[सत्रहवाँ अध्याय]
विषय
नग्नविषयक प्रश्न, देवताओंका पराजय, उनका भगवान्की शरणमें जाना और भगवान्का मायामोहको प्रकट करना
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याह भगवानौर्वस्सगराय महात्मने ।
सदाचारं पुरा सम्यङ् मैत्रेय परिपृच्छते॥ १॥
मूलम्
इत्याह भगवानौर्वस्सगराय महात्मने ।
सदाचारं पुरा सम्यङ् मैत्रेय परिपृच्छते॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! पूर्वकालमें महात्मा सगरसे उनके पूछनेपर भगवान् और्वने इस प्रकार गृहस्थके सदाचारका निरूपण किया था॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयाप्येतदशेषेण कथितं भवतो द्विज ।
समुल्लङ्घ्य सदाचारं कश्चिन्नाप्नोति शोभनम्॥ २॥
मूलम्
मयाप्येतदशेषेण कथितं भवतो द्विज ।
समुल्लङ्घ्य सदाचारं कश्चिन्नाप्नोति शोभनम्॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे द्विज! मैंने भी तुमसे इसका पूर्णतया वर्णन कर दिया । कोई भी पुरुष सदाचारका उल्लंघन करके सद्गति नहीं पा सकता॥ २॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
षण्ढापविद्धप्रमुखा विदिता भगवन्मया ।
उदक्याद्याश्च मे सम्यङ् नग्नमिच्छामि वेदितुम्॥ ३॥
मूलम्
षण्ढापविद्धप्रमुखा विदिता भगवन्मया ।
उदक्याद्याश्च मे सम्यङ् नग्नमिच्छामि वेदितुम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी बोले—भगवन्! नपुंसक, अपविद्ध और रजस्वला आदिको तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ [किन्तु यह नहीं जानता कि ‘नग्न’ किसको कहते हैं] । अतः इस समय मैं नग्नके विषयमें जानना चाहता हूँ॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को नग्नः किं समाचारो नग्नसंज्ञां नरो लभेत् ।
नग्नस्वरूपमिच्छामि यथावत्कथितं त्वया ।
श्रोतुं धर्मभृतां श्रेष्ठ न ह्यस्त्यविदितं तव॥ ४॥
मूलम्
को नग्नः किं समाचारो नग्नसंज्ञां नरो लभेत् ।
नग्नस्वरूपमिच्छामि यथावत्कथितं त्वया ।
श्रोतुं धर्मभृतां श्रेष्ठ न ह्यस्त्यविदितं तव॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
नग्न कौन है? और किस प्रकारके आचरणवाला पुरुष नग्न संज्ञा प्राप्त करता है? हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ! मैं आपके द्वारा नग्नके स्वरूपका यथावत् वर्णन सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आपको कोई भी बात अविदित नहीं है॥ ४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋग्यजुस्सामसंज्ञेयं त्रयी वर्णावृतिर्द्विज ।
एतामुज्झति यो मोहात्स नग्नः पातकी द्विजः॥ ५॥
मूलम्
ऋग्यजुस्सामसंज्ञेयं त्रयी वर्णावृतिर्द्विज ।
एतामुज्झति यो मोहात्स नग्नः पातकी द्विजः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे द्विज! ऋक्, साम और यजुः यह वेदत्रयी वर्णोंका आवरणस्वरूप है । जो पुरुष मोहसे इसका त्याग कर देता है वह पापी ‘नग्न’ कहलाता है॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयी समस्तवर्णानां द्विज संवरणं यतः ।
नग्नो भवत्युज्झितायामतस्तस्यां न संशयः॥ ६॥
मूलम्
त्रयी समस्तवर्णानां द्विज संवरणं यतः ।
नग्नो भवत्युज्झितायामतस्तस्यां न संशयः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे ब्रह्मन्! समस्त वर्णोंका संवरण (ढँकनेवाला वस्त्र) वेदत्रयी ही है; इसलिये उसका त्याग कर देनेपर पुरुष ‘नग्न’ हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं च श्रूयतामन्यद्यद्भीष्माय महात्मने ।
