०७

[सातवाँ अध्याय]

विषय

कालिय-दमन

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा तु विना रामं कृष्णो वृन्दावनं ययौ ।
विचचार वृतो गोपैर्वन्यपुष्पस्रगुज्ज्वलः॥ १॥

मूलम्

एकदा तु विना रामं कृष्णो वृन्दावनं ययौ ।
विचचार वृतो गोपैर्वन्यपुष्पस्रगुज्ज्वलः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—एक दिन रामको बिना साथ लिये कृष्ण अकेले ही वृन्दावनको गये और वहाँ वन्य पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित हो गोपगणसे घिरे हुए विचरने लगे॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स जगामाथ कालिन्दीं लोलकल्लोलशालिनीम् ।
तीरसंलग्नफेनौघैर्हसन्तीमिव सर्वतः॥ २॥

मूलम्

स जगामाथ कालिन्दीं लोलकल्लोलशालिनीम् ।
तीरसंलग्नफेनौघैर्हसन्तीमिव सर्वतः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

घूमते-घूमते वे चंचल तरंगोंसे शोभित यमुनाके तटपर जा पहुँचे जो किनारोंपर फेनके इकट्ठे हो जानेसे मानो सब ओरसे हँस रही थी॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याञ्चातिमहाभीमं विषाग्निश्रितवारिकम् ।
ह्रदं कालियनागस्य ददर्शातिविभीषणम्॥ ३॥

मूलम्

तस्याञ्चातिमहाभीमं विषाग्निश्रितवारिकम् ।
ह्रदं कालियनागस्य ददर्शातिविभीषणम्॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमुनाजीमें उन्होंने विषाग्निसे सन्तप्त जलवाला कालियनागका महाभयंकर कुण्ड देखा॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषाग्निना प्रसरता दग्धतीरमहीरुहम् ।
वाताहताम्बुविक्षेपस्पर्शदग्धविहङ्गमम्॥ ४॥

मूलम्

विषाग्निना प्रसरता दग्धतीरमहीरुहम् ।
वाताहताम्बुविक्षेपस्पर्शदग्धविहङ्गमम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी विषाग्निके प्रसारसे किनारेके वृक्ष जल गये थे और वायुके थपेड़ोंसे उछलते हुए जलकणोंका स्पर्श होनेसे पक्षिगण दग्ध हो जाते थे॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमतीव महारौद्रं मृत्युवक्त्रमिवापरम् ।
विलोक्य चिन्तयामास भगवान‍्मधुसूदनः॥ ५॥

मूलम्

तमतीव महारौद्रं मृत्युवक्त्रमिवापरम् ।
विलोक्य चिन्तयामास भगवान‍्मधुसूदनः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्युके अपर मुखके समान उस महाभयंकरकुण्डको देखकर भगवान् मधुसूदनने विचार किया—॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्वसति दुष्टात्मा कालियोऽसौ विषायुधः ।
यो मया निर्जितस्त्यक्त्वा दुष्टो नष्टः पयोनिधिम्॥ ६॥

मूलम्

अस्मिन्वसति दुष्टात्मा कालियोऽसौ विषायुधः ।
यो मया निर्जितस्त्यक्त्वा दुष्टो नष्टः पयोनिधिम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसमें दुष्टात्मा कालियनाग रहता है जिसका विष ही शस्त्र है और जो दुष्ट मुझ [अर्थात् मेरी विभूति गरुड]-से पराजित हो समुद्रको छोड़कर भाग आया है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनेयं दूषिता सर्वा यमुना सागरङ्गमा ।
न नरैर्गोधनैश्चापि तृषार्तैरुपभुज्यते॥ ७॥

मूलम्

तेनेयं दूषिता सर्वा यमुना सागरङ्गमा ।
न नरैर्गोधनैश्चापि तृषार्तैरुपभुज्यते॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसने इस समुद्रगामिनी सम्पूर्ण यमुनाको दूषित कर दिया है, अब इसका जल प्यासे मनुष्यों और गौओंके भी काममें नहीं आता है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य नागराजस्य कर्तव्यो निग्रहो मया ।
निस्त्रासास्तु सुखं येन चरेयुर्व्रजवासिनः॥ ८॥

मूलम्

तदस्य नागराजस्य कर्तव्यो निग्रहो मया ।
निस्त्रासास्तु सुखं येन चरेयुर्व्रजवासिनः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मुझे इस नागराजका दमन करना चाहिये, जिससे व्रजवासी लोग निर्भय होकर सुखपूर्वक रह सकें॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदर्थं तु लोकेऽस्मिन्नवतारः कृतो मया ।
यदेषामुत्पथस्थानां कार्या शान्तिर्दुरात्मनाम्॥ ९॥

मूलम्

एतदर्थं तु लोकेऽस्मिन्नवतारः कृतो मया ।
यदेषामुत्पथस्थानां कार्या शान्तिर्दुरात्मनाम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन कुमार्गगामी दुरात्माओंको शान्त करना चाहिये, इसलिये ही तो मैंने इस लोकमें अवतार लिया है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेतं नातिदूरस्थं कदम्बमुरुशाखिनम् ।
अधिरुह्य पतिष्यामि ह्रदेऽस्मिन्ननिलाशिनः॥ १०॥

मूलम्

तदेतं नातिदूरस्थं कदम्बमुरुशाखिनम् ।
अधिरुह्य पतिष्यामि ह्रदेऽस्मिन्ननिलाशिनः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अब मैं इस ऊँची-ऊँची शाखाओंवाले पासहीके कदम्बवृक्षपर चढ़कर वायुभक्षी नागराजके कुण्डमें कूदता हूँ’॥ १०॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं विचिन्त्य बद्‍ध्वा च गाढं परिकरं ततः ।
निपपात ह्रदे तत्र नागराजस्य वेगतः॥ ११॥

