तिर्वार्त्ताभेदैरियं त्रिभिः॥ २९॥
मूलम्
कर्षकाणां कृषिर्वृत्तिःपण्यं विपणिजीविनाम् ।
अस्माकं गौः परा वृत्तिर्वार्त्ताभेदैरियं त्रिभिः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वार्ताके इन तीनों भेदोंमेंसे कृषि किसानोंकी, वाणिज्य व्यापारियोंकी और गोपालन हमलोगोंकी उत्तम वृत्ति है॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्यया यो यया युक्तस्तस्य सा दैवतं महत् ।
सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिका॥ ३०॥
मूलम्
विद्यया यो यया युक्तस्तस्य सा दैवतं महत् ।
सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिका॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो व्यक्ति जिस विद्यासे युक्त है उसकी वही इष्टदेवता है, वही पूजा-अर्चाके योग्य है और वही परम उपकारिणी है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो यस्य फलमश्नन्वै पूजयत्यपरं नरः ।
इह च प्रेत्य चैवासौ न तदाप्नोति शोभनम्॥ ३१॥
मूलम्
यो यस्य फलमश्नन्वै पूजयत्यपरं नरः ।
इह च प्रेत्य चैवासौ न तदाप्नोति शोभनम्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष एक व्यक्तिसे फल-लाभ करके अन्यकी पूजा करता है, उसका इहलोक अथवा परलोकमें कहीं भी शुभ नहीं होता॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्यान्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं च पुनर्वनम् ।
वनान्ता गिरयस्सर्वे ते चास्माकं परा गतिः॥ ३२॥
मूलम्
कृष्यान्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं च पुनर्वनम् ।
वनान्ता गिरयस्सर्वे ते चास्माकं परा गतिः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
खेतोंके अन्तमें सीमा है तथा सीमाके अन्तमें वन हैं और वनोंके अन्तमें समस्त पर्वत हैं; वे पर्वत ही हमारी परमगति हैं॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न द्वारबन्धावरणा न गृहक्षेत्रिणस्तथा ।
सुखिनस्त्वखिले लोके यथा वै चक्रचारिणः॥ ३३॥
मूलम्
न द्वारबन्धावरणा न गृहक्षेत्रिणस्तथा ।
सुखिनस्त्वखिले लोके यथा वै चक्रचारिणः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग न तो किंवाड़ें तथा भित्तिके अन्दर रहनेवाले हैं और न निश्चित गृह अथवा खेतवाले किसान ही हैं, बल्कि [वन-पर्वतादिमें स्वच्छन्द विचरनेवाले] हमलोग चक्रचारी* मुनियोंकी भाँति समस्त जनसमुदायमें सुखी हैं [अतः गृहस्थ किसानोंकी भाँति हमें इन्द्रकी पूजा करनेका कोई काम नहीं]’’॥ ३३॥
पादटिप्पनी
- चक्रचारी मुनि वे हैं जो शकट आदिसे सर्वत्र भ्रमण किया करते हैं और जिनका कोई खास निवास नहीं होता । जहाँ शाम हो जाती है वहीं रह जाते हैं । अतः उन्हें ‘सायंगृह’ भी कहते हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयन्ते गिरयश्चैव वनेऽस्मिन्कामरूपिणः ।
तत्तद्रूपं समास्थाय रमन्ते स्वेषु सानुषु॥ ३४॥
मूलम्
श्रूयन्ते गिरयश्चैव वनेऽस्मिन्कामरूपिणः ।
तत्तद्रूपं समास्थाय रमन्ते स्वेषु सानुषु॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘सुना जाता है कि इस वनके पर्वतगण कामरूपी (इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले) हैं । वे मनोवांछितरूप धारण करके अपने-अपने शिखरोंपर विहार किया करते हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा चैतैः प्रबाध्यन्ते तेषां ये काननौकसः ।
तदा सिंहादिरूपैस्तान्घातयन्ति महीधराः॥ ३५॥