कथयामास धर्मज्ञो वसिष्ठोऽस्मत्पितामहः॥ ७॥
मूलम्
इदं च श्रूयतामन्यद्यद्भीष्माय महात्मने ।
कथयामास धर्मज्ञो वसिष्ठोऽस्मत्पितामहः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे पितामह धर्मज्ञ वसिष्ठजीने इस विषयमें महात्मा भीष्मजीसे जो कुछ कहा था वह श्रवण करो॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयापि तस्य गदतश्श्रुतमेतन्महात्मनः ।
नग्नसम्बन्धि मैत्रेय यत्पृष्टोऽहमिह त्वया॥ ८॥
मूलम्
मयापि तस्य गदतश्श्रुतमेतन्महात्मनः ।
नग्नसम्बन्धि मैत्रेय यत्पृष्टोऽहमिह त्वया॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मैत्रेय! तुमने जो मुझसे नग्नके विषयमें पूछा है, इस सम्बन्धमें भीष्मके प्रति वर्णन करते समय मैंने भी महात्मा वसिष्ठजीका कथन सुना था॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवासुरमभूद्युद्धं दिव्यमब्दशतं पुरा ।
तस्मिन्पराजिता देवा दैत्यैर्ह्रादपुरोगमैः॥ ९॥
मूलम्
देवासुरमभूद्युद्धं दिव्यमब्दशतं पुरा ।
तस्मिन्पराजिता देवा दैत्यैर्ह्रादपुरोगमैः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें किसी समय सौ दिव्य वर्षतक देवता और असुरोंका परस्पर युद्ध हुआ । उसमें ह्राद प्रभृति दैत्योंद्वारा देवगण पराजित हुए॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदस्योत्तरं कूलं गत्वातप्यन्त वै तपः ।
विष्णोराराधनार्थाय जगुश्चेमं स्तवं तदा॥ १०॥
मूलम्
क्षीरोदस्योत्तरं कूलं गत्वातप्यन्त वै तपः ।
विष्णोराराधनार्थाय जगुश्चेमं स्तवं तदा॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः देवगणने क्षीरसागरके उत्तरीय तटपर जाकर तपस्या की और भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये उस समय इस स्तवका गान किया॥ १०॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराधनाय लोकानां विष्णोरीशस्य यां गिरम् ।
वक्ष्यामो भगवानाद्यस्तया विष्णुः प्रसीदतु॥ ११॥
मूलम्
आराधनाय लोकानां विष्णोरीशस्य यां गिरम् ।
वक्ष्यामो भगवानाद्यस्तया विष्णुः प्रसीदतु॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवगण बोले—हमलोग लोकनाथ भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये जिस वाणीका उच्चारण करते हैं, उससे वे आद्य-पुरुष श्रीविष्णु भगवान् प्रसन्न हों॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो भूतान्यशेषाणि प्रसूतानि महात्मनः ।
यस्मिंश्च लयमेष्यन्ति कस्तं स्तोतुमिहेश्वरः॥ १२॥
मूलम्
यतो भूतान्यशेषाणि प्रसूतानि महात्मनः ।
यस्मिंश्च लयमेष्यन्ति कस्तं स्तोतुमिहेश्वरः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन परमात्मासे सम्पूर्ण भूत उत्पन्न हुए हैं और जिनमें वे सब अन्तमें लीन हो जायँगे, संसारमें उनकी स्तुति करनेमें कौन समर्थ है?॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाप्यरातिविध्वंसध्वस्तवीर्याभयार्थिनः ।
त्वां स्तोष्यामस्तवोक्तीनां याथार्थ्यं नै वगोचरे॥ १३॥
मूलम्
तथाप्यरातिविध्वंसध्वस्तवीर्याभयार्थिनः ।
