१२

[बारहवाँ अध्याय]

विषय

गृहस्थसम्बन्धी सदाचारका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

और्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगोब्राह्मणान्सिद्धान्वृद्धाचार्यांस्तथार्चयेत्।
द्विकालं च नमेत्सन्ध्यामग्नीनुपचरेत्तथा॥ १॥

मूलम्

देवगोब्राह्मणान्सिद्धान्वृद्धाचार्यांस्तथार्चयेत्।
द्विकालं च नमेत्सन्ध्यामग्नीनुपचरेत्तथा॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

और्व बोले—गृहस्थ पुरुषको नित्यप्रति देवता, गौ, ब्राह्मण, सिद्धगण, वयोवृद्ध तथा आचार्यकी पूजा करनी चाहिये और दोनों समय सन्ध्यावन्दन तथा अग्निहोत्रादि कर्म करने चाहिये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदाऽनुपहते वस्त्रे प्रशस्ताश्च महौषधीः।
गारुडानि च रत्नानि बिभृयात्प्रयतो नरः॥ २॥

मूलम्

सदाऽनुपहते वस्त्रे प्रशस्ताश्च महौषधीः।
गारुडानि च रत्नानि बिभृयात्प्रयतो नरः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ पुरुष सदा ही संयमपूर्वक रहकर बिना कहींसे कटे हुए दो वस्त्र, उत्तम ओषधियाँ और गारुड (मरकत आदि विष नष्ट करनेवाले) रत्न धारण करे॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रस्निग्धामलकेशश्च सुगन्धश्चारुवेषधृक्।
सितास्सुमनसो हृद्या बिभृयाच्च नरस्सदा॥ ३॥

मूलम्

प्रस्निग्धामलकेशश्च सुगन्धश्चारुवेषधृक्।
सितास्सुमनसो हृद्या बिभृयाच्च नरस्सदा॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह केशोंको स्वच्छ और चिकना रखे तथा सर्वदा सुगन्धयुक्त सुन्दर वेष और मनोहर श्वेतपुष्प धारण करे॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किञ्चित्परस्वं न हरेन्नाल्पमप्यप्रियं वदेत्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयान्नान्यदोषानुदीरयेत्॥ ४॥

मूलम्

किञ्चित्परस्वं न हरेन्नाल्पमप्यप्रियं वदेत्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयान्नान्यदोषानुदीरयेत्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीका थोड़ा-सा भी धन हरण न करे और थोड़ा-सा भी अप्रिय भाषण न करे। जो मिथ्या हो ऐसा प्रिय वचन भी कभी न बोले और न कभी दूसरोंके दोषोंको ही कहे॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यस्त्रियं तथा वैरं रोचयेत्पुरुषर्षभ।
न दुष्टं यानमारोहेत्कूलच्छायां न संश्रयेत्॥ ५॥

मूलम्

नान्यस्त्रियं तथा वैरं रोचयेत्पुरुषर्षभ।
न दुष्टं यानमारोहेत्कूलच्छायां न संश्रयेत्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पुरुषश्रेष्ठ! दूसरोंकी स्त्री अथवा दूसरोंके साथ वैर करनेमें कभी रुचि न करे, निन्दित सवारीमें कभी न चढ़े और नदीतीरकी छायाका कभी आश्रय न ले॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्विष्टपतितोन्मत्तबहुवैरादिकीटकैः।
बन्धकी बन्धकीभर्त्तुः क्षुद्रानृतकथैस्सह॥ ६॥
तथातिव्ययशीलैश्च परिवादरतैश्शठैः।
बुधो मैत्रीं न कुर्वीत नैकः पन्थानमाश्रयेत्॥ ७॥

