१५

[पन्द्रहवाँ अध्याय]

विषय

श्राद्ध-विधि

मूलम् (वचनम्)

और्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणान्भोजयेच्छ्राद्धे यद‍्गुणांस्तान्निबोधमे॥ १॥
त्रिणाचिकेतस्त्रिमधुस्त्रिसुपर्णष्षडङ्गवित्।
वेदविच्छ्रोत्रियो योगी तथा वै ज्येष्ठसामगः॥ २॥
ऋत्विक्स्वस्रेयदौहित्रजामातृश्वशुरास्तथा।
मातुलोऽथ तपोनिष्ठः पञ्चाग्न्यभिरतस्तथा।
शिष्यास्सम्बन्धिनश्चैव मातापितृरतश्च यः॥ ३॥
एतान्नियोजयेच्छ्राद्धे पूर्वोक्तान्प्रथमे नृप।
ब्राह्मणान्पितृतुष्ट्यर्थमनुकल्पेष्वनन्तरान्॥ ४॥

मूलम्

ब्राह्मणान्भोजयेच्छ्राद्धे यद‍्गुणांस्तान्निबोधमे॥ १॥
त्रिणाचिकेतस्त्रिमधुस्त्रिसुपर्णष्षडङ्गवित्।
वेदविच्छ्रोत्रियो योगी तथा वै ज्येष्ठसामगः॥ २॥
ऋत्विक्स्वस्रेयदौहित्रजामातृश्वशुरास्तथा।
मातुलोऽथ तपोनिष्ठः पञ्चाग्न्यभिरतस्तथा।
शिष्यास्सम्बन्धिनश्चैव मातापितृरतश्च यः॥ ३॥
एतान्नियोजयेच्छ्राद्धे पूर्वोक्तान्प्रथमे नृप।
ब्राह्मणान्पितृतुष्ट्यर्थमनुकल्पेष्वनन्तरान्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और्व बोले—हे राजन्! श्राद्धकालमें जैसे गुणशील ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये वह बतलाता हूँ, सुनो। त्रिणाचिकेत१, त्रिमधु२, त्रिसुपर्ण३, छहों वेदांगोंके जाननेवाले, वेदवेत्ता, श्रोत्रिय,योगी और ज्येष्ठसामग तथा ऋत्विक्, भानजे, दौहित्र, जामाता, श्वशुर, मामा, तपस्वी, पंचाग्नि तपनेवाले, शिष्य, सम्बन्धी और माता-पिताके प्रेमी इन ब्राह्मणोंको श्राद्धकर्ममें नियुक्त करे। इनमेंसे [त्रिणाचिकेत आदि] पहले कहे हुओंको पूर्वकालमें नियुक्त करे और [ऋत्विक् आदि] पीछे बतलाये हुओंको पितरोंकी तृप्तिके लिये उत्तरकर्ममें भोजन करावे॥ १—४॥

पादटिप्पनी

१-द्वितीय कठके अन्तर्गत ‘अयं वाव यः पवते’ इत्यादि तीन अनुवाकोंको ‘त्रिणाचिकेत’ कहते हैं, उसको पढ़नेवाला या उसका अनुष्ठान करनेवाला।
२-‘मधुवाताः’ इत्यादि ऋचाका अध्ययन और मधुव्रतका आचरण करनेवाला।
३-‘ब्रह्ममेतु माम्’ इत्यादि तीन अनुवाकोंका अध्ययन और तत्सम्बन्धी व्रत करनेवाला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रध्रुक्‍कुनखी क्लीबश्श्यावदन्तस्तथा द्विजः।
कन्यादूषयिता वह्निवेदोज्झस्सोमविक्रयी॥ ५॥
अभिशस्तस्तथा स्तेनः पिशुनो ग्रामयाजकः।
भृतकाध्यापकस्तद्वद‍्भृतकाध्यापितश्च यः॥ ६॥
परपूर्वापतिश्चैव मातापित्रोस्तथोज्झकः।
वृषलीसूतिपोष्टा च वृषलीपतिरेव च॥ ७॥
तथा देवलकश्चैव श्राद्धे नार्हति केतनम्॥ ८॥