त्वां स्तोष्यामस्तवोक्तीनां याथार्थ्यं नै वगोचरे॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! यद्यपि आपका यथार्थ स्वरूप वाणीका विषय नहीं है तो भी शत्रुओंके हाथसे विध्वस्त होकर पराक्रमहीन हो जानेके कारण हम अभयप्राप्तिके लिये आपकी स्तुति करते हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमुर्वी सलिलं वह्निर्वायुराकाशमेव च ।
समस्तमन्तःकरणं प्रधानं तत्परः पुमान्॥ १४॥
मूलम्
त्वमुर्वी सलिलं वह्निर्वायुराकाशमेव च ।
समस्तमन्तःकरणं प्रधानं तत्परः पुमान्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अन्तःकरण, मूल-प्रकृति और प्रकृतिसे परे पुरुष—ये सब आप ही हैं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकं तवैतद्भूतात्मन्मूर्त्तामूर्त्तमयं वपुः ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं स्थानकालविभेदवत्॥ १५॥
मूलम्
एकं तवैतद्भूतात्मन्मूर्त्तामूर्त्तमयं वपुः ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं स्थानकालविभेदवत्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सर्वभूतात्मन्! ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त स्थान और कालादि भेदयुक्त यह मूर्त्तामूर्त्त पदार्थमय सम्पूर्ण प्रपंच आपहीका शरीर है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेश तव यत्पूर्वं त्वन्नाभिकमलोद्भवम् ।
रूपं विश्वोपकाराय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः॥ १६॥
मूलम्
तत्रेश तव यत्पूर्वं त्वन्नाभिकमलोद्भवम् ।
रूपं विश्वोपकाराय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके नाभि-कमलसे विश्वके उपकारार्थ प्रकट हुआ जो आपका प्रथम रूप है, हे ईश्वर! उस ब्रह्मस्वरूपको नमस्कार है॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रार्करुद्रवस्वश्विमरुत्सोमादिभेदवत् ।
वयमेकं स्वरूपं ते तस्मै देवात्मने नमः॥ १७॥
मूलम्
शक्रार्करुद्रवस्वश्विमरुत्सोमादिभेदवत् ।
वयमेकं स्वरूपं ते तस्मै देवात्मने नमः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र, सूर्य, रुद्र, वसु, अश्विनीकुमार, मरुद्गण और सोम आदि भेदयुक्त हमलोग भी आपहीका एक रूप हैं; अतः आपके उस देवरूपको नमस्कार है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दम्भप्रायमसम्बोधि तितिक्षादमवर्जितम् ।
यद्रूपं तव गोविन्द तस्मै दैत्यात्मने नमः॥ १८॥
मूलम्
दम्भप्रायमसम्बोधि तितिक्षादमवर्जितम् ।
यद्रूपं तव गोविन्द तस्मै दैत्यात्मने नमः॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गोविन्द! जो दम्भमयी, अज्ञानमयी तथा तितिक्षा और दम्भसे शून्य है, आपकी उस दैत्य-मूर्तिको नमस्कार है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिज्ञानवहा यस्मिन्नाड्यः स्तिमिततेजसि ।
शब्दादिलोभि यत्तस्मै तुभ्यं यक्षात्मने नमः॥ १९॥
मूलम्
नातिज्ञानवहा यस्मिन्नाड्यः स्तिमिततेजसि ।
शब्दादिलोभि यत्तस्मै तुभ्यं यक्षात्मने नमः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस मन्दसत्त्व स्वरूपमें हृदयकी नाड़ियाँ अत्यन्त ज्ञानवाहिनी नहीं होतीं तथा जो शब्दादि विषयोंका लोभी होता है, आपके उस यक्षरूपको नमस्कार है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रौर्यमायामयं घोरं यच्च रूपं तवासितम् ।
निशाचरात्मने तस्मै नमस्ते पुरुषोत्तम॥ २०॥
