०१

[पहला अध्याय]

विषय

वैवस्वतमनुके वंशका विवरण

मूलम् (वचनम्)

श्रीमैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्यन्नरैः कार्यं साधुकर्मण्यवस्थितैः ।
तन्मह्यं गुरुणाख्यातं नित्यनैमित्तिकात्मकम्॥ १॥

मूलम्

भगवन्यन्नरैः कार्यं साधुकर्मण्यवस्थितैः ।
तन्मह्यं गुरुणाख्यातं नित्यनैमित्तिकात्मकम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजी बोले—हे भगवन्! सत्कर्ममें प्रवृत्त रहनेवाले पुरुषोंको जो करने चाहिये उन सम्पूर्ण नित्य-नैमित्तिक कर्मोंका आपने वर्णन कर दिया॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णधर्मास्तथाख्याता धर्मा ये चाश्रमेषु च ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं वंशं राज्ञां तद् ब्रूहि मे गुरो॥ २॥

मूलम्

वर्णधर्मास्तथाख्याता धर्मा ये चाश्रमेषु च ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं वंशं राज्ञां तद् ब्रूहि मे गुरो॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गुरो! आपने वर्ण-धर्म और आश्रम-धर्मोंकी व्याख्या भी कर दी । अब मुझे राजवंशोंका विवरण सुननेकी इच्छा है, अतः उनका वर्णन कीजिये॥ २॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैत्रेय श्रूयतामयमनेकयज्वशूरवीरधीरभूपालालंकृतो ब्रह्मादिर्मानवो वंशः॥ ३॥

मूलम्

मैत्रेय श्रूयतामयमनेकयज्वशूरवीरधीरभूपालालंकृतो ब्रह्मादिर्मानवो वंशः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! अब तुम अनेकों यज्ञकर्ता, शूरवीर और धैर्यशाली भूपालोंसे सुशोभित इस मनुवंशका वर्णन सुनो जिसके आदिपुरुष श्रीब्रह्माजी हैं॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य वंशस्यानुपूर्वीमशेषवंशपापप्रणाशनाय मैत्रेयैतां कथां शृणु॥ ४॥

मूलम्

तदस्य वंशस्यानुपूर्वीमशेषवंशपापप्रणाशनाय मैत्रेयैतां कथां शृणु॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! अपने वंशके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेके लिये इस वंश-परम्पराकी कथाका क्रमशः श्रवण करो॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्यथा सकलजगतामादिरनादिभूतस्स ऋग्यजुस्सामादिमयो भगवान‍् विष्णुस्तस्य ब्रह्मणो मूर्त्तं रूपं हिरण्यगर्भो ब्रह्माण्डभूतो ब्रह्मा भगवान‍् प्राग्बभूव॥ ५॥

मूलम्

तद्यथा सकलजगतामादिरनादिभूतस्स ऋग्यजुस्सामादिमयो भगवान‍् विष्णुस्तस्य ब्रह्मणो मूर्त्तं रूपं हिरण्यगर्भो ब्रह्माण्डभूतो ब्रह्मा भगवान‍् प्राग्बभूव॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका विवरण इस प्रकार है—सकल संसारके आदिकारण भगवान‍् विष्णु हैं । वे अनादि तथा ऋक्- यजु-सामःस्वरूप हैं । उन ब्रह्मस्वरूप भगवान‍् विष्णुके मूर्त्तरूप ब्रह्माण्डमय हिरण्यगर्भ भगवान‍् ब्रह्माजी सबसे पहले प्रकट हुए॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणश्च दक्षिणाङ्गुष्ठजन्मा दक्षप्रजापतिः दक्षस्याप्यदितिरदितेर्विवस्वान‍् विवस्वतो मनुः॥ ६॥

मूलम्

ब्रह्मणश्च दक्षिणाङ्गुष्ठजन्मा दक्षप्रजापतिः दक्षस्याप्यदितिरदितेर्विवस्वान‍् विवस्वतो मनुः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीके दायें अँगूठेसे दक्षप्रजापति हुए, दक्षसे अदिति हुई तथा अदितिसे विवस्वान‍् और विवस्वान‍्से मनुका जन्म हुआ॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोरिक्ष्वाकुनृगधृष्टशर्यातिनरिष्यन्तप्रांशुनाभागदिष्टकरूषपृषध्राख्या दश पुत्रा बभूवुः॥ ७॥

मूलम्

मनोरिक्ष्वाकुनृगधृष्टशर्यातिनरिष्यन्तप्रांशुनाभागदिष्टकरूषपृषध्राख्या दश पुत्रा बभूवुः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुके इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करूष और पृषध्र नामक दस पुत्र हुए॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टिं च मित्रावरुणयोर्मनुः पुत्रकामश्चकार॥ ८॥

मूलम्

इष्टिं च मित्रावरुणयोर्मनुः पुत्रकामश्चकार॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुने पुत्रकी इच्छासे मित्रावरुण नामक दो देवताओंके यज्ञका अनुष्ठान किया॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तावदपह्नुते होतुरपचारादिला नाम कन्या बभूव॥ ९॥