मूलम्

इत्थं विचिन्त्य बद्‍ध्वा च गाढं परिकरं ततः ।
निपपात ह्रदे तत्र नागराजस्य वेगतः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! ऐसा विचारकर भगवान् अपनी कमर कसकर वेगपूर्वक नागराजके कुण्डमें कूद पड़े॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनातिपतता तत्र क्षोभितस्स महाह्रदः ।
अत्यर्थं दूरजातांस्तु समसिञ्चन्महीरुहान्॥ १२॥

मूलम्

तेनातिपतता तत्र क्षोभितस्स महाह्रदः ।
अत्यर्थं दूरजातांस्तु समसिञ्चन्महीरुहान्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके कूदनेसे उस महाह्रदने अत्यन्त क्षोभित होकर दूरस्थित वृक्षोंको भी भिगो दिया॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽहिदुष्टविषज्वालातप्ताम्बुपवनोक्षिताः ।
जज्वलुः पादपास्सद्यो ज्वालाव्याप्तदिगन्तराः॥ १३॥

मूलम्

तेऽहिदुष्टविषज्वालातप्ताम्बुपवनोक्षिताः ।
जज्वलुः पादपास्सद्यो ज्वालाव्याप्तदिगन्तराः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सर्पके विषम विषकी ज्वालासे तपे हुए जलसे भीगनेके कारण वे वृक्ष तुरन्त ही जल उठे और उनकी ज्वालाओंसे सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो गयीं॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्फोटयामास तदा कृष्णो नागह्रदे भुजम् ।
तच्छब्दश्रवणाच्चाशु नागराजोऽभ्युपागमत्॥ १४॥

मूलम्

आस्फोटयामास तदा कृष्णो नागह्रदे भुजम् ।
तच्छब्दश्रवणाच्चाशु नागराजोऽभ्युपागमत्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कृष्णचन्द्रने उस नागकुण्डमें अपनी भुजाओंको ठोंका; उनका शब्द सुनते ही वह नागराज तुरंत उनके सम्मुख आ गया॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आताम्रनयनः कोपाद्विषज्वालाकुलैर्मुखैः ।
वृतो महाविषैश्चान्यैरुरगैरनिलाशनैः॥ १५॥

मूलम्

आताम्रनयनः कोपाद्विषज्वालाकुलैर्मुखैः ।
वृतो महाविषैश्चान्यैरुरगैरनिलाशनैः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके नेत्र क्रोधसे कुछ ताम्रवर्ण हो रहे थे, मुखोंसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं और वह महाविषैले अन्य वायुभक्षी सर्पोंसे घिरा हुआ था॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागपत्न्यश्च शतशो हारिहारोपशोभिताः ।
प्रकम्पिततनुक्षेपचलत्कुण्डलकान्तयः॥ १६॥

मूलम्

नागपत्न्यश्च शतशो हारिहारोपशोभिताः ।
प्रकम्पिततनुक्षेपचलत्कुण्डलकान्तयः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके साथमें मनोहर हारोंसे भूषिता और शरीर-कम्पनसे हिलते हुए कुण्डलोंकी कान्तिसे सुशोभिता सैकड़ों नागपत्नियाँ थीं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रवेष्टितस्सर्पैस्स कृष्णो भोगबन्धनैः ।
ददंशुस्तेऽपि तं कृष्णं विषज्वालाकुलैर्मुखैः॥ १७॥

मूलम्

ततः प्रवेष्टितस्सर्पैस्स कृष्णो भोगबन्धनैः ।
ददंशुस्तेऽपि तं कृष्णं विषज्वालाकुलैर्मुखैः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सर्पोंने कुण्डलाकार होकर कृष्णचन्द्रको अपने शरीरसे बाँध लिया और अपने विषाग्नि-सन्तप्त मुखोंसे काटने लगे॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तत्र पतितं दृष्ट्वा सर्पभोगैर्निपीडितम् ।
गोपा व्रजमुपागम्य चुक्रुशुः शोकलालसाः॥ १८॥

मूलम्

तं तत्र पतितं दृष्ट्वा सर्पभोगैर्निपीडितम् ।
गोपा व्रजमुपागम्य चुक्रुशुः शोकलालसाः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गोपगण कृष्णचन्द्रको नागकुण्डमें गिरा हुआ और सर्पोंके फणोंसे पीडित होता देख व्रजमें चले आये और शोकसे व्याकुल होकर रोने लगे॥ १८॥

मूलम् (वचनम्)

गोपा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मोहंगतः कृष्णो मग्नो वै कालियह्रदे ।
भक्ष्यते नागराजेन तमागच्छत पश्यत॥ १९॥

मूलम्

एष मोहंगतः कृष्णो मग्नो वै कालियह्रदे ।
भक्ष्यते नागराजेन तमागच्छत पश्यत॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपगण बोले—आओ, आओ, देखो! यह कृष्ण कालीदहमें डूबकर मूर्च्छित हो गया है, देखो इसे नागराज खाये जाता है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा तत्र ते गोपा वज्रपातोपमं वचः ।
गोप्यश्च त्वरिता जग्मुर्यशोदाप्रमुखा ह्रदम्॥ २०॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा तत्र ते गोपा वज्रपातोपमं वचः ।
गोप्यश्च त्वरिता जग्मुर्यशोदाप्रमुखा ह्रदम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वज्रपातके समान उनके इन अमंगल वाक्योंको सुनकर गोपगण और यशोदा आदि गोपियाँ तुरंत ही कालीदहपर दौड़ आयीं॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा हा क्वासाविति जनो गोपीनामतिविह्वलः ।
यशोदया समं भ्रान्तो द्रुतप्रस्खलितं ययौ॥ २१॥

मूलम्

हा हा क्वासाविति जनो गोपीनामतिविह्वलः ।
यशोदया समं भ्रान्तो द्रुतप्रस्खलितं ययौ॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! हाय! वे कृष्ण कहाँ गये?’ इस प्रकार अत्यन्त व्याकुलतापूर्वक रोती हुई गोपियाँ यशोदाके साथ शीघ्रतासे गिरती-पड़ती चलीं॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दगोपश्च गोपाश्च रामश्चाद्भुतविक्रमः ।
त्वरितं यमुनां जग्मुः कृष्णदर्शनलालसाः॥ २२॥

