१६

[सोलहवाँ अध्याय]

विषय

श्राद्ध-कर्ममें विहित और अविहित वस्तुओंका विचार

मूलम् (वचनम्)

और्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हविष्यमत्स्यमांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च ।
सौकरच्छागलैणेयरौरवैर्गवयेन च॥ १॥
औरभ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्ध्या पितामहाः ।
प्रयान्ति तृप्तिं मांसैस्तु नित्यं वार्ध्रीणसामिषैः॥ २॥

मूलम्

हविष्यमत्स्यमांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च ।
सौकरच्छागलैणेयरौरवैर्गवयेन च॥ १॥
औरभ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्ध्या पितामहाः ।
प्रयान्ति तृप्तिं मांसैस्तु नित्यं वार्ध्रीणसामिषैः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

और्व बोले—हवि, मत्स्य, शशक (खरगोश), नकुल, शूकर, छाग, कस्तूरिया मृग, कृष्ण मृग, गवय (वनगाय) और मेषके मांसोंसे तथा गव्य (गौके दूध-घी आदि)-से पितृगण क्रमशः एक-एक मास अधिक तृप्ति लाभ करते हैं और वार्ध्रीणस पक्षीके मांससे सदा तृप्त रहते हैं॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खड्गमांसमतीवात्र कालशाकं तथा मधु ।
शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर॥ ३॥

मूलम्

खड्गमांसमतीवात्र कालशाकं तथा मधु ।
शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! श्राद्धकर्ममें गेंडेका मांस, कालशाक और मधु अत्यन्त प्रशस्त और अत्यन्त तृप्तिदायक हैं*॥ ३॥

पादटिप्पनी
  • इन तीन श्लोकोंका मूलके अनुसार अनुवाद कर दिया गया है । समझमें नहीं आता, इस व्यवस्थाका क्या रहस्य है? मालूम होता है, श्रुति-स्मृतिमें जहाँ कहीं मांसका विधान है, वह स्वाभाविक मांसभोजी मनुष्योंकी प्रवृत्तिको संकुचित और नियमित करनेके लिये ही है । सभी जगह उत्कृष्ट धर्म तो मांसभक्षणका सर्वथा त्याग ही माना गया है । मनुस्मृति अ० ५ में मांसप्रकरणका उपसंहार करते हुए श्लोक ४५ से ५६ तक मांसभक्षणकी निन्दा और निरामिष आहारकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है । श्राद्धकर्ममें मांस कितना निन्दनीय है, यह श्रीमद्भागवत सप्तम स्कन्ध अध्याय १५ के इन श्लोकोंसे स्पष्ट हो जाता है—
    न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद्धर्मतत्त्ववित् ।
    मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया॥ ७॥
    अर्थ-धर्मके मर्मको समझनेवाला पुरुष श्राद्धमें [खानेके लिये] मांस न दे और न स्वयं ही खाय, क्योंकि पितृगणकी तृप्ति जैसी मुनिजनोचित आहारसे होती है वैसी पशुहिंसासे नहीं होती॥ ७॥
    नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम् ।
    न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्‍कायजस्य यः॥ ८॥
    सद्धर्मकी इच्छावाले पुरुषोंके लिये ‘सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति मन, वाणी और शरीरसे दण्डका त्याग कर देना’—इसके समान और कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है॥ ८॥
    द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि बिभ्यति ।
    एष माऽकरुणो हन्यादतज्ज्ञो ह्यसुतृब् ध्रुवम्॥ १०॥
    पुरुषको द्रव्ययज्ञसे यजन करते देखकर जीव डरते हैं कि यह अपने ही प्राणोंका पोषण करनेवाला निर्दय अज्ञानी मुझे अवश्य मार डालेगा॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः

गयामुपेत्य यः श्राद्धं करोति पृथिवीपते ।
सफलं तस्य तज्जन्म जायते पितृतुष्टिदम्॥ ४॥

मूलम्

गयामुपेत्य यः श्राद्धं करोति पृथिवीपते ।
सफलं तस्य तज्जन्म जायते पितृतुष्टिदम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पृथिवीपते! जो पुरुष गयामें जाकर श्राद्ध करता है, उसका पितृगणको तृप्ति देनेवाला वह जन्म सफल हो जाता है॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशान्तिकास्सनीवाराश्श्यामाका द्विविधास्तथा ।
वन्यौषधीप्रधानास्तु श्राद्धार्हाः पुरुषर्षभ॥ ५॥

