[छठा अध्याय]
विषय
शकटभंजन, यमलार्जुन-उद्धार, व्रजवासियोंका गोकुलसे वृन्दावनमें जाना और वर्षा-वर्णन
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिच्छकटस्याधश्शयानो मधुसूदनः।
चिक्षेप चरणावूर्ध्वं स्तन्यार्थी प्ररुरोद ह॥ १॥
मूलम्
कदाचिच्छकटस्याधश्शयानो मधुसूदनः।
चिक्षेप चरणावूर्ध्वं स्तन्यार्थी प्ररुरोद ह॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—एक दिन छकड़ेके नीचे सोये हुए मधुसूदनने दूधके लिये रोते-रोते ऊपरको लात मारी॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पादप्रहारेण शकटं परिवर्तितम्।
विध्वस्तकुम्भभाण्डं तद्विपरीतं पपात वै॥ २॥
मूलम्
तस्य पादप्रहारेण शकटं परिवर्तितम्।
विध्वस्तकुम्भभाण्डं तद्विपरीतं पपात वै॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी लात लगते ही वह छकड़ा लोट गया, उसमें रखे हुए कुम्भ और भाण्ड आदि फूट गये और वह उलटा जा पड़ा॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हाहाकृतं सर्वो गोपगोपीजनो द्विज।
आजगामाथ ददृशे बालमुत्तानशायिनम्॥ ३॥
मूलम्
ततो हाहाकृतं सर्वो गोपगोपीजनो द्विज।
आजगामाथ ददृशे बालमुत्तानशायिनम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! उस समय हाहाकार मच गया, समस्त गोप-गोपीगण वहाँ आ पहुँचे और उस बालकको उतान सोये हुए देखा॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपाः केनेति केनेदं शकटं परिवर्तितम्।
तत्रैव बालकाः प्रोचुर्बालेनानेन पातितम्॥ ४॥
मूलम्
गोपाः केनेति केनेदं शकटं परिवर्तितम्।
तत्रैव बालकाः प्रोचुर्बालेनानेन पातितम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गोपगण पूछने लगे कि ‘इस छकड़ेको किसने उलट दिया, किसने उलट दिया?’ तो वहाँपर खेलते हुए बालकोंने कहा—‘‘इस कृष्णने ही गिराया है॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुदता दृष्टमस्माभिः पादविक्षेपपातितम्।
शकटं परिवृत्तं वै नैतदन्यस्य चेष्टितम्॥ ५॥
मूलम्
रुदता दृष्टमस्माभिः पादविक्षेपपातितम्।
शकटं परिवृत्तं वै नैतदन्यस्य चेष्टितम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने अपनी आँखोंसे देखा है कि रोते-रोते इसकी लात लगनेसे ही यह छकड़ा गिरकर उलट गया है। यह और किसीका काम नहीं है’’॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुनरतीवासन्गोपा विस्मयचेतसः।
नन्दगोपोऽपि जग्राह बालमत्यन्तविस्मितः॥ ६॥
मूलम्
ततः पुनरतीवासन्गोपा विस्मयचेतसः।
नन्दगोपोऽपि जग्राह बालमत्यन्तविस्मितः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर गोपगणके चित्तमें अत्यन्त विस्मय हुआ तथा नन्दगोपने अत्यन्त चकित होकर बालकको उठा लिया॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशोदा शकटारूढभग्नभाण्डकपालिकाः।
शकटं चार्चयामास दधिपुष्पफलाक्षतैः॥ ७॥
मूलम्
यशोदा शकटारूढभग्नभाण्डकपालिकाः।
शकटं चार्चयामास दधिपुष्पफलाक्षतैः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर यशोदाने भी छकड़ेमें रखे हुए फूटे भाण्डोंके टुकड़ोंकी और उस छकड़ेकी दही, पुष्प, अक्षत और फल आदिसे पूजा की॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारानकरोत्तयोः॥ ८॥