मूलम्
क्रौर्यमायामयं घोरं यच्च रूपं तवासितम् ।
निशाचरात्मने तस्मै नमस्ते पुरुषोत्तम॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पुरुषोत्तम! आपका जो क्रूरता और मायासे युक्त घोर तमोमय रूप है, उस राक्षसस्वरूपको नमस्कार है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गस्थधर्मिसद्धर्मफलोपकरणं तव ।
धर्माख्यं च तथा रूपं नमस्तस्मै जनार्दन॥ २१॥
मूलम्
स्वर्गस्थधर्मिसद्धर्मफलोपकरणं तव ।
धर्माख्यं च तथा रूपं नमस्तस्मै जनार्दन॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे जनार्दन! जो स्वर्गमें रहनेवाले धार्मिक जनोंके यागादि सद्धर्मोंके फल (सुखादि)-की प्राप्ति करानेवाला आपका धर्म नामक रूप है उसे नमस्कार है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षप्रायमसंसर्गि गतिमद्गमनादिषु ।
सिद्धाख्यं तव यद्रूपं तस्मै सिद्धात्मने नमः॥ २२॥
मूलम्
हर्षप्रायमसंसर्गि गतिमद्गमनादिषु ।
सिद्धाख्यं तव यद्रूपं तस्मै सिद्धात्मने नमः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जल-अग्नि आदि गमनीय स्थानोंमें जाकर भी सर्वदा निर्लिप्त और प्रसन्नतामय रहता है वह सिद्ध नामक रूप आपहीका है; ऐसे सिद्धस्वरूप आपको नमस्कार है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतितिक्षायनं क्रूरमुपभोगसहं हरे ।
द्विजिह्वं तव यद्रूपं तस्मै नागात्मने नमः॥ २३॥
मूलम्
अतितिक्षायनं क्रूरमुपभोगसहं हरे ।
द्विजिह्वं तव यद्रूपं तस्मै नागात्मने नमः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे हरे! जो अक्षमाका आश्रय अत्यन्त क्रूर और कामोपभोगमें समर्थ आपका द्विजिह्व (दो जीभवाला) रूप है, उन नागस्वरूप आपको नमस्कार है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवबोधि च यच्छान्तमदोषमपकल्मषम् ।
ऋषिरूपात्मने तस्मै विष्णो रूपाय ते नमः॥ २४॥
मूलम्
अवबोधि च यच्छान्तमदोषमपकल्मषम् ।
ऋषिरूपात्मने तस्मै विष्णो रूपाय ते नमः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विष्णो! जो ज्ञानमय, शान्त, दोषरहित और कल्मषहीन है, उस आपके मुनिमय स्वरूपको नमस्कार है॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्षयत्यथ कल्पान्ते भूतानि यदवारितम् ।
त्वद्रूपं पुण्डरीकाक्ष तस्मै कालात्मने नमः॥ २५॥
मूलम्
भक्षयत्यथ कल्पान्ते भूतानि यदवारितम् ।
त्वद्रूपं पुण्डरीकाक्ष तस्मै कालात्मने नमः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कल्पान्तमें अनिवार्यरूपसे समस्त भूतोंका भक्षण कर जाता है, हे पुण्डरीकाक्ष! आपके उस कालस्वरूपको नमस्कार है॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भक्ष्य सर्वभूतानि देवादीन्यविशेषतः ।
नृत्यत्यन्ते च यद्रूपं तस्मै रुद्रात्मने नमः॥ २६॥
मूलम्
सम्भक्ष्य सर्वभूतानि देवादीन्यविशेषतः ।
नृत्यत्यन्ते च यद्रूपं तस्मै रुद्रात्मने नमः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रलयकालमें देवता आदि समस्त प्राणियोंको सामान्य भावसे भक्षण करके नृत्य करता है आपके उस रुद्रस्वरूपको नमस्कार है॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्त्या रजसो यच्च कर्मणां करणात्मकम् ।
जनार्दन नमस्तस्मै त्वद्रूपाय नरात्मने॥ २७॥
मूलम्
प्रवृत्त्या रजसो यच्च कर्मणां करणात्मकम् ।