मूलम्

नन्दगोपश्च गोपाश्च रामश्चाद्भुतविक्रमः ।
त्वरितं यमुनां जग्मुः कृष्णदर्शनलालसाः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्दजी तथा अन्यान्य गोपगण और अद्भुत-विक्रमशाली बलरामजी भी कृष्णदर्शनकी लालसासे शीघ्रतापूर्वक यमुना-तटपर आये॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददृशुश्चापि ते तत्र सर्पराजवशंगतम् ।
निष्प्रयत्नीकृतं कृष्णं सर्पभोगविवेष्टितम्॥ २३॥

मूलम्

ददृशुश्चापि ते तत्र सर्पराजवशंगतम् ।
निष्प्रयत्नीकृतं कृष्णं सर्पभोगविवेष्टितम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ आकर उन्होंने देखा कि कृष्णचन्द्र सर्पराजके चंगुलमें फँसे हुए हैं और उसने उन्हें अपने शरीरसे लपेटकर निरुपाय कर दिया है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दगोपोऽपि निश्चेष्टो न्यस्य पुत्रमुखे दृशम् ।
यशोदा च महाभागा बभूव मुनिसत्तम॥ २४॥

मूलम्

नन्दगोपोऽपि निश्चेष्टो न्यस्य पुत्रमुखे दृशम् ।
यशोदा च महाभागा बभूव मुनिसत्तम॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनिसत्तम! महाभागा यशोदा और नन्दगोप भी पुत्रके मुखपर टकटकी लगाकर चेष्टाशून्य हो गये॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्यस्त्वन्या रुदन्त्यश्च ददृशुः शोककातराः ।
प्रोचुश्च केशवं प्रीत्या भयकातर्यगद‍्गदम्॥ २५॥

मूलम्

गोप्यस्त्वन्या रुदन्त्यश्च ददृशुः शोककातराः ।
प्रोचुश्च केशवं प्रीत्या भयकातर्यगद‍्गदम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य गोपियोंने भी जब कृष्णचन्द्रको इस दशामें देखा तो वे शोकाकुल होकर रोने लगीं और भय तथा व्याकुलताके कारण गद‍्गदवाणीसे उनसे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं॥ २५॥

मूलम् (वचनम्)

गोप्य ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वा यशोदया सार्धं विशामोऽत्र महाह्रदम् ।
सर्पराजस्य नो गन्तुमस्माभिर्युज्यते व्रजम्॥ २६॥

मूलम्

सर्वा यशोदया सार्धं विशामोऽत्र महाह्रदम् ।
सर्पराजस्य नो गन्तुमस्माभिर्युज्यते व्रजम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपियाँ बोलीं—अब हम सब भी यशोदाके साथ इस सर्पराजके महाकुण्डमें ही डूबी जाती हैं, अब हमें व्रजमें जाना उचित नहीं है॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवसः को विना सूर्यं विना चन्द्रेण का निशा ।
विना वृषेण का गावो विना कृष्णेन को व्रजः॥ २७॥

मूलम्

दिवसः को विना सूर्यं विना चन्द्रेण का निशा ।
विना वृषेण का गावो विना कृष्णेन को व्रजः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके बिना दिन कैसा? चन्द्रमाके बिना रात्रि कैसी? साँड़के बिना गौएँ क्या? ऐसे ही कृष्णके बिना व्रजमें भी क्या रखा है?॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनाकृता न यास्यामः कृष्णेनानेन गोकुलम् ।
अरम्यं नातिसेव्यं च वारिहीनं यथा सरः॥ २८॥

मूलम्

विनाकृता न यास्यामः कृष्णेनानेन गोकुलम् ।
अरम्यं नातिसेव्यं च वारिहीनं यथा सरः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णके बिना साथ लिये अब हम गोकुल नहीं जायँगी; क्योंकि इनके बिना वह जलहीन सरोवरके समान अत्यन्त अभव्य और असेव्य है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र नेन्दीवरदलश्यामकान्तिरयं हरिः ।
तेनापि मातुर्वासेन रतिरस्तीति विस्मयः॥ २९॥

मूलम्

यत्र नेन्दीवरदलश्यामकान्तिरयं हरिः ।
तेनापि मातुर्वासेन रतिरस्तीति विस्मयः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ नीलकमलदलकी-सी आभावाले ये श्यामसुन्दर हरि नहीं हैं उस मातृ-मन्दिरसे भी प्रीति होना अत्यन्त आश्चर्य ही है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्फुल्लपङ्कजदलस्पष्टकान्तिविलोचनम् ।
अपश्यन्त्यो हरिं दीनाः कथं गोष्ठे भविष्यथ॥ ३०॥

मूलम्

उत्फुल्लपङ्कजदलस्पष्टकान्तिविलोचनम् ।
अपश्यन्त्यो हरिं दीनाः कथं गोष्ठे भविष्यथ॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरी! खिले हुए कमलदलके सदृश कान्तियुक्त नेत्रोंवाले श्रीहरिको देखे बिना अत्यन्त दीन हुई तुम किस प्रकार व्रजमें रह सकोगी?॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यन्तमधुरालापहृताशेषमनोरथम् ।
न विना पुण्डरीकाक्षं यास्यामो नन्दगोकुलम्॥ ३१॥

मूलम्

अत्यन्तमधुरालापहृताशेषमनोरथम् ।
न विना पुण्डरीकाक्षं यास्यामो नन्दगोकुलम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने अपनी अत्यन्त मनोहर बोलीसे हमारे सम्पूर्ण मनोरथोंको अपने वशीभूत कर लिया है, उन कमलनयन कृष्णचन्द्रके बिना हम नन्दजीके गोकुलको नहीं जायँगी॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोगेनावेष्टितस्यापि सर्पराजस्य पश्यत ।
स्मितशोभि मुखं गोप्यः कृष्णस्यास्मद्विलोकने॥ ३२॥