मूलम्
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारानकरोत्तयोः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय वसुदेवजीके कहनेसे गर्गाचार्यने गोपोंसे छिपे-छिपे गोकुलमें आकर उन दोनों बालकोंके [द्विजोचित] संस्कार किये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठं च राममित्याह कृष्णं चैव तथावरम्।
गर्गो मतिमतां श्रेष्ठो नाम कुर्वन्महामतिः॥ ९॥
मूलम्
ज्येष्ठं च राममित्याह कृष्णं चैव तथावरम्।
गर्गो मतिमतां श्रेष्ठो नाम कुर्वन्महामतिः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके नामकरण-संस्कार करते हुए महामति गर्गजीने बड़ेका नाम राम और छोटेका कृष्ण बतलाया॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वल्पेनैव तु कालेन रिङ्गिणौ तौ तदा व्रजे।
घृष्टजानुकरौ विप्र बभूवतुरुभावपि॥ १०॥
मूलम्
स्वल्पेनैव तु कालेन रिङ्गिणौ तौ तदा व्रजे।
घृष्टजानुकरौ विप्र बभूवतुरुभावपि॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विप्र! वे दोनों बालक थोड़े ही दिनोंमें गौओंके गोष्ठमें रेंगते-रेंगते हाथ और घुटनोंके बल चलनेवाले हो गये॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करीषभस्मदिग्धाङ्गौ भ्रममाणावितस्ततः।
न निवारयितुं शेके यशोदा तौ न रोहिणी॥ ११॥
मूलम्
करीषभस्मदिग्धाङ्गौ भ्रममाणावितस्ततः।
न निवारयितुं शेके यशोदा तौ न रोहिणी॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोबर और राख-भरे शरीरसे इधर-उधर घूमते हुए उन बालकोंको यशोदा और रोहिणी रोक नहीं सकती थीं॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोवाटमध्ये क्रीडन्तौ वत्सवाटं गतौ पुनः।
तदहर्जातगोवत्सपुच्छाकर्षणतत्परौ॥ १२॥
मूलम्
गोवाटमध्ये क्रीडन्तौ वत्सवाटं गतौ पुनः।
तदहर्जातगोवत्सपुच्छाकर्षणतत्परौ॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी वे गौओंके घोषमें खेलते और कभी बछड़ोंके मध्यमें चले जाते तथा कभी उसी दिन जन्मे हुए बछड़ोंकी पूँछ पकड़कर खींचने लगते॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा यशोदा तौ बालावेकस्थानचरावुभौ।
शशाक नो वारयितुं क्रीडन्तावतिचञ्चलौ॥ १३॥
दाम्ना मध्ये ततो बद्ध्वा बबन्ध तमुलूखले।
कृष्णमक्लिष्टकर्माणमाह चेदममर्षिता॥ १४॥
मूलम्
यदा यशोदा तौ बालावेकस्थानचरावुभौ।
शशाक नो वारयितुं क्रीडन्तावतिचञ्चलौ॥ १३॥
दाम्ना मध्ये ततो बद्ध्वा बबन्ध तमुलूखले।
कृष्णमक्लिष्टकर्माणमाह चेदममर्षिता॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन जब यशोदा, सदा एक ही स्थानपर साथ-साथ खेलनेवाले उन दोनों अत्यन्त चंचल बालकोंको न रोक सकी तो उसने अनायास ही सब कर्म करनेवाले कृष्णको रस्सीसे कटिभागमें कसकर ऊखलमें बाँध दिया और रोषपूर्वक इस प्रकार कहने लगी—॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि शक्नोषि गच्छ त्वमतिचञ्चलचेष्टित।
इत्युक्त्वाथ निजं कर्म सा चकार कुटुम्बिनी॥ १५॥
मूलम्
यदि शक्नोषि गच्छ त्वमतिचञ्चलचेष्टित।
इत्युक्त्वाथ निजं कर्म सा चकार कुटुम्बिनी॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अरे चंचल! अब तुझमें सामर्थ्य हो तो चला जा।’’ ऐसा कहकर कुटुम्बिनी यशोदा अपने घरके धन्धेमें लग गयी॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यग्रायामथ तस्यां स कर्षमाण उलूखलम्।