जनार्दन नमस्तस्मै त्वद्रूपाय नरात्मने॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुणकी प्रवृत्तिके कारण जो कर्मोंका करणरूप है, हे जनार्दन! आपके उस मनुष्यात्मक स्वरूपको नमस्कार है॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टाविंशद्वधोपेतं यद्रूपं तामसं तव ।
उन्मार्गगामि सर्वात्मंस्तस्मै वश्यात्मने नमः॥ २८॥
मूलम्
अष्टाविंशद्वधोपेतं यद्रूपं तामसं तव ।
उन्मार्गगामि सर्वात्मंस्तस्मै वश्यात्मने नमः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे सर्वात्मन्! जो अट्ठाईस वध-युक्त* तमोमय और उन्मार्गगामी है आपके उस पशुरूपको नमस्कार है॥ २८॥
पादटिप्पनी
- ग्यारह इन्द्रिय-वध, नौ तुष्टि-वध और आठ सिद्धि-वध—ये कुल अट्ठाईस वध हैं । इनका प्रथमांश पञ्चमाध्याय श्लोक दसकी टिप्पणीमें विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञाङ्गभूतं यद्रूपं जगतः स्थितिसाधनम् ।
वृक्षादिभेदैष्षड्भेदि तस्मै मुख्यात्मने नमः॥ २९॥
मूलम्
यज्ञाङ्गभूतं यद्रूपं जगतः स्थितिसाधनम् ।
वृक्षादिभेदैष्षड्भेदि तस्मै मुख्यात्मने नमः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जगत्की स्थितिका साधन और यज्ञका अंगभूत है तथा वृक्ष, लता, गुल्म, वीरुध, तृण और गिरि—इन छः भेदोंसे युक्त हैं उन मुख्य (उद्भिद्)-रूप आपको नमस्कार है॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिर्यङ्मनुष्यदेवादि व्योमशब्दादिकं च यत् ।
रूपं तवादेः सर्वस्य तस्मै सर्वात्मने नमः॥ ३०॥
मूलम्
तिर्यङ्मनुष्यदेवादि व्योमशब्दादिकं च यत् ।
रूपं तवादेः सर्वस्य तस्मै सर्वात्मने नमः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तिर्यक्, मनुष्य तथा देवता आदि प्राणी, आकाशादि पंचभूत और शब्दादि उनके गुण—ये सब, सबके आदिभूत आपहीके रूप हैं; अतः आप सर्वात्माको नमस्कार है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रधानबुद्ध्यादिमयादशेषा-
द्यदन्यदस्मात्परमं परात्मन् ।
रूपं तवाद्यं यदनन्यतुल्यं
तस्मै नमः कारणकारणाय॥ ३१॥
मूलम्
प्रधानबुद्ध्यादिमयादशेषा-
द्यदन्यदस्मात्परमं परात्मन् ।
रूपं तवाद्यं यदनन्यतुल्यं
तस्मै नमः कारणकारणाय॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे परमात्मन्! प्रधान और महत्तत्त्वादिरूप इस सम्पूर्ण जगत् से जो परे है, सबका आदि कारण है तथा जिसके समान कोई अन्य रूप नहीं है, आपके उस प्रकृति आदि कारणोंके भी कारण रूपको नमस्कार है॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्लादिदीर्घादिघनादिहीन-
मगोचरं यच्च विशेषणानाम् ।
शुद्धातिशुद्धं परमर्षिदृश्यं
रूपाय तस्मै भगवन्नताः स्मः॥ ३२॥
मूलम्
शुक्लादिदीर्घादिघनादिहीन-
मगोचरं यच्च विशेषणानाम् ।
शुद्धातिशुद्धं परमर्षिदृश्यं
रूपाय तस्मै भगवन्नताः स्मः॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भगवन्! जो शुक्लादि रूपसे, दीर्घता आदि परिमाणसे तथा घनता आदि गुणोंसे रहित है, इस प्रकार जो समस्त विशेषणोंका अविषय है, तथा परमर्षियोंका दर्शनीय एवं शुद्धातिशुद्ध है, आपके उस स्वरूपको हम नमस्कार करते हैं॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नः शरीरेषु यदन्यदेहे-
ष्वशेषवस्तुष्वजमक्षयं यत् ।
तस्माच्च नान्यद्व्यतिरिक्तमस्ति