मूलम्

तत्र तावदपह्नुते होतुरपचारादिला नाम कन्या बभूव॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु होताके विपरीत संकल्पसे यज्ञमें विपर्यय हो जानेसे उनके ‘इला’ नामकी कन्या हुई॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवच मित्रावरुणयोः प्रसादात्सुद्युम्नो नाम मनोः पुत्रो मैत्रेय आसीत्॥ १०॥

मूलम्

सैवच मित्रावरुणयोः प्रसादात्सुद्युम्नो नाम मनोः पुत्रो मैत्रेय आसीत्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मैत्रेय! मित्रावरुणकी कृपासे वह इला ही मनुका ‘सुद्युम्न’ नामक पुत्र हुई॥ १०॥
पुनश्चेश्वरकोपात्स्त्री सती सा तु सोमसूनोर्बुधस्याश्रमसमीपे बभ्राम॥ ११॥
फिर महादेवजीके कोप (कोपप्रयुक्त शाप) से वह स्त्री होकर चन्द्रमाके पुत्र बुधके आश्रमके निकट घूमने लगी॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सानुरागश्च तस्यां बुधः पुरूरवसमात्मजमुत्पादयामास॥ १२॥

मूलम्

सानुरागश्च तस्यां बुधः पुरूरवसमात्मजमुत्पादयामास॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुधने अनुरक्त होकर उस स्त्रीसे पुरूरवा नामक पुत्र उत्पन्न किया॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातेऽपि तस्मिन्नमिततेजोभिः परमर्षिभिरिष्टिमय ऋङ्मयो यजुर्मयस्साममयोऽथर्वणमयस्सर्ववेदमयो मनोमयो ज्ञानमयो न किञ्चिन्मयोऽन्नमयो भगवान‍् यज्ञपुरुषस्वरूपी सुद्युम्नस्य पुंस्त्वमभिलषद्भिर्यथावदिष्टस्तत्प्रसादादिला पुनरपि सुद्युम्नोऽभवत्॥ १३॥

मूलम्

जातेऽपि तस्मिन्नमिततेजोभिः परमर्षिभिरिष्टिमय ऋङ्मयो यजुर्मयस्साममयोऽथर्वणमयस्सर्ववेदमयो मनोमयो ज्ञानमयो न किञ्चिन्मयोऽन्नमयो भगवान‍् यज्ञपुरुषस्वरूपी सुद्युम्नस्य पुंस्त्वमभिलषद्भिर्यथावदिष्टस्तत्प्रसादादिला पुनरपि सुद्युम्नोऽभवत्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरूरवाके जन्मके अनन्तर भी परमर्षिगणने सुद्युम्नको पुरुषत्वलाभकी आकांक्षासे क्रतुमय ऋग्यजुःसामाथर्वमय, सर्ववेदमय, मनोमय, ज्ञानमय, अन्नमय और परमार्थतः अकिंचिन्मय भगवान‍् यज्ञपुरुषका यथावत् यजन किया । तब उनकी कृपासे इला फिर भी सुद्युम्न हो गयी॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याप्युत्कलगयविनतास्त्रयः पुत्रा बभूवुः॥ १४॥

मूलम्

तस्याप्युत्कलगयविनतास्त्रयः पुत्रा बभूवुः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (सुद्युम्न)- के भी उत्कल, गय और विनत नामक तीन पुत्र हुए॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुद्युम्नस्तु स्त्रीपूर्वकत्वाद्राज्यभागं न लेभे॥ १५॥

मूलम्

सुद्युम्नस्तु स्त्रीपूर्वकत्वाद्राज्यभागं न लेभे॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले स्त्री होनेके कारण सुद्युम्नको राज्याधिकार प्राप्त नहीं हुआ॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्पित्रा तु वसिष्ठवचनात्प्रतिष्ठानं नाम नगरं सुद्युम्नाय दत्तं तच्चासौ पुरूरवसे प्रादात्॥ १६॥

मूलम्

तत्पित्रा तु वसिष्ठवचनात्प्रतिष्ठानं नाम नगरं सुद्युम्नाय दत्तं तच्चासौ पुरूरवसे प्रादात्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीके कहनेसे उनके पिताने उन्हें प्रतिष्ठान नामक नगर दे दिया था, वही उन्होंने पुरूरवाको दिया॥ १६॥
तदन्वयाश्च क्षत्रियास्सर्वे दिक्ष्वभवन् । पृषध्रस्तु मनुपुत्रो गुरुगोवधाच्छूद्रत्वमगमत्॥ १७॥
पुरूरवाकी सन्तान सम्पूर्ण दिशाओंमें फैले हुए क्षत्रियगण हुए । मनुका पृषध्र नामक पुत्र गुरुकी गौका वध करनेके कारण शूद्र हो गया॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोः पुत्रः करूषः करूषात्कारूषाः क्षत्रिया महाबलपराक्रमा बभूवुः॥ १८॥