मूलम्

विद्विष्टपतितोन्मत्तबहुवैरादिकीटकैः।
बन्धकी बन्धकीभर्त्तुः क्षुद्रानृतकथैस्सह॥ ६॥
तथातिव्ययशीलैश्च परिवादरतैश्शठैः।
बुधो मैत्रीं न कुर्वीत नैकः पन्थानमाश्रयेत्॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष लोकविद्विष्ट, पतित, उन्मत्त और जिसके बहुत-से शत्रु हों ऐसे परपीडक पुरुषोंके साथ तथा कुलटा, कुलटाके स्वामी, क्षुद्र, मिथ्यावादी अति व्ययशील, निन्दापरायण और दुष्ट पुरुषोंके साथ कभी मित्रता न करे और न कभी मार्गमें अकेला चले॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावगाहेज्जलौघस्य वेगमग्रे नरेश्वर।
प्रदीप्तं वेश्म न विशेन्नारोहेच्छिखरं तरोः॥ ८॥

मूलम्

नावगाहेज्जलौघस्य वेगमग्रे नरेश्वर।
प्रदीप्तं वेश्म न विशेन्नारोहेच्छिखरं तरोः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! जलप्रवाहके वेगमें सामने पड़कर स्नान न करे, जलते हुए घरमें प्रवेश न करे और वृक्षकी चोटीपर न चढ़े॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कुर्याद्दन्तसङ्घर्षं कुष्णीयाच्च न नासिकाम्।
नासंवृतमुखो जृम्भेच्छ्वासकासौ विसर्जयेत्॥ ९॥

मूलम्

न कुर्याद्दन्तसङ्घर्षं कुष्णीयाच्च न नासिकाम्।
नासंवृतमुखो जृम्भेच्छ्वासकासौ विसर्जयेत्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

दाँतोंको परस्पर न घिसे, नाकको न कुरेदे तथा मुखको बन्द किये हुए जमुहाई न ले और न बन्द मुखसे खाँसे या श्वास छोड़े ॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोच्चैर्हसेत्सशब्दं च न मुञ्चेत्पवनं बुधः।
नखान्न खादयेच्छिन्द्यान्न तृणं न महीं लिखेत्॥ १०॥

मूलम्

नोच्चैर्हसेत्सशब्दं च न मुञ्चेत्पवनं बुधः।
नखान्न खादयेच्छिन्द्यान्न तृणं न महीं लिखेत्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष जोरसे न हँसे और शब्द करते हुए अधोवायु न छोड़े; तथा नखोंको न चबावे, तिनका न तोड़े और पृथिवीपर भी न लिखे॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न श्मश्रु भक्षयेल्लोष्टं न मृद्नीयाद्विचक्षणः।
ज्योतींष्यमेध्यशस्तानि नाभिवीक्षेत च प्रभो॥ ११॥

मूलम्

न श्मश्रु भक्षयेल्लोष्टं न मृद्नीयाद्विचक्षणः।
ज्योतींष्यमेध्यशस्तानि नाभिवीक्षेत च प्रभो॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! विचक्षण पुरुष मूँछ-दाढ़ीके बालोंको न चबावे, दो ढेलोंको परस्पर न रगड़े और अपवित्र एवं निन्दित नक्षत्रोंको न देखे॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नग्नां परस्त्रियं चैव सूर्यं चास्तमयोदये।
न हुंकुर्याच्छवं गन्धं शवगन्धो हि सोमजः॥ १२॥

मूलम्

नग्नां परस्त्रियं चैव सूर्यं चास्तमयोदये।
न हुंकुर्याच्छवं गन्धं शवगन्धो हि सोमजः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

नग्न परस्त्रीको और उदय अथवा अस्त होते हुए सूर्यको न देखे तथा शव और शव-गन्धसे घृणा न करे, क्योंकि शव-गन्ध सोमका अंश है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुष्पथं चैत्यतरुं श्मशानोपवनानि च।
दुष्टस्त्रीसन्निकर्षं च वर्जयेन्निशि सर्वदा॥ १३॥

