११

[ग्यारहवाँ अध्याय]

विषय

गृहस्थसम्बन्धी सदाचारका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

सगर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहस्थस्य सदाचारं श्रोतुमिच्छाम्यहं मुने।
लोकादस्मात्परस्माच्च यमातिष्ठन्न हीयते॥ १॥

मूलम्

गृहस्थस्य सदाचारं श्रोतुमिच्छाम्यहं मुने।
लोकादस्मात्परस्माच्च यमातिष्ठन्न हीयते॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

सगर बोले—हे मुने! मैं गृहस्थके सदाचारोंको सुनना चाहता हूँ, जिनका आचरण करनेसे वह इहलोक और परलोक दोनों जगह पतित नहीं होता॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

और्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयतां पृथिवीपाल सदाचारस्य लक्षणम्।
सदाचारवता पुंसा जितौ लोकावुभावपि॥ २॥

मूलम्

श्रूयतां पृथिवीपाल सदाचारस्य लक्षणम्।
सदाचारवता पुंसा जितौ लोकावुभावपि॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

और्व बोले—हे पृथिवीपाल! तुम सदाचारके लक्षण सुनो। सदाचारी पुरुष इहलोक और परलोक दोनोंहीको जीत लेता है॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधवः क्षीणदोषास्तु सच्छब्दः साधुवाचकः।
तेषामाचरणं यत्तु सदाचारस्स उच्यते॥ ३॥

मूलम्

साधवः क्षीणदोषास्तु सच्छब्दः साधुवाचकः।
तेषामाचरणं यत्तु सदाचारस्स उच्यते॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्’ शब्दका अर्थ साधु है, और साधु वही है जो दोषरहित हो। उस साधु पुरुषका जो आचरण होता है उसीको सदाचार कहते हैं॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तर्षयोऽथ मनवः प्रजानां पतयस्तथा।
सदाचारस्य वक्तारः कर्तारश्च महीपते॥ ४॥

मूलम्

सप्तर्षयोऽथ मनवः प्रजानां पतयस्तथा।
सदाचारस्य वक्तारः कर्तारश्च महीपते॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! इस सदाचारके वक्ता और कर्ता सप्तर्षिगण, मनु एवं प्रजापति हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय मनसा मतिमान्नृप।
प्रबुद्धश्चिन्तयेद्धर्ममर्थं चाप्यविरोधिनम्॥ ५॥

मूलम्

ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय मनसा मतिमान्नृप।
प्रबुद्धश्चिन्तयेद्धर्ममर्थं चाप्यविरोधिनम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! बुद्धिमान् पुरुष स्वस्थ चित्तसे ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर अपने धर्म और धर्माविरोधी अर्थका चिन्तन करे॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपीडया तयोः काममुभयोरपि चिन्तयेत्।
दृष्टादृष्टविनाशाय त्रिवर्गे समदर्शिता॥ ६॥

मूलम्

अपीडया तयोः काममुभयोरपि चिन्तयेत्।
दृष्टादृष्टविनाशाय त्रिवर्गे समदर्शिता॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जिसमें धर्म और अर्थकी क्षति न हो ऐसे कामका भी चिन्तन करे। इस प्रकार दृष्ट और अदृष्ट अनिष्टकी निवृत्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्गके प्रति समान भाव रखना चाहिये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परित्यजेदर्थकामौ धर्मपीडाकरौ नृप।
धर्ममप्यसुखोदर्कं लोकविद्विष्टमेव च॥ ७॥

मूलम्

परित्यजेदर्थकामौ धर्मपीडाकरौ नृप।
धर्ममप्यसुखोदर्कं लोकविद्विष्टमेव च॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! धर्मविरुद्ध अर्थ और काम दोनोंका त्याग कर दे तथा ऐसे धर्मका भी आचरण न करे जो उत्तरकालमें दुःखमय अथवा समाज-विरुद्ध हो॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कल्यं समुत्थाय कुर्यान्मूत्रं नरेश्वर॥ ८॥
नैर्ऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधिकं भुवः।
दूरादावसथान्मूत्रं पुरीषं च विसर्जयेत्॥ ९॥
पादावनेजनोच्छिष्टे प्रक्षिपेन्न गृहांगणे॥ १०॥

मूलम्

ततः कल्यं समुत्थाय कुर्यान्मूत्रं नरेश्वर॥ ८॥
नैर्ऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधिकं भुवः।
दूरादावसथान्मूत्रं पुरीषं च विसर्जयेत्॥ ९॥
पादावनेजनोच्छिष्टे प्रक्षिपेन्न गृहांगणे॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! तदनन्तर ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर प्रथम मूत्रत्याग करे। ग्रामसे नैर्ऋत्यकोणमें जितनी दूर बाण जा सकता है उससे आगे बढ़कर अथवा अपने निवास स्थानसे दूर जाकर मल-मूत्र त्याग करे। पैर धोया हुआ और जूठा जल अपने घरके आँगनमें न डाले॥ ८—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मच्छायां तरुच्छायां गोसूर्याग्न्यनिलांस्तथा।
गुरुद्विजादींस्तु बुधो नाधिमेहेत्कदाचन॥ ११॥

मूलम्

आत्मच्छायां तरुच्छायां गोसूर्याग्न्यनिलांस्तथा।
गुरुद्विजादींस्तु बुधो नाधिमेहेत्कदाचन॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी या वृक्षकी छायाके ऊपर तथा गौ, सूर्य, अग्नि, वायु, गुरु और द्विजातीय पुरुषके सामने बुद्धिमान् पुरुष कभी मल-मूत्र त्याग न करे॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कृष्टे सस्यमध्ये वा गोव्रजे जनसंसदि।
न वर्त्मनि न नद्यादितीर्थेषु पुरुषर्षभ॥ १२॥
नाप्सु नैवाम्भसस्तीरे श्मशाने न समाचरेत्।
उत्सर्गं वै पुरीषस्य मूत्रस्य च विसर्जनम्॥ १३॥

मूलम्

न कृष्टे सस्यमध्ये वा गोव्रजे जनसंसदि।
न वर्त्मनि न नद्यादितीर्थेषु पुरुषर्षभ॥ १२॥
नाप्सु नैवाम्भसस्तीरे श्मशाने न समाचरेत्।
उत्सर्गं वै पुरीषस्य मूत्रस्य च विसर्जनम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार हे पुरुषर्षभ! जुते हुए खेतमें, सस्यसम्पन्न भूमिमें, गौओंके गोष्ठमें, जन-समाजमें, मार्गके बीचमें, नदी आदि तीर्थस्थानोंमें, जल अथवा जलाशयके तटपर और श्मशानमें भी कभी मल-मूत्रका त्याग न करे॥ १२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदङ्मुखो दिवा मूत्रं विपरीतमुखो निशि।
कुर्वीतानापदि प्राज्ञो मूत्रोत्सर्गं च पार्थिव॥ १४॥

मूलम्

उदङ्मुखो दिवा मूत्रं विपरीतमुखो निशि।
कुर्वीतानापदि प्राज्ञो मूत्रोत्सर्गं च पार्थिव॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! कोई विशेष आपत्ति न हो तो प्राज्ञ पुरुषको चाहिये कि दिनके समय उत्तर-मुख और रात्रिके समय दक्षिण-मुख होकर मूत्रत्याग करे॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणैरास्तीर्य वसुधां वस्त्रप्रावृतमस्तकः।
तिष्ठेन्नातिचिरं तत्र नैव किञ्चिदुदीरयेत्॥ १५॥

मूलम्

तृणैरास्तीर्य वसुधां वस्त्रप्रावृतमस्तकः।
तिष्ठेन्नातिचिरं तत्र नैव किञ्चिदुदीरयेत्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मल-त्यागके समय पृथिवीको तिनकोंसे और सिरको वस्त्रसे ढाँप ले तथा उस स्थानपर अधिक समयतक न रहे और न कुछ बोले ही॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वल्मीकमूषिकोद्भूतां मृदं नान्तर्जलां तथा।
शौचावशिष्टां गेहाच्च नादद्याल्लेपसम्भवाम्॥ १६॥
अणुप्राण्युपपन्नां च हलोत्खातां च पार्थिव।
परित्यजेन्मृदो ह्येतास्सकलाश्शौचकर्मणि॥ १७॥

मूलम्

वल्मीकमूषिकोद्भूतां मृदं नान्तर्जलां तथा।
शौचावशिष्टां गेहाच्च नादद्याल्लेपसम्भवाम्॥ १६॥
अणुप्राण्युपपन्नां च हलोत्खातां च पार्थिव।
परित्यजेन्मृदो ह्येतास्सकलाश्शौचकर्मणि॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! बाँबीकी, चूहोंद्वारा बिलसे निकाली हुई, जलके भीतरकी, शौचकर्मसे बची हुई, घरके लीपनकी, चींटी आदि छोटे-छोटे जीवोंद्वारा निकाली हुई और हलसे उखाड़ी हुई—इन सब प्रकारकी मृत्तिकाओंका शौच कर्ममें उपयोग न करे॥ १६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एका लिंगे गुदे तिस्रो दश वामकरे नृप।
हस्तद्वये च सप्त स्युर्मृदश्शौचोपपादिकाः॥ १८॥

मूलम्

एका लिंगे गुदे तिस्रो दश वामकरे नृप।
हस्तद्वये च सप्त स्युर्मृदश्शौचोपपादिकाः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! लिंगमें एक बार, गुदामें तीन बार, बायें हाथमें दस बार और दोनों हाथोंमें सात बार मृत्तिका लगानेसे शौच सम्पन्न होता है॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अच्छेनागन्धलेपेन जलेनाबुद‍्बुदेन च।
आचामेच्च मृदं भूयस्तथादद्यात्समाहितः॥ १९॥

