[अठारहवाँ अध्याय]
विषय
मायामोह और असुरोंका संवाद तथा राजा शतधनुकी कथा
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्यभिरतान्सोऽथ मायामोहो महासुरान् ।
मैत्रेय ददृशे गत्वा नर्मदातीरसंश्रितान्॥ १॥
मूलम्
तपस्यभिरतान्सोऽथ मायामोहो महासुरान् ।
मैत्रेय ददृशे गत्वा नर्मदातीरसंश्रितान्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! तदनन्तर मायामोहने [देवताओंके साथ] जाकर देखा कि असुरगण नर्मदाके तटपर तपस्यामें लगे हुए हैं॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज ।
मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदं वचनमब्रवीत्॥ २॥
मूलम्
ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज ।
मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदं वचनमब्रवीत्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डितकेश मायामोहने असुरोंसे अति मधुर वाणीमें इस प्रकार कहा॥ २॥
मूलम् (वचनम्)
मायामोह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हे दैत्यपतयो ब्रूत यदर्थं तप्यते तपः ।
ऐहिकं वाथ पारत्र्यं तपसः फलमिच्छथ॥ ३॥
मूलम्
हे दैत्यपतयो ब्रूत यदर्थं तप्यते तपः ।
ऐहिकं वाथ पारत्र्यं तपसः फलमिच्छथ॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायामोह बोला—हे दैत्यपतिगण! कहिये, आपलोग किस उद्देश्यसे तपस्या कर रहे हैं, आपको किसी लौकिक फलकी इच्छा है या पारलौकिक की?॥ ३॥
मूलम् (वचनम्)
असुरा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारत्र्यफललाभाय तपश्चर्या महामते ।
अस्माभिरियमारब्धा किं वा तेऽत्र विवक्षितम्॥ ४॥
मूलम्
पारत्र्यफललाभाय तपश्चर्या महामते ।
अस्माभिरियमारब्धा किं वा तेऽत्र विवक्षितम्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
असुरगण बोले—हे महामते! हमलोगोंने पारलौकिक फलकी कामनासे तपस्या आरम्भ की है । इस विषयमें तुमको हमसे क्या कहना है?॥ ४॥
मूलम् (वचनम्)
मायामोह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ ।
अर्हध्वमेनं धर्मं च मुक्तिद्वारमसंवृतम्॥ ५॥
मूलम्
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ ।
अर्हध्वमेनं धर्मं च मुक्तिद्वारमसंवृतम्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायामोह बोला—यदि आपलोगोंको मुक्तिकी इच्छा है तो जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो । आपलोग मुक्तिके खुले द्वाररूप इस धर्मका आदर कीजिये॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो विमुक्तेरर्होऽयं नैतस्मादपरो वरः ।
अत्रैव संस्थिताः स्वर्गं विमुक्तिं वा गमिष्यथ॥ ६॥
अर्हध्वं धर्ममेतं च सर्वे यूयं महाबलाः॥ ७॥
मूलम्
धर्मो विमुक्तेरर्होऽयं नैतस्मादपरो वरः ।
अत्रैव संस्थिताः स्वर्गं विमुक्तिं वा गमिष्यथ॥ ६॥
अर्हध्वं धर्ममेतं च सर्वे यूयं महाबलाः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह धर्म मुक्तिमें परमोपयोगी है । इससे श्रेष्ठ अन्य कोई धर्म नहीं है । इसका अनुष्ठान करनेसे आपलोग स्वर्ग अथवा मुक्ति जिसकी कामना करेंगे प्राप्त कर लेंगे । आप सब लोग महाबलवान् हैं, अतः इस धर्मका आदर कीजिये॥ ६-७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंप्रकारैर्बहुभिर्युक्तिदर्शनचर्चितैः ।
मायामोहेन ते दैत्या वेदमार्गादपाकृताः॥ ८॥
मूलम्
एवंप्रकारैर्बहुभिर्युक्तिदर्शनचर्चितैः ।
मायामोहेन ते दैत्या वेदमार्गादपाकृताः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—इस प्रकार नाना प्रकारकी युक्तियोंसे अतिरंजित वाक्योंद्वारा मायामोहने दैत्यगणको वैदिक मार्गसे भ्रष्ट कर दिया॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मायैतदधर्माय सदेतन्न सदित्यपि ।
विमुक्तये त्विदं नैतद्विमुक्तिं सम्प्रयच्छति॥ ९॥
परमार्थोऽयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम् ।
कार्यमेतदकार्यं च नैतदेवं स्फुटं त्विदम्॥ १०॥
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोऽयं बहुवाससाम्॥ ११॥
इत्यनेकान्तवादं च मायामोहेन नैकधा ।
तेन दर्शयता दैत्यास्स्वधर्मं त्याजिता द्विज॥ १२॥
मूलम्
धर्मायैतदधर्माय सदेतन्न सदित्यपि ।
विमुक्तये त्विदं नैतद्विमुक्तिं सम्प्रयच्छति॥ ९॥
परमार्थोऽयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम् ।
कार्यमेतदकार्यं च नैतदेवं स्फुटं त्विदम्॥ १०॥
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोऽयं बहुवाससाम्॥ ११॥
इत्यनेकान्तवादं च मायामोहेन नैकधा ।
तेन दर्शयता दैत्यास्स्वधर्मं त्याजिता द्विज॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह धर्मयुक्त है और यह धर्मविरुद्ध है, यह सत् है और यह असत् है, यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती, यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है, यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है, यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है, यह दिगम्बरोंका धर्म है और यह साम्बरोंका धर्म है’—हे द्विज! ऐसे अनेक प्रकारके अनन्त वादोंको दिखलाकर मायामोहने उन दैत्योंको स्वधर्मसे च्युत कर दिया॥ ९—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्हतैतं महाधर्मं मायामोहेन ते यतः ।
प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेऽभवन्॥ १३॥
मूलम्
अर्हतैतं महाधर्मं मायामोहेन ते यतः ।
प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेऽभवन्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायामोहने दैत्योंसे कहा था कि आपलोग इस महाधर्मको ‘अर्हत’ अर्थात् इसका आदर कीजिये । अतः उस धर्मका अवलम्बन करनेसे वे ‘आर्हत’ कहलाये॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयीधर्मसमुत्सर्गं मायामोहेन तेऽसुराः ।
कारितास्तन्मयाह्यासंस्ततोऽन्येतत्प्रचोदिताः॥ १४॥
मूलम्
त्रयीधर्मसमुत्सर्गं मायामोहेन तेऽसुराः ।
कारितास्तन्मयाह्यासंस्ततोऽन्येतत्प्रचोदिताः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायामोहने असुरगणको त्रयीधर्मसे विमुख कर दिया और वे मोहग्रस्त हो गये; तथा पीछे उन्होंने अन्य दैत्योंको भी इसी धर्ममें प्रवृत्त किया॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैरप्यन्ये परे तैश्च तैरप्यन्ये परे च तैः ।
अल्पैरहोभिस्सन्त्यक्ता तैर्दैत्यैः प्रायशस्त्रयी॥ १५॥