मूलम्

मित्रध्रुक्‍कुनखी क्लीबश्श्यावदन्तस्तथा द्विजः।
कन्यादूषयिता वह्निवेदोज्झस्सोमविक्रयी॥ ५॥
अभिशस्तस्तथा स्तेनः पिशुनो ग्रामयाजकः।
भृतकाध्यापकस्तद्वद‍्भृतकाध्यापितश्च यः॥ ६॥
परपूर्वापतिश्चैव मातापित्रोस्तथोज्झकः।
वृषलीसूतिपोष्टा च वृषलीपतिरेव च॥ ७॥
तथा देवलकश्चैव श्राद्धे नार्हति केतनम्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्रघाती, स्वभावसे ही विकृत नखोंवाला, नपुंसक, काले दाँतोंवाला, कन्यागामी, अग्नि और वेदका त्याग करनेवाला, सोमरस बेचनेवाला, लोकनिन्दित, चोर, चुगलखोर, ग्रामपुरोहित, वेतन लेकर पढ़ानेवाला अथवा पढ़नेवाला, पुनर्विवाहिताका पति, माता-पिताका त्याग करनेवाला, शूद्रकी सन्तानका पालन करनेवाला, शूद्राका पति तथा देवोपजीवी ब्राह्मण श्राद्धमें निमन्त्रण देनेयोग्य नहीं है॥ ५—८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमेऽह्नि बुधश्शस्ताञ्छ्रोत्रियादीन्निमन्त्रयेत्।
कथयेच्च तथैवैषां नियोगान्पितृदैविकान्॥ ९॥

मूलम्

प्रथमेऽह्नि बुधश्शस्ताञ्छ्रोत्रियादीन्निमन्त्रयेत्।
कथयेच्च तथैवैषां नियोगान्पितृदैविकान्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्राद्धके पहले दिन बुद्धिमान् पुरुष श्रोत्रिय आदि विहित ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे और उनसे यह कह दे कि ‘आपको पितृ-श्राद्धमें और आपको विश्वेदेव-श्राद्धमें नियुक्त होना है’॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रोधव्यवायादीनायासं तैर्द्विजैस्सह।
यजमानो न कुर्वीत दोषस्तत्र महानयम्॥ १०॥

मूलम्

ततः क्रोधव्यवायादीनायासं तैर्द्विजैस्सह।
यजमानो न कुर्वीत दोषस्तत्र महानयम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंके सहित श्राद्ध करनेवाला पुरुष उस दिन क्रोधादि तथा स्त्रीगमन और परिश्रम आदि न करे, क्योंकि श्राद्ध करनेमें यह महान् दोष माना गया है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धे नियुक्तो भुक्त्वा वा भोजयित्वा नियुज्य च।
व्यवायी रेतसो गर्त्ते मज्जयत्यात्मनः पितॄन्॥ ११॥

मूलम्

श्राद्धे नियुक्तो भुक्त्वा वा भोजयित्वा नियुज्य च।
व्यवायी रेतसो गर्त्ते मज्जयत्यात्मनः पितॄन्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्राद्धमें निमन्त्रित होकर या भोजन करके अथवा निमन्त्रण करके या भोजन कराकर जो पुरुष स्त्री-प्रसंग करता है वह अपने पितृगणको मानो वीर्यके कुण्डमें डुबोता है॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्प्रथममत्रोक्तं द्विजाग्र्याणां निमन्त्रणम्।
अनिमन्त्र्य द्विजानेवमागतान्भोजयेद्यतीन्॥ १२॥

मूलम्

तस्मात्प्रथममत्रोक्तं द्विजाग्र्याणां निमन्त्रणम्।
अनिमन्त्र्य द्विजानेवमागतान्भोजयेद्यतीन्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः श्राद्धके प्रथम दिन पहले तो उपरोक्त गुणविशिष्ट द्विजश्रेष्ठोंको निमन्त्रित करे और यदि उस दिन कोई अनिमन्त्रित तपस्वी ब्राह्मण घर आ जायँ तो उन्हें भी भोजन करावे॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादशौचादिना गेहमागतान्पूजयेद् द्विजान्॥ १३॥
पवित्रपाणिराचान्तानासनेषूपवेशयेत्।
पितॄणामयुजो युग्मान्देवानामिच्छया द्विजान्॥ १४॥
देवानामेकमेकं वा पितॄणां च नियोजयेत्॥ १५॥

