[पन्द्रहवाँ अध्याय]
विषय
शिशुपालके पूर्व-जन्मान्तरोंका तथा वसुदेवजीकी सन्ततिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
श्रीमैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यकशिपुत्वे च रावणत्वे च विष्णुना।
अवाप निहतो भोगानप्राप्यानमरैरपि॥ १॥
न लयं तत्र तेनैव निहतः स कथं पुनः।
सम्प्राप्तः शिशुपालत्वे सायुज्यं शाश्वते हरौ॥ २॥
मूलम्
हिरण्यकशिपुत्वे च रावणत्वे च विष्णुना।
अवाप निहतो भोगानप्राप्यानमरैरपि॥ १॥
न लयं तत्र तेनैव निहतः स कथं पुनः।
सम्प्राप्तः शिशुपालत्वे सायुज्यं शाश्वते हरौ॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी बोले—भगवन्! पूर्वजन्मोंमें हिरण्यकशिपु और रावण होनेपर इस शिशुपालने भगवान् विष्णुके द्वारा मारे जानेसे देव-दुर्लभ भोगोंको तो प्राप्त किया, किन्तु यह उनमें लीन नहीं हुआ; फिर इस जन्ममें ही उनके द्वारा मारे जानेपर इसने सनातन पुरुष श्रीहरिमें सायुज्य-मोक्ष कैसे प्राप्त किया?॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वधर्मभृतां वर।
कौतूहलपरेणैतत्पृष्टो मे वक्तुमर्हसि॥ ३॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वधर्मभृतां वर।
कौतूहलपरेणैतत्पृष्टो मे वक्तुमर्हसि॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ मुनिवर! यह बात सुननेकी मुझे बड़ी ही इच्छा है। मैंने अत्यन्त कुतूहलवश होकर आपसे यह प्रश्न किया है, कृपया इसका निरूपण कीजिये॥ ३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैत्येश्वरस्य वधायाखिललोकोत्पत्तिस्थितिविनाशकारिणा पूर्वं तनुग्रहणं कुर्वता नृसिंहरूपमाविष्कृतम्॥ ४॥
मूलम्
दैत्येश्वरस्य वधायाखिललोकोत्पत्तिस्थितिविनाशकारिणा पूर्वं तनुग्रहणं कुर्वता नृसिंहरूपमाविष्कृतम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—प्रथम जन्ममें दैत्यराज हिरण्यकशिपुका वध करनेके लिये सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और नाश करनेवाले भगवान्ने शरीर ग्रहण करते समय नृसिंहरूप प्रकट किया था॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र च हिरण्यकशिपोर्विष्णुरयमित्येतन्न मनस्यभूत्॥ ५॥
मूलम्
तत्र च हिरण्यकशिपोर्विष्णुरयमित्येतन्न मनस्यभूत्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय हिरण्यकशिपुके चित्तमें यह भाव नहीं हुआ था कि ये विष्णुभगवान् हैं॥ ५॥
निरतिशयपुण्यसमुद्भूतमेतत्सत्त्वजातमिति॥ ६॥
केवल इतना ही विचार हुआ कि यह कोई निरतिशय पुण्य-समूहसे उत्पन्न हुआ प्राणी है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रज उद्रेकप्रेरितैकाग्रमतिस्तद्भावनायोगात्ततोऽवाप्तवधहैतुकीं निरतिशयामेवाखिलत्रैलोक्याधिक्यधारिणीं दशाननत्वे भोगसम्पदमवाप॥ ७॥
मूलम्
रज उद्रेकप्रेरितैकाग्रमतिस्तद्भावनायोगात्ततोऽवाप्तवधहैतुकीं निरतिशयामेवाखिलत्रैलोक्याधिक्यधारिणीं दशाननत्वे भोगसम्पदमवाप॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुणके उत्कर्षसे प्रेरित हो उसकी मति [उस विपरीत भावनाके अनुसार] दृढ़ हो गयी। अतः उसके भीतर ईश्वरीय भावनाका योग न होनेसे भगवान्के द्वारा मारे जानेके कारण ही रावणका जन्म लेनेपर उसने सम्पूर्ण त्रिलोकीमें सर्वाधिक भोग-सम्पत्ति प्राप्त की॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु स तस्मिन्ननादिनिधने परब्रह्मभूते भगवत्यनालम्बिनि कृते मनसस्तल्लयमवाप॥ ८॥
मूलम्