मूलम्
तैरप्यन्ये परे तैश्च तैरप्यन्ये परे च तैः ।
अल्पैरहोभिस्सन्त्यक्ता तैर्दैत्यैः प्रायशस्त्रयी॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने दूसरे दैत्योंको, दूसरोंने तीसरोंको, तीसरोंने चौथोंको तथा उन्होंने औरोंको इसी धर्ममें प्रवृत्त किया । इस प्रकार थोड़े ही दिनोंमें दैत्यगणने वेदत्रयीका प्रायः त्याग कर दिया॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्च रक्ताम्बरधृङ् मायामोहो जितेन्द्रियः ।
अन्यानाहासुरान् गत्वा मृद्वल्पमधुराक्षरम्॥ १६॥
मूलम्
पुनश्च रक्ताम्बरधृङ् मायामोहो जितेन्द्रियः ।
अन्यानाहासुरान् गत्वा मृद्वल्पमधुराक्षरम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जितेन्द्रिय मायामोहने रक्तवस्त्र धारणकर अन्यान्य असुरोंके पास जा उनसे मृदु, अल्प और मधुर शब्दोंमें कहा—॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थमथासुराः ।
तदलं पशुघातादिदुष्टधर्मैर्निबोधत॥ १७॥
मूलम्
स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थमथासुराः ।
तदलं पशुघातादिदुष्टधर्मैर्निबोधत॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे असुरगण! यदि तुमलोगोंको स्वर्ग अथवा मोक्षकी इच्छा है तो पशुहिंसा आदि दुष्टकर्मोंको त्यागकर बोध प्राप्त करो॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छत ।
बुध्यध्वं मे वचः सम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्॥ १८॥
जगदेतदनाधारं भ्रान्तिज्ञानार्थतत्परम् ।
रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसंकटे॥ १९॥
मूलम्
विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छत ।
बुध्यध्वं मे वचः सम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्॥ १८॥
जगदेतदनाधारं भ्रान्तिज्ञानार्थतत्परम् ।
रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसंकटे॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सम्पूर्ण जगत् विज्ञानमय है—ऐसा जानो । मेरे वाक्योंपर पूर्णतया ध्यान दो । इस विषयमें बुधजनोंका ऐसा ही मत है कि यह संसार अनाधार है, भ्रमजन्य पदार्थोंकी प्रतीतिपर ही स्थिर है तथा रागादि दोषोंसे दूषित है । इस संसारसंकटमें जीव अत्यन्त भटकता रहा है’’॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बुध्यत बुध्यध्वं बुध्यतैवमितीरयन् ।
मायामोहः स दैतेयान्धर्ममत्याजयन्निजम्॥ २०॥
मूलम्
एवं बुध्यत बुध्यध्वं बुध्यतैवमितीरयन् ।
मायामोहः स दैतेयान्धर्ममत्याजयन्निजम्॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ‘बुध्यत (जानो), बुध्यध्वं (समझो), बुध्यत (जानो)’ आदि शब्दोंसे बुद्धधर्मका निर्देश कर मायामोहने दैत्योंसे उनका निजधर्म छुड़ा दिया॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाप्रकारवचनं स तेषां युक्तियोजितम् ।
तथा तथा त्रयीधर्मं तत्यजुस्ते यथा यथा॥ २१॥
मूलम्
नानाप्रकारवचनं स तेषां युक्तियोजितम् ।
तथा तथा त्रयीधर्मं तत्यजुस्ते यथा यथा॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मायामोहने ऐसे नाना प्रकारके युक्तियुक्त वाक्य कहे जिससे उन दैत्यगणने त्रयीधर्मको त्याग दिया॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽप्यन्येषां तथैवोचुरन्यैरन्ये तथोदिताः ।
मैत्रेय तत्यजुर्धर्मं वेदस्मृत्युदितं परम्॥ २२॥
मूलम्
तेऽप्यन्येषां तथैवोचुरन्यैरन्ये तथोदिताः ।
मैत्रेय तत्यजुर्धर्मं वेदस्मृत्युदितं परम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दैत्यगणने अन्य दैत्योंसे तथा उन्होंने अन्यान्यसे ऐसे ही वाक्य कहे । हे मैत्रेय! इस प्रकार उन्होंने श्रुतिस्मृतिविहित अपने परम धर्मको त्याग दिया॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यानप्यन्यपाषण्डप्रकारैर्बहुभिर्द्विज ।
दैतेयान्मोहयामास मायामोहोऽतिमोहकृत्॥ २३॥
मूलम्
अन्यानप्यन्यपाषण्डप्रकारैर्बहुभिर्द्विज ।
दैतेयान्मोहयामास मायामोहोऽतिमोहकृत्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! मोहकारी मायामोहने और भी अनेकानेक दैत्योंको भिन्न-भिन्न प्रकारके विविध पाखण्डोंसे मोहित कर दिया॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वल्पेनैव हि कालेन मायामोहेन तेऽसुराः ।
मोहितास्तत्यजुस्सर्वां त्रयीमार्गाश्रितां कथाम्॥ २४॥
मूलम्
स्वल्पेनैव हि कालेन मायामोहेन तेऽसुराः ।
मोहितास्तत्यजुस्सर्वां त्रयीमार्गाश्रितां कथाम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार थोड़े ही समयमें मायामोहके द्वारा मोहित होकर असुरगणने वैदिक धर्मकी बातचीत करना भी छोड़ दिया॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिद्विनिन्दां वेदानां देवानामपरे द्विज ।
यज्ञकर्मकलापस्य तथान्ये च द्विजन्मनाम्॥ २५॥
मूलम्
केचिद्विनिन्दां वेदानां देवानामपरे द्विज ।
यज्ञकर्मकलापस्य तथान्ये च द्विजन्मनाम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! उनमेंसे कोई वेदोंकी, कोई देवताओंकी, कोई याज्ञिक कर्म-कलापोंकी तथा कोई ब्राह्मणोंकी निन्दा करने लगे॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते ।
हवींष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम्॥ २६॥
मूलम्
नैतद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते ।
हवींष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
[वे कहने लगे—] ‘‘हिंसासे भी धर्म होता है—यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है । अग्निमें हवि जलानेसे फल होगा—यह भी बच्चोंकी-सी बात है॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते ।
शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः॥ २७॥
मूलम्
यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते ।
शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेकों यज्ञोंके द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्रको शमी आदि काष्ठका ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खानेवाला पशु ही अच्छा है॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते ।
स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते॥ २८॥
मूलम्
निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते ।