मूलम्

मनोः पुत्रः करूषः करूषात्कारूषाः क्षत्रिया महाबलपराक्रमा बभूवुः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुका पुत्र करूष था । करूषसे कारूष नामक महाबली और पराक्रमी क्षत्रियगण उत्पन्न हुए॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्टपुत्रस्तु नाभागो वैश्यतामगमत्तस्माद‍्बलन्धनः पुत्रोऽभवत्॥ १९॥

मूलम्

दिष्टपुत्रस्तु नाभागो वैश्यतामगमत्तस्माद‍्बलन्धनः पुत्रोऽभवत्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिष्टका पुत्र नाभाग वैश्य हो गया था; उससे बलन्धन नामका पुत्र हुआ॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलन्धनाद्वत्सप्रीतिरुदारकीर्त्तिः॥ २०॥ वत्सप्रीतेः प्रांशुरभवत्॥ २१॥ प्रजापतिश्च प्रांशोरेकोऽभवत् ॥ २२॥

मूलम्

बलन्धनाद्वत्सप्रीतिरुदारकीर्त्तिः॥ २०॥ वत्सप्रीतेः प्रांशुरभवत्॥ २१॥ प्रजापतिश्च प्रांशोरेकोऽभवत् ॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलन्धनसे महान् कीर्तिमान् वत्सप्रीति, वत्सप्रीतिसे प्रांशु और प्रांशुसे प्रजापति नामक इकलौता पुत्र हुआ॥ २०—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च खनित्रः॥ २३॥ तस्माच्चाक्षुषः॥ २४॥ चाक्षुषाच्चातिबलपराक्रमो विंशोऽभवत्॥ २५॥

मूलम्

ततश्च खनित्रः॥ २३॥ तस्माच्चाक्षुषः॥ २४॥ चाक्षुषाच्चातिबलपराक्रमो विंशोऽभवत्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजापतिसे खनित्र, खनित्रसे चाक्षुष तथा चाक्षुषसे अति बल-पराक्रम-सम्पन्न विंश हुआ॥ २३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विविंशकः॥ २६॥ तस्माच्च खनिनेत्रः॥ २७॥ ततश्चातिविभूतिः॥ २८॥ अतिविभूतेरतिबलपराक्रमः करन्धमः पुत्रोऽभवत्॥ २९॥

मूलम्

ततो विविंशकः॥ २६॥ तस्माच्च खनिनेत्रः॥ २७॥ ततश्चातिविभूतिः॥ २८॥ अतिविभूतेरतिबलपराक्रमः करन्धमः पुत्रोऽभवत्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

विंशसे विविंशक, विविंशकसे खनिनेत्र, खनिनेत्रसे अतिविभूति और अतिविभूतिसे अति बलवान‍् और शूरवीर करन्धम नामक पुत्र हुआ॥ २६—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादप्यविक्षित्॥ ३०॥
अविक्षितोऽप्यतिबलपराक्रमः पुत्रो मरुत्तो
नामाभवत्; यस्येमावद्यापि श्लोकौ गीयेते॥ ३१॥

मूलम्

तस्मादप्यविक्षित्॥ ३०॥
अविक्षितोऽप्यतिबलपराक्रमः पुत्रो मरुत्तो
नामाभवत्; यस्येमावद्यापि श्लोकौ गीयेते॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

करन्धमसे अविक्षित् हुआ और अविक्षित् के मरुत्त नामक अति बल-पराक्रमयुक्त पुत्र हुआ, जिसके विषयमें आजकल भी ये दो श्लोक गाये जाते हैं॥ ३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरुत्तस्य यथा यज्ञस्तथा कस्याभवद्भुवि ।
सर्वं हिरण्मयं यस्य यज्ञवस्त्वतिशोभनम्॥ ३२॥

मूलम्

मरुत्तस्य यथा यज्ञस्तथा कस्याभवद्भुवि ।
सर्वं हिरण्मयं यस्य यज्ञवस्त्वतिशोभनम्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मरुत्तका जैसा यज्ञ हुआ था वैसा इस पृथिवीपर और किसका हुआ है, जिसकी सभी याज्ञिक वस्तुएँ सुवर्णमय और अति सुन्दर थीं॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमाद्यदिन्द्रस्सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मरुतः परिवेष्टारस्सदस्याश्च दिवौकसः॥ ३३॥