मूलम्

भोगेनावेष्टितस्यापि सर्पराजस्य पश्यत ।
स्मितशोभि मुखं गोप्यः कृष्णस्यास्मद्विलोकने॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरी गोपियो! देखो, सर्पराजके फणसे आवृत होकर भी श्रीकृष्णका मुख हमें देखकर मधुर मुसकानसे सुशोभित हो रहा है॥ ३२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति गोपीवचः श्रुत्वा रौहिणेयो महाबलः ।
गोपांश्च त्रासविधुरान्विलोक्य स्तिमितेक्षणान्॥ ३३॥
नन्दं च दीनमत्यर्थं न्यस्तदृष्टिं सुतानने ।
मूर्च्छाकुलां यशोदां च कृष्णमाहात्मसंज्ञया॥ ३४॥

मूलम्

इति गोपीवचः श्रुत्वा रौहिणेयो महाबलः ।
गोपांश्च त्रासविधुरान्विलोक्य स्तिमितेक्षणान्॥ ३३॥
नन्दं च दीनमत्यर्थं न्यस्तदृष्टिं सुतानने ।
मूर्च्छाकुलां यशोदां च कृष्णमाहात्मसंज्ञया॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—गोपियोंके ऐसे वचन सुनकर तथा त्रासविह्वल चकितनेत्र गोपोंको, पुत्रके मुखपर दृष्टि लगाये अत्यन्त दीन नन्दजीको और मूर्च्छाकुल यशोदाको देखकर महाबली रोहिणीनन्दन बलरामजीने अपने संकेतमें कृष्णजीसे कहा—॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिदं देवदेवेश भावोऽयं मानुषस्त्वया ।
व्यज्यतेऽत्यन्तमात्मानं किमनन्तं न वेत्सि यत्॥ ३५॥

मूलम्

किमिदं देवदेवेश भावोऽयं मानुषस्त्वया ।
व्यज्यतेऽत्यन्तमात्मानं किमनन्तं न वेत्सि यत्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे देवदेवेश्वर! क्या आप अपनेको अनन्त नहीं जानते? फिर किसलिये यह अत्यन्त मानव भाव व्यक्त कर रहे हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव जगतो नाभिरराणामिव संश्रयः ।
कर्त्तापहर्त्ता पाता च त्रैलौक्यं त्वं त्रयीमयः॥ ३६॥

मूलम्

त्वमेव जगतो नाभिरराणामिव संश्रयः ।
कर्त्तापहर्त्ता पाता च त्रैलौक्यं त्वं त्रयीमयः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहियोंकी नाभि जिस प्रकार अरोंका आश्रय होती है उसी प्रकार आप ही जगत‍्के आश्रय, कर्ता, हर्ता और रक्षक हैं तथा आप ही त्रैलोक्यस्वरूप और वेदत्रयीमय हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेन्द्रै रुद्राग्निवसुभिरादित्यैर्मरुदश्विभिः ।
चिन्त्यसे त्वमचिन्त्यात्मन‍्समस्तैश्चैव योगिभिः॥ ३७॥

मूलम्

सेन्द्रै रुद्राग्निवसुभिरादित्यैर्मरुदश्विभिः ।
चिन्त्यसे त्वमचिन्त्यात्मन‍्समस्तैश्चैव योगिभिः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अचिन्त्यात्मन्! इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वसु, आदित्य, मरुद‍्गण और अश्विनीकुमार तथा समस्त योगिजन आपहीका चिन्तन करते हैं॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत्यर्थं जगन्नाथ भारावतरणेच्छया ।
अवतीर्णोऽसि मर्त्येषु तवांशश्चाहमग्रजः॥ ३८॥

मूलम्

जगत्यर्थं जगन्नाथ भारावतरणेच्छया ।
अवतीर्णोऽसि मर्त्येषु तवांशश्चाहमग्रजः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जगन्नाथ! संसारके हितके लिये पृथिवीका भार उतारनेकी इच्छासे ही आपने मर्त्यलोकमें अवतार लिया है; आपका अग्रज मैं भी आपहीका अंश हूँ॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यलीलां भगवन् भजता भवता सुराः ।
विडम्बयन्तस्त्वल्लीलां सर्व एव सहासते॥ ३९॥

मूलम्

मनुष्यलीलां भगवन् भजता भवता सुराः ।
विडम्बयन्तस्त्वल्लीलां सर्व एव सहासते॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भगवन्! आपके मनुष्य-लीला करनेपर ये गोपवेषधारी समस्त देवगण भी आपकी लीलाओंका अनुकरण करते हुए आपहीके साथ रहते हैं॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतार्य भवान्पूर्वं गोकुले तु सुराङ्गनाः ।
क्रीडार्थमात्मनः पश्चादवतीर्णोऽसि शाश्वत॥ ४०॥

मूलम्

अवतार्य भवान्पूर्वं गोकुले तु सुराङ्गनाः ।
क्रीडार्थमात्मनः पश्चादवतीर्णोऽसि शाश्वत॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे शाश्वत! पहले अपने विहारार्थ देवांगनाओंको गोपीरूपसे गोकुलमें अवतीर्णकर पीछे आपने अवतार लिया है॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः ।
गोप्यश्च सीदतः कस्मादेतान्बन्धूनुपेक्षसे॥ ४१॥

मूलम्

अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः ।
गोप्यश्च सीदतः कस्मादेतान्बन्धूनुपेक्षसे॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृष्ण! यहाँ अवतीर्ण होनेपर हम दोनोंके तो ये गोप और गोपियाँ ही बान्धव हैं; फिर अपने इन दुःखी बान्धवोंकी आप क्यों उपेक्षा करते हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचापलम् ।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुष्टात्मा दशनायुधः॥ ४२॥