मूलम्

अच्छेनागन्धलेपेन जलेनाबुद‍्बुदेन च।
आचामेच्च मृदं भूयस्तथादद्यात्समाहितः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गन्ध और फेनरहित स्वच्छ जलसे आचमन करे। तथा फिर सावधानतापूर्वक बहुत-सी मृत्तिका ले॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्पादिताङ्घ्रिशौचस्तु पादावभ्युक्ष्य तैः पुनः।
त्रिःपिबेत्सलिलं तेन तथा द्विः परिमार्जयेत्॥ २०॥

मूलम्

निष्पादिताङ्घ्रिशौचस्तु पादावभ्युक्ष्य तैः पुनः।
त्रिःपिबेत्सलिलं तेन तथा द्विः परिमार्जयेत्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे चरण-शुद्धि करनेके अनन्तर फिर पैर धोकर तीन बार कुल्ला करे और दो बार मुख धोवे॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्षण्यानि ततः खानि मूर्द्धानं च समालभेत्।
बाहू नाभिं च तोयेन हृदयं चापि संस्पृशेत्॥ २१॥

मूलम्

शीर्षण्यानि ततः खानि मूर्द्धानं च समालभेत्।
बाहू नाभिं च तोयेन हृदयं चापि संस्पृशेत्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् जल लेकर शिरोदेशमें स्थित इन्द्रियरन्ध्र, मूर्द्धा, बाहु, नाभि और हृदयको स्पर्श करे॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाचान्तस्तु ततः कुर्यात्पुमान्केशप्रसाधनम्।
आदर्शाञ्जनमांगल्यं दूर्वाद्यालम्भनानि च॥ २२॥

मूलम्

स्वाचान्तस्तु ततः कुर्यात्पुमान्केशप्रसाधनम्।
आदर्शाञ्जनमांगल्यं दूर्वाद्यालम्भनानि च॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भली प्रकार स्नान करनेके अनन्तर केश सँवारे और दर्पण, अंजन तथा दूर्वा आदि मांगलिक द्रव्योंका यथाविधि व्यवहार करे॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्स्ववर्णधर्मेण वृत्त्यर्थं च धनार्जनम्।
कुर्वीत श्रद्धासम्पन्नो यजेच्च पृथिवीपते॥ २३॥

मूलम्

ततस्स्ववर्णधर्मेण वृत्त्यर्थं च धनार्जनम्।
कुर्वीत श्रद्धासम्पन्नो यजेच्च पृथिवीपते॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हे पृथिवीपते! अपने वर्णधर्मके अनुसार आजीविकाके लिये धनोपार्जन करे और श्रद्धापूर्वक यज्ञानुष्ठान करे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमसंस्था हविस्संस्थाः पाकसंस्थास्तु संस्थिताः।
धने यतो मनुष्याणां यतेतातो धनार्जने॥ २४॥

मूलम्

सोमसंस्था हविस्संस्थाः पाकसंस्थास्तु संस्थिताः।
धने यतो मनुष्याणां यतेतातो धनार्जने॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमसंस्था, हविस्संस्था और पाकसंस्था—इन सब धर्म-कर्मोंका आधार धन ही है।* अतः मनुष्योंको धनोपार्जनका यत्न करना चाहिये॥ २४॥

पादटिप्पनी
  • गौतमस्मृतिके अष्टम अध्यायमें कहा है—
    ‘औपासनमष्टका पार्वणश्राद्धः श्रावण्याग्रहायणी चैत्र्याश्वयुजीति सप्त पाकयज्ञसंस्थाः। अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासावाग्रयणं चातुर्मास्यानि निरूढपशुबन्धस्सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञसंस्थाः। अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थः षोडशी वाजपेयोऽतिरात्राप्तोर्यामा इति सप्त सोमसंस्थाः।’
    औपासन, अष्टका श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध तथा श्रावण अग्रहायण, चैत्र और आश्विन मासकी पूर्णिमाएँ—ये सात ‘पाकयज्ञ- संस्था’ हैं। अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, यज्ञपशुबन्ध और सौत्रामणी—ये सात ‘हविर्यज्ञसंस्था’ हैं, यथा अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम—ये सात ‘सोमयज्ञसंस्था’ हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः

नदीनदतटाकेषु देवखातजलेषु च।
नित्यक्रियार्थं स्नायीत गिरिप्रस्रवणेषु च॥ २५॥

मूलम्

नदीनदतटाकेषु देवखातजलेषु च।
नित्यक्रियार्थं स्नायीत गिरिप्रस्रवणेषु च॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्यकर्मोंके सम्पादनके लिये नदी, नद, तडाग, देवालयोंकी बावड़ी और पर्वतीय झरनोंमें स्नान करना चाहिये॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूपेषूद्‍धृततोयेन स्नानं कुर्वीत वा भुवि।
गृहेषूद्‍धृततोयेन ह्यथवा भुव्यसम्भवे॥ २६॥

मूलम्

कूपेषूद्‍धृततोयेन स्नानं कुर्वीत वा भुवि।
गृहेषूद्‍धृततोयेन ह्यथवा भुव्यसम्भवे॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा कुएँसे जल खींचकर उसके पासकी भूमिपर स्नान करे और यदि वहाँ भूमिपर स्नान करना सम्भव न हो तो कुएँसे खींचकर लाये हुए जलसे घरहीमें नहा ले॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुचिवस्त्रधरः स्नातो देवर्षिपितृतर्पणम्।
तेषामेव हि तीर्थेन कुर्वीत सुसमाहितः॥ २७॥

मूलम्

शुचिवस्त्रधरः स्नातो देवर्षिपितृतर्पणम्।
तेषामेव हि तीर्थेन कुर्वीत सुसमाहितः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्नान करनेके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर देवता, ऋषिगण और पितृगणका उन्हींके तीर्थोंसे तर्पण करे॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिरपः प्रीणनार्थाय देवानामपवर्जयेत्।
ऋषीणां च यथान्यायं सकृच्चापि प्रजापतेः॥ २८॥

मूलम्

त्रिरपः प्रीणनार्थाय देवानामपवर्जयेत्।
ऋषीणां च यथान्यायं सकृच्चापि प्रजापतेः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता और ऋषियोंके तर्पणके लिये तीन-तीन बार तथा प्रजापतिके लिये एक बार जल छोड़े॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितॄणां प्रीणनार्थाय त्रिरपः पृथिवीपते।
पितामहेभ्यश्च तथा प्रीणयेत्प्रपितामहान्॥ २९॥
मातामहाय तत्पित्रे तत्पित्रे च समाहितः।
दद्यात्पैत्रेण तीर्थेन काम्यं चान्यच्छृणुष्व मे॥ ३०॥

मूलम्

पितॄणां प्रीणनार्थाय त्रिरपः पृथिवीपते।
पितामहेभ्यश्च तथा प्रीणयेत्प्रपितामहान्॥ २९॥
मातामहाय तत्पित्रे तत्पित्रे च समाहितः।
दद्यात्पैत्रेण तीर्थेन काम्यं चान्यच्छृणुष्व मे॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पृथिवीपते! पितृगण और पितामहोंकी प्रसन्नताके लिये तीन बार जल छोड़े तथा इसी प्रकार प्रपितामहोंको भी सन्तुष्ट करे एवं मातामह (नाना) और उनके पिता तथा उनके पिताको भी सावधानतापूर्वक पितृ-तीर्थसे जलदान करे। अब काम्य तर्पणका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो॥ २९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात्रे प्रमात्रे तन्मात्रे गुरुपत्न्यै तथा नृप।
गुरूणां मातुलानां च स्निग्धमित्राय भूभुजे॥ ३१॥
इदं चापि जपेदम्बु दद्यादात्मेच्छया नृप।
उपकाराय भूतानां कृतदेवादितर्पणम्॥ ३२॥

मूलम्

मात्रे प्रमात्रे तन्मात्रे गुरुपत्न्यै तथा नृप।
गुरूणां मातुलानां च स्निग्धमित्राय भूभुजे॥ ३१॥
इदं चापि जपेदम्बु दद्यादात्मेच्छया नृप।
उपकाराय भूतानां कृतदेवादितर्पणम्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह जल माताके लिये हो, यह प्रमाताके लिये हो, यह वृद्धाप्रमाताके लिये हो, यह गुरुपत्नीको, यह गुरुको, यह मामाको, यह प्रिय मित्रको तथा यह राजाको प्राप्त हो—हे राजन्! यह जपता हुआ समस्त भूतोंके हितके लिये देवादि तर्पण करके अपनी इच्छानुसार अभिलषित सम्बन्धीके लिये जलदान करे’॥ ३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवासुरास्तथा यक्षा नागगन्धर्वराक्षसाः।
पिशाचागुह्यकास्सिद्धाः कूष्माण्डाः पशवः खगाः॥ ३३॥
जलेचरा भूनिलया वाय्वाहाराश्च जन्तवः।
तृप्तिमेतेन यान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥ ३४॥

मूलम्

देवासुरास्तथा यक्षा नागगन्धर्वराक्षसाः।
पिशाचागुह्यकास्सिद्धाः कूष्माण्डाः पशवः खगाः॥ ३३॥
जलेचरा भूनिलया वाय्वाहाराश्च जन्तवः।
तृप्तिमेतेन यान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