स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यज्ञमें बलि किये गये पशुको स्वर्गकी प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार डालता?॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः ।
कुर्याच्छ्राद्धं श्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः॥ २९॥
मूलम्
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः ।
कुर्याच्छ्राद्धं श्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि किसी अन्य पुरुषके भोजन करनेसे भी किसी पुरुषकी तृप्ति हो सकती है तो विदेशकी यात्राके समय खाद्यपदार्थ ले जानेका परिश्रम करनेकी क्या आवश्यकता है; पुत्रगण घरपर ही श्राद्ध कर दिया करें॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनश्रद्धेयमित्येतदवगम्य ततोऽत्र वः ।
उपेक्षा श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम्॥ ३०॥
मूलम्
जनश्रद्धेयमित्येतदवगम्य ततोऽत्र वः ।
उपेक्षा श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः यह समझकर कि ‘यह (श्राद्धादि कर्मकाण्ड) लोगोंकी अन्ध-श्रद्धा ही है’ इसके प्रति उपेक्षा करनी चाहिये और अपने श्रेयःसाधनके लिये जो कुछ मैंने कहा है उसमें रुचि करनी चाहिये॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्याप्तवादा नभसो निपतन्ति महासुराः ।
युक्तिमद्वचनं ग्राह्यं मयान्यैश्च भवद्विधैः॥ ३१॥
मूलम्
न ह्याप्तवादा नभसो निपतन्ति महासुराः ।
युक्तिमद्वचनं ग्राह्यं मयान्यैश्च भवद्विधैः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे असुरगण! श्रुति आदि आप्तवाक्य कुछ आकाशसे नहीं गिरा करते । हम, तुम और अन्य सबको भी युक्तियुक्त वाक्योंको ग्रहण कर लेना चाहिये’॥ ३१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायामोहेन ते दैत्याः प्रकारैर्बहुभिस्तथा ।
व्युत्थापिता यथा नैषां त्रयी कश्चिदरोचयत्॥ ३२॥
मूलम्
मायामोहेन ते दैत्याः प्रकारैर्बहुभिस्तथा ।
व्युत्थापिता यथा नैषां त्रयी कश्चिदरोचयत्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—इस प्रकार अनेक युक्तियोंसे मायामोहने दैत्योंको विचलित कर दिया जिससे उनमेंसे किसीकी भी वेदत्रयीमें रुचि नहीं रही॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थमुन्मार्गयातेषु तेषु दैत्येषु तेऽमराः ।
उद्योगं परमं कृत्वा युद्धाय समुपस्थिताः॥ ३३॥
मूलम्
इत्थमुन्मार्गयातेषु तेषु दैत्येषु तेऽमराः ।
उद्योगं परमं कृत्वा युद्धाय समुपस्थिताः॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार दैत्योंके विपरीत मार्गमें प्रवृत्त हो जानेपर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्धके लिये उपस्थित हुए॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दैवासुरं युद्धं पुनरेवाभवद् द्विज ।
हताश्च तेऽसुरा देवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः॥ ३४॥
मूलम्
ततो दैवासुरं युद्धं पुनरेवाभवद् द्विज ।
हताश्च तेऽसुरा देवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! तब देवता और असुरोंमें पुनः संग्राम छिड़ा । उसमें सन्मार्गविरोधी दैत्यगण देवताओंद्वारा मारे गये॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधर्मकवचं तेषामभूद्यत्प्रथमं द्विज ।
तेन रक्षाभवत्पूर्वं नेशुर्नष्टे च तत्र ते॥ ३५॥
मूलम्
स्वधर्मकवचं तेषामभूद्यत्प्रथमं द्विज ।
तेन रक्षाभवत्पूर्वं नेशुर्नष्टे च तत्र ते॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! पहले दैत्योंके पास जो स्वधर्मरूप कवच था उसीसे उनकी रक्षा हुई थी । अबकी बार उसके नष्ट हो जानेसे वे भी नष्ट हो गये॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मैत्रेय तन्मार्गवर्तिनो येऽभवञ्जनाः ।
नग्नास्ते तैर्यतस्त्यक्तं त्रयीसंवरणं तथा॥ ३६॥
मूलम्
ततो मैत्रेय तन्मार्गवर्तिनो येऽभवञ्जनाः ।
नग्नास्ते तैर्यतस्त्यक्तं त्रयीसंवरणं तथा॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! उस समयसे जो लोग मायामोहद्वारा प्रवर्तित मार्गका अवलम्बन करनेवाले हुए; वे ‘नग्न’ कहलाये क्योंकि उन्होंने वेदत्रयीरूप वस्त्रको त्याग दिया था॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थस्तथाश्रमी ।
परिव्राड् वा चतुर्थोऽत्र पञ्चमो नोपपद्यते॥ ३७॥
मूलम्
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थस्तथाश्रमी ।
परिव्राड् वा चतुर्थोऽत्र पञ्चमो नोपपद्यते॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—ये चार ही आश्रमी हैं । इनके अतिरिक्त पाँचवाँ आश्रमी और कोई नहीं है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु सन्त्यज्य गार्हस्थ्यं वानप्रस्थो न जायते ।
परिव्राट् चापि मैत्रेय स नग्नः पापकृन्नरः॥ ३८॥
मूलम्
यस्तु सन्त्यज्य गार्हस्थ्यं वानप्रस्थो न जायते ।
परिव्राट् चापि मैत्रेय स नग्नः पापकृन्नरः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! जो पुरुष गृहस्थाश्रमको छोड़नेके अनन्तर वानप्रस्थ या संन्यासी नहीं होता वह पापी भी नग्न ही है॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यानां कर्मणां विप्र तस्य हानिरहर्निशम् ।
अकुर्वन्विहितं कर्म शक्तः पतति तद्दिने॥ ३९॥
मूलम्
नित्यानां कर्मणां विप्र तस्य हानिरहर्निशम् ।
अकुर्वन्विहितं कर्म शक्तः पतति तद्दिने॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विप्र! सामर्थ्य रहते हुए भी जो विहित कर्म नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाता है और उस एक दिन-रातमें ही उसके सम्पूर्ण नित्यकर्मोंका क्षय हो जाता है॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायश्चित्तेन महता शुद्धिमाप्नोत्यनापदि ।
पक्षं नित्यक्रियाहानेः कर्त्ता मैत्रेय मानवः॥ ४०॥
मूलम्
प्रायश्चित्तेन महता शुद्धिमाप्नोत्यनापदि ।
पक्षं नित्यक्रियाहानेः कर्त्ता मैत्रेय मानवः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! आपत्तिकालको छोड़कर और किसी समय एक पक्षतक नित्यकर्मका त्याग करनेवाला पुरुष महान् प्रायश्चित्तसे ही शुद्ध हो सकता है॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरं क्रियाहानिर्यस्य पुंसोऽभिजायते ।
तस्यावलोकनात्सूर्यो निरीक्ष्यस्साधुभिस्सदा॥ ४१॥
मूलम्
संवत्सरं क्रियाहानिर्यस्य पुंसोऽभिजायते ।
