[छठा अध्याय]
विषय
सोमवंशका वर्णन; चन्द्रमा, बुध और पुरूरवाका चरित्र
मूलम् (वचनम्)
श्रीमैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्यस्य वंश्या भगवन्कथिता भवता मम।
सोमस्याप्यखिलान्वंश्याञ्छ्रोतुमिच्छामि पार्थिवान्॥ १॥
कीर्त्यते स्थिरकीर्तीनां येषामद्यापि सन्ततिः।
प्रसादसुमुखस्तान्मे ब्रह्मन्नाख्यातुमर्हसि॥ २॥
मूलम्
सूर्यस्य वंश्या भगवन्कथिता भवता मम।
सोमस्याप्यखिलान्वंश्याञ्छ्रोतुमिच्छामि पार्थिवान्॥ १॥
कीर्त्यते स्थिरकीर्तीनां येषामद्यापि सन्ततिः।
प्रसादसुमुखस्तान्मे ब्रह्मन्नाख्यातुमर्हसि॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैत्रेयजी बोले—भगवन्! आपने सूर्यवंशीय राजाओंका वर्णन तो कर दिया, अब मैं सम्पूर्ण चन्द्रवंशीय भूपतियोंका वृत्तान्त भी सुनना चाहता हूँ। जिन स्थिरकीर्ति महाराजोंकी सन्ततिका सुयश आज भी गान किया जाता है, हे ब्रह्मन्! प्रसन्न-मुखसे आप उन्हींका वर्णन मुझसे कीजिये॥ १-२॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतां मुनिशार्दूल वंशः प्रथिततेजसः।
सोमस्यानुक्रमात्ख्याता यत्रोर्वीपतयोऽभवन्॥ ३॥
मूलम्
श्रूयतां मुनिशार्दूल वंशः प्रथिततेजसः।
सोमस्यानुक्रमात्ख्याता यत्रोर्वीपतयोऽभवन्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मुनिशार्दूल! परम तेजस्वी चन्द्रमाके वंशका क्रमशः श्रवण करो जिसमें अनेकों विख्यात राजालोग हुए हैं॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं हि वंशोऽतिबलपराक्रमद्युतिशीलचेष्टा-वद्भिरतिगुणान्वितैर्नहुषययातिकार्तवीर्यार्जुनादिभिर्भूपालैरलङ्कृतस्तमहं कथयामि श्रूयताम्॥ ४॥
मूलम्
अयं हि वंशोऽतिबलपराक्रमद्युतिशीलचेष्टा-वद्भिरतिगुणान्वितैर्नहुषययातिकार्तवीर्यार्जुनादिभिर्भूपालैरलङ्कृतस्तमहं कथयामि श्रूयताम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह वंश नहुष, ययाति, कार्तवीर्य और अर्जुन आदि अनेकों अति बल-पराक्रमशील, कान्तिमान्, क्रियावान् और सद्गुणसम्पन्न राजाओंसे अलंकृत हुआ है। सुनो, मैं उसका वर्णन करता हूँ॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखिलजगत्स्रष्टुर्भगवतो नारायणस्य नाभिसरोजसमुद्भवाब्जयोनेर्ब्रह्मणः पुत्रोऽत्रिः॥ ५॥
मूलम्
अखिलजगत्स्रष्टुर्भगवतो नारायणस्य नाभिसरोजसमुद्भवाब्जयोनेर्ब्रह्मणः पुत्रोऽत्रिः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण जगत्के रचयिता भगवान् नारायणके नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए भगवान् ब्रह्माजीके पुत्र अत्रि प्रजापति थे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रेस्सोमः॥ ६॥
मूलम्
अत्रेस्सोमः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन अत्रिके पुत्र चन्द्रमा हुए॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च भगवानब्जयोनिः अशेषौषधिद्विजनक्षत्राणामाधिपत्येऽभ्यषेचयत्॥ ७॥
मूलम्
तं च भगवानब्जयोनिः अशेषौषधिद्विजनक्षत्राणामाधिपत्येऽभ्यषेचयत्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमल-योनि भगवान् ब्रह्माजीने उन्हें सम्पूर्ण औषधि, द्विजजन और नक्षत्रगणके आधिपत्यपर अभिषिक्त कर दिया था॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च राजसूयमकरोत्॥ ८॥
मूलम्
स च राजसूयमकरोत्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रमाने राजसूय-यज्ञका अनुष्ठान किया॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्प्रभावादत्युत्कृष्टाधिपत्याधिष्ठातृत्वाच्चैनं मद आविवेश॥ ९॥
मूलम्
तत्प्रभावादत्युत्कृष्टाधिपत्याधिष्ठातृत्वाच्चैनं मद आविवेश॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने प्रभाव और अति उत्कृष्ट आधिपत्यके अधिकारी होनेसे चन्द्रमापर राजमद सवार हुआ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदावलेपाच्च सकलदेवगुरोर्बृहस्पतेस्तारां नाम पत्नीं जहार॥ १०॥
मूलम्