[देवादि तर्पणके समय इस प्रकार कहे—] ‘देव, असुर, यक्ष,नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध, कूष्माण्ड, पशु, पक्षी, जलचर, स्थलचर और वायु-भक्षक आदि सभी प्रकारके जीव मेरे दिये हुए इस जलसे तृप्त हों॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः।
तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया॥ ३५॥

मूलम्

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः।
तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्राणी सम्पूर्ण नरकोंमें नाना प्रकारकी यातनाएँ भोग रहे हैं उनकी तृप्तिके लिये मैं यह जलदान करता हूँ॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये बान्धवाबान्धवा वायेऽन्यजन्मनि बान्धवाः।
ते तृप्ति मखिला यान्तु ये चा स्मत्तोयकांक्षिणः॥ ३६॥

मूलम्

ये बान्धवाबान्धवा वायेऽन्यजन्मनि बान्धवाः।
ते तृप्ति मखिला यान्तु ये चा स्मत्तोयकांक्षिणः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मेरे बन्धु अथवा अबन्धु हैं, तथा जो अन्य जन्मोंमें मेरे बन्धु थे एवं और भी जो-जो मुझसे जलकी इच्छा रखनेवाले हैं वे सब मेरे दिये हुए जलसे परितृप्त हों॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र क्वचनसंस्थानां क्षुत्तृष्णोपहतात्मनाम्।
इदमाप्यायनायास्तु मया दत्तं तिलोदकम्॥ ३७॥

मूलम्

यत्र क्वचनसंस्थानां क्षुत्तृष्णोपहतात्मनाम्।
इदमाप्यायनायास्तु मया दत्तं तिलोदकम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षुधा और तृष्णासे व्याकुल जीव कहीं भी क्यों न हों मेरा दिया हुआ यह तिलोदक उनको तृप्ति प्रदान करे’॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम्योदकप्रदानं ते मयैतत्कथितं नृप।
यद्दत्त्वा प्रीणयत्येतन्मनुष्यस्सकलं जगत्।
जगदाप्यायनोद्भूतं पुण्यमाप्नोति चानघ॥ ३८॥

मूलम्

काम्योदकप्रदानं ते मयैतत्कथितं नृप।
यद्दत्त्वा प्रीणयत्येतन्मनुष्यस्सकलं जगत्।
जगदाप्यायनोद्भूतं पुण्यमाप्नोति चानघ॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! इस प्रकार मैंने तुमसे यह काम्य-तर्पणका निरूपण किया, जिसके करनेसे मनुष्य सकल संसारको तृप्त कर देता है और हे अनघ! इससे उसे जगत‍्की तृप्तिसे होनेवाला पुण्य प्राप्त होता है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा काम्योदकं सम्यगेतेभ्यः श्रद्धयान्वितः।
आचम्य च ततो दद्यात्सूर्याय सलिलाञ्जलिम्॥ ३९॥

मूलम्

दत्त्वा काम्योदकं सम्यगेतेभ्यः श्रद्धयान्वितः।
आचम्य च ततो दद्यात्सूर्याय सलिलाञ्जलिम्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उपरोक्त जीवोंको श्रद्धापूर्वक काम्यजलदान करनेके अनन्तर आचमन करे और फिर सूर्यदेवको जलांजलि दे॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो विवस्वते ब्रह्मभास्वते विष्णुतेजसे।
जगत्सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मसाक्षिणे॥ ४०॥

मूलम्

नमो विवस्वते ब्रह्मभास्वते विष्णुतेजसे।
जगत्सवित्रे शुचये सवित्रे कर्मसाक्षिणे॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उस समय इस प्रकार कहे—] ‘भगवान‍् विवस्वान‍्को नमस्कार है जो वेद-वेद्य और विष्णुके तेजस्स्वरूप हैं तथा जगत‍्को उत्पन्न करनेवाले, अति पवित्र एवं कर्मोंके साक्षी हैं’॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गृहार्चनं कुर्यादभीष्टसुरपूजनम्।
जलाभिषेकैः पुष्पैश्च धूपाद्यैश्च निवेदनम्॥ ४१॥

मूलम्

ततो गृहार्चनं कुर्यादभीष्टसुरपूजनम्।
जलाभिषेकैः पुष्पैश्च धूपाद्यैश्च निवेदनम्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जलाभिषेक और पुष्प तथा धूपादि निवेदन करता हुआ गृहदेव और इष्टदेवका पूजन करे॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपूर्वमग्निहोत्रं च कुर्यात्प्राग्ब्रह्मणे नृप॥ ४२॥
प्रजापतिं समुद्दिश्य दद्यादाहुतिमादरात्।
गुह्येभ्यः काश्यपायाथ ततोऽनुमतये क्रमात्॥ ४३॥

मूलम्

अपूर्वमग्निहोत्रं च कुर्यात्प्राग्ब्रह्मणे नृप॥ ४२॥
प्रजापतिं समुद्दिश्य दद्यादाहुतिमादरात्।
गुह्येभ्यः काश्यपायाथ ततोऽनुमतये क्रमात्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! फिर अपूर्व अग्निहोत्र करे, उसमें पहले ब्रह्माको और तदनन्तर क्रमशः प्रजापति, गुह्य, काश्यप और अनुमतिको आदरपूर्वक आहुतियाँ दे॥ ४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छेषं मणिके पृथ्वीपर्जन्येभ्यः क्षिपेत्ततः।
द्वारे धातुर्विधातुश्च मध्ये च ब्रह्मणे क्षिपेत्॥ ४४॥
गृहस्य पुरुषव्याघ्र दिग्देवानपि मे शृणु॥ ४५॥

मूलम्

तच्छेषं मणिके पृथ्वीपर्जन्येभ्यः क्षिपेत्ततः।
द्वारे धातुर्विधातुश्च मध्ये च ब्रह्मणे क्षिपेत्॥ ४४॥
गृहस्य पुरुषव्याघ्र दिग्देवानपि मे शृणु॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे बचे हुए हव्यको पृथिवी और मेघके उद्देश्यसे उदकपात्रमें,* धाता और विधाताके उद्देश्यसे द्वारके दोनों ओर तथा ब्रह्माके उद्देश्यसे घरके मध्यमें छोड़ दे। हे पुरुषव्याघ्र! अब मैं दिक्पालगणकी पूजाका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो॥ ४४-४५॥

पादटिप्पनी
  • वह जल भरा पात्र जो अग्निहोत्र करते समय समीपमें रख लिया जाता है और जिसमें ‘इदं न मम’ कहकर आहुतिका शेष भाग छोड़ा जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्राय धर्मराजाय वरुणाय तथेन्दवे।
प्राच्यादिषु बुधो दद्याद‍्धुतशेषात्मकं बलिम्॥ ४६॥

मूलम्

इन्द्राय धर्मराजाय वरुणाय तथेन्दवे।
प्राच्यादिषु बुधो दद्याद‍्धुतशेषात्मकं बलिम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओंमें क्रमशः इन्द्र, यम, वरुण और चन्द्रमाके लिये हुतशिष्ट सामग्रीसे बलि प्रदान करे॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रागुत्तरे च दिग्भागे धन्वन्तरिबलिं बुधः।
निर्वपेद्वैश्वदेवं च कर्म कुर्यादतः परम्॥ ४७॥

मूलम्

प्रागुत्तरे च दिग्भागे धन्वन्तरिबलिं बुधः।
निर्वपेद्वैश्वदेवं च कर्म कुर्यादतः परम्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्व और उत्तर-दिशाओंमें धन्वन्तरिके लिये बलि दे तथा इसके अनन्तर बलिवैश्वदेव-कर्म करे॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायव्यां वायवे दिक्षु समस्तासु यथादिशम्।
ब्रह्मणे चान्तरिक्षाय भानवे च क्षिपेद‍्बलिम्॥ ४८॥

मूलम्

वायव्यां वायवे दिक्षु समस्तासु यथादिशम्।
ब्रह्मणे चान्तरिक्षाय भानवे च क्षिपेद‍्बलिम्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिवैश्वदेवके समय वायव्यकोणमें वायुको तथा अन्य समस्त दिशाओंमें वायु एवं उन दिशाओंको बलि दे, इसी प्रकार ब्रह्मा, अन्तरिक्ष और सूर्यको भी उनकी दिशाओंके अनुसार [ अर्थात् मध्यमें ] बलि प्रदान करे॥ ४८॥

पादटिप्पनी
विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वेदेवान‍्विश्वभूतानथ विश्वपतीन्पितॄन्।
यक्षाणां च समुद्दिश्य बलिं दद्यान्नरेश्वर॥ ४९॥

मूलम्

विश्वेदेवान‍्विश्वभूतानथ विश्वपतीन्पितॄन्।
यक्षाणां च समुद्दिश्य बलिं दद्यान्नरेश्वर॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर हे नरेश्वर! विश्वेदेवों, विश्वभूतों, विश्वपतियों, पितरों और यक्षोंके उद्देश्यसे [यथास्थान] बलि प्रदान करे॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्यदन्नमादाय भूमिभागे शुचौ बुधः।
दद्यादशेषभूतेभ्यस्स्वेच्छया सुसमाहितः॥ ५०॥

मूलम्

ततोऽन्यदन्नमादाय भूमिभागे शुचौ बुधः।
दद्यादशेषभूतेभ्यस्स्वेच्छया सुसमाहितः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बुद्धिमान् व्यक्ति और अन्न लेकर पवित्र पृथिवीपर समाहित चित्तसे बैठकर स्वेच्छानुसार समस्त प्राणियोंको बलि प्रदान करे॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा मनुष्याः पशवो वयांसि
सिद्धास्सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवस्समस्ता
ये चान्नमिच्छन्ति मयात्र दत्तम्॥ ५१॥
पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्या
बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः।
प्रयान्तु ते तृप्तिमिदं मयान्नं
तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ ५२॥