मूलम्

अमाद्यदिन्द्रस्सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मरुतः परिवेष्टारस्सदस्याश्च दिवौकसः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस यज्ञमें इन्द्र सोमरससे और ब्राह्मणगण दक्षिणासे परितृप्त हो गये थे, तथा उसमें मरुद‍्गण परोसनेवाले और देवगण सदस्य थे’॥ ३३॥
स मरुत्तश्चक्रवर्ती नरिष्यन्तनामानं पुत्रमवाप॥ ३४॥ तस्माच्च दमः॥ ३५॥ दमस्य पुत्रो राजवर्द्धनो जज्ञे॥ ३६॥
उस चक्रवर्ती मरुत्तके नरिष्यन्त नामक पुत्र हुआ तथा नरिष्यन्तके दम और दमके राजवर्द्धन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥ ३४—३६॥
राजवर्द्धनात्सुवृद्धिः॥ ३७॥ राजवर्द्धनसे सुवृद्धि, सुवृद्धेः केवलः॥ ३८॥ केवलात्सुधृतिर-भूत्॥ ३९॥
सुवृद्धिसे केवल और केवलसे सुधृतिका जन्म हुआ॥ ३७—३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च नरः॥ ४०॥ तस्माच्चन्द्रः॥ ४१॥ ततः केवलोऽभूत् ॥ ४२॥

मूलम्

ततश्च नरः॥ ४०॥ तस्माच्चन्द्रः॥ ४१॥ ततः केवलोऽभूत् ॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुधृतिसे नर, नरसे चन्द्र और चन्द्रसे केवल हुआ॥ ४०—४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केवलाद‍्बन्धुमान्॥ ४३॥ बन्धुमतो वेगवान‍्॥ ४४॥ वेगवतो बुधः॥ ४५॥ ततश्च तृणबिन्दुः॥ ४६॥ तस्याप्येका कन्या इलविला नाम॥ ४७॥ ततश्चालम्बुषा नाम वराप्सरास्तृणबिन्दुं भेजे॥ ४८॥ तस्यामप्यस्य विशालो जज्ञे यः पुरीं विशालां निर्ममे॥ ४९॥

मूलम्

केवलाद‍्बन्धुमान्॥ ४३॥ बन्धुमतो वेगवान‍्॥ ४४॥ वेगवतो बुधः॥ ४५॥ ततश्च तृणबिन्दुः॥ ४६॥ तस्याप्येका कन्या इलविला नाम॥ ४७॥ ततश्चालम्बुषा नाम वराप्सरास्तृणबिन्दुं भेजे॥ ४८॥ तस्यामप्यस्य विशालो जज्ञे यः पुरीं विशालां निर्ममे॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवलसे बन्धुमान्, बन्धुमान‍्से वेगवान‍्, वेगवान‍्से बुध, बुधसे तृणबिन्दु तथा तृणबिन्दुसे पहले तो इलविला नामकी एक कन्या हुई थी, किन्तु पीछे अलम्बुषा नामकी एक सुन्दरी अप्सरा उसपर अनुरक्त हो गयी । उससे तृणबिन्दुके विशाल नामक पुत्र हुआ, जिसने विशाला नामकी पुरी बसायी॥ ४३—४९॥
हेमचन्द्रश्च विशालस्य पुत्रोऽभवत्॥ ५०॥ ततश्चन्द्रः॥ ५१॥ तत्तनयो धूम्राक्षः॥ ५२॥ तस्यापि सृञ्जयोऽभूत्॥ ५३॥ सृञ्जयात्सहदेवः॥ ५४॥ ततश्च कृशाश्वो नाम पुत्रोऽभवत्॥ ५५॥
विशालका पुत्र हेमचन्द्र हुआ, हेमचन्द्रका चन्द्र, चन्द्रका धूम्राक्ष, धूम्राक्षका सृंजय, सृंजयका सहदेव और सहदेवका पुत्र कृशाश्व हुआ॥ ५०—५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमदत्तः कृशाश्वाज्जज्ञे योऽश्वमेधानां शतमाजहार॥ ५६॥ तत्पुत्रो जनमेजयः॥ ५७॥ जनमेजयात्सुमतिः॥ ५८॥ एते वैशालिका भूभृतः॥ ५९॥ श्लोकोऽप्यत्र गीयते॥ ६०॥

मूलम्

सोमदत्तः कृशाश्वाज्जज्ञे योऽश्वमेधानां शतमाजहार॥ ५६॥ तत्पुत्रो जनमेजयः॥ ५७॥ जनमेजयात्सुमतिः॥ ५८॥ एते वैशालिका भूभृतः॥ ५९॥ श्लोकोऽप्यत्र गीयते॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृशाश्वके सोमदत्त नामक पुत्र हुआ, जिसने सौ अश्वमेध-यज्ञ किये थे । उससे जनमेजय हुआ और जनमेजयसे सुमतिका जन्म हुआ । ये सब विशालवंशीय राजा हुए । इनके विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है॥ ५६—६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणबिन्दोः प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः ।
दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तोऽतिधार्मिकाः॥ ६१॥

मूलम्

तृणबिन्दोः प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः ।
दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तोऽतिधार्मिकाः॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तृणबिन्दुके प्रसादसे विशालवंशीय समस्त राजालोग दीर्घायु, महात्मा, वीर्यवान‍् और अति धर्मपरायण हुए॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शर्यातेः कन्या सुकन्या नामाभवत्, यामुपयेमे च्यवनः॥ ६२॥

