[दसवाँ अध्याय]
विषय
ययातिका चरित्र
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
अनुवाद (हिन्दी)
यतिययातिसंयात्यायातिवियातिकृतिसंज्ञा नहुषस्य षट् पुत्रा महाबलपराक्रमा बभूवुः॥ १॥
श्रीपराशरजी बोले—नहुषके यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियाति और कृति नामक छः महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए॥ १॥
यतिस्तुराज्यंनैच्छत्॥ २॥ ययातिस्तुभूभृदभवत्॥ ३॥
यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की, इसलिये ययाति ही राजा हुआ॥ २-३॥
उशनसश्च दुहितरं देवयानीं वार्षपर्वणीं च शर्मिष्ठामुपयेमे॥ ४॥
ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था॥ ४॥
अत्रानुवंशश्लोको भवति॥ ५॥
उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है—॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥ ६॥
मूलम्
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु और पूरुको उत्पन्न किया’॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काव्यशापाच्चाकालेनैव ययातिर्जरामवाप॥ ७॥
मूलम्
काव्यशापाच्चाकालेनैव ययातिर्जरामवाप॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिको शुक्राचार्यजीके शापसे असमय ही वृद्धावस्थाने घेर लिया था॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्नशुक्रवचनाच्च स्वजरां सङ्क्रामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच॥ ८॥
मूलम्
प्रसन्नशुक्रवचनाच्च स्वजरां सङ्क्रामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा—॥ ८॥
वत्स त्वन्मातामहशापादियमकालेनैव जरा ममोपस्थिता तामहं तस्यैवानुग्रहाद्भवतस्सञ्चारयामि॥ ९॥
‘वत्स! तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धावस्थाने घेर लिया है, अब उन्हींकी कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकं वर्षसहस्रमतृप्तोऽस्मि विषयेषु त्वद्वयसा विषयानहं भोक्तुमिच्छामि॥ १०॥
मूलम्
एकं वर्षसहस्रमतृप्तोऽस्मि विषयेषु त्वद्वयसा विषयानहं भोक्तुमिच्छामि॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अभी विषय-भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ, इसलिये एक सहस्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्र भवता प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमित्युक्तस्स यदुर्नैच्छत्तां जरामादातुम्॥ ११॥
मूलम्
नात्र भवता प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमित्युक्तस्स यदुर्नैच्छत्तां जरामादातुम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं करनी चाहिये।’ किन्तु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धावस्थाको ग्रहण करना न चाहा॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च पिता शशाप त्वत्प्रसूतिर्न राज्यार्हा भविष्यतीति॥ १२॥
मूलम्
तं च पिता शशाप त्वत्प्रसूतिर्न राज्यार्हा भविष्यतीति॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य-पदके योग्य न होगी॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तरं च तुर्वसुं द्रुह्युमनुं च पृथिवीपतिर्जराग्रहणार्थं स्वयौवनप्रदानाय चाभ्यर्थयामास॥ १३॥ तैरप्येकैकेन प्रत्याख्यातस्ताञ्छशाप॥ १४॥
मूलम्
अनन्तरं च तुर्वसुं द्रुह्युमनुं च पृथिवीपतिर्जराग्रहणार्थं स्वयौवनप्रदानाय चाभ्यर्थयामास॥ १३॥ तैरप्येकैकेन प्रत्याख्यातस्ताञ्छशाप॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर राजा ययातिने तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहा; तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शर्मिष्ठातनयमशेषकनीयांसं पूरुं तथैवाह॥ १५॥ स चातिप्रवणमतिः सबहुमानं पितरं प्रणम्य महाप्रसादोऽयमस्माकमित्युदारमभिधाय जरां जग्राह॥ १६॥ स्वकीयं च यौवनं स्वपित्रे ददौ॥ १७॥
मूलम्
अथ शर्मिष्ठातनयमशेषकनीयांसं पूरुं तथैवाह॥ १५॥ स चातिप्रवणमतिः सबहुमानं पितरं प्रणम्य महाप्रसादोऽयमस्माकमित्युदारमभिधाय जरां जग्राह॥ १६॥ स्वकीयं च यौवनं स्वपित्रे ददौ॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा—‘यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है।’ ऐसा कहकर पूरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया॥ १५—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपि पौरवं यौवनमासाद्य धर्माविरोधेन यथाकामं यथाकालोपपन्नं यथोत्साहं विषयांश्चचार॥ १८॥ सम्यक् च प्रजापालनमकरोत्॥ १९॥
मूलम्
सोऽपि पौरवं यौवनमासाद्य धर्माविरोधेन यथाकामं यथाकालोपपन्नं यथोत्साहं विषयांश्चचार॥ १८॥ सम्यक् च प्रजापालनमकरोत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा ययातिने पूरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वाच्या देवयान्या च सहोपभोगं भुक्त्वा कामानामन्तं प्राप्स्यामीत्यनुदिनं उन्मनस्को बभूव॥ २०॥