मूलम्

देवा मनुष्याः पशवो वयांसि
सिद्धास्सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवस्समस्ता
ये चान्नमिच्छन्ति मयात्र दत्तम्॥ ५१॥
पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्या
बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः।
प्रयान्तु ते तृप्तिमिदं मयान्नं
तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

[उस समय इस प्रकार कहे—] ‘देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्प, दैत्य, प्रेत, पिशाच, वृक्ष तथा और भी चींटी आदि कीट-पतंग जो अपने कर्मबन्धनसे बँधे हुए क्षुधातुर होकर मेरे दिये हुए अन्नकी इच्छा करते हैं, उन सबके लिये मैं यह अन्न दान करता हूँ। वे इससे परितृप्त और आनन्दित हों॥ ५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां न माता न पिता न बन्धु-
र्नैवान‍्नसिद्धिर्न तथान्नमस्ति।
तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत्
ते यान्तु तृप्तिं मुदिता भवन्तु॥ ५३॥

मूलम्

येषां न माता न पिता न बन्धु-
र्नैवान‍्नसिद्धिर्न तथान्नमस्ति।
तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत्
ते यान्तु तृप्तिं मुदिता भवन्तु॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके माता, पिता अथवा कोई और बन्धु नहीं हैं तथा अन्न प्रस्तुत करनेका साधन और अन्न भी नहीं है उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीपर मैंने यह अन्न रखा है; वे इससे तृप्त होकर आनन्दित हों॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतानि सर्वाणि तथान्नमेत-
दहं च विष्णुर्न ततोऽन्यदस्ति।
तस्मादहं भूतनिकायभूत-
मन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्॥ ५४॥

मूलम्

भूतानि सर्वाणि तथान्नमेत-
दहं च विष्णुर्न ततोऽन्यदस्ति।
तस्मादहं भूतनिकायभूत-
मन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण प्राणी, यह अन्न और मैं—सभी विष्णु हैं; क्योंकि उनसे भिन्न और कुछ है ही नहीं। अतः मैं समस्त भूतोंका शरीररूप यह अन्न उनके पोषणके लिये दान करता हूँ॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्दशो भूतगणो य एष
तत्र स्थिता येऽखिलभूतसङ्घाः।
तृप्त्यर्थमन्नं हि मया विसृष्टं
तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु॥ ५५॥

मूलम्

चतुर्दशो भूतगणो य एष
तत्र स्थिता येऽखिलभूतसङ्घाः।
तृप्त्यर्थमन्नं हि मया विसृष्टं
तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो चौदह प्रकारका* भूतसमुदाय है उसमें जितने भी प्राणिगण अवस्थित हैं उन सबकी तृप्तिके लिये मैंने यह अन्न प्रस्तुत किया है; वे इससे प्रसन्न हों’॥ ५५॥

पादटिप्पनी
  • चौदह भूतसमुदायोंका वर्णन इस प्रकार किया गया है—
    अष्टविधं दैवत्वं तैर्यग्योन्यश्च पञ्चधा भवति।
    मानुष्यं चैकविधं समासतो भौतिकः सर्गः॥
    अर्थात् आठ प्रकारका देवसम्बन्धी, पाँच प्रकारका तिर्यग्योनिसम्बन्धी और एक प्रकारका मनुष्ययोनिसम्बन्धी—यह संक्षेपसे भौतिक सर्ग कहलाता है। इनका पृथक्-पृथक् विवरण इस प्रकार है—
    सिद्धगुह्यकगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः।
    विद्याधराः पिशाचाश्च निर्दिष्टा देवयोनयः॥
    सरीसृपा वानराश्च पशवो मृगपक्षिणः।
    तिर्यञ्च इति कथ्यन्ते पञ्चैताः प्राणिजातयः॥
    सिद्ध, गुह्यक, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, विद्याधर और पिशाच—ये आठ देवयोनियाँ मानी गयी हैं तथा सरीसृप, वानर, पशु, मृग, (जंगली प्राणी) और पक्षी—ये पाँच तिर्यग् योनियाँ कही गयी हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युच्चार्य नरो दद्यादन्नं श्रद्धासमन्वितः।
भुवि सर्वोपकाराय गृही सर्वाश्रयो यतः॥ ५६॥

मूलम्

इत्युच्चार्य नरो दद्यादन्नं श्रद्धासमन्वितः।
भुवि सर्वोपकाराय गृही सर्वाश्रयो यतः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उच्चारण करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूर्वक समस्त जीवोंके उपकारके लिये पृथिवीमें अन्नदान करे, क्योंकि गृहस्थ ही सबका आश्रय है॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वचाण्डालविहङ्गानां भुवि दद्यान्नरेश्वर।
ये चान्ये पतिताः केचिदपुत्राः सन्ति मानवाः॥ ५७॥

मूलम्

श्वचाण्डालविहङ्गानां भुवि दद्यान्नरेश्वर।
ये चान्ये पतिताः केचिदपुत्राः सन्ति मानवाः॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! तदनन्तर कुत्ता, चाण्डाल, पक्षिगण तथा और भी जो कोई पतित एवं पुत्रहीन पुरुष हों उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीमें बलिभाग रखे॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गोदोहमात्रं वै कालं तिष्ठेद् गृहाङ्गणे।
अतिथिग्रहणार्थाय तदूर्ध्वं तु यथेच्छया॥ ५८॥

मूलम्

ततो गोदोहमात्रं वै कालं तिष्ठेद् गृहाङ्गणे।
अतिथिग्रहणार्थाय तदूर्ध्वं तु यथेच्छया॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर गो-दोहनकालपर्यन्त अथवा इच्छानुसार इससे भी कुछ अधिक देर अतिथि ग्रहण करनेके लिये घरके आँगनमें रहे॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिं तत्र सम्प्राप्तं पूजयेत्स्वागतादिना।
तथासनप्रदानेन पादप्रक्षालनेन च॥ ५९॥

मूलम्

अतिथिं तत्र सम्प्राप्तं पूजयेत्स्वागतादिना।
तथासनप्रदानेन पादप्रक्षालनेन च॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि अतिथि आ जाय तो उसका स्वागतादिसे तथा आसन देकर और चरण धोकर सत्कार करे॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धया चान्नदानेन प्रियप्रश्नोत्तरेण च।
गच्छतश्चानुयानेन प्रीतिमुत्पादयेद् गृही॥ ६०॥

मूलम्

श्रद्धया चान्नदानेन प्रियप्रश्नोत्तरेण च।
गच्छतश्चानुयानेन प्रीतिमुत्पादयेद् गृही॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रद्धापूर्वक भोजन कराकर मधुर वाणीसे प्रश्नोत्तर करके तथा उसके जानेके समय पीछे-पीछे जाकर उसको प्रसन्न करे॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञातकुलनामानमन्यदेशादुपागतम्।
पूजयेदतिथिं सम्यङ् नैकग्रामनिवासिनम्॥ ६१॥

मूलम्

अज्ञातकुलनामानमन्यदेशादुपागतम्।
पूजयेदतिथिं सम्यङ् नैकग्रामनिवासिनम्॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके कुल और नामका कोई पता न हो तथा अन्य देशसे आया हो उसी अतिथिका सत्कार करे, अपने ही गाँवमें रहनेवाले पुरुषकी अतिथिरूपसे पूजा करनी उचित नहीं है॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकिञ्चनमसम्बन्धमज्ञातकुलशीलिनम्।
असम्पूज्यातिथिं भुक्त्वा भोक्तुकामं व्रजत्यधः॥ ६२॥

मूलम्

अकिञ्चनमसम्बन्धमज्ञातकुलशीलिनम्।
असम्पूज्यातिथिं भुक्त्वा भोक्तुकामं व्रजत्यधः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके पास कोई सामग्री न हो, जिससे कोई सम्बन्ध न हो, जिसके कुल-शीलका कोई पता न हो और जो भोजन करना चाहता हो उस अतिथिका सत्कार किये बिना भोजन करनेसे मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होता है॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायगोत्राचरणमपृष्ट्वा च तथा कुलम्।
हिरण्यगर्भबुद्ध्या तं मन्येताभ्यागतं गृही॥ ६३॥

मूलम्

स्वाध्यायगोत्राचरणमपृष्ट्वा च तथा कुलम्।
हिरण्यगर्भबुद्ध्या तं मन्येताभ्यागतं गृही॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि आये हुए अतिथिके अध्ययन, गोत्र, आचरण और कुल आदिके विषयमें कुछ भी न पूछकर हिरण्यगर्भ-बुद्धिसे उसकी पूजा करे॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रर्थं चापरं विप्रमेकमप्याशयेन्नृप।
तद्देश्यं विदिताचारसम्भूतिं पाञ्चयज्ञिकम्॥ ६४॥

मूलम्

पित्रर्थं चापरं विप्रमेकमप्याशयेन्नृप।
तद्देश्यं विदिताचारसम्भूतिं पाञ्चयज्ञिकम्॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! अतिथि-सत्कारके अनन्तर अपने ही देशके एक और पांचयज्ञिक ब्राह्मणको जिसके आचार और कुल आदिका ज्ञान हो पितृगणके लिये भोजन करावे॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नाग्रञ्च समुद्‍धृत्य हन्तकारोपकल्पितम्।
निर्वापभूतं भूपाल श्रोत्रियायोपपादयेत्॥ ६५॥