मूलम्

पादशौचादिना गेहमागतान्पूजयेद् द्विजान्॥ १३॥
पवित्रपाणिराचान्तानासनेषूपवेशयेत्।
पितॄणामयुजो युग्मान्देवानामिच्छया द्विजान्॥ १४॥
देवानामेकमेकं वा पितॄणां च नियोजयेत्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

घर आये हुए ब्राह्मणोंका पहले पाद-शुद्धि आदिसे सत्कार करे; फिर हाथ धोकर उन्हें आचमन करानेके अनन्तर आसनपर बिठावे। अपनी सामर्थ्यानुसार पितृगणके लिये अयुग्म और देवगणके लिये युग्म ब्राह्मण नियुक्त करे अथवा दोनों पक्षोंके लिये एक-एक ब्राह्मणकी ही नियुक्ति करे॥ १३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा मातामहश्राद्धं वैश्वदेवसमन्वितम्।
कुर्वीत भक्तिसम्पन्नस्तन्त्रं वा वैश्वदैविकम्॥ १६॥

मूलम्

तथा मातामहश्राद्धं वैश्वदेवसमन्वितम्।
कुर्वीत भक्तिसम्पन्नस्तन्त्रं वा वैश्वदैविकम्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और इसी प्रकार वैश्वदेवके सहित मातामह-श्राद्ध करे अथवा पितृपक्ष और मातामह-पक्ष दोनोंके लिये भक्तिपूर्वक एक ही वैश्वदेव-श्राद्ध करे॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राङ्मुखान्भोजयेद्विप्रान्देवानामुभयात्मकान्।
पितृमातामहानां च भोजयेच्चाप्युदङ्मुखान्॥ १७॥

मूलम्

प्राङ्मुखान्भोजयेद्विप्रान्देवानामुभयात्मकान्।
पितृमातामहानां च भोजयेच्चाप्युदङ्मुखान्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव-पक्षके ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख बिठाकर और पितृ-पक्ष तथा मातामह-पक्षके ब्राह्मणोंको उत्तर-मुख बिठाकर भोजन करावे॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथक्तयोः केचिदाहुः श्राद्धस्य करणं नृप।
एकत्रैकेन पाकेन वदन्त्यन्ये महर्षयः॥ १८॥

मूलम्

पृथक्तयोः केचिदाहुः श्राद्धस्य करणं नृप।
एकत्रैकेन पाकेन वदन्त्यन्ये महर्षयः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! कोई तो पितृ-पक्ष और मातामह-पक्षके श्राद्धोंको अलग-अलग करनेके लिये कहते हैं और कोई महर्षि दोनोंका एक साथ एक पाकमें ही अनुष्ठान करनेके पक्षमें हैं॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्टरार्थं कुशं दत्त्वा सम्पूज्यार्घ्यं विधानतः।
कुर्यादावाहनं प्राज्ञो देवानां तदनुज्ञया॥ १९॥

मूलम्

विष्टरार्थं कुशं दत्त्वा सम्पूज्यार्घ्यं विधानतः।
कुर्यादावाहनं प्राज्ञो देवानां तदनुज्ञया॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

विज्ञ व्यक्ति प्रथम निमन्त्रित ब्राह्मणोंके बैठनेके लिये कुशा बिछाकर फिर अर्घ्यदान आदिसे विधिपूर्वक पूजा कर उनकी अनुमतिसे देवताओंका आवाहन करे॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवाम्बुना च देवानां दद्यादर्घ्यं विधानवित्।
स्रग्गन्धधूपदीपांश्च तेभ्यो दद्याद्यथाविधि॥ २०॥

मूलम्

यवाम्बुना च देवानां दद्यादर्घ्यं विधानवित्।
स्रग्गन्धधूपदीपांश्च तेभ्यो दद्याद्यथाविधि॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्राद्धविधिको जाननेवाला पुरुष यव-मिश्रित जलसे देवताओंको अर्घ्यदान करे और उन्हें विधिपूर्वक धूप, दीप, गन्ध तथा माला आदि निवेदन करे॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितॄणामपसव्यं तत्सर्वमेवोपकल्पयेत्।
अनुज्ञां च ततः प्राप्य दत्त्वा दर्भान्द्विधाकृतान्॥ २१॥
मन्त्रपूर्वं पितॄणां तु कुर्याच्चावाहनं बुधः।
तिलाम्बुना चापसव्यं दद्यादर्घ्यादिकं नृप॥ २२॥