मदावलेपाच्च सकलदेवगुरोर्बृहस्पतेस्तारां नाम पत्नीं जहार॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मदोन्मत्त हो जानेके कारण उसने समस्त देवताओंके गुरु भगवान् बृहस्पतिजीकी भार्या ताराको हरण कर लिया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुशश्च बृहस्पतिचोदितेन भगवता ब्रह्मणा चोद्यमानः सकलैश्च देवर्षिभिर्याच्यमानोऽपि न मुमोच॥ ११॥
मूलम्
बहुशश्च बृहस्पतिचोदितेन भगवता ब्रह्मणा चोद्यमानः सकलैश्च देवर्षिभिर्याच्यमानोऽपि न मुमोच॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा बृहस्पतिजीकी प्रेरणासे भगवान् ब्रह्माजीके बहुत कुछ कहने-सुनने और देवर्षियोंके माँगनेपर भी उसे न छोड़ा॥ ११॥
तस्य चन्द्रस्य च बृहस्पतेर्द्वेषादुशना पार्ष्णिग्राहोऽभूत्॥ १२॥ अङ्गिरसश्च सकाशादुपलब्धविद्यो भगवान्रूद्रो बृहस्पतेः साहाय्यमकरोत्॥ १३॥
बृहस्पतिजीसे द्वेष करनेके कारण शुक्रजी भी चन्द्रमाके सहायक हो गये और अंगिरासे विद्या-लाभ करनेके कारण भगवान् रुद्रने बृहस्पतिकी सहायताकी [क्योंकि बृहस्पतिजी अंगिराके पुत्र हैं]॥ १२-१३॥
यतश्चोशना ततो जम्भकुम्भाद्याः समस्ता एव दैत्यदानवनिकाया महान्तमुद्यमं चक्रुः॥ १४॥
जिस पक्षमें शुक्रजी थे उस ओरसे जम्भ और कुम्भ आदि समस्त दैत्य-दानवादिने भी [सहायता देनेमें] बड़ा उद्योग किया॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पतेरपि सकलदेवसैन्ययुतः सहायः शक्रोऽभवत्॥ १५॥
मूलम्
बृहस्पतेरपि सकलदेवसैन्ययुतः सहायः शक्रोऽभवत्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा सकल देव-सेनाके सहित इन्द्र बृहस्पतिजीके सहायक हुए॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं च तयोरतीवोग्रसंग्रामस्तारानिमित्तस्तारकामयो नामाभूत्॥ १६॥
मूलम्
एवं च तयोरतीवोग्रसंग्रामस्तारानिमित्तस्तारकामयो नामाभूत्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ताराके लिये उनमें तारकामय नामक अत्यन्त घोर युद्ध छिड़ गया॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च समस्तशस्त्राण्यसुरेषु रुद्रपुरोगमादेवा देवेषु चाशेषदानवा मुमुचुः॥ १७॥
मूलम्
ततश्च समस्तशस्त्राण्यसुरेषु रुद्रपुरोगमादेवा देवेषु चाशेषदानवा मुमुचुः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रुद्र आदि देवगण दानवोंके प्रति और दानवगण देवताओंके प्रति नाना प्रकारके शस्त्र छोड़ने लगे॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं देवासुराहवसंक्षोभक्षुब्धहृदयमशेषमेव जगद्ब्रलह्माणं शरणं जगाम॥ १८॥
मूलम्
एवं देवासुराहवसंक्षोभक्षुब्धहृदयमशेषमेव जगद्ब्रलह्माणं शरणं जगाम॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार देवासुर-संग्रामसे क्षुब्ध-चित्त हो सम्पूर्ण संसारने ब्रह्माजीकी शरण ली॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च भगवानब्जयोनिरप्युशनसं शङ्करमसुरान्देवांश्च निवार्य बृहस्पतये तारामदापयत्॥ १९॥
मूलम्
ततश्च भगवानब्जयोनिरप्युशनसं शङ्करमसुरान्देवांश्च निवार्य बृहस्पतये तारामदापयत्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् कमल-योनिने भी शुक्र, रुद्र, दानव और देवगणको युद्धसे निवृत्त कर बृहस्पतिजीको तारा दिलवा दी॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चान्तःप्रसवामवलोक्य बृहस्पतिरप्याह॥ २०॥
मूलम्
तां चान्तःप्रसवामवलोक्य बृहस्पतिरप्याह॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे गर्भिणी देखकर बृहस्पतिजीने कहा—॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष मम क्षेत्रे भवत्यान्यस्य सुतो धार्यस्समुत्सृजैनमलमलमतिधार्ष्ट्येनेति॥ २१॥
मूलम्
नैष मम क्षेत्रे भवत्यान्यस्य सुतो धार्यस्समुत्सृजैनमलमलमतिधार्ष्ट्येनेति॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मेरे क्षेत्रमें तुझको दूसरेका पुत्र धारण करना उचित नहीं है; इसे दूर कर, अधिक धृष्टता करना ठीक नहीं’’॥ २१॥
सा च तेनैवमुक्तातिपतिव्रता भर्तृवचनानन्तरं तमिषीकास्तम्बे गर्भमुत्ससर्ज॥ २२॥
बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर उस पतिव्रताने पतिके वचनानुसार वह गर्भ इषीकास्तम्ब (सींककी झाड़ी)- में छोड़ दिया॥ २२॥