मूलम्
यदा चैतैः प्रबाध्यन्ते तेषां ये काननौकसः ।
तदा सिंहादिरूपैस्तान्घातयन्ति महीधराः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कभी वनवासीगण इन गिरिदेवोंको किसी तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादि रूप धारणकर उन्हें मार डालते हैं॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरियज्ञस्त्वयं तस्माद्गोयज्ञश्च प्रवर्त्यताम् ।
किमस्माकं महेन्द्रेण गावश्शैलाश्च देवताः॥ ३६॥
मूलम्
गिरियज्ञस्त्वयं तस्माद्गोयज्ञश्च प्रवर्त्यताम् ।
किमस्माकं महेन्द्रेण गावश्शैलाश्च देवताः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः आजसे [इस इन्द्रयज्ञके स्थानमें] गिरियज्ञ अथवा गोयज्ञका प्रचार होना चाहिये । हमें इन्द्रसे क्या प्रयोजन है? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही हैं॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रयज्ञपरा विप्रास्सीरयज्ञाश्च कर्षकाः ।
गिरिगोयज्ञशीलाश्च वयमद्रिवनाश्रयाः॥ ३७॥
मूलम्
मन्त्रयज्ञपरा विप्रास्सीरयज्ञाश्च कर्षकाः ।
गिरिगोयज्ञशीलाश्च वयमद्रिवनाश्रयाः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणलोग मन्त्र यज्ञ तथा कृषकगण सीरयज्ञ (हलका पूजन) करते हैं, अतः पर्वत और वनोंमें रहनेवाले हमलोगोंको गिरियज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्गोवर्धनश्शैलो भवद्भिर्विविधार्हणैः ।
अर्च्यतां पूज्यतां मेध्यान्पशून्हत्वा विधानतः॥ ३८॥
मूलम्
तस्माद्गोवर्धनश्शैलो भवद्भिर्विविधार्हणैः ।
अर्च्यतां पूज्यतां मेध्यान्पशून्हत्वा विधानतः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अतएव आपलोग विधिपूर्वक मेध्य पशुओंकी बलि देकर विविध सामग्रियोंसे गोवर्धनपर्वतकी अर्चा पूजा करें॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वघोषस्य सन्दोहो गृह्यतां मा विचार्यताम् ।
भोज्यन्तां तेन वै विप्रास्तथा ये चाभिवाञ्छकाः॥ ३९॥
मूलम्
सर्वघोषस्य सन्दोहो गृह्यतां मा विचार्यताम् ।
भोज्यन्तां तेन वै विप्रास्तथा ये चाभिवाञ्छकाः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों तथा अन्यान्य याचकोंको भोजन कराओ; इस विषयमें और अधिक सोच-विचार मत करो॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रार्चिते कृते होमे भोजितेषु द्विजातिषु ।
शरत्पुष्पकृतापीडाः परिगच्छन्तु गोगणाः॥ ४०॥
मूलम्
तत्रार्चिते कृते होमे भोजितेषु द्विजातिषु ।
शरत्पुष्पकृतापीडाः परिगच्छन्तु गोगणाः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोवर्धनकी पूजा, होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर शरद्-ऋतुके पुष्पोंसे सजे हुए मस्तकवाली गौएँ गिरिराजकी प्रदक्षिणा करें॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मम मतं गोपास्सम्प्रीत्या क्रियते यदि ।
ततः कृता भवेत्प्रीतिर्गवामद्रेस्तथा मम॥ ४१॥
मूलम्
एतन्मम मतं गोपास्सम्प्रीत्या क्रियते यदि ।
ततः कृता भवेत्प्रीतिर्गवामद्रेस्तथा मम॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गोपगण! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वक मेरी इस सम्मतिके अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिराज और मुझको अत्यन्त प्रसन्नता होगी’’॥ ४१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तस्य वचः श्रुत्वा नन्दाद्यास्ते व्रजौकसः ।