तस्यावलोकनात्सूर्यो निरीक्ष्यस्साधुभिस्सदा॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष एक वर्षतक नित्य-क्रिया नहीं करता उसपर दृष्टि पड़ जानेसे साधु पुरुषको सदा सूर्यका दर्शन करना चाहिये॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पृष्टे स्नानं सचैलस्य शुद्धेर्हेतुर्महामते ।
पुंसो भवति तस्योक्ता न शुद्धिः पापकर्मणः॥ ४२॥
मूलम्
स्पृष्टे स्नानं सचैलस्य शुद्धेर्हेतुर्महामते ।
पुंसो भवति तस्योक्ता न शुद्धिः पापकर्मणः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महामते! ऐसे पुरुषका स्पर्श होनेपर वस्रसहित स्नान करनेसे शुद्धि हो सकती है और उस पापात्माकी शुद्धि तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवर्षिपितृभूतानि यस्य निःश्वस्य वेश्मनि ।
प्रयान्त्यनर्चितान्यत्र लोके तस्मान्न पापकृत्॥ ४३॥
मूलम्
देवर्षिपितृभूतानि यस्य निःश्वस्य वेश्मनि ।
प्रयान्त्यनर्चितान्यत्र लोके तस्मान्न पापकृत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस मनुष्यके घरसे देवगण, ऋषिगण, पितृगण और भूतगण बिना पूजित हुए निःश्वास छोड़ते अन्यत्र चले जाते हैं, लोकमें उससे बढ़कर और कोई पापी नहीं है॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भाषणानुप्रश्नादि सहास्यां चैव कुर्वतः ।
जायते तुल्यता तस्य तेनैव द्विज वत्सरात्॥ ४४॥
मूलम्
सम्भाषणानुप्रश्नादि सहास्यां चैव कुर्वतः ।
जायते तुल्यता तस्य तेनैव द्विज वत्सरात्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! ऐसे पुरुषके साथ एक वर्षतक सम्भाषण, कुशलप्रश्न और उठने-बैठनेसे मनुष्य उसीके समान पापात्मा हो जाता है॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवादिनिःश्वासहतं शरीरं यस्य वेश्म च ।
न तेन संकरं कुर्याद् गृहासनपरिच्छदैः॥ ४५॥
मूलम्
देवादिनिःश्वासहतं शरीरं यस्य वेश्म च ।
न तेन संकरं कुर्याद् गृहासनपरिच्छदैः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका शरीर अथवा गृह देवता आदिके निःश्वाससे निहत है उसके साथ अपने गृह, आसन और वस्त्र आदिको न मिलावे॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ भुङ्क्ते गृहे तस्य करोत्यास्यां तथासने ।
शेते चाप्येकशयने स सद्यस्तत्समो भवेत्॥ ४६॥
मूलम्
अथ भुङ्क्ते गृहे तस्य करोत्यास्यां तथासने ।
शेते चाप्येकशयने स सद्यस्तत्समो भवेत्॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष उसके घरमें भोजन करता है, उसका आसन ग्रहण करता है अथवा उसके साथ एक ही शय्यापर शयन करता है वह शीघ्र ही उसीके समान हो जाता है॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतापितृभूतानि तथानभ्यर्च्य योऽतिथीन् ।
भुङ्क्ते स पातकं भुङ्क्ते निष्कृतिस्तस्य नेष्यते॥ ४७॥
मूलम्
देवतापितृभूतानि तथानभ्यर्च्य योऽतिथीन् ।
भुङ्क्ते स पातकं भुङ्क्ते निष्कृतिस्तस्य नेष्यते॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य देवता, पितर, भूतगण और अतिथियोंका पूजन किये बिना स्वयं भोजन करता है वह पापमय भोजन करता है; उसकी शुभ गति नहीं हो सकती॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाद्यास्तु ये वर्णास्स्वधर्मादन्यतोमुखाः ।
यान्ति ते नग्नसंज्ञां तु हीनकर्मस्ववस्थिताः॥ ४८॥
मूलम्
ब्राह्मणाद्यास्तु ये वर्णास्स्वधर्मादन्यतोमुखाः ।
यान्ति ते नग्नसंज्ञां तु हीनकर्मस्ववस्थिताः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मणादि वर्ण स्वधर्मको छोड़कर परधर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं अथवा हीनवृत्तिका अवलम्बन करते हैं वे ‘नग्न’ कहलाते हैं॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्णां यत्र वर्णानां मैत्रेयात्यन्तसंकरः ।
तत्रास्या साधुवृत्तीनामुपघाताय जायते॥ ४९॥
मूलम्
चतुर्णां यत्र वर्णानां मैत्रेयात्यन्तसंकरः ।
तत्रास्या साधुवृत्तीनामुपघाताय जायते॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! जिस स्थानमें चारों वर्णोंका अत्यन्त मिश्रण हो उसमें रहनेसे पुरुषकी साधुवृत्तियोंका क्षय हो जाता है॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनभ्यर्च्य ऋषीन्देवान्पितृभूतातिथींस्तथा ।
यो भुङ्क्ते तस्य सल्ँलापात्पतन्ति नरके नराः॥ ५०॥
मूलम्
अनभ्यर्च्य ऋषीन्देवान्पितृभूतातिथींस्तथा ।
यो भुङ्क्ते तस्य सल्ँलापात्पतन्ति नरके नराः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष ऋषि, देव, पितृ, भूत और अतिथिगणका पूजन किये बिना भोजन करता है उससे सम्भाषण करनेसे भी लोग नरकमें पड़ते हैं॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादेतान्नरो नग्नांस्त्रयीसन्त्यागदूषितान् ।
सर्वदा वर्जयेत्प्राज्ञ आलापस्पर्शनादिषु॥ ५१॥
मूलम्
तस्मादेतान्नरो नग्नांस्त्रयीसन्त्यागदूषितान् ।
सर्वदा वर्जयेत्प्राज्ञ आलापस्पर्शनादिषु॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वेदत्रयीके त्यागसे दूषित इन नग्नोंके साथ प्राज्ञपुरुष सर्वदा सम्भाषण और स्पर्श आदिका भी त्याग कर दे॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धावद्भिः कृतं यत्नाद्देवान्पितृपितामहान् ।
न प्रीणयति तच्छ्राद्धं यद्येभिरवलोकितम्॥ ५२॥
मूलम्
श्रद्धावद्भिः कृतं यत्नाद्देवान्पितृपितामहान् ।
न प्रीणयति तच्छ्राद्धं यद्येभिरवलोकितम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि इनकी दृष्टि पड़ जाय तो श्रद्धावान् पुरुषोंका यत्नपूर्वक किया हुआ श्राद्ध देवता अथवा पितृ-पितामहगणकी तृप्ति नहीं करता॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते च पुरा ख्यातो राजा शतधनुर्भुवि ।
पत्नी च शैव्या तस्याभूदतिधर्मपरायणा॥ ५३॥
मूलम्
श्रूयते च पुरा ख्यातो राजा शतधनुर्भुवि ।
पत्नी च शैव्या तस्याभूदतिधर्मपरायणा॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुना जाता है, पूर्वकालमें पृथिवीतलपर शतधनु नामसे विख्यात एक राजा था । उसकी पत्नी शैव्या अत्यन्त धर्मपरायणा थी॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिव्रता महाभागा सत्यशौचदयान्विता ।
सर्वलक्षणसम्पन्ना विनयेन नयेन च॥ ५४॥
मूलम्
पतिव्रता महाभागा सत्यशौचदयान्विता ।
सर्वलक्षणसम्पन्ना विनयेन नयेन च॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह महाभागा पतिव्रता, सत्य, शौच और दयासे युक्त तथा विनय और नीति आदि सम्पूर्ण सुलक्षणोंसे सम्पन्ना थी॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु राजा तया सार्द्धं देवदेवं जनार्दनम् ।