स चोत्सृष्टमात्र एवातितेजसा देवानां तेजांस्याचिक्षेप॥ २३॥
उस छोड़े हुए गर्भने अपने तेजसे समस्त देवताओंके तेजको मलिन कर दिया॥ २३॥
बृहस्पतिमिन्दुं च तस्य कुमारस्यातिचारुतया साभिलाषौ दृष्ट्वा देवास्समुत्पन्नसन्देहास्तारां पप्रच्छुः॥ २४॥
तदनन्तर उस बालककी सुन्दरताके कारण बृहस्पति और चन्द्रमा दोनोंको उसे लेनेके लिये उत्सुक देख देवताओंने सन्देह हो जानेके कारण तारासे पूछा—॥ २४॥
सत्यं कथयास्माकमिति सुभगे सोमस्याथ वा बृहस्पतेरयं पुत्र इति॥ २५॥
‘‘ हे सुभगे! तू हमको सच-सच बता, यह पुत्र बृहस्पतिका है या चन्द्रमाका?’’॥ २५॥
एवं तैरुक्ता सा तारा ह्रिया किञ्चिन्नोवाच॥ २६॥
उनके ऐसा कहनेपर ताराने लज्जावश कुछ भी न कहा॥ २६॥
बहुशोऽप्यभिहिता यदासौ देवेभ्यो नाचचक्षे ततस्स कुमारस्तां शप्तुमुद्यतः प्राह॥ २७॥
जब बहुत कुछ कहनेपर भी वह देवताओंसे न बोली तो वह बालक उसे शाप देनेके लिये उद्यत होकर बोला—॥ २७॥
दुष्टेऽम्ब कस्मान्मम तातं नाख्यासि॥ २८॥ अद्यैव ते व्यलीकलज्जावत्यास्तथा शास्तिमहं करोमि॥ २९॥ यथा च नैवमद्याप्यतिमन्थरवचना भविष्यसीति॥ ३०॥
‘‘अरी दुष्टा माँ! तू मेरे पिताका नाम क्यों नहीं बतलाती? तुझ व्यर्थ लज्जावतीकी मैं अभी ऐसी गति करूँगा जिससे तू आजसे ही इस प्रकार अत्यन्त धीरे-धीरे बोलना भूल जायगी’’॥ २८—३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ भगवान् पितामहः तं कुमारं सन्निवार्य स्वयमपृच्छत्तां ताराम्॥ ३१॥
मूलम्
अथ भगवान् पितामहः तं कुमारं सन्निवार्य स्वयमपृच्छत्तां ताराम्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पितामह श्रीब्रह्माजीने उस बालकको रोककर तारासे स्वयं ही पूछा—॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथय वत्से कस्यायमात्मजः सोमस्य वा बृहस्पतेर्वा इत्युक्ता लज्जमानाह सोमस्येति॥ ३२॥
मूलम्
कथय वत्से कस्यायमात्मजः सोमस्य वा बृहस्पतेर्वा इत्युक्ता लज्जमानाह सोमस्येति॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘बेटी! ठीक-ठीक बता यह पुत्र किसका है—बृहस्पतिका या चन्द्रमाका?’’ इसपर उसने लज्जापूर्वक कहा—‘‘चन्द्रमाका’’॥ ३२॥
ततः प्रस्फुरदुच्छ्वसितामलकपोलकान्तिर्भगवानुडुपतिः कुमारमालिंग्य साधु साधु वत्स प्राज्ञोऽसीति बुध इति तस्य च नाम चक्रे॥ ३३॥
तब तो नक्षत्रपति भगवान् चन्द्रने उस बालकको हृदयसे लगाकर कहा—‘‘बहुत ठीक, बहुत ठीक, बेटा! तुम बड़े बुद्धिमान् हो;’’ और उनका नाम ‘बुध’ रख दिया। इस समय उनके निर्मल कपोलोंकी कान्ति उच्छ्वसित और देदीप्यमान हो रही थी॥ ३३॥
तदाख्यातमेवैतत् स च यथेलायामात्मजं पुरूरवसमुत्पादयामास॥ ३४॥
बुधने जिस प्रकार इलासे अपने पुत्र पुरूरवाको उत्पन्न किया था उसका वर्णन पहले ही कर चुके हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरूरवास्त्वतिदानशीलोऽतियज्वातितेजस्वी। यं सत्यवादिनमतिरूपवन्तं मनस्विनं मित्रावरुणशापान्मानुषे लोके मया वस्तव्यमिति कृतमतिरुर्वशी ददर्श॥ ३५॥
मूलम्
पुरूरवास्त्वतिदानशीलोऽतियज्वातितेजस्वी। यं सत्यवादिनमतिरूपवन्तं मनस्विनं मित्रावरुणशापान्मानुषे लोके मया वस्तव्यमिति कृतमतिरुर्वशी ददर्श॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरूरवा अति दानशील, अति याज्ञिक और अति तेजस्वी था। ‘मित्रावरुणके शापसे मुझे मर्त्यलोकमें रहना पड़ेगा’ ऐसा विचार करते हुए उर्वशी अप्सराकी दृष्टि उस अति सत्यवादी, रूपके धनी और मतिमान् राजा पुरूरवापर पड़ी॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टमात्रे च तस्मिन्नपहाय मानमशेषमपास्य स्वर्गसुखाभिलाषं तन्मनस्का भूत्वा तमेवोपतस्थे॥ ३६॥
मूलम्
दृष्टमात्रे च तस्मिन्नपहाय मानमशेषमपास्य स्वर्गसुखाभिलाषं तन्मनस्का भूत्वा तमेवोपतस्थे॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखते ही वह सम्पूर्ण मान तथा स्वर्ग-सुखकी इच्छाको छोड़कर तन्मयभावसे उसीके पास आयी॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपि च तामतिशयितसकललोकस्त्रीकान्तिसौकुमार्यलावण्यगतिविलासहासादिगुणामवलोक्य तदायत्तचित्तवृत्तिर्बभूव॥ ३७॥
मूलम्