यमलार्जुनमध्येन जगाम कमलेक्षणः॥ १६॥
मूलम्
व्यग्रायामथ तस्यां स कर्षमाण उलूखलम्।
यमलार्जुनमध्येन जगाम कमलेक्षणः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके गृहकार्यमें व्यग्र हो जानेपर कमलनयन कृष्ण ऊखलको खींचते-खींचते यमलार्जुनके बीचमें गये॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्षता वृक्षयोर्मध्ये तिर्यग्गतमुलूखलम्।
भग्नावुत्तुङ्गशाखाग्रौ तेन तौ यमलार्जुनौ॥ १७॥
मूलम्
कर्षता वृक्षयोर्मध्ये तिर्यग्गतमुलूखलम्।
भग्नावुत्तुङ्गशाखाग्रौ तेन तौ यमलार्जुनौ॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन दोनों वृक्षोंके बीचमें तिरछी पड़ी हुई ऊखलको खींचते हुए उन्होंने ऊँची शाखाओंवाले यमलार्जुन वृक्षको उखाड़ डाला॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कटकटाशब्दसमाकर्णनतत्परः।
आजगाम व्रजजनो ददर्श च महाद्रुमौ॥ १८॥
नवोद्गताल्पदन्तांशुसितहासं च बालकम्।
तयोर्मध्यगतं दाम्ना बद्धं गाढं तथोदरे॥ १९॥
ततश्च दामोदरतां स ययौ दामबन्धनात्॥ २०॥
मूलम्
ततः कटकटाशब्दसमाकर्णनतत्परः।
आजगाम व्रजजनो ददर्श च महाद्रुमौ॥ १८॥
नवोद्गताल्पदन्तांशुसितहासं च बालकम्।
तयोर्मध्यगतं दाम्ना बद्धं गाढं तथोदरे॥ १९॥
ततश्च दामोदरतां स ययौ दामबन्धनात्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उनके उखड़नेका कट-कट शब्द सुनकर वहाँ व्रजवासी लोग दौड़ आये और उन दोनों महावृक्षोंको तथा उनके बीचमें कमरमें रस्सीसे कसकर बँधे हुए बालकको नन्हें-नन्हें अल्प दाँतोंकी श्वेत किरणोंसे शुभ्र हास करते देखा। तभीसे रस्सीसे बँधनेके कारण उनका नाम दामोदर पड़ा॥ १८—२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपवृद्धास्ततः सर्वे नन्दगोपपुरोगमाः।
मन्त्रयामासुरुद्विग्ना महोत्पातातिभीरवः॥ २१॥
मूलम्
गोपवृद्धास्ततः सर्वे नन्दगोपपुरोगमाः।
मन्त्रयामासुरुद्विग्ना महोत्पातातिभीरवः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब नन्दगोप आदि समस्त वृद्ध गोपोंने महान् उत्पातोंके कारण अत्यन्त भयभीत होकर आपसमें यह सलाह की—॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थानेनेह न नः कार्यं व्रजामोऽन्यन्महावनम्।
उत्पाता बहवो ह्यत्र दृश्यन्ते नाशहेतवः॥ २२॥
पूतनाया विनाशश्च शकटस्य विपर्ययः।
विना वातादिदोषेण द्रुमयोः पतनं तथा॥ २३॥
मूलम्
स्थानेनेह न नः कार्यं व्रजामोऽन्यन्महावनम्।
उत्पाता बहवो ह्यत्र दृश्यन्ते नाशहेतवः॥ २२॥
पूतनाया विनाशश्च शकटस्य विपर्ययः।
विना वातादिदोषेण द्रुमयोः पतनं तथा॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब इस स्थानपर रहनेका हमारा कोई प्रयोजन नहीं है, हमें किसी और महावनको चलना चाहिये, क्योंकि यहाँ नाशके कारणस्वरूप, पूतना-वध, छकड़ेका लोट जाना तथा आँधी आदि किसी दोषके बिना ही वृक्षोंका गिर पड़ना इत्यादि बहुत-से उत्पात दिखायी देने लगे हैं॥ २२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृन्दावनमितः स्थानात्तस्माद्गच्छाम मा चिरम्।
यावद्भौममहोत्पातदोषो नाभिभवेद्वजम्॥ २४॥
मूलम्