मूलम्

अन्नाग्रञ्च समुद्‍धृत्य हन्तकारोपकल्पितम्।
निर्वापभूतं भूपाल श्रोत्रियायोपपादयेत्॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भूपाल! [मनुष्ययज्ञकी विधिसे ‘मनुष्येभ्यो हन्त’ इत्यादि मन्त्रोच्चारणपूर्वक] पहले ही निकालकर अलग रखे हुए हन्तकार नामक अन्नसे उस श्रोत्रिय ब्राह्मणको भोजन करावे॥ ६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा च भिक्षात्रितयं परिव्राड्ब्रह्मचारिणाम्।
इच्छया च बुधो दद्याद्विभवे सत्यवारितम्॥ ६६॥

मूलम्

दत्त्वा च भिक्षात्रितयं परिव्राड्ब्रह्मचारिणाम्।
इच्छया च बुधो दद्याद्विभवे सत्यवारितम्॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार [देवता, अतिथि और ब्राह्मणको] ये तीन भिक्षाएँ देकर, यदि सामर्थ्य हो तो परिव्राजक और ब्रह्मचारियोंको भी बिना लौटाये हुए इच्छानुसार भिक्षा दे॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतेऽतिथयः प्रोक्ताः प्रागुक्ता भिक्षवश्च ये।
चतुरः पूजयित्वैतान्नृप पापात्प्रमुच्यते॥ ६७॥

मूलम्

इत्येतेऽतिथयः प्रोक्ताः प्रागुक्ता भिक्षवश्च ये।
चतुरः पूजयित्वैतान्नृप पापात्प्रमुच्यते॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीन पहले तथा भिक्षुगण—ये चारों अतिथि कहलाते हैं। हे राजन्! इन चारोंका पूजन करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते।
स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति॥ ६८॥

मूलम्

अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते।
स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है उसे वह अपने पाप देकर उसके शुभकर्मोंको ले जाता है॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धाता प्रजापतिः शक्रो वह्निर्वसुगणोऽर्यमा।
प्रविश्यातिथिमेते वै भुञ्जन्तेऽन्नं नरेश्वर॥ ६९॥

मूलम्

धाता प्रजापतिः शक्रो वह्निर्वसुगणोऽर्यमा।
प्रविश्यातिथिमेते वै भुञ्जन्तेऽन्नं नरेश्वर॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! धाता, प्रजापति, इन्द्र, अग्नि, वसुगण और अर्यमा—ये समस्त देवगण अतिथिमें प्रविष्ट होकर अन्न भोजन करते हैं॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादतिथिपूजायां यतेत सततं नरः।
स केवलमघं भुङ्‍क्ते यो भुङ्‍क्ते ह्यतिथिं विना॥ ७०॥

मूलम्

तस्मादतिथिपूजायां यतेत सततं नरः।
स केवलमघं भुङ्‍क्ते यो भुङ्‍क्ते ह्यतिथिं विना॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मनुष्यको अतिथि-पूजाके लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। जो पुरुष अतिथिके बिना भोजन करता है वह तो केवल पाप ही भोग करता है॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्ववासिनीदुःखिगर्भिणीवृद्धबालकान्।
भोजयेत्संस्कृतान्नेन प्रथमं चरमं गृही॥ ७१॥

मूलम्

ततः स्ववासिनीदुःखिगर्भिणीवृद्धबालकान्।
भोजयेत्संस्कृतान्नेन प्रथमं चरमं गृही॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर गृहस्थ पुरुष पितृगृहमें रहनेवाली विवाहिता कन्या, दुखिया और गर्भिणी स्त्री तथा वृद्ध और बालकोंको संस्कृत अन्नसे भोजन कराकर अन्तमें स्वयं भोजन करे॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभुक्तवत्सु चैतेषु भुञ्जन्भुङ्‍क्ते स दुष्कृतम्।
मृतश्च गत्वा नरकं श्लेष्मभुग्जायते नरः॥ ७२

मूलम्

अभुक्तवत्सु चैतेषु भुञ्जन्भुङ्‍क्ते स दुष्कृतम्।
मृतश्च गत्वा नरकं श्लेष्मभुग्जायते नरः॥ ७२

अनुवाद (हिन्दी)

इन सबको भोजन कराये बिना जो स्वयं भोजन कर लेता है वह पापमय भोजन करता है और अन्तमें मरकर नरकमें श्लेष्मभोजी कीट होता है॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्नाताशी मलं भुङ्‍क्ते ह्यजपी पूयशोणितम्।
असंस्कृतान्नभुङ्मूत्रं बालादिप्रथमं शकृत्॥ ७३॥
अहोमी च कृमीन्भुङ्‍क्ते अदत्त्वा विषमश्नुते॥ ७४॥

मूलम्

अस्नाताशी मलं भुङ्‍क्ते ह्यजपी पूयशोणितम्।
असंस्कृतान्नभुङ्मूत्रं बालादिप्रथमं शकृत्॥ ७३॥
अहोमी च कृमीन्भुङ्‍क्ते अदत्त्वा विषमश्नुते॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्यक्ति स्नान किये बिना भोजन करता है वह मल भक्षण करता है, जप किये बिना भोजन करनेवाला रक्त और पूय पान करता है, संस्कारहीन अन्न खानेवाला मूत्र पान करता है तथा जो बालक-वृद्ध आदिसे पहले आहार करता है वह विष्ठाहारी है। इसी प्रकार बिना होम किये भोजन करनेवाला मानो कीड़ोंको खाता है और बिना दान किये खानेवाला विष-भोजी है॥ ७३-७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माच्छृणुष्व राजेन्द्र यथा भुञ्जीत वै गृही।
भुञ्जतश्च यथा पुंसः पापबन्धो न जायते॥ ७५॥
इह चारोग्यविपुलं बलबुद्धिस्तथा नृप।
भवत्यरिष्टशान्तिश्च वैरिपक्षाभिचारिका॥ ७६॥

मूलम्

तस्माच्छृणुष्व राजेन्द्र यथा भुञ्जीत वै गृही।
भुञ्जतश्च यथा पुंसः पापबन्धो न जायते॥ ७५॥
इह चारोग्यविपुलं बलबुद्धिस्तथा नृप।
भवत्यरिष्टशान्तिश्च वैरिपक्षाभिचारिका॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे राजेन्द्र! गृहस्थको जिस प्रकार भोजन करना चाहिये—जिस प्रकार भोजन करनेसे पुरुषको पाप-बन्धन नहीं होता तथा इहलोकमें अत्यन्त आरोग्य, बल, बुद्धिकी प्राप्ति और अरिष्टोंकी शान्ति होती है और जो शत्रुपक्षका ह्रास करनेवाली है—वह भोजनविधि सुनो॥ ७५-७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातो यथावत्कृत्वा च देवर्षिपितृतर्पणम्।
प्रशस्तरत्नपाणिस्तु भुञ्जीत प्रयतो गृही॥ ७७॥

मूलम्

स्नातो यथावत्कृत्वा च देवर्षिपितृतर्पणम्।
प्रशस्तरत्नपाणिस्तु भुञ्जीत प्रयतो गृही॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थको चाहिये कि स्नान करनेके अनन्तर यथाविधि देव, ऋषि और पितृगणका तर्पण करके हाथमें उत्तम रत्न धारण किये पवित्रतापूर्वक भोजन करे॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते जपे हुते वह्नौ शुद्धवस्त्रधरो नृप।
दत्त्वातिथिभ्यो विप्रेभ्यो गुरुभ्यस्संश्रिताय च।
पुण्यगन्धश्शस्तमाल्यधारी चैव नरेश्वर॥ ७८॥
एकवस्त्रधरोऽथार्द्रपाणिपादो महीपते।
विशुद्धवदनः प्रीतो भुञ्जीत न विदिङ्मुखः॥ ७९॥

मूलम्

कृते जपे हुते वह्नौ शुद्धवस्त्रधरो नृप।
दत्त्वातिथिभ्यो विप्रेभ्यो गुरुभ्यस्संश्रिताय च।
पुण्यगन्धश्शस्तमाल्यधारी चैव नरेश्वर॥ ७८॥
एकवस्त्रधरोऽथार्द्रपाणिपादो महीपते।
विशुद्धवदनः प्रीतो भुञ्जीत न विदिङ्मुखः॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! जप तथा अग्निहोत्रके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर अतिथि, ब्राह्मण, गुरुजन और अपने आश्रित (बालक एवं वृद्धों)-को भोजन करा सुन्दर सुगन्धयुक्त उत्तम पुष्पमाला तथा एक ही वस्त्र धारण किये हाथ-पाँव और मुँह धोकर प्रीतिपूर्वक भोजन करे। हे राजन्! भोजनके समय इधर-उधर न देखे॥ ७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि न चैवान‍्यमना नरः।
अन्नं प्रशस्तं पथ्यं च प्रोक्षितं प्रोक्षणोदकैः॥ ८०॥

मूलम्

प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि न चैवान‍्यमना नरः।
अन्नं प्रशस्तं पथ्यं च प्रोक्षितं प्रोक्षणोदकैः॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके, अन्यमना न होकर उत्तम और पथ्य अन्नको प्रोक्षणके लिये रखे हुए मन्त्रपूत जलसे छिड़क कर भोजन करे॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कुत्सिताहृतं नैव जुगुप्सावदसंस्कृतम्।
दत्त्वा तु भक्तं शिष्येभ्यः क्षुधितेभ्यस्तथा गृही॥ ८१॥
प्रशस्तशुद्धपात्रे तु भुञ्जीताकुपितो द्विजः॥ ८२॥