मूलम्

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचापलम् ।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुष्टात्मा दशनायुधः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृष्ण! यह मनुष्यभाव और बालचापल्य तो आप बहुत दिखा चुके, अब तो शीघ्र ही इस दुष्टात्माका जिसके शस्त्र दाँत ही हैं, दमन कीजिये’’॥ ४२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतिसंस्मारितः कृष्णः स्मितभिन्नोष्ठसम्पुटः ।
आस्फोट्य मोचयामास स्वदेहं भोगिबन्धनात्॥ ४३॥

मूलम्

इतिसंस्मारितः कृष्णः स्मितभिन्नोष्ठसम्पुटः ।
आस्फोट्य मोचयामास स्वदेहं भोगिबन्धनात्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर, मधुर मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए श्रीकृष्णचन्द्रने उछलकर अपने शरीरको सर्पके बन्धनसे छुड़ा लिया॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनम्य चापि हस्ताभ्यामुभाभ्यां मध्यमं शिरः ।
आरुह्याभुग्नशिरसः प्रणनर्त्तोरुविक्रमः॥ ४४॥

मूलम्

आनम्य चापि हस्ताभ्यामुभाभ्यां मध्यमं शिरः ।
आरुह्याभुग्नशिरसः प्रणनर्त्तोरुविक्रमः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और फिर अपने दोनों हाथोंसे उसका बीचका फण झुकाकर उस नतमस्तक सर्पके ऊपर चढ़कर बड़े वेगसे नाचने लगे॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणाः फणेऽभवंश्चास्य कृष्णस्याङ्घ्रिनिकुट्टनैः ।
यत्रोन्नतिं च कुरुते ननामास्य ततश्शिरः॥ ४५॥

मूलम्

प्राणाः फणेऽभवंश्चास्य कृष्णस्याङ्घ्रिनिकुट्टनैः ।
यत्रोन्नतिं च कुरुते ननामास्य ततश्शिरः॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृष्णचन्द्रके चरणोंकी धमकसे उसके प्राण मुखमें आ गये, वह अपने जिस मस्तकको उठाता उसीपर कूदकर भगवान् उसे झुका देते॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्च्छामुपाययौ भ्रान्त्या नागः कृष्णस्य रेचकैः ।
दण्डपातनिपातेन ववाम रुधिरं बहु॥ ४६॥

मूलम्

मूर्च्छामुपाययौ भ्रान्त्या नागः कृष्णस्य रेचकैः ।
दण्डपातनिपातेन ववाम रुधिरं बहु॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णचन्द्रजीकी भ्रान्ति (भ्रम), रेचक तथा दण्डपात नामकी [नृत्यसम्बन्धिनी] गतियोंके ताडनसे वह महासर्प मूर्छित हो गया और उसने बहुत-सा रुधिर वमन किया॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विभुग्नशिरोग्रीवमास्येभ्यस्स्रुतशोणितम् ।
विलोक्यं करुणं जग्मुस्तत्पत्न्यो मधुसूदनम्॥ ४७॥

मूलम्

तं विभुग्नशिरोग्रीवमास्येभ्यस्स्रुतशोणितम् ।
विलोक्यं करुणं जग्मुस्तत्पत्न्यो मधुसूदनम्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उसके सिर और ग्रीवाओंको झुके हुए तथा मुखोंसे रुधिर बहता देख उसकी पत्नियाँ करुणासे भरकर श्रीकृष्णचन्द्रके पास आयीं॥ ४७॥

मूलम् (वचनम्)

नागपत्न्य ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातोऽसि देवदेवेश सर्वज्ञस्त्वमनुत्तमः ।
परं ज्योतिरचिन्त्यं यत्तदंशः परमेश्वरः॥ ४८॥

मूलम्

ज्ञातोऽसि देवदेवेश सर्वज्ञस्त्वमनुत्तमः ।
परं ज्योतिरचिन्त्यं यत्तदंशः परमेश्वरः॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागपत्नियाँ बोलीं—हे देवदेवेश्वर! हमने आपको पहचान लिया; आप सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ हैं, जो अचिन्त्य और परम ज्योति है आप उसीके अंश परमेश्वर हैं॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न समर्थाः सुरास्स्तोतुं यमनन्यभवं विभुम् ।
स्वरूपवर्णनं तस्य कथं योषित्करिष्यति॥ ४९॥

मूलम्

न समर्थाः सुरास्स्तोतुं यमनन्यभवं विभुम् ।
स्वरूपवर्णनं तस्य कथं योषित्करिष्यति॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन स्वयम्भू और व्यापक प्रभुकी स्तुति करनेमें देवगण भी समर्थ नहीं हैं उन्हीं आपके स्वरूपका हम स्त्रियाँ किस प्रकार वर्णन कर सकती हैं?॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याखिलमहीव्योमजलाग्निपवनात्मकम् ।
ब्रह्माण्डमल्पकाल्पांशः स्तोष्यामस्तं कथं वयम्॥ ५०॥

मूलम्

यस्याखिलमहीव्योमजलाग्निपवनात्मकम् ।
ब्रह्माण्डमल्पकाल्पांशः स्तोष्यामस्तं कथं वयम्॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथिवी, आकाश, जल, अग्नि और वायुस्वरूप यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका छोटे-से-छोटा अंश है, उसकी स्तुति हम किस प्रकार कर सकेंगी॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतन्तो न विदुर्नित्यं यत्स्वरूपं हि योगिनः ।
परमार्थमणोरल्पं स्थूलात्स्थूलं नताः स्म तम्॥ ५१॥

मूलम्

यतन्तो न विदुर्नित्यं यत्स्वरूपं हि योगिनः ।
परमार्थमणोरल्पं स्थूलात्स्थूलं नताः स्म तम्॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगिजन जिनके नित्यस्वरूपको यत्न करनेपर भी नहीं जान पाते तथा जो परमार्थरूप अणुसे भी अणु और स्थूलसे भी स्थूल है उसे हम नमस्कार करती हैं॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यस्य जन्मने धाता यस्य चान्ताय नान्तकः ।
स्थितिकर्त्ता न चान्योऽस्ति यस्य तस्मै नमस्सदा॥ ५२॥