न तु स तस्मिन्ननादिनिधने परब्रह्मभूते भगवत्यनालम्बिनि कृते मनसस्तल्लयमवाप॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अनादि-निधन, परब्रह्मस्वरूप, निराधार भगवान्में चित्त न लगानेके कारण वह उन्हींमें लीन नहीं हुआ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दशाननत्वेऽप्यनङ्गपराधीनतया जानकीसमासक्तचेतसा भगवता दाशरथिरूपधारिणा हतस्य तद्रूपदर्शनमेवासीत्, नायमच्युत इत्यासक्तिर्विपद्यतोऽन्तःकरणे मानुषबुद्धिरेव केवलमस्याभूत्॥ ९॥
मूलम्
एवं दशाननत्वेऽप्यनङ्गपराधीनतया जानकीसमासक्तचेतसा भगवता दाशरथिरूपधारिणा हतस्य तद्रूपदर्शनमेवासीत्, नायमच्युत इत्यासक्तिर्विपद्यतोऽन्तःकरणे मानुषबुद्धिरेव केवलमस्याभूत्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार रावण होनेपर भी कामवश जानकीजीमें चित्त लग जानेसे भगवान् दशरथनन्दन रामके द्वारा मारे जानेपर केवल उनके रूपका ही दर्शन हुआ था; ‘ये अच्युत हैं’ ऐसी आसक्ति नहीं हुई, बल्कि मरते समय इसके अन्तःकरणमें केवल मनुष्यबुद्धि ही रही॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरप्यच्युतविनिपातमात्रफलमखिलभूमण्डलश्लाघ्यचेदिराजकुले जन्म अव्याहतैश्वर्यं शिशुपालत्वेऽप्यवाप॥ १०॥
मूलम्
पुनरप्यच्युतविनिपातमात्रफलमखिलभूमण्डलश्लाघ्यचेदिराजकुले जन्म अव्याहतैश्वर्यं शिशुपालत्वेऽप्यवाप॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर श्रीअच्युतके द्वारा मारे जानेके फलस्वरूप इसने सम्पूर्ण भूमण्डलमें प्रशंसित चेदिराजके कुलमें शिशुपालरूपसे जन्म लेकर भी अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त किया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र त्वखिलानामेव स भगवन्नाम्नां त्वङ्कारकारणमभवत्॥ ११॥
मूलम्
तत्र त्वखिलानामेव स भगवन्नाम्नां त्वङ्कारकारणमभवत्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस जन्ममें वह भगवान्के प्रत्येक नामोंमें तुच्छताकी भावना करने लगा॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च तत्कालकृतानां तेषामशेषाणामेवाच्युतनाम्नामनवरतमनेकजन्मसु वर्द्धितविद्वेषानुबन्धिचित्तो विनिन्दनसन्तर्जनादिषूच्चारणमकरोत्॥ १२॥
मूलम्
ततश्च तत्कालकृतानां तेषामशेषाणामेवाच्युतनाम्नामनवरतमनेकजन्मसु वर्द्धितविद्वेषानुबन्धिचित्तो विनिन्दनसन्तर्जनादिषूच्चारणमकरोत्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका हृदय अनेक जन्मके द्वेषानुबन्धसे युक्त था, अतः वह उनकी निन्दा और तिरस्कार आदि करते हुए भगवान्के सम्पूर्ण समयानुसार लीलाकृत नामोंका निरन्तर उच्चारण करता था॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्च रूपमुत्फुल्लपद्मदलाम-लाक्षमत्युज्ज्वलपीतवस्त्रधार्यमलकिरीटकेयूरहारकटकादिशोभितमुदारचतुर्बाहुशङ्खचक्रगदाधरमतिप्ररूढवैरानुभावादटनभोजनस्नानासनशयनादिष्वशेषावस्थान्तरेषु नान्यत्रोपययावस्य चेतसः॥ १३॥
मूलम्
तच्च रूपमुत्फुल्लपद्मदलाम-लाक्षमत्युज्ज्वलपीतवस्त्रधार्यमलकिरीटकेयूरहारकटकादिशोभितमुदारचतुर्बाहुशङ्खचक्रगदाधरमतिप्ररूढवैरानुभावादटनभोजनस्नानासनशयनादिष्वशेषावस्थान्तरेषु नान्यत्रोपययावस्य चेतसः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
खिले हुए कमलदलके समान जिसकी निर्मल आँखें हैं, जो उज्ज्वल पीताम्बर तथा निर्मल किरीट, केयूर, हार और कटकादि धारण किये हुए हैं तथा जिसकी लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं और जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं, भगवान्का वह दिव्य रूप अत्यन्त वैरानुबन्धके कारण भ्रमण, भोजन, स्नान, आसन और शयन आदि सम्पूर्ण अवस्थाओंमें कभी उसके चित्तसे दूर न होता था॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तमेवाक्रोशेषूच्चारयंस्तमेव हृदयेन धारयन्नात्मवधाय यावद्भगवद्धस्तचक्रांशुमालोज्ज्वलमक्षयतेजस्स्वरूपं ब्रह्मभूतमपगतद्वेषादिदोषं भगवन्तमद्राक्षीत्॥ १४॥