मूलम्

चतुष्पथं चैत्यतरुं श्मशानोपवनानि च।
दुष्टस्त्रीसन्निकर्षं च वर्जयेन्निशि सर्वदा॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

चौराहा, चैत्यवृक्ष, श्मशान, उपवन और दुष्टा स्त्रीकी समीपता—इन सबका रात्रिके समय सर्वदा त्याग करे॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूज्यदेवद्विजज्योतिश्छायां नातिक्रमेद् बुधः।
नैकश्शून्याटवीं गच्छेत्तथा शून्यगृहे वसेत्॥ १४॥

मूलम्

पूज्यदेवद्विजज्योतिश्छायां नातिक्रमेद् बुधः।
नैकश्शून्याटवीं गच्छेत्तथा शून्यगृहे वसेत्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष अपने पूजनीय देवता, ब्राह्मण और तेजोमय पदार्थोंकी छायाको कभी न लाँघे तथा शून्य वनखण्डी और शून्य घरमें कभी अकेला न रहे॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशास्थिकण्टकामेध्यबलिभस्मतुषांस्तथा।
स्नानार्द्रधरणीं चैव दूरतः परिवर्जयेत्॥ १५॥

मूलम्

केशास्थिकण्टकामेध्यबलिभस्मतुषांस्तथा।
स्नानार्द्रधरणीं चैव दूरतः परिवर्जयेत्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

केश, अस्थि, कण्टक, अपवित्र वस्तु, बलि, भस्म, तुष तथा स्नानके कारण भीगी हुई पृथिवीका दूरहीसे त्याग करे॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानार्यानाश्रयेत्कांश्चिन्न जिह्मं रोचयेद् बुधः।
उपसर्पेन्न वै व्यालं चिरं तिष्ठेन्न वोत्थितः॥ १६॥

मूलम्

नानार्यानाश्रयेत्कांश्चिन्न जिह्मं रोचयेद् बुधः।
उपसर्पेन्न वै व्यालं चिरं तिष्ठेन्न वोत्थितः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राज्ञ पुरुषको चाहिये कि अनार्य व्यक्तिका संग न करे, कुटिल पुरुषमें आसक्त न हो, सर्पके पास न जाय और जग पड़नेपर अधिक देरतक लेटा न रहे॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव जागरस्वप्ने तद्वत्स्नानासने बुधः।
न सेवेत तथा शय्यां व्यायामं च नरेश्वर॥ १७॥

मूलम्

अतीव जागरस्वप्ने तद्वत्स्नानासने बुधः।
न सेवेत तथा शय्यां व्यायामं च नरेश्वर॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! बुद्धिमान् पुरुष जागने, सोने, स्नान करने, बैठने, शय्यासेवन करने और व्यायाम करनेमें अधिक समय न लगावे॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंष्ट्रिणः शृंगिंणश्चैव प्राज्ञो दूरेण वर्जयेत्।
अवश्यायं च राजेन्द्र पुरोवातातपौ तथा॥ १८॥

मूलम्

दंष्ट्रिणः शृंगिंणश्चैव प्राज्ञो दूरेण वर्जयेत्।
अवश्यायं च राजेन्द्र पुरोवातातपौ तथा॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेन्द्र! प्राज्ञ पुरुष दाँत और सींगवाले पशुओंको, ओसको तथा सामनेकी वायु और धूपका सर्वदा परित्याग करे॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्नायान्न स्वपेन्नग्नो न चैवोपस्पृशेद् बुधः।
मुक्तकेशश्च नाचामेद्देवाद्यर्चां च वर्जयेत्॥ १९॥

मूलम्

न स्नायान्न स्वपेन्नग्नो न चैवोपस्पृशेद् बुधः।
मुक्तकेशश्च नाचामेद्देवाद्यर्चां च वर्जयेत्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नग्न होकर स्नान, शयन और आचमन न करे तथा केश खोलकर आचमन और देव-पूजन न करे॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होमदेवार्चनाद्यासु क्रियास्वाचमने तथा।
नैकवस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिके जपे॥ २०॥