आराधयामास विभुं परमेण समाधिना॥ ५५॥
मूलम्
स तु राजा तया सार्द्धं देवदेवं जनार्दनम् ।
आराधयामास विभुं परमेण समाधिना॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महारानीके साथ राजा शतधनुने परम समाधिद्वारा सर्वव्यापक, देवदेव श्रीजनार्दनकी आराधना की॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होमैर्जपैस्तथा दानैरुपवासैश्च भक्तितः ।
पूजाभिश्चानुदिवसं तन्मना नान्यमानसः॥ ५६॥
मूलम्
होमैर्जपैस्तथा दानैरुपवासैश्च भक्तितः ।
पूजाभिश्चानुदिवसं तन्मना नान्यमानसः॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे प्रतिदिन तन्मय होकर अनन्यभावसे होम, जप, दान, उपवास और पूजन आदिद्वारा भगवान्की भक्तिपूर्वक आराधना करने लगे॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा तु समं स्नातौ तौ तु भार्यापती जले ।
भागीरथ्यास्समुत्तीर्णौ कार्त्तिक्यां समुपोषितौ ।
पाषण्डिनमपश्येतामायान्तं सम्मुखं द्विज॥ ५७॥
मूलम्
एकदा तु समं स्नातौ तौ तु भार्यापती जले ।
भागीरथ्यास्समुत्तीर्णौ कार्त्तिक्यां समुपोषितौ ।
पाषण्डिनमपश्येतामायान्तं सम्मुखं द्विज॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! एक दिन कार्तिकी पूर्णिमाको उपवास कर उन दोनों पति-पत्नियोंने श्रीगंगाजीमें एक साथ ही स्नान करनेके अनन्तर बाहर आनेपर एक पाखण्डीको सामने आता देखा॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चापाचार्यस्य तस्यासौ सखा राज्ञो महात्मनः ।
अतस्तद्गौरवात्तेन सखाभावमथाकरोत्॥ ५८॥
मूलम्
चापाचार्यस्य तस्यासौ सखा राज्ञो महात्मनः ।
अतस्तद्गौरवात्तेन सखाभावमथाकरोत्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह ब्राह्मण उस महात्मा राजाके धनुर्वेदाचार्यका मित्र था; अतः आचार्यके गौरववश राजाने भी उससे मित्रवत् व्यवहार किया॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु सा वाग्यता देवी तस्य पत्नी पतिव्रता ।
उपोषितास्मीति रविं तस्मिन्दृष्टे ददर्श च॥ ५९॥
मूलम्
न तु सा वाग्यता देवी तस्य पत्नी पतिव्रता ।
उपोषितास्मीति रविं तस्मिन्दृष्टे ददर्श च॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु उसकी पतिव्रता पत्नीने उसका कुछ भी आदर नहीं किया; वह मौन रही और यह सोचकर कि मैं उपोषिता (उपवासयुक्त) हूँ उसे देखकर सूर्यका दर्शन किया॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समागम्य यथान्यायं दम्पती तौ यथाविधि ।
विष्णोः पूजादिकं सर्वं कृतवन्तौ द्विजोत्तम॥ ६०॥
मूलम्
समागम्य यथान्यायं दम्पती तौ यथाविधि ।
विष्णोः पूजादिकं सर्वं कृतवन्तौ द्विजोत्तम॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजोत्तम! फिर उन स्त्री-पुरुषोंने यथारीति आकर भगवान् विष्णुके पूजा आदिक सम्पूर्ण कर्म विधिपूर्वक किये॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेन गच्छता राजा ममारासौ सपत्नजित् ।
अन्वारुरोह तं देवी चितास्थं भूपतिं पतिम्॥ ६१॥
मूलम्
कालेन गच्छता राजा ममारासौ सपत्नजित् ।
अन्वारुरोह तं देवी चितास्थं भूपतिं पतिम्॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालान्तरमें वह शत्रुजित् राजा मर गया । तब देवी शैव्याने भी चितारूढ़ महाराजका अनुगमन किया॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु तेनापचारेण श्वा जज्ञे वसुधाधिपः ।
उपोषितेन पाषण्डसल्ँलापो यत्कृतोऽभवत्॥ ६२॥
मूलम्
स तु तेनापचारेण श्वा जज्ञे वसुधाधिपः ।
उपोषितेन पाषण्डसल्ँलापो यत्कृतोऽभवत्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा शतधनुने उपवास-अवस्थामें पाखण्डीसे वार्तालाप किया था । अतः उस पापके कारण उसने कुत्तेका जन्म लिया॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तु जातिस्मरा जज्ञे काशीराजसुता शुभा ।
सर्वविज्ञानसम्पूर्णा सर्वलक्षणपूजिता॥ ६३॥
मूलम्
सा तु जातिस्मरा जज्ञे काशीराजसुता शुभा ।
सर्वविज्ञानसम्पूर्णा सर्वलक्षणपूजिता॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा वह शुभलक्षणा काशीनरेशकी कन्या हुई, जो सब प्रकारके विज्ञानसे युक्त, सर्वलक्षणसम्पन्ना और जातिस्मरा (पूर्वजन्मका वृत्तान्त जाननेवाली) थी॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां पिता दातुकामोऽभूद्वराय विनिवारितः ।
तयैव तन्व्या विरतो विवाहारम्भतो नृपः॥ ६४॥
मूलम्
तां पिता दातुकामोऽभूद्वराय विनिवारितः ।
तयैव तन्व्या विरतो विवाहारम्भतो नृपः॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने उसे किसी वरको देनेकी इच्छा की, किन्तु उस सुन्दरीके ही रोक देनेपर वह उसके विवाहादिसे उपरत हो गये॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्सा दिव्यया दृष्ट्या दृष्ट्वा श्वानं निजं पतिम् ।
विदिशाख्यं पुरं गत्वा तदवस्थं ददर्श तम्॥ ६५॥
मूलम्
ततस्सा दिव्यया दृष्ट्या दृष्ट्वा श्वानं निजं पतिम् ।
विदिशाख्यं पुरं गत्वा तदवस्थं ददर्श तम्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसने दिव्य दृष्टिसे अपने पतिको श्वान हुआ जान विदिशा नामक नगरमें जाकर उसे वहाँ कुत्तेकी अवस्थामें देखा॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वैव महाभागं श्वभूतं तु पतिं तदा ।
ददौ तस्मै वराहारं सत्कारप्रवणं शुभा॥ ६६॥
मूलम्
तं दृष्ट्वैव महाभागं श्वभूतं तु पतिं तदा ।
ददौ तस्मै वराहारं सत्कारप्रवणं शुभा॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने महाभाग पतिको श्वानरूपमें देखकर उस सुन्दरीने उसे सत्कारपूर्वक अति उत्तम भोजन कराया॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुञ्जन्दत्तं तया सोऽन्नमतिमृष्टमभीप्सितम् ।
स्वजातिललितं कुर्वन्बहु चाटु चकार वै॥ ६७॥
मूलम्
भुञ्जन्दत्तं तया सोऽन्नमतिमृष्टमभीप्सितम् ।
स्वजातिललितं कुर्वन्बहु चाटु चकार वै॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके दिये हुए उस अति मधुर और इच्छित अन्नको खाकर वह अपनी जातिके अनुकूल नाना प्रकारकी चाटुता प्रदर्शित करने लगा॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव व्रीडिता बाला कुर्वता चाटु तेन सा ।
प्रणामपूर्वमाहेदं दयितं तं कुयोनिजम्॥ ६८॥
मूलम्
अतीव व्रीडिता बाला कुर्वता चाटु तेन सा ।