मूलम्

न यस्य जन्मने धाता यस्य चान्ताय नान्तकः ।
स्थितिकर्त्ता न चान्योऽस्ति यस्य तस्मै नमस्सदा॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके जन्ममें विधाता और अन्तमें काल हेतु नहीं हैं तथा जिनका स्थितिकर्ता भी कोई अन्य नहीं है उन्हें सर्वदा नमस्कार करती हैं॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोपः स्वल्पोऽपि ते नास्ति स्थितिपालनमेव ते ।
कारणं कालियस्यास्य दमने श्रूयतां वचः॥ ५३॥

मूलम्

कोपः स्वल्पोऽपि ते नास्ति स्थितिपालनमेव ते ।
कारणं कालियस्यास्य दमने श्रूयतां वचः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कालियनागके दमनमें आपको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं है, केवल लोकरक्षा ही इसका हेतु है; अतः हमारा निवेदन सुनिये॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियोऽनुकम्प्यास्साधूनां मूढा दीनाश्च जन्तवः ।
यतस्ततोऽस्य दीनस्य क्षम्यतां क्षमतां वर॥ ५४॥

मूलम्

स्त्रियोऽनुकम्प्यास्साधूनां मूढा दीनाश्च जन्तवः ।
यतस्ततोऽस्य दीनस्य क्षम्यतां क्षमतां वर॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे क्षमाशीलोंमें श्रेष्ठ! साधु पुरुषोंको स्त्रियों तथा मूढ और दीन जन्तुओंपर सदा ही कृपा करनी चाहिये; अतः आप इस दीनका अपराध क्षमा कीजिये॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समस्तजगदाधारो भवानल्पबलः फणी ।
त्वत्पादपीडितो जह्यान्मुहूर्त्तार्द्धेन जीवितम्॥ ५५॥

मूलम्

समस्तजगदाधारो भवानल्पबलः फणी ।
त्वत्पादपीडितो जह्यान्मुहूर्त्तार्द्धेन जीवितम्॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सम्पूर्ण संसारके अधिष्ठान हैं और यह सर्प तो [आपकी अपेक्षा] अत्यन्त बलहीन है । आपके चरणोंसे पीडित होकर तो यह आधे मुहूर्तमें ही अपने प्राण छोड़ देगा॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व पन्नगोऽल्पवीर्योऽयं क्व भवान्भुवनाश्रयः ।
प्रीतिद्वेषौ समोत्कृष्टगोचरौ भवतोऽव्यय॥ ५६॥

मूलम्

क्व पन्नगोऽल्पवीर्योऽयं क्व भवान्भुवनाश्रयः ।
प्रीतिद्वेषौ समोत्कृष्टगोचरौ भवतोऽव्यय॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अव्यय! प्रीति समानसे और द्वेष उत्कृष्टसे देखे जाते हैं; फिर कहाँ तो यह अल्पवीर्य सर्प और कहाँ अखिलभुवनाश्रय आप? [इसके साथ आपका द्वेष कैसा?]॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुरु जगत्स्वामिन्प्रसादमवसीदतः ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम्॥ ५७॥

मूलम्

ततः कुरु जगत्स्वामिन्प्रसादमवसीदतः ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे जगत्स्वामिन्! इस दीनपर दया कीजिये । हे प्रभो! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ने ही चाहता है; कृपया हमें पतिकी भिक्षा दीजिये॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुवनेश जगन्नाथ महापुरुष पूर्वज ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षां प्रयच्छनः॥ ५८॥

मूलम्

भुवनेश जगन्नाथ महापुरुष पूर्वज ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षां प्रयच्छनः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भुवनेश्वर! हे जगन्नाथ! हे महापुरुष! हे पूर्वज! यह नाग अब अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; कृपया आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदान्तवेद्य देवेश दुष्टदैत्यनिबर्हण ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम्॥ ५९॥

मूलम्

वेदान्तवेद्य देवेश दुष्टदैत्यनिबर्हण ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम्॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे वेदान्तवेद्यदेवेश्वर! हे दुष्ट-दैत्य-दलन!! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये॥ ५९॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्ते ताभिराश्वस्य क्लान्तदेहोऽपि पन्नगः ।
प्रसीद देवदेवेति प्राह वाक्यं शनैः शनैः॥ ६०॥

मूलम्

इत्युक्ते ताभिराश्वस्य क्लान्तदेहोऽपि पन्नगः ।
प्रसीद देवदेवेति प्राह वाक्यं शनैः शनैः॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—नागपत्नियोंके ऐसा कहनेपर थका-माँदा होनेपर भी नागराज कुछ ढाँढस बाँधकर धीरे-धीरे कहने लगा ‘‘हे देवदेव! प्रसन्न होइये’’॥ ६०॥

मूलम् (वचनम्)

कालिय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवाष्टगुणमैश्वर्यं नाथ स्वाभाविकं परम् ।
निरस्तातिशयं यस्य तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६१॥

मूलम्

तवाष्टगुणमैश्वर्यं नाथ स्वाभाविकं परम् ।
निरस्तातिशयं यस्य तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालियनाग बोला—हे नाथ! आपका स्वाभाविक अष्टगुण विशिष्ट परम ऐश्वर्य निरतिशय है [अर्थात् आपसे बढ़कर किसीका भी ऐश्वर्य नहीं है], अतः मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा?॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं परस्त्वं परस्याद्यः परं त्वत्तः परात्मक ।
परस्मात्परमो यस्त्वं तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६२॥