मूलम्

न कुत्सिताहृतं नैव जुगुप्सावदसंस्कृतम्।
दत्त्वा तु भक्तं शिष्येभ्यः क्षुधितेभ्यस्तथा गृही॥ ८१॥
प्रशस्तशुद्धपात्रे तु भुञ्जीताकुपितो द्विजः॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अन्न दुराचारी व्यक्तिका लाया हुआ हो, घृणाजनक हो अथवा बलिवैश्वदेव आदि संस्कारशून्य हो उसको ग्रहण न करे। हे द्विज! गृहस्थ पुरुष अपने खाद्यमेंसे कुछ अंश अपने शिष्य तथा अन्य भूखे-प्यासोंको देकर उत्तम और शुद्ध पात्रमें शान्तचित्तसे भोजन करे॥ ८१-८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासन्दिसंस्थिते पात्रे नादेशे च नरेश्वर।
नाकाले नातिसंकीर्णे दत्त्वाग्रं च नरोऽग्नये॥ ८३॥

मूलम्

नासन्दिसंस्थिते पात्रे नादेशे च नरेश्वर।
नाकाले नातिसंकीर्णे दत्त्वाग्रं च नरोऽग्नये॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नरेश्वर! किसी बेत आदिके आसन(कुर्सी आदि)-पर रखे हुए पात्रमें, अयोग्य स्थानमें, असमय(सन्ध्या आदि काल)-में अथवा अत्यन्त संकुचित स्थानमें कभी भोजन न करे। मनुष्यको चाहिये कि [परोसे हुए भोजनका] अग्र-भाग अग्निको देकर भोजन करे॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्राभिमन्त्रितं शस्तं न च पर्युषितं नृप।
अन्यत्र फलमूलेभ्यश्शुष्कशाखादिकात्तथा॥ ८४॥
तद्वद्धारीतकेभ्यश्च गुडभक्ष्येभ्य एव च।
भुञ्जीतोद्‍धृतसाराणि न कदापि नरेश्वर॥ ८५॥

मूलम्

मन्त्राभिमन्त्रितं शस्तं न च पर्युषितं नृप।
अन्यत्र फलमूलेभ्यश्शुष्कशाखादिकात्तथा॥ ८४॥
तद्वद्धारीतकेभ्यश्च गुडभक्ष्येभ्य एव च।
भुञ्जीतोद्‍धृतसाराणि न कदापि नरेश्वर॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! जो अन्न मन्त्रपूत और प्रशस्त हो तथा जो बासी न हो उसीको भोजन करे। परंतु फल, मूल और सूखी शाखाओंको तथा बिना पकाये हुए लेह्य (चटनी) आदि और गुड़के पदार्थोंके लिये ऐसा नियम नहीं है। हे नरेश्वर! सारहीन पदार्थोंको कभी न खाय॥ ८४-८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाशेषं पुरुषोऽश्नीयादन्यत्र जगतीपते।
मध्वम्बुदधिसर्पिभ्यस्सक्तुभ्यश्च विवेकवान‍्॥ ८६॥

मूलम्

नाशेषं पुरुषोऽश्नीयादन्यत्र जगतीपते।
मध्वम्बुदधिसर्पिभ्यस्सक्तुभ्यश्च विवेकवान‍्॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पृथिवीपते! विवेकी पुरुष मधु, जल, दही, घी और सत्तूके सिवा और किसी पदार्थको पूरा न खाय॥ ८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्नीयात्तन्मयो भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम्।
लवणाम्लौ तथा मध्ये कटुतिक्तादिकांस्ततः॥ ८७॥

मूलम्

अश्नीयात्तन्मयो भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम्।
लवणाम्लौ तथा मध्ये कटुतिक्तादिकांस्ततः॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन एकाग्रचित्त होकर करे तथा प्रथम मधुररस, फिर लवण और अम्ल (खट्टा)-रस तथा अन्तमें कटु और तीखे पदार्थोंको खाय॥ ८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राग्द्रवं पुरुषोऽश्नीयान्मध्ये कठिनभोजनः।
अन्ते पुनर्द्रवाशी तु बलारोग्ये न मुञ्चति॥ ८८॥

मूलम्

प्राग्द्रवं पुरुषोऽश्नीयान्मध्ये कठिनभोजनः।
अन्ते पुनर्द्रवाशी तु बलारोग्ये न मुञ्चति॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष पहले द्रव पदार्थोंको, बीचमें कठिन वस्तुओंको तथा अन्तमें फिर द्रव पदार्थोंको ही खाता है वह कभी बल तथा आरोग्यसे हीन नहीं होता॥ ८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिन्द्यं भक्षयेदित्थं वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।
पञ्चग्रासं महामौनं प्राणाद्याप्यायनं हि तत्॥ ८९॥

मूलम्

अनिन्द्यं भक्षयेदित्थं वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।
पञ्चग्रासं महामौनं प्राणाद्याप्यायनं हि तत्॥ ८९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वाणीका संयम करके अनिषिद्ध अन्न भोजन करे। अन्नकी निन्दा न करे। प्रथम पाँच ग्रास अत्यन्त मौन होकर ग्रहण करे, उनसे पंचप्राणोंकी तृप्ति होती है॥ ८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्त्वा सम्यगथाचम्य प्राङ्मुखोदङ्मुखोऽपि वा।
यथावत्पुनराचामेत्पाणी प्रक्षाल्य मूलतः॥ ९०॥

मूलम्

भुक्त्वा सम्यगथाचम्य प्राङ्मुखोदङ्मुखोऽपि वा।
यथावत्पुनराचामेत्पाणी प्रक्षाल्य मूलतः॥ ९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजनके अनन्तर भली प्रकार आचमन करे और फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके हाथोंको उनके मूलदेशतक धोकर विधिपूर्वक आचमन करे॥ ९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्थः प्रशान्तचित्तस्तु कृतासनपरिग्रहः।
अभीष्टदेवतानां तु कुर्वीत स्मरणं नरः॥ ९१॥

मूलम्

स्वस्थः प्रशान्तचित्तस्तु कृतासनपरिग्रहः।
अभीष्टदेवतानां तु कुर्वीत स्मरणं नरः॥ ९१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर स्वस्थ और शान्त-चित्तसे आसनपर बैठकर अपने इष्टदेवोंका चिन्तन करे॥ ९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निराप्याययेद्धातुं पार्थिवं पवनेरितः।
दत्तावकाशं नभसा जरयत्वस्तु मे सुखम्॥ ९२॥

मूलम्

अग्निराप्याययेद्धातुं पार्थिवं पवनेरितः।
दत्तावकाशं नभसा जरयत्वस्तु मे सुखम्॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

[और इस प्रकार कहे—] ‘‘[ प्राणरूप ] पवनसे प्रज्वलित हुआ जठराग्नि आकाशके द्वारा अवकाशयुक्त अन्नका परिपाक करे और [फिर अन्नरससे] मेरे शरीरके पार्थिव धातुओंको पुष्ट करे जिससे मुझे सुख प्राप्त हो॥ ९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं बलाय मे भूमेरपामग्न्यनिलस्य च।
भवत्येतत्परिणतं ममास्त्वव्याहतं सुखम्॥ ९३॥

मूलम्

अन्नं बलाय मे भूमेरपामग्न्यनिलस्य च।
भवत्येतत्परिणतं ममास्त्वव्याहतं सुखम्॥ ९३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अन्न मेरे शरीरस्थ पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका बल बढ़ानेवाला हो और इन चारों तत्त्वोंके रूपमें परिणत हुआ यह अन्न ही मुझे निरन्तर सुख देनेवाला हो॥ ९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणापानसमानानामुदानव्यानयोस्तथा।
अन्नं पुष्टिकरं चास्तु ममाप्यव्याहतं सुखम्॥ ९४॥

मूलम्

प्राणापानसमानानामुदानव्यानयोस्तथा।
अन्नं पुष्टिकरं चास्तु ममाप्यव्याहतं सुखम्॥ ९४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अन्न मेरे प्राण, अपान, समान, उदान और व्यानकी पुष्टि करे तथा मुझे भी निर्बाध सुखकी प्राप्ति हो॥ ९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगस्तिरग्निर्बडवानलश्च
भुक्तं मयान्नं जरयत्वशेषम्।
सुखं च मे तत्परिणामसम्भवं
यच्छन्त्वरोगो मम चास्तु देहे॥ ९५॥

मूलम्

अगस्तिरग्निर्बडवानलश्च
भुक्तं मयान्नं जरयत्वशेषम्।
सुखं च मे तत्परिणामसम्भवं
यच्छन्त्वरोगो मम चास्तु देहे॥ ९५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे खाये हुए सम्पूर्ण अन्नका अगस्ति नामक अग्नि और बडवानल परिपाक करें, मुझे उसके परिणामसे होनेवाला सुख प्रदान करें और उससे मेरे शरीरको आरोग्यता प्राप्त हो॥ ९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुस्समस्तेन्द्रियदेहदेही
प्रधानभूतो भगवान‍्यथैकः।
सत्येन तेनात्तमशेषमन्न-
मारोग्यदं मे परिणाममेतु॥ ९६॥

मूलम्

विष्णुस्समस्तेन्द्रियदेहदेही
प्रधानभूतो भगवान‍्यथैकः।
सत्येन तेनात्तमशेषमन्न-
मारोग्यदं मे परिणाममेतु॥ ९६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देह और इन्द्रियादिके अधिष्ठाता एकमात्र भगवान‍् विष्णु ही प्रधान हैं’— इस सत्यके बलसे मेरा खाया हुआ समस्त अन्न परिपक्व होकर मुझे आरोग्यता प्रदान करे॥ ९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुरत्ता तथैवान‍्नं परिणामश्च वै तथा।
सत्येन तेन मद्भुक्तं जीर्यत्वन्नमिदं तथा॥ ९७॥