ब्रह्मस्वरूपाय नताः स्म तस्मै॥ ३३॥
मूलम्
यन्नः शरीरेषु यदन्यदेहे-
ष्वशेषवस्तुष्वजमक्षयं यत् ।
तस्माच्च नान्यद्व्यतिरिक्तमस्ति
ब्रह्मस्वरूपाय नताः स्म तस्मै॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो हमारे शरीरोंमें, अन्य प्राणियोंके शरीरोंमें तथा समस्त वस्तुओंमें वर्तमान है, अजन्मा और अविनाशी है तथा जिससे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, उस ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते हैं॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकलमिदमजस्य यस्य रूपं
परमपदात्मवतस्सनातनस्य ।
तमनिधनमशेषबीजभूतं
प्रभुममलं प्रणतास्स्म वासुदेवम्॥ ३४॥
मूलम्
सकलमिदमजस्य यस्य रूपं
परमपदात्मवतस्सनातनस्य ।
तमनिधनमशेषबीजभूतं
प्रभुममलं प्रणतास्स्म वासुदेवम्॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम पद ब्रह्म ही जिनका आत्मा है ऐसे जिस सनातन और अजन्मा भगवान्का यह सकल प्रपंच रूप है, उस सबके बीजभूत, अविनाशी और निर्मल प्रभु वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं॥ ३४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोत्रस्य चावसाने ते ददृशुः परमेश्वरम् ।
शङ्खचक्रगदापाणिं गरुडस्थं सुरा हरिम्॥ ३५॥
मूलम्
स्तोत्रस्य चावसाने ते ददृशुः परमेश्वरम् ।
शङ्खचक्रगदापाणिं गरुडस्थं सुरा हरिम्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—हे मैत्रेय! स्तोत्रके समाप्त हो जानेपर देवताओंने परमात्मा श्रीहरिको हाथमें शंख, चक्र और गदा लिये तथा गरुडपर आरूढ़ हुए अपने सम्मुख विराजमान देखा॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमूचुस्सकला देवाः प्रणिपातपुरस्सरम् ।
प्रसीद नाथ दैत्येभ्यस्त्राहि नश्शरणार्थिनः॥ ३६
मूलम्
तमूचुस्सकला देवाः प्रणिपातपुरस्सरम् ।
प्रसीद नाथ दैत्येभ्यस्त्राहि नश्शरणार्थिनः॥ ३६
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर समस्त देवताओंने प्रणाम करनेके अनन्तर उनसे कहा—‘‘हे नाथ! प्रसन्न होइये और हम शरणागतोंकी दैत्योंसे रक्षा कीजिये॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्ययज्ञभागाश्च दैत्यैर्ह्रादपुरोगमैः ।
हृता नो ब्रह्मणोऽप्याज्ञामुल्लङ्घ्य परमेश्वर॥ ३७॥
मूलम्
त्रैलोक्ययज्ञभागाश्च दैत्यैर्ह्रादपुरोगमैः ।
हृता नो ब्रह्मणोऽप्याज्ञामुल्लङ्घ्य परमेश्वर॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे परमेश्वर! ह्राद प्रभृति दैत्यगणने ब्रह्माजीकी आज्ञाका भी उल्लंघन कर हमारे और त्रिलोकीके यज्ञभागोंका अपहरण कर लिया है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यप्यशेषभूतस्य वयं ते च तवांशजाः ।
तथाप्यविद्याभेदेन भिन्नं पश्यामहे जगत्॥ ३८॥
मूलम्
यद्यप्यशेषभूतस्य वयं ते च तवांशजाः ।
तथाप्यविद्याभेदेन भिन्नं पश्यामहे जगत्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि हम और वे सर्वभूत आपहीके अंशज हैं तथापि अविद्यावश हम जगत्को परस्पर भिन्न-भिन्न देखते हैं॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्ववर्णधर्माभिरता वेदमार्गानुसारिणः ।
न शक्यास्तेऽरयो हन्तुमस्माभिस्तपसावृताः॥ ३९॥
मूलम्
स्ववर्णधर्माभिरता वेदमार्गानुसारिणः ।
