[दूसरा अध्याय]
विषय
भगवान् का गर्भ-प्रवेश तथा देवगणद्वारा देवकीकी स्तुति
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं सा जगद्धात्री देवदेवेन वै तथा।
षड्गर्भगर्भविन्यासं चक्रे चान्यस्य कर्षणम्॥ १॥
मूलम्
यथोक्तं सा जगद्धात्री देवदेवेन वै तथा।
षड्गर्भगर्भविन्यासं चक्रे चान्यस्य कर्षणम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! देवदेव श्रीविष्णुभगवान् ने जैसा कहा था उसके अनुसार जगद्धात्री योगमायाने छः गर्भोंको देवकीके उदरमें स्थित किया और सातवेंको उसमेंसे निकाल लिया॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तमे रोहिणीं गर्भे प्राप्ते गर्भं ततो हरिः।
लोकत्रयोपकाराय देवक्याः प्रविवेश ह॥ २॥
मूलम्
सप्तमे रोहिणीं गर्भे प्राप्ते गर्भं ततो हरिः।
लोकत्रयोपकाराय देवक्याः प्रविवेश ह॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सातवें गर्भके रोहिणीके उदरमें पहुँच जानेपर श्रीहरिने तीनों लोकोंका उद्धार करनेकी इच्छासे देवकीके गर्भमें प्रवेश किया॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगनिद्रा यशोदायास्तस्मिन्नेव तथा दिने।
सम्भूता जठरे तद्वद्यथोक्तं परमेष्ठिना॥ ३॥
मूलम्
योगनिद्रा यशोदायास्तस्मिन्नेव तथा दिने।
सम्भूता जठरे तद्वद्यथोक्तं परमेष्ठिना॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् परमेश्वरके आज्ञानुसार योगमाया भी उसी दिन यशोदाके गर्भमें स्थित हुई॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ग्रहगणस्सम्यक्प्रचचार दिवि द्विज।
विष्णोरंशे भुवं याते ऋतवश्चाबभुश्शुभाः॥ ४॥
मूलम्
ततो ग्रहगणस्सम्यक्प्रचचार दिवि द्विज।
विष्णोरंशे भुवं याते ऋतवश्चाबभुश्शुभाः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! विष्णु-अंशके पृथिवीमें पधारनेपर आकाशमें ग्रहगण ठीक-ठीक गतिसे चलने लगे और ऋतुगण भी मंगलमय होकर शोभा पाने लगे॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सेहे देवकीं द्रष्टुं कश्चिदप्यतितेजसा।
जाज्वल्यमानां तां दृष्ट्वा मनांसि क्षोभमाययुः॥ ५॥
मूलम्
न सेहे देवकीं द्रष्टुं कश्चिदप्यतितेजसा।
जाज्वल्यमानां तां दृष्ट्वा मनांसि क्षोभमाययुः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अत्यन्त तेजसे देदीप्यमाना देवकीजीको कोई भी देख न सकता था। उन्हें देखकर [दर्शकोंके] चित्त थकित हो जाते थे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टाः पुरुषैस्स्त्रीभिर्देवकीं देवतागणाः।
बिभ्राणां वपुषा विष्णुं तुष्टुवुस्तामहर्निशम्॥ ६॥
मूलम्
अदृष्टाः पुरुषैस्स्त्रीभिर्देवकीं देवतागणाः।
बिभ्राणां वपुषा विष्णुं तुष्टुवुस्तामहर्निशम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब देवतागण अन्य पुरुष तथा स्त्रियोंको दिखायी न देते हुए, अपने शरीरमें [गर्भरूपसे] भगवान् विष्णुको धारण करनेवाली देवकीजीकी अहर्निश स्तुति करने लगे॥ ६॥
मूलम् (वचनम्)
देवता ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिस्त्वं परा सूक्ष्मा ब्रह्मगर्भाभवः पुरा।