मूलम्

पितॄणामपसव्यं तत्सर्वमेवोपकल्पयेत्।
अनुज्ञां च ततः प्राप्य दत्त्वा दर्भान्द्विधाकृतान्॥ २१॥
मन्त्रपूर्वं पितॄणां तु कुर्याच्चावाहनं बुधः।
तिलाम्बुना चापसव्यं दद्यादर्घ्यादिकं नृप॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये समस्त उपचार पितृगणके लिये अपसव्य भावसे* निवेदन करे; और फिर ब्राह्मणोंकी अनुमतिसे दो भागोंमें बँटे हुए कुशाओंका दान करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक पितृगणका आवाहन करे, तथा हे राजन्! अपसव्य-भावसे तिलोदकसे अर्घ्यादि दे॥ २१-२२॥

पादटिप्पनी
  • यज्ञोपवीतको दायें कन्धेपर करके।
विश्वास-प्रस्तुतिः

काले तत्रातिथिं प्राप्तमन्नकामं नृपाध्वगम्।
ब्राह्मणैरभ्यनुज्ञातः कामं तमपि भोजयेत्॥ २३॥

मूलम्

काले तत्रातिथिं प्राप्तमन्नकामं नृपाध्वगम्।
ब्राह्मणैरभ्यनुज्ञातः कामं तमपि भोजयेत्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! उस समय यदि कोई भूखा पथिक अतिथि-रूपसे आ जाय तो निमन्त्रित ब्राह्मणोंकी आज्ञासे उसे भी यथेच्छ भोजन करावे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगिनो विविधै रूपैर्नराणामुपकारिणः।
भ्रमन्ति पृथिवीमेतामविज्ञातस्वरूपिणः॥ २४॥

मूलम्

योगिनो विविधै रूपैर्नराणामुपकारिणः।
भ्रमन्ति पृथिवीमेतामविज्ञातस्वरूपिणः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक अज्ञात-स्वरूप योगिगण मनुष्योंके कल्याणकी कामनासे नाना रूप धारणकर पृथिवीतलपर विचरते रहते हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादभ्यर्चयेत्प्राप्तं श्राद्धकालेऽतिथिं बुधः।
श्राद्धक्रियाफलं हन्ति नरेन्द्रापूजितोऽतिथिः॥ २५॥

मूलम्

तस्मादभ्यर्चयेत्प्राप्तं श्राद्धकालेऽतिथिं बुधः।
श्राद्धक्रियाफलं हन्ति नरेन्द्रापूजितोऽतिथिः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः विज्ञ पुरुष श्राद्धकालमें आये हुए अतिथिका अवश्य सत्कार करे। हे नरेन्द्र! उस समय अतिथिका सत्कार न करनेसे वह श्राद्ध-क्रियाके सम्पूर्ण फलको नष्ट कर देता है॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुहुयाद्‍व्यञ्जनक्षारवर्जमन्नं ततोऽनले।
अनुज्ञातो द्विजैस्तैस्तु त्रिकृत्वः पुरुषर्षभ॥ २६॥

मूलम्

जुहुयाद्‍व्यञ्जनक्षारवर्जमन्नं ततोऽनले।
अनुज्ञातो द्विजैस्तैस्तु त्रिकृत्वः पुरुषर्षभ॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पुरुषश्रेष्ठ! तदनन्तर उन ब्राह्मणोंकी आज्ञासे शाक और लवणहीन अन्नसे अग्निमें तीन बार आहुति दे॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नये कव्यवाहाय स्वाहेत्यादौ नृपाहुतिः।
सोमाय वै पितृमते दातव्या तदनन्तरम्॥ २७॥
वैवस्वताय चैवान‍्या तृतीया दीयते ततः।
हुतावशिष्टमल्पान्नं विप्रपात्रेषु निर्वपेत्॥ २८॥