मूलम्

होमदेवार्चनाद्यासु क्रियास्वाचमने तथा।
नैकवस्त्रः प्रवर्तेत द्विजवाचनिके जपे॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

होम तथा देवार्चन आदि क्रियाओंमें, आचमनमें, पुण्याहवाचनमें और जपमें एक वस्त्र धारण करके प्रवृत्त न हो॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासमञ्जसशीलैस्तु सहासीत कथञ्चन।
सद‍्वृत्तसन्निकर्षो हि क्षणार्द्धमपि शस्यते॥ २१॥

मूलम्

नासमञ्जसशीलैस्तु सहासीत कथञ्चन।
सद‍्वृत्तसन्निकर्षो हि क्षणार्द्धमपि शस्यते॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

संशयशील व्यक्तियोंके साथ कभी न रहे। सदाचारी पुरुषोंका तो आधे क्षणका संग भी अति प्रशंसनीय होता है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरोधं नोत्तमैर्गच्छेन्नाधमैश्च सदा बुधः।
विवाहश्च विवादश्च तुल्यशीलैर्नृपेष्यते॥ २२॥

मूलम्

विरोधं नोत्तमैर्गच्छेन्नाधमैश्च सदा बुधः।
विवाहश्च विवादश्च तुल्यशीलैर्नृपेष्यते॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष उत्तम अथवा अधम व्यक्तियोंसे विरोध न करे। हे राजन्! विवाह और विवाद सदा समान व्यक्तियोंसे ही होना चाहिये॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारभेत कलिं प्राज्ञश्शुष्कवैरं च वर्जयेत्।
अप्यल्पहानिस्सोढव्या वैरेणार्थागमं त्यजेत्॥ २३॥

मूलम्

नारभेत कलिं प्राज्ञश्शुष्कवैरं च वर्जयेत्।
अप्यल्पहानिस्सोढव्या वैरेणार्थागमं त्यजेत्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राज्ञ पुरुष कलह न बढ़ावे तथा व्यर्थ वैरका भी त्याग करे। थोड़ी-सी हानि सह ले, किन्तु वैरसे कुछ लाभ होता हो तो उसे भी छोड़ दे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातो नांगानि सम्मार्जेत्स्नानशाट्या न पाणिना।
न च निर्धूनयेत्केशान्नाचामेच्चैव चोत्थितः॥ २४॥

मूलम्

स्नातो नांगानि सम्मार्जेत्स्नानशाट्या न पाणिना।
न च निर्धूनयेत्केशान्नाचामेच्चैव चोत्थितः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्नान करनेके अनन्तर स्नानसे भीगी हुई धोती अथवा हाथोंसे शरीरको न पोंछे तथा खड़े-खड़े केशोंको न झाड़े और आचमन भी न करे॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादेन नाक्रमेत्पादं न पूज्याभिमुखं नयेत।
नोच्चासनं गुरोरग्रे भजेताविनयान्वितः॥ २५॥

मूलम्

पादेन नाक्रमेत्पादं न पूज्याभिमुखं नयेत।
नोच्चासनं गुरोरग्रे भजेताविनयान्वितः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पैरके ऊपर पैर न रखे, गुरुजनोंके सामने पैर न फैलावे और धृष्टतापूर्वक उनके सामने कभी उच्चासनपर न बैठे॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपसव्यं न गच्छेच्च देवागारचतुष्पथान्।
मांगल्यपूज्यांश्च तथा विपरीतान्न दक्षिणम्॥ २६॥