प्रणामपूर्वमाहेदं दयितं तं कुयोनिजम्॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके चाटुता करनेसे अत्यन्त संकुचित हो उस बालिकाने कुत्सित योनिमें उत्पन्न हुए उस अपने प्रियतमको प्रणाम कर उससे इस प्रकार कहा—॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मर्यतां तन्महाराज दाक्षिण्यललितं त्वया ।
येन श्वयोनिमापन्नो मम चाटुकरो भवान्॥ ६९॥
मूलम्
स्मर्यतां तन्महाराज दाक्षिण्यललितं त्वया ।
येन श्वयोनिमापन्नो मम चाटुकरो भवान्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘महाराज! आप अपनी उस उदारताका स्मरण कीजिये जिसके कारण आज आप श्वान-योनिको प्राप्त होकर मेरे चाटुकार हुए हैं॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाषण्डिनं समाभाष्य तीर्थस्नानादनन्तरम् ।
प्राप्तोऽसि कुत्सितां योनिं किन्न स्मरसि तत्प्रभो॥ ७०॥
मूलम्
पाषण्डिनं समाभाष्य तीर्थस्नानादनन्तरम् ।
प्राप्तोऽसि कुत्सितां योनिं किन्न स्मरसि तत्प्रभो॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! क्या आपको यह स्मरण नहीं है कि तीर्थस्नानके अनन्तर पाखण्डीसे वार्तालाप करनेके कारण ही आपको यह कुत्सित योनि मिली है?’’॥ ७०॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयैवं स्मारिते तस्मिन्पूर्वजातिकृते तदा ।
दध्यौ चिरमथावाप निर्वेदमतिदुर्लभम्॥ ७१॥
मूलम्
तयैवं स्मारिते तस्मिन्पूर्वजातिकृते तदा ।
दध्यौ चिरमथावाप निर्वेदमतिदुर्लभम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—काशिराजसुताद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर उसने बहुत देरतक अपने पूर्वजन्मका चिन्तन किया । तब उसे अति दुर्लभ निर्वेद प्राप्त हुआ॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्विण्णचित्तस्स ततो निर्गम्य नगराद्बहिः ।
मरुत्प्रपतनं कृत्वा शार्गालीं योनिमागतः॥ ७२॥
मूलम्
निर्विण्णचित्तस्स ततो निर्गम्य नगराद्बहिः ।
मरुत्प्रपतनं कृत्वा शार्गालीं योनिमागतः॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अति उदास चित्तसे नगरके बाहर आ प्राण त्याग दिये और फिर शृगाल-योनिमें जन्म लिया॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापि द्वितीये सम्प्राप्ते वीक्ष्य दिव्येन चक्षुषा ।
ज्ञात्वा शृगालं तं द्रष्टुं ययौ कोलाहलं गिरिम्॥ ७३॥
मूलम्
सापि द्वितीये सम्प्राप्ते वीक्ष्य दिव्येन चक्षुषा ।
ज्ञात्वा शृगालं तं द्रष्टुं ययौ कोलाहलं गिरिम्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब काशिराजकन्या दिव्य दृष्टिसे उसे दूसरे जन्ममें शृगाल हुआ जान उसे देखनेके लिये कोलाहल पर्वतपर गयी॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापि दृष्ट्वा तं प्राह शार्गालीं योनिमागतम् ।
भर्त्तारमपि चार्वंगी तनया पृथिवीक्षितः॥ ७४॥
मूलम्
तत्रापि दृष्ट्वा तं प्राह शार्गालीं योनिमागतम् ।
भर्त्तारमपि चार्वंगी तनया पृथिवीक्षितः॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भी अपने पतिको शृगाल-योनिमें उत्पन्न हुआ देख वह सुन्दरी राजकन्या उससे बोली—॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि स्मरसि राजेन्द्र श्वयोनिस्थस्य यन्मया ।
प्रोक्तं ते पूर्वचरितं पाषण्डालापसंश्रयम्॥ ७५॥
मूलम्
अपि स्मरसि राजेन्द्र श्वयोनिस्थस्य यन्मया ।
प्रोक्तं ते पूर्वचरितं पाषण्डालापसंश्रयम्॥ ७५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राजेन्द्र! श्वान-योनिमें जन्म लेनेपर मैंने आपसे जो पाखण्डीसे वार्तालापविषयक पूर्वजन्मका वृत्तान्त कहा था क्या वह आपको स्मरण है?’’॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनस्तयोक्तं स ज्ञात्वा सत्यं सत्यवतां वरः ।
कानने स निराहारस्तत्याज स्वं कलेवरम्॥ ७६॥
मूलम्
पुनस्तयोक्तं स ज्ञात्वा सत्यं सत्यवतां वरः ।
कानने स निराहारस्तत्याज स्वं कलेवरम्॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सत्यनिष्ठोंमें श्रेष्ठ राजा शतधनुने उसके इस प्रकार कहनेपर सारा सत्य वृत्तान्त जानकर निराहार रह वनमें अपना शरीर छोड़ दिया॥ ७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयस्ततो वृको जज्ञे गत्वा तं निर्जने वने ।
स्मारयामास भर्त्तारं पूर्ववृत्तमनिन्दिता॥ ७७॥
मूलम्
भूयस्ततो वृको जज्ञे गत्वा तं निर्जने वने ।
स्मारयामास भर्त्तारं पूर्ववृत्तमनिन्दिता॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह एक भेड़िया हुआ; उस समय भी अनिन्दिता राजकन्याने उस निर्जन वनमें जाकर अपने पतिको उसके पूर्वजन्मका वृत्तान्त स्मरण कराया॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वं वृको महाभाग राजा शतधनुर्भवान् ।
श्वा भूत्वा त्वं शृगालोऽभूर्वृकत्वं साम्प्रतं गतः॥ ७८॥
मूलम्
न त्वं वृको महाभाग राजा शतधनुर्भवान् ।
श्वा भूत्वा त्वं शृगालोऽभूर्वृकत्वं साम्प्रतं गतः॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
[उसने कहा—] ‘‘हे महाभाग! तुम भेड़िया नहीं हो, तुम राजा शतधनु हो । तुम [अपने पूर्वजन्मोंमें] क्रमशः कुक्कुर और शृगाल होकर अब भेड़िया हुए हो’’॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मारितेन यदा त्यक्तस्तेनात्मा गृध्रतां गतः ।
अपापा सा पुनश्चैनं बोधयामास भामिनी॥ ७९॥
मूलम्
स्मारितेन यदा त्यक्तस्तेनात्मा गृध्रतां गतः ।
अपापा सा पुनश्चैनं बोधयामास भामिनी॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उसके स्मरण करानेपर राजाने जब भेड़ियेके शरीरको छोड़ा तो गृध्र-योनिमें जन्म लिया । उस समय भी उसकी निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरेन्द्र स्मर्यतामात्मा ह्यलं ते गृध्रचेष्टया ।
पाषण्डालापजातोऽयं दोषो यद्गृध्रतां गतः॥ ८०॥
मूलम्
नरेन्द्र स्मर्यतामात्मा ह्यलं ते गृध्रचेष्टया ।
पाषण्डालापजातोऽयं दोषो यद्गृध्रतां गतः॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे नरेन्द्र! तुम अपने स्वरूपका स्मरण करो; इन गृध्र-चेष्टाओंको छोड़ो । पाखण्डीके साथ वार्तालाप करनेके दोषसे ही तुम गृध्र हुए हो’॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः काकत्वमापन्नं समनन्तरजन्मनि ।
उवाच तन्वी भर्त्तारमुपलभ्यात्मयोगतः॥ ८१॥
मूलम्
ततः काकत्वमापन्नं समनन्तरजन्मनि ।