मूलम्

शर्यातेः कन्या सुकन्या नामाभवत्, यामुपयेमे च्यवनः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुपुत्र शर्यातिके सुकन्या नामवाली एक कन्या हुई, जिसका विवाह च्यवन ऋषिके साथ हुआ॥ ६२॥ आनर्त्तनामा परमधार्मिकश्शर्यातिपुत्रोऽभवत्॥ ६३॥ आनर्त्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो यज्ञे योऽसावानर्त्तविषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास॥ ६४॥
शर्यातिके आनर्त्त नामक एक परम धार्मिक पुत्र हुआ । आनर्त्तके रेवत नामका पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामकी पुरीमें रहकर आनर्त्तदेशका राज्यभोग किया॥ ६३-६४॥
रेवतस्यापि रैवतः पुत्रः ककुद्मिनामा धर्मात्मा भ्रातृशतस्य ज्येष्ठोऽभवत्॥ ६५॥
रेवतका भी रैवत ककुद्मी नामक एक अति धर्मात्मा पुत्र था, जो अपने सौ भाइयोंमें सबसे बड़ा था॥ ६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य रेवती नाम कन्याभवत्॥ ६६॥

मूलम्

तस्य रेवती नाम कन्याभवत्॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके रेवती नामकी एक कन्या हुई॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तामादाय कस्येयमर्हतीति भगवन्तमब्जयोनिं प्रष्टुं ब्रह्मलोकं जगाम॥ ६७॥

मूलम्

स तामादाय कस्येयमर्हतीति भगवन्तमब्जयोनिं प्रष्टुं ब्रह्मलोकं जगाम॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज रैवत उसे अपने साथ लेकर ब्रह्माजीसे यह पूछनेके लिये कि ‘यह कन्या किस वरके योग्य है’ ब्रह्मलोकको गये॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावच्च ब्रह्मणोऽन्तिके हाहाहूहूसंज्ञाभ्यां गन्धर्वाभ्यामतितानं नाम दिव्यं गान्धर्वमगीयत॥ ६८॥

मूलम्

तावच्च ब्रह्मणोऽन्तिके हाहाहूहूसंज्ञाभ्यां गन्धर्वाभ्यामतितानं नाम दिव्यं गान्धर्वमगीयत॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय ब्रह्माजीके समीप हाहा और हूहू नामक दो गन्धर्व अतितान नामक दिव्य गान गा रहे थे॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्च त्रिमार्गपरिवृत्तैरनेकयुगपरिवृत्तिं तिष्ठन्नपि रैवतश्शृण्वन्मुहूर्त्तमिव मेने॥ ६९॥

मूलम्

तच्च त्रिमार्गपरिवृत्तैरनेकयुगपरिवृत्तिं तिष्ठन्नपि रैवतश्शृण्वन्मुहूर्त्तमिव मेने॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ [गान-सम्बन्धी चित्रा, दक्षिणा और धात्री नामक] त्रिमार्गके परिवर्तनके साथ उनका विलक्षण गान सुनते हुए अनेकों युगोंके परिवर्तन-कालतक ठहरनेपर भी रैवतजीको केवल एक मुहूर्त ही बीता-सा मालूम हुआ॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीतावसाने च भगवन्तमब्जयोनिं प्रणम्य रैवतः कन्यायोग्यं वरमपृच्छत्॥ ७०॥

मूलम्

गीतावसाने च भगवन्तमब्जयोनिं प्रणम्य रैवतः कन्यायोग्यं वरमपृच्छत्॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान समाप्त हो जानेपर रैवतने भगवान‍् कमलयोनिको प्रणाम कर उनसे अपनी कन्याके योग्य वर पूछा॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चासौ भगवानकथयत कथय योऽभिमतस्ते वर इति॥ ७१॥

मूलम्

ततश्चासौ भगवानकथयत कथय योऽभिमतस्ते वर इति॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍् ब्रह्माने कहा—‘‘तुम्हें जो वर अभिमत हों उन्हें बताओ’’॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च प्रणम्य भगवते तस्मै यथाभिमतानात्मनस्स वरान् कथयामास । क एषां भगवतोऽभिमत इति यस्मै कन्यामिमां प्रयच्छामीति॥ ७२॥

मूलम्

पुनश्च प्रणम्य भगवते तस्मै यथाभिमतानात्मनस्स वरान् कथयामास । क एषां भगवतोऽभिमत इति यस्मै कन्यामिमां प्रयच्छामीति॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने भगवान‍् ब्रह्माजीको पुनः प्रणाम कर अपने समस्त अभिमत वरोंका वर्णन किया और पूछा कि ‘इनमेंसे आपको कौन वर पसन्द है जिसे मैं यह कन्या दूँ?’॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कि ञ्चदवनतशिरास्सस्मितं भगवानब्जयोनिराह॥ ७३॥