मूलम्

अग्नये कव्यवाहाय स्वाहेत्यादौ नृपाहुतिः।
सोमाय वै पितृमते दातव्या तदनन्तरम्॥ २७॥
वैवस्वताय चैवान‍्या तृतीया दीयते ततः।
हुतावशिष्टमल्पान्नं विप्रपात्रेषु निर्वपेत्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! उनमेंसे ‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा’ इस मन्त्रसे पहली आहुति, ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ इससे दूसरी और ‘वैवस्वताय स्वाहा’ इस मन्त्रसे तीसरी आहुति दे। तदनन्तर आहुतियोंसे बचे हुए अन्नको थोड़ा-थोड़ा सब ब्राह्मणोंके पात्रोंमें परोस दे॥ २७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्नं मृष्टमत्यर्थमभीष्टमतिसंस्कृतम्।
दत्त्वा जुषध्वमिच्छातो वाच्यमेतदनिष्ठुरम्॥ २९॥

मूलम्

ततोऽन्नं मृष्टमत्यर्थमभीष्टमतिसंस्कृतम्।
दत्त्वा जुषध्वमिच्छातो वाच्यमेतदनिष्ठुरम्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर रुचिके अनुकूल अति संस्कारयुक्त मधुर अन्न सबको परोसे और अति मृदुल वाणीसे कहे कि ‘आप भोजन कीजिये’॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोक्तव्यं तैश्च तच्चित्तैर्मौनिभिस्सुमुखैः सुखम्।
अक्रुद्ध्यता चात्वरता देयं तेनापि भक्तितः॥ ३०॥

मूलम्

भोक्तव्यं तैश्च तच्चित्तैर्मौनिभिस्सुमुखैः सुखम्।
अक्रुद्ध्यता चात्वरता देयं तेनापि भक्तितः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंको भी तद‍्गतचित्त और मौन होकर प्रसन्नमुखसे सुखपूर्वक भोजन करना चाहिये तथा यजमानको क्रोध और उतावलेपनको छोड़कर भक्तिपूर्वक परोसते रहना चाहिये॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षोघ्नमन्त्रपठनं भूमेरास्तरणं तिलैः।
कृत्वा ध्येयास्स्वपितरस्त एव द्विजसत्तमाः॥ ३१॥

मूलम्

रक्षोघ्नमन्त्रपठनं भूमेरास्तरणं तिलैः।
कृत्वा ध्येयास्स्वपितरस्त एव द्विजसत्तमाः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर ‘रक्षोघ्न’* मन्त्रका पाठ कर श्राद्धभूमिपर तिल छिड़के तथा अपने पितृरूपसे उन द्विजश्रेष्ठोंका ही चिन्तन करे॥ ३१॥

पादटिप्पनी
  • ‘ॐ अपहता असुरा रक्षाॸसि वेदिषदः’ इत्यादि।
विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
मम तृप्तिं प्रयान्त्वद्य विप्रदेहेषु संस्थिताः॥ ३२॥

मूलम्

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
मम तृप्तिं प्रयान्त्वद्य विप्रदेहेषु संस्थिताः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और कहे कि] ‘इन ब्राह्मणोंके शरीरोंमें स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज तृप्ति लाभ करें॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
मम तृप्तिं प्रयान्त्वद्य होमाप्यायितमूर्तयः॥ ३३॥

मूलम्

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
मम तृप्तिं प्रयान्त्वद्य होमाप्यायितमूर्तयः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

होमद्वारा सबल होकर मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आज तृप्ति लाभ करें॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
तृप्तिं प्रयान्तु पिण्डेन मया दत्तेन भूतले॥ ३४॥

मूलम्

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
तृप्तिं प्रयान्तु पिण्डेन मया दत्तेन भूतले॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने जो पृथिवीपर पिण्डदान किया है उससे मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
तृप्तिं प्रयान्तु मे भक्त्या मयैतत्समुदाहृतम्॥ ३५॥

मूलम्

पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
तृप्तिं प्रयान्तु मे भक्त्या मयैतत्समुदाहृतम्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