मूलम्

विष्णुरत्ता तथैवान‍्नं परिणामश्च वै तथा।
सत्येन तेन मद्भुक्तं जीर्यत्वन्नमिदं तथा॥ ९७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भोजन करनेवाला, भोज्य अन्न और उसका परिपाक—ये सब विष्णु ही है’—इस सत्य भावनाके बलसे मेरा खाया हुआ यह अन्न पच जाय’’॥ ९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युच्चार्य स्वहस्तेन परिमृज्य तथोदरम्।
अनायासप्रदायीनि कुर्यात्कर्माण्यतन्द्रितः॥ ९८॥

मूलम्

इत्युच्चार्य स्वहस्तेन परिमृज्य तथोदरम्।
अनायासप्रदायीनि कुर्यात्कर्माण्यतन्द्रितः॥ ९८॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर अपने उदरपर हाथ फेरे और सावधान होकर अधिक श्रम उत्पन्न न करनेवाले कार्योंमें लग जाय॥ ९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच्छास्त्रादिविनोदेन सन्मार्गादविरोधिना।
दिनं नयेत्ततस्सन्ध्यामुपतिष्ठेत्समाहितः॥ ९९॥

मूलम्

सच्छास्त्रादिविनोदेन सन्मार्गादविरोधिना।
दिनं नयेत्ततस्सन्ध्यामुपतिष्ठेत्समाहितः॥ ९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सच्छास्त्रोंका अवलोकन आदि सन्मार्गके अविरोधी विनोदोंसे शेष दिनको व्यतीत करे और फिर सायंकालके समय सावधानतापूर्वक सन्ध्योपासन करे॥ ९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनान्तसन्ध्यां सूर्येण पूर्वामृक्षैर्युतां बुधः।
उपतिष्ठेद्यथान्याय्यं सम्यगाचम्य पार्थिव॥ १००॥

मूलम्

दिनान्तसन्ध्यां सूर्येण पूर्वामृक्षैर्युतां बुधः।
उपतिष्ठेद्यथान्याय्यं सम्यगाचम्य पार्थिव॥ १००॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि सायंकालके समय सूर्यके रहते हुए और प्रातःकाल तारागणके चमकते हुए ही भली प्रकार आचमनादि करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासन करे॥ १००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकालमुपस्थानं सन्ध्ययोः पार्थिवेष्यते।
अन्यत्र सूतकाशौचविभ्रमातुरभीतितः॥ १०१॥

मूलम्

सर्वकालमुपस्थानं सन्ध्ययोः पार्थिवेष्यते।
अन्यत्र सूतकाशौचविभ्रमातुरभीतितः॥ १०१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पार्थिव! सूतक (पुत्र-जन्मादिसे होनेवाली अशुचिता), अशौच (मृत्युसे होनेवाली अशुचिता), उन्माद, रोग और भय आदि कोई बाधा न हो तो प्रतिदिन ही सन्ध्योपासन करना चाहिये॥ १०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्येणाभ्युदितो यश्च त्यक्तः सूर्येण वा स्वपन्।
अन्यत्रातुरभावात्तु प्रायश्चित्ती भवेन्नरः॥ १०२॥

मूलम्

सूर्येणाभ्युदितो यश्च त्यक्तः सूर्येण वा स्वपन्।
अन्यत्रातुरभावात्तु प्रायश्चित्ती भवेन्नरः॥ १०२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष रुग्णावस्थाको छोड़कर और कभी सूर्यके उदय अथवा अस्तके समय सोता है वह प्रायश्चित्तका भागी होता है॥ १०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादनुदिते सूर्ये समुत्थाय महीपते।
उपतिष्ठेन्नरस्सन्ध्यामस्वपंश्च दिनान्तजाम्॥ १०३॥

मूलम्

तस्मादनुदिते सूर्ये समुत्थाय महीपते।
उपतिष्ठेन्नरस्सन्ध्यामस्वपंश्च दिनान्तजाम्॥ १०३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे महीपते! गृहस्थ पुरुष सूर्योदयसे पूर्व ही उठकर प्रातःसन्ध्या करे और सायंकालमें भी तत्कालीन सन्ध्यावन्दन करे; सोवे नहीं॥ १०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपतिष्ठन्ति वै सन्ध्यां येनपूर्वां न पश्चिमाम्।
व्रजन्ति ते दुरात्मानस्तामिस्रं नरकं नृप॥ १०४॥

मूलम्

उपतिष्ठन्ति वै सन्ध्यां येनपूर्वां न पश्चिमाम्।
व्रजन्ति ते दुरात्मानस्तामिस्रं नरकं नृप॥ १०४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! जो पुरुष प्रातः अथवा सायंकालीन सन्ध्योपासन नहीं करते वे दुरात्मा अन्धतामिस्र नरकमें पड़ते हैं॥ १०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनः पाकमुपादाय सायमप्यवनीपते।
वैश्वदेवनिमित्तं वै पत्न्यमन्त्रं बलिं हरेत्॥ १०५॥
तत्रापि श्वपचादिभ्यस्तथैवान‍्नविसर्जनम्॥ १०६॥

मूलम्

पुनः पाकमुपादाय सायमप्यवनीपते।
वैश्वदेवनिमित्तं वै पत्न्यमन्त्रं बलिं हरेत्॥ १०५॥
तत्रापि श्वपचादिभ्यस्तथैवान‍्नविसर्जनम्॥ १०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हे पृथिवीपते! सायंकालके समय सिद्ध किये हुए अन्नसे गृहपत्नी मन्त्रहीन बलिवैश्वदेव करे; उस समय भी उसी प्रकार श्वपच आदिके लिये अन्नदान किया जाता है॥ १०५-१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिं चागतं तत्र स्वशक्त्या पूजयेद् बुधः।
पादशौचासनप्रह्वस्वागतोक्त्या च पूजनम्।
ततश्चान्नप्रदानेन शयनेन च पार्थिव॥ १०७॥

मूलम्

अतिथिं चागतं तत्र स्वशक्त्या पूजयेद् बुधः।
पादशौचासनप्रह्वस्वागतोक्त्या च पूजनम्।
ततश्चान्नप्रदानेन शयनेन च पार्थिव॥ १०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष उस समय आये हुए अतिथिका भी सामर्थ्यानुसार सत्कार करे। हे राजन्! प्रथम पाँव धुलाने, आसन देने और स्वागतसूचक विनम्र वचन कहनेसे तथा फिर भोजन कराने और शयन करानेसे अतिथिका सत्कार किया जाता है॥ १०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवातिथौ तु विमुखे गते यत्पातकं नृप।
तदेवाष्टगुणं पुंसस्सूर्योढे विमुखे गते॥ १०८॥

मूलम्

दिवातिथौ तु विमुखे गते यत्पातकं नृप।
तदेवाष्टगुणं पुंसस्सूर्योढे विमुखे गते॥ १०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! दिनके समय अतिथिके लौट जानेसे जितना पाप लगता है उससे आठगुना पाप सूर्यास्तके समय लौटनेसे होता है॥ १०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्स्वशक्त्या राजेन्द्र सूर्योढमतिथिं नरः।
पूजयेत्पूजिते तस्मिन्पूजितास्सर्वदेवताः॥ १०९॥

मूलम्

तस्मात्स्वशक्त्या राजेन्द्र सूर्योढमतिथिं नरः।
पूजयेत्पूजिते तस्मिन्पूजितास्सर्वदेवताः॥ १०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे राजेन्द्र! सूर्यास्तके समय आये हुए अतिथिका गृहस्थ पुरुष अपनी सामर्थ्यानुसार अवश्य सत्कार करे क्योंकि उसका पूजन करनेसे ही समस्त देवताओंका पूजन हो जाता है॥ १०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नशाकाम्बुदानेन स्वशक्त्या पूजयेत्पुमान्।
शयनप्रस्तरमहीप्रदानैरथवापि तम्॥ ११०॥

मूलम्

अन्नशाकाम्बुदानेन स्वशक्त्या पूजयेत्पुमान्।
शयनप्रस्तरमहीप्रदानैरथवापि तम्॥ ११०॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि अपनी शक्तिके अनुसार उसे भोजनके लिये अन्न, शाक या जल देकर तथा सोनेके लिये शय्या या घास-फूसका बिछौना अथवा पृथिवी ही देकर उसका सत्कार करे॥ ११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतपादादिशौचस्तु भुक्त्वा सायं ततो गृही।
गच्छेच्छय्यामस्फुटितामपि दारुमयीं नृप॥ १११॥

मूलम्

कृतपादादिशौचस्तु भुक्त्वा सायं ततो गृही।
गच्छेच्छय्यामस्फुटितामपि दारुमयीं नृप॥ १११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! तदनन्तर गृहस्थ पुरुष सायंकालका भोजन करके तथा हाथ-पाँव धोकर छिद्रादिहीन काष्ठमय शय्यापर लेट जाय॥ १११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाविशालां न वै भग्नां नासमां मलिनां न च।
न च जन्तुमयीं शय्यामधितिष्ठेदनास्तृताम्॥ ११२॥