ततो वाणी जगद्धातुर्वेदगर्भासि शोभने॥ ७॥
मूलम्
प्रकृतिस्त्वं परा सूक्ष्मा ब्रह्मगर्भाभवः पुरा।
ततो वाणी जगद्धातुर्वेदगर्भासि शोभने॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले—हे शोभने! तू पहले ब्रह्म-प्रतिबिम्बधारिणी मूलप्रकृति हुई थी और फिर जगद्विधाताकी वेदगर्भा वाणी हुई॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृज्यस्वरूपगर्भासि सृष्टिभूता सनातने।
बीजभूता तु सर्वस्य यज्ञभूताभवस्त्रयी॥ ८॥
मूलम्
सृज्यस्वरूपगर्भासि सृष्टिभूता सनातने।
बीजभूता तु सर्वस्य यज्ञभूताभवस्त्रयी॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सनातने! तू ही सृज्य पदार्थोंको उत्पन्न करनेवाली और तू ही सृष्टिरूपा है; तू ही सबकी बीज-स्वरूपा यज्ञमयी वेदत्रयी हुई है॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलगर्भा त्वमेवेज्या वह्निगर्भा तथारणिः।
अदितिर्देवगर्भा त्वं दैत्यगर्भा तथा दितिः॥ ९॥
मूलम्
फलगर्भा त्वमेवेज्या वह्निगर्भा तथारणिः।
अदितिर्देवगर्भा त्वं दैत्यगर्भा तथा दितिः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू ही फलमयी यज्ञक्रिया और अग्नि-मयी अरणि है तथा तू ही देवमाता अदिति और दैत्यप्रसू दिति है॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योत्स्ना वासरगर्भा त्वं ज्ञानगर्भासि सन्नतिः।
नयगर्भा परा नीतिर्लज्जा त्वं प्रश्रयोद्वहा॥ १०॥
मूलम्
ज्योत्स्ना वासरगर्भा त्वं ज्ञानगर्भासि सन्नतिः।
नयगर्भा परा नीतिर्लज्जा त्वं प्रश्रयोद्वहा॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू ही दिनकरी प्रभा और ज्ञानगर्भा गुरुशुश्रूषा है तथा तू ही न्यायमयी परमनीति और विनयसम्पन्ना लज्जा है॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामगर्भा तथेच्छा त्वं तुष्टिः सन्तोषगर्भिणी।
मेधा च बोधगर्भासि धैर्यगर्भोद्वहा धृतिः॥ ११॥
मूलम्
कामगर्भा तथेच्छा त्वं तुष्टिः सन्तोषगर्भिणी।
मेधा च बोधगर्भासि धैर्यगर्भोद्वहा धृतिः॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू ही काममयी इच्छा, सन्तोषमयी तुष्टि, बोधगर्भा प्रज्ञा और धैर्यधारिणी धृति है॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रहर्क्षतारकागर्भा द्यौरस्याखिलहैतुकी।
एता विभूतयो देवि तथान्याश्च सहस्रशः।
तथासंख्या जगद्धात्रि साम्प्रतं जठरे तव॥ १२॥
मूलम्
ग्रहर्क्षतारकागर्भा द्यौरस्याखिलहैतुकी।
एता विभूतयो देवि तथान्याश्च सहस्रशः।
तथासंख्या जगद्धात्रि साम्प्रतं जठरे तव॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ग्रह, नक्षत्र और तारागणको धारण करनेवाला तथा [वृष्टि आदिके द्वारा इस अखिल विश्वका] कारणस्वरूप आकाश तू ही है। हे जगद्धात्रि! हे देवि! ये सब तथा और भी सहस्रों और असंख्य विभूतियाँ इस समय तेरे उदरमें स्थित हैं॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्राद्रिनदीद्वीपवनपत्तनभूषणा।
ग्रामखर्वटखेटाढ्या समस्ता पृथिवी शुभे॥ १३॥
समस्तवह्नयोऽम्भांसि सकलाश्च समीरणाः।
ग्रहर्क्षतारकाचित्रं विमानशतसंकुलम्॥ १४॥
अवकाशमशेषस्य यद्ददाति नभःस्थलम्।