मूलम्
ततस्तमेवाक्रोशेषूच्चारयंस्तमेव हृदयेन धारयन्नात्मवधाय यावद्भगवद्धस्तचक्रांशुमालोज्ज्वलमक्षयतेजस्स्वरूपं ब्रह्मभूतमपगतद्वेषादिदोषं भगवन्तमद्राक्षीत्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर गाली देते समय उन्हींका नामोच्चारण करते हुए और हृदयमें भी उन्हींका ध्यान धरते हुए जिस समय वह अपने वधके लिये हाथमें धारण किये चक्रके उज्ज्वल किरणजालसे सुशोभित, अक्षय तेजस्वरूप द्वेषादि सम्पूर्ण दोषोंसे रहित ब्रह्मभूत भगवान्को देख रहा था॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावच्च भगवच्चक्रेणाशुव्यापादितस्तत्स्मरणदग्धाखिलाघसञ्चयो भगवतान्तमुपनीतस्तस्मिन्नेव लयमुपययौ॥ १५॥
मूलम्
तावच्च भगवच्चक्रेणाशुव्यापादितस्तत्स्मरणदग्धाखिलाघसञ्चयो भगवतान्तमुपनीतस्तस्मिन्नेव लयमुपययौ॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय तुरन्त भगवच्चक्रसे मारा गया; भगवत्स्मरणके कारण सम्पूर्ण पापराशिके दग्ध हो जानेसे भगवान्के द्वारा उसका अन्त हुआ और वह उन्हींमें लीन हो गया॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्तवाखिलं मयाभिहितम्॥ १६॥
मूलम्
एतत्तवाखिलं मयाभिहितम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इस सम्पूर्ण रहस्यका मैंने तुमसे वर्णन किया॥ १६॥
अयं हि भगवान् कीर्तितश्च संस्मृतश्च द्वेषानुबन्धेनापि अखिलसुरासुरादिदुर्लभं फलं प्रयच्छति किमुत सम्यग्भक्तिमतामिति॥ १७॥
अहो! वे भगवान् तो द्वेषानुबन्धके कारण भी कीर्तन और स्मरण करनेसे सम्पूर्ण देवता और असुरोंको दुर्लभ परमफल देते हैं, फिर सम्यक् भक्तिसम्पन्न पुरुषोंकी तो बात ही क्या है?॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुदेवस्यत्वानकदुन्दुभेः पौरवीरोहिणीमदिराभद्रादेवकीप्रमुखा बह्व्यः पत्न्योऽभवन्॥ १८॥
मूलम्
वसुदेवस्यत्वानकदुन्दुभेः पौरवीरोहिणीमदिराभद्रादेवकीप्रमुखा बह्व्यः पत्न्योऽभवन्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आनकदुन्दुभि वसुदेवजीके पौरवी, रोहिणी, मदिरा, भद्रा और देवकी आदि बहुत-सी स्त्रियाँ थीं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलभद्रशठसारणदुर्मदादीन्पुत्रान्रोहिण्यामानकदुन्दुभिरुत्पादयामास॥ १९॥
मूलम्
बलभद्रशठसारणदुर्मदादीन्पुत्रान्रोहिण्यामानकदुन्दुभिरुत्पादयामास॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें रोहिणीसे वसुदेवजीने बलभद्र, शठ, सारण और दुर्मद आदि कई पुत्र उत्पन्न किये॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलदेवोऽपि रेवत्यां विशठोल्मुकौ पुत्रावजनयत्॥ २०॥
मूलम्
बलदेवोऽपि रेवत्यां विशठोल्मुकौ पुत्रावजनयत्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा बलभद्रजीके रेवतीसे विशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सार्ष्टिमार्ष्टिशिशुसत्यधृतिप्रमुखाः सारणात्मजाः॥ २१॥
मूलम्
सार्ष्टिमार्ष्टिशिशुसत्यधृतिप्रमुखाः सारणात्मजाः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
सार्ष्टि, मार्ष्टि, सत्य और धृति आदि सारणके पुत्र थे॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भद्राश्वभद्रबाहुदुर्दमभूताद्या रोहिण्याः कुलजाः॥ २२॥