मूलम्

अपसव्यं न गच्छेच्च देवागारचतुष्पथान्।
मांगल्यपूज्यांश्च तथा विपरीतान्न दक्षिणम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवालय, चौराहा, मांगलिक द्रव्य और पूज्य व्यक्ति—इन सबको बायीं ओर रखकर न निकले तथा इनके विपरीत वस्तुओंको दायीं ओर रखकर न जाय॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमार्काग्न्यम्बुवायूनां पूज्यानां च न सम्मुखम्।
कुर्यान्निष्ठीवविण्मूत्रसमुत्सर्गं च पण्डितः॥ २७॥

मूलम्

सोमार्काग्न्यम्बुवायूनां पूज्यानां च न सम्मुखम्।
कुर्यान्निष्ठीवविण्मूत्रसमुत्सर्गं च पण्डितः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, जल, वायु और पूज्य व्यक्तियोंके सम्मुख पण्डित पुरुष मल-मूत्र-त्याग न करे और न थूके ही॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठन्न मूत्रयेत्तद्वत्पथिष्वपि न मूत्रयेत्।
श्लेष्मविण्मूत्ररक्तानि सर्वदैव न लङ्घयेत्॥ २८॥

मूलम्

तिष्ठन्न मूत्रयेत्तद्वत्पथिष्वपि न मूत्रयेत्।
श्लेष्मविण्मूत्ररक्तानि सर्वदैव न लङ्घयेत्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

खड़े-खड़े अथवा मार्गमें मूत्र-त्याग न करे तथा श्लेष्मा (थूक), विष्ठा, मूत्र और रक्तको कभी न लाँघे॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्लेष्मशिङ्घाणिकोत्सर्गो नान्नकाले प्रशस्यते।
बलिमंगलजप्यादौ न होमे न महाजने॥ २९॥

मूलम्

श्लेष्मशिङ्घाणिकोत्सर्गो नान्नकाले प्रशस्यते।
बलिमंगलजप्यादौ न होमे न महाजने॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन, देव-पूजा, मांगलिक कार्य और जप-होमादिके समय तथा महापुरुषोंके सामने थूकना और छींकना उचित नहीं है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योषितो नावमन्येत न चासां विश्वसेद् बुधः।
न चैवेर्ष्या भवेत्तासु न धिक्‍कुर्यात्कदाचन॥ ३०॥

मूलम्

योषितो नावमन्येत न चासां विश्वसेद् बुधः।
न चैवेर्ष्या भवेत्तासु न धिक्‍कुर्यात्कदाचन॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष स्त्रियोंका अपमान न करे, उनका विश्वास भी न करे तथा उनसे ईर्ष्या और उनका तिरस्कार भी कभी न करे॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंगल्यपुष्परत्नाज्यपूज्याननभिवाद्य च।
न निष्क्रमेद् गृहात्प्राज्ञस्सदाचारपरो नरः॥ ३१॥

मूलम्

मंगल्यपुष्परत्नाज्यपूज्याननभिवाद्य च।
न निष्क्रमेद् गृहात्प्राज्ञस्सदाचारपरो नरः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदाचार-परायण प्राज्ञपुरुष मांगलिक द्रव्य, पुष्प, रत्न, घृत और पूज्य व्यक्तियोंका अभिवादन किये बिना कभी अपने घरसे न निकले॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुष्पथान्नमस्कुर्यात्काले होमपरो भवेत्।
दीनानभ्युद्धरेत्साधूनुपासीत बहुश्रुतान्॥ ३२॥

मूलम्

चतुष्पथान्नमस्कुर्यात्काले होमपरो भवेत्।
दीनानभ्युद्धरेत्साधूनुपासीत बहुश्रुतान्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

चौराहोंको नमस्कार करे, यथासमय अग्निहोत्र करे, दीन-दुःखियोंका उद्धार करे और बहुश्रुत साधु पुरुषोंका सत्संग करे॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिपूजकस्सम्यक्पितृपिण्डोदकप्रदः।
सत्कर्ता चातिथीनां यः स लोकानुत्तमान्व्रजेत्॥ ३३॥