उवाच तन्वी भर्त्तारमुपलभ्यात्मयोगतः॥ ८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर दूसरे जन्ममें काक-योनिको प्राप्त होनेपर भी अपने पतिको योगबलसे पाकर उस सुन्दरीने कहा—॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशेषभूभृतः पूर्वं वश्या यस्मै बलिं ददुः ।
स त्वं काकत्वमापन्नो जातोऽद्य बलिभुक् प्रभो॥ ८२॥
मूलम्
अशेषभूभृतः पूर्वं वश्या यस्मै बलिं ददुः ।
स त्वं काकत्वमापन्नो जातोऽद्य बलिभुक् प्रभो॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे प्रभो! जिनके वशीभूत होकर सम्पूर्ण सामन्तगण नाना प्रकारकी वस्तुएँ भेंट करते थे वही आप आज काक-योनिको प्राप्त होकर बलिभोजी हुए हैं’’॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव च काकत्वे स्मारितस्य पुरातनम् ।
तत्याज भूपतिः प्राणान्मयूरत्वमवाप च॥ ८३॥
मूलम्
एवमेव च काकत्वे स्मारितस्य पुरातनम् ।
तत्याज भूपतिः प्राणान्मयूरत्वमवाप च॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार काक-योनिमें भी पूर्वजन्मका स्मरण कराये जानेपर राजाने अपने प्राण छोड़ दिये और फिर मयूर-योनिमें जन्म लिया॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयूरत्वे ततस्सा वै चकारानुगतिं शुभा ।
दत्तैः प्रतिक्षणं भोज्यैर्बाला तज्जातिभोजनैः॥ ८४॥
मूलम्
मयूरत्वे ततस्सा वै चकारानुगतिं शुभा ।
दत्तैः प्रतिक्षणं भोज्यैर्बाला तज्जातिभोजनैः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मयूरावस्थामें भी काशिराजकी कन्या उसे क्षण-क्षणमें अति सुन्दर मयूरोचित आहार देती हुई उसकी टहल करने लगी॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु जनको राजा वाजिमेधं महाक्रतुम् ।
चकार तस्यावभृथे स्नापयामास तं तदा॥ ८५॥
मूलम्
ततस्तु जनको राजा वाजिमेधं महाक्रतुम् ।
चकार तस्यावभृथे स्नापयामास तं तदा॥ ८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राजा जनकने अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान किया; उस यज्ञमें अवभृथ-स्नानके समय उस मयूरको स्नान कराया॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सस्नौ स्वयं च तन्वङ्गी स्मारयामास चापि तम् ।
यथासौ श्वशृगालादियोनिं जग्राह पार्थिवः॥ ८६॥
मूलम्
सस्नौ स्वयं च तन्वङ्गी स्मारयामास चापि तम् ।
यथासौ श्वशृगालादियोनिं जग्राह पार्थिवः॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस सुन्दरीने स्वयं भी स्नान कर राजाको यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान और शृगाल आदि योनियाँ ग्रहण की थीं॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मृतजन्मक्रमस्सोऽथ तत्याज स्वकलेवरम् ।
जज्ञे स जनकस्यैव पुत्रोऽसौ सुमहात्मनः॥ ८७॥
मूलम्
स्मृतजन्मक्रमस्सोऽथ तत्याज स्वकलेवरम् ।
जज्ञे स जनकस्यैव पुत्रोऽसौ सुमहात्मनः॥ ८७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी जन्म-परम्पराका स्मरण होनेपर उसने अपना शरीर त्याग दिया और फिर महात्मा जनकजीके यहाँ ही पुत्ररूपसे जन्म लिया॥ ८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्सा पितरं तन्वी विवाहार्थमचोदयत् ।
स चापि कारयामास तस्या राजा स्वयंवरम्॥ ८८॥
मूलम्
ततस्सा पितरं तन्वी विवाहार्थमचोदयत् ।
स चापि कारयामास तस्या राजा स्वयंवरम्॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस सुन्दरीने अपने पिताको विवाहके लिये प्रेरित किया । उसकी प्रेरणासे राजाने उसके स्वयंवरका आयोजन किया॥ ८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयंवरे कृते सा तं सम्प्राप्तं पतिमात्मनः ।
वरयामास भूयोऽपि भर्त्तृभावेन भामिनी॥ ८९॥
मूलम्
स्वयंवरे कृते सा तं सम्प्राप्तं पतिमात्मनः ।
वरयामास भूयोऽपि भर्त्तृभावेन भामिनी॥ ८९॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयंवर होनेपर उस राजकन्याने स्वयंवरमें आये हुए अपने उस पतिको फिर पतिभावसे वरण कर लिया॥ ८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुभुजे च तया सार्द्धं सम्भोगान्नृपनन्दनः ।
पितर्युपरते राज्यं विदेहेषु चकार सः॥ ९०॥
मूलम्
बुभुजे च तया सार्द्धं सम्भोगान्नृपनन्दनः ।
पितर्युपरते राज्यं विदेहेषु चकार सः॥ ९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राजकुमारने काशिराजसुताके साथ नाना प्रकारके भोग भोगे और फिर पिताके परलोकवासी होनेपर विदेहनगरका राज्य किया॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयाज यज्ञान्सुबहून्ददौ दानानि चार्थिनाम् ।
पुत्रानुत्पादयामास युयुधे च सहारिभिः॥ ९१॥
मूलम्
इयाज यज्ञान्सुबहून्ददौ दानानि चार्थिनाम् ।
पुत्रानुत्पादयामास युयुधे च सहारिभिः॥ ९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने बहुत-से यज्ञ किये, याचकोंको नाना प्रकारसे दान दिये, बहुत-से पुत्र उत्पन्न किये और शत्रुओंके साथ अनेकों युद्ध किये॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यं भुक्त्वा यथान्यायं पालयित्वा वसुन्धराम् ।
तत्याज स प्रियान्प्राणान्संग्रामे धर्मतो नृपः॥ ९२॥
मूलम्
राज्यं भुक्त्वा यथान्यायं पालयित्वा वसुन्धराम् ।
तत्याज स प्रियान्प्राणान्संग्रामे धर्मतो नृपः॥ ९२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस राजाने पृथिवीका न्यायानुकूल पालन करते हुए राज्य-भोग किया और अन्तमें अपने प्रिय प्राणोंको धर्मयुद्धमें छोड़ा॥ ९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चितास्थं तं भूयो भर्त्तारं सा शुभेक्षणा ।
अन्वारुरोह विधिवद्यथापूर्वं मुदान्विता॥ ९३॥
मूलम्
ततश्चितास्थं तं भूयो भर्त्तारं सा शुभेक्षणा ।
अन्वारुरोह विधिवद्यथापूर्वं मुदान्विता॥ ९३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस सुलोचनाने पहलेके समान फिर अपने चितारूढ पतिका विधिपूर्वक प्रसन्न-मनसे अनुगमन किया॥ ९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽवाप तया सार्द्धं राजपुत्र्या स पार्थिवः ।
ऐन्द्रानतीत्य वै लोकाल्ँलोकान्प्राप तदाक्षयान्॥ ९४॥
मूलम्
ततोऽवाप तया सार्द्धं राजपुत्र्या स पार्थिवः ।
ऐन्द्रानतीत्य वै लोकाल्ँलोकान्प्राप तदाक्षयान्॥ ९४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे वह राजा उस राजकन्याके सहित इन्द्रलोकसे भी उत्कृष्ट अक्षय लोकोंको प्राप्त हुआ॥ ९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गाक्षयत्वमतुलं दाम्पत्यमतिदुर्लभम् ।