वृन्दावनमितः स्थानात्तस्माद्गच्छाम मा चिरम्।
यावद्भौममहोत्पातदोषो नाभिभवेद्वजम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जबतक कोई भूमिसम्बन्धी महान् उत्पात व्रजको नष्ट न करे तबतक शीघ्र ही हमलोग इस स्थानसे वृन्दावनको चल दें’॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति कृत्वा मतिं सर्वे गमने ते व्रजौकसः।
ऊचुस्स्वं स्वं कुलं शीघ्रं गम्यतां मा विलम्बथ॥ २५॥
मूलम्
इति कृत्वा मतिं सर्वे गमने ते व्रजौकसः।
ऊचुस्स्वं स्वं कुलं शीघ्रं गम्यतां मा विलम्बथ॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे समस्त व्रजवासी चलनेका विचारकर अपने-अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहने लगे—‘शीघ्र ही चलो, देरी मत करो’॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्षणेन प्रययुः शकटैर्गोधनैस्तथा।
यूथशो वत्सपालाश्च कालयन्तो व्रजौकसः॥ २६॥
मूलम्
ततः क्षणेन प्रययुः शकटैर्गोधनैस्तथा।
यूथशो वत्सपालाश्च कालयन्तो व्रजौकसः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे व्रजवासी वत्सपाल दल बाँधकर एक क्षणमें ही छकड़ों और गौओंके साथ उन्हें हाँकते हुए चल दिये॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यावयवनिर्द्धूतं क्षणमात्रेण तत्तथा।
काकभाससमाकीर्णं व्रजस्थानमभूद्द्विज॥ २७॥
मूलम्
द्रव्यावयवनिर्द्धूतं क्षणमात्रेण तत्तथा।
काकभाससमाकीर्णं व्रजस्थानमभूद्द्विज॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! वस्तुओंके अवशिष्टांशोंसे युक्त वह व्रजभूमि क्षणभरमें ही काक तथा भास आदि पक्षियोंसे व्याप्त हो गयी॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृन्दावनं भगवता कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा।
शुभेन मनसा ध्यातं गवां सिद्धिमभीप्सता॥ २८॥
मूलम्
वृन्दावनं भगवता कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा।
शुभेन मनसा ध्यातं गवां सिद्धिमभीप्सता॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लीलाविहारी भगवान् कृष्णने गौओंकी अभिवृद्धिकी इच्छासे अपने शुद्धचित्तसे वृन्दावन (नित्य-वृन्दावनधाम)-का चिन्तन किया॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्रातिरूक्षेऽपि घर्मकाले द्विजोत्तम।
प्रावृट्काल इवोद्भूतं नवशष्पं समन्ततः॥ २९॥
मूलम्
ततस्तत्रातिरूक्षेऽपि घर्मकाले द्विजोत्तम।
प्रावृट्काल इवोद्भूतं नवशष्पं समन्ततः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे, हे द्विजोत्तम! अत्यन्त रूक्ष ग्रीष्मकालमें भी वहाँ वर्षाऋतुके समान सब ओर नवीन दूब उत्पन्न हो गयी॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स समावासितः सर्वो व्रजो वृन्दावने ततः।
शकटीवाटपर्यन्तश्चन्द्रार्द्धाकारसंस्थितिः॥ ३०॥
मूलम्
स समावासितः सर्वो व्रजो वृन्दावने ततः।
शकटीवाटपर्यन्तश्चन्द्रार्द्धाकारसंस्थितिः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब चारों ओर अर्द्धचन्द्राकारसे छकड़ोंकी बाड़ लगाकर वे समस्त व्रजवासी वृन्दावनमें रहने लगे॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्सपालौ च संवृत्तौ रामदामोदरौ ततः।
एकस्थानस्थितौ गोष्ठे चेरतुर्बाललीलया॥ ३१॥