सोऽपि च तामतिशयितसकललोकस्त्रीकान्तिसौकुमार्यलावण्यगतिविलासहासादिगुणामवलोक्य तदायत्तचित्तवृत्तिर्बभूव॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पुरूरवाका चित्त भी उसे संसारकी समस्त स्त्रियोंमें विशिष्ट तथा कान्ति-सुकुमारता, सुन्दरता, गतिविलास और मुसकान आदि गुणोंसे युक्त देखकर उसके वशीभूत हो गया॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभयमपि तन्मनस्कमनन्यदृष्टि परित्यक्तसमस्तान्यप्रयोजनमभूत्॥ ३८॥
मूलम्
उभयमपि तन्मनस्कमनन्यदृष्टि परित्यक्तसमस्तान्यप्रयोजनमभूत्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे दोनों ही परस्पर तन्मय और अनन्यचित्त होकर और सब कामोंको भूल गये॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा तु प्रागल्भ्यात्तामाह॥ ३९॥
मूलम्
राजा तु प्रागल्भ्यात्तामाह॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
निदान राजाने निःसंकोच होकर कहा—॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभ्रु त्वामहमभिकामोऽस्मि प्रसीदानुरागमुद्वहेत्युक्ता लज्जावखण्डितमुर्वशी तं प्राह॥ ४०॥
मूलम्
सुभ्रु त्वामहमभिकामोऽस्मि प्रसीदानुरागमुद्वहेत्युक्ता लज्जावखण्डितमुर्वशी तं प्राह॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे सुभ्रु! मैं तुम्हारी इच्छा करता हूँ, तुम प्रसन्न होकर मुझे प्रेम-दान दो।’’ राजाके ऐसा कहनेपर उर्वशीने भी लज्जावश स्खलित स्वरमें कहा—॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्वेवं यदि मे समयपरिपालनं भवान् करोतीत्याख्याते पुनरपि तामाह॥ ४१॥
मूलम्
भवत्वेवं यदि मे समयपरिपालनं भवान् करोतीत्याख्याते पुनरपि तामाह॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘यदि आप मेरी प्रतिज्ञाको निभा सकें तो अवश्य ऐसा ही हो सकता है।’’ यह सुनकर राजाने कहा—॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आख्याहि मे समयमिति॥ ४२॥
मूलम्
आख्याहि मे समयमिति॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा, तुम अपनी प्रतिज्ञा मुझसे कहो॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ पृष्टा पुनरप्यब्रवीत्॥ ४३॥
मूलम्
अथ पृष्टा पुनरप्यब्रवीत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पूछनेपर वह फिर बोली—॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयनसमीपे ममोरणकद्वयं पुत्रभूतं नापनेयम्॥ ४४॥
मूलम्
शयनसमीपे ममोरणकद्वयं पुत्रभूतं नापनेयम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मेरे पुत्ररूप इन दो मेषों (भेड़ों)-को आप कभी मेरी शय्यासे दूर न कर सकेंगे॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवांश्च मया न नग्नो द्रष्टव्यः॥ ४५॥
मूलम्
भवांश्च मया न नग्नो द्रष्टव्यः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं कभी आपको नग्न न देखने पाऊँ॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घृतमात्रं च ममाहार इति॥ ४६॥
मूलम्
घृतमात्रं च ममाहार इति॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और केवल घृत ही मेरा आहार होगा—[यही मेरी तीन प्रतिज्ञाएँ हैं]’’॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेवेति भूपतिरप्याह॥ ४७॥
मूलम्
एवमेवेति भूपतिरप्याह॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजाने कहा—‘‘ऐसा ही होगा’’॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया सह सचावनिपतिरलकायां चैत्ररथादिवनेष्वमलपद्मखण्डेषु मानसादिसरस्स्वतिरमणीयेषु रममाणः षष्टिवर्षसहस्राण्यनुदिनप्रवर्द्धमानप्रमोदोऽनयत्॥ ४८॥
मूलम्
तया सह सचावनिपतिरलकायां चैत्ररथादिवनेष्वमलपद्मखण्डेषु मानसादिसरस्स्वतिरमणीयेषु रममाणः षष्टिवर्षसहस्राण्यनुदिनप्रवर्द्धमानप्रमोदोऽनयत्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा पुरूरवाने दिन-दिन बढ़ते हुए आनन्दके साथ कभी अलकापुरीके अन्तर्गत चैत्ररथ आदि वनोंमें और कभी सुन्दर पद्मखण्डोंसे युक्त अति रमणीय मानस आदि सरोवरोंमें विहार करते हुए साठ हजार वर्ष बिता दिये॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर्वशी च तदुपभोगात्प्रतिदिनप्रवर्द्धमानानुरागा अमरलोकवासेऽपि न स्पृहां चकार॥ ४९॥