मूलम्

देवर्षिपूजकस्सम्यक्पितृपिण्डोदकप्रदः।
सत्कर्ता चातिथीनां यः स लोकानुत्तमान्व्रजेत्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष देवता और ऋषियोंकी पूजा करता है, पितृगणको पिण्डोदक देता है और अतिथिका सत्कार करता है वह पुण्यलोकोंको जाता है॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हितं मितं प्रियं काले वश्यात्मा योऽभिभाषते।
स याति लोकानाह्लादहेतुभूतान्नृपाक्षयान्॥ ३४॥

मूलम्

हितं मितं प्रियं काले वश्यात्मा योऽभिभाषते।
स याति लोकानाह्लादहेतुभूतान्नृपाक्षयान्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्यक्ति जितेन्द्रिय होकर समयानुसार हित, मित और प्रिय भाषण करता है, हे राजन्! वह आनन्दके हेतुभूत अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धीमान्ह्रीमान्क्षमायुक्तो ह्यास्तिको विनयान्वितः।
विद्याभिजनवृद्धानां याति लोकाननुत्तमान्॥ ३५॥

मूलम्

धीमान्ह्रीमान्क्षमायुक्तो ह्यास्तिको विनयान्वितः।
विद्याभिजनवृद्धानां याति लोकाननुत्तमान्॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान्, लज्जावान‍्, क्षमाशील, आस्तिक और विनयी पुरुष विद्वान‍् और कुलीन पुरुषोंके योग्य उत्तम लोकोंमें जाता है॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकालगर्जितादौ च पर्वस्वाशौचकादिषु।
अनध्यायं बुधः कुर्यादुपरागादिके तथा॥ ३६॥

मूलम्

अकालगर्जितादौ च पर्वस्वाशौचकादिषु।
अनध्यायं बुधः कुर्यादुपरागादिके तथा॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अकाल मेघगर्जनके समय, पर्व-दिनोंपर, अशौच कालमें तथा चन्द्र और सूर्यग्रहणके समय बुद्धिमान् पुरुष अध्ययन न करे॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमं नयति यः क्रुद्धान्सर्वबन्धुरमत्सरी।
भीताश्वासनकृत्साधुस्स्वर्गस्तस्याल्पकं फलम्॥ ३७॥

मूलम्

शमं नयति यः क्रुद्धान्सर्वबन्धुरमत्सरी।
भीताश्वासनकृत्साधुस्स्वर्गस्तस्याल्पकं फलम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्यक्ति क्रोधितको शान्त करता है, सबका बन्धु है, मत्सरशून्य है, भयभीतको सान्त्वना देनेवाला है और साधु-स्वभाव है उसके लिये स्वर्ग तो बहुत थोड़ा फल है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षातपादिषु च्छत्री दण्डी रात्र्यटवीषु च।
शरीरत्राणकामो वै सोपानत्कस्सदा व्रजेत्॥ ३८॥

मूलम्

वर्षातपादिषु च्छत्री दण्डी रात्र्यटवीषु च।
शरीरत्राणकामो वै सोपानत्कस्सदा व्रजेत्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे शरीर-रक्षाकी इच्छा हो वह पुरुष वर्षा और धूपमें छाता लेकर निकले, रात्रिके समय और वनमें दण्ड लेकर जाय तथा जहाँ कहीं जाना हो सर्वदा जूते पहनकर जाय॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोर्ध्वं न तिर्यग्दूरं वा न पश्यन्पर्यटेद् बुधः।
युगमात्रं महीपृष्ठं नरो गच्छेद्विलोकयन्॥ ३९॥