प्राप्तं पुण्यफलं प्राप्य संशुद्धिं तां द्विजोत्तम॥ ९५॥
मूलम्
स्वर्गाक्षयत्वमतुलं दाम्पत्यमतिदुर्लभम् ।
प्राप्तं पुण्यफलं प्राप्य संशुद्धिं तां द्विजोत्तम॥ ९५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर उसने अतुलनीय अक्षय स्वर्ग, अति दुर्लभ दाम्पत्य और अपने पूर्वार्जित पुण्यका फल प्राप्त कर लिया॥ ९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पाषण्डसम्भाषाद्दोषः प्रोक्तो मया द्विज ।
तथाऽश्वमेधावभृथस्नानमाहात्म्यमेव च॥ ९६॥
मूलम्
एष पाषण्डसम्भाषाद्दोषः प्रोक्तो मया द्विज ।
तथाऽश्वमेधावभृथस्नानमाहात्म्यमेव च॥ ९६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! इस प्रकार मैंने तुमसे पाखण्डीसे सम्भाषण करनेका दोष और अश्वमेध-यज्ञमें स्नान करनेका माहात्म्य वर्णन कर दिया॥ ९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्पाषण्डिभिः पापैरालापस्पर्शनं त्यजेत् ।
विशेषतः क्रियाकाले यज्ञादौ चापि दीक्षितः॥ ९७॥
मूलम्
तस्मात्पाषण्डिभिः पापैरालापस्पर्शनं त्यजेत् ।
विशेषतः क्रियाकाले यज्ञादौ चापि दीक्षितः॥ ९७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये पाखण्डी और पापाचारियोंसे कभी वार्तालाप और स्पर्श न करे; विशेषतः नित्य-नैमित्तिक कर्मोंके समय और जो यज्ञादि क्रियाओंके लिये दीक्षित हो उसे तो उनका संसर्ग त्यागना अत्यन्त आवश्यक है॥ ९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियाहानिर्गृहे यस्य मासमेकं प्रजायते ।
तस्यावलोकनात्सूर्यं पश्येत मतिमान्नरः॥ ९८॥
मूलम्
क्रियाहानिर्गृहे यस्य मासमेकं प्रजायते ।
तस्यावलोकनात्सूर्यं पश्येत मतिमान्नरः॥ ९८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके घरमें एक मासतक नित्यकर्मोंका अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख लेनेपर बुद्धिमान् मनुष्य सूर्यका दर्शन करे॥ ९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं पुनर्यैस्तु सन्त्यक्ता त्रयी सर्वात्मना द्विज ।
पाषण्डभोजिभिः पापैर्वेदवादविरोधिभिः॥ ९९॥
मूलम्
किं पुनर्यैस्तु सन्त्यक्ता त्रयी सर्वात्मना द्विज ।
पाषण्डभोजिभिः पापैर्वेदवादविरोधिभिः॥ ९९॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर जिन्होंने वेदत्रयीका सर्वथा त्याग कर दिया है तथा जो पाखण्डियोंका अन्न खाते और वैदिक मतका विरोध करते हैं उन पापात्माओंके दर्शनादि करनेपर तो कहना ही क्या है?॥ ९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहालापस्तु संसर्गः सहास्या चातिपापिनी ।
पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तान्परिवर्जयेत्॥ १००॥
मूलम्
सहालापस्तु संसर्गः सहास्या चातिपापिनी ।
पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तान्परिवर्जयेत्॥ १००॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन दुराचारी पाखण्डियोंके साथ वार्तालाप करने, सम्पर्क रखने और उठने-बैठनेमें महान् पाप होता है; इसलिये इन सब बातोंका त्याग करे॥ १००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाषण्डिनो विकर्मस्थान्वैडालव्रतिकाञ्छठान् ।
हैतुकान्वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ १०१॥
मूलम्
पाषण्डिनो विकर्मस्थान्वैडालव्रतिकाञ्छठान् ।
हैतुकान्वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ १०१॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाखण्डी, विकर्मी, विडाल-व्रतवाले,* दुष्ट, स्वार्थी और बगुला-भक्त लोगोंका वाणीसे भी आदर न करे॥ १०१॥
पादटिप्पनी
- ‘प्रच्छन्नानि च पापानि वैडालं नाम तद्व्रतम्’
अर्थात् छिपे-छिपे पाप करना वैडाल नामक व्रत है । जो वैसा करते हैं ‘वे विडाल-व्रतवाले’ कहलाते हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरतस्तैस्तु सम्पर्कस्त्याज्यश्चाप्यतिपापिभिः ।
पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तान्परिवर्जयेत्॥ १०२॥
मूलम्
दूरतस्तैस्तु सम्पर्कस्त्याज्यश्चाप्यतिपापिभिः ।
पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तान्परिवर्जयेत्॥ १०२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन पाखण्डी, दुराचारी और अति पापियोंका संसर्ग दूरहीसे त्यागने योग्य है । इसलिये इनका सर्वदा त्याग करे॥ १०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते नग्नास्तवाख्याता दृष्टाः श्राद्धोपघातकाः ।
येषां सम्भाषणात्पुंसां दिनपुण्यं प्रणश्यति॥ १०३॥
मूलम्
एते नग्नास्तवाख्याता दृष्टाः श्राद्धोपघातकाः ।
येषां सम्भाषणात्पुंसां दिनपुण्यं प्रणश्यति॥ १०३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने तुमसे नग्नोंकी व्याख्या की, जिनके दर्शनमात्रसे श्राद्ध नष्ट हो जाता है और जिनके साथ सम्भाषण करनेसे मनुष्यका एक दिनका पुण्य क्षीण हो जाता है॥ १०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते पाषण्डिनः पापा न ह्येतानालपेद् बुधः ।
पुण्यं नश्यति सम्भाषादेतेषां तद्दिनोद्भवम्॥ १०४॥
मूलम्
एते पाषण्डिनः पापा न ह्येतानालपेद् बुधः ।
पुण्यं नश्यति सम्भाषादेतेषां तद्दिनोद्भवम्॥ १०४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये पाखण्डी बड़े पापी होते हैं, बुद्धिमान् पुरुष इनसे कभी सम्भाषण न करे । इनके साथ सम्भाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है॥ १०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसां जटाधरणमौण्ड्यवतां वृथैव
मोघाशिनामखिलशौचनिराकृतानाम् ।
तोयप्रदानपितृपिण्डबहिष्कृतानां
सम्भाषणादपि नरा नरकं प्रयान्ति॥ १०५॥
मूलम्
पुंसां जटाधरणमौण्ड्यवतां वृथैव
मोघाशिनामखिलशौचनिराकृतानाम् ।
तोयप्रदानपितृपिण्डबहिष्कृतानां
सम्भाषणादपि नरा नरकं प्रयान्ति॥ १०५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बिना कारण ही जटाधारण करते अथवा मूँड़ मुड़ाते हैं, देवता, अतिथि आदिको भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लेते हैं, सब प्रकारसे शौचहीन हैं तथा जल-दान और पितृ-पिण्ड आदिसे भी बहिष्कृत हैं, उन लोगोंसे वार्तालाप करनेसे भी लोग नरकमें जाते हैं॥ १०५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे अष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥
इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे तृतीयोंऽशः समाप्तः ।
Misc Detail
श्रीविष्णुपुराण