मूलम्
उर्वशी च तदुपभोगात्प्रतिदिनप्रवर्द्धमानानुरागा अमरलोकवासेऽपि न स्पृहां चकार॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके उपभोगसुखसे प्रतिदिन अनुरागके बढ़ते रहनेसे उर्वशीको भी देवलोकमें रहनेकी इच्छा नहीं रही॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विना चोर्वश्या सुरलोकोऽप्सरसां सिद्धगन्धर्वाणां च नातिरमणीयोऽभवत्॥ ५०॥
मूलम्
विना चोर्वश्या सुरलोकोऽप्सरसां सिद्धगन्धर्वाणां च नातिरमणीयोऽभवत्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर उर्वशीके बिना अप्सराओं, सिद्धों और गन्धर्वोंको स्वर्गलोक अत्यन्त रमणीय नहीं मालूम होता था॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चोर्वशीपुरूरवसोस्समयविद्विश्वावसुर्गन्धर्वसमवेतो निशि शयनाभ्याशादेकमुरणकं जहार॥ ५१॥
मूलम्
ततश्चोर्वशीपुरूरवसोस्समयविद्विश्वावसुर्गन्धर्वसमवेतो निशि शयनाभ्याशादेकमुरणकं जहार॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उर्वशी और पुरूरवाकी प्रतिज्ञाके जाननेवाले विश्वावसुने एक दिन रात्रिके समय गन्धर्वोंके साथ जाकर उसके शयनागारके पाससे एक मेषका हरण कर लिया॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याकाशे नीयमानस्योर्वशी शब्दमशृणोत्॥ ५२॥
मूलम्
तस्याकाशे नीयमानस्योर्वशी शब्दमशृणोत्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे आकाशमें ले जाते समय उर्वशीने उसका शब्द सुना॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुवाच च ममानाथायाः पुत्रः केनापह्रियते कं शरणमुपयामीति॥ ५३॥
मूलम्
एवमुवाच च ममानाथायाः पुत्रः केनापह्रियते कं शरणमुपयामीति॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह बोली—‘‘मुझ अनाथाके पुत्रको कौन लिये जाता है, अब मैं किसकी शरण जाऊँ?’’॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाकर्ण्य राजा मां नग्नं देवी वीक्ष्यतीति न ययौ॥ ५४॥
मूलम्
तदाकर्ण्य राजा मां नग्नं देवी वीक्ष्यतीति न ययौ॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु यह सुनकर भी इस भयसे कि रानी मुझे नंगा देख लेगी, राजा नहीं उठा॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यमप्युरणकमादाय गन्धर्वा ययुः॥ ५५॥
मूलम्
अथान्यमप्युरणकमादाय गन्धर्वा ययुः॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर गन्धर्वगण दूसरा भी मेष लेकर चल दिये॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याप्यपह्रियमाणस्याकर्ण्य शब्दमाकाशे पुनरप्यनाथास्म्यहमभर्तृका कापुरुषाश्रयेत्यार्त्तराविणी बभूव॥ ५६॥
मूलम्
तस्याप्यपह्रियमाणस्याकर्ण्य शब्दमाकाशे पुनरप्यनाथास्म्यहमभर्तृका कापुरुषाश्रयेत्यार्त्तराविणी बभूव॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे ले जाते समय उसका शब्द सुनकर भी उर्वशी ‘हाय! मैं अनाथा और भर्तृहीना हूँ तथा एक कायरके अधीन हो गयी हूँ।’ इस प्रकार कहती हुई वह आर्त्तस्वरसे विलाप करने लगी॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजाप्यमर्षवशादन्धकारमेतदिति खड्गमादाय दुष्ट दुष्ट हतोऽसीति व्याहरन्नभ्यधावत्॥ ५७॥
मूलम्
राजाप्यमर्षवशादन्धकारमेतदिति खड्गमादाय दुष्ट दुष्ट हतोऽसीति व्याहरन्नभ्यधावत्॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा यह सोचकर कि इस समय अन्धकार है [अतः रानी मुझे नग्न न देख सकेगी], क्रोधपूर्वक ‘अरे दुष्ट! तू मारा गया’ यह कहते हुए तलवार लेकर पीछे दौड़ा॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावच्च गन्धर्वैरप्यतीवोज्ज्वला विद्युज्जनिता॥ ५८॥
मूलम्
तावच्च गन्धर्वैरप्यतीवोज्ज्वला विद्युज्जनिता॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय गन्धर्वोंने अति उज्ज्वल विद्युत् प्रकट कर दी॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्प्रभया चोर्वशी राजानमपगताम्बरं दृष्ट्वापवृत्तसमया तत्क्षणादेवापक्रान्ता॥ ५९॥