मूलम्

नोर्ध्वं न तिर्यग्दूरं वा न पश्यन्पर्यटेद् बुधः।
युगमात्रं महीपृष्ठं नरो गच्छेद्विलोकयन्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुषको ऊपरकी ओर, इधर-उधर अथवा दूरके पदार्थोंको देखते हुए नहीं चलना चाहिये, केवल युगमात्र (चार हाथ) पृथिवीको देखता हुआ चले॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषहेतूनशेषांश्च वश्यात्मा यो निरस्यति।
तस्य धर्मार्थकामानां हानिर्नाल्पापि जायते॥ ४०॥

मूलम्

दोषहेतूनशेषांश्च वश्यात्मा यो निरस्यति।
तस्य धर्मार्थकामानां हानिर्नाल्पापि जायते॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जितेन्द्रिय दोषके समस्त हेतुओंको त्याग देता है उसके धर्म, अर्थ और कामकी थोड़ी-सी भी हानि नहीं होती॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदाचाररतः प्राज्ञो विद्याविनयशिक्षितः।
पापेऽप्यपापः परुषे ह्यभिधत्ते प्रियाणि यः।
मैत्रीद्रवान‍्तःकरणस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता॥ ४१॥

मूलम्

सदाचाररतः प्राज्ञो विद्याविनयशिक्षितः।
पापेऽप्यपापः परुषे ह्यभिधत्ते प्रियाणि यः।
मैत्रीद्रवान‍्तःकरणस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्या-विनय-सम्पन्न, सदाचारी प्राज्ञ पुरुष पापीके प्रति पापमय व्यवहार नहीं करता, कुटिल पुरुषोंसे प्रिय भाषण करता है तथा जिसका अन्तःकरण मैत्रीसे द्रवीभूत रहता है, मुक्ति उसकी मुट्ठीमें रहती है॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये कामक्रोधलोभानां वीतरागा न गोचरे।
सदाचारस्थितास्तेषामनुभावैर्धृता मही॥ ४२॥

मूलम्

ये कामक्रोधलोभानां वीतरागा न गोचरे।
सदाचारस्थितास्तेषामनुभावैर्धृता मही॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वीतरागमहापुरुष कभी काम, क्रोध और लोभादिके वशीभूत नहीं होते तथा सर्वदा सदाचारमें स्थित रहते हैं उनके प्रभावसे ही पृथिवी टिकी हुई है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्सत्यं वदेत्प्राज्ञो यत्परप्रीतिकारणम्।
सत्यं यत्परदुःखाय तदा मौनपरो भवेत्॥ ४३॥

मूलम्

तस्मात्सत्यं वदेत्प्राज्ञो यत्परप्रीतिकारणम्।
सत्यं यत्परदुःखाय तदा मौनपरो भवेत्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः प्राज्ञ पुरुषको वही सत्य कहना चाहिये जो दूसरोंकी प्रसन्नताका कारण हो। यदि किसी सत्य वाक्यके कहनेसे दूसरोंको दुःख होता जाने तो मौन रहे॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियमुक्तं हितं नैतदिति मत्वा न तद्वदेत्।
श्रेयस्तत्र हितं वाच्यं यद्यप्यत्यन्तमप्रियम्॥ ४४॥

मूलम्

प्रियमुक्तं हितं नैतदिति मत्वा न तद्वदेत्।
श्रेयस्तत्र हितं वाच्यं यद्यप्यत्यन्तमप्रियम्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि प्रिय वाक्यको भी अहितकर समझे तो उसे न कहे; उस अवस्थामें तो हितकर वाक्य ही कहना अच्छा है, भले ही वह अत्यन्त अप्रिय क्यों न हो॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणिनामुपकाराय यथैवेह परत्र च।
कर्मणा मनसा वाचा तदेव मतिमान्भजेत्॥ ४५॥

मूलम्

प्राणिनामुपकाराय यथैवेह परत्र च।
कर्मणा मनसा वाचा तदेव मतिमान्भजेत्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कार्य इहलोक और परलोकमें प्राणियोंके हितका साधक हो मतिमान् पुरुष मन, वचन और कर्मसे उसीका आचरण करे॥ ४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