मूलम्
भद्राश्वभद्रबाहुदुर्दमभूताद्या रोहिण्याः कुलजाः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त भद्राश्व, भद्रबाहु, दुर्दम और भूत आदि भी रोहिणीहीकी सन्तानमें थे॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दोपनन्दकृतकाद्या मदिरायास्तनयाः॥ २३॥ भद्रायाश्चोपनिधिगदाद्याः॥ २४॥
मूलम्
नन्दोपनन्दकृतकाद्या मदिरायास्तनयाः॥ २३॥ भद्रायाश्चोपनिधिगदाद्याः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्द, उपनन्द और कृतक आदि मदिराके तथा उपनिधि और गद आदि भद्राके पुत्र थे॥ २३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैशाल्यां च कौशिकमेकमेवाजनयत्॥ २५॥
मूलम्
वैशाल्यां च कौशिकमेकमेवाजनयत्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशालीके गर्भसे कौशिक नामक केवल एक ही पुत्र हुआ॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनकदुन्दुभेर्देवक्यामपि कीर्तिमत्सुषेणोदायुभद्रसेनऋजुदासभद्रदेवाख्याः षट् पुत्रा जज्ञिरे॥ २६॥
मूलम्
आनकदुन्दुभेर्देवक्यामपि कीर्तिमत्सुषेणोदायुभद्रसेनऋजुदासभद्रदेवाख्याः षट् पुत्रा जज्ञिरे॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
आनकदुन्दुभिके देवकीसे कीर्तिमान्, सुषेण, उदायु, भद्रसेन, ऋजुदास तथा भद्रदेव नामक छः पुत्र हुए॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांश्च सर्वानेव कंसो घातितवान्॥ २७॥
मूलम्
तांश्च सर्वानेव कंसो घातितवान्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सबको कंसने मार डाला था॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तरं च सप्तमं गर्भमर्द्धरात्रे भगवत्प्रहिता योगनिद्रा रोहिण्या जठरमाकृष्य नीतवती॥ २८॥
मूलम्
अनन्तरं च सप्तमं गर्भमर्द्धरात्रे भगवत्प्रहिता योगनिद्रा रोहिण्या जठरमाकृष्य नीतवती॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पीछे भगवान्की प्रेरणासे योगमायाने देवकीके सातवें गर्भको आधी रातके समय खींचकर रोहिणीकी कुक्षिमें स्थापित कर दिया॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्षणाच्चासावपि संकर्षणाख्यामगमत्॥ २९॥
मूलम्
कर्षणाच्चासावपि संकर्षणाख्यामगमत्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकर्षण करनेसे इस गर्भका नाम संकर्षण हुआ॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च सकलजगन्महातरुमूलभूतो भूतभविष्यदादिसकलसुरासुरमुनिजनमनसामप्यगोचरोऽब्जभवप्रमुखैरनलमुखैः प्रणम्यावनिभारहरणाय प्रसादितो भगवाननादिमध्यनिधनो देवकीगर्भमवततार वासुदेवः॥ ३०॥ तत्प्रसादविवर्द्धमानोरुमहिमा च योगनिद्रा नन्दगोपपत्न्या यशोदाया गर्भमधिष्ठितवती॥ ३१॥
मूलम्
ततश्च सकलजगन्महातरुमूलभूतो भूतभविष्यदादिसकलसुरासुरमुनिजनमनसामप्यगोचरोऽब्जभवप्रमुखैरनलमुखैः प्रणम्यावनिभारहरणाय प्रसादितो भगवाननादिमध्यनिधनो देवकीगर्भमवततार वासुदेवः॥ ३०॥ तत्प्रसादविवर्द्धमानोरुमहिमा च योगनिद्रा नन्दगोपपत्न्या यशोदाया गर्भमधिष्ठितवती॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सम्पूर्ण संसाररूप महावृक्षके मूलस्वरूप भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालीन सम्पूर्ण देव, असुर और मुनिजनकी बुद्धिके अगम्य तथा ब्रह्मा और अग्नि आदि देवताओंद्वारा प्रणाम करके भूभारहरणके लिये प्रसन्न किये गये आदि, मध्य और अन्तहीन भगवान् वासुदेवने देवकीके गर्भसे अवतार लिया तथा उन्हींकी कृपासे बढ़ी हुई महिमावाली योगनिद्रा भी नन्दगोपकी पत्नी यशोदाके गर्भमें स्थित हुई॥ ३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रसन्नादित्यचन्द्रादिग्रहमव्यालादिभयं स्वस्थमानसमखिलमेवैतज्जगदपास्ताधर्ममभवत्तस्मिंश्च पुण्डरीकनयने जायमाने॥ ३२॥