मूलम्
तत्प्रभया चोर्वशी राजानमपगताम्बरं दृष्ट्वापवृत्तसमया तत्क्षणादेवापक्रान्ता॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके प्रकाशमें राजाको वस्त्रहीन देखकर प्रतिज्ञा टूट जानेसे उर्वशी तुरन्त ही वहाँसे चली गयी॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यज्य तावप्युरणकौ गन्धर्वास्सुरलोकमुपगताः॥ ६०॥
मूलम्
परित्यज्य तावप्युरणकौ गन्धर्वास्सुरलोकमुपगताः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्वगण भी उन मेषोंको वहीं छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजापि च तौ मेषावादायातिहृष्टमनाः स्वशयनमायातो नोर्वशीं ददर्श॥ ६१॥
मूलम्
राजापि च तौ मेषावादायातिहृष्टमनाः स्वशयनमायातो नोर्वशीं ददर्श॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु जब राजा उन मेषोंको लिये हुए अति प्रसन्नचित्तसे अपने शयनागारमें आया तो वहाँ उसने उर्वशीको न देखा॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चापश्यन् व्यपगताम्बर एवोन्मत्तरूपो बभ्राम॥ ६२॥
मूलम्
तां चापश्यन् व्यपगताम्बर एवोन्मत्तरूपो बभ्राम॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे न देखनेसे वह उस वस्त्रहीन-अवस्थामें ही पागलके समान घूमने लगा॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुक्षेत्रे चाम्भोजसरस्यन्याभिश्चतसृभिरप्सरोभिस्समवेतामुर्वशीं ददर्श॥ ६३॥
मूलम्
कुरुक्षेत्रे चाम्भोजसरस्यन्याभिश्चतसृभिरप्सरोभिस्समवेतामुर्वशीं ददर्श॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
घूमते-घूमते उसने एक दिन कुरुक्षेत्रके कमल-सरोवरमें अन्य चार अप्सराओंके सहित उर्वशीको देखा॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चोन्मत्तरूपो जाये हे तिष्ठ मनसि घोरे तिष्ठ वचसि कपटिके तिष्ठेत्येवमनेकप्रकारं सूक्तमवोचत्॥ ६४॥
मूलम्
ततश्चोन्मत्तरूपो जाये हे तिष्ठ मनसि घोरे तिष्ठ वचसि कपटिके तिष्ठेत्येवमनेकप्रकारं सूक्तमवोचत्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर वह उन्मत्तके समान ‘हे जाये! ठहर, अरी हृदयकी निष्ठुरे! खड़ी हो जा, अरी कपट रखनेवाली! वार्तालापके लिये तनिक ठहर जा’—ऐसे अनेक वचन कहने लगा॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह चोर्वशी॥ ६५॥ महाराजालमनेनाविवेकचेष्टितेन॥ ६६॥
मूलम्
आह चोर्वशी॥ ६५॥ महाराजालमनेनाविवेकचेष्टितेन॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशी बोली—‘‘महाराज! इन अज्ञानियोंकी-सी चेष्टाओंसे कोई लाभ नहीं॥ ६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्वत्न्यहमब्दान्ते भवतात्रागन्तव्यं कुमारस्ते भविष्यति एकां च निशामहं त्वया सह वत्स्यामीत्युक्तः प्रहृष्टस्स्वपुरं जगाम॥ ६७॥
मूलम्
अन्तर्वत्न्यहमब्दान्ते भवतात्रागन्तव्यं कुमारस्ते भविष्यति एकां च निशामहं त्वया सह वत्स्यामीत्युक्तः प्रहृष्टस्स्वपुरं जगाम॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय मैं गर्भवती हूँ। एक वर्ष उपरान्त आप यहीं आ जावें, उस समय आपके एक पुत्र होगा और एक रात मैं भी आपके साथ रहूँगी।’’ उर्वशीके ऐसा कहनेपर राजा पुरूरवा प्रसन्न-चित्तसे अपने नगरको चला गया॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां चाप्सरसामुर्वशी कथयामास॥ ६८॥
मूलम्
तासां चाप्सरसामुर्वशी कथयामास॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उर्वशीने अन्य अप्सराओंसे कहा—॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं स पुरुषोत्कृष्टो येनाहमेतावन्तं कालमनुरागाकृष्टमानसा सहोषितेति॥ ६९॥
मूलम्
अयं स पुरुषोत्कृष्टो येनाहमेतावन्तं कालमनुरागाकृष्टमानसा सहोषितेति॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘ये वही पुरुषश्रेष्ठ हैं जिनके साथ मैं इतने दिनोंतक प्रेमाकृष्ट-चित्तसे भूमण्डलमें रही थी॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्ताश्चाप्सरस ऊचुः॥ ७०॥
मूलम्