[श्राद्धरूपसे कुछ भी निवेदन न कर सकनेके कारण] मैंने भक्तिपूर्वक जो कुछ कहा है उस मेरे भक्तिभावसे ही मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातामहस्तृप्तिमुपैतु तस्य
तथा पिता तस्य पिता ततोऽन्यः।
विश्वे च देवाः परमां प्रयान्तु
तृप्तिं प्रणश्यन्तु च यातुधानाः॥ ३६॥

मूलम्

मातामहस्तृप्तिमुपैतु तस्य
तथा पिता तस्य पिता ततोऽन्यः।
विश्वे च देवाः परमां प्रयान्तु
तृप्तिं प्रणश्यन्तु च यातुधानाः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मातामह (नाना), उनके पिता और उनके भी पिता तथा विश्वेदेवगण परम तृप्ति लाभ करें तथा समस्त राक्षसगण नष्ट हों॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञेश्वरो हव्यसमस्तकव्य-
भोक्ताव्ययात्मा हरिरीश्वरोऽत्र।
तत्सन्निधानादपयान्तु सद्यो
रक्षांस्यशेषाण्यसुराश्च सर्वे॥ ३७॥

मूलम्

यज्ञेश्वरो हव्यसमस्तकव्य-
भोक्ताव्ययात्मा हरिरीश्वरोऽत्र।
तत्सन्निधानादपयान्तु सद्यो
रक्षांस्यशेषाण्यसुराश्च सर्वे॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ समस्त हव्य-कव्यके भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान‍् हरि विराजमान हैं, अतः उनकी सन्निधिके कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँसे तुरन्त भाग जायँ’॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृप्तेष्वेतेषु विकिरेदन्नं विप्रेषु भूतले।
दद्यादाचमनार्थाय तेभ्यो वारि सकृत्सकृत्॥ ३८॥

मूलम्

तृप्तेष्वेतेषु विकिरेदन्नं विप्रेषु भूतले।
दद्यादाचमनार्थाय तेभ्यो वारि सकृत्सकृत्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर ब्राह्मणोंके तृप्त हो जानेपर थोड़ा-सा अन्न पृथिवीपर डाले और आचमनके लिये उन्हें एक-एक बार और जल दे॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतृप्तैस्तैरनुज्ञातस्सर्वेणान्नेन भूतले।
सतिलेन ततः पिण्डान्सम्यग्दद्यात्समाहितः॥ ३९॥

मूलम्

सुतृप्तैस्तैरनुज्ञातस्सर्वेणान्नेन भूतले।
सतिलेन ततः पिण्डान्सम्यग्दद्यात्समाहितः॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भली प्रकार तृप्त हुए उन ब्राह्मणोंकी आज्ञा होनेपर समाहितचित्तसे पृथिवीपर अन्न और तिलके पिण्ड-दान करे॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृतीर्थेन सतिलं तथैव सलिलाञ्जलिम्।
मातामहेभ्यस्तेनैव पिण्डांस्तीर्थेन निर्वपेत्॥ ४०॥

मूलम्

पितृतीर्थेन सतिलं तथैव सलिलाञ्जलिम्।
मातामहेभ्यस्तेनैव पिण्डांस्तीर्थेन निर्वपेत्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और पितृतीर्थसे तिलयुक्त जलांजलि दे तथा मातामह आदिको भी उस पितृतीर्थसे ही पिण्ड-दान करे॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु पुष्पधूपादिपूजितम्।
स्वपित्रे प्रथमं पिण्डं दद्यादुच्छिष्टसन्निधौ॥ ४१॥

मूलम्

दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु पुष्पधूपादिपूजितम्।
स्वपित्रे प्रथमं पिण्डं दद्यादुच्छिष्टसन्निधौ॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंके उच्छिष्ट (जूठन)-के निकट दक्षिणकी ओर अग्रभाग करके बिछाये हुए कुशाओंपर पहले अपने पिताके लिये पुष्प-धूपादिसे पूजित पिण्डदान करे॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहाय चैवान‍्यं तत्पित्रे च तथापरम्।
दर्भमूले लेपभुजः प्रीणयेल्लेपघर्षणैः॥ ४२॥