मूलम्
विश्वाच्या देवयान्या च सहोपभोगं भुक्त्वा कामानामन्तं प्राप्स्यामीत्यनुदिनं उन्मनस्को बभूव॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए ‘मैं कामनाओंका अन्त कर दूँगा’—ऐसे सोचते-सोचते वे प्रतिदिन [भोगोंके लिये] उत्कण्ठित रहने लगे॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुदिनं चोपभोगतः कामानतिरम्यान्मेने॥ २१॥ ततश्चैवमगायत॥ २२॥
मूलम्
अनुदिनं चोपभोगतः कामानतिरम्यान्मेने॥ २१॥ ततश्चैवमगायत॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे; तदुपरान्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया॥ २१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥ २३॥
मूलम्
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भोगोंकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती, बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्॥ २४॥
मूलम्
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य, यव, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं, इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वास्सुखमया दिशः॥ २५॥
मूलम्
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वास्सुखमया दिशः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता, उस समय उस समदर्शीके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
तां तृष्णां सन्त्यजेत्प्राज्ञस्सुखेनैवाभिपूर्यते॥ २६॥
दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती, बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है॥ २६॥
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
धनाशा जीविताशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यतः॥ २७॥
मूलम्
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
तां तृष्णां सन्त्यजेत्प्राज्ञस्सुखेनैवाभिपूर्यते॥ २६॥
दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती, बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है॥ २६॥
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
धनाशा जीविताशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यतः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवस्थाके जीर्ण होनेपर केश और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होतीं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः।
तथाप्यनुदिनं तृष्णा मम तेषूपजायते॥ २८॥
मूलम्
पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः।
तथाप्यनुदिनं तृष्णा मम तेषूपजायते॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्रवर्ष बीत गये, फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती है॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम्।
निर्द्वन्द्वो निर्ममो भूत्वा चरिष्यामि मृगैस्सह॥ २९॥
मूलम्
तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम्।
निर्द्वन्द्वो निर्ममो भूत्वा चरिष्यामि मृगैस्सह॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः अब मैं इसे छोड़कर और अपने चित्तको भगवान्में ही स्थिरकर निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर [वनमें] मृगोंके साथ विचरूँगा॥ २९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरोस्सकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम्।
राज्येऽभिषिच्य पूरुं च प्रययौ तपसे वनम्॥ ३०॥
मूलम्
पूरोस्सकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम्।
राज्येऽभिषिच्य पूरुं च प्रययौ तपसे वनम्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—तदनन्तर राजा ययातिने पूरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य-पदपर अभिषिक्त कर वनको चले गये॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं च समादिशत्।
प्रतीच्यां च तथा द्रुह्युं दक्षिणायां ततो यदुम्॥ ३१॥
उदीच्यां च तथैवानुं कृत्वा मण्डलिनो नृपान्।
सर्वपृथ्वीपतिं पूरुं सोऽभिषिच्य वनं ययौ॥ ३२॥
मूलम्
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं च समादिशत्।
प्रतीच्यां च तथा द्रुह्युं दक्षिणायां ततो यदुम्॥ ३१॥
उदीच्यां च तथैवानुं कृत्वा मण्डलिनो नृपान्।
सर्वपृथ्वीपतिं पूरुं सोऽभिषिच्य वनं ययौ॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशामें तुर्वसुको, पश्चिममें द्रुह्युको, दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त किया; तथा पूरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले गये॥ ३१-३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे दशमोऽध्यायः॥ १०॥