मूलम्

त्वं परस्त्वं परस्याद्यः परं त्वत्तः परात्मक ।
परस्मात्परमो यस्त्वं तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप पर हैं, आप पर (मूलप्रकृति)-के भी आदिकारण हैं, हे परात्मक! परकी प्रवृत्ति भी आपहीसे हुई है, अतः आप परसे भी पर हैं फिर मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा?॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्माद‍्ब्रह्मा च रुद्रश्च चन्द्रेन्द्रमरुदश्विनः ।
वसवश्च सहादित्यैस्तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६३॥

मूलम्

यस्माद‍्ब्रह्मा च रुद्रश्च चन्द्रेन्द्रमरुदश्विनः ।
वसवश्च सहादित्यैस्तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनसे ब्रह्मा, रुद्र, चन्द्र, इन्द्र, मरुद‍्गण, अश्विनीकुमार, वसुगण और आदित्य आदि सभी उत्पन्न हुए हैं उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा?॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकावयवसूक्ष्मांशो यस्यैतदखिलं जगत् ।
कल्पनावयवस्यांशस्तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६४॥

मूलम्

एकावयवसूक्ष्मांशो यस्यैतदखिलं जगत् ।
कल्पनावयवस्यांशस्तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सम्पूर्ण जगत् जिनके काल्पनिक अवयवका एक सूक्ष्म अवयवांशमात्र है, उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा?॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदसद्रूपिणो यस्य ब्रह्माद्यास्त्रिदशेश्वराः ।
परमार्थं न जानन्ति तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६५॥

मूलम्

सदसद्रूपिणो यस्य ब्रह्माद्यास्त्रिदशेश्वराः ।
परमार्थं न जानन्ति तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम्॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन सदसत् (कार्य-कारण) स्वरूपके वास्तविक रूपको ब्रह्मा आदि देवेश्वरगण भी नहीं जानते उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा?॥ ६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्माद्यैरर्चितो यस्तु गन्धपुष्पानुलेपनैः ।
नन्दनादिसमुद्भूतैस्सोऽर्च्यते वा कथं मया॥ ६६॥

मूलम्

ब्रह्माद्यैरर्चितो यस्तु गन्धपुष्पानुलेपनैः ।
नन्दनादिसमुद्भूतैस्सोऽर्च्यते वा कथं मया॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी पूजा ब्रह्मा आदि देवगण नन्दनवनके पुष्प, गन्ध और अनुलेपन आदिसे करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यावताररूपाणि देवराजस्सदार्चति ।
न वेत्ति परमं रूपं सोऽर्च्यते वा कथं मया॥ ६७॥

मूलम्

यस्यावताररूपाणि देवराजस्सदार्चति ।
न वेत्ति परमं रूपं सोऽर्च्यते वा कथं मया॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्र जिनके अवताररूपोंकी सर्वदा पूजा करते हैं तथापि यथार्थ रूपको नहीं जान पाते, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ?॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयेभ्यस्समावृत्य सर्वाक्षाणि च योगिनः ।
यमर्चयन्ति ध्यानेन सोऽर्च्यते वा कथं मया॥ ६८॥

मूलम्

विषयेभ्यस्समावृत्य सर्वाक्षाणि च योगिनः ।
यमर्चयन्ति ध्यानेन सोऽर्च्यते वा कथं मया॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगिगण अपनी समस्त इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींचकर जिनका ध्यानद्वारा पूजन करते हैं, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदि संकल्प्य यद्रूपं ध्यानेनार्चन्ति योगिनः ।
भावपुष्पादिना नाथः सोऽच्यर्ते वा कथं मया॥ ६९॥

मूलम्

हृदि संकल्प्य यद्रूपं ध्यानेनार्चन्ति योगिनः ।
भावपुष्पादिना नाथः सोऽच्यर्ते वा कथं मया॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन प्रभुके स्वरूपकी चित्तमें भावना करके योगिजन भावमय पुष्प आदिसे ध्यानद्वारा उपासना करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ?॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं ते देवदेवेश नार्चनादौ स्तुतौ न च ।
सामर्थ्यवान् कृपामात्रमनोवृत्तिः प्रसीद मे॥ ७०॥

मूलम्

सोऽहं ते देवदेवेश नार्चनादौ स्तुतौ न च ।
सामर्थ्यवान् कृपामात्रमनोवृत्तिः प्रसीद मे॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देवेश्वर! आपकी पूजा अथवा स्तुति करनेमें मैं सर्वथा असमर्थ हूँ, मेरी चित्तवृत्ति तो केवल आपकी कृपाकी ओर ही लगी हुई है, अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्पजातिरियं क्रूरा यस्यां जातोऽस्मि केशव ।
तत्स्वभावोऽयमत्रास्ति नापराधो ममाच्युत॥ ७१॥

मूलम्

सर्पजातिरियं क्रूरा यस्यां जातोऽस्मि केशव ।
तत्स्वभावोऽयमत्रास्ति नापराधो ममाच्युत॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे केशव! मेरा जिसमें जन्म हुआ है वह सर्पजाति अत्यन्त क्रूर होती है, यह मेरा जातीय स्वभाव है । हे अच्युत! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृज्यते भवता सर्वं तथा संह्रियते जगत् ।
जातिरूपस्वभावाश्च सृज्यन्ते सृजता त्वया॥ ७२॥

मूलम्

सृज्यते भवता सर्वं तथा संह्रियते जगत् ।
जातिरूपस्वभावाश्च सृज्यन्ते सृजता त्वया॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस सम्पूर्ण जगत‍्की रचना और संहार आप ही करते हैं । संसारकी रचनाके साथ उसके जाति, रूप और स्वभावोंको भी आप ही बनाते हैं॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाहं भवता सृष्टो जात्या रूपेण चेश्वर ।
स्वभावेन च संयुक्तस्तथेदं चेष्टितं मया॥ ७३॥