मूलम्

पितामहाय चैवान‍्यं तत्पित्रे च तथापरम्।
दर्भमूले लेपभुजः प्रीणयेल्लेपघर्षणैः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् एक पिण्ड पितामहके लिये और एक प्रपितामहके लिये दे और फिर कुशाओंके मूलमें हाथमें लगे अन्नको पोंछकर [‘लेपभागभुजस्तृप्यन्ताम्’ ऐसा उच्चारण करते हुए ] लेपभोजी पितृगणको तृप्त करे॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिण्डैर्मातामहांस्तद्वद‍्गन्धमाल्यादिसंयुतैः।
पूजयित्वा द्विजाग्र्याणां दद्याच्चाचमनं ततः॥ ४३॥

मूलम्

पिण्डैर्मातामहांस्तद्वद‍्गन्धमाल्यादिसंयुतैः।
पूजयित्वा द्विजाग्र्याणां दद्याच्चाचमनं ततः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार गन्ध और मालादियुक्त पिण्डोंसे मातामह आदिका पूजन कर फिर द्विजश्रेष्ठोंको आचमन करावे॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृभ्यः प्रथमं भक्त्या तन्मनस्को नरेश्वर।
सुस्वधेत्याशिषा युक्तां दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम्॥ ४४॥

मूलम्

पितृभ्यः प्रथमं भक्त्या तन्मनस्को नरेश्वर।
सुस्वधेत्याशिषा युक्तां दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे नरेश्वर! इसके पीछे भक्तिभावसे तन्मय होकर पहले पितृपक्षीय ब्राह्मणोंका ‘सुस्वधा’ यह आशीर्वाद ग्रहण करता हुआ यथाशक्ति दक्षिणा दे॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा च दक्षिणां तेभ्यो वाचयेद्वैश्वदेविकान्।
प्रीयन्तामिह ये विश्वेदेवास्तेन इतीरयेत्॥ ४५॥

मूलम्

दत्त्वा च दक्षिणां तेभ्यो वाचयेद्वैश्वदेविकान्।
प्रीयन्तामिह ये विश्वेदेवास्तेन इतीरयेत्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वैश्वदेविक ब्राह्मणोंके निकट जा उन्हें दक्षिणा देकर कहे कि ‘इस दक्षिणासे विश्वेदेवगण प्रसन्न हों’॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति चोक्ते तैर्विप्रैः प्रार्थनीयास्तथाशिषः।
पश्चाद्विसर्जयेद्देवान‍्पूर्वं पित्र्यान्महीपते॥ ४६॥

मूलम्

तथेति चोक्ते तैर्विप्रैः प्रार्थनीयास्तथाशिषः।
पश्चाद्विसर्जयेद्देवान‍्पूर्वं पित्र्यान्महीपते॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन ब्राह्मणोंके ‘तथास्तु’ कहनेपर उनसे आशीर्वादके लिये प्रार्थना करे और फिर पहले पितृपक्षके और पीछे देवपक्षके ब्राह्मणोंको विदा करे॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातामहानामप्येवं सह देवैः क्रमः स्मृतः।
भोजने च स्वशक्त्या च दाने तद्वद्विसर्जने॥ ४७॥

मूलम्

मातामहानामप्येवं सह देवैः क्रमः स्मृतः।
भोजने च स्वशक्त्या च दाने तद्वद्विसर्जने॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वेदेवगणके सहित मातामह आदिके श्राद्धमें भी ब्राह्मण-भोजन, दान और विसर्जन आदिकी यही विधि बतलायी गयी है॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपादशौचनात्पूर्वं कुर्याद्देवद्विजन्मसु।
विसर्जनं तु प्रथमं पैत्रमातामहेषु वै॥ ४८॥

मूलम्

आपादशौचनात्पूर्वं कुर्याद्देवद्विजन्मसु।
विसर्जनं तु प्रथमं पैत्रमातामहेषु वै॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितृ और मातामह दोनों ही पक्षोंके श्राद्धोंमें पादशौच आदि सभी कर्म पहले देवपक्षके ब्राह्मणोंके करे; परन्तु विदा पहले पितृपक्षीय अथवा मातामहपक्षीय ब्राह्मणोंकी ही करे॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसर्जयेत्प्रीतिवचस्सम्मान्याभ्यर्थितांस्ततः।
निवर्त्तेताभ्यनुज्ञात आद्वारं ताननुव्रजेत्॥ ४९॥