मूलम्

प्रशान्तिकास्सनीवाराश्श्यामाका द्विविधास्तथा ।
वन्यौषधीप्रधानास्तु श्राद्धार्हाः पुरुषर्षभ॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पुरुषश्रेष्ठ! देवधान्य, नीवार और श्याम तथा श्वेत वर्णके श्यामाक (सावाँ) एवं प्रधान-प्रधान वनौषधियाँ श्राद्धके उपयुक्त द्रव्य हैं॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवाः प्रियंगवो मुद‍्गा गोधूमा व्रीहयस्तिलाः ।
निष्पावाः कोविदाराश्च सर्षपाश्चात्र शोभनाः॥ ६॥

मूलम्

यवाः प्रियंगवो मुद‍्गा गोधूमा व्रीहयस्तिलाः ।
निष्पावाः कोविदाराश्च सर्षपाश्चात्र शोभनाः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जौ, काँगनी, मूँग, गेहूँ, धान, तिल, मटर, कचनार और सरसों—इन सबका श्राद्धमें होना अच्छा है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृताग्रयणं यच्च धान्यजातं नरेश्वर ।
राजमाषानणूंश्चैव मसूरांश्च विसर्जयेत्॥ ७॥
अलाबुं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं पिण्डमूलकम् ।
गान्धारककरम्बादिलवणान्यौषराणि च॥ ८॥
आरक्ताश्चैव निर्यासाः प्रत्यक्षलवणानि च ।
वर्ज्यान्येतानि वै श्राद्धे यच्च वाचा न शस्यते॥ ९॥

मूलम्

अकृताग्रयणं यच्च धान्यजातं नरेश्वर ।
राजमाषानणूंश्चैव मसूरांश्च विसर्जयेत्॥ ७॥
अलाबुं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं पिण्डमूलकम् ।
गान्धारककरम्बादिलवणान्यौषराणि च॥ ८॥
आरक्ताश्चैव निर्यासाः प्रत्यक्षलवणानि च ।
वर्ज्यान्येतानि वै श्राद्धे यच्च वाचा न शस्यते॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेश्वर! जिस अन्नसे नवान‍्न यज्ञ न किया गया हो तथा बड़े उड़द, छोटे उड़द, मसूर, कद्दू, गाजर, प्याज, शलजम, गान्धारक (शालिविशेष) बिना तुषके गिरे हुए धान्यका आटा, ऊसर भूमिमें उत्पन्न हुआ लवण, हींग आदि कुछ-कुछ लाल रंगकी वस्तुएँ, प्रत्यक्ष लवण और कुछ अन्य वस्तुएँ जिनका शास्त्रमें विधान नहीं है, श्राद्धकर्म में त्याज्य हैं॥ ७—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नक्ताहृतमनुच्छिन्नं तृप्यते न च यत्र गौः ।
दुर्गन्धि फेनिलं चाम्बु श्राद्धयोग्यं न पार्थिव॥ १०॥

मूलम्

नक्ताहृतमनुच्छिन्नं तृप्यते न च यत्र गौः ।
दुर्गन्धि फेनिलं चाम्बु श्राद्धयोग्यं न पार्थिव॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! जो रात्रिके समय लाया गया हो, अप्रतिष्ठित जलाशयका हो, जिसमें गौ तृप्त न हो सकती हो ऐसे गड्ढेका अथवा दुर्गन्ध या फेनयुक्त जल श्राद्धके योग्य नहीं होता॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीरमेकशफानां यदौष्ट्रमाविकमेव च ।
मार्गं च माहिषं चैव वर्जयेच्छ्राद्धकर्मणि॥ ११॥

मूलम्

क्षीरमेकशफानां यदौष्ट्रमाविकमेव च ।
मार्गं च माहिषं चैव वर्जयेच्छ्राद्धकर्मणि॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक खुरवालोंका, ऊँटनीका, भेड़का, मृगीका तथा भैंसका दूध श्राद्धकर्ममें काममें न ले॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षण्ढापविद्धचाण्डालपापिपाषण्डिरोगिभिः ।
कृकवाकुश्वनग्नैश्च वानरग्रामसूकरैः॥ १२॥
उदक्यासूतकाशौचिमृतहारैश्च वीक्षिते ।
श्राद्धे सुरा न पितरो भुञ्जते पुरुषर्षभ॥ १३॥