एवमुक्तास्ताश्चाप्सरस ऊचुः॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर अन्य अप्सराओंने कहा—॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु साध्वस्य रूपमप्यनेन सहास्माकमपि सर्वकालमास्या भवेदिति॥ ७१॥
मूलम्
साधु साध्वस्य रूपमप्यनेन सहास्माकमपि सर्वकालमास्या भवेदिति॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘वाह! वाह! सचमुच इनका रूप बड़ा ही मनोहर है, इनके साथ तो सर्वदा हमारा भी सहवास हो’’॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्दे च पूर्णे स राजा तत्राजगाम॥ ७२॥
मूलम्
अब्दे च पूर्णे स राजा तत्राजगाम॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्ष समाप्त होनेपर राजा पुरूरवा वहाँ आये॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमारं चायुषमस्मै चोर्वशी ददौ॥ ७३॥
मूलम्
कुमारं चायुषमस्मै चोर्वशी ददौ॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उर्वशीने उन्हें ‘आयु’ नामक एक बालक दिया॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा चैकां निशां तेन राज्ञा सहोषित्वा पञ्च पुत्रोत्पत्तये गर्भमवाप॥ ७४॥
मूलम्
दत्त्वा चैकां निशां तेन राज्ञा सहोषित्वा पञ्च पुत्रोत्पत्तये गर्भमवाप॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा उनके साथ एक रात रहकर पाँच पुत्र उत्पन्न करनेके लिये गर्भ धारण किया॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाचैनं राजानमस्मत्प्रीत्या महाराजाय सर्व एव गन्धर्वा वरदास्संवृत्ता व्रियतां च वर इति॥ ७५॥
मूलम्
उवाचैनं राजानमस्मत्प्रीत्या महाराजाय सर्व एव गन्धर्वा वरदास्संवृत्ता व्रियतां च वर इति॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा—‘हमारे पारस्परिक स्नेहके कारण सकल गन्धर्वगण महाराजको वरदान देना चाहते हैं अतः आप अभीष्ट वर माँगिये॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह च राजा॥ ७६॥ विजितसकलारातिरविहतेन्द्रियसामर्थ्यो बन्धुमानमितबलकोशोऽस्मि, नान्यदस्माकमुर्वशीसालोक्यात्प्राप्तव्यमस्ति तदहमनया सहोर्वश्या कालं नेतुमभिलषामीत्युक्ते गन्धर्वा राज्ञेऽग्निस्थालीं ददुः॥ ७७॥ ऊचुश्चैनमग्निमाम्नायानुसारी भूत्वा त्रिधा कृत्वोर्वशीसलोकतामनोरथमुद्दिश्य सम्यग्यजेथाः ततोऽवश्यमभिलषितमवाप्स्यसीत्युक्तस्तामग्निस्थालीमादाय जगाम॥ ७८॥
मूलम्
आह च राजा॥ ७६॥ विजितसकलारातिरविहतेन्द्रियसामर्थ्यो बन्धुमानमितबलकोशोऽस्मि, नान्यदस्माकमुर्वशीसालोक्यात्प्राप्तव्यमस्ति तदहमनया सहोर्वश्या कालं नेतुमभिलषामीत्युक्ते गन्धर्वा राज्ञेऽग्निस्थालीं ददुः॥ ७७॥ ऊचुश्चैनमग्निमाम्नायानुसारी भूत्वा त्रिधा कृत्वोर्वशीसलोकतामनोरथमुद्दिश्य सम्यग्यजेथाः ततोऽवश्यमभिलषितमवाप्स्यसीत्युक्तस्तामग्निस्थालीमादाय जगाम॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बोले—‘‘मैंने समस्त शत्रुओंको जीत लिया है, मेरी इन्द्रियोंकी सामर्थ्य नष्ट नहीं हुई है, मैं बन्धुजन, असंख्य सेना और कोशसे भी सम्पन्न हूँ, इस समय उर्वशीके सहवासके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है। अतः मैं इस उर्वशीके साथ ही काल-यापन करना चाहता हूँ।’’ राजाके ऐसा कहनेपर गन्धर्वोंने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्नियुक्त पात्र) दी और कहा— ‘‘इस अग्निके वैदिक विधिसे गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्निरूप तीन भाग करके इसमें उर्वशीके सहवासकी कामनासे भलीभाँति यजन करो तो अवश्य ही तुम अपना अभीष्ट प्राप्त कर लोगे।’’ गन्धर्वोंके ऐसा कहनेपर राजा उस अग्निस्थालीको लेकर चल दिये॥ ७६—७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरटव्यामचिन्तयत्, अहो मेऽतीव मूढता किमहमकरवम्॥ ७९॥ वह्निस्थाली मयैषानीता नोर्वशीति॥ ८०॥
मूलम्
अन्तरटव्यामचिन्तयत्, अहो मेऽतीव मूढता किमहमकरवम्॥ ७९॥ वह्निस्थाली मयैषानीता नोर्वशीति॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
[मार्गमें] वनके अन्दर उन्होंने सोचा—‘अहो! मैं कैसा मूर्ख हूँ? मैंने यह क्या किया जो इस अग्निस्थालीको तो ले आया और उर्वशीको नहीं लाया’॥ ७९-८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनामटव्यामेवाग्निस्थालीं तत्याज स्वपुरं च जगाम॥ ८१॥