मूलम्

विसर्जयेत्प्रीतिवचस्सम्मान्याभ्यर्थितांस्ततः।
निवर्त्तेताभ्यनुज्ञात आद्वारं ताननुव्रजेत्॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रीतिवचन और सम्मानपूर्वक ब्राह्मणोंको विदा करे और उनके जानेके समय द्वारतक उनके पीछे-पीछे जाय तथा जब वे आज्ञा दें तो लौट आवे॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु वैश्वदेवाख्यं कुर्यान्नित्यक्रियां बुधः।
भुञ्‍ज्याच्चैव समं पूज्यभृत्यबन्धुभिरात्मनः॥ ५०॥

मूलम्

ततस्तु वैश्वदेवाख्यं कुर्यान्नित्यक्रियां बुधः।
भुञ्‍ज्याच्चैव समं पूज्यभृत्यबन्धुभिरात्मनः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर विज्ञ पुरुष वैश्वदेव नामक नित्यकर्म करे और अपने पूज्यपुरुष, बन्धुजन तथा भृत्यगणके सहित स्वयं भोजन करे॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं श्राद्धं बुधः कुर्यात्पित्र्यं मातामहं तथा।
श्राद्धैराप्यायिता दद्युस्सर्वान‍्कामान्पितामहाः॥ ५१॥

मूलम्

एवं श्राद्धं बुधः कुर्यात्पित्र्यं मातामहं तथा।
श्राद्धैराप्यायिता दद्युस्सर्वान‍्कामान्पितामहाः॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकार पैत्र्य और मातामह-श्राद्धका अनुष्ठान करे। श्राद्धसे तृप्त होकर पितृगणसमस्त कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः।
रजतस्य तथा दानं कथासंकीर्तनादिकम्॥ ५२॥

मूलम्

त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः।
रजतस्य तथा दानं कथासंकीर्तनादिकम्॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

दौहित्र (लड़कीका लड़का), कुतप (दिनका आठवाँ मुहूर्त) और तिल—ये तीन तथा चाँदीका दान और उसकी बातचीत करना—ये सब श्राद्धकालमें पवित्र माने गये हैं॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्ज्यानि कुर्वता श्राद्धं क्रोधोऽध्वगमनं त्वरा।
भोक्तुरप्यत्र राजेन्द्र त्रयमेतन्न शस्यते॥ ५३॥

मूलम्

वर्ज्यानि कुर्वता श्राद्धं क्रोधोऽध्वगमनं त्वरा।
भोक्तुरप्यत्र राजेन्द्र त्रयमेतन्न शस्यते॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेन्द्र! श्राद्धकर्ताके लिये क्रोध, मार्गगमन और उतावलापन—ये तीन बातें वर्जित हैं; तथा श्राद्धमें भोजन करनेवालोंको भी इन तीनोंका करना उचित नहीं है॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वेदेवास्सपितरस्तथा मातामहा नृप।
कुलं चाप्यायते पुंसां सर्वं श्राद्धं प्रकुर्वताम्॥ ५४॥

मूलम्

विश्वेदेवास्सपितरस्तथा मातामहा नृप।
कुलं चाप्यायते पुंसां सर्वं श्राद्धं प्रकुर्वताम्॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! श्राद्ध करनेवाले पुरुषसे विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन—सभी सन्तुष्ट रहते हैं॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमाधारः पितृगणो योगाधारश्च चन्द्रमाः।
श्राद्धे योगिनियोगस्तु तस्माद्भूपाल शस्यते॥ ५५॥

मूलम्

सोमाधारः पितृगणो योगाधारश्च चन्द्रमाः।
श्राद्धे योगिनियोगस्तु तस्माद्भूपाल शस्यते॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भूपाल! पितृगणका आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग है, इसलिये श्राद्धमें योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रस्यापि विप्राणां योगी चेत्पुरतः स्थितः।
सर्वान‍्भोक्तॄंस्तारयति यजमानं तथा नृप॥ ५६॥

मूलम्

सहस्रस्यापि विप्राणां योगी चेत्पुरतः स्थितः।
सर्वान‍्भोक्तॄंस्तारयति यजमानं तथा नृप॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! यदि श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है॥ ५६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