मूलम्

षण्ढापविद्धचाण्डालपापिपाषण्डिरोगिभिः ।
कृकवाकुश्वनग्नैश्च वानरग्रामसूकरैः॥ १२॥
उदक्यासूतकाशौचिमृतहारैश्च वीक्षिते ।
श्राद्धे सुरा न पितरो भुञ्जते पुरुषर्षभ॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पुरुषर्षभ! नपुंसक, अपविद्ध (सत्पुरुषोंद्वारा बहिष्कृत), चाण्डाल, पापी, पाषण्डी, रोगी, कुक्‍कुट, श्वान, नग्न (वैदिक कर्मको त्याग देनेवाला पुरुष) वानर, ग्राम्यशूकर, रजस्वला स्री, जन्म अथवा मरणके अशौचसे युक्त व्यक्ति और शव ले जानेवाले पुरुष—इनमेंसे किसीकी भी दृष्टि पड़ जानेसे देवगण अथवा पितृगण कोई भी श्राद्धमें अपना भाग नहीं लेते॥ १२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्परिश्रिते कुर्याच्छ्राद्धं श्रद्धासमन्वितः ।
उर्व्यां च तिलविक्षेपाद्यातुधानान्निवारयेत्॥ १४॥

मूलम्

तस्मात्परिश्रिते कुर्याच्छ्राद्धं श्रद्धासमन्वितः ।
उर्व्यां च तिलविक्षेपाद्यातुधानान्निवारयेत्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः किसी घिरे हुए स्थानमें श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करे तथा पृथिवीमें तिल छिड़ककर राक्षसोंको निवृत्त कर दे॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नखादिना चोपपन्नं केशकीटादिभिर्नृप ।
न चैवाभिषवैर्मिश्रमन्नं पर्युषितं तथा॥ १५॥

मूलम्

नखादिना चोपपन्नं केशकीटादिभिर्नृप ।
न चैवाभिषवैर्मिश्रमन्नं पर्युषितं तथा॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! श्राद्धमें ऐसा अन्न न दे जिसमें नख, केश या कीड़े आदि हों या जो निचोड़कर निकाले हुए रससे युक्त हो या बासी हो॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः ।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्॥ १६॥

मूलम्

श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः ।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रद्धायुक्त व्यक्तियोंद्वारा नाम और गोत्रके उच्चारणपूर्वक दिया हुआ अन्न पितृगणको वे जैसे आहारके योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयते चापि पितृभिर्गीता गाथा महीपते ।
इक्ष्वाकोर्मनुपुत्रस्य कलापोपवने पुरा॥ १७॥

मूलम्

श्रूयते चापि पितृभिर्गीता गाथा महीपते ।
इक्ष्वाकोर्मनुपुत्रस्य कलापोपवने पुरा॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! इस सम्बन्धमें एक गाथा सुनी जाती है जो पूर्वकालमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकुके प्रति पितृगणने कलाप उपवनमें कही थी॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि नस्ते भविष्यन्ति कुले सन्मार्गशीलिनः ।
गयामुपेत्य ये पिण्डान्दास्यन्त्यस्माकमादरात्॥ १८॥

मूलम्

अपि नस्ते भविष्यन्ति कुले सन्मार्गशीलिनः ।
गयामुपेत्य ये पिण्डान्दास्यन्त्यस्माकमादरात्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या हमारे कुलमें ऐसे सन्मार्ग-शील व्यक्ति होंगे जो गयामें जाकर हमारे लिये आदरपूर्वक पिण्डदान करेंगे?॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि नस्स कुले जायाद्यो नो दद्यात्त्रयोदशीम् ।
पायसं मधुसर्पिर्भ्यां वर्षासु च मघासु च॥ १९॥

मूलम्

अपि नस्स कुले जायाद्यो नो दद्यात्त्रयोदशीम् ।
पायसं मधुसर्पिर्भ्यां वर्षासु च मघासु च॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष होगा जो वर्षाकालकी मघा नक्षत्रयुक्त त्रयोदशीको हमारे उद्देश्यसे मधु और घृतयुक्त पायस (खीर)-का दान करेगा?॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौरीं वाप्युद्वहेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ।
यजेत वाश्वमेधेन विधिवद्दक्षिणावता॥ २०॥

मूलम्

गौरीं वाप्युद्वहेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ।
यजेत वाश्वमेधेन विधिवद्दक्षिणावता॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा गौरी कन्यासे विवाह करेगा, नीला वृषभ छोड़ेगा या दक्षिणासहित विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ करेगा?’॥ २०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे षोडशोऽध्यायः॥ १६॥