मूलम्

नाविशालां न वै भग्नां नासमां मलिनां न च।
न च जन्तुमयीं शय्यामधितिष्ठेदनास्तृताम्॥ ११२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो काफी बड़ी न हो, टूटी हुई हो, ऊँची-नीची हो, मलिन हो अथवा जिसमें जीव हों या जिसपर कुछ बिछा हुआ न हो उस शय्यापर न सोवे॥ ११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राच्यां दिशि शिरश्शस्तं याम्यायामथ वा नृप।
सदैव स्वपतः पुंसो विपरीतं तु रोगदम्॥ ११३॥

मूलम्

प्राच्यां दिशि शिरश्शस्तं याम्यायामथ वा नृप।
सदैव स्वपतः पुंसो विपरीतं तु रोगदम्॥ ११३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! सोनेके समय सदा पूर्व अथवा दक्षिणकी ओर सिर रखना चाहिये। इनके विपरीत दिशाओंकी ओर सिर रखनेसे रोगोंकी उत्पत्ति होती है॥ ११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतावुपगमश्शस्तस्स्वपत्न्यामवनीपते।
पुन्नामर्क्षे शुभे काले ज्येष्ठायुग्मासु रात्रिषु॥ ११४॥

मूलम्

ऋतावुपगमश्शस्तस्स्वपत्न्यामवनीपते।
पुन्नामर्क्षे शुभे काले ज्येष्ठायुग्मासु रात्रिषु॥ ११४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पृथ्वीपते! ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे संग करना उचित है। पुल्लिंग नक्षत्रमें युग्म और उनमें भी पीछेकी रात्रियोंमें शुभ समयमें स्त्रीप्रसंग करे॥ ११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाद्यूनां तु स्त्रियं गच्छेन्नातुरां न रजस्वलाम्।
नानिष्टां न प्रकुपितां न त्रस्तां न च गर्भिणीम्॥ ११५॥

मूलम्

नाद्यूनां तु स्त्रियं गच्छेन्नातुरां न रजस्वलाम्।
नानिष्टां न प्रकुपितां न त्रस्तां न च गर्भिणीम्॥ ११५॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु यदि स्त्री अप्रसन्ना, रोगिणी, रजस्वला, निरभिलाषिणी, क्रोधिता, दुःखिनी अथवा गर्भिणी हो तो उसका संग न करे॥ ११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नादक्षिणांनान्यकामांनाकामांनान्ययोषितम्।
क्षुत्क्षामां नातिभुक्तां वा स्वयं चैभिर्गुणैर्युतः॥ ११६॥

मूलम्

नादक्षिणांनान्यकामांनाकामांनान्ययोषितम्।
क्षुत्क्षामां नातिभुक्तां वा स्वयं चैभिर्गुणैर्युतः॥ ११६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सीधे स्वभावकी न हो, पराभिलाषिणी अथवा निरभिलाषिणी हो, क्षुधार्ता हो, अधिक भोजन किये हुए हो अथवा परस्त्री हो उसके पास न जाय; और यदि अपनेमें ये दोष हों तो भी स्त्रीगमन न करे॥ ११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातस्स्रग्गन्धधृक्प्रीतो नाध्मातः क्षुधितोऽपि वा।
सकामस्सानुरागश्च व्यवायं पुरुषो व्रजेत्॥ ११७॥

मूलम्

स्नातस्स्रग्गन्धधृक्प्रीतो नाध्मातः क्षुधितोऽपि वा।
सकामस्सानुरागश्च व्यवायं पुरुषो व्रजेत्॥ ११७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषको उचित है कि स्नान करनेके अनन्तर माला और गन्ध धारण कर काम और अनुरागयुक्त होकर स्त्रीगमन करे। जिस समय अति भोजन किया हो अथवा क्षुधित हो उस समय उसमें प्रवृत्त न हो॥ ११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्दश्यष्टमी चैव तथामा चाथ पूर्णिमा।
पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च॥ ११८॥

मूलम्

चतुर्दश्यष्टमी चैव तथामा चाथ पूर्णिमा।
पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च॥ ११८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजेन्द्र! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा और सूर्यकी संक्रान्ति—ये सब पर्वदिन हैं॥ ११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैलस्त्रीमांससम्भोगी सर्वेष्वेतेषु वै पुमान्।
विण्मूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः॥ ११९॥

मूलम्

तैलस्त्रीमांससम्भोगी सर्वेष्वेतेषु वै पुमान्।
विण्मूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः॥ ११९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पर्वदिनोंमें तैल, स्त्री अथवा मांसका भोग करनेवाला पुरुष मरनेपर विष्ठा और मूत्रसे भरे नरकमें पड़ता है॥ ११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशेषपर्वस्वेतेषु तस्मात्संयमिभिर्बुधैः।
भाव्यं सच्छास्त्रदेवेज्याध्यानजप्यपरैर्नरैः॥ १२०॥

मूलम्

अशेषपर्वस्वेतेषु तस्मात्संयमिभिर्बुधैः।
भाव्यं सच्छास्त्रदेवेज्याध्यानजप्यपरैर्नरैः॥ १२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

संयमी और बुद्धिमान् पुरुषोंको इन समस्त पर्वदिनोंमें सच्छास्त्रावलोकन, देवोपासना, यज्ञानुष्ठान, ध्यान और जप आदिमें लगे रहना चाहिये॥ १२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्ययोनावयोनौ वा नोपयुक्तौषधस्तथा।
द्विजदेवगुरूणां च व्यवायी नाश्रमे भवेत्॥ १२१॥

मूलम्

नान्ययोनावयोनौ वा नोपयुक्तौषधस्तथा।
द्विजदेवगुरूणां च व्यवायी नाश्रमे भवेत्॥ १२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौ-छाग आदि अन्य योनियोंसे, अयोनियोंसे, औषध-प्रयोगसे अथवा ब्राह्मण, देवता और गुरुके आश्रमोंमें कभी मैथुन न करे॥ १२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चैत्यचत्वरतीर्थेषु नैव गोष्ठे चतुष्पथे।
नैव श्मशानोपवने सलिलेषु महीपते॥ १२२॥

मूलम्

चैत्यचत्वरतीर्थेषु नैव गोष्ठे चतुष्पथे।
नैव श्मशानोपवने सलिलेषु महीपते॥ १२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पृथिवीपते! चैत्यवृक्षके नीचे, आँगनमें, तीर्थमें, पशुशालामें, चौराहेपर, श्मशानमें, उपवनमें अथवा जलमें भी मैथुन करना उचित नहीं है॥ १२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रोक्तपर्वस्वशेषेषु नैव भूपाल सन्ध्ययोः।
गच्छेद्व्यवायं मतिमान्न मूत्रोच्चारपीडितः॥ १२३॥

मूलम्

प्रोक्तपर्वस्वशेषेषु नैव भूपाल सन्ध्ययोः।
गच्छेद्व्यवायं मतिमान्न मूत्रोच्चारपीडितः॥ १२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राजन्! पूर्वोक्त समस्त पर्वदिनोंमें प्रातःकाल और सायंकालमें तथा मल-मूत्रके वेगके समय बुद्धिमान् पुरुष मैथुनमें प्रवृत्त न हो॥ १२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्वस्वभिगमोऽधन्यो दिवा पापप्रदो नृप।
भुवि रोगावहो नॄणामप्रशस्तो जलाशये॥ १२४॥

मूलम्

पर्वस्वभिगमोऽधन्यो दिवा पापप्रदो नृप।
भुवि रोगावहो नॄणामप्रशस्तो जलाशये॥ १२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नृप! पर्वदिनोंमें स्त्रीगमन करनेसे धनकी हानि होती है; दिनमें करनेसे पाप होता है, पृथिवीपर करनेसे रोग होते हैं और जलाशयमें स्त्रीप्रसंग करनेसे अमंगल होता है॥ १२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदारान्न गच्छेच्च मनसापि कथञ्चन।
किमु वाचास्थिबन्धोऽपि नास्ति तेषु व्यवायिनाम्॥ १२५॥

मूलम्

परदारान्न गच्छेच्च मनसापि कथञ्चन।
किमु वाचास्थिबन्धोऽपि नास्ति तेषु व्यवायिनाम्॥ १२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

परस्त्रीसे तो वाणीसे क्या, मनसे भी प्रसंग न करे, क्योंकि उनसे मैथुन करनेवालोंको अस्थि-बन्धन भी नहीं होता [अर्थात् उन्हें अस्थिशून्य कीटादि होना पड़ता है]॥ १२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृतो नरकमभ्येति हीयतेऽत्रापि चायुषः।
परदाररतिः पुंसामिह चामुत्र भीतिदा॥ १२६॥

मूलम्

मृतो नरकमभ्येति हीयतेऽत्रापि चायुषः।
परदाररतिः पुंसामिह चामुत्र भीतिदा॥ १२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

परस्त्रीकी आसक्ति पुरुषको इहलोक और परलोक दोनों जगह भय देनेवाली है; इहलोकमें उसकी आयु क्षीण हो जाती है और मरनेपर वह नरकमें जाता है॥ १२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मत्वा स्वदारेषु ऋतुमत्सु बुधो व्रजेत्।
यथोक्तदोषहीनेषु सकामेष्वनृतावपि॥ १२७॥

मूलम्

इति मत्वा स्वदारेषु ऋतुमत्सु बुधो व्रजेत्।
यथोक्तदोषहीनेषु सकामेष्वनृतावपि॥ १२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा जानकर बुद्धिमान् पुरुष उपरोक्त दोषोंसे रहित अपनी स्त्रीसे ही ऋतुकालमें प्रसंग करे तथा उसकी विशेष अभिलाषा हो तो बिना ऋतुकालके भी गमन करे॥ १२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे एकादशोऽध्यायः॥ ११॥