न शक्यास्तेऽरयो हन्तुमस्माभिस्तपसावृताः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे शत्रुगण अपने वर्णधर्मका पालन करनेवाले, वेदमार्गावलम्बी और तपोनिष्ठ हैं, अतः वे हमसे नहीं मारे जा सकते॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपायमशेषात्मन्नस्माकं दातुमर्हसि ।
येन तानसुरान्हन्तुं भवेम भगवन्क्षमाः॥ ४०॥
मूलम्
तमुपायमशेषात्मन्नस्माकं दातुमर्हसि ।
येन तानसुरान्हन्तुं भवेम भगवन्क्षमाः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे सर्वात्मन्! जिससे हम उन असुरोंका वध करनेमें समर्थ हों ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये’’॥ ४०॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो भगवांस्तेभ्यो मायामोहं शरीरतः ।
समुत्पाद्य ददौ विष्णुः प्राह चेदं सुरोत्तमान्॥ ४१॥
मूलम्
इत्युक्तो भगवांस्तेभ्यो मायामोहं शरीरतः ।
समुत्पाद्य ददौ विष्णुः प्राह चेदं सुरोत्तमान्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—उनके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने अपने शरीरसे मायामोहको उत्पन्न किया और उसे देवताओंको देकर कहा—॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायामोहोऽयमखिलान्दैत्यांस्तान्मोहयिष्यति ।
ततो वध्या भविष्यन्ति वेदमार्गबहिष्कृताः॥ ४२॥
मूलम्
मायामोहोऽयमखिलान्दैत्यांस्तान्मोहयिष्यति ।
ततो वध्या भविष्यन्ति वेदमार्गबहिष्कृताः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘यह मायामोह उन सम्पूर्ण दैत्यगणको मोहित कर देगा, तब वे वेदमार्गका उल्लंघन करनेसे तुमलोगोंसे मारे जा सकेंगे॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थितौ स्थितस्य मे वध्या यावन्तः परिपन्थिनः ।
ब्रह्मणो ह्यधिकारस्य देवदैत्यादिकाः सुराः॥ ४३॥
मूलम्
स्थितौ स्थितस्य मे वध्या यावन्तः परिपन्थिनः ।
ब्रह्मणो ह्यधिकारस्य देवदैत्यादिकाः सुराः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवगण! जो कोई देवता अथवा दैत्य ब्रह्माजीके कार्यमें बाधा डालते हैं वे सृष्टिकी रक्षामें तत्पर मेरे वध्य होते हैं॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्गच्छत न भीः कार्या मायामोहोऽयमग्रतः ।
गच्छन्नद्योपकाराय भवतां भविता सुराः॥ ४४॥
मूलम्
तद्गच्छत न भीः कार्या मायामोहोऽयमग्रतः ।
गच्छन्नद्योपकाराय भवतां भविता सुराः॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे देवगण! अब तुम जाओ, डरो मत । यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार करेगा’’॥ ४४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीपराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ताः प्रणिपत्यैनं ययुर्देवा यथागतम् ।
मायामोहोऽपि तैस्सार्द्धं ययौ यत्र महासुराः॥ ४५
मूलम्
इत्युक्ताः प्रणिपत्यैनं ययुर्देवा यथागतम् ।
मायामोहोऽपि तैस्सार्द्धं ययौ यत्र महासुराः॥ ४५
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीपराशरजी बोले—भगवान्की ऐसी आज्ञा होनेपर देवगण उन्हें प्रणाम कर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये, तथा उनके साथ मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ गया॥ ४५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे सप्तदशोऽध्यायः॥ १७॥