प्रीत्युत्फुल्लमुखा गोपास्साधुसाध्वित्यथाब्रुवन्॥ ४२॥
मूलम्
इति तस्य वचः श्रुत्वा नन्दाद्यास्ते व्रजौकसः ।
प्रीत्युत्फुल्लमुखा गोपास्साधुसाध्वित्यथाब्रुवन्॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—कृष्णचन्द्रके इन वाक्योंको सुनकर नन्द आदि व्रजवासी गोपोंने प्रसन्नतासे खिले हुए मुखसे ‘साधु, साधु’ कहा॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्भवतोदितम् ।
तत्करिष्यामहे सर्वं गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम्॥ ४३॥
मूलम्
शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्भवतोदितम् ।
तत्करिष्यामहे सर्वं गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोले—हे वत्स! तुमने अपना जो विचार प्रकट किया है वह बड़ा ही सुन्दर है; हम सब ऐसा ही करेंगे; आज गिरियज्ञ किया जाय॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च कृतवन्तस्ते गिरियज्ञं व्रजौकसः ।
दधिपायसमांसाद्यैर्ददुश्शैलबलिं ततः॥ ४४॥
मूलम्
तथा च कृतवन्तस्ते गिरियज्ञं व्रजौकसः ।
दधिपायसमांसाद्यैर्ददुश्शैलबलिं ततः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन व्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया तथा दही, खीर और मांस आदिसे पर्वतराजको बलि दी॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजांश्च भोजयामासुश्शतशोऽथ सहस्रशः॥ ४५॥
गावश्शैलंततश्चक्रुरर्चितास्ताः प्रदक्षिणम् ।
वृषभाश्चातिनर्दन्तस्सतोया जलदा इव॥ ४६॥
मूलम्
द्विजांश्च भोजयामासुश्शतशोऽथ सहस्रशः॥ ४५॥
गावश्शैलंततश्चक्रुरर्चितास्ताः प्रदक्षिणम् ।
वृषभाश्चातिनर्दन्तस्सतोया जलदा इव॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा पुष्पार्चित गौओं और सजल जलधरके समान गर्जनेवाले साँड़ोंने गोवर्धनकी परिक्रमा की॥ ४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिमूर्द्धनि कृष्णोऽपि शैलोऽहमिति मूर्तिमान् ।
बुभुजेऽन्नं बहुतरं गोपवर्याहृतं द्विज॥ ४७॥
मूलम्
गिरिमूर्द्धनि कृष्णोऽपि शैलोऽहमिति मूर्तिमान् ।
बुभुजेऽन्नं बहुतरं गोपवर्याहृतं द्विज॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! उस समय कृष्णचन्द्रने पर्वतके शिखरपर अन्यरूपसे प्रकट होकर यह दिखलाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपश्रेष्ठोंके चढ़ाये हुए विविध व्यंजनोंको ग्रहण किया॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वेनैव कृष्णो रूपेण गोपैस्सह गिरेश्शिरः ।
अधिरुह्यार्चयामास द्वितीयामात्मनस्तनुम्॥ ४८॥
मूलम्
स्वेनैव कृष्णो रूपेण गोपैस्सह गिरेश्शिरः ।
अधिरुह्यार्चयामास द्वितीयामात्मनस्तनुम्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णचन्द्रने अपने निजरूपसे गोपोंके साथ पर्वतराजके शिखरपर चढ़कर अपने ही दूसरे स्वरूपका पूजन किया॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्द्धानं गते तस्मिन्गोपालब्ध्वा ततो वरान् ।
कृत्वा गिरिमखं गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः॥ ४९॥
मूलम्
अन्तर्द्धानं गते तस्मिन्गोपालब्ध्वा ततो वरान् ।
कृत्वा गिरिमखं गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण अपने अभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्त करके फिर अपने-अपने गोष्ठोंमें चले आये॥ ४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे दशमोऽध्यायः॥ १०॥