भूर्लोकश्च भुवर्लोकस्स्वर्लोकोऽथ महर्जनः॥ १५॥
तपश्च ब्रह्मलोकश्च ब्रह्माण्डमखिलं शुभे।
तदन्तरे स्थिता देवा दैत्यगन्धर्वचारणाः॥ १६॥
महोरगास्तथा यक्षा राक्षसाः प्रेतगुह्यकाः।
मनुष्याः पशवश्चान्ये ये च जीवा यशस्विनि॥ १७॥
तैरन्तःस्थैरनन्तोऽसौ सर्वगः सर्वभावनः॥ १८॥
रूपकर्मस्वरूपाणि न परिच्छेदगोचरे।
यस्याखिलप्रमाणानि स विष्णुर्गर्भगस्तव॥ १९॥
मूलम्
समुद्राद्रिनदीद्वीपवनपत्तनभूषणा।
ग्रामखर्वटखेटाढ्या समस्ता पृथिवी शुभे॥ १३॥
समस्तवह्नयोऽम्भांसि सकलाश्च समीरणाः।
ग्रहर्क्षतारकाचित्रं विमानशतसंकुलम्॥ १४॥
अवकाशमशेषस्य यद्ददाति नभःस्थलम्।
भूर्लोकश्च भुवर्लोकस्स्वर्लोकोऽथ महर्जनः॥ १५॥
तपश्च ब्रह्मलोकश्च ब्रह्माण्डमखिलं शुभे।
तदन्तरे स्थिता देवा दैत्यगन्धर्वचारणाः॥ १६॥
महोरगास्तथा यक्षा राक्षसाः प्रेतगुह्यकाः।
मनुष्याः पशवश्चान्ये ये च जीवा यशस्विनि॥ १७॥
तैरन्तःस्थैरनन्तोऽसौ सर्वगः सर्वभावनः॥ १८॥
रूपकर्मस्वरूपाणि न परिच्छेदगोचरे।
यस्याखिलप्रमाणानि स विष्णुर्गर्भगस्तव॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शुभे! समुद्र, पर्वत, नदी, द्वीप, वन और नगरोंसे सुशोभित तथा ग्राम, खर्वट और खेटादिसे सम्पन्न समस्त पृथिवी, सम्पूर्ण अग्नि और जल तथा समस्त वायु, ग्रह, नक्षत्र एवं तारागणोंसे चित्रित तथा सैकड़ों विमानोंसे पूर्ण सबको अवकाश देनेवाला आकाश, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक तथा मह, जन, तप और ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा उसके अन्तर्वर्ती देव, असुर, गन्धर्व, चारण, नाग, यक्ष, राक्षस, प्रेत, गुह्यक, मनुष्य, पशु और जो अन्यान्य जीव हैं, हे यशस्विनि! वे सभी अपने अन्तर्गत होनेके कारण जो श्रीअनन्त सर्वगामी और सर्वभावन हैं तथा जिनके रूप, कर्म, स्वभाव तथा [बालत्व महत्त्व आदि] समस्त परिमाण परिच्छेद (विचार)-के विषय नहीं हो सकते वे ही श्रीविष्णुभगवान् तेरे गर्भमें स्थित हैं॥ १३—१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा विद्या सुधा त्वं ज्योतिरम्बरे।
त्वं सर्वलोकरक्षार्थमवतीर्णा महीतले॥ २०॥
मूलम्
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा विद्या सुधा त्वं ज्योतिरम्बरे।
त्वं सर्वलोकरक्षार्थमवतीर्णा महीतले॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू ही स्वाहा, स्वधा, विद्या, सुधा और आकाशस्थिता ज्योति है। सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये ही तूने पृथिवीमें अवतार लिया है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद देवि सर्वस्य जगतश्शं शुभे कुरु।
प्रीत्या तं धारयेशानं धृतं येनाखिलं जगत्॥ २१॥
मूलम्
प्रसीद देवि सर्वस्य जगतश्शं शुभे कुरु।
प्रीत्या तं धारयेशानं धृतं येनाखिलं जगत्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवि! तू प्रसन्न हो। हे शुभे! तू सम्पूर्ण जगत्का कल्याण कर। जिसने इस सम्पूर्ण जगत्को धारण किया है उस प्रभुको तू प्रीतिपूर्वक अपने गर्भमें धारण कर॥ २१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