०८

[आठवाँ अध्याय]

विषय

धेनुकासुर-वध

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाः पालयन्तौ च पुनः सहितौ बलकेशवौ ।
भ्रममाणौ वने तस्मिन् रम्यं तालवनं गतौ॥ १॥

मूलम्

गाः पालयन्तौ च पुनः सहितौ बलकेशवौ ।
भ्रममाणौ वने तस्मिन् रम्यं तालवनं गतौ॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—एक दिन बलराम और कृष्ण साथ-साथ गौ चराते अति रमणीय तालवनमें आये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्तु तालवनं दिव्यं धेनुको नाम दानवः ।
मृगमांसकृताहारः सदाध्यास्ते खराकृतिः॥ २॥

मूलम्

तत्तु तालवनं दिव्यं धेनुको नाम दानवः ।
मृगमांसकृताहारः सदाध्यास्ते खराकृतिः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दिव्य तालवनमें धेनुक नामक एक गधेके आकारवाला दैत्य मृगमांसका आहार करता हुआ सदा रहा करता था॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्तु तालवनं पक्वफलसम्पत्समन्वितम् ।
दृष्ट्वा स्पृहान्विता गोपाः फलादानेऽब्रुवन्वचः॥ ३॥

मूलम्

तत्तु तालवनं पक्वफलसम्पत्समन्वितम् ।
दृष्ट्वा स्पृहान्विता गोपाः फलादानेऽब्रुवन्वचः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस तालवनको पके फलोंकी सम्पत्तिसे सम्पन्न देखकर उन्हें तोड़नेकी इच्छासे गोपगण बोले॥ ३॥

मूलम् (वचनम्)

गोपा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे राम हे कृष्ण सदा धेनुकेनैष रक्ष्यते ।
भूप्रदेशो यतस्तस्मात्पक्वानीमानि सन्ति वै॥ ४॥

मूलम्

हे राम हे कृष्ण सदा धेनुकेनैष रक्ष्यते ।
भूप्रदेशो यतस्तस्मात्पक्वानीमानि सन्ति वै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपोंने कहा—भैया राम और कृष्ण! इस भूमिप्रदेशकी रक्षा सदा धेनुकासुर करता है, इसीलिये यहाँ ऐसे पके-पके फल लगे हुए हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलानि पश्य तालानां गन्धामोदितदींशि वै ।
वयमेतान्यभीप्सामः पात्यन्तां यदि रोचते॥ ५॥

मूलम्

फलानि पश्य तालानां गन्धामोदितदींशि वै ।
वयमेतान्यभीप्सामः पात्यन्तां यदि रोचते॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी गन्धसे सम्पूर्ण दिशाओंको आमोदित करनेवाले ये ताल-फल तो देखो; हमें इन्हें खानेकी इच्छा है; यदि आपको अच्छा लगे तो [थोड़े-से] झाड़ दीजिये॥ ५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति गोपकुमाराणां श्रुत्वा संकर्षणो वचः ।
एतत्कर्त्तव्यमित्युक्त्वा पातयामास तानि वै ।
कृष्णश्च पातयामास भुवि तानि फलानि वै॥ ६॥

मूलम्

इति गोपकुमाराणां श्रुत्वा संकर्षणो वचः ।
एतत्कर्त्तव्यमित्युक्त्वा पातयामास तानि वै ।
कृष्णश्च पातयामास भुवि तानि फलानि वै॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—गोपकुमारोंके ये वचन सुनकर बलरामजीने ‘ऐसा ही करना चाहिये’ यह कहकर फल गिरा दिये और पीछे कुछ फल कृष्णचन्द्रने भी पृथिवीपर गिराये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलानां पततां शब्दमाकर्ण्य सुदुरासदः ।
आजगाम स दुष्टात्मा कोपाद्दैतेयगर्दभः॥ ७॥
पद्‍भ्यामुभाभ्यांसतदापश्चिमाभ्यांबलंबली ।
जघानोरसि ताभ्यां च स च तेनाभ्यगृह्यत॥ ८॥
गृहीत्वा भ्रामयामास सोऽम्बरे गतजीवितम् ।
तस्मिन्नेव स चिक्षेप वेगेन तृणराजनि॥ ९॥

मूलम्

फलानां पततां शब्दमाकर्ण्य सुदुरासदः ।
आजगाम स दुष्टात्मा कोपाद्दैतेयगर्दभः॥ ७॥
पद्‍भ्यामुभाभ्यांसतदापश्चिमाभ्यांबलंबली ।
जघानोरसि ताभ्यां च स च तेनाभ्यगृह्यत॥ ८॥
गृहीत्वा भ्रामयामास सोऽम्बरे गतजीवितम् ।
तस्मिन्नेव स चिक्षेप वेगेन तृणराजनि॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

गिरते हुए फलोंका शब्द सुनकर वह दुर्द्धर्ष और दुरात्मा गर्दभासुर क्रोधपूर्वक दौड़ आया और उस महाबलवान् असुरने अपने पिछले दो पैरोंसे बलरामजीकी छातीमें लात मारी । बलरामजीने उसके उन पैरोंको पकड़ लिया और आकाशमें घुमाने लगे । जब वह निर्जीव हो गया तो उसे अत्यन्त वेगसे उस तालवृक्षपर ही दे मारा॥ ७—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः फलान्यनेकानि तालाग्रान्निपतन्खरः ।
पृथिव्यां पातयामास महावातो घनानिव॥ १०॥

मूलम्

ततः फलान्यनेकानि तालाग्रान्निपतन्खरः ।
पृथिव्यां पातयामास महावातो घनानिव॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस गधेने गिरते-गिरते उस तालवृक्षसे बहुत-से फल इस प्रकार गिरा दिये जैसे प्रचण्ड वायु बादलोंको गिरा दे॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यानथ सजातीयानागतान्दैत्यगर्दभान् ।
कृष्णश्चिक्षेप तालाग्रे बलभद्रश्च लीलया॥ ११॥

मूलम्

अन्यानथ सजातीयानागतान्दैत्यगर्दभान् ।
कृष्णश्चिक्षेप तालाग्रे बलभद्रश्च लीलया॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके सजातीय अन्य गर्दभासुरोंके आनेपर भी कृष्ण और रामने उन्हें अनायास ही तालवृक्षोंपर पटक दिया॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणेनालङ्कृता पृथ्वी पक्वैस्तालफलैस्तदा ।
दैत्यगर्दभदेहैश्च मैत्रेय शुशुभेऽधिकम्॥ १२॥

मूलम्

क्षणेनालङ्कृता पृथ्वी पक्वैस्तालफलैस्तदा ।
दैत्यगर्दभदेहैश्च मैत्रेय शुशुभेऽधिकम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! इस प्रकार एक क्षणमें ही पके हुए तालफलों और गर्दभासुरोंके देहोंसे विभूषिता होकर पृथिवी अत्यन्त सुशोभित होने लगी॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गावो निराबाधास्तस्मिंस्तालवने द्विज ।
नवशष्पं सुखं चेरुर्यन्न भुक्तमभूत्पुरा॥ १३॥

मूलम्

ततो गावो निराबाधास्तस्मिंस्तालवने द्विज ।
नवशष्पं सुखं चेरुर्यन्न भुक्तमभूत्पुरा॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! तबसे उस तालवनमें गौएँ निर्विघ्न होकर सुखपूर्वक नवीन तृण चरने लगीं जो उन्हें पहले कभी चरनेको नसीब नहीं हुआ था॥ १३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे अष्टमोऽध्यायः॥ ८॥