मूलम्
सुप्रसन्नादित्यचन्द्रादिग्रहमव्यालादिभयं स्वस्थमानसमखिलमेवैतज्जगदपास्ताधर्ममभवत्तस्मिंश्च पुण्डरीकनयने जायमाने॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन कमलनयन भगवान्के प्रकट होनेपर यह सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न हुए सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहोंसे सम्पन्न सर्पादिके भयसे शून्य, अधर्मादिसे रहित तथा स्वस्थचित्त हो गया॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातेन च तेनाखिलमेवैतत्सन्मार्गवर्त्ति जगदक्रियत्॥ ३३॥
मूलम्
जातेन च तेनाखिलमेवैतत्सन्मार्गवर्त्ति जगदक्रियत्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने प्रकट होकर इस सम्पूर्ण संसारको सन्मार्गावलम्बी कर दिया॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवतोऽप्यत्र मर्त्यलोकेऽवतीर्णस्य षोडशसहस्राण्येकोत्तरशताधिकानि भार्याणामभवन्॥ ३४॥
मूलम्
भगवतोऽप्यत्र मर्त्यलोकेऽवतीर्णस्य षोडशसहस्राण्येकोत्तरशताधिकानि भार्याणामभवन्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मर्त्यलोकमें अवतीर्ण हुए भगवान्की सोलह हजार एक सौ एक रानियाँ थीं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां च रुक्मिणीसत्यभामाजाम्बवतीचारुहासिनीप्रमुखा ह्यष्टौ पत्न्यः प्रधाना बभूवुः॥ ३५॥
मूलम्
तासां च रुक्मिणीसत्यभामाजाम्बवतीचारुहासिनीप्रमुखा ह्यष्टौ पत्न्यः प्रधाना बभूवुः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती और चारुहासिनी आदि आठ मुख्य थीं॥ ३५॥
तासु चाष्टावयुतानि लक्षं च पुत्राणां भगवानखिलमूर्तिरनादिमानजनयत्॥ ३६॥
अनादि भगवान् अखिलमूर्तिने उनसे एक लाख अस्सी हजार पुत्र उत्पन्न किये॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां च प्रद्युम्नचारुदेष्णसाम्बादयस्त्रयोदश प्रधानाः॥ ३७॥
मूलम्
तेषां च प्रद्युम्नचारुदेष्णसाम्बादयस्त्रयोदश प्रधानाः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और साम्ब आदि तेरह पुत्र प्रधान थे॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्युम्नोऽपि रुक्मिणस्तनयां रुक्मवतींनामोपयेमे॥ ३८॥
मूलम्
प्रद्युम्नोऽपि रुक्मिणस्तनयां रुक्मवतींनामोपयेमे॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रद्युम्नने भी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीसे विवाह किया था॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यामनिरुद्धो जज्ञे॥ ३९॥
मूलम्
तस्यामनिरुद्धो जज्ञे॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे अनिरुद्धका जन्म हुआ॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिरुद्धोऽपि रुक्मिण एव पौत्रीं सुभद्रां नामोपयेमे॥ ४०॥
मूलम्
अनिरुद्धोऽपि रुक्मिण एव पौत्रीं सुभद्रां नामोपयेमे॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनिरुद्धने भी रुक्मीकी पौत्री सुभद्रासे विवाह किया था॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यामस्य वज्रो जज्ञे॥ ४१॥
मूलम्
तस्यामस्य वज्रो जज्ञे॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे वज्र उत्पन्न हुआ॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रस्य प्रतिबाहुस्तस्यापि सुचारुः॥ ४२॥
मूलम्