मूलम्

ततः कि ञ्चदवनतशिरास्सस्मितं भगवानब्जयोनिराह॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसपर भगवान‍् कमलयोनि कुछ सिर झुकाकर मुसकाते हुए बोले—॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एते भवतोऽभिमता नैतेषां साम्प्रतं पुत्रपौत्रापत्यापत्यसन्ततिरस्त्यवनीतले॥ ७४॥

मूलम्

य एते भवतोऽभिमता नैतेषां साम्प्रतं पुत्रपौत्रापत्यापत्यसन्ततिरस्त्यवनीतले॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘तुमको जो-जो वर अभिमत हैं उनमेंसे तो अब पृथिवीपर किसीके पुत्र-पौत्रादिकी सन्तान भी नहीं है॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनि तवात्रैव गान्धर्वं शृण्वतश्चतुर्युगान्यतीतानि॥ ७५॥

मूलम्

बहूनि तवात्रैव गान्धर्वं शृण्वतश्चतुर्युगान्यतीतानि॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि यहाँ गन्धर्वोंका गान सुनते हुए तुम्हें कई चतुर्युग बीत चुके हैं॥ ७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साम्प्रतं महीतलेऽष्टाविंशतितममनोश्चतुर्युगमतीतप्रायं वर्तते॥ ७६॥

मूलम्

साम्प्रतं महीतलेऽष्टाविंशतितममनोश्चतुर्युगमतीतप्रायं वर्तते॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय पृथिवीतलपर अट्ठाईसवें मनुका चतुर्युग प्रायः समाप्त हो चुका है॥ ७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसन्नो हि कलिः॥ ७७॥

मूलम्

आसन्नो हि कलिः॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा कलियुगका प्रारम्भ होनेवाला है॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यस्मै कन्यारत्नमिदं भवतैकाकिनाभिमताय देयम्॥ ७८॥ भवतोऽपि पुत्रमित्रकलत्रमन्त्रिभृत्यबन्धुबलकोशादयस्समस्ताः काले- नैतेनात्यन्तमतीताः॥ ७९॥

मूलम्

अन्यस्मै कन्यारत्नमिदं भवतैकाकिनाभिमताय देयम्॥ ७८॥ भवतोऽपि पुत्रमित्रकलत्रमन्त्रिभृत्यबन्धुबलकोशादयस्समस्ताः काले- नैतेनात्यन्तमतीताः॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब तुम [अपने समान] अकेले ही रह गये हो, अतः यह कन्या-रत्न किसी और योग्य वरको दो । इतने समयमें तुम्हारे पुत्र, मित्र, कलत्र, मन्त्रिवर्ग, भृत्यगण, बन्धुगण, सेना और कोशादिका भी सर्वथा अभाव हो चुका है’’॥ ७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुनरप्युत्पन्नसाध्वसो राजा भगवन्तं प्रणम्य पप्रच्छ॥ ८०॥

मूलम्

ततः पुनरप्युत्पन्नसाध्वसो राजा भगवन्तं प्रणम्य पप्रच्छ॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब तो राजा रैवतने अत्यन्त भयभीत हो भगवान‍् ब्रह्माजीको पुनः प्रणाम कर पूछा—॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्नेवमवस्थिते मयेयं कस्मै देयेति॥ ८१॥

मूलम्

भगवन्नेवमवस्थिते मयेयं कस्मै देयेति॥ ८१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! ऐसी बात है, तो अब मैं इसे किसको दूँ?’॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्स भगवान‍् किञ्चिदवनम्रकन्धरः कृताञ्जलिर्भूत्वा सर्वलोकगुरुरम्भोजयोनिराह॥ ८२॥

मूलम्

ततस्स भगवान‍् किञ्चिदवनम्रकन्धरः कृताञ्जलिर्भूत्वा सर्वलोकगुरुरम्भोजयोनिराह॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सर्वलोकगुरु भगवान‍् कमलयोनि कुछ सिर झुकाये हाथ जोड़कर बोले॥ ८२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यादिमध्यान्तमजस्य यस्य
विद्मो वयं सर्वमयस्य धातुः ।
न च स्वरूपं न परं स्वभावं
न चैव सारं परमेश्वरस्य॥ ८३॥

मूलम्

न ह्यादिमध्यान्तमजस्य यस्य
विद्मो वयं सर्वमयस्य धातुः ।
न च स्वरूपं न परं स्वभावं
न चैव सारं परमेश्वरस्य॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीब्रह्माजीने कहा—जिस अजन्मा, सर्वमय, विधाता परमेश्वरका आदि, मध्य, अन्त, स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलामुहूर्त्तादिमयश्च कालो
न यद्विभूतेः परिणामहेतुः ।
अजन्मनाशस्य सदैकमूर्त्ते-
रनामरूपस्य सनातनस्य॥ ८४॥