मूलम्
वत्सपालौ च संवृत्तौ रामदामोदरौ ततः।
एकस्थानस्थितौ गोष्ठे चेरतुर्बाललीलया॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राम और कृष्ण भी बछड़ोंके रक्षक हो गये और एक स्थानपर रहकर गोष्ठमें बाललीला करते हुए विचरने लगे॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बर्हिपत्रकृतापीडौ वन्यपुष्पावतंसकौ।
गोपवेणुकृतातोद्यपत्रवाद्यकृतस्वनौ॥ ३२॥
काकपक्षधरौ बालौ कुमाराविव पावकी।
हसन्तौ च रमन्तौ च चेरतुः स्म महावनम्॥ ३३॥
मूलम्
बर्हिपत्रकृतापीडौ वन्यपुष्पावतंसकौ।
गोपवेणुकृतातोद्यपत्रवाद्यकृतस्वनौ॥ ३२॥
काकपक्षधरौ बालौ कुमाराविव पावकी।
हसन्तौ च रमन्तौ च चेरतुः स्म महावनम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे काकपक्षधारी दोनों बालक सिरपर मयूर-पिच्छका मुकुट धारणकर तथा वन्यपुष्पोंके कर्णभूषण पहन ग्वालोचित वंशी आदिसे सब प्रकारके बाजोंकी ध्वनि करते तथा पत्तोंके बाजेसे ही नाना प्रकारकी ध्वनि निकालते, स्कन्दके अंशभूत शाख-विशाख कुमारोंके समान हँसते और खेलते हुए उस महावनमें विचरने लगे॥ ३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद्वहन्तावन्योन्यं क्रीडमानौ तथा परैः।
गोपपुत्रैस्समं वत्सांश्चारयन्तौ विचेरतुः॥ ३४॥
मूलम्
क्वचिद्वहन्तावन्योन्यं क्रीडमानौ तथा परैः।
गोपपुत्रैस्समं वत्सांश्चारयन्तौ विचेरतुः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी एक-दूसरेको अपने पीठपर ले जाते तथा कभी अन्य ग्वाल-बालोंके साथ खेलते हुए वे बछड़ोंको चराते साथ-साथ घूमते रहते॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेन गच्छता तौ तु सप्तवर्षौ महाव्रजे।
सर्वस्य जगतः पालौ वत्सपालौ बभूवतुः॥ ३५॥
मूलम्
कालेन गच्छता तौ तु सप्तवर्षौ महाव्रजे।
सर्वस्य जगतः पालौ वत्सपालौ बभूवतुः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस महाव्रजमें रहते-रहते कुछ समय बीतनेपर वे निखिललोकपालक वत्सपाल सात वर्षके हो गये॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रावृट्कालस्ततोऽतीवमेघौघस्थगिताम्बरः।
बभूव वारिधाराभिरैक्यं कुर्वन्दिशामिव॥ ३६॥
मूलम्
प्रावृट्कालस्ततोऽतीवमेघौघस्थगिताम्बरः।
बभूव वारिधाराभिरैक्यं कुर्वन्दिशामिव॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मेघसमूहसे आकाशको आच्छादित करता हुआ तथा अतिशय वारिधाराओंसे दिशाओंको एकरूप करता हुआ वर्षाकाल आया॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्ररूढनवशष्पाढ्या शक्रगोपाचिता मही।
तथा मारकतीवासीत्पद्मरागविभूषिता॥ ३७॥
मूलम्
प्ररूढनवशष्पाढ्या शक्रगोपाचिता मही।
तथा मारकतीवासीत्पद्मरागविभूषिता॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय नवीन दूर्वाके बढ़ जाने और वीरबहूटियोंसे* व्याप्त हो जानेके कारण पृथिवी पद्मरागविभूषिता मरकतमयी-सी जान पड़ने लगी॥ ३७॥
पादटिप्पनी
- एक प्रकारके लाल कीड़े, जो वर्षा-कालमें उत्पन्न होते हैं, उन्हें शक्रगोप और वीरबहूटी कहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊहुरुन्मार्गवाहीनि निम्नगाम्भांसि सर्वतः।
मनांसि दुर्विनीतानां प्राप्य लक्ष्मीं नवामिव॥ ३८॥
मूलम्