मूलम्
अथैनामटव्यामेवाग्निस्थालीं तत्याज स्वपुरं च जगाम॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सोचकर उस अग्निस्थालीको वनमें ही छोड़कर वे अपने नगरमें चले आये॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यतीतेऽर्द्धरात्रे विनिद्रश्चाचिन्तयत्॥ ८२॥
मूलम्
व्यतीतेऽर्द्धरात्रे विनिद्रश्चाचिन्तयत्॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
आधी रात बीत जानेके बाद निद्रा टूटनेपर राजाने सोचा—॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममोर्वशीसालोक्यप्राप्त्यर्थमग्निस्थाली गन्धर्वैर्दत्ता सा च मयाटव्यां परित्यक्ता॥ ८३॥
मूलम्
ममोर्वशीसालोक्यप्राप्त्यर्थमग्निस्थाली गन्धर्वैर्दत्ता सा च मयाटव्यां परित्यक्ता॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उर्वशीकी सन्निधि प्राप्त करनेके लिये ही गन्धर्वोंने मुझे वह अग्निस्थाली दी थी और मैंने उसे वनमें ही छोड़ दिया॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं तत्र तदाहरणाय यास्यामीत्युत्थाय तत्राप्युपगतो नाग्निस्थालीमपश्यत्॥ ८४॥
मूलम्
तदहं तत्र तदाहरणाय यास्यामीत्युत्थाय तत्राप्युपगतो नाग्निस्थालीमपश्यत्॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः अब मुझे उसे लानेके लिये जाना चाहिये’ ऐसा सोच उठकर वे वहाँ गये, किन्तु उन्होंने उस स्थालीको वहाँ न देखा॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमीगर्भं चाश्वत्थमग्निस्थालीस्थाने दृष्ट्वाचिन्तयत्॥ ८५॥
मूलम्
शमीगर्भं चाश्वत्थमग्निस्थालीस्थाने दृष्ट्वाचिन्तयत्॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निस्थालीके स्थानपर राजा पुरूरवाने एक शमीगर्भ पीपलके वृक्षको देखकर सोचा—॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयात्राग्निस्थाली निक्षिप्ता सा चाश्वत्थश्शमीगर्भोऽभूत्॥ ८६॥
मूलम्
मयात्राग्निस्थाली निक्षिप्ता सा चाश्वत्थश्शमीगर्भोऽभूत्॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने यहीं तो वह अग्निस्थाली फेंकी थी। वह स्थाली ही शमीगर्भ पीपल हो गयी है॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेनमेवाहमग्निरूपमादाय स्वपुरमभिगम्यारणीं कृत्वा तदुत्पन्नाग्नेरुपास्तिं करिष्यामीति॥ ८७॥
मूलम्
तदेनमेवाहमग्निरूपमादाय स्वपुरमभिगम्यारणीं कृत्वा तदुत्पन्नाग्नेरुपास्तिं करिष्यामीति॥ ८७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इस अग्निरूप अश्वत्थको ही अपने नगरमें ले जाकर इसकी अरणि बनाकर उससे उत्पन्न हुए अग्निकी ही उपासना करूँ’॥ ८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव स्वपुरमभिगम्यारणिं चकार॥ ८८॥
मूलम्
एवमेव स्वपुरमभिगम्यारणिं चकार॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सोचकर राजा उस अश्वत्थको लेकर अपने नगरमें आये और उसकी अरणि बनायी॥ ८८॥
तत्प्रमाणं चाङ्गुलैः कुर्वन् गायत्रीमपठत्॥ ८९॥
तदनन्तर उन्होंने उस काष्ठको एक-एक अंगुल करके गायत्री-मन्त्रका पाठ किया॥ ८९॥
पठतश्चाक्षरसंख्यान्येवाङ्गुलान्यरण्यभवत्॥ ९०॥
उसके पाठसे गायत्रीकी अक्षर-संख्याके बराबर एक-एक अंगुलकी अरणियाँ हो गयीं॥ ९०॥
तत्राग्निं निर्मथ्याग्नित्रयमाम्नायानुसारी भूत्वा जुहाव॥ ९१॥
उनके मन्थनसे तीनों प्रकारके अग्नियोंको उत्पन्न कर उनमें वैदिक विधिसे हवन किया॥ ९१॥
उर्वशीसालोक्यं फलमभिसंहितवान्॥ ९२॥
तथा उर्वशीके सहवासरूप फलकी इच्छा की॥ ९२॥
तेनैव चाग्निविधिना बहुविधान् यज्ञानिष्ट्वागान्धर्वलोकानवाप्योर्वश्या सहावियोगमवाप॥ ९३॥
तदनन्तर उसी अग्निसे नाना प्रकारके यज्ञोंका यजन करते हुए उन्होंने गन्धर्व-लोक प्राप्त किया और फिर उर्वशीसे उनका वियोग न हुआ॥ ९३॥
एकोऽग्निरादावभवत् एकेन त्वत्र मन्वन्तरे त्रेधा प्रवर्तिताः॥ ९४॥
पूर्वकालमें एक ही अग्नि था, उस एकहीसे इस मन्वन्तरमें तीन प्रकारके अग्नियोंका प्रचार हुआ॥ ९४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