मूलम्

कलामुहूर्त्तादिमयश्च कालो
न यद्विभूतेः परिणामहेतुः ।
अजन्मनाशस्य सदैकमूर्त्ते-
रनामरूपस्य सनातनस्य॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलामुहूर्तादिमय काल भी जिसकी विभूतिके परिणामका कारण नहीं हो सकता, जिसका जन्म और मरण नहीं होता, जो सनातन और सर्वदा एकरूप है तथा जो नाम और रूपसे रहित है॥ ८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य प्रसादादहमच्युतस्य
भूतः प्रजासृष्टिकरोऽन्तकारी ।
क्रोधाच्च रुद्रः स्थितिहेतुभूतो
यस्माच्च मध्ये पुरुषः परस्मात्॥ ८५॥

मूलम्

यस्य प्रसादादहमच्युतस्य
भूतः प्रजासृष्टिकरोऽन्तकारी ।
क्रोधाच्च रुद्रः स्थितिहेतुभूतो
यस्माच्च मध्ये पुरुषः परस्मात्॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस अच्युतकी कृपासे मैं प्रजाका उत्पत्तिकर्त्ता हूँ, जिसके क्रोधसे उत्पन्न हुआ रुद्र सृष्टिका अन्तकर्त्ता है तथा जिस परमात्मासे मध्यमें जगत्स्थितिकारी विष्णुरूप पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ है॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्‍रूपमास्थाय सृजत्यजो यः
स्थितौ च योऽसौ पुरुषस्वरूपी ।
रुद्रस्वरूपेण च योऽत्ति विश्वं
धत्ते तथानन्तवपुस्समस्तम्॥ ८६॥

मूलम्

मद्‍रूपमास्थाय सृजत्यजो यः
स्थितौ च योऽसौ पुरुषस्वरूपी ।
रुद्रस्वरूपेण च योऽत्ति विश्वं
धत्ते तथानन्तवपुस्समस्तम्॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अजन्मा मेरा रूप धारणकर संसारकी रचना करता है, स्थितिके समय जो पुरुषरूप है तथा जो रुद्ररूपसे सम्पूर्ण विश्वका ग्रास कर जाता है एवं अनन्तरूपसे सम्पूर्ण जगत‍्को धारण करता है॥ ८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाकाय योऽग्नित्वमुपैति लोका-
न्बिभर्त्ति पृथ्वीवपुरव्ययात्मा ।
शक्रादिरूपी परिपाति विश्व-
मर्केन्दुरूपश्च तमो हिनस्ति॥ ८७॥
करोति चेष्टाश्श्वसनस्वरूपी
लोकस्य तृप्तिं च जलान्नरूपी ।
ददाति विश्वस्थितिसंस्थितस्तु
सर्वावकाशं च नभस्स्वरूपी॥ ८८॥

मूलम्

पाकाय योऽग्नित्वमुपैति लोका-
न्बिभर्त्ति पृथ्वीवपुरव्ययात्मा ।
शक्रादिरूपी परिपाति विश्व-
मर्केन्दुरूपश्च तमो हिनस्ति॥ ८७॥
करोति चेष्टाश्श्वसनस्वरूपी
लोकस्य तृप्तिं च जलान्नरूपी ।
ददाति विश्वस्थितिसंस्थितस्तु
सर्वावकाशं च नभस्स्वरूपी॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्वास-प्रश्वासरूपसे जीवोंमें चेष्टा करता है, जल और अन्नरूपसे लोककी तृप्ति करता है तथा विश्वकी स्थितिमें संलग्न रहकर जो आकाशरूपसे सबको अवकाश देता है॥ ८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्सृज्यते सर्गकृदात्मनैव
यः पाल्यते पालयिता च देवः ।
विश्वात्मकस्संह्रियतेऽन्तकारी
पृथक्त्रयस्यास्यचयोऽव्ययात्मा॥ ८९॥

मूलम्

यस्सृज्यते सर्गकृदात्मनैव
यः पाल्यते पालयिता च देवः ।
विश्वात्मकस्संह्रियतेऽन्तकारी
पृथक्त्रयस्यास्यचयोऽव्ययात्मा॥ ८९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सृष्टिकर्ता होकर भी विश्वरूपसे आप ही अपनी रचना करता है, जगत‍्का पालन करनेवाला होकर भी आप ही पालित होता है तथा संहारकारी होकर भी स्वयं ही संहृत होता है और जो इन तीनोंसे पृथक् इनका अविनाशी आत्मा है॥ ८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिञ्जगद्यो जगदेतदाद्यो
यश्चाश्रितोऽस्मिञ्जगति स्वयम्भूः ।
ससर्वभूतप्रभवो धरित्र्यां
स्वांशेन विष्णुर्नृपतेऽवतीर्णः॥ ९०॥

मूलम्

यस्मिञ्जगद्यो जगदेतदाद्यो
यश्चाश्रितोऽस्मिञ्जगति स्वयम्भूः ।
ससर्वभूतप्रभवो धरित्र्यां
स्वांशेन विष्णुर्नृपतेऽवतीर्णः॥ ९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें यह जगत् स्थित है, जो आदिपुरुष जगत्-स्वरूप है और इस जगत‍्के ही आश्रित तथा स्वयम्भू है, हे नृपते! सम्पूर्ण भूतोंका उद्भवस्थान वह विष्णु धरातलमें अपने अंशसे अवतीर्ण हुआ है॥ ९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशस्थली या तव भूप रम्या
पुरी पुराभूदमरावतीव ।
सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते
स केशवांशो बलदेवनामा॥ ९१॥