ऊहुरुन्मार्गवाहीनि निम्नगाम्भांसि सर्वतः।
मनांसि दुर्विनीतानां प्राप्य लक्ष्मीं नवामिव॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार नया धन पाकर दुष्ट पुरुषोंका चित्त उच्छृंखल हो जाता है, उसी प्रकार नदियोंका जल सब ओर अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़कर बहने लगा॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न रेजेऽन्तरितश्चन्द्रो निर्मलो मलिनैर्घनैः।
सद्वादिवादो मूर्खाणां प्रगल्भाभिरिवोक्तिभिः॥ ३९॥
मूलम्
न रेजेऽन्तरितश्चन्द्रो निर्मलो मलिनैर्घनैः।
सद्वादिवादो मूर्खाणां प्रगल्भाभिरिवोक्तिभिः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मूर्ख मनुष्योंकी धृष्टतापूर्ण उक्तियोंसे अच्छे वक्ताकी वाणी भी मलिन पड़ जाती है वैसे ही मलिन मेघोंसे आच्छादित रहनेके कारण निर्मल चन्द्रमा भी शोभाहीन हो गया॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गुणेनापि चापेन शक्रस्य गगने पदम्।
अवाप्यताविवेकस्य नृपस्येव परिग्रहे॥ ४०॥
मूलम्
निर्गुणेनापि चापेन शक्रस्य गगने पदम्।
अवाप्यताविवेकस्य नृपस्येव परिग्रहे॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार विवेकहीन राजाके संगमें गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार आकाशमण्डलमें गुणरहित इन्द्र-धनुष स्थित हो गया॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघपृष्ठे बलाकानां रराज विमला ततिः।
दुर्वृत्ते वृत्तचेष्टेव कुलीनस्यातिशोभना॥ ४१॥
मूलम्
मेघपृष्ठे बलाकानां रराज विमला ततिः।
दुर्वृत्ते वृत्तचेष्टेव कुलीनस्यातिशोभना॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुराचारी पुरुषमें कुलीन पुरुषकी निष्कपट शुभ चेष्टाके समान मेघमण्डलमें बगुलोंकी निर्मल पंक्ति सुशोभित होने लगी॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बबन्धाम्बरे स्थैर्यं विद्युदत्यन्तचञ्चला।
मैत्रीव प्रवरे पुंसि दुर्जनेन प्रयोजिता॥ ४२॥
मूलम्
न बबन्धाम्बरे स्थैर्यं विद्युदत्यन्तचञ्चला।
मैत्रीव प्रवरे पुंसि दुर्जनेन प्रयोजिता॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुषके साथ दुर्जनकी मित्रताके समान अत्यन्त चंचला विद्युत् आकाशमें स्थिर न रह सकी॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गा बभूवुरस्पष्टास्तृणशष्पचयावृताः।
अर्थान्तरमनुप्राप्ताः प्रजडानामिवोक्तयः॥ ४३॥
मूलम्
मार्गा बभूवुरस्पष्टास्तृणशष्पचयावृताः।
अर्थान्तरमनुप्राप्ताः प्रजडानामिवोक्तयः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामूर्ख मनुष्योंकी अन्यार्थिका उक्तियोंके समान मार्ग तृण और दूबसमूहसे आच्छादित होकर अस्पष्ट हो गये॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मत्तशिखिसारङ्गे तस्मिन्काले महावने।
कृष्णरामौ मुदा युक्तौ गोपालैश्चेरतुस्सह॥ ४४॥
मूलम्
उन्मत्तशिखिसारङ्गे तस्मिन्काले महावने।
कृष्णरामौ मुदा युक्तौ गोपालैश्चेरतुस्सह॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन्मत्त मयूर और चातकगणसे सुशोभित महावनमें कृष्ण और राम प्रसन्नतापूर्वक गोपकुमारोंके साथ विचरने लगे॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद्गोभिस्समं रम्यं गेयतानरतावुभौ।