वज्रस्य प्रतिबाहुस्तस्यापि सुचारुः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वज्रका पुत्र प्रतिबाहु तथा प्रतिबाहुका सुचारु था॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमनेकशतसहस्रपुरुषसंख्यस्य यदुकुलस्य पुत्रसंख्या वर्षशतैरपि वक्तुं न शक्यते॥ ४३॥
मूलम्
एवमनेकशतसहस्रपुरुषसंख्यस्य यदुकुलस्य पुत्रसंख्या वर्षशतैरपि वक्तुं न शक्यते॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सैकड़ों हजार पुरुषोंकी संख्यावाले यदुकुलकी सन्तानोंकी गणना सौ वर्षमें भी नहीं की जा सकती॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो हि श्लोकाविमावत्र चरितार्थौ॥ ४४॥
मूलम्
यतो हि श्लोकाविमावत्र चरितार्थौ॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि इस विषयमें ये दो श्लोक चरितार्थ हैं—॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस्रः कोट्यस्सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च।
कुमाराणां गृहाचार्याश्चापयोगेषु ये रताः॥ ४५॥
संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्।
यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते सदाहुकः॥ ४६॥
मूलम्
तिस्रः कोट्यस्सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च।
कुमाराणां गृहाचार्याश्चापयोगेषु ये रताः॥ ४५॥
संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्।
यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते सदाहुकः॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो गृहाचार्य यादवकुमारोंको धनुर्विद्याकी शिक्षा देनेमें तत्पर रहते थे उनकी संख्या तीन करोड़ अट्ठासी लाख थी, फिर उन महात्मा यादवोंकी गणना तो कर ही कौन सकता है? जहाँ हजारों और लाखोंकी संख्यामें सर्वदा यदुराज उग्रसेन रहते थे॥ ४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवासुरे हता ये तु दैतेयास्सुमहाबलाः।
उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥ ४७॥
मूलम्
देवासुरे हता ये तु दैतेयास्सुमहाबलाः।
उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवासुर-संग्राममें जो महाबली दैत्यगण मारे गये थे वे मनुष्यलोकमें उपद्रव करनेवाले राजालोग होकर उत्पन्न हुए॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामुत्सादनार्थाय भुवि देवा यदोः कुले।
अवतीर्णाः कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज॥ ४८॥
मूलम्
तेषामुत्सादनार्थाय भुवि देवा यदोः कुले।
अवतीर्णाः कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका नाश करनेके लिये देवताओंने यदुवंशमें जन्म लिया जिसमें कि एक सौ एक कुल थे॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥ ४९॥
मूलम्
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका नियन्त्रण और स्वामित्व भगवान् विष्णुने ही किया। वे समस्त यादवगण उनकी आज्ञानुसार ही वृद्धिको प्राप्त हुए॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति प्रसूतिं वृष्णीनां यः शृणोति नरः सदा।
स सर्वैः पातकैर्मुक्तो विष्णुलोकं प्रपद्यते॥ ५०॥
मूलम्
इति प्रसूतिं वृष्णीनां यः शृणोति नरः सदा।
स सर्वैः पातकैर्मुक्तो विष्णुलोकं प्रपद्यते॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो पुरुष इस वृष्णिवंशकी उत्पत्तिके विवरणको सुनता है वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको प्राप्त कर लेता है॥ ५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे पञ्चदशोध्यायः॥ १५॥