मूलम्

कुशस्थली या तव भूप रम्या
पुरी पुराभूदमरावतीव ।
सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते
स केशवांशो बलदेवनामा॥ ९१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! पूर्वकालमें तुम्हारी जो अमरावतीके समान कुशस्थली नामकी पुरी थी वह अब द्वारकापुरी हो गयी है । वहीं वे बलदेव नामक भगवान‍् विष्णुके अंश विराजमान हैं॥ ९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै त्वमेनां तनयां नरेन्द्र
प्रयच्छ मायामनुजाय जायाम् ।
श्लाघ्यो वरोऽसौ तनया तवेयं
स्त्रीरत्नभूता सदृशो हि योगः॥ ९२॥

मूलम्

तस्मै त्वमेनां तनयां नरेन्द्र
प्रयच्छ मायामनुजाय जायाम् ।
श्लाघ्यो वरोऽसौ तनया तवेयं
स्त्रीरत्नभूता सदृशो हि योगः॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेन्द्र! तुम यह कन्या उन मायामानव श्रीबलदेवजीको पत्नीरूपसे दो । ये बलदेवजी संसारमें अति प्रशंसनीय हैं और तुम्हारी कन्या भी स्त्रियोंमें रत्नस्वरूपा है, अतः इनका योग सर्वथा उपयुक्त है॥ ९२॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीपराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीरितोऽसौ कमलोद्भवेन
भुवं समासाद्य पतिः प्रजानाम् ।
ददर्श ह्रस्वान‍् पुरुषान् विरूपा-
नल्पौजसस्स्वल्पविवेकवीर्यान्॥ ९३॥

मूलम्

इतीरितोऽसौ कमलोद्भवेन
भुवं समासाद्य पतिः प्रजानाम् ।
ददर्श ह्रस्वान‍् पुरुषान् विरूपा-
नल्पौजसस्स्वल्पविवेकवीर्यान्॥ ९३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीपराशरजी बोले—भगवान‍् ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर प्रजापति रैवत पृथिवीतलपर आये तो देखा कि सभी मनुष्य छोटे-छोटे, कुरूप, अल्पतेजोमय, अल्पवीर्य तथा विवेकहीन हो गये हैं॥ ९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशस्थलीं तां च पुरीमुपेत्य
दृष्ट्वान‍्यरूपां प्रददौ स कन्याम् ।
सीरायुधाय स्फटिकाचलाभ-
वक्षःस्थलायातुलधीर्नरेन्द्रः॥ ९४॥

मूलम्

कुशस्थलीं तां च पुरीमुपेत्य
दृष्ट्वान‍्यरूपां प्रददौ स कन्याम् ।
सीरायुधाय स्फटिकाचलाभ-
वक्षःस्थलायातुलधीर्नरेन्द्रः॥ ९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतुलबुद्धि महाराज रैवतने अपनी कुशस्थली नामकी पुरी और ही प्रकारकी देखी तथा स्फटिक-पर्वतके समान जिनका वक्षःस्थल है उन भगवान‍् हलायुधको अपनी कन्या दे दी॥ ९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्चप्रमाणामिति तामवेक्ष्य
स्वलाङ्गलाग्रेण च तालकेतुः ।
विनम्रयामास ततश्च सापि
बभूव सद्यो वनिता यथान्या॥ ९५॥

मूलम्

उच्चप्रमाणामिति तामवेक्ष्य
स्वलाङ्गलाग्रेण च तालकेतुः ।
विनम्रयामास ततश्च सापि
बभूव सद्यो वनिता यथान्या॥ ९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍् बलदेवजीने उसे बहुत ऊँची देखकर अपने हलके अग्रभागसे दबाकर नीची कर ली । तब रेवती भी तत्कालीन अन्य स्त्रियोंके समान (छोटे शरीरकी) हो गयी॥ ९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां रेवतीं रैवतभूपकन्यां
सीरायुधोऽसौ विधिनोपयेमे ।
दत्त्वाथ कन्यां स नृपो जगाम
हिमालयं वै तपसे धृतात्मा॥ ९६॥

मूलम्

तां रेवतीं रैवतभूपकन्यां
सीरायुधोऽसौ विधिनोपयेमे ।
दत्त्वाथ कन्यां स नृपो जगाम
हिमालयं वै तपसे धृतात्मा॥ ९६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बलरामजीने महाराज रैवतकी कन्या रेवतीसे विधिपूर्वक विवाह किया तथा राजा भी कन्यादान करनेके अनन्तर एकाग्रचित्तसे तपस्या करनेके लिये हिमालयपर चले गये॥ ९६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे प्रथमोऽध्यायः॥ १॥