चेरतुः क्वचिदत्यर्थं शीतवृक्षतलाश्रितौ॥ ४५॥
मूलम्
क्वचिद्गोभिस्समं रम्यं गेयतानरतावुभौ।
चेरतुः क्वचिदत्यर्थं शीतवृक्षतलाश्रितौ॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों कभी गौओंके साथ मनोहर गान और तान छेड़ते तथा कभी अत्यन्त शीतल वृक्षतलका आश्रय लेते हुए विचरते रहते थे॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचित्कदम्बस्रक्चित्रौ मयूरस्रग्विराजितौ।
विलिप्तौ क्वचिदासातां विविधैर्गिरिधातुभिः॥ ४६॥
मूलम्
क्वचित्कदम्बस्रक्चित्रौ मयूरस्रग्विराजितौ।
विलिप्तौ क्वचिदासातां विविधैर्गिरिधातुभिः॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कभी तो कदम्बपुष्पोंके हारसे विचित्र वेष बना लेते, कभी मयूरपिच्छकी मालासे सुशोभित होते और कभी नाना प्रकारकी पर्वतीय धातुओंसे अपने शरीरको लिप्त कर लेते॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्णशय्यासु संसुप्तौ क्वचिन्निद्रान्तरैषिणौ।
क्वचिद्गर्जति जीमूते हाहाकाररवाकुलौ॥ ४७॥
मूलम्
पर्णशय्यासु संसुप्तौ क्वचिन्निद्रान्तरैषिणौ।
क्वचिद्गर्जति जीमूते हाहाकाररवाकुलौ॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी कुछ झपकी लेनेकी इच्छासे पत्तोंकी शय्यापर लेट जाते और कभी मेघके गर्जनेपर ‘हा-हा’ करके कोलाहल मचाने लगते॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गायतामन्यगोपानां प्रशंसापरमौ क्वचित्।
मयूरकेकानुगतौ गोपवेणुप्रवादकौ॥ ४८॥
मूलम्
गायतामन्यगोपानां प्रशंसापरमौ क्वचित्।
मयूरकेकानुगतौ गोपवेणुप्रवादकौ॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी दूसरे गोपोंके गानेपर आप दोनों उसकी प्रशंसा करते और कभी ग्वालोंकी-सी बाँसुरी बजाते हुए मयूरकी बोलीका अनुकरण करने लगते॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति नानाविधैर्भावैरुत्तमप्रीतिसंयुतौ।
क्रीडन्तौ तौ वने तस्मिंश्चेरतुस्तुष्टमानसौ॥ ४९॥
मूलम्
इति नानाविधैर्भावैरुत्तमप्रीतिसंयुतौ।
क्रीडन्तौ तौ वने तस्मिंश्चेरतुस्तुष्टमानसौ॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे दोनों अत्यन्त प्रीतिके साथ नाना प्रकारके भावोंसे परस्पर खेलते हुए प्रसन्नचित्तसे उस वनमें विचरने लगे॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकाले च समं गोभिर्गोपवृन्दसमन्वितौ।
विहृत्याथ यथायोगं व्रजमेत्य महाबलौ॥ ५०॥
मूलम्
विकाले च समं गोभिर्गोपवृन्दसमन्वितौ।
विहृत्याथ यथायोगं व्रजमेत्य महाबलौ॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सायंकालके समय वे महाबली बालक वनमें यथायोग्य विहार करनेके अनन्तर गौ और ग्वाल-बालोंके साथ व्रजमें लौट आते थे॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपैस्समानैस्सहितौ क्रीडन्तावमराविव।
एवं तावूषतुस्तत्र रामकृष्णौ महाद्युती॥ ५१॥
मूलम्
गोपैस्समानैस्सहितौ क्रीडन्तावमराविव।
एवं तावूषतुस्तत्र रामकृष्णौ महाद्युती॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह अपने समवयस्क गोपगणके साथ देवताओंके समान क्रीडा करते हुए वे महातेजस्वी राम और कृष्ण वहाँ रहने लगे॥ ५१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