मूलम्

यथाहं भवता सृष्टो जात्या रूपेण चेश्वर ।
स्वभावेन च संयुक्तस्तथेदं चेष्टितं मया॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे ईश्वर! आपने मुझे जाति, रूप और स्वभावसे युक्त करके जैसा बनाया है उसीके अनुसार मैंने यह चेष्टा भी की है॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यन्यथा प्रवर्तेयं देवदेव ततो मयि ।
न्याय्यो दण्डनिपातो वै तवैव वचनं यथा॥ ७४॥

मूलम्

यद्यन्यथा प्रवर्तेयं देवदेव ततो मयि ।
न्याय्यो दण्डनिपातो वै तवैव वचनं यथा॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देवदेव! यदि मेरा आचरण विपरीत हो तब तो अवश्य आपके कथनानुसार मुझे दण्ड देना उचित है॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाप्यज्ञे जगत्स्वामिन्दण्डं पातितवान्मयि ।
स श्लाघ्योऽयं परो दण्डस्त्वत्तो मे नान्यतो वरः॥ ७५॥

मूलम्

तथाप्यज्ञे जगत्स्वामिन्दण्डं पातितवान्मयि ।
स श्लाघ्योऽयं परो दण्डस्त्वत्तो मे नान्यतो वरः॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि हे जगत्स्वामिन्! आपने मुझ अज्ञको जो दण्ड दिया है वह आपसे मिला हुआ दण्ड मेरे लिये कहीं अच्छा है, किन्तु दूसरेका वर भी अच्छा नहीं॥ ७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतवीर्यो हतविषो दमितोऽहं त्वयाच्युत ।
जीवितं दीयतामेकमाज्ञापय करोमि किम्॥ ७६॥

मूलम्

हतवीर्यो हतविषो दमितोऽहं त्वयाच्युत ।
जीवितं दीयतामेकमाज्ञापय करोमि किम्॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अच्युत! आपने मेरे पुरुषार्थ और विषको नष्ट करके मेरा भलीप्रकार मानमर्दन कर दिया है । अब केवल मुझे प्राणदान दीजिये और आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ?॥ ७६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्र स्थेयं त्वया सर्प कदाचिद्यमुनाजले ।
सपुत्रपरिवारस्त्वं समुद्रसलिलं व्रज॥ ७७॥

मूलम्

नात्र स्थेयं त्वया सर्प कदाचिद्यमुनाजले ।
सपुत्रपरिवारस्त्वं समुद्रसलिलं व्रज॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले—हे सर्प! अब तुझे इस यमुनाजलमें नहीं रहना चाहिये । तू शीघ्र ही अपने पुत्र और परिवारके सहित समुद्रके जलमें चला जा॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्पदानि च ते सर्प दृष्ट्वा मूर्द्धनि सागरे ।
गरुडः पन्नगरिपुस्त्वयि न प्रहरिष्यति॥ ७८॥

मूलम्

मत्पदानि च ते सर्प दृष्ट्वा मूर्द्धनि सागरे ।
गरुडः पन्नगरिपुस्त्वयि न प्रहरिष्यति॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरे मस्तकपर मेरे चरण-चिह्नोंको देखकर समुद्रमें रहते हुए भी सर्पोंका शत्रु गरुड तुझपर प्रहार नहीं करेगा॥ ७८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा सर्पराजं तं मुमोच भगवान‍्हरिः ।
प्रणम्य सोऽपि कृष्णाय जगाम पयसां निधिम्॥ ७९॥
पश्यतां सर्वभूतानां सभृत्यसुतबान्धवः ।
समस्तभार्यासहितः परित्यज्य स्वकं ह्रदम्॥ ८०॥

मूलम्

इत्युक्त्वा सर्पराजं तं मुमोच भगवान‍्हरिः ।
प्रणम्य सोऽपि कृष्णाय जगाम पयसां निधिम्॥ ७९॥
पश्यतां सर्वभूतानां सभृत्यसुतबान्धवः ।
समस्तभार्यासहितः परित्यज्य स्वकं ह्रदम्॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—सर्पराज कालियसे ऐसा कह भगवान् हरिने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम करके समस्त प्राणियोंके देखते-देखते अपने सेवक, पुत्र, बन्धु और स्त्रियोंके सहित अपने उस कुण्डको छोड़कर समुद्रको चला गया॥ ७९-८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते सर्पे परिष्वज्य मृतं पुनरिवागतम् ।
गोपा मूर्द्धनि हार्देन सिषिचुर्नेत्रजैर्जलैः॥ ८१॥

मूलम्

गते सर्पे परिष्वज्य मृतं पुनरिवागतम् ।
गोपा मूर्द्धनि हार्देन सिषिचुर्नेत्रजैर्जलैः॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पके चले जानेपर गोपगण, लौटे हुए मृत पुरुषके समान कृष्णचन्द्रको आलिंगनकर प्रीतिपूर्वक उनके मस्तकको नेत्रजलसे भिगोने लगे॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णमक्लिष्टकर्माणमन्ये विस्मितचेतसः ।
तुष्टुवुर्मुदिता गोपा दृष्ट्वा शिवजलां नदीम्॥ ८२॥

मूलम्

कृष्णमक्लिष्टकर्माणमन्ये विस्मितचेतसः ।
तुष्टुवुर्मुदिता गोपा दृष्ट्वा शिवजलां नदीम्॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ अन्य गोपगण यमुनाको स्वच्छ जलवाली देख प्रसन्न होकर लीलाविहारी कृष्णचन्द्रकी विस्मितचित्तसे स्तुति करने लगे॥ ८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीयमानः स गोपीभिश्चरितैस्साधुचेष्टितैः ।
संस्तूयमानो गोपैश्च कृष्णो व्रजमुपागमत्॥ ८३॥

मूलम्

गीयमानः स गोपीभिश्चरितैस्साधुचेष्टितैः ।
संस्तूयमानो गोपैश्च कृष्णो व्रजमुपागमत्॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपने उत्तम चरित्रोंके कारण गोपियोंसे गीयमान और गोपोंसे प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र व्रजमें चले आये